भगवान ने कहा —
“कुशल [स्वभाव] को बढ़ाओ! कुशल को बढ़ाया जा सकता है। यदि कुशल को बढ़ाया नहीं जा सकता, तो मैं तुमसे यह न कहता—“कुशल को बढ़ाओ!” परंतु क्योंकि कुशल को बढ़ाया जा सकता है, इसलिए मैं तुमसे कहता हूँ—“कुशल को बढ़ाओ!”
यदि कुशल को बढ़ाना अहितकर या कष्टदायक होता, तो मैं तुमसे यह न कहता—“कुशल को बढ़ाओ!” परंतु क्योंकि कुशल को बढ़ाना हितकर और सुखदायक है, इसलिए मैं तुमसे कहता हूँ—“कुशल को बढ़ाओ!”
— अङ्गुत्तरनिकाय २:१९
लेकिन ये कुशल स्वभाव क्या होते हैं? भगवान बताते हैं —
“यदि आप मेरे बारे में सोचते हैं कि ‘भगवान कृपालु और हितैषी हैं। और, वे कृपा कर हमें धर्म बताते हैं।’ तब मैंने प्रत्यक्ष-ज्ञान से जो धर्म बताए हैं, जैसे —
- चार स्मृतिप्रस्थान »
- चार सम्यक परिश्रम »
- चार ऋद्धिपद »
- पाँच इन्द्रिय »
- पाँच बल »
- सात संबोध्यङ्ग »
- आर्य अष्टांगिक मार्ग »
उन्हें तुम सभी को मिल-जुलकर एकत्र होकर, बिना विवाद किए सीखना चाहिए। ताकि यह ब्रह्मचर्य [दूर-दराज] यात्रा के योग्य और चिरस्थायी बना रहे — जो बहुजनों के हित के लिए, बहुजनों के सुख के लिए, इस दुनिया पर उपकार करते हुए, देव और मानव के कल्याण, हित, और सुख के लिए होगा।”
—मज्झिमनिकाय १०३: किन्तिसुत्त, दीघनिकाय २९ : पासादिक सुत्त
भगवान बुद्ध ने अपने जीवन की यात्रा में जो अमूल्य ज्ञान दिया, उसमें कुछ शिक्षाएँ ऐसी थीं जिन्हें उन्होंने स्वयं सबसे अधिक महत्वपूर्ण माना। इन्हीं शिक्षाओं को बोधिपक्खिय धम्म कहा गया — अर्थात वे ३७ विशेष धर्म जो बोधि की प्राप्ति में सहायक होते हैं, जैसे बोधि के पंख।
इन “पंखों” में वे विशेष गुण समाहित हैं जिन्हें हर साधक को आत्मसात करना चाहिए — न केवल अपने आध्यात्मिक उन्नति के लिए, बल्कि अपना धार्मिक दायित्व पूरा करते हुए इस ज्ञान को दूसरों तक पहुँचाने के लिए।
भगवान बुद्ध ने अपने जीवन के अंतिम क्षणों में कहा था कि जब तक ये ३७ शिक्षाएँ याद रखी जाएंगी, तब तक उनका संदेश इस पृथ्वी पर जीवित रहेगा। और जब तक ये शिक्षाएँ जीवन में उतारी जाएँगी, तब तक लोग इस संसार में मुक्ति की ओर अग्रसर होते रहेंगे।
तो आइए, इन बोधि के पंखों को धारण कर हम भी मुक्ति की दिशा में उड़ान भरें।