लुम्बिनी वह पवित्र स्थल है जहाँ सिद्धार्थ गौतम का जन्म हुआ था। उस समय यह क्षेत्र शाक्यों का राज्य था, जिसकी राजधानी कपिलवस्तु थी। यह घटना वैशाख पूर्णिमा के दिन हुई थी, जिसे बौद्ध परंपराओं में विशेष महत्व प्राप्त है।
प्राचीन सूत्रों में सिद्धार्थ के जन्म की घटनाओं का विवरण मिलता है, जहाँ यह वर्णित है कि माया देवी ने लुम्बिनी वन में एक साल वृक्ष की टहनी पकड़कर सिद्धार्थ को जन्म दिया।
लुम्बिनी, जो आज नेपाल के रूपन्देही जिले में स्थित है, भारत की सीमा के पास है और इसे आधुनिक युग में भी बौद्ध धर्मावलंबियों के लिए एक प्रमुख तीर्थ स्थल माना जाता है।
आज यह माया देवी विहार उसी जगह पर स्थित है, जहाँ सिद्धार्थ गौतम ने जन्म लिया। यह विहार बुद्ध की माता ‘माया’ को समर्पित है। यहाँ पर गर्भावस्था के दौरान माया देवी के स्वप्न में आए श्वेत हाथी और सिद्धार्थ के जन्म की घटनाओं को भव्य रूप में दर्शाया गया है।
इसके अतिरिक्त, लुम्बिनी में कई अर्हन्तों के स्तूप भी मौजूद हैं, जो प्राचीन काल में बौद्ध धर्म के महान संतों की स्मृति में बनाए गए थे। यह स्थल न केवल ऐतिहासिक महत्व रखता है, बल्कि यहाँ हर वर्ष लाखों श्रद्धालु आते हैं, जो भगवान बुद्ध के जन्म स्थल का दर्शन करके उनके जीवन और शिक्षाओं से प्रेरणा प्राप्त करते हैं।
यूनेस्को ने इसे विश्व धरोहर स्थल के रूप में मान्यता दी है, जिससे इसकी पवित्रता और ऐतिहासिकता और अधिक महत्वपूर्ण हो गई है। सम्राट अशोक ने अपनी लुम्बिनी यात्रा के दौरान यहाँ एक ऐतिहासिक स्तंभ स्थापित किया था:
यह अशोकस्तंभ प्राचीन ‘ब्रह्मी’ लिपि में उत्कीर्ण है, जिसमें बुद्ध के जन्मस्थान का उल्लेख किया गया है। यह स्तंभ महावंश और दीपवंश जैसी ग्रंथों में भी उल्लेखित है, और इसे थेरवाद अनुयायियों के लिए एक महत्वपूर्ण ऐतिहासिक प्रमाण माना जाता है। अशोक द्वारा स्थापित यह स्तंभ थेरवाद, महायान, और वज्रयान सभी बौद्ध अनुयायियों के लिए समान रूप से पूजनीय है।
बोधगया वह पवित्र स्थल है जहाँ सिद्धार्थ गौतम बोधि प्राप्त कर बुद्ध बने। यहाँ स्थित बोधि वृक्ष के नीचे ही बुद्ध ने संपूर्ण मुक्ति पायी। वह बोधिवृक्ष दरअसल एक पीपल का पेड़ है, जो ऐतिहासिक और धार्मिक रूप से अत्यधिक महत्वपूर्ण है। यह धर्म के प्रति संपूर्ण समर्पण का प्रतीक बन गया है।
कहते हैं कि इसी जगह वह पुरातन बोधिवृक्ष खड़ा था। लेकिन उसे नष्ट करने की कई बार कोशिश की गई। सम्राट अशोक की पत्नी तिष्यरक्षिता ने ईर्ष्या के मारे उसे कटवा दिया, लेकिन अशोक ने उसे पुनः स्थापित किया। बाद में राजा शशांक ने भी इसे नष्ट करने का प्रयास किया, पर हर बार इस वृक्ष को नया जीवन मिलते रहा।
आज का बोधिवृक्ष उसी मूल वृक्ष की शाखा से उत्पन्न है, जिसे अशोक की सन्तान भिक्षु महेंद्र और भिक्षुणी संघमित्रा श्रीलंका ले गए थे। वहाँ उसका मूल अंश, आज भी, अनुराधापुर में पूजित होता है।
इस परिसर को सम्राट अशोक ने विकसित कर ‘महाबोधि विहार’ का रूप दिया।
महाबोधि विहार बौद्ध धर्म का सबसे महत्वपूर्ण स्थल है। इसका निर्माण सम्राट अशोक ने तीसरी शताब्दी ईसा पूर्व में कराया था। वर्तमान संरचना पाँचवीं-छठी शताब्दी की है, जिसमें १८० फीट ऊँचा शिखर स्थापित है। उसके शिखर पर थायलैंड के राजा द्वारा चढ़ावा दिए ३०० किलो शुद्ध स्वर्ण स्थापित किया गया है।
यह विहार भारतीय वास्तुकला का अनुपम उदाहरण है और इसका धार्मिक महत्व अतुलनीय है। हर वर्ष लाखों श्रद्धालु यहाँ बोधि वृक्ष के समक्ष ध्यान करते हैं और बुद्ध की संबोधि प्राप्ति की स्मृति में पूजा करते हैं। २००२ में इसे यूनेस्को द्वारा विश्व धरोहर स्थल के रूप में मान्यता प्राप्त हुई।
महाबोधि विहार के भीतर बुद्ध की ध्यानमग्न मूर्ति स्थापित है, जो ध्यान और बौद्ध शिक्षाओं के प्रति समर्पण का प्रतीक है। प्राचीनकाल से बोधगया बौद्ध धर्म के अनुयायियों के लिए अटूट श्रद्धा और प्रेरणा का स्रोत रहा है, और आज भी यह स्थल वैश्विक तीर्थ यात्रा का केंद्र है।
भगवान बुद्ध की प्रथम उपदेश स्थली, सारनाथ, का बौद्ध इतिहास में अत्यधिक महत्व है। उनके प्रथम उपदेश को ‘धर्मचक्र प्रवर्तन’ कहा जाता है। यही देवताओं और मानवों को बुद्ध का धर्म पता चला। यही उन्होने पहली बार कुछ भिक्षुओं को विमुक्ति का स्वाद चखाया और आर्यसंघ की स्थापना की।
इसके प्रमुख स्मारक जैसे धम्मेक स्तूप, चौखंडी स्तूप और अशोक स्तंभ इस स्थल की ऐतिहासिक और धार्मिक धरोहर को दर्शाते हैं।
इसका नाम “धम्म” और “इक” से बना है , अर्थात, धर्म का चक्र घुमाना। यही वह पवित्र स्थल है, जहाँ बुद्ध ने अपने प्राथमिक शिष्यों को अमृत धर्म का पहला उपदेश दिया।
यह स्तूप विशाल है, जिसकी ऊँचाई लगभग ४३.६ मीटर है, और व्यास २८ मीटर के आसपास है। स्तूप के निचले भाग पर सुंदर अलंकरण और खुदाई की गई है, जो ५वीं-६ठी शताब्दी की कारीगरी को दर्शाते हैं।
यह स्तूप बौद्ध अनुयायियों के लिए अत्यधिक पवित्र है। जहाँ बुद्ध एक रत्न थे, वही इस विश्व में उनके अलावा दो और रत्न प्रादुर्भूत हुए। इसी जगह दुनिया को दूसरे रत्न “धर्म” के बारे में पता चला। और जिन्होने उस दूसरे रत्न का साक्षात्कार किया, वे आर्यफल पाकर तीसरे रत्न “संघ” बनें। यही से धर्म का प्रचार आरंभ हुआ, और उनका संघ भी खड़ा हुआ, जो बढ़ता ही चला गया।
धम्मचक्र प्रवर्तन की घटना बौद्ध धर्म के प्रारंभिक क्षणों का प्रतीक है। तीनों रत्नों का प्राथमिक उदयस्थल देखने के लिए हर साल दुनिया भर से लाखों श्रद्धालु आते हैं।
यही ‘चौखंडी स्तूप’ वह स्थान है, जहाँ भगवान बुद्ध ने अपने प्राथमिक शिष्यों ‘पञ्चवर्गीय भिक्षुओं’ से पहली बार मुलाकात की। यह चौखंडी स्तूप दो रत्नों के प्रकट होने के प्रारंभिक चरणों की ओर इशारा करता है।
यह स्तूप एक ऊँचे टीले पर बना है, जो दूर से ही आकर्षित करता है। इसका शीर्ष भाग एक चौकोर मंडप के रूप में है, जिसे मुगल शासक हुमायूँ के आगमन की स्मृति में बनवाया गया। इसकी संरचना प्राचीन बौद्ध वास्तुकला की विशिष्टता को दर्शाती है।
सम्राट अशोक ने बौद्ध धर्म को व्यापक रूप से फैलाने का कार्य किया, और सारनाथ में उनकी उपस्थिति का सबसे प्रमुख उदाहरण है ‘अशोक स्तंभ’।
यह स्तंभ बौद्ध धर्म के साथ-साथ राष्ट्रीय प्रतीक के रूप में भी खड़ा है। इसके शीर्ष पर चार सिंहों की प्रतिमा है, जिन्हें सिंह शीर्ष कहा जाता है। आज यह भारत देश के गौरव और बौद्ध धर्म के प्रसार का प्रतीक बन गया है।
इस स्तंभ पर ब्रह्मी लिपि में लिखावट मिलती है। उस पर अंकित शिलालेख ‘सम्राट अशोक’ के धर्म-प्रचार और नैतिक आदर्शों की अभिव्यक्ति हैं। सिंह शीर्ष, जो आज सारनाथ संग्रहालय में सुरक्षित है, भारत की राष्ट्रीय, सांस्कृतिक और धार्मिक धरोहर का एक अमूल्य हिस्सा है।
उत्तर प्रदेश का कुशीनगर, उस समय कुसिनारा के नाम से जाना जाता था। वह मल्लों का प्रमुख नगर था। वहाँ हिरण्यवती नदी के तट पर एक शाल वृक्षों का उपवन था। उसी उपवन में भगवान बुद्ध ने अपने जीवन के अंतिम क्षण बिताए।
वैशाख पूर्णिमा की वह सुनहरी रात, जब जुड़वा शाल वृक्षों के बीच उनकी सिंह शैय्या का सिरहाना उत्तर दिशा की ओर रखा गया, एक अद्भुत दृश्य का साक्षी बनी। बुद्ध ने एक पैर दूसरे के ऊपर रखकर शांति की मुद्रा में लेटते हुए, हजारों श्रद्धालुओं को अंतिम दर्शन देना शुरू किया।
उस रात बुद्ध की काया एक दिव्य प्रकाश से जगमगा उठी। वे जुड़वा शाल वृक्ष बेमौसम खिल गए और पुष्पों की बारिश करने लगे, मानो उनकी अंतिम उपस्थिति को सम्मानित कर रहे हों। आसमान से दिव्य पुष्प और चंदन की वर्षा होने लगी, जैसे देवता अपनी श्रद्धांजलि अर्पित कर रहे हो। आकाश में दिव्य संगीत की मधुर ध्वनि गूंज उठी। दस चक्रवाल से देवता भगवान के अंतिम दर्शन के लिए उमड़ पड़े, और आकाश में एक भी स्थान खाली नहीं रहा। सभी देवता और मानव शोक में डूबे थे, लेकिन निर्वाण प्राप्त अर्हन्तों के मन में गहरी शांति थी।
भोर से ठीक पहले, एक संन्यासी ने प्रश्न किया। बुद्ध ने उसे उत्तर देकर संतुष्ट किया और उसे अपना अंतिम शिष्य बनाया। फिर भिक्षुसंघ के बीच अंतिम संवाद हुआ, जहाँ उन्होंने सभी को शंका निवारण का लंबा अवसर दिया, लेकिन शिष्यों की आस्था इतनी अडिग थी कि किसी को कोई प्रश्न नहीं था।
तब बुद्ध ने अपने शिष्यों को अंतिम उपदेश दिया—मुक्ति के मार्ग पर चलने का आह्वान किया। विभिन्न समाधि अवस्थाओं से गुजरते हुए, भगवान बुद्ध ने अंततः महापरिनिर्वाण प्राप्त किया।
यह स्थल, जहाँ उन्होंने अंतिम सांस ली, परिनिर्वाण स्थली के रूप में अमर हो गया। कुशीनगर में उनकी यह अंतिम यात्रा और महापरिनिर्वाण का क्षण बुद्ध धर्म के इतिहास में एक अनंत महत्व का प्रतीक बन गया।
उत्खनन करने के बाद, यहाँ परिनिर्वाण विहार बनाया गया है, जो चारों ओर से अनेक प्राचीन अर्हन्तों के स्तूप से घिरा हैं। पश्चिम में विहारों का समूह है, जबकि दक्षिण में अर्धस्तंभ सज्जा वाले अलंकृत ईंटों से निर्मित छोटे स्तूपों का समूह स्थित है। पूर्व की दिशा में दो तल वाला एक बड़ा चबूतरा और छोटे-छोटे स्तूप हैं, जबकि उत्तर में मनौती के स्तूपों और विहारों के अवशेष पाए गए हैं। इन सभी संरचनाओं की तिथि तीसरी शती ई.पू. से दसवीं शती ई. तक आंकी गई है।
भगवान बुद्ध के परिनिर्वाण के बाद, कुशीनगर के मल्लों ने छह दिनों तक उनके शरीर की पूजा और सत्कार करते रहें। सातवें दिन, भगवान के पार्थिव शरीर को कुशीनगर के पूर्व में ‘मुकुटबन्धन चैत्य’ के पास ले जाया गया।
यह परिनिर्वाण स्थल से लगभग दो किलोमीटर पूर्व में, हिरण्यवती नदी के किनारे स्थित है।
चार मल्लों ने स्नान करके नए वस्त्र धारण किए और भगवान की चिता को अग्नि देने का प्रयास किया, लेकिन वे सफल नहीं हुए। जब भंते महाकश्यप और उनके साथ पाँच सौ भिक्षु आए और उन्होने श्रद्धांजलि अर्पित की, तब चिता में स्वयं अग्नि लग गई।
अग्नि शांत होने पर उनकी अस्थियाँ अद्भुत धातुओं में परिवर्तित हो गईं, जिन्हें लेकर तत्कालीन आठ देशों के राजा आपस में विवाद करने लगे कि इनकी प्राप्ति का असली हकदार कौन है।
यह बहस तीव्र होने लगी, जिसे दोण नामक एक सम्मानित ब्राह्मण ने शांत किया। सभी राजाओं को संतुष्ट करने के लिए, उसने यहाँ इस जगह पर, बुद्ध की धातुओं को आठ बराबर भागों में विभाजित किया।
इसी जगह पर बुद्ध धातुओं को विभाजित किया गया। धातुओं के आठ भाग आठ राज्यों के शासकों को दिए गए। उन्होने अपने-अपने राज्यों में बुद्ध के सम्मान में स्तूपों का निर्माण कराया। दोण ब्राह्मण को भी अस्थि–कलश प्राप्त हुआ, जिस पर उसने भी स्तूप बनवाया। इसके अलावा, अस्थियों की राख भी पिप्फलिवन के मौर्य लोगों द्वारा एक स्तूप में संरक्षित की गई।
इन स्तूपों का उद्देश्य केवल श्रद्धांजलि अर्पित करने तक सीमित नहीं था। इनका मुख्य उद्देश्य यह था कि लोग यहाँ आकर भगवान बुद्ध के जीवन से प्रेरणा प्राप्त करें, और उनके धर्ममार्ग पर चलने का संकल्प लें। ऐसे स्तूपों का निर्माण अनुयायियों के लिए धम्म का अनुसरण करने और बुद्ध के प्रति अपनी असीम श्रद्धा व्यक्त करने का अवसर बना।
भगवान बुद्ध ने अपने जीवन का एक बड़ा हिस्सा श्रावस्ती में व्यतीत किया। यही उन्होने २४ में से १९ वर्षावास बिताए। और, यही उन्होंने धर्म के प्रमुख उपदेश भी दिए।
कहते हैं कि उस समय श्रावस्ती एक विराट और समृद्ध नगर था। यह प्राचीन कोशल देश की राजधानी थी। उसके महाराज प्रसेनजित बुद्ध के प्रसिद्ध अनुयायी बने थे।
उस समय श्रावस्ती नगर में एक अत्यंत धनवान व्यापारी था, जिसका नाम अनाथपिण्डक था। उसने भगवान ने धर्म सुनकर धर्मचक्षु प्राप्त किए। धर्म के प्रति उसकी श्रद्धा इतनी प्रगाढ़ हुई कि वह भगवान बुद्ध और उनके शिष्यों के लिए एक उपयुक्त स्थान की तलाश करने लगा। तभी उसकी नजर जेतवन नामक एक सुंदर उद्यान पर पड़ी।
यह उद्यान उस समय कौशलराज प्रसेनजित के पुत्र, राजकुमार जेत की संपत्ति थी। कहते हैं कि धनवान व्यापारी अनाथपिण्डक ने राजकुमार से इस उद्यान को एक बहुत बड़ी राशि में खरीदने का प्रस्ताव रखा। लेकिन राजकुमार जेत इसे बेचना नहीं चाहता था। उसे व्यापारियों की लालच से विरक्ति थी, इसलिए उसने व्यापारी को निराश करने के लिए कहा, “यदि तुम इस पूरी भूमि पर सोने के सिक्के बिछाओ, तभी मैं विचार करूंगा।”
इस प्रस्ताव को सुनकर अनाथपिण्डक ने अपनी सारी संपत्ति एकत्र की और भूमि पर सोने के सिक्के बिछाने का कार्य शुरू किया। जब आधी भूमि पर सिक्के बिछ गए, तो राजकुमार जेत को यह सूचना मिली। जब उसने व्यापारी की इस दीवानी पागलपन का कारण जाना, तो उसने अपनी दया और समझदारी से आधी भूमि दान कर दी और शेष उद्यान व्यापारी को सौंप दिया।
इसी प्रकार, बेशकीमती सोने के सिक्कों से खरीदी गई इस भूमि पर अनाथपिण्डक ने एक आश्रम बनवाया, जहाँ भगवान बुद्ध और उनके भिक्षुसंघ को निवास प्रदान किया और उन्हें अपनी ओर से दान दिया।
तब से यह विहार ध्यान और धर्म-प्रचार का प्रमुख स्थल बना रहा। इसी जगह पर बुद्ध ने अपने जीवन के अधिकांश उपदेश दिए, जिन्हें तत्पश्चात त्रिपिटक का हिस्सा बनाया गया।
यह ‘मूलगन्ध कुटी’ भगवान का निजी निवासस्थल था। यही वे अक्सर ध्यानमग्न रहते थे, और बाहर एक खास जगह पर भिक्षुओं को उपदेश देते थे।
आज भी इसका वातावरण विलक्षण रूप से शांत महसूस होता है। यहाँ पर बौद्ध अनुयायी अपने आध्यात्मिक संकल्पों को मजबूत करने आते हैं।
जेतवन विहार से बाहर, श्रावस्ती में ‘अंगुलीमाल स्तूप’ स्थित है। यह स्तूप उसी कुख्यात डाकू अंगुलीमाल का है, जिसने बुद्ध के धर्म सुनकर अपने जीवन में परिवर्तन लाया। पापी अंगुलीमाल ने पापी जीवन का त्याग किया। बुद्ध का शिष्य बनकर उसने सर्वोच्च ‘अरहंत’ पद भी प्राप्त किया।
यह स्तूप एक अद्भुत परिवर्तन और प्रेरणा का प्रतीक है।
कच्ची कुटी या ‘अनाथपिण्डक स्तूप’ भी श्रावस्ती के महत्वपूर्ण स्थलों में से एक है। स्पष्ट है कि यह स्तूप उसी प्रसिद्ध बौद्ध अनुयायी ‘अनाथपिण्डक’ की स्मृति में बनाया गया, जिसने अपनी अपार धन-संपत्ति का उपयोग मानवता की परमार्थ भलाई के लिए किया। वह अपनी मृत्यु तक बुद्ध और भिक्षुसंघ की सेवा करते रहा।
आज यह ‘कच्ची कुटी’ सभी बौद्ध उपासकों के लिए एक प्रेरणा स्थल है। यह स्तूप उत्तर भारत में बौद्ध धर्म के उदय का साक्षी रहा है।
बौद्ध धर्म में राजगीर का अत्यधिक महत्व है। यह प्राचीन मगध साम्राज्य की राजधानी राजगृह थी। उस समय मगध के सम्राट “बिम्बिसार” थे, जो बोधि प्राप्त करने के पहले से ही बोधिसत्व सिद्धार्थ गौतम के व्यक्तिमत्व से आकर्षित थे।
उन्होने अपने राज्य में बुद्ध का स्वागत किया, और संपूर्ण भिक्षुसंघ को राजसी सम्मान प्रदान किया। सम्राट बिम्बिसार ने अपने सभी सगे-संबंधियों और राजमंत्रियों के साथ-साथ, प्रजा को लेकर भी बौद्ध उपासक बना। उसने बुद्ध से धर्म सुनकर, एक लाख से अधिक प्रजा के साथ, आर्यफल की प्राप्ति की।
बिम्बिसार ने अपने मित्र राजाओं को भी बौद्ध धर्म अपनाने के लिए प्रोत्साहित किया। उससे बौद्ध धर्म का प्रचार-प्रसार और भी विस्तृत हुआ। बाद में, बिम्बिसार का पुत्र “अजातशत्रु” सम्राट बना, जिसने भगवान के महापरिनिर्वाण के पश्चात पहली बौद्ध संगीति का आयोजन किया।
सम्राट बिम्बिसार का यह समर्थन बौद्ध संघ की नींव के लिए अत्यंत महत्वपूर्ण साबित हुआ। उसने राजगीर को एक प्रमुख धार्मिक और ऐतिहासिक स्थल के रूप में स्थापित किया। और भगवान बुद्ध और भिक्षुओं के विहार के लिए अपना राजउद्यान “वेणुवन” दान में दिया।
वेणुवन को ‘बांस का वन’ भी कहा जाता है। दरअसल, यही बुद्ध का सर्वप्रथम विहार बना, जिसे भगवान ने दान स्वरूप स्वीकार किया था।
ज्ञान प्राप्त करने के आरंभिक दौर में भगवान बुद्ध ने ज्यादातर यहीं निवास किया। यहीं सारिपुत्त और मोग्गलान ने भगवान से प्रवज्जा प्राप्त की, और बुद्ध के प्रमुख शिष्य बने।
यह स्थान आज भी शांत और प्राकृतिक लगता है, ध्यान के लिए आदर्शमय है। उस समय भी, यह नगर से दूर न होने के कारण, गृहस्थ लोग भी भगवान के उपदेश सुनकर लाभ उठा सकते थे।
करंदा या ‘कलंदक’ झील, बौद्ध श्रद्धालुओं के लिए एक विशेष स्थान है। यह भगवान बुद्ध से जुड़ी कई महत्वपूर्ण घटनाओं का साक्षी रहा है।
कहा जाता हैं कि भगवान इसी छोटी झील में स्नान कर “गृद्धकूट पर्वत” चढ़ते थे। इसी कारण से यह छोटी-सी झील एक पवित्र जलाशय मानी जाती है। प्राकृतिक सुंदरता और धार्मिक महत्त्व संपूर्ण इलाके को अनूठा बनाते हैं, जहाँ लोग शांति और समर्पण की अनुभूति करते हैं।
गृद्धकूट पर्वत भगवान बुद्ध के जीवन से जुड़े प्रमुख स्थलों में से एक है। इसे “गृद्धकूट” इसलिए कहा जाता है क्योंकि इसका आकार गिद्ध के समान है। यहाँ कभी बहुत से गिद्धों का निवास भी था। यहाँ से आसपास के सुंदर प्राकृतिक दृश्य भी देखे जा सकते थे।
चूँकि देवता भीड़ में आना अधिक पसंद नहीं करते हैं। जबकि यह स्थान भीड़ से दूर, नगर से दूर, शांत और एकांत स्थल पर स्थित था। यही कारण है कि देवताओं को जब भी बुद्ध से मिलना होता था, वे अक्सर यही आते थे। इसी स्थल पर चार महाराज देवताओं ने प्रसिद्ध “आटानाटिय सूत्र” दिया।
आज, गृद्धकूट पर्वत विश्वभर के बौद्धों के लिए एक प्रमुख तीर्थस्थल बन चुका है। आगंतुक यहाँ चढ़ाई करते हैं। यहाँ पत्थर की उन्हीं सीढ़ियों को देखा जा सकता हैं, जिन्हें बुद्धकालीन माना जाता है। यहाँ एक छोटा स्तूप और ध्यान स्थल भी है, जहाँ श्रद्धालु अक्सर ध्यान करते हैं।
सप्तपर्णी गुफा का अर्थ ‘सात पत्तों’ की गुफा है। यह राजगीर से करीब दो किमी दूर स्थित है।
बुद्ध ने अपने परिनिर्वाण से पूर्व इस गुफा में कुछ समय बिताया था। और उनके परिनिर्वाण के पश्चात इसी जगह पर पाँच सौ अरहंत भिक्षुओं ने पहली बौद्ध संगीति का आयोजन किया।
कहा जाता है कि इसी स्थान पर आयुष्मान महाकश्यप भंते की अध्यक्षता में आयुष्मान आनंद भंते ने ‘एवं मे सुतं’ कहते हुए भगवान के हजारों उपदेशों का संगायन किया। दूसरी ओर, इसी गुफा में आयुष्मान उपालि भंते ने भिक्षुओं के आचार नियमों का पाठ किया। इसी जगह पर संपन्न हुई संगीति के कारण धर्म-विनय की “भाणक परंपरा” का उदय हुआ। उसी के आधार पर धर्म-विनय का संगायन कर उसे हजारों वर्षों तक प्रचारित और प्रसारित किया गया।
इस प्रकार, इसी सप्तपर्णी गुफा ने बौद्ध धर्म के विकास में एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। खास-तौर पर थेरवादियों के लिए यह स्थल आज भी बहुत महत्वपूर्ण है।
वैशाली का महत्व बौद्ध परंपरा के साथ-साथ जैन और वैदिक परंपरा में भी अत्यधिक है। उस समय यह लिच्छवियों की राजधानी थी, जो मुख्यतः बौद्ध उपासक थे। वे अपनी समृद्धि और सौन्दर्य के लिए प्रसिद्ध थे।
भगवान बुद्ध ने एक बार भिक्षुओं से कहा था कि यदि आप तैतीस देवताओं का दिव्य सौन्दर्य नहीं देख सकते, तो लिच्छवि राजकुमारों को देखें। क्योंकि तैतीस देवतागण लिच्छवि राजकुमार जैसे ही दिखते हैं।
उस समय वैशाली की प्रसिद्ध नगरवधू “आम्रपाली” थी, जिसने तत्पश्चात भिक्षुणी संघ में प्रवेश कर अरहंत पद प्राप्त किया।
इसके अलावा, अंतिम जैन तीर्थंकर भगवान महावीर का जन्म भी वैशाली के निकट स्थित क्षत्रियकुंड में हुआ था। वैशाली का उल्लेख विष्णु पुराण में भी मिलता है, जिसमें 34 महाराजाओं की पीढ़ियों का उल्लेख है, जिनमें अंतिम महाराज श्रीराम के पिता दशरथ थे।
वैशाली में रहते हुए भगवान बुद्ध इसी कुटागारशाला विहार में निवास करते थे। यहीं उन्होंने परिनिर्वाण के पूर्व अपना अंतिम बड़ा उपदेश दिया।
बुद्ध के परिनिर्वाण के बाद लिच्छवियों ने उनकी अस्थिधातुओं को यहाँ स्तूप में स्थापित किया।
यहाँ का प्राचीन अशोक स्तंभ अपनी उत्कृष्ट अवस्था में मौजूद है, जो इस क्षेत्र के ऐतिहासिक महत्व को दर्शाता है। तत्पश्चात, यहीं सम्राट “काल अशोक” ने द्वितीय बौद्ध संगीति का आयोजन भी किया था।
इसके साथ ही, प्रसिद्ध “अभिषेक पुष्करिणी” का धार्मिक और ऐतिहासिक महत्व है। कहते हैं कि इसी पुष्करिणी के पवित्र जल से वैशाली के चुने हुए महाराज का राज्याभिषेक होता था।
आज भी बौद्ध शिष्यों के साथ-साथ जैन और वैदिक धर्मों के लिए भी वैशाली एक महत्वपूर्ण स्थल बनी हुई है। वैशाली की धरोहर अनेक धार्मिक और ऐतिहासिक गहराईयों को संजोए हुए है।
मध्य प्रदेश में स्थित सांची, बौद्ध धर्म के दार्शनिक और ऐतिहासिक स्थलों में से एक हैं। यहाँ की स्तूप और अन्य धार्मिक संरचनाएँ न केवल बौद्ध कला और वास्तुकला का उत्कृष्ट उदाहरण प्रस्तुत करती हैं, बल्कि यह बौद्ध धर्म के समृद्ध इतिहास की गवाह भी हैं।
सांची के स्तूप सम्राट अशोक द्वारा तीसरी शताब्दी ईसा पूर्व निर्मित किए गए थे। वे आज भी लाखों श्रद्धालुओं और पर्यटकों को आकर्षित करता है। सांची को १९८६ में यूनेस्को से विश्व धरोहर स्थल के रूप में मान्यता दी गई।
सांची के ये स्तूप गहरी अध्यात्म के साथ-साथ स्थापत्य कला के भी उत्कृष्ठ नमूने हैं। यहाँ की प्रसिद्ध नक्काशी और चित्रण बौद्ध धर्म की गौरवशाली धरोहर बयान करती है। सांची की प्राकृतिक सुंदरता पर्यटकों को मोह लेती है। चारों ओर हरियाली, शांत वातावरण और ऐतिहासिक संरचनाओं का संयोजन इसे एक अद्भुत तीर्थस्थल बनाता है।
सांची का सबसे बड़ा स्तूप १, भगवान बुद्ध के कई स्तूपों में से एक माना जाता है, जहाँ उनकी धातुएँ रखी गयी थी। इस स्तूप की संरचना इसे अद्वितीय बनाती है।
इस स्तूप की ऊँचाई लगभग १६ मीटर है और व्यास ३६ मीटर। इसका मूल उद्देश्य बुद्ध के अस्थि-धातुओं का संरक्षण करना था। स्तूप पर उकेरी गयी अद्भुत नक्काशी और चित्रण बौद्ध समुदाय की विविधताएँ और उनके समृद्ध सांस्कृतिक इतिहास को दर्शाते हैं।
स्तूप २ को “सारिपुत्र स्तूप” भी कहते हैं। यह भगवान बुद्ध के प्रमुख शिष्यों में से एक आयुष्मान सारिपुत्र भंते को समर्पित है। सारिपुत्र भंते बुद्ध के प्रज्ञावान शिष्यों में सबसे अग्र माने जाते थे। उनके योगदान ने बौद्ध धर्म के विकास में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई।
इस स्तूप का निर्माण बुद्ध के समकालीन समय में किया गया। यह भारतीय वास्तुकला का उत्कृष्ट उदाहरण है।
स्तूप ३ को “मोग्गल्लान स्तूप” कहते हैं। यह बुद्ध के दूसरे अग्र शिष्य आयुष्मान महामोग्गल्लान के सम्मान में बनाया गया है। भंते महामोग्गल्लान को उनके अद्वितीय ध्यान और ऋद्धियों के लिए जाना जाता था। यह स्तूप विशेष रूप से ध्यानसाधना और ऋद्धियों का प्रतीक है।
नालन्दा महाविहार दुनिया का सबसे पहला और सबसे प्रसिद्ध विश्वविद्यालय था। वह मगध देश की राजधानी राजगृह (राजगीर) में स्थित था।
इसकी स्थापना गुप्ता शासक कुमारगुप्त प्रथम ने ईसवी ४५० में की थी। यह विश्वविद्यालय लगभग एक हजार वर्षों तक सक्रिय रहा।
नालन्दा महाविहार, दरअसल, महायान बौद्ध संप्रदाय का प्रमुख केंद्र था, जहां अन्य सभी छात्र भी शिक्षा ग्रहण करते थे।
इस विश्वविद्यालय के भग्नावशेष इसके प्राचीन वैभव का परिचायक हैं। “ह्वेनसांग” और “इत्सिंग” जैसे चीनी यात्रियों ने सातवीं शताब्दी में यहाँ अध्ययन किया। उन्होने ही नालन्दा के बारे में विस्तृत विवरण प्रदान किया है।
ह्वेनसांग की पुस्तक में उल्लेख हैं कि नालन्दा का नाम आमवन में स्थित तालाब में रहने वाले नाग के नाम पर पड़ा था। कहते हैं कि यहाँ लगभग दस हजार छात्रों को एक साथ पढ़ाया जाता। उसके लिए दो हजार शिक्षक उपलब्ध थे। प्रत्येक छात्र को तीन कठिन परीक्षा स्तरों को उत्तीर्ण करना पड़ता था।
नालन्दा में छात्रों के रहने के लिए तीन सौ कक्ष बनाए गए थे। यहाँ की शिक्षा, भोजन, वस्त्र और चिकित्सा सभी के लिए निःशुल्क प्रदान की जाती थी। मगध राज्य की ओर से दो सौ गाँव दान में मिले थे, जिनसे विश्वविद्यालय के खर्च का प्रबंधन किया जाता था।
नालन्दा की प्रतिष्ठा इतनी बढ़ गई थी कि यहाँ कोरिया, जापान, चीन, तिब्बत, इंडोनेशिया, फारस, और तुर्की से छात्र शिक्षा ग्रहण करने आते थे। इस विश्वविद्यालय ने केवल बौद्ध शिक्षण को ही बढ़ावा नहीं दिया। बल्कि यहाँ पर वेद, वेदांत, उपनिषद, सांख्य, व्याकरण, दर्शन और चिकित्सा-शास्त्र जैसे विषयों का भी गहन अध्ययन किया जाता था।
यहाँ के प्रसिद्ध पुस्तकालय में तीन लाख से अधिक बड़ी पुस्तकें उपलब्ध थी। उसे तीन विशाल भवनों — “रत्नरंजक,” “रत्नोदधि,” और “रत्नसागर” — में बनाया गया था। यह पुस्तकालय न केवल भारत के लिए, बल्कि विदेशी छात्रों के लिए भी ज्ञान का अनमोल स्रोत था। कहते हैं कि आक्रमणकारियों ने जब इसमें आग लगायी, तो लाखों पुस्तकें छह महीनों तक जलती ही रही।
हालांकि, इसे जलाकर नष्ट करने का ठीकरा तुर्क आक्रमणकारी “बख्तियार खिलजी” के नाम पर फोड़ा जाता है। लेकिन उसके द्वारा हमले के कोई ठोस सबूत नहीं मिले हैं। कुछ इतिहासकार मानते हैं कि नालन्दा का पतन धीरे-धीरे हुआ। हिन्दू शासकों के द्वारा वर्षों तक दान में कटौती की जाती रही। और साथ ही, शासकों द्वारा महायानी भिक्षुओं का उत्पीड़न भी होते रहा।
तिब्बती इतिहासकारों का दावा है कि ब्राह्मणों के साथ हिंसक झड़प हुई थी, जिसके बाद नालन्दा महाविहार को जलाकर राख़ कर दिया गया। 1
प्रसिद्ध इतिहासकार नमित अरोरा की पुस्तक “इंडियंस”, जिसका प्रकाशन ‘पेंगुइन स्वदेश’ ने किया, के “नालन्दा की दृष्टि” अध्याय में इन ऐतिहासिक घटनाओं का विस्तृत और सटीक उल्लेख मिलता है। ↩︎
अजंता महाराष्ट्र में स्थित एक विश्वप्रसिद्ध बौद्ध स्थल है, जहाँ ३० गुफाएँ हैं। यह गुफाएँ बौद्ध भिक्षुओं की ध्यान-साधना के लिए महत्वपूर्ण स्थल थीं।
इन गुफाओं का निर्माण लगभग २ से ६ शताब्दी ईस्वी के बीच किया गया। इसे बौद्ध धर्म के विकास का अद्भुत प्रमाण माना जाता हैं। यहाँ की गुफाएँ अद्वितीय चित्रकला और वास्तुकला के लिए प्रसिद्ध हैं, जिसमें चित्रण और मूर्तियों के माध्यम से बौद्ध जीवन और शिक्षाओं को दर्शाया गया है।
यहाँ की अधिकांश गुफाएँ महायान परंपरा से संबंधित हैं, जबकि केवल दो गुफाएँ थेरवाद परंपरा के अंतर्गत आती हैं। थेरवाद गुफाओं की विशेषता उनका चित्ररहित और मूर्तिरहित होना है, जहाँ केवल स्तूप मिलता है। जबकि महायानी गुफाएँ जटिल और विस्तृत चित्रण से भरी हैं।
अजंता से लगभग १०० किलोमीटर दूर एलोरा की ३४ गुफाएँ हैं। वह बौद्ध, जैन और हिंदू धर्म की धार्मिक संरचनाओं का संगम प्रस्तुत करती हैं।
ये गुफाएँ चौथी से दसवीं शताब्दी के बीच बनाई गई थीं। और अजन्ता की तरह यह भी भारतीय वास्तुकला का एक अद्वितीय उदाहरण हैं। यहाँ की गुफाएँ न केवल अपने सौंदर्य के लिए प्रसिद्ध हैं, बल्कि उन्हें उनका भव्य और कलात्मक निर्माण रहस्यमयी भी बनाता है।
एलोरा में बौद्ध गुफाएँ भी विशेष रूप से ध्यान-साधना के लिए बनाई गई थीं। यहाँ की “गुफा १”, जिसे “विष्णु गुफा” के नाम से भी जाना जाता है, में अद्भुत नक्काशी और चित्रण हैं। यह गुफा महायान परंपरा की विशेषता को दर्शाती है, जिसमें बुद्ध की मूर्तियों के साथ-साथ कई अन्य देवी-देवताओं के चित्रण भी शामिल हैं।
यहाँ बौद्ध गुफाओं के साथ जैन गुफाएँ भी बहुत भव्य और सुंदर हैं। उनकी जटिल नक्काशी दर्शाती है कि जैन धर्म का भी यहाँ महत्वपूर्ण योगदान रहा होगा। अजंता के साथ एलोरा को भी यूनेस्को द्वारा “विश्व धरोहर स्थल” के रूप में मान्यता दी गई है। यह उनकी ऐतिहासिक और सांस्कृतिक महत्वता दर्शाता है।
केसरिया स्तूप बिहार के पूर्वी चंपारण जिले में स्थित है। इसे विश्व का सबसे बड़ा स्तूप माना जाता है, जो इसे बौद्ध धर्म का तीर्थस्थल बनाता है।
इसका व्यास लगभग १२० मीटर और ऊंचाई लगभग ३० मीटर है, जो इसे विश्व का सबसे ऊँचा ‘उत्खनन स्तूप’ बनाता है। इसे प्रथम शताब्दी ईसा पूर्व निर्मित माना जाता है।
यह स्तूप भगवान बुद्ध के अवशेषों को संजोने के लिए बनाया गया था। इसकी संरचना शानदार विस्तृत डिजाइन के लिए प्रसिद्ध है। उसमें भव्य मंडप, चित्रित दीवारें और समृद्ध कलाकृतियाँ शामिल हैं। यह स्थान न केवल बौद्ध अनुयायियों के लिए, बल्कि इतिहास प्रेमियों और पुरातत्वज्ञों के लिए भी आकर्षण का केंद्र है।