भगवान बुद्ध ने बताया था कि चित्त को दुख के साथ बाँधने वाली चार प्रकार की “आसक्तियाँ” (उपादान) होती हैं, और इनमें से एक है — मान्यताओं के प्रति आसक्ति। उन्होंने सिर्फ मान्यताओं या दार्शनिक परंपराओं को ही छोड़े जाने की बात नहीं कही, बल्कि अपने अनुभव को जिस ढाँचे में हम समझते हैं — जैसे बौद्धिक श्रेणियाँ, आपसी-संबंध और धारणाएँ — उन मूल प्रवृत्तियों को भी त्यागने की सलाह दी।
यह सूत्र उस समय उभर रही ब्राह्मण परंपरा की एक खास शाखा — साङ्ख्य दर्शन — के प्रति प्रतिक्रिया थी। साङ्ख्य एक “वर्गीकरण-प्रधान” दर्शन था, जिसकी शुरुआत ईसा पूर्व ९वीं सदी के एक विचारक उद्दालक से मानी जाती है। उन्होंने यह विचार रखा कि सभी वस्तुएँ एक अमूर्त “मूल तत्व” या “मूल कारण” से उत्पन्न होती हैं, जो सभी चीज़ों में विद्यमान भी रहता है।
बाद के दार्शनिकों ने ध्यान और तर्क के आधार पर इस मूल तत्व की प्रकृति और उससे उत्पन्न होने वाली श्रेणियों की कई जटिल परिकल्पनाएँ कीं। ये विचार उपनिषदों में मिलते हैं, और बुद्ध के समय तक एक व्यवस्थित साङ्ख्य दर्शन के रूप में उभर रहे थे।
हालाँकि उस सूत्र में यह नहीं बताया गया कि सुनने वाले भिक्षु कौन थे, लेकिन अट्ठकथा में बताया गया है कि वे पहले ब्राह्मण थे और प्रव्रज्या लेने के बाद भी बुद्ध के उपदेशों को अपने पूर्व ज्ञान — शायद ‘साङ्ख्य’ के आधार पर — समझने की कोशिश कर रहे थे।
इसलिए जब बुद्ध ने सूत्र की शुरुआत इन शब्दों से की — “मैं तुम्हें सभी धर्मों के मूल का क्रम बताता हूँ” — तो संभव है कि वे भिक्षु यह सोचकर उत्साहित हुए हों कि अब बुद्ध ‘साङ्ख्य’ प्रस्तुत करेंगे। और वास्तव में, बुद्ध ने २४ विषयों की एक श्रृंखला प्रस्तुत की, जो साङ्ख्य दर्शन की तरह ही भौतिक से लेकर सूक्ष्म अनुभवों की ओर जाती है और अंततः निर्वाण पर समाप्त होती है।
लेकिन यहीं बुद्ध ने उस पूरे ढाँचे को ही तोड़ दिया।
उन्होंने बताया कि यह सोचना कि सब के पीछे कोई एक अमूर्त “मूल कारण” है, जिससे सब कुछ निकला है और जो सबमें मौजूद है — यह केवल एक “अज्ञानी” व्यक्ति की सोच है, जो अनुभव पर अपनी कल्पनाएँ थोपता है। बुद्ध के अनुसार, एक साधक को “सभी चीज़ों की जड़” किसी अमूर्त तत्व में नहीं, बल्कि वर्तमान क्षण में हो रहे अनुभव में, और खासकर उस अनुभव में जो सुख देता है, तलाशनी चाहिए। जब हम उस सुख के प्रति वैराग्य विकसित करते हैं, तो हम “भव” (अस्तित्व) के चक्र को पहचान सकते हैं, उससे बाहर निकल सकते हैं, और ‘सच्चे बोध’ तक पहुँच सकते हैं।
यदि उस समय के भिक्षु वास्तव में बुद्ध की बातों को साङ्ख्य के नजरिए से समझने की कोशिश कर रहे थे, तो उनका असंतोष स्वाभाविक था। वे शायद यह सुनने आए थे कि बुद्ध इस दर्शन में क्या योगदान देंगे, लेकिन इसके बजाय उन्हें यह सुनना पड़ा कि उनका पूरा दृष्टिकोण ही अज्ञान पर आधारित है। हालांकि अट्ठकथा बताती है कि बाद में, उन्होंने अपने मन के असंतोष को लांघ लिया और एक अन्य सूत्र (अङ्गुत्तरनिकाय ३:१२६) को सुनकर उन्होंने बोध प्राप्त किया।
आज हम भले ही साङ्ख्य जैसी शब्दावली का प्रयोग कम करते हों, लेकिन उसी प्रवृत्ति का एक आधुनिक रूप आज भी दिखता है। बहुत लोग “बौद्ध आध्यात्मिकता” के नाम पर एक अमूर्त आधार की कल्पना करते हैं — जैसे कि शून्यता, अरचित, धर्मकाया, बुद्ध प्रकृति, रिग्पा आदि को एक ऐसा मूल मान लेते हैं जिससे सभी अनुभव उत्पन्न होते हैं और जिसमें ध्यान करते समय हम वापस लौटते हैं।
अक्सर यह माना जाता है कि ये सिद्धांत केवल विचारकों की कल्पना हैं, लेकिन वास्तव में वे अधिकतर ध्यान करने वालों के अनुभवों से ही उपजे हैं। जब कोई व्यक्ति किसी विशेष ध्यान अनुभव को अंतिम लक्ष्य मान लेता है, खुद को उस “जानने” से जोड़ देता है, और उसे सब अनुभवों का आधार मानता है — तो वही पुरानी प्रवृत्ति दोहराई जाती है।
बुद्ध का उपदेश उन सभी दृष्टिकोणों पर लागू होता है। उन्होंने सिखाया कि अनुभव को किसी अमूर्त “मूल कारण” की छाया में देखना अज्ञान है — और असली ज्ञान वह है जो इस क्षण के भीतर दुख की जड़ को पहचानता है और उससे मुक्त होता है।
ऐसा मैंने सुना — एक समय भगवान उक्कठ 1 में सुभग-वन में सालराज (वृक्ष) के नीचे विहार कर रहे थे। वहाँ भगवान ने भिक्षुओं से कहा, “भिक्षुओं!"
“भदंत”, भिक्षुओं ने भगवान को उत्तर दिया। भगवान ने कहा —
“भिक्षुओं, मैं सभी धर्मों के मूल का क्रम बताता हूँ। ध्यान देकर गौर से सुनों, मैं बताता हूँ!”
“ठीक है, भंते”, भिक्षुओं ने भगवान को उत्तर दिया। भगवान ने कहा —
“भिक्षुओं, कोई ऐसा जो आर्यजनों के दर्शन से वंचित, आर्य-धर्म से अपरिचित, आर्य-धर्म में अनुशासित न हो; या सत्पुरुषों के दर्शन से वंचित, सत्पुरूष-धर्म से अपरिचित, सत्पुरूष-धर्म में अनुशासित न हो 2, ऐसा धर्म न सुना, आम आदमी —
भिक्षुओं, कोई ऐसा भिक्षु जो सीख रहा हो, जिसने (अब तक) ध्येय न प्राप्त किया हो, किंतु जो योगबंधन से अनुत्तर मुक्ति की आकांक्षा रख विहार करता हो —
भिक्षुओं, कोई ऐसा भिक्षु जो अरहंत (=काबिल) हो, क्षीणास्रव, मंज़िल पर पहुँचा, जो करना था सो कर चुका, बोझ नीचे रख चुका, सच्चा ध्येय प्राप्त कर चुका, भव-संयोजन (=अस्तित्व बंधन) पूर्णतः तोड़ चुका, सम्यक ज्ञान से विमुक्त हो —
भिक्षुओं, कोई ऐसा भिक्षु जो अरहंत हो, क्षीणास्रव, मंज़िल पर पहुँचा, जो करना था सो कर चुका, बोझ नीचे रख चुका, सच्चा ध्येय प्राप्त कर चुका, भव-संयोजन पूर्णतः तोड़ चुका, सम्यक ज्ञान से विमुक्त हो —
भिक्षुओं, कोई ऐसा भिक्षु जो अरहंत हो, क्षीणास्रव, मंज़िल पर पहुँचा, जो करना था सो कर चुका, बोझ नीचे रख चुका, सच्चा ध्येय प्राप्त कर चुका, भव-संयोजन पूर्णतः तोड़ चुका, सम्यक ज्ञान से विमुक्त हो —
भिक्षुओं, कोई ऐसा भिक्षु जो अरहंत हो, क्षीणास्रव, मंज़िल पर पहुँचा, जो करना था सो कर चुका, बोझ नीचे रख चुका, सच्चा ध्येय प्राप्त कर चुका, भव-संयोजन पूर्णतः तोड़ चुका, सम्यक ज्ञान से विमुक्त हो —
भिक्षुओं, तथागत, अरहंत, सम्यक-सम्बुद्ध —
भिक्षुओं, तथागत, अरहंत, सम्यक-सम्बुद्ध —
भगवान ने ऐसा कहा। (लेकिन) भिक्षुओं को भगवान की बात पर हर्ष नहीं हुआ।
उक्कट्ठ का उल्लेख हमेशा तब होता है जब बुद्ध ब्राह्मणों की मान्यताएँ तोड़ने वाली अपनी गहरी शिक्षाएँ प्रस्तुत करते हैं। शायद यह इसलिए कि उक्कट्ठ उस समय के सबसे प्रसिद्ध और प्रभावशाली ब्राह्मण पोक्खरसाति का गढ़ था। इसके पीछे कारण शायद यह हो सकता है कि पोक्खरसाति के बौद्ध उपासक बनने के बाद बहुत से ब्राह्मण भगवान बुद्ध के पास शिक्षा प्राप्त करने के लिए आते थे। हालांकि, वे सभी अपनी पुरानी ब्राह्मणी शिक्षाओं को पूरी तरह से त्याग नहीं पाए थे। अधिक जानकारी के लिए पढ़ें दीघनिकाय ३। ↩︎
यह वाक्यांश आर्य शब्द के पारंपरिक अर्थ को संदर्भित करता है, जो उस व्यक्ति को दर्शाता है जिसे उच्चतम आध्यात्मिक फल प्राप्त हो चुका हो, जैसे अरहंत, अनागामी, सकृदागामी, या श्रोतापति; यह एक आदर्श स्थिति को व्यक्त करता है, जिससे बेहतर कुछ नहीं हो सकता। वहीं, सत्पुरुष वह व्यक्ति है जो भले ही आर्य या आदर्श स्तर पर न हो, लेकिन सत्य और धर्म के प्रति प्रतिबद्ध हो और उसका जीवन दूसरों के लिए मार्गदर्शक हो। ऐसे व्यक्ति या धर्म के पालन से कोई ब्रह्म-स्तर पर पहुँच सकता है, और मेरा मानना है कि सत्पुरुष धर्म में वे पंथ शामिल होते हैं जिनके आचरण ब्रह्म की ओर मार्गदर्शन करते हैं, जैसे कबीरपंथ, इस्लाम, ईसाई धर्म आदि। इस प्रकार, यह वाक्यांश उस पु्थुज्जन व्यक्ति को दर्शाता है जो न तो किसी सर्वोच्च आदर्श व्यक्ति को जानता है, न किसी अन्य सत्पुरुष को जानता है, और न ही उनके धर्म और अनुशासन से परिचित है—वह बिलकुल अनजान, कभी धर्म न सुना हुआ, साधारण जनमानस होता है। ↩︎
हालाँकि उनकी धारणा सही है, लेकिन किसी चीज़ को वैसा देखने का मतलब है कि उसे पहले से सीखी हुई यादों और विचारों के ज़रिए पहचानना। यह एक सूक्ष्म प्रारंभिक प्रक्रिया है, जो वर्तमान अनुभव को उम्मीदों और इच्छाओं के संदर्भ में समझती है। इसलिए इन्हें सदैव पकड़े रहने और इन्हें अपना ‘आत्म’ या ‘स्व’ मानने से मुक्ति संभव नहीं। ↩︎
भूत का शाब्दिक अर्थ है, ‘जो हो चुका है’ या ‘जो अस्तित्व में आया है’। इससे यह संकेत मिलता है कि यह शब्द मूलतः अस्तित्व या घटित सत्ता की ओर इशारा करता है — चाहे वह दृश्य हो या अदृश्य। इसलिए भूत को मैंने साधारणतः ‘जीव’ के तौर पर अनुवाद किया है। अर्थात, यह वर्ग उन सजीवों को दर्शाता है जो देवताओं से निम्न स्तर पर माने जाते हैं, चाहे वे दृश्य हों या अदृश्य। उदाहरण स्वरूप, मनुष्य, पशु-पक्षी, वनस्पति, और विभिन्न प्रेतात्माएँ, ये सभी ‘भूत’ की श्रेणी में आते हैं। ↩︎
देवताओं से यहाँ अर्थ है, कामलोक के छह देवतागण। जैसे, चार महाराज देवता (यक्ष, गन्धब्ब, नाग, कुंभण्ड), तैतीस देवता, याम देवता, तुषित देवता, निर्माणरति देवता, और परनिर्मित वशवर्ती देवतागण। ↩︎
प्रजापति ब्राह्मणी शास्त्रों के अनुसार ऐसे देव होते हैं, जो सब स्वयं से उत्पन्न करते हैं। शतपथब्राह्मण ६ के अनुसार प्रजापति के तप से ही दुनिया की निर्मिति हुई। ऋग्वेद १०.८५.३ में आता है, “प्रजापति हमारी भावी पीढ़ियों को जन्म दें!” ↩︎
ब्रह्मा को ब्राह्मण इस दुनिया का प्रमुख और सर्वोच्च ईश्वर मानते हैं, जिसके तथाकथित दिव्यशक्ति से ही सम्पूर्ण दुनिया की रचना हुई है। लेकिन बुद्ध के अनुसार, ब्रह्मा भी अन्य सत्वों की तरह ही एक सत्व है, जो अपने कर्मों और ध्यान साधना की वजह से ब्रह्मलोक में रिक्त महल में उत्पन्न होता है। दरअसल, उसकी आयु और पुण्य खत्म होने पर, वह आभास्वर ब्रह्मलोक से नीचे पतित होता है। आगे चलकर ब्रह्म का पतन भी होता है, और वह अगले कल्पों में निचले लोक में जन्म लेता है। ब्रह्म के तथाकथित ज्ञान और उसकी सीमा जानने के लिए दीघनिकाय ११ पढ़ें। ↩︎
आभास्वर देवताओं का उल्लेख वेदों में नहीं मिलता, लेकिन उनका वर्णन बौद्ध ग्रंथों में प्रमुखता से हुआ। इसके पश्चात, ये देवता हिंदू पुराणों में भी स्थान पाने लगे। बौद्ध परंपरा में आभास्वर ब्रह्मलोक के उच्च देवताओं में गिने जाते हैं। कहा जाता है कि जब इन देवताओं का पुण्य क्षीण हो जाता है, तो वे नीचे के लोकों में—जैसे महाब्रह्मा लोक या उससे भी नीचे—पुनर्जन्म लेने लगते हैं। ब्रह्मजाल सुत्त में आंशिक-शाश्वतवाद का वर्णन इस संदर्भ में विशेष रूप से उल्लेखनीय है। ↩︎
शुभकृष्ण नाम उन ब्रह्म देवताओं को दिया गया है जो ध्यान-समाधि के प्रभाव से जन्म लेते हैं। इनका स्वरूप ‘सुंदर एवं प्रकाशमान’ अथवा ‘गहरे, शांत काले’ के रूप में वर्णित होता है। यह नाम शायद ध्यान की उस गहन अवस्था की ओर संकेत करता है जिसमें प्रकाश और अंधकार दोनों की सीमा मिट जाती है। ↩︎
वेहप्फल का अर्थ है — ‘अत्यंत फलदायी’। इन ब्रह्म देवताओं का उल्लेख प्राचीन वैदिक या ब्राह्मण ग्रंथों में नहीं मिलता, लेकिन बौद्ध साहित्य में इनका ज़िक्र मिलता है। संभवतः इन्हें ‘ब्रह्मा’ की एक विशेष श्रेणी का उच्चतम या दीर्घजीवी रूप माना गया है। नाम से प्रतीत होता है कि इनका कर्मफल अथवा पुण्य इतना महान होता है कि उसका प्रभाव अत्यंत व्यापक और दीर्घकालिक होता है। ↩︎
अभिभू का अर्थ होता है — ‘विजेता’, या ‘जो सब पर विजयी है’। कुछ सूत्रों में महाब्रह्मा या बकब्रह्मा जैसे देवताओं को स्वयं को ‘अभिभू’ कहने वाला बताया गया है, जो कि उनके अहंकार की ओर संकेत करता है। लेकिन तकनीकी रूप से ‘अभिभू’ उन्हें भी कहा जा सकता है जो वास्तविक रूप से पतनरहित अवस्था में पहुँच चुके हों — जैसे वे ब्रह्म देवता जो अनागामी स्तर के होते हैं और जिनका पुनर्जन्म अब संभव नहीं। ↩︎
जहाँ रूपलोक में ब्रह्म, आभास्वर, शुभकृष्ण, वेहप्फ़ल, अभिभू इत्यादि ब्रह्मकायिक देवता आते हैं, वहीं चार अरूप आयाम भी हैं। अर्थात, ऐसे निराकार सत्व जिनका रूप नहीं होता, केवल सूक्ष्म चैतसिक अस्तित्व होता है। अनंत आकाश-आयाम…अनंत चैतन्य-आयाम… शून्य-आयाम… और न-संज्ञा-न-असंज्ञा आयाम। इन अवस्थाओं की अनुभूति गहन अरूप ध्यान (समाधि) के अभ्यास से संभव होती है, जहाँ साधक शारीरिक और मानसिक सीमाओं से परे जाकर केवल सूक्ष्म चेतना में स्थित होता है। ↩︎
देखे, सुने, महसूस किए, और जानने में छह इंद्रियों की सभी प्रकार की अनुभूतियाँ जानने समझने की प्रक्रिया शामिल होती हैं। ↩︎
एकत्व (एकरूपता) का तात्पर्य मज्झिमनिकाय १३७ के अनुसार उस मानसिक स्थिति से है जो ध्यान की चार अवस्थाओं में प्रकट होती है। इसमें चित्त की एकाग्रता, स्थिरता और विषय-वस्तु में एकरूप एकत्व की अनुभूति होती है। इसके विपरीत, विविधता वह अवस्था है जिसमें छह इंद्रियों द्वारा ग्रहण किए गए छह भिन्न-भिन्न विषयों और उनसे उत्पन्न विविध अनुभवों की बहुलता होती है। एकत्व ध्यान का विषय है, जबकि विविधता अनुभव की सामान्य अवस्था। ↩︎
सर्व शब्द का स्पष्टीकरण भगवान बुद्ध संयुक्तनिकाय ३५:२३ में करते हैं — “सर्व क्या है? केवल यह: आँख और रूप, कान और ध्वनि, नाक और गंध, जीभ और स्वाद, शरीर और स्पर्श, तथा मन और उसके विषय।” यहाँ ‘सर्व’ का अर्थ सम्पूर्ण अनुभव-जगत से है, जो छह इंद्रियों और उनके-उनके विषयों के संयोग से निर्मित होता है। ↩︎
सेक्ख का अर्थ है, जो धर्म का वास्तविक ‘विद्यार्थी’ बन चुका है। अर्थात ऐसा साधक, जिसने ‘आर्य अष्टांगिक मार्ग’ को व्यवहार में उतारना शुरू कर दिया है, उसे अनुभव किया है, और उसके कुछ फलों को प्राप्त भी किया है, लेकिन अभी भी उसमें अभ्यास, अनुशासन और अवधान की आवश्यकता बनी हुई है। इसीलिए सेक्ख वह होता है जो ‘सीख रहा है’ — न केवल ज्ञान से, बल्कि अपने आचरण और ध्यान के अभ्यास से। तकनीकी तौर पर श्रोतापति व्यक्ति से लेकर तो अनागामी व्यक्ति तक को सेक्ख कहा जाता है। उसके विपरीत, असेक्ख अरहंत को कहा जाता है। अर्थात, जिसके लिए अभी कुछ सीखना बचा नहीं। ↩︎
१. एवं मे सुतं – एकं समयं भगवा उक्कट्ठायं विहरति सुभगवने सालराजमूले। तत्र खो भगवा भिक्खू आमन्तेसि – ‘‘भिक्खवो’’ति। ‘‘भदन्ते’’ति ते भिक्खू भगवतो पच्चस्सोसुं। भगवा एतदवोच – ‘‘सब्बधम्ममूलपरियायं वो, भिक्खवे, देसेस्सामि। तं सुणाथ, साधुकं मनसि करोथ, भासिस्सामी’’ति। ‘‘एवं, भन्ते’’ति खो ते भिक्खू भगवतो पच्चस्सोसुं। भगवा एतदवोच –
२. ‘‘इध, भिक्खवे, अस्सुतवा पुथुज्जनो अरियानं अदस्सावी अरियधम्मस्स अकोविदो अरियधम्मे अविनीतो, सप्पुरिसानं अदस्सावी सप्पुरिसधम्मस्स अकोविदो सप्पुरिसधम्मे अविनीतो – पथविं पठविं (सी॰ स्या॰ कं॰ पी॰) पथवितो सञ्जानाति; पथविं पथवितो सञ्ञत्वा पथविं मञ्ञति, पथविया मञ्ञति, पथवितो मञ्ञति, पथविं मेति मञ्ञति , पथविं अभिनन्दति। तं किस्स हेतु? ‘अपरिञ्ञातं तस्सा’ति वदामि।
‘‘आपं आपतो सञ्जानाति; आपं आपतो सञ्ञत्वा आपं मञ्ञति, आपस्मिं मञ्ञति, आपतो मञ्ञति, आपं मेति मञ्ञति, आपं अभिनन्दति। तं किस्स हेतु? ‘अपरिञ्ञातं तस्सा’ति वदामि।
‘‘तेजं तेजतो सञ्जानाति; तेजं तेजतो सञ्ञत्वा तेजं मञ्ञति, तेजस्मिं मञ्ञति, तेजतो मञ्ञति, तेजं मेति मञ्ञति, तेजं अभिनन्दति। तं किस्स हेतु? ‘अपरिञ्ञातं तस्सा’ति वदामि।
‘‘वायं वायतो सञ्जानाति; वायं वायतो सञ्ञत्वा वायं मञ्ञति, वायस्मिं मञ्ञति, वायतो मञ्ञति, वायं मेति मञ्ञति, वायं अभिनन्दति। तं किस्स हेतु? ‘अपरिञ्ञातं तस्सा’ति वदामि।
३. ‘‘भूते भूततो सञ्जानाति; भूते भूततो सञ्ञत्वा भूते मञ्ञति, भूतेसु मञ्ञति, भूततो मञ्ञति, भूते मेति मञ्ञति, भूते अभिनन्दति। तं किस्स हेतु? ‘अपरिञ्ञातं तस्सा’ति वदामि।
‘‘देवे देवतो सञ्जानाति; देवे देवतो सञ्ञत्वा देवे मञ्ञति, देवेसु मञ्ञति, देवतो मञ्ञति, देवे मेति मञ्ञति, देवे अभिनन्दति। तं किस्स हेतु? ‘अपरिञ्ञातं तस्सा’ति वदामि।
‘‘पजापतिं पजापतितो सञ्जानाति; पजापतिं पजापतितो सञ्ञत्वा पजापतिं मञ्ञति, पजापतिस्मिं मञ्ञति, पजापतितो मञ्ञति, पजापतिं मेति मञ्ञति, पजापतिं अभिनन्दति। तं किस्स हेतु? ‘अपरिञ्ञातं तस्सा’ति वदामि।
‘‘ब्रह्मं ब्रह्मतो सञ्जानाति; ब्रह्मं ब्रह्मतो सञ्ञत्वा ब्रह्मं मञ्ञति , ब्रह्मस्मिं मञ्ञति, ब्रह्मतो मञ्ञति, ब्रह्मं मेति मञ्ञति, ब्रह्मं अभिनन्दति। तं किस्स हेतु? ‘अपरिञ्ञातं तस्सा’ति वदामि।
‘‘आभस्सरे आभस्सरतो सञ्जानाति; आभस्सरे आभस्सरतो सञ्ञत्वा आभस्सरे मञ्ञति, आभस्सरेसु मञ्ञति, आभस्सरतो मञ्ञति, आभस्सरे मेति मञ्ञति, आभस्सरे अभिनन्दति। तं किस्स हेतु? ‘अपरिञ्ञातं तस्सा’ति वदामि।
‘‘सुभकिण्हे सुभकिण्हतो सञ्जानाति; सुभकिण्हे सुभकिण्हतो सञ्ञत्वा सुभकिण्हे मञ्ञति, सुभकिण्हेसु मञ्ञति, सुभकिण्हतो मञ्ञति, सुभकिण्हे मेति मञ्ञति, सुभकिण्हे अभिनन्दति। तं किस्स हेतु? ‘अपरिञ्ञातं तस्सा’ति वदामि।
‘‘वेहप्फले वेहप्फलतो सञ्जानाति; वेहप्फले वेहप्फलतो सञ्ञत्वा वेहप्फले मञ्ञति, वेहप्फलेसु मञ्ञति, वेहप्फलतो मञ्ञति, वेहप्फले मेति मञ्ञति, वेहप्फले अभिनन्दति। तं किस्स हेतु? ‘अपरिञ्ञातं तस्सा’ति वदामि।
‘‘अभिभुं अभिभूतो सञ्जानाति; अभिभुं अभिभूतो सञ्ञत्वा अभिभुं मञ्ञति, अभिभुस्मिं मञ्ञति, अभिभूतो मञ्ञति, अभिभुं मेति मञ्ञति, अभिभुं अभिनन्दति। तं किस्स हेतु? ‘अपरिञ्ञातं तस्सा’ति वदामि।
४. ‘‘आकासानञ्चायतनं आकासानञ्चायतनतो सञ्जानाति; आकासानञ्चायतनं आकासानञ्चायतनतो सञ्ञत्वा आकासानञ्चायतनं मञ्ञति, आकासानञ्चायतनस्मिं मञ्ञति, आकासानञ्चायतनतो मञ्ञति, आकासानञ्चायतनं मेति मञ्ञति, आकासानञ्चायतनं अभिनन्दति। तं किस्स हेतु? ‘अपरिञ्ञातं तस्सा’ति वदामि।
‘‘विञ्ञाणञ्चायतनं विञ्ञाणञ्चायतनतो सञ्जानाति; विञ्ञाणञ्चायतनं विञ्ञाणञ्चायतनतो सञ्ञत्वा विञ्ञाणञ्चायतनं मञ्ञति, विञ्ञाणञ्चायतनस्मिं मञ्ञति, विञ्ञाणञ्चायतनतो मञ्ञति, विञ्ञाणञ्चायतनं मेति मञ्ञति, विञ्ञाणञ्चायतनं अभिनन्दति। तं किस्स हेतु? ‘अपरिञ्ञातं तस्सा’ति वदामि।
‘‘आकिञ्चञ्ञायतनं आकिञ्चञ्ञायतनतो सञ्जानाति; आकिञ्चञ्ञायतनं आकिञ्चञ्ञायतनतो सञ्ञत्वा आकिञ्चञ्ञायतनं मञ्ञति, आकिञ्चञ्ञायतनस्मिं मञ्ञति, आकिञ्चञ्ञायतनतो मञ्ञति, आकिञ्चञ्ञायतनं मेति मञ्ञति, आकिञ्चञ्ञायतनं अभिनन्दति। तं किस्स हेतु? ‘अपरिञ्ञातं तस्सा’ति वदामि।
‘‘नेवसञ्ञानासञ्ञायतनं नेवसञ्ञानासञ्ञायतनतो सञ्जानाति; नेवसञ्ञानासञ्ञायतनं नेवसञ्ञानासञ्ञायतनतो सञ्ञत्वा नेवसञ्ञानासञ्ञायतनं मञ्ञति, नेवसञ्ञानासञ्ञायतनस्मिं मञ्ञति, नेवसञ्ञानासञ्ञायतनतो मञ्ञति, नेवसञ्ञानासञ्ञायतनं मेति मञ्ञति, नेवसञ्ञानासञ्ञायतनं अभिनन्दति। तं किस्स हेतु? ‘अपरिञ्ञातं तस्सा’ति वदामि।
५. ‘‘दिट्ठं दिट्ठतो सञ्जानाति; दिट्ठं दिट्ठतो सञ्ञत्वा दिट्ठं मञ्ञति, दिट्ठस्मिं मञ्ञति, दिट्ठतो मञ्ञति, दिट्ठं मेति मञ्ञति, दिट्ठं अभिनन्दति। तं किस्स हेतु? ‘अपरिञ्ञातं तस्सा’ति वदामि।
‘‘सुतं सुततो सञ्जानाति; सुतं सुततो सञ्ञत्वा सुतं मञ्ञति, सुतस्मिं मञ्ञति, सुततो मञ्ञति, सुतं मेति मञ्ञति, सुतं अभिनन्दति। तं किस्स हेतु? ‘अपरिञ्ञातं तस्सा’ति वदामि।
‘‘मुतं मुततो सञ्जानाति; मुतं मुततो सञ्ञत्वा मुतं मञ्ञति, मुतस्मिं मञ्ञति, मुततो मञ्ञति, मुतं मेति मञ्ञति, मुतं अभिनन्दति। तं किस्स हेतु? ‘अपरिञ्ञातं तस्सा’ति वदामि।
‘‘विञ्ञातं विञ्ञाततो सञ्जानाति; विञ्ञातं विञ्ञाततो सञ्ञत्वा विञ्ञातं मञ्ञति, विञ्ञातस्मिं मञ्ञति, विञ्ञाततो मञ्ञति, विञ्ञातं मेति मञ्ञति, विञ्ञातं अभिनन्दति। तं किस्स हेतु? ‘अपरिञ्ञातं तस्सा’ति वदामि।
६. ‘‘एकत्तं एकत्ततो सञ्जानाति; एकत्तं एकत्ततो सञ्ञत्वा एकत्तं मञ्ञति, एकत्तस्मिं मञ्ञति, एकत्ततो मञ्ञति, एकत्तं मेति मञ्ञति, एकत्तं अभिनन्दति। तं किस्स हेतु? ‘अपरिञ्ञातं तस्सा’ति वदामि।
‘‘नानत्तं नानत्ततो सञ्जानाति; नानत्तं नानत्ततो सञ्ञत्वा नानत्तं मञ्ञति, नानत्तस्मिं मञ्ञति, नानत्ततो मञ्ञति, नानत्तं मेति मञ्ञति, नानत्तं अभिनन्दति। तं किस्स हेतु? ‘अपरिञ्ञातं तस्सा’ति वदामि।
‘‘सब्बं सब्बतो सञ्जानाति; सब्बं सब्बतो सञ्ञत्वा सब्बं मञ्ञति, सब्बस्मिं मञ्ञति, सब्बतो मञ्ञति, सब्बं मेति मञ्ञति, सब्बं अभिनन्दति। तं किस्स हेतु? ‘अपरिञ्ञातं तस्सा’ति वदामि।
‘‘निब्बानं निब्बानतो सञ्जानाति; निब्बानं निब्बानतो सञ्ञत्वा निब्बानं मञ्ञति, निब्बानस्मिं मञ्ञति , निब्बानतो मञ्ञति, निब्बानं मेति मञ्ञति, निब्बानं अभिनन्दति। तं किस्स हेतु? ‘अपरिञ्ञातं तस्सा’ति वदामि।
पुथुज्जनवसेन पठमनयभूमिपरिच्छेदो निट्ठितो।
७. ‘‘योपि सो, भिक्खवे, भिक्खु सेक्खो सेखो (सी॰ स्या॰ कं॰ पी॰) अप्पत्तमानसो अनुत्तरं योगक्खेमं पत्थयमानो विहरति, सोपि पथविं पथवितो अभिजानाति; पथविं पथवितो अभिञ्ञाय अभिञ्ञत्वा (क॰) पथविं मा मञ्ञि वा मञ्ञति, पथविया मा मञ्ञि, पथवितो मा मञ्ञि, पथविं मेति मा मञ्ञि, पथविं माभिनन्दि वा अभिनन्दति (सी॰) टीका ओलोकेतब्बा। तं किस्स हेतु? ‘परिञ्ञेय्यं तस्सा’ति वदामि।
‘‘आपं…पे॰… तेजं… वायं… भूते… देवे… पजापतिं… ब्रह्मं… आभस्सरे… सुभकिण्हे… वेहप्फले… अभिभुं… आकासानञ्चायतनं… विञ्ञाणञ्चायतनं… आकिञ्चञ्ञायतनं… नेवसञ्ञानासञ्ञायतनं… दिट्ठं… सुतं… मुतं… विञ्ञातं… एकत्तं… नानत्तं… सब्बं… निब्बानं निब्बानतो अभिजानाति; निब्बानं निब्बानतो अभिञ्ञाय निब्बानं मा मञ्ञि, निब्बानस्मिं मा मञ्ञि, निब्बानतो मा मञ्ञि, निब्बानं मेति मा मञ्ञि, निब्बानं माभिनन्दि। तं किस्स हेतु? ‘परिञ्ञेय्यं तस्सा’ति वदामि।
सेक्खवसेन सत्थारवसेन (सी॰), सत्थुवसेन (स्या॰ क॰) दुतियनयभूमिपरिच्छेदो निट्ठितो।
८. ‘‘योपि सो, भिक्खवे, भिक्खु अरहं खीणासवो वुसितवा कतकरणीयो ओहितभारो अनुप्पत्तसदत्थो परिक्खीणभवसंयोजनो सम्मदञ्ञा विमुत्तो, सोपि पथविं पथवितो अभिजानाति; पथविं पथवितो अभिञ्ञाय पथविं न मञ्ञति, पथविया न मञ्ञति, पथवितो न मञ्ञति, पथविं मेति न मञ्ञति, पथविं नाभिनन्दति। तं किस्स हेतु? ‘परिञ्ञातं तस्सा’ति वदामि।
‘‘आपं…पे॰… तेजं… वायं… भूते… देवे… पजापतिं… ब्रह्मं… आभस्सरे… सुभकिण्हे… वेहप्फले… अभिभुं… आकासानञ्चायतनं… विञ्ञाणञ्चायतनं… आकिञ्चञ्ञायतनं… नेवसञ्ञानासञ्ञायतनं… दिट्ठं… सुतं… मुतं… विञ्ञातं… एकत्तं… नानत्तं… सब्बं… निब्बानं निब्बानतो अभिजानाति; निब्बानं निब्बानतो अभिञ्ञाय निब्बानं न मञ्ञति, निब्बानस्मिं न मञ्ञति, निब्बानतो न मञ्ञति, निब्बानं मेति न मञ्ञति, निब्बानं नाभिनन्दति। तं किस्स हेतु? ‘परिञ्ञातं तस्सा’ति वदामि।
खीणासववसेन ततियनयभूमिपरिच्छेदो निट्ठितो।
९. ‘‘योपि सो, भिक्खवे, भिक्खु अरहं खीणासवो वुसितवा कतकरणीयो ओहितभारो अनुप्पत्तसदत्थो परिक्खीणभवसंयोजनो सम्मदञ्ञा विमुत्तो, सोपि पथविं पथवितो अभिजानाति; पथविं पथवितो अभिञ्ञाय पथविं न मञ्ञति, पथविया न मञ्ञति, पथवितो न मञ्ञति, पथविं मेति न मञ्ञति, पथविं नाभिनन्दति। तं किस्स हेतु? खया रागस्स, वीतरागत्ता।
‘‘आपं…पे॰… तेजं… वायं… भूते… देवे… पजापतिं… ब्रह्मं… आभस्सरे… सुभकिण्हे… वेहप्फले… अभिभुं… आकासानञ्चायतनं… विञ्ञाणञ्चायतनं… आकिञ्चञ्ञायतनं … नेवसञ्ञानासञ्ञायतनं … दिट्ठं… सुतं… मुतं… विञ्ञातं… एकत्तं… नानत्तं… सब्बं… निब्बानं निब्बानतो अभिजानाति; निब्बानं निब्बानतो अभिञ्ञाय निब्बानं न मञ्ञति, निब्बानस्मिं न मञ्ञति, निब्बानतो न मञ्ञति, निब्बानं मेति न मञ्ञति, निब्बानं नाभिनन्दति। तं किस्स हेतु? खया रागस्स, वीतरागत्ता।
खीणासववसेन चतुत्थनयभूमिपरिच्छेदो निट्ठितो।
१०. ‘‘योपि सो, भिक्खवे, भिक्खु अरहं खीणासवो वुसितवा कतकरणीयो ओहितभारो अनुप्पत्तसदत्थो परिक्खीणभवसंयोजनो सम्मदञ्ञा विमुत्तो, सोपि पथविं पथवितो अभिजानाति; पथविं पथवितो अभिञ्ञाय पथविं न मञ्ञति, पथविया न मञ्ञति, पथवितो न मञ्ञति, पथविं मेति न मञ्ञति, पथविं नाभिनन्दति। तं किस्स हेतु? खया दोसस्स, वीतदोसत्ता।
‘‘आपं…पे॰… तेजं… वायं… भूते… देवे… पजापतिं… ब्रह्मं… आभस्सरे… सुभकिण्हे… वेहप्फले… अभिभुं… आकासानञ्चायतनं… विञ्ञाणञ्चायतनं… आकिञ्चञ्ञायतनं… नेवसञ्ञानासञ्ञायतनं… दिट्ठं… सुतं… मुतं… विञ्ञातं… एकत्तं… नानत्तं… सब्बं… निब्बानं निब्बानतो अभिजानाति; निब्बानं निब्बानतो अभिञ्ञाय निब्बानं न मञ्ञति, निब्बानस्मिं न मञ्ञति, निब्बानतो न मञ्ञति, निब्बानं मेति न मञ्ञति, निब्बानं नाभिनन्दति। तं किस्स हेतु? खया दोसस्स, वीतदोसत्ता।
खीणासववसेन पञ्चमनयभूमिपरिच्छेदो निट्ठितो।
११. ‘‘योपि सो, भिक्खवे, भिक्खु अरहं खीणासवो वुसितवा कतकरणीयो ओहितभारो अनुप्पत्तसदत्थो परिक्खीणभवसंयोजनो सम्मदञ्ञा विमुत्तो, सोपि पथविं पथवितो अभिजानाति; पथविं पथवितो अभिञ्ञाय पथविं न मञ्ञति, पथविया न मञ्ञति, पथवितो न मञ्ञति, पथविं मेति न मञ्ञति, पथविं नाभिनन्दति। तं किस्स हेतु? खया मोहस्स, वीतमोहत्ता।
‘‘आपं…पे॰… तेजं… वायं… भूते… देवे… पजापतिं… ब्रह्मं… आभस्सरे… सुभकिण्हे… वेहप्फले… अभिभुं… आकासानञ्चायतनं… विञ्ञाणञ्चायतनं… आकिञ्चञ्ञायतनं … नेवसञ्ञानासञ्ञायतनं… दिट्ठं… सुतं… मुतं… विञ्ञातं… एकत्तं… नानत्तं… सब्बं… निब्बानं निब्बानतो अभिजानाति; निब्बानं निब्बानतो अभिञ्ञाय निब्बानं न मञ्ञति, निब्बानस्मिं न मञ्ञति, निब्बानतो न मञ्ञति, निब्बानं मेति न मञ्ञति, निब्बानं नाभिनन्दति। तं किस्स हेतु? खया मोहस्स, वीतमोहत्ता।
खीणासववसेन छट्ठनयभूमिपरिच्छेदो निट्ठितो।
१२. ‘‘तथागतोपि, भिक्खवे, अरहं सम्मासम्बुद्धो पथविं पथवितो अभिजानाति; पथविं पथवितो अभिञ्ञाय पथविं न मञ्ञति, पथविया न मञ्ञति, पथवितो न मञ्ञति, पथविं मेति न मञ्ञति, पथविं नाभिनन्दति । तं किस्स हेतु? ‘परिञ्ञातन्तं तथागतस्सा’ति वदामि।
‘‘आपं…पे॰… तेजं… वायं… भूते… देवे… पजापतिं… ब्रह्मं… आभस्सरे… सुभकिण्हे… वेहप्फले… अभिभुं… आकासानञ्चायतनं… विञ्ञाणञ्चायतनं … आकिञ्चञ्ञायतनं… नेवसञ्ञानासञ्ञायतनं… दिट्ठं… सुतं… मुतं… विञ्ञातं… एकत्तं… नानत्तं… सब्बं… निब्बानं निब्बानतो अभिजानाति; निब्बानं निब्बानतो अभिञ्ञाय निब्बानं न मञ्ञति, निब्बानस्मिं न मञ्ञति, निब्बानतो न मञ्ञति, निब्बानं मेति न मञ्ञति, निब्बानं नाभिनन्दति। तं किस्स हेतु? ‘परिञ्ञातन्तं तथागतस्सा’ति वदामि।
तथागतवसेन सत्तमनयभूमिपरिच्छेदो निट्ठितो।
१३. ‘‘तथागतोपि , भिक्खवे, अरहं सम्मासम्बुद्धो पथविं पथवितो अभिजानाति; पथविं पथवितो अभिञ्ञाय पथविं न मञ्ञति, पथविया न मञ्ञति, पथवितो न मञ्ञति, पथविं मेति न मञ्ञति, पथविं नाभिनन्दति। तं किस्स हेतु? ‘नन्दी नन्दि (सी॰ स्या॰) दुक्खस्स मूल’न्ति – इति विदित्वा ‘भवा जाति भूतस्स जरामरण’न्ति। तस्मातिह, भिक्खवे, ‘तथागतो सब्बसो तण्हानं खया विरागा निरोधा चागा पटिनिस्सग्गा अनुत्तरं सम्मासम्बोधिं अभिसम्बुद्धो’ति वदामि।
‘‘आपं …पे॰… तेजं… वायं… भूते… देवे… पजापतिं… ब्रह्मं… आभस्सरे… सुभकिण्हे… वेहप्फले… अभिभुं… आकासानञ्चायतनं… विञ्ञाणञ्चायतनं… आकिञ्चञ्ञायतनं… नेवसञ्ञानासञ्ञायतनं… दिट्ठं… सुतं… मुतं… विञ्ञातं… एकत्तं… नानत्तं… सब्बं… निब्बानं निब्बानतो अभिजानाति; निब्बानं निब्बानतो अभिञ्ञाय निब्बानं न मञ्ञति, निब्बानस्मिं न मञ्ञति, निब्बानतो न मञ्ञति, निब्बानं मेति न मञ्ञति, निब्बानं नाभिनन्दति। तं किस्स हेतु? ‘नन्दी दुक्खस्स मूल’न्ति – इति विदित्वा ‘भवा जाति भूतस्स जरामरण’न्ति। तस्मातिह, भिक्खवे, ‘तथागतो सब्बसो तण्हानं खया विरागा निरोधा चागा पटिनिस्सग्गा अनुत्तरं सम्मासम्बोधिं अभिसम्बुद्धो’ति वदामी’’ति।
तथागतवसेन अट्ठमनयभूमिपरिच्छेदो निट्ठितो।
इदमवोच भगवा। न ते भिक्खू न अत्तमना तेभिक्खू (स्या॰), ते भिक्खू (पी॰ क॰) भगवतो भासितं अभिनन्दुन्ति।
मूलपरियायसुत्तं निट्ठितं पठमं।