नमो तस्स भगवतो अरहतो सम्मा-सम्बुद्धस्स

📜 रोंगटे खड़े करने वाला

सूत्र परिचय

सुनक्खत लिच्छविपुत्र, एक कुख्यात व्यक्तित्व था। प्रारंभिक बौद्ध ग्रंथों में उसके भिक्षु जीवन की कई झलकियाँ मिलती हैं। मज्झिमनिकाय १०५ में उसकी बुद्ध से भेंट का उल्लेख है। दीघनिकाय ६ से ज्ञात होता है कि उस समय उसे प्रव्रज्या लिए तीन वर्ष हो चुके थे और वह कुछ अल्प-मात्रा की ऋद्धि-शक्ति प्राप्त कर चुका था, जिसे वह सार्वजनिक रूप से प्रकट भी करता था।

वहीं दीघनिकाय २४ में, उसके भिक्षु जीवन का त्याग कर देने के बाद, भगवान बुद्ध स्वयं उसके विचित्र आचरण का उल्लेख करते हैं। जबकि इस सूत्र में भगवान, सुनक्खत द्वारा की गई आलोचनाओं का ऐसा उत्तर प्रदान करते हैं, जिससे सुनने वाले के रोंगटे खड़े हो जाए।

✦ ॥ नमो तस्स भगवतो अरहतो सम्मासम्बुद्धस्स ॥ ✦

Hindi

ऐसा मैंने सुना — एक समय भगवान वैशाली के पश्चिम में, नगर के बाहर स्थित उपवन में, विहार कर रहे थे। उस समय सुनक्खत लिच्छविपुत्र को धर्म-विनय छोड़े अधिक समय नहीं हुआ था। वह वैशाली की सभाओं में ऐसा कह रहा था, “श्रमण गौतम को कोई अलौकिक अवस्था, कोई विशेष आर्य ज्ञान और दर्शन प्राप्त नहीं है। वे केवल अपनी तार्किक बुद्धि से ठोक-पीटकर निकाले हुए, विवेकबुद्धि से उपजे हुए धर्म का उपदेश करते हैं। और उनका धर्म उपदेश पालन करने वाले को ध्येय के साथ दुःखों के सम्यक अन्त की ओर ले जाता है।”

तब सुबह होने पर आयुष्मान सारिपुत्त ने चीवर ओढ़, पात्र लेकर, भिक्षाटन के लिए वैशाली में प्रवेश किया। वहाँ उन्होंने सुनक्खत लिच्छविपुत्र को वैशाली की सभाओं में ऐसा कहते हुए सुना, “श्रमण गौतम को कोई अलौकिक अवस्था, कोई विशेष आर्य ज्ञान और दर्शन प्राप्त नहीं है। वे केवल अपनी तार्किक बुद्धि से ठोक-पीटकर निकाले हुए, विवेकबुद्धि से उपजे हुए धर्म का उपदेश करते हैं। और उनका धर्म उपदेश पालन करने वाले को ध्येय के साथ दुःखों के सम्यक अन्त की ओर ले जाता है।”

तब आयुष्मान सारिपुत्त वैशाली में भिक्षाटन कर भोजन करने के पश्चात भगवान के पास गए। और भगवान को अभिवादन कर एक ओर बैठ गए। एक ओर बैठकर आयुष्मान सारिपुत्त ने भगवान से कहा, “भंते, सुनक्खत लिच्छविपुत्र को धर्म-विनय छोड़े अधिक समय नहीं हुआ है। वह वैशाली की सभाओं में ऐसा कहता है, ‘श्रमण गौतम को कोई अलौकिक अवस्था, कोई विशेष आर्य ज्ञान और दर्शन प्राप्त नहीं है। वे केवल अपनी तार्किक बुद्धि से ठोक-पीटकर निकाले हुए, विवेकबुद्धि से उपजे हुए धर्म का उपदेश करते हैं। और उनका धर्म उपदेश पालन करने वाले को ध्येय के साथ दुःखों के सम्यक अन्त की ओर ले जाता है।’”

“सारिपुत्त, वह सुनक्खत नालायक क्रोधित है। क्रोध के मारे वह ऐसी बात बोलता है। ‘मैं बुरा बोलूँगा’, (सोच कर भी) सुनक्खत नालायक, दरअसल, तथागत की प्रशंसा करता है। क्योंकि, सारिपुत्त, ऐसी बात तथागत की प्रशंसा में बोली जाएगी कि ‘उनका धर्म-उपदेश पालन करने वाले को ध्येय के साथ दुःखों के सम्यक अन्त की ओर ले जाता है।’

किन्तु, सारिपुत्त, वह सुनक्खत नालायक कभी धर्मानुरूप इस निष्कर्ष पर नहीं आएगा कि “वाकई भगवान ही अरहंत सम्यक-सम्बुद्ध है—विद्या और आचरण से संपन्न, परम लक्ष्य पा चुके, दुनिया के ज्ञाता, दमनशील पुरुषों के अनुत्तर सारथी, देवों और मनुष्यों के गुरु, बुद्ध भगवान!”

और, सारिपुत्त, वह सुनक्खत नालायक कभी धर्मानुरूप इस निष्कर्ष पर नहीं आएगा कि “वाकई भगवान विविध ऋद्धियाँ प्राप्त करते हैं — एक होकर अनेक बनते हैं, अनेक होकर एक बनते हैं। प्रकट होते हैं, विलुप्त होते हैं। दीवार, रक्षार्थ-दीवार और पर्वतों से बिना टकराए आर-पार चला जाते हैं, मानो आकाश में हो। ज़मीन पर गोते लगाते हैं, मानो जल में हो। जल-सतह पर बिना डूबे चलते हैं, मानो ज़मीन पर हो। पालथी मारकर आकाश में उड़ते हैं, मानो पक्षी हो। महातेजस्वी सूर्य और चाँद को भी अपने हाथ से छूता और मलते हैं। अपनी काया से ब्रह्मलोक तक को वश कर लेते हैं।

और, सारिपुत्त, वह सुनक्खत नालायक कभी धर्मानुरूप इस निष्कर्ष पर नहीं आएगा कि “वाकई भगवान विशुद्ध हो चुके अलौकिक दिव्यश्रोत-धातु से दोनों तरह की आवाज़ें सुनते हैं — चाहे दिव्य हो या मनुष्यों की हो, दूर की हो या पास की हो।

और, सारिपुत्त, वह सुनक्खत नालायक कभी धर्मानुरूप इस निष्कर्ष पर नहीं आएगा कि “वाकई भगवान वह अपना मानस फैलाकर पराए सत्वों का, अन्य लोगों का मानस जान लेते हैं — उन्हें रागपूर्ण चित्त पता चलता है कि ‘रागपूर्ण चित्त है।’ वीतराग चित्त पता चलता है कि ‘वीतराग चित्त है।’ द्वेषपूर्ण चित्त पता चलता है कि ‘द्वेषपूर्ण चित्त है।’ द्वेषविहीन चित्त पता चलता है कि ‘द्वेषविहीन चित्त है।’ मोहपूर्ण चित्त पता चलता है कि ‘मोहपूर्ण चित्त है।’ मोहविहीन चित्त पता चलता है कि ‘मोहविहीन चित्त है।’ संकुचित चित्त पता चलता है कि ‘संकुचित चित्त है।’ बिखरा चित्त पता चलता है कि ‘बिखरा चित्त है।’

उन्हें विस्तारित चित्त पता चलता है कि ‘विस्तारित चित्त है।’ अविस्तारित चित्त पता चलता है कि ‘अविस्तारित चित्त है।’ बेहतर चित्त पता चलता है कि ‘बेहतर चित्त है।’ सर्वोत्तर चित्त पता चलता है कि ‘सर्वोत्तर चित्त है।’ समाहित चित्त पता चलता है कि ‘समाहित चित्त है।’ असमाहित चित्त पता चलता है कि ‘असमाहित चित्त है।’ विमुक्त चित्त पता चलता है कि ‘विमुक्त चित्त है।’ अविमुक्त चित्त पता चलता है कि ‘अविमुक्त चित्त है।’

दस बल

तथागत के दस तथागत-बल (“शक्तियाँ”) होते हैं, सारिपुत्त, जिनसे संपन्न होकर, तथागत अग्रिम स्थान का दावा करते हैं, सभाओं में सिंह-गर्जन करते हैं, और ब्रह्मचक्र प्रवर्तित करते (=घुमाते) हैं। कौन-से दस?

(१) ऐसा है, सारिपुत्त, तथागत यथास्वरूप संभव को संभव, और असंभव को असंभव समझते हैं।

इस तरह, सारिपुत्त, तथागत का यथास्वरूप संभव को संभव, और असंभव को असंभव समझना — तथागत का तथागत-बल हैं, जिनसे संपन्न होकर तथागत अग्रिम स्थान का दावा करते हैं, सभाओं में सिंह-गर्जन करते हैं, और ब्रह्मचक्र प्रवर्तित करते हैं।

(२) आगे, सारिपुत्त, तथागत यथास्वरूप भूत-भविष्य-वर्तमान में किए कर्मों के, आधार और कारण के साथ, फल-परिणामों (“विपाक”) को समझते हैं।

इस तरह, सारिपुत्त, तथागत का यथास्वरूप भूत-भविष्य-वर्तमान में किए कर्मों के, आधार और कारण के साथ, फल-परिणामों को समझना — तथागत का तथागत-बल हैं, जिनसे संपन्न होकर तथागत अग्रिम स्थान का दावा करते हैं, सभाओं में सिंह-गर्जन करते हैं, और ब्रह्मचक्र प्रवर्तित करते हैं।

(३) आगे, सारिपुत्त, तथागत सभी अभ्यास मार्गों के ध्येय (=गंतव्य, मंज़िल) को यथास्वरूप समझते हैं।

इस तरह, सारिपुत्त, तथागत का सभी अभ्यास मार्गों के ध्येय को यथास्वरूप समझना — तथागत का तथागत-बल हैं, जिनसे संपन्न होकर तथागत अग्रिम स्थान का दावा करते हैं, सभाओं में सिंह-गर्जन करते हैं, और ब्रह्मचक्र प्रवर्तित करते हैं।

(४) आगे, सारिपुत्त, तथागत इस दुनिया की अनेक विविध धातुओं को यथास्वरूप समझते हैं।

इस तरह, सारिपुत्त, तथागत का इस दुनिया की अनेक विविध धातुओं को यथास्वरूप समझना — तथागत का तथागत-बल हैं, जिनसे संपन्न होकर तथागत अग्रिम स्थान का दावा करते हैं, सभाओं में सिंह-गर्जन करते हैं, और ब्रह्मचक्र प्रवर्तित करते हैं।

(५) आगे, सारिपुत्त, तथागत सत्वों के विविध झुकावों (“विश्वास”) को यथास्वरूप समझते हैं।

इस तरह, सारिपुत्त, तथागत का सत्वों के विविध झुकावों को यथास्वरूप समझना — तथागत का तथागत-बल हैं, जिनसे संपन्न होकर तथागत अग्रिम स्थान का दावा करते हैं, सभाओं में सिंह-गर्जन करते हैं, और ब्रह्मचक्र प्रवर्तित करते हैं।

(६) आगे, सारिपुत्त, तथागत दूसरे सत्वों, दूसरे व्यक्तियों के इंद्रिय विकास को यथास्वरूप समझते हैं। 1

इस तरह, सारिपुत्त, तथागत का दूसरे सत्वों, दूसरे व्यक्तियों के इंद्रिय विकास को यथास्वरूप समझना — तथागत का तथागत-बल हैं, जिनसे संपन्न होकर तथागत अग्रिम स्थान का दावा करते हैं, सभाओं में सिंह-गर्जन करते हैं, और ब्रह्मचक्र प्रवर्तित करते हैं।

(७) आगे, सारिपुत्त, तथागत ध्यान-अवस्था, विमोक्ष, समाधि और सिद्धि (“समापत्ति”) की भ्रष्टता, स्वच्छता और बाहर निकलने (की प्रक्रिया) को यथास्वरूप समझते हैं।

इस तरह, सारिपुत्त, तथागत का ध्यान-अवस्था, विमोक्ष, समाधि और सिद्धि की भ्रष्टता, स्वच्छता और बाहर निकलने को यथास्वरूप समझना — तथागत का तथागत-बल हैं, जिनसे संपन्न होकर तथागत अग्रिम स्थान का दावा करते हैं, सभाओं में सिंह-गर्जन करते हैं, और ब्रह्मचक्र प्रवर्तित करते हैं।

(८) आगे, सारिपुत्त, तथागत विविध प्रकार के पूर्वजन्म स्मरण करते हैं — जैसे एक जन्म, दो जन्म, तीन जन्म, चार, पाँच, दस जन्म, बीस, तीस, चालीस, पचास जन्म, सौ जन्म, हज़ार जन्म, लाख जन्म, कई कल्पों का लोक-संवर्त [=ब्रह्मांडिय सिकुड़न], कई कल्पों का लोक-विवर्त [=ब्रह्मांडिय विस्तार], कई कल्पों का संवर्त-विवर्त — ‘वहाँ मेरा ऐसा नाम था, ऐसा गोत्र था, ऐसा दिखता था। ऐसा भोज था, ऐसा सुख-दुःख महसूस हुआ, ऐसा जीवन अंत हुआ। उस लोक से च्युत होकर मैं वहाँ उत्पन्न हुआ। वहाँ मेरा वैसा नाम था, वैसा गोत्र था, वैसा दिखता था। वैसा भोज था, वैसा सुख-दुःख महसूस हुआ, वैसे जीवन अंत हुआ। उस लोक से च्युत होकर मैं यहाँ उत्पन्न हुआ।’ इस तरह तथागत अपने विविध प्रकार के पूर्वजन्म शैली एवं विवरण के साथ अनुस्मरण करते हैं।

इस तरह, सारिपुत्त, तथागत का अपने विविध प्रकार के पूर्वजन्म शैली एवं विवरण के साथ अनुस्मरण करना… — तथागत का तथागत-बल हैं, जिनसे संपन्न होकर तथागत अग्रिम स्थान का दावा करते हैं, सभाओं में सिंह-गर्जन करते हैं, और ब्रह्मचक्र प्रवर्तित करते हैं।

(९) आगे, सारिपुत्त, तथागत विशुद्ध हुए अपने अलौकिक दिव्यचक्षु से अन्य सत्वों की मौत और पुनर्जन्म होते हुए देखते हैं। और तथागत को पता चलता है कि कर्मानुसार ही वे कैसे हीन अथवा उच्च हैं, सुंदर अथवा कुरूप हैं, सद्गति होते अथवा दुर्गति होते हैं। कैसे ये सत्व — काया दुराचार में संपन्न, वाणी दुराचार में संपन्न, एवं मन दुराचार में संपन्न, जिन्होंने आर्यजनों का अनादर किया, मिथ्यादृष्टि धारण की, और मिथ्यादृष्टि के प्रभाव में दुष्कृत्य किए — वे मरणोपरांत काया छूटने पर दुर्गति होकर यातनालोक नर्क में उपजे।’ किन्तु कैसे ये सत्व — काया सदाचार में संपन्न, वाणी सदाचार में संपन्न, एवं मन सदाचार में संपन्न, जिन्होंने आर्यजनों का अनादर नहीं किया, सम्यकदृष्टि धारण की, और सम्यकदृष्टि के प्रभाव में सुकृत्य किए — वे मरणोपरांत सद्गति होकर स्वर्ग में उपजे। इस तरह विशुद्ध हुए अलौकिक दिव्यचक्षु से तथागत अन्य सत्वों की मौत और पुनर्जन्म होते हुए देखते हैं। और तथागत को पता चलता है कि कर्मानुसार ही वे कैसे हीन अथवा उच्च हैं, सुंदर अथवा कुरूप हैं, सद्गति होते अथवा दुर्गति होते हैं।

इस तरह, सारिपुत्त, तथागत का विशुद्ध हुए अपने अलौकिक दिव्यचक्षु से अन्य सत्वों की मौत और पुनर्जन्म होते हुए देखना… — तथागत का तथागत-बल हैं, जिनसे संपन्न होकर तथागत अग्रिम स्थान का दावा करते हैं, सभाओं में सिंह-गर्जन करते हैं, और ब्रह्मचक्र प्रवर्तित करते हैं।

(१०) आगे, सारिपुत्त, तथागत आस्रवों के क्षय होने से अनास्रव होकर, अभी इसी जीवन में चेतोविमुक्ति और प्रज्ञाविमुक्ति प्राप्त कर, [अर्हत्व] प्रत्यक्ष-ज्ञान का साक्षात्कार करते हैं।

इस तरह, सारिपुत्त, तथागत का आस्रवों के क्षय होने से अनास्रव होकर, अभी इसी जीवन में चेतोविमुक्ति और प्रज्ञाविमुक्ति प्राप्त कर, प्रत्यक्ष-ज्ञान का साक्षात्कार करना — तथागत का तथागत-बल हैं, जिनसे संपन्न होकर तथागत अग्रिम स्थान का दावा करते हैं, सभाओं में सिंह-गर्जन करते हैं, और ब्रह्मचक्र प्रवर्तित करते हैं।

इस तरह, सारिपुत्त, तथागत के दस तथागत-बल होते हैं, सारिपुत्त, जिनसे संपन्न होकर, तथागत अग्रिम स्थान का दावा करते हैं, सभाओं में सिंह-गर्जन करते हैं, और ब्रह्मचक्र प्रवर्तित करते हैं।

और, ऐसा जानते हुए, ऐसा देखते हुए, सारिपुत्त, जब कोई कहता है कि “श्रमण गौतम को कोई अलौकिक अवस्था, कोई विशेष आर्य ज्ञान-दर्शन प्राप्त नहीं है। वे केवल अपनी तार्किक बुद्धि से ठोक-पीटकर निकाले हुए, विवेकबुद्धि से उपजे हुए धर्म का उपदेश करते हैं” — तो ऐसी वाणी को न त्यागने पर, ऐसे चित्त को न त्यागने पर, ऐसी दृष्टि (=धारणा) को न छोड़ने पर — मानो उसे उठाकर नर्क में रख दिया जाएगा।

जैसे कोई भिक्षु शील-संपन्न, समाधि-संपन्न, प्रज्ञा-संपन्न, अभी इसी जीवन में प्रत्यक्ष-ज्ञान (अरहत्व) प्राप्त हो, उसके लिए भी, मैं कहता हूँ, सारिपुत्त, यही परिणाम होगा। ऐसी वाणी को न त्यागने पर, ऐसे चित्त को न त्यागने पर, ऐसी धारणा को न छोड़ने पर — मानो उसे उठाकर नर्क में रख दिया जाएगा।

चार आश्वासन

चार तरह से, सारिपुत्त, तथागत आश्वस्त होते हैं, जिनसे संपन्न होकर, तथागत अग्रिम स्थान का दावा करते हैं, सभाओं में सिंह-गर्जन करते हैं, और ब्रह्मचक्र प्रवर्तित करते हैं। कौन-से चार?

(१) मैं इस दुनिया के किसी श्रमण, ब्राह्मण, देव, मार, ब्रह्मा, या अन्य किसी के भी द्वारा फटकारे जाने का उचित कारण नहीं देखता हूँ — (जो कहे,) “आप स्वयं को सम्यक-सम्बुद्ध मानते हो, लेकिन इन धर्मों के प्रति अनभिज्ञ हो।” ऐसा कोई कारण न देखने से, सारिपुत्त, मैं सुरक्षित होकर, निर्भय होकर, आश्वस्त होकर विहार करता हूँ।

(२) मैं इस दुनिया के किसी श्रमण, ब्राह्मण, देव, मार, ब्रह्मा, या अन्य किसी के भी द्वारा फटकारे जाने का उचित कारण नहीं देखता हूँ — (जो कहे,) “आप स्वयं को क्षीणास्रव मानते हो, लेकिन (आप में) ये आस्रव क्षीण नहीं हुए।” ऐसा कोई कारण न देखने से, सारिपुत्त, मैं सुरक्षित होकर, निर्भय होकर, आश्वस्त होकर विहार करता हूँ।

(३) मैं इस दुनिया के किसी श्रमण, ब्राह्मण, देव, मार, ब्रह्मा, या अन्य किसी के भी द्वारा फटकारे जाने का उचित कारण नहीं देखता हूँ — (जो कहे,) “जिन धर्मों (स्वभावों) को आप बाधा (“अन्तराय”) कहते हो, वे आत्मसात करने वाले को बाधित नहीं करते।” ऐसा कोई कारण न देखने से, सारिपुत्त, मैं सुरक्षित होकर, निर्भय होकर, आश्वस्त होकर विहार करता हूँ।

(४) मैं इस दुनिया के किसी श्रमण, ब्राह्मण, देव, मार, ब्रह्मा, या अन्य किसी के भी द्वारा फटकारे जाने का उचित कारण नहीं देखता हूँ — (जो कहे,) “आपके धर्म-उपदेश, पालन करने वाले को ध्येय के साथ दुःखों के सम्यक अन्त की ओर नहीं ले जाता है।” ऐसा कोई कारण न देखने से, सारिपुत्त, मैं सुरक्षित होकर, निर्भय होकर, आश्वस्त होकर विहार करता हूँ।

इस चार तरह से, सारिपुत्त, तथागत आश्वस्त होते हैं, जिनसे संपन्न होकर, तथागत अग्रिम स्थान का दावा करते हैं, सभाओं में सिंह-गर्जन करते हैं, और ब्रह्मचक्र प्रवर्तित करते हैं।

और, ऐसा जानते हुए, ऐसा देखते हुए, सारिपुत्त, जब कोई कहता है कि “श्रमण गौतम को कोई अलौकिक अवस्था, कोई विशेष आर्य ज्ञान-दर्शन प्राप्त नहीं है। वे केवल अपनी तार्किक बुद्धि से ठोक-पीटकर निकाले हुए, विवेकबुद्धि से उपजे हुए धर्म का उपदेश करते हैं” — तो ऐसी वाणी को न त्यागने पर, ऐसे चित्त को न त्यागने पर, ऐसी धारणा को न छोड़ने पर — मानो उसे उठाकर नर्क में रख दिया जाएगा।

जैसे कोई भिक्षु शील-संपन्न, समाधि-संपन्न, प्रज्ञा-संपन्न, अभी इसी जीवन में प्रत्यक्ष-ज्ञान प्राप्त हो, उसके लिए भी, मैं कहता हूँ, सारिपुत्त, यही परिणाम होगा। ऐसी वाणी को न त्यागने पर, ऐसे चित्त को न त्यागने पर, ऐसी धारणा को न छोड़ने पर — मानो उसे उठाकर नर्क में रख दिया जाएगा।

आठ परिषद

सारिपुत्त, आठ प्रकार की परिषद [=दरबार या सभा] होती हैं। कौन-सी आठ?

  • क्षत्रिय परिषद,
  • ब्राह्मण परिषद,
  • गृहपति [=वैश्य] परिषद,
  • श्रमण परिषद,
  • चार महाराज [देवता] परिषद,
  • तैतीस [देवता] परिषद,
  • मार परिषद, और
  • ब्रह्म परिषद।

सारिपुत्त, ये आठ परिषदें होती हैं। और चार तरह से आश्वस्त होकर, तथागत इन आठ परिषदों के पास जाते और प्रवेश करते हैं।

सारिपुत्त, मुझे ऐसे सैकड़ों क्षत्रिय-परिषदों में जाना याद है, जहाँ मैं उनके साथ बैठता, वार्तालाप करता, चर्चा में हिस्सा लेता। किन्तु मुझे कोई कारण नहीं दिखायी देता, जिससे मैं भयभीत या असुरक्षित महसूस करूँ। ऐसा कोई कारण न देखने से, सारिपुत्त, मैं सुरक्षित होकर, निर्भय होकर, आश्वस्त होकर विहार करता हूँ।

और सारिपुत्त, मुझे ऐसे सैकड़ों ब्राह्मण-परिषद में जाना याद है… गृहपति-परिषद में जाना याद है… श्रमण-परिषद में जाना याद है… चार महाराज-परिषद में जाना याद है… तैतीस-परिषद में जाना याद है… मार-परिषद में जाना याद है… ब्रह्म-परिषद में जाना याद है, जहाँ मैं उनके साथ बैठता, वार्तालाप करता, चर्चा में हिस्सा लेता। किन्तु मुझे कोई कारण नहीं दिखायी देता, जिससे मैं भयभीत या असुरक्षित महसूस करूँ। ऐसा कोई कारण न देखने से, सारिपुत्त, मैं सुरक्षित होकर, निर्भय होकर, आश्वस्त होकर विहार करता हूँ।

और, ऐसा जानते हुए, ऐसा देखते हुए, सारिपुत्त, जब कोई कहता है कि “श्रमण गौतम को कोई अलौकिक अवस्था, कोई विशेष आर्य ज्ञान-दर्शन प्राप्त नहीं है। वे केवल अपनी तार्किक बुद्धि से ठोक-पीटकर निकाले हुए, विवेकबुद्धि से उपजे हुए धर्म का उपदेश करते हैं” — तो ऐसी वाणी को न त्यागने पर, ऐसे चित्त को न त्यागने पर, ऐसी धारणा को न छोड़ने पर — मानो उसे उठाकर नर्क में रख दिया जाएगा।

जैसे कोई भिक्षु शील-संपन्न, समाधि-संपन्न, प्रज्ञा-संपन्न, अभी इसी जीवन में प्रत्यक्ष-ज्ञान प्राप्त हो, उसके लिए भी, मैं कहता हूँ, सारिपुत्त, यही परिणाम होगा। ऐसी वाणी को न त्यागने पर, ऐसे चित्त को न त्यागने पर, ऐसी धारणा को न छोड़ने पर — मानो उसे उठाकर नर्क में रख दिया जाएगा।

चार योनि

सारिपुत्त, चार योनि (=जन्म लेने का रास्ता) होती हैं। कौन सी चार?

  • अण्डज — अंडे से जन्म की योनि,
  • जलाबुज — जरायु-नाल (=कोख) से जन्म की योनि,
  • संसेदज — नमी से जन्म की योनि,
  • ओपपातिक — स्वप्रकट की योनि।

और, सारिपुत्त, ये अंडे से जन्म की योनि क्या है? जो सत्व अंडे का आवरण तोड़ कर जन्म लेते हैं, उसे अंडे से जन्म की योनि कहते हैं।

और, सारिपुत्त, ये जरायु-नाल से जन्म की योनि क्या है? जो सत्व जरायु-नाल तोड़ कर जन्म लेते हैं, उसे जरायु-नाल से जन्म की योनि कहते हैं।

और, सारिपुत्त, ये नमी से जन्म की योनि क्या है? जो सत्व सड़ते मछली में, या सड़ते मांस में, या सड़ते खाने में, या गंदी नाली, या संडास में जन्म लेते हैं, उसे नमी से जन्म की योनि कहते हैं।

और, सारिपुत्त, ये स्वप्रकट की योनि क्या है? कोई देवता, या नर्कवासी, कोई-कोई मनुष्य, या कोई पतन होने वाले सत्व होते हैं, उसे स्वप्रकट की योनि कहते हैं।

— सारिपुत्त, ये चार योनि होती हैं।

और, ऐसा जानते हुए, ऐसा देखते हुए, सारिपुत्त, जब कोई कहता है कि “श्रमण गौतम को कोई अलौकिक अवस्था, कोई विशेष आर्य ज्ञान-दर्शन प्राप्त नहीं है। वे केवल अपनी तार्किक बुद्धि से ठोक-पीटकर निकाले हुए, विवेकबुद्धि से उपजे हुए धर्म का उपदेश करते हैं” — तो ऐसी वाणी को न त्यागने पर, ऐसे चित्त को न त्यागने पर, ऐसी धारणा को न छोड़ने पर — मानो उसे उठाकर नर्क में रख दिया जाएगा।

जैसे कोई भिक्षु शील-संपन्न, समाधि-संपन्न, प्रज्ञा-संपन्न, अभी इसी जीवन में प्रत्यक्ष-ज्ञान प्राप्त हो, उसके लिए भी, मैं कहता हूँ, सारिपुत्त, यही परिणाम होगा। ऐसी वाणी को न त्यागने पर, ऐसे चित्त को न त्यागने पर, ऐसी धारणा को न छोड़ने पर — मानो उसे उठाकर नर्क में रख दिया जाएगा।

पाँच गति

और, सारिपुत्त, पाँच प्रकार की गति होती हैं। कौन सी पाँच?

  • नर्क
  • प्राणी योनि
  • प्रेत लोक
  • मनुष्य
  • देवता

सारिपुत्त, मैं नर्क को, नर्क जाने वाले मार्ग को, और नर्क ले जाने वाले आचरण को समझता हूँ। कोई कैसे (मार्ग पर) चलने पर मरणोपरांत काया छूटने पर, दुर्गति हो नर्क में उपजता है, वह समझता हूँ।

और, सारिपुत्त, मैं प्राणी योनि को, प्राणी योनि में जाने वाले मार्ग को, और प्राणी योनि में ले जाने वाले आचरण को समझता हूँ। कोई कैसे चलने पर मरणोपरांत काया छूटने पर प्राणी योनि में उपजता है, वह समझता हूँ।

और, सारिपुत्त, मैं प्रेत लोक को, प्रेत लोक जाने वाले मार्ग को, और प्रेत लोक ले जाने वाले आचरण को समझता हूँ। कोई कैसे चलने पर मरणोपरांत काया छूटने पर प्रेत लोक में उपजता है, वह समझता हूँ।

और, सारिपुत्त, मैं मनुष्य को, मानव लोक में जाने वाले मार्ग को, और मानव लोक में ले जाने वाले आचरण को समझता हूँ। कोई कैसे चलने पर मरणोपरांत काया छूटने पर मनुष्यों में उपजता है, वह समझता हूँ।

और, सारिपुत्त, मैं देवताओं को, देव लोक जाने वाले मार्ग को, और देव लोक ले जाने वाले आचरण को समझता हूँ। कोई कैसे चलने पर मरणोपरांत काया छूटने पर, सद्गति होकर देव लोक में उपजता है, वह समझता हूँ।

और, सारिपुत्त, मैं निर्वाण को, निर्वाण जाने वाले मार्ग को, और निर्वाण ले जाने वाले आचरण को समझता हूँ। कोई कैसे आस्रवों के क्षय होने से अनास्रव होकर, अभी इसी जीवन में चेतोविमुक्ति और प्रज्ञाविमुक्ति प्राप्त कर, प्रत्यक्ष-ज्ञान का साक्षात्कार कर विहार करते हैं, वह समझता हूँ।

नर्क

ऐसा है, सारिपुत्त, जब मैं किसी व्यक्ति के चित्त को अपने मानस से जान लेता हूँ — “जिस तरह इस व्यक्ति का आचरण (=पथगमन) है। वह ऐसे मार्ग पर आगे बढ़ रहा है, जहाँ कोई मरणोपरांत काया छूटने पर, दुर्गति हो नर्क में उपजता है।”

तब कुछ समय बीतने पर, मैं विशुद्ध हुए अलौकिक दिव्यचक्षु से देखता हूँ कि वह मरणोपरांत काया छूटने पर, दुर्गति हो नर्क में उपजा है। और वहाँ उसे मात्र केवल पीड़ाओं, तीव्र और कटु वेदनाओं की अनुभूति हो रही है।

जैसे कोई अंगारों से भरा गड्ढा हो — पुरुष-लंबाई से गहरा, जिसमें अंगारे न लौ फेंकते, न धुंवा देते धधक रहे हो। तब तपति गर्मी में कोई पुरुष आता है — गर्मी से बेहाल, थका मांदा, कपकपाता, और प्यासा — जो उसी एकतरफे मार्ग 2 पर आगे बढ़ रहा हो, जहाँ अंगारों से भरा गड्ढा हो।

तब कोई चक्षुमान (=आँखों वाला) पुरुष देख कर कहता है, “जिस तरह इस पुरुष का पथगमन (=आचरण) है, जिस मार्ग पर वह आगे बढ़ रहा है, वह उस अंगारों से भरे गड्ढे में जाएगा।”

तब कुछ समय बीतने पर, वह देखता है कि वाकई वह पुरुष उस अंगारों से भरे गड्ढे में गिरा पड़ा है, जहाँ उसे मात्र केवल पीड़ाओं, तीव्र और कटु वेदनाओं की अनुभूति हो रही है।

उसी तरह, सारिपुत्त, जब मैं किसी व्यक्ति के चित्त को अपने मानस से जान लेता हूँ — “जिस तरह इस व्यक्ति का आचरण है। वह ऐसे मार्ग पर आगे बढ़ रहा है, जहाँ कोई मरणोपरांत काया छूटने पर, दुर्गति हो नर्क में उपजता है।”

तब कुछ समय बीतने पर, मैं विशुद्ध हुए अलौकिक दिव्यचक्षु से देखता हूँ कि वह मरणोपरांत काया छूटने पर, दुर्गति हो नर्क में उपजा है। और वहाँ उसे मात्र केवल पीड़ाओं, तीव्र और कटु वेदनाओं की अनुभूति हो रही है।

प्राणी योनि

आगे, सारिपुत्त, जब मैं किसी व्यक्ति के चित्त को अपने मानस से जान लेता हूँ — “जिस तरह इस व्यक्ति का आचरण है। वह ऐसे मार्ग पर आगे बढ़ रहा है, जहाँ कोई मरणोपरांत काया छूटने पर, प्राणी योनि में उपजता है।”

तब कुछ समय बीतने पर, मैं विशुद्ध हुए अलौकिक दिव्यचक्षु से देखता हूँ कि वह मरणोपरांत काया छूटने पर, प्राणी योनि में उपजा है। और वहाँ उसे पीड़ाओं, तीव्र और कटु वेदनाओं की अनुभूति हो रही है।

जैसे कोई गू (=मानवीय मल, टट्टी) से भरा गड्ढा हो — पुरुष-लंबाई से गहरा, ऊपर तक गू से भरा हुआ। तब तपति गर्मी में कोई पुरुष आता है — गर्मी से बेहाल, थका मांदा, कपकपाता, और प्यासा — जो उसी एकतरफे मार्ग पर आगे बढ़ रहा हो, जहाँ गू से भरा गड्ढा हो।

तब कोई चक्षुमान पुरुष देख कर कहता है, “जिस तरह इस पुरुष का पथगमन है, जिस मार्ग पर वह आगे बढ़ रहा है, वह उस गू से भरे गड्ढे में जाएगा।”

तब कुछ समय बीतने पर, वह देखता है कि वाकई वह पुरुष उस गू से भरे गड्ढे में गिरा पड़ा है, जहाँ उसे पीड़ाओं, तीव्र और कटु वेदनाओं की अनुभूति हो रही है।

उसी तरह, सारिपुत्त, जब मैं किसी व्यक्ति के चित्त को अपने मानस से जान लेता हूँ — “जिस तरह इस व्यक्ति का आचरण है। वह ऐसे मार्ग पर आगे बढ़ रहा है, जहाँ कोई मरणोपरांत काया छूटने पर, प्राणी योनि में उपजता है।”

तब कुछ समय बीतने पर, मैं विशुद्ध हुए अलौकिक दिव्यचक्षु से देखता हूँ कि वह मरणोपरांत काया छूटने पर, प्राणी योनि में उपजा है। और वहाँ उसे पीड़ाओं, तीव्र और कटु वेदनाओं की अनुभूति हो रही है।

प्रेत लोक

आगे, सारिपुत्त, जब मैं किसी व्यक्ति के चित्त को अपने मानस से जान लेता हूँ — “जिस तरह इस व्यक्ति का आचरण है। वह ऐसे मार्ग पर आगे बढ़ रहा है, जहाँ कोई मरणोपरांत काया छूटने पर, प्रेत लोक में उपजता है।”

तब कुछ समय बीतने पर, मैं विशुद्ध हुए अलौकिक दिव्यचक्षु से देखता हूँ कि वह मरणोपरांत काया छूटने पर, प्रेत लोक में उपजा है। और वहाँ उसे ज्यादातर पीड़ाओं की ही अनुभूति हो रही है।

जैसे किसी ऊबड़-खाबड़ भूमि पर एक वृक्ष हो, विरल पत्तियों से छितर-बितर छाया देने वाला। तब तपति गर्मी में कोई पुरुष आता है — गर्मी से बेहाल, थका मांदा, कपकपाता, और प्यासा — जो उसी एकतरफे मार्ग पर आगे बढ़ रहा हो, जहाँ वह वृक्ष हो।

तब कोई चक्षुमान पुरुष देख कर कहता है, “जिस तरह इस पुरुष का पथगमन है, जिस मार्ग पर वह आगे बढ़ रहा है, वह उस वृक्ष तक पहुँचेगा।”

तब कुछ समय बीतने पर, वह देखता है कि वाकई वह पुरुष उस वृक्ष के ही नीचे बैठा या लेटा है, जहाँ उसे ज्यादातर पीड़ाओं की ही अनुभूति हो रही है।

उसी तरह, सारिपुत्त, जब मैं किसी व्यक्ति के चित्त को अपने मानस से जान लेता हूँ — “जिस तरह इस व्यक्ति का आचरण है। वह ऐसे मार्ग पर आगे बढ़ रहा है, जहाँ कोई मरणोपरांत काया छूटने पर, प्रेत लोक में उपजता है।”

तब कुछ समय बीतने पर, मैं विशुद्ध हुए अलौकिक दिव्यचक्षु से देखता हूँ कि वह मरणोपरांत काया छूटने पर, प्रेत लोक में उपजा है। और वहाँ उसे ज्यादातर पीड़ाओं की ही अनुभूति हो रही है।

मानव लोक

आगे, सारिपुत्त, जब मैं किसी व्यक्ति के चित्त को अपने मानस से जान लेता हूँ — “जिस तरह इस व्यक्ति का आचरण है। वह ऐसे मार्ग पर आगे बढ़ रहा है, जहाँ कोई मरणोपरांत काया छूटने पर, मानव लोक में उपजता है।”

तब कुछ समय बीतने पर, मैं विशुद्ध हुए अलौकिक दिव्यचक्षु से देखता हूँ कि वह मरणोपरांत काया छूटने पर, मानव लोक में उपजा है। और वहाँ उसे ज्यादातर सुखद अनुभूति हो रही है।

जैसे किसी समतल भूमि पर एक वृक्ष हो, घनघोर पत्तियों से गहरी छाया देने वाला। तब तपति गर्मी में कोई पुरुष आता है — गर्मी से बेहाल, थका मांदा, कपकपाता, और प्यासा — जो उसी एकतरफे मार्ग पर आगे बढ़ रहा हो, जहाँ वह वृक्ष हो।

तब कोई चक्षुमान पुरुष देख कर कहता है, “जिस तरह इस पुरुष का पथगमन है, जिस मार्ग पर वह आगे बढ़ रहा है, वह उस वृक्ष तक पहुँचेगा।”

तब कुछ समय बीतने पर, वह देखता है कि वाकई वह पुरुष उस वृक्ष के ही नीचे बैठा या लेटा है, जहाँ उसे ज्यादातर सुखद अनुभूति हो रही है।

उसी तरह, सारिपुत्त, जब मैं किसी व्यक्ति के चित्त को अपने मानस से जान लेता हूँ — “जिस तरह इस व्यक्ति का आचरण है। वह ऐसे मार्ग पर आगे बढ़ रहा है, जहाँ कोई मरणोपरांत काया छूटने पर, मानव लोक में उपजता है।”

तब कुछ समय बीतने पर, मैं विशुद्ध हुए अलौकिक दिव्यचक्षु से देखता हूँ कि वह मरणोपरांत काया छूटने पर, मानव लोक में उपजा है। और वहाँ उसे ज्यादातर सुखद अनुभूति हो रही है।

देव लोक

आगे, सारिपुत्त, जब मैं किसी व्यक्ति के चित्त को अपने मानस से जान लेता हूँ — “जिस तरह इस व्यक्ति का आचरण है। वह ऐसे मार्ग पर आगे बढ़ रहा है, जहाँ कोई मरणोपरांत काया छूटने पर, सद्गति होकर देव लोक में उपजता है।”

तब कुछ समय बीतने पर, मैं विशुद्ध हुए अलौकिक दिव्यचक्षु से देखता हूँ कि वह मरणोपरांत काया छूटने पर, देव लोक में उपजा है। और वहाँ उसे मात्र केवल सुखद अनुभूति हो रही है।

जैसे कोई महल हो — शिखर छत वाली हवेली, भीतर और बाहर से उपलिप्त (=पलस्तर किया), बन्द होने वाला दरवाजा, पवन से बचने के लिए बंद होने वाली खिड़कियाँ हो। और वहाँ एक राज-सिंहासन जैसा बिस्तर हो — लंबी ऊनी चादर रखा, सफ़ेद ऊनी चादर रखा, कढ़ाईदार चादर रखा, नीचे कदली-मृग की खाल का गलीचा, ऊपर छत्र खुला, दोनों ओर लाल तकिये रखा हुआ।

तब तपति गर्मी में कोई पुरुष आता है — गर्मी से बेहाल, थका मांदा, कपकपाता, और प्यासा — जो उसी एकतरफे मार्ग पर आगे बढ़ रहा हो, जहाँ वह महल हो।

तब कोई चक्षुमान पुरुष देख कर कहता है, “जिस तरह इस पुरुष का पथगमन है, जिस मार्ग पर वह आगे बढ़ रहा है, वह उस महल तक पहुँचेगा।”

तब कुछ समय बीतने पर, वह देखता है कि वाकई वह पुरुष उस महल में हवेली के भीतर उस बिस्तर पर बैठा या लेटा है, जहाँ उसे मात्र केवल सुखद अनुभूति हो रही है।

उसी तरह, सारिपुत्त, जब मैं किसी व्यक्ति के चित्त को अपने मानस से जान लेता हूँ — “जिस तरह इस व्यक्ति का आचरण है। वह ऐसे मार्ग पर आगे बढ़ रहा है, जहाँ कोई मरणोपरांत काया छूटने पर, देव लोक में उपजता है।”

तब कुछ समय बीतने पर, मैं विशुद्ध हुए अलौकिक दिव्यचक्षु से देखता हूँ कि वह मरणोपरांत काया छूटने पर, देव लोक में उपजा है। और वहाँ उसे मात्र केवल सुखद अनुभूति हो रही है।

अरहंत

आगे, सारिपुत्त, जब मैं किसी व्यक्ति के चित्त को अपने मानस से जान लेता हूँ — “जिस तरह इस व्यक्ति का आचरण है। वह ऐसे मार्ग पर आगे बढ़ रहा है, जहाँ कोई आस्रवों के क्षय होने से अनास्रव होकर, अभी इसी जीवन में चेतोविमुक्ति और प्रज्ञाविमुक्ति प्राप्त कर, प्रत्यक्ष-ज्ञान का साक्षात्कार कर विहार करता है।”

तब कुछ समय बीतने पर, मैं विशुद्ध हुए अलौकिक दिव्यचक्षु से देखता हूँ कि वह वाकई आस्रवों के क्षय होने से अनास्रव होकर, अभी इसी जीवन में चेतोविमुक्ति और प्रज्ञाविमुक्ति प्राप्त कर, प्रत्यक्ष-ज्ञान का साक्षात्कार कर विहार कर रहा है। और उसे मात्र केवल सुखद अनुभूति हो रही है।

जैसे कोई पुष्करणी (=कमलपुष्प वाला तालाब) हो — पारदर्शी, मधुर, शीतल और स्वच्छ जल हो, मंद तट हो, रमणीय हो। और, पास ही घना वन उद्यान हो।

तब तपति गर्मी में कोई पुरुष आता है — गर्मी से बेहाल, थका मांदा, कपकपाता, और प्यासा — जो उसी एकतरफे मार्ग पर आगे बढ़ रहा हो, जहाँ वह पुष्करणी हो।

तब कोई चक्षुमान पुरुष देख कर कहता है, “जिस तरह इस पुरुष का पथगमन है, जिस मार्ग पर वह आगे बढ़ रहा है, वह उस पुष्करणी तक पहुँचेगा।”

तब कुछ समय बीतने पर, वह देखता है कि वाकई वह पुरुष ने उस पुष्करणी में उतर कर, (शीतल जल में) नहाकर और पीकर, अपना सारा तनाव, थकान, और गर्मी से बेहालत को मिटाकर, बाहर निकल कर उस वन उद्यान में बैठा या लेटा है, जहाँ उसे मात्र केवल सुखद अनुभूति हो रही है।

उसी तरह, सारिपुत्त, जब मैं किसी व्यक्ति के चित्त को अपने मानस से जान लेता हूँ — “जिस तरह इस व्यक्ति का आचरण है। वह ऐसे मार्ग पर आगे बढ़ रहा है, जहाँ कोई आस्रवों के क्षय होने से अनास्रव होकर, अभी इसी जीवन में चेतोविमुक्ति और प्रज्ञाविमुक्ति प्राप्त कर, प्रत्यक्ष-ज्ञान का साक्षात्कार कर विहार करता है।”

तब कुछ समय बीतने पर, मैं विशुद्ध हुए अलौकिक दिव्यचक्षु से देखता हूँ कि वह वाकई आस्रवों के क्षय होने से अनास्रव होकर, अभी इसी जीवन में चेतोविमुक्ति और प्रज्ञाविमुक्ति प्राप्त कर, प्रत्यक्ष-ज्ञान का साक्षात्कार कर विहार कर रहा है। और उसे मात्र केवल सुखद अनुभूति हो रही है।

— सारिपुत्त, ये पाँच गतियाँ होती हैं।

और, ऐसा जानते हुए, ऐसा देखते हुए, सारिपुत्त, जब कोई कहता है कि “श्रमण गौतम को कोई अलौकिक अवस्था, कोई विशेष आर्य ज्ञान-दर्शन प्राप्त नहीं है। वे केवल अपनी तार्किक बुद्धि से ठोक-पीटकर निकाले हुए, विवेकबुद्धि से उपजे हुए धर्म का उपदेश करते हैं” — तो ऐसी वाणी को न त्यागने पर, ऐसे चित्त को न त्यागने पर, ऐसी धारणा को न छोड़ने पर — मानो उसे उठाकर नर्क में रख दिया जाएगा।

जैसे कोई भिक्षु शील-संपन्न, समाधि-संपन्न, प्रज्ञा-संपन्न, अभी इसी जीवन में प्रत्यक्ष-ज्ञान प्राप्त हो, उसके लिए भी, मैं कहता हूँ, सारिपुत्त, यही परिणाम होगा। ऐसी वाणी को न त्यागने पर, ऐसे चित्त को न त्यागने पर, ऐसी धारणा को न छोड़ने पर — मानो उसे उठाकर नर्क में रख दिया जाएगा।

बोधिसत्व की तपश्चर्या

सारिपुत्त, मुझे याद है मैंने चार अंगों से संपन्न ब्रह्मचर्य का पालन किया था 3 — मैं तपस्वी था, परम तपस्वी। मैं रूखा था, परम रूखा। मैं घृणा-तपी 4 था, परम घृणा-तपी। मैं एकांतवासी था, परम एकांतवासी।

और, सारिपुत्त, इस तरह मेरी तपस्या थी — मैं निर्वस्त्र रहता था, [सामाजिक आचरण से] मुक्त रहता था। मैं हाथ चाटता था। मैं बुलाने पर नहीं जाता था, रोके जाने पर नहीं रुकता था। मैं अपने लिए लायी भिक्षा को नहीं लेता था, अपने लिए पकाये भोज को नहीं लेता था, निमंत्रण भोज पर नहीं जाता था।

मैं [भोजन पकाये] हाँडी से भिक्षा नहीं लेता था, [भोजन पकाये] बर्तन से भिक्षा नहीं लेता था। मैं द्वार के अंतराल से भिक्षा नहीं लेता था, डंडे के अंतराल से भिक्षा नहीं लेता था, मूसल के अंतराल से भिक्षा नहीं लेता था। मैं दो लोग भोजन साथ करने वालों से भिक्षा नहीं लेता था, गर्भिणी स्त्री से भिक्षा नहीं लेता था, दूध पिलाती स्त्री से भिक्षा नहीं लेता था, पुरुष के पास गयी स्त्री से भिक्षा नहीं लेता था, संग्रहीत किए भिक्षा को नहीं लेता था। मैं कुत्ता खड़े स्थान से भिक्षा नहीं लेता था, भिनभिनाती मक्खियों के स्थान से भिक्षा नहीं लेता था। मैं माँस नहीं लेता था, मछली नहीं लेता था, कच्ची शराब नहीं लेता था, पक्की शराब नहीं लेता था, चावल की शराब नहीं पीता था।

मैं भिक्षाटन के लिए केवल एक घर जाकर एक निवाला लेता था, अथवा दो घर जाकर दो निवाले लेता… (या तीन… चार… पाँच… छह…) अथवा सात घर जाकर सात निवाले लेता था। केवल एक ही कलछी पर यापन करता था, अथवा दो कलछी पर यापन करता… (या तीन… चार… पाँच… छह…) अथवा सात कलछी पर यापन करना। दिन में एक बार आहार लेता था, दो दिनों में एक बार आहार लेता… (या तीन… चार… पाँच… छह…) एक सप्ताह में एक बार आहार लेता। और ऐसे ही आधे-आधे महीने के स्थिर अंतराल में एक ही बार आहार लेते हुए विहार करता था।

मैं (केवल) साग खाकर रहता था, या (केवल) जंगली बाजरा खाकर रहता था, या (केवल) लाल चावल खाकर रहता था, या (केवल) चमड़े के टुकड़े खाकर रहता था, या (केवल) शैवाल [=जल के पौधे] खाकर रहता था, या (केवल) कणिक [=टूटा चावल] खाकर रहता था, या (केवल) काँजी [=उबले चावल का पानी] पीकर रहता था, या (केवल) तिल खाकर रहता था, या (केवल) घास खाकर रहता था, या (केवल) गोबर खाकर रहता था, या (केवल) जंगल के कन्द-मूल या गिरे हुए फल खाकर यापन करता था।

मैं (केवल) सन के रूखे वस्त्र पहनता था, या (केवल) सन में मिलावट किए रूखे वस्त्र पहनता था, या (केवल) फेंके लाश के वस्त्र पहनता था, या (केवल) चिथड़े सिला वस्त्र पहनता था, या (केवल) लोध्र के वस्त्र पहनता था, या (केवल) हिरण-खाल पूर्ण पहनता था, या (केवल) हिरण-खाल के टुकड़े पहनता था, या (केवल) कुशघास के वस्त्र पहनता था, या (केवल) वृक्षछाल के वस्त्र पहनता था, या (केवल) लकड़ी के छिलके का वस्त्र पहनता था, या (केवल) [मनुष्य के] केश का कंबल पहनता था, या (केवल) घोड़े की पूँछ के बाल का कंबल पहनता था, या (केवल) उल्लू के पंखों का वस्त्र पहनना।

मैं सिर-दाढ़ी के बाल नोचकर निकालता था, या बाल नोचकर निकालने के प्रति संकल्पबद्ध रहता था। मैं बैठना त्यागकर सदा खड़े ही रहता था, या उकड़ूँ बैठकर सदा उकड़ूँ ही बैठता था। मैं काँटों की चटाई पर लेटता और काँटों की चटाई को ही अपना बिस्तर बनाता था, या सदा तख़्ते पर सोता था, या सदा जमीन पर सोता था। मैं सदा एक ही करवट सोता था।

मैं शरीर पर धूल और गंदगी लपेटे रहता था। मैं सदा खुले आकाश के तले रहता था, या जहाँ चटाई बिछाएँ वही सोता था, या (केवल) गंदगी खाता और गंदगी खाने के प्रति संकल्पबद्ध रहता था। मैं कभी पानी न पीता और पानी न पीने के प्रति संकल्पबद्ध रहता था। या मैं शरीर को सुबह-दोपहर-शाम तीन बार जल में डुबोता था, और तीन बार डुबोने के प्रति संकल्पबद्ध रहता था। और ऐसे विविध तरह से मैं काया को पीड़ा देने, घोर कष्ट देने के प्रति संकल्पबद्ध रहता था।

— इस तरह, सारिपुत्त, मेरी तपस्या थी।

और, सारिपुत्त, इस तरह मेरा रूखापन था — कई वर्षों तक मेरी काया पर धूल और मल जमते हुए पपड़ी बन गयी, जो उखड़ने लगी।

जैसे, तेन्दु (पेड़) के तने पर कई वर्षों तक छाल जमते हुए पपड़ी बनती है, जो उखड़ने लगती है। उसी तरह, सारिपुत्त, कई वर्षों तक मेरी काया पर धूल और मल जमते हुए पपड़ी बन गयी, जो उखड़ने लगी। किन्तु, तब भी मुझे ऐसा नहीं लगा, ‘अरे, इस धूल और मल को मैं अपने इस हाथ से झाड़ दूँ! अरे, इस धूल और मल को मैं अपने उस हाथ से झाड़ दूँ!’ ऐसा भी, सारिपुत्त, मुझे नहीं लगा।

— इस तरह, सारिपुत्त, मेरा रूखापन था।

और, सारिपुत्त, इस तरह मेरी घृणा-तप था — स्मृतिमान होकर मैं कदम बढ़ाता, और स्मृतिमान होकर कदम खींचता। जल की एक बूँद के लिए तक मुझे दया होती, “कहीं यहाँ-वहाँ (विषम) चलते हुए, मैं छोटे जीवों को आघात न पहुँचाऊँ!”

— इस तरह, सारिपुत्त, मेरी घृणा-तप था।

और, सारिपुत्त, इस तरह मेरा एकांतवास था — मैं घने से घने जंगली इलाके में प्रवेश पाकर विहार करता था। यदि मुझे कोई गोपालक, या पशुपालक, या घास तोड़ने वाले, या लकड़ी बिनने वाले, या (राजा की ओर से नियुक्त) वनकर्मी दिखाई देते, तो मैं एक वन से दूसरे वन, एक झुरमुट से दूसरे झुरमुट, एक घाटी से दूसरे घाटी, एक पठार से दूसरे पठार चला जाता। ऐसा क्यों? ‘ताकि वे मुझे न दिखें, न ही मैं उन्हें दिखूँ!’

जैसे, सारिपुत्त, कोई जंगली हिरण मनुष्यों को देखकर एक वन से दूसरे वन, एक झुरमुट से दूसरे झुरमुट, एक घाटी से दूसरे घाटी, एक पठार से दूसरे पठार चला जाता है। उसी तरह, यदि मुझे कोई गोपालक, या पशुपालक, या घास तोड़ने वाले, या लकड़ी बिनने वाले, या वनकर्मी दिखाई देते, तो मैं एक वन से दूसरे वन, एक झुरमुट से दूसरे झुरमुट, एक घाटी से दूसरे घाटी, एक पठार से दूसरे पठार चला जाता। ऐसा क्यों? ‘ताकि वे मुझे न दिखें, न ही मैं उन्हें दिखूँ!’

— इस तरह, सारिपुत्त, मेरा एकांतवास था।

और, सारिपुत्त, गोशाला में गायों के चले जाने पर, मैं (जानवर की तरह) हाथ-पैरों पर चलकर जाता, और दूध-पीते नन्हें बछड़ों का यहाँ-वहाँ पड़े हुए गोबर को अपना आहार बनाता। जब तक मेरा स्वयं का मलमूत्र बचा होता, तब तक स्वयं के मलमूत्र को भी मैं अपना आहार बनाता।

— इस तरह, सारिपुत्त, मेरा महाविकट 5 भोजन था।

और, सारिपुत्त, मैं किसी-किसी भयानक उपवन में जाकर विहार करता था। ऐसा भयानक उपवन, सारिपुत्त, जो बहुत डरावना हो। जिस उपवन में यदि कोई अ-वीतरागी जाए तो उसके रोंगटे खड़े हो जाए।

और, सारिपुत्त, शीतकाल की ठंडी रातों में, (जनवरी माह की) अष्टमियों के बीच, जब हिमपात का समय होता है — मैं वैसी रातों में रात के समय आकाश के नीचे विहार करता, और दिन के समय उपवन में। और, (उसके विपरीत) ग्रीष्मकाल के अंतिम महीने में — मैं (झुलसते) दिन के समय आकाश के नीचे विहार करता, और रात के समय उपवन में।

और, तब, सारिपुत्त, मुझे पहले कभी न सुनी गयी, अनाश्चर्यकारक 6 गाथाएँ सूझ पड़ी —

‘झुलसा, और (ठंडी से) जम गया,
अकेले, भयानक उपवन में।
नंगा रह, बिना अग्नि के पास बैठे,
मुनि, ध्येय की खोज में।

और, सारिपुत्त, मैं श्मशान को अपना बिस्तर बनाता, और शव की हड्डियों को अपना तकिया। और, तब गाँव के बदमाश मेरे पास आते और मुझ पर थूकते, मुझ पर मूत्र विसर्जित करते, मुझ पर मिट्टी फेंकते, मेरे कानों में लकड़ी डालते। किन्तु, मुझे याद नहीं आता कि उनके लिए कभी कोई मेरा दूषित चित्त उपजा हो।

— इस तरह, सारिपुत्त, मेरा तटस्थतापूर्वक विहार करना था।

आहार से शुद्धि

अब, सारिपुत्त, ऐसे कुछ श्रमण और ब्राह्मण हैं, जिनकी ऐसी धारणा है, ऐसी दृष्टि है — “आहार से शुद्धि होती है।” वे कहते हैं, “हम बेर पर जीते हैं।” वे बेर को खाते हैं, बेर का चूर्ण खाते हैं, बेर का रस पीते हैं, और विभिन्न प्रकारों के बेर मिश्रणों का उपभोग करते हैं।

किन्तु, सारिपुत्त, मुझे केवल एक बेर के आहार पर जीना याद है। हो सकता है, सारिपुत्त, तुम्हें लगे कि “शायद उस समय बेर का आकार बहुत बड़ा होगा!” किन्तु ऐसा मत देखों, सारिपुत्त। उस समय भी बेर का आकार लगभग उतना ही था, जितना वर्तमान में है।

इस तरह, सारिपुत्त, केवल एक बेर के आहार पर जीकर मेरी काया बहुत दुर्बल हो गयी। अल्प भोजन करने से मेरे अंग — बेल या बांस के जोड़ वाले खंडों जैसे हो गए। मेरी पीठ — ऊंट की कूबड़ जैसी हो गई। मेरी रीढ़ — मोतियों की माला की तरह उभर कर आयी। मेरी पसलियां — किसी पुराने जर्जर भण्डार के धरनों की तरह बाहर निकली।

अल्प भोजन करने से मेरी आंखों की चमक — गड्ढों में गहराई तक धँस गयी, जैसे किसी कुएं में गहराई तक जाकर जल चमकता है। मेरा सिर — किसी सूखे सिकुड़े करेले की तरह सूख कर सिकुड़ गया। मेरे पेट की त्वचा — मेरी रीढ़ से इस तरह चिपक गई कि जब मैं अपने पेट को छूना चाहता, तो रीढ़ भी हाथ में आती; और रीढ़ को छूना चाहता, तो पेट की त्वचा हाथ में आती।

अल्प भोजन करने से, जब मैं पेशाब या शौच करता — तो वहीं मुँह के बल गिर पड़ता! यदि हाथों से अपने अंगों को मलता, तो मेरे रोम जड़ों से उखड़ कर गिरते!

अब, सारिपुत्त, ऐसे कुछ श्रमण और ब्राह्मण हैं, जिनकी ऐसी धारणा है, ऐसी दृष्टि है — “आहार से शुद्धि होती है।” वे कहते हैं, “हम मूँग… तिल… चावल पर जीते हैं।” वे चावल खाते हैं, चावल का चूर्ण खाते हैं, चावल का पानी पीते हैं, और विभिन्न प्रकारों के चावल मिश्रणों का उपभोग करते हैं।

किन्तु, सारिपुत्त, मुझे केवल एक मूँग के दाने… तिल के दाने… चावल के दाने के आहार पर जीना याद है। हो सकता है, सारिपुत्त, तुम्हें लगे कि “शायद उस समय चावल के दाना का आकार बहुत बड़ा होगा!” किन्तु ऐसा मत देखों, सारिपुत्त। उस समय भी चावल के दाने का आकार लगभग उतना ही था, जितना वर्तमान में है।

इस तरह, सारिपुत्त, केवल एक चावल के दाने के आहार पर जीकर मेरी काया बहुत दुर्बल हो गयी। अल्प भोजन करने से मेरे अंग — बेल या बांस के जोड़ वाले खंडों जैसे हो गए। मेरी पीठ — ऊंट की कूबड़ जैसी हो गई। मेरी रीढ़ — मोतियों की माला की तरह उभर कर आयी। मेरी पसलियां — किसी पुराने जर्जर भण्डार के धरनों की तरह बाहर निकली।

अल्प भोजन करने से मेरी आंखों की चमक — गड्ढों में गहराई तक धँस गयी, जैसे किसी कुएं में गहराई तक जाकर जल चमकता है। मेरा सिर — किसी सूखे सिकुड़े करेले की तरह सूख कर सिकुड़ गया। मेरे पेट की त्वचा — मेरी रीढ़ से इस तरह चिपक गई कि जब मैं अपने पेट को छूना चाहता, तो रीढ़ भी हाथ में आती; और रीढ़ को छूना चाहता, तो पेट की त्वचा हाथ में आती।

अल्प भोजन करने से, जब मैं पेशाब या शौच करता — तो वहीं मुँह के बल गिर पड़ता! यदि हाथों से अपने अंगों को मलता, तो मेरे रोम जड़ों से उखड़ कर गिरते!

किन्तु, सारिपुत्त, ऐसे आचरण से, ऐसी साधना पथ से, इतनी कड़ी दुष्कर चर्या के पश्चात भी मैंने कोई अलौकिक अवस्था, कोई विशेष आर्य ज्ञान-दर्शन प्राप्त नहीं किया। ऐसा क्यों?

क्योंकि मैंने कोई आर्य प्रज्ञा प्राप्त नहीं की — जो आर्य प्रज्ञा ‘आर्यता’ लाती हो, परे ले जाती हो, जो उसके प्राप्तकर्ता को सम्यक रूप से सभी दुःखों के अन्त की ओर ले जाती हो।

संसरण से शुद्धि

अब, सारिपुत्त, ऐसे कुछ श्रमण और ब्राह्मण हैं, जिनकी ऐसी धारणा है, ऐसी दृष्टि है — “संसरण 7 से शुद्धि होती है।”

किन्तु, सारिपुत्त, इतने दीर्घकाल में ऐसे संसरण को ढूँढना कठिन है, जहाँ मैंने पहले संसरण न किया हो, बजाए शुद्धवास देवलोक के। क्योंकि, यदि मैं शुद्धवास देवलोक में संसरण करता, तो इस लोक में दुबारा नहीं लौटता।

पुनर्जन्म से शुद्धि

अब, सारिपुत्त, ऐसे कुछ श्रमण और ब्राह्मण हैं, जिनकी ऐसी धारणा है, ऐसी दृष्टि है — “(बार-बार के) पुनर्जन्म (“उपपत्ति”) से शुद्धि होती है।”

किन्तु, सारिपुत्त, इतने दीर्घकाल में ऐसे पुनर्जन्म को ढूँढना कठिन है, जहाँ मैंने पहले जन्म न लिया हो, बजाए शुद्धवास देवलोक के। क्योंकि, यदि मैं शुद्धवास देवलोक में जन्म लेता, तो इस लोक में दुबारा नहीं लौटता।

आवास से शुद्धि

अब, सारिपुत्त, ऐसे कुछ श्रमण और ब्राह्मण हैं, जिनकी ऐसी धारणा है, ऐसी दृष्टि है — “(किसी विशेष) आवास से शुद्धि होती है।”

किन्तु, सारिपुत्त, इतने दीर्घकाल में ऐसे आवास को ढूँढना कठिन है, जहाँ मैंने पहले आवास न लिया हो, बजाए शुद्धवास देवलोक के। क्योंकि, यदि मैं शुद्धवास देवलोक में जन्म लेता, तो इस लोक में दुबारा नहीं लौटता।

यज्ञ से शुद्धि

अब, सारिपुत्त, ऐसे कुछ श्रमण और ब्राह्मण हैं, जिनकी ऐसी धारणा है, ऐसी दृष्टि है — “यज्ञ से शुद्धि होती है।”

किन्तु, सारिपुत्त, इतने दीर्घकाल में ऐसे यज्ञ को ढूँढना कठिन है, जो मैंने पहले यज्ञ न किया हो, जब मैं क्षत्रिय राजा, राजतिलक हुआ नरेश था, या महासंपत्तिशाली ब्राह्मण था।

अग्निसेवा से शुद्धि

अब, सारिपुत्त, ऐसे कुछ श्रमण और ब्राह्मण हैं, जिनकी ऐसी धारणा है, ऐसी दृष्टि है — “अग्निसेवा से शुद्धि होती है।”

किन्तु, सारिपुत्त, इतने दीर्घकाल में ऐसी अग्निसेवा को ढूँढना कठिन है, जो मैंने पहले अग्निसेवा न की हो, जब मैं क्षत्रिय राजा, राजतिलक हुआ नरेश था, या महासंपत्तिशाली ब्राह्मण था।

प्रज्ञा में कमी

अब, सारिपुत्त, ऐसे कुछ श्रमण और ब्राह्मण हैं, जिनकी ऐसी धारणा है, ऐसी दृष्टि है — “जब तक कोई पुरुष जवान हो, युवा, काले केश वाला, जीवन के प्रथम चरण में, यौवन वरदान से युक्त — तब तक वह प्रज्ञा की परम स्पष्टता से संपन्न होगा। किन्तु, जब वह जीर्ण हो जाएगा, वृद्ध, बूढ़ा, पकी उम्र, जीवन के अंतिम चरण को प्राप्त, अस्सी, नब्बे या सौ वर्षों की उम्र — तब उसके प्रज्ञा की स्पष्टता की हानी हो जाएगी।

किन्तु, सारिपुत्त, तुम्हें ऐसे नहीं देखना चाहिए।

क्योंकि, मैं जीर्ण हो चुका हूँ — वृद्ध, बूढ़ा, पकी उम्र, जीवन के अंतिम चरण को प्राप्त! मेरी उम्र अस्सी वर्ष है।

कल्पना करो कि मेरे चार श्रावक हो — सौ वर्षों की उम्र वाले, अपनी स्मरणशीलता, याददाश्त और अनुस्मरण में परम, और अपने प्रज्ञा की स्पष्टता में परम। और जैसे कोई तीरंदाज हो — शिक्षित, कौशलपूर्ण, अभ्यस्त — जो मजबूत धनुष से सरलतापूर्वक एक हल्के तीर को ताड़ वृक्ष की छाया के आगे चलाए। उसी तरह, मेरे श्रावक अत्यधिक स्मरणशील, अत्यधिक तेज याददाश्त, और अत्यधिक तेज अनुस्मरण कर्ता, और अपने प्रज्ञा की स्पष्टता में परमता से संपन्न हो।

वे मुझे चार स्मृतिप्रस्थान के बारे में बार-बार प्रश्न पुछते रहें, और मैं बार-बार पुछे प्रश्नों का उत्तर देते रहूँ। और वे उन उत्तरों को धारण करें, और दुबारा उसी प्रश्नों को न पुछें। और वे केवल खाते, पीते, चबाते, स्वाद लेते, मलमूत्र त्यागते, थकान को मिटाने लिए नींद लेते समय ही रुकें। तथागत की धर्मदेशना का अन्त न होगा, तथागत के धर्मपदों का अन्त न होगा, तथागत के जलद उत्तरों का अन्त न होगा, किन्तु वे चारों श्रावक, सौ वर्षों की उम्र वाले, सौ वर्ष बीतने पर गुजर जाएँगे।

सारिपुत्त, भले ही मुझे अंततः पलंग पर उठाना पड़ें, किन्तु तथागत के प्रज्ञा की स्पष्टता में कभी कोई बदलाव नहीं आएगा।

और, यदि किसी के बारे में सही रूप में कहा जाएँ कि “कोई सत्व बिना भ्रांति के इस लोक में उत्पन्न हुआ है — बहुजनों के हित के लिए, बहुजनों के सुख के लिए, इस दुनिया पर उपकार करते हुए, देव और मानव के कल्याण, हित और सुख के लिए!” तो वह मेरे बारे में सही रूप से कहा जा सकता हैं कि “कोई सत्व बिना भ्रांति के इस लोक में उत्पन्न हुआ है — बहुजनों के हित के लिए, बहुजनों के सुख के लिए, इस दुनिया पर उपकार करते हुए, देव और मानव के कल्याण, हित और सुख के लिए!”

उस समय आयुष्मान नागसमाल भगवान के पीठ पीछे खड़े थे, भगवान को पंखा झलते हुए। तब आयुष्मान नागसमाल ने भगवान से कहा, “आश्चर्य है, भंते! अद्भुत है, भंते! इस धर्म उपदेश को सुनकर मेरे रोंगटे खड़े हो गए! क्या नाम है, भंते, इस धर्म उपदेश का?”

“ठीक है, तब, नागसमाल, इस धर्म उपदेश को ‘रोंगटे खड़े करने वाला’ धारण करो।”

भगवान ने ऐसा कहा। हर्षित होकर आयुष्मान नागसमाल ने भगवान के कथन का अभिनंदन किया।

सुत्र समाप्त।


  1. गौर करें कि सम्यक संबोधि प्राप्त करने के पश्चात, तथागत के द्वारा दूसरे सत्वों के इंद्रिय विकास (=आध्यात्मिक क्षमताएँ) के अवलोकन की बात कई प्रारंभिक सूत्रों में दर्ज हैं (जैसे मज्झिमनिकाय २६, मज्झिमनिकाय ८५, दीघनिकाय १४, संयुक्तनिकाय ६.१ इत्यादि।) किन्तु, तथाकथित “पारमिताओं” के अवलोकन का उल्लेख कहीं नहीं मिलता। ↩︎

  2. दशकों तक एकायनो मग्गो का अनुवाद होता था, ‘इकलौता मार्ग’। किंतु, भन्ते ञाणमोली के पश्चात, अनुवादकों ने उसके पूर्व संदर्भ की ओर गौर किया, और पाया कि दरअसल उसका अर्थ वन वे होता है। अर्थात, ऐसा एक-तरफा रास्ता, जो एक ही दिशा में आगे बढ़े, और एक ही मंज़िल पर ले जाए, दुसरे रास्तें न खुले। ↩︎

  3. यहाँ लगता है कि भगवान ने बोधिसत्व की कठोर तपस्या का जिक्र इसलिए किया, क्योंकि दीघनिकाय २४ के अनुसार सुनक्खत लिच्छविपुत्र सिर्फ सख्त और आत्मपीड़क तपों से ही प्रभावित होता था। उसका मानना था कि जो तपस्वी अपने शरीर को बहुत कष्ट देता है, वही सच में अरहंत होगा। मध्यम मार्ग उसे पसंद नहीं था। कठोर तपस्या की निरर्थकता को अच्छे से समझने के लिए दीघनिकाय ८ पढ़ें।

    यहाँ बुद्धत्व प्राप्त करने से पहले बोधिसत्व की आत्मपीड़ादायक तपस्या का एक अलग तरह का वर्णन है। भिक्षु सुजातों जैसे कुछ विद्वानों के अनुसार, ये तप — जो ज्यादातर जैन परंपरा जैसे लगते हैं — बोधिसत्व के महाभिनिष्क्रमण और संबोधि पाने के बीच के छह वर्षों में अलग-अलग समय पर अपनाए गए होंगे।

    लेकिन थानिस्सरो भंते और अन्य विद्वानों के साथ मेरा स्वयं का भी यह मानना है कि यहाँ भगवान अपने पूर्वजन्मों की तपस्याओं को याद कर रहे हैं। क्योंकि जब वे सूत्र में आगे जाकर, केवल एक बेर के आहार पर जीवित रहने का उल्लेख करते हैं, तब सारिपुत्त से कहते हैं कि “शायद तुम्हें लगे कि उस समय बेर का आकार बहुत बड़ा होगा।” लेकिन उस समय के बेर का आकार लगभग उतना ही था, जितना वर्तमान में है।” इस बात से मुझे लगता है कि भगवान के द्वारा यह स्पष्टीकरण देना, निश्चित रूप से, पूर्वजन्मों की ओर इशारा करता है। ↩︎

  4. जेगुच्छ का सामान्य अर्थ है “घिन” या “घृणित” होना। लेकिन यहाँ आशय है पाप से घृणा करने वाला — ऐसा घृणा-तपी व्यक्ति जो साधारण सावधानी की सीमा से आगे बढ़कर, लगभग पागलपन की हद तक घृणित होकर जीता है, और फलस्वरूप अति-सतर्कता बरतता है।

    जैन परंपरा में इसका उदाहरण अनेक रूपों में मिलता है — जैसे, किसी जीव के प्रति हिंसा न हो, इस भय से मुँह पर कपड़ा (मुखपट्टिका) बाँधना ताकि साँस से सूक्ष्म जीव न मारे जाएँ; जल, अन्न या वस्त्र को बार-बार जाँचकर ही प्रयोग करना; अंधेरे में चलने से बचना; रात में जल न पीना; पाँव में झाड़न (पिच्छी) रखना ताकि अनजाने में छोटे प्राणियों को न कुचला जाए; और भोजन में अत्यधिक चयनशीलता रखना, यहाँ तक कि कुछ ऋतुओं में कन्दमूल, हरी पत्तियाँ या जल तक का त्याग कर देना।

    लेकिन बुद्ध ने पागलपन की हद तक नहीं, बल्कि एक सीमा में रहकर सतर्क रहने का अभ्यास सिखाया। इसमें शारीरिक कृत्य से अधिक महत्वपूर्ण चेतना या इरादा होता है। यदि किसी से भूलवश जीवहत्या हो जाए, तो यह देखा जाता है कि “क्या आपकी चेतना मारने की थी?” यदि कोई जीव बिना मारने की चेतना के मारा जाए, तो वह पाप कर्म नहीं बनता। इस प्रकार, बौद्ध साधना में संयम और सतर्कता तो है, पर वह विवेक और मध्यम मार्ग के भीतर रहकर ही की जाती है।

    घृणा तप पर, भगवान ने कुछ परिधर्मी घुमक्कड़ों से विस्तार से बात कर, उन्हें उस दृष्टि से निकालने का निष्फल प्रयास किया। जानने के लिए पढ़ें — दीघनिकाय २५ ↩︎

  5. विनयपिटक के महावग्ग में भेसज्जखन्धक ६:१४ के अनुसार, महाविकट भोजन चार प्रकार के होते हैं, जो साँप के काटने या भूतबाधा होने पर खिलाए जाते हैं — (मानवीय) मल, मूत्र, राख़, और मिट्टी। ↩︎

  6. अनाश्चर्यकारक का यहाँ अर्थ है, जो किसी दिव्यशक्ति से प्राप्त न हो। विद्वानों का मानना है कि ऐसी गाथाएँ सूझ पड़ना, जो पहले सुनी न गयी हो, और जब उनका स्त्रोत या माध्यम दिव्य हो, तब उन्हें “आश्चर्यकारक गाथाएँ” कहते हैं। वैदिक परंपरा के अनुसार, ऐसी आश्चर्यकारक गाथाएँ, जिन्हें ‘श्रुति’ भी कहते हैं, वे ईश्वर या देवताओं के माध्यम से प्राप्त होती हैं। ठीक उसी तरह, जैसे पैगंबरों को कोई दिव्यशक्ति आकर गाथाओं में धर्म बताती है। लेकिन यहाँ भगवान कहते हैं कि उन्हें ये गाथाएँ, जो पहले सुनी न गयी थी, वे “अनाश्चर्यकारक” थी, जो उन्हें साधारण रूप से सूझ पड़ी। ↩︎

  7. संसरण का सरल अर्थ है, जन्म-जन्मांतरण में भटकते रहना। “संसरण से शुद्धि” का अर्थ है कि कुछ निश्चित जन्मों के बाद अंततः अपने-आप मुक्ति होती है। प्रसिद्ध रूप से यह दृष्टि उस समय के गुरु “मक्खलि गोषाल” की थी। विस्तार से जानने के लिए दीघनिकाय २ पढ़ें। ↩︎

Pali

१४६. एवं मे सुतं – एकं समयं भगवा वेसालियं विहरति बहिनगरे अपरपुरे वनसण्डे। तेन खो पन समयेन सुनक्खत्तो लिच्छविपुत्तो अचिरपक्‍कन्तो होति इमस्मा धम्मविनया। सो वेसालियं परिसति परिसतिं (सी॰ पी॰) एवं एतं (पी॰ क॰) वाचं भासति – ‘‘नत्थि समणस्स गोतमस्स उत्तरि उत्तरिं (पी॰) मनुस्सधम्मा अलमरियञाणदस्सनविसेसो। तक्‍कपरियाहतं समणो गोतमो धम्मं देसेति वीमंसानुचरितं सयंपटिभानं। यस्स च ख्वास्स अत्थाय धम्मो देसितो सो निय्याति तक्‍करस्स सम्मा दुक्खक्खयाया’’ति।

अथ खो आयस्मा सारिपुत्तो पुब्बण्हसमयं निवासेत्वा पत्तचीवरमादाय वेसालिं पिण्डाय पाविसि। अस्सोसि खो आयस्मा सारिपुत्तो सुनक्खत्तस्स लिच्छविपुत्तस्स वेसालियं परिसति एवं वाचं भासमानस्स – ‘‘नत्थि समणस्स गोतमस्स उत्तरिमनुस्सधम्मा अलमरियञाणदस्सनविसेसो। तक्‍कपरियाहतं समणो गोतमो धम्मं देसेति वीमंसानुचरितं सयंपटिभानं। यस्स च ख्वास्स अत्थाय धम्मो देसितो सो निय्याति तक्‍करस्स सम्मा दुक्खक्खयाया’’ति।

अथ खो आयस्मा सारिपुत्तो वेसालियं पिण्डाय चरित्वा पच्छाभत्तं पिण्डपातपटिक्‍कन्तो येन भगवा तेनुपसङ्कमि; उपसङ्कमित्वा भगवन्तं अभिवादेत्वा एकमन्तं निसीदि। एकमन्तं निसिन्‍नो खो आयस्मा सारिपुत्तो भगवन्तं एतदवोच – ‘‘सुनक्खत्तो, भन्ते, लिच्छविपुत्तो अचिरपक्‍कन्तो इमस्मा धम्मविनया। सो वेसालियं परिसति एवं वाचं भासति – ‘नत्थि समणस्स गोतमस्स उत्तरिमनुस्सधम्मा अलमरियञाणदस्सनविसेसो। तक्‍कपरियाहतं समणो गोतमो धम्मं देसेति वीमंसानुचरितं सयंपटिभानं। यस्स च ख्वास्स अत्थाय धम्मो देसितो सो निय्याति तक्‍करस्स सम्मा दुक्खक्खयाया’’’ति।

१४७. ‘‘कोधनो हेसो, सारिपुत्त, सुनक्खत्तो मोघपुरिसो। कोधा च पनस्स एसा वाचा भासिता। ‘अवण्णं भासिस्सामी’ति खो, सारिपुत्त, सुनक्खत्तो मोघपुरिसो वण्णंयेव तथागतस्स भासति । वण्णो हेसो, सारिपुत्त, तथागतस्स यो एवं वदेय्य – ‘यस्स च ख्वास्स अत्थाय धम्मो देसितो सो निय्याति तक्‍करस्स सम्मा दुक्खक्खयाया’ति।

‘‘अयम्पि हि नाम, सारिपुत्त, सुनक्खत्तस्स मोघपुरिसस्स मयि धम्मन्वयो न भविस्सति – ‘इतिपि सो भगवा अरहं सम्मासम्बुद्धो विज्‍जाचरणसम्पन्‍नो सुगतो लोकविदू अनुत्तरो पुरिसदम्मसारथि, सत्था देवमनुस्सानं, बुद्धो भगवा’ति।

‘‘अयम्पि हि नाम, सारिपुत्त, सुनक्खत्तस्स मोघपुरिसस्स मयि धम्मन्वयो न भविस्सति – ‘इतिपि सो भगवा अनेकविहितं इद्धिविधं पच्‍चनुभोति – एकोपि हुत्वा बहुधा होति, बहुधापि हुत्वा एको होति; आविभावं, तिरोभावं; तिरोकुट्टं तिरोपाकारं तिरोपब्बतं असज्‍जमानो गच्छति, सेय्यथापि आकासे; पथवियापि उम्मुज्‍जनिमुज्‍जं करोति, सेय्यथापि उदके; उदकेपि अभिज्‍जमानो गच्छति, सेय्यथापि पथवियं; आकासेपि पल्‍लङ्केन कमति, सेय्यथापि पक्खी सकुणो; इमेपि चन्दिमसूरिये एवंमहिद्धिके एवंमहानुभावे पाणिना परिमसति परिमज्‍जति; याव ब्रह्मलोकापि कायेन वसं वत्तेती’ति।

‘‘अयम्पि हि नाम, सारिपुत्त, सुनक्खत्तस्स मोघपुरिसस्स मयि धम्मन्वयो न भविस्सति – ‘इतिपि सो भगवा दिब्बाय सोतधातुया विसुद्धाय अतिक्‍कन्तमानुसिकाय उभो सद्दे सुणाति – दिब्बे च मानुसे च, ये दूरे सन्तिके चा’ति।

‘‘अयम्पि हि नाम, सारिपुत्त, सुनक्खत्तस्स मोघपुरिसस्स मयि धम्मन्वयो न भविस्सति – ‘इतिपि सो भगवा परसत्तानं परपुग्गलानं चेतसा चेतो परिच्‍च पजानाति – सरागं वा चित्तं सरागं चित्तन्ति पजानाति, वीतरागं वा चित्तं वीतरागं चित्तन्ति पजानाति; सदोसं वा चित्तं सदोसं चित्तन्ति पजानाति, वीतदोसं वा चित्तं वीतदोसं चित्तन्ति पजानाति; समोहं वा चित्तं समोहं चित्तन्ति पजानाति, वीतमोहं वा चित्तं वीतमोहं चित्तन्ति पजानाति; संखित्तं वा चित्तं संखित्तं चित्तन्ति पजानाति , विक्खित्तं वा चित्तं विक्खित्तं चित्तन्ति पजानाति; महग्गतं वा चित्तं महग्गतं चित्तन्ति पजानाति, अमहग्गतं वा चित्तं अमहग्गतं चित्तन्ति पजानाति; सउत्तरं वा चित्तं सउत्तरं चित्तन्ति पजानाति, अनुत्तरं वा चित्तं अनुत्तरं चित्तन्ति पजानाति; समाहितं वा चित्तं समाहितं चित्तन्ति पजानाति, असमाहितं वा चित्तं असमाहितं चित्तन्ति पजानाति; विमुत्तं वा चित्तं विमुत्तं चित्तन्ति पजानाति, अविमुत्तं वा चित्तं अविमुत्तं चित्तन्ति पजानाती’ति।

१४८. ‘‘दस खो पनिमानि, सारिपुत्त, तथागतस्स तथागतबलानि येहि बलेहि समन्‍नागतो तथागतो आसभं ठानं पटिजानाति, परिसासु सीहनादं नदति, ब्रह्मचक्‍कं पवत्तेति। कतमानि दस?

‘‘इध, सारिपुत्त, तथागतो ठानञ्‍च ठानतो अट्ठानञ्‍च अट्ठानतो यथाभूतं पजानाति। यम्पि, सारिपुत्त, तथागतो ठानञ्‍च ठानतो अट्ठानञ्‍च अट्ठानतो यथाभूतं पजानाति, इदम्पि, सारिपुत्त, तथागतस्स तथागतबलं होति यं बलं आगम्म तथागतो आसभं ठानं पटिजानाति, परिसासु सीहनादं नदति, ब्रह्मचक्‍कं पवत्तेति।

‘‘पुन चपरं, सारिपुत्त, तथागतो अतीतानागतपच्‍चुप्पन्‍नानं कम्मसमादानानं ठानसो हेतुसो विपाकं यथाभूतं पजानाति। यम्पि, सारिपुत्त, तथागतो अतीतानागतपच्‍चुप्पन्‍नानं कम्मसमादानानं ठानसो हेतुसो विपाकं यथाभूतं पजानाति, इदम्पि, सारिपुत्त, तथागतस्स तथागतबलं होति यं बलं आगम्म तथागतो आसभं ठानं पटिजानाति, परिसासु सीहनादं नदति, ब्रह्मचक्‍कं पवत्तेति।

‘‘पुन चपरं, सारिपुत्त, तथागतो सब्बत्थगामिनिं पटिपदं यथाभूतं पजानाति। यम्पि , सारिपुत्त, तथागतो सब्बत्थगामिनिं पटिपदं यथाभूतं पजानाति, इदम्पि, सारिपुत्त, तथागतस्स तथागतबलं होति यं बलं आगम्म तथागतो आसभं ठानं पटिजानाति, परिसासु सीहनादं नदति, ब्रह्मचक्‍कं पवत्तेति।

‘‘पुन चपरं, सारिपुत्त, तथागतो अनेकधातुनानाधातुलोकं यथाभूतं पजानाति। यम्पि, सारिपुत्त, तथागतो अनेकधातुनानाधातुलोकं यथाभूतं पजानाति, इदम्पि, सारिपुत्त, तथागतस्स तथागतबलं होति यं बलं आगम्म तथागतो आसभं ठानं पटिजानाति, परिसासु सीहनादं नदति, ब्रह्मचक्‍कं पवत्तेति।

‘‘पुन चपरं, सारिपुत्त, तथागतो सत्तानं नानाधिमुत्तिकतं यथाभूतं पजानाति। यम्पि, सारिपुत्त, तथागतो सत्तानं नानाधिमुत्तिकतं यथाभूतं पजानाति, इदम्पि, सारिपुत्त, तथागतस्स तथागतबलं होति यं बलं आगम्म तथागतो आसभं ठानं पटिजानाति, परिसासु सीहनादं नदति, ब्रह्मचक्‍कं पवत्तेति।

‘‘पुन चपरं, सारिपुत्त, तथागतो परसत्तानं परपुग्गलानं इन्द्रियपरोपरियत्तं यथाभूतं पजानाति। यम्पि, सारिपुत्त, तथागतो परसत्तानं परपुग्गलानं इन्द्रियपरोपरियत्तं यथाभूतं पजानाति, इदम्पि, सारिपुत्त, तथागतस्स तथागतबलं होति यं बलं आगम्म तथागतो आसभं ठानं पटिजानाति, परिसासु सीहनादं नदति, ब्रह्मचक्‍कं पवत्तेति।

‘‘पुन चपरं, सारिपुत्त, तथागतो झानविमोक्खसमाधिसमापत्तीनं संकिलेसं वोदानं वुट्ठानं यथाभूतं पजानाति। यम्पि, सारिपुत्त, तथागतो झानविमोक्खसमाधिसमापत्तीनं संकिलेसं वोदानं वुट्ठानं यथाभूतं पजानाति, इदम्पि, सारिपुत्त, तथागतस्स तथागतबलं होति यं बलं आगम्म तथागतो आसभं ठानं पटिजानाति, परिसासु सीहनादं नदति, ब्रह्मचक्‍कं पवत्तेति।

‘‘पुन चपरं, सारिपुत्त, तथागतो अनेकविहितं पुब्बेनिवासं अनुस्सरति, सेय्यथिदं – एकम्पि जातिं द्वेपि जातियो तिस्सोपि जातियो चतस्सोपि जातियो पञ्‍चपि जातियो दसपि जातियो वीसम्पि जातियो तिंसम्पि जातियो चत्तालीसम्पि जातियो पञ्‍ञासम्पि जातियो जातिसतम्पि जातिसहस्सम्पि जातिसतसहस्सम्पि अनेकेपि संवट्टकप्पे अनेकेपि विवट्टकप्पे अनेकेपि संवट्टविवट्टकप्पे – ‘अमुत्रासिं एवंनामो एवंगोत्तो एवंवण्णो एवमाहारो एवंसुखदुक्खप्पटिसंवेदी एवमायुपरियन्तो, सो ततो चुतो अमुत्र उदपादिं; तत्रापासिं एवंनामो एवंगोत्तो एवंवण्णो एवमाहारो एवंसुखदुक्खप्पटिसंवेदी एवमायुपरियन्तो, सो ततो चुतो इधूपपन्‍नो’ति। इति साकारं सउद्देसं अनेकविहितं पुब्बेनिवासं अनुस्सरति। यम्पि, सारिपुत्त, तथागतो अनेकविहितं पुब्बेनिवासं अनुस्सरति, सेय्यथिदं – एकम्पि जातिं द्वेपि जातियो…पे॰… इति साकारं सउद्देसं अनेकविहितं पुब्बेनिवासं अनुस्सरति, इदम्पि, सारिपुत्त, तथागतस्स तथागतबलं होति यं बलं आगम्म तथागतो आसभं ठानं पटिजानाति, परिसासु सीहनादं नदति, ब्रह्मचक्‍कं पवत्तेति।

‘‘पुन चपरं, सारिपुत्त, तथागतो दिब्बेन चक्खुना विसुद्धेन अतिक्‍कन्तमानुसकेन सत्ते पस्सति चवमाने उपपज्‍जमाने हीने पणीते सुवण्णे दुब्बण्णे सुगते दुग्गते यथाकम्मूपगे सत्ते पजानाति – ‘इमे वत भोन्तो सत्ता कायदुच्‍चरितेन समन्‍नागता वचीदुच्‍चरितेन समन्‍नागता मनोदुच्‍चरितेन समन्‍नागता अरियानं उपवादका मिच्छादिट्ठिका मिच्छादिट्ठिकम्मसमादाना, ते कायस्स भेदा परं मरणा अपायं दुग्गतिं विनिपातं निरयं उपपन्‍ना। इमे वा पन भोन्तो सत्ता कायसुचरितेन समन्‍नागता वचीसुचरितेन समन्‍नागता मनोसुचरितेन समन्‍नागता अरियानं अनुपवादका सम्मादिट्ठिका सम्मादिट्ठिकम्मसमादाना, ते कायस्स भेदा परं मरणा सुगतिं सग्गं लोकं उपपन्‍ना’ति। इति दिब्बेन चक्खुना विसुद्धेन अतिक्‍कन्तमानुसकेन सत्ते पस्सति चवमाने उपपज्‍जमाने हीने पणीते सुवण्णे दुब्बण्णे सुगते दुग्गते यथाकम्मूपगे सत्ते पजानाति। यम्पि, सारिपुत्त, तथागतो दिब्बेन चक्खुना विसुद्धेन अतिक्‍कन्तमानुसकेन सत्ते पस्सति चवमाने उपपज्‍जमाने हीने पणीते सुवण्णे दुब्बण्णे सुगते दुग्गते यथाकम्मूपगे सत्ते पजानाति – ‘इमे वत भोन्तो सत्ता कायदुच्‍चरितेन समन्‍नागता वचीदुच्‍चरितेन समन्‍नागता मनोदुच्‍चरितेन समन्‍नागता अरियानं उपवादका मिच्छादिट्ठिका मिच्छादिट्ठिकम्मसमादाना, ते कायस्स भेदा परं मरणा अपायं दुग्गतिं विनिपातं निरयं उपपन्‍ना। इमे वा पन भोन्तो सत्ता कायसुचरितेन समन्‍नागता वचीसुचरितेन समन्‍नागता मनोसुचरितेन समन्‍नागता अरियानं अनुपवादका सम्मादिट्ठिका सम्मादिट्ठिकम्मसमादाना, ते कायस्स भेदा परं मरणा सुगतिं सग्गं लोकं उपपन्‍ना’ति। इति दिब्बेन चक्खुना विसुद्धेन अतिक्‍कन्तमानुसकेन सत्ते पस्सति चवमाने उपपज्‍जमाने हीने पणीते सुवण्णे दुब्बण्णे सुगते दुग्गते यथाकम्मूपगे सत्ते पजानाति। इदम्पि, सारिपुत्त, तथागतस्स तथागतबलं होति यं बलं आगम्म तथागतो आसभं ठानं पटिजानाति, परिसासु सीहनादं नदति, ब्रह्मचक्‍कं पवत्तेति।

‘‘पुन चपरं, सारिपुत्त, तथागतो आसवानं खया अनासवं चेतोविमुत्तिं पञ्‍ञाविमुत्तिं दिट्ठेव धम्मे सयं अभिञ्‍ञा सच्छिकत्वा उपसम्पज्‍ज विहरति। यम्पि, सारिपुत्त, तथागतो आसवानं खया अनासवं चेतोविमुत्तिं पञ्‍ञाविमुत्तिं दिट्ठेव धम्मे सयं अभिञ्‍ञा सच्छिकत्वा उपसम्पज्‍ज विहरति, इदम्पि, सारिपुत्त, तथागतस्स तथागतबलं होति यं बलं आगम्म तथागतो आसभं ठानं पटिजानाति, परिसासु सीहनादं नदति, ब्रह्मचक्‍कं पवत्तेति।

‘‘इमानि खो, सारिपुत्त, दस तथागतस्स तथागतबलानि येहि बलेहि समन्‍नागतो तथागतो आसभं ठानं पटिजानाति, परिसासु सीहनादं नदति, ब्रह्मचक्‍कं पवत्तेति।

१४९. ‘‘यो खो मं, सारिपुत्त, एवं जानन्तं एवं पस्सन्तं एवं वदेय्य – ‘नत्थि समणस्स गोतमस्स उत्तरिमनुस्सधम्मा अलमरियञाणदस्सनविसेसो; तक्‍कपरियाहतं समणो गोतमो धम्मं देसेति वीमंसानुचरितं सयंपटिभान’न्ति, तं, सारिपुत्त, वाचं अप्पहाय तं चित्तं अप्पहाय तं दिट्ठिं अप्पटिनिस्सज्‍जित्वा यथाभतं निक्खित्तो एवं निरये। सेय्यथापि, सारिपुत्त, भिक्खु सीलसम्पन्‍नो समाधिसम्पन्‍नो पञ्‍ञासम्पन्‍नो दिट्ठेव धम्मे अञ्‍ञं आराधेय्य, एवं सम्पदमिदं, सारिपुत्त, वदामि। तं वाचं अप्पहाय, तं चित्तं अप्पहाय तं दिट्ठिं अप्पटिनिस्सज्‍जित्वा यथाभतं निक्खित्तो एवं निरये।

१५०. ‘‘चत्तारिमानि, सारिपुत्त, तथागतस्स वेसारज्‍जानि येहि वेसारज्‍जेहि समन्‍नागतो तथागतो आसभं ठानं पटिजानाति, परिसासु सीहनादं नदति, ब्रह्मचक्‍कं पवत्तेति। कतमानि चत्तारि?

‘‘‘सम्मासम्बुद्धस्स ते पटिजानतो इमे धम्मा अनभिसम्बुद्धा’ति। तत्र वत मं समणो वा ब्राह्मणो वा देवो वा मारो वा ब्रह्मा वा कोचि वा लोकस्मिं सहधम्मेन पटिचोदेस्सतीति निमित्तमेतं, सारिपुत्त, न समनुपस्सामि। एतमहं एतम्पहं (सी॰ पी॰), सारिपुत्त, निमित्तं असमनुपस्सन्तो खेमप्पत्तो अभयप्पत्तो वेसारज्‍जप्पत्तो विहरामि।

‘‘‘खीणासवस्स ते पटिजानतो इमे आसवा अपरिक्खीणा’ति। तत्र वत मं समणो वा ब्राह्मणो वा देवो वा मारो वा ब्रह्मा वा कोचि वा लोकस्मिं सहधम्मेन पटिचोदेस्सतीति निमित्तमेतं, सारिपुत्त, न समनुपस्सामि। एतमहं, सारिपुत्त, निमित्तं असमनुपस्सन्तो खेमप्पत्तो अभयप्पत्तो वेसारज्‍जप्पत्तो विहरामि।

‘‘‘ये खो पन ते अन्तरायिका धम्मा वुत्ता, ते पटिसेवतो नालं अन्तरायाया’ति। तत्र वत मं समणो वा ब्राह्मणो वा देवो वा मारो वा ब्रह्मा वा कोचि वा लोकस्मिं सहधम्मेन पटिचोदेस्सतीति निमित्तमेतं, सारिपुत्त, न समनुपस्सामि। एतमहं, सारिपुत्त, निमित्तं असमनुपस्सन्तो खेमप्पत्तो अभयप्पत्तो वेसारज्‍जप्पत्तो विहरामि।

‘‘‘यस्स खो पन ते अत्थाय धम्मो देसितो, सो न निय्याति तक्‍करस्स सम्मा दुक्खक्खयाया’ति । तत्र वत मं समणो वा ब्राह्मणो वा देवो वा मारो वा ब्रह्मा वा कोचि वा लोकस्मिं सहधम्मेन पटिचोदेस्सती’ति निमित्तमेतं, सारिपुत्त, न समनुपस्सामि। एतमहं, सारिपुत्त, निमित्तं असमनुपस्सन्तो खेमप्पत्तो अभयप्पत्तो वेसारज्‍जप्पत्तो विहरामि।

‘‘इमानि खो, सारिपुत्त, चत्तारि तथागतस्स वेसारज्‍जानि येहि वेसारज्‍जेहि समन्‍नागतो तथागतो आसभं ठानं पटिजानाति, परिसासु सीहनादं नदति, ब्रह्मचक्‍कं पवत्तेति।

‘‘यो खो मं, सारिपुत्त, एवं जानन्तं एवं पस्सन्तं एवं वदेय्य – ‘नत्थि समणस्स गोतमस्स उत्तरिमनुस्सधम्मा अलमरियञाणदस्सनविसेसो, तक्‍कपरियाहतं समणो गोतमो धम्मं देसेति वीमंसानुचरितं सयंपटिभान’न्ति, तं, सारिपुत्त, वाचं अप्पहाय तं चित्तं अप्पहाय तं दिट्ठिं अप्पटिनिस्सज्‍जित्वा यथाभतं निक्खित्तो एवं निरये। सेय्यथापि, सारिपुत्त, भिक्खु सीलसम्पन्‍नो समाधिसम्पन्‍नो पञ्‍ञासम्पन्‍नो दिट्ठेव धम्मे अञ्‍ञं आराधेय्य, एवं सम्पदमिदं, सारिपुत्त, वदामि। तं वाचं अप्पहाय तं चित्तं अप्पहाय तं दिट्ठिं अप्पटिनिस्सज्‍जित्वा यथाभतं निक्खित्तो एवं निरये।

१५१. ‘‘अट्ठ खो इमा, सारिपुत्त, परिसा। कतमा अट्ठ? खत्तियपरिसा, ब्राह्मणपरिसा, गहपतिपरिसा, समणपरिसा, चातुमहाराजिकपरिसा चातुम्महाराजिका (सी॰ स्या॰ पी॰), तावतिंसपरिसा, मारपरिसा, ब्रह्मपरिसा – इमा खो, सारिपुत्त, अट्ठ परिसा। इमेहि खो, सारिपुत्त, चतूहि वेसारज्‍जेहि समन्‍नागतो तथागतो इमा अट्ठ परिसा उपसङ्कमति अज्झोगाहति। अभिजानामि खो पनाहं, सारिपुत्त, अनेकसतं खत्तियपरिसं उपसङ्कमिता। तत्रपि मया सन्‍निसिन्‍नपुब्बञ्‍चेव, सल्‍लपितपुब्बञ्‍च, साकच्छा च समापज्‍जितपुब्बा। तत्र वत मं भयं वा सारज्‍जं वा ओक्‍कमिस्सतीति निमित्तमेतं, सारिपुत्त, न समनुपस्सामि। एतमहं, सारिपुत्त, निमित्तं असमनुपस्सन्तो खेमप्पत्तो अभयप्पत्तो वेसारज्‍जप्पत्तो विहरामि।

‘‘अभिजानामि खो पनाहं, सारिपुत्त, अनेकसतं ब्राह्मणपरिसं…पे॰… गहपतिपरिसं… समणपरिसं… चातुमहाराजिकपरिसं… तावतिंसपरिसं… मारपरिसं… ब्रह्मपरिसं उपसङ्कमिता। तत्रपि मया सन्‍निसिन्‍नपुब्बञ्‍चेव, सल्‍लपितपुब्बञ्‍च, साकच्छा च समापज्‍जितपुब्बा। तत्र वत मं भयं वा सारज्‍जं वा ओक्‍कमिस्सतीति निमित्तमेतं, सारिपुत्त , न समनुपस्सामि। एतमहं, सारिपुत्त, निमित्तं असमनुपस्सन्तो खेमप्पत्तो अभयप्पत्तो वेसारज्‍जप्पत्तो विहरामि।

‘‘यो खो मं, सारिपुत्त, एवं जानन्तं एवं पस्सन्तं एवं वदेय्य – ‘नत्थि समणस्स गोतमस्स उत्तरिमनुस्सधम्मा अलमरियञाणदस्सनविसेसो, तक्‍कपरियाहतं समणो गोतमो धम्मं देसेति वीमंसानुचरितं सयंपटिभान’न्ति, तं, सारिपुत्त, वाचं अप्पहाय तं चित्तं अप्पहाय तं दिट्ठिं अप्पटिनिस्सज्‍जित्वा यथाभतं निक्खित्तो एवं निरये। सेय्यथापि, सारिपुत्त, भिक्खु सीलसम्पन्‍नो समाधिसम्पन्‍नो पञ्‍ञासम्पन्‍नो दिट्ठेव धम्मे अञ्‍ञं आराधेय्य, एवं सम्पदमिदं, सारिपुत्त, वदामि। तं वाचं अप्पहाय तं चित्तं अप्पहाय तं दिट्ठिं अप्पटिनिस्सज्‍जित्वा यथाभतं निक्खित्तो एवं निरये।

१५२. ‘‘चतस्सो खो इमा, सारिपुत्त, योनियो। कतमा चतस्सो? अण्डजा योनि, जलाबुजा योनि, संसेदजा योनि, ओपपातिका योनि। कतमा च, सारिपुत्त, अण्डजा योनि? ये खो ते, सारिपुत्त, सत्ता अण्डकोसं अभिनिब्भिज्‍ज जायन्ति – अयं वुच्‍चति, सारिपुत्त, अण्डजा योनि। कतमा च, सारिपुत्त, जलाबुजा योनि? ये खो ते, सारिपुत्त, सत्ता वत्थिकोसं अभिनिब्भिज्‍ज जायन्ति – अयं वुच्‍चति, सारिपुत्त, जलाबुजा योनि। कतमा च, सारिपुत्त, संसेदजा योनि? ये खो ते, सारिपुत्त, सत्ता पूतिमच्छे वा जायन्ति पूतिकुणपे वा पूतिकुम्मासे वा चन्दनिकाये वा ओळिगल्‍ले वा जायन्ति – अयं वुच्‍चति, सारिपुत्त, संसेदजा योनि। कतमा च, सारिपुत्त, ओपपातिका योनि? देवा, नेरयिका, एकच्‍चे च मनुस्सा, एकच्‍चे च विनिपातिका – अयं वुच्‍चति, सारिपुत्त, ओपपातिका योनि। इमा खो, सारिपुत्त, चतस्सो योनियो।

‘‘यो खो मं, सारिपुत्त, एवं जानन्तं एवं पस्सन्तं एवं वदेय्य – ‘नत्थि समणस्स गोतमस्स उत्तरिमनुस्सधम्मा अलमरियञाणदस्सनविसेसो, तक्‍कपरियाहतं समणो गोतमो धम्मं देसेति वीमंसानुचरितं सयंपटिभान’न्ति, तं, सारिपुत्त, वाचं अप्पहाय तं चित्तं अप्पहाय तं दिट्ठिं अप्पटिनिस्सज्‍जित्वा यथाभतं निक्खित्तो एवं निरये। सेय्यथापि, सारिपुत्त, भिक्खु सीलसम्पन्‍नो समाधिसम्पन्‍नो पञ्‍ञासम्पन्‍नो दिट्ठेव धम्मे अञ्‍ञं आराधेय्य, एवं सम्पदमिदं, सारिपुत्त, वदामि। तं वाचं अप्पहाय तं चित्तं अप्पहाय तं दिट्ठिं अप्पटिनिस्सज्‍जित्वा यथाभतं निक्खित्तो एवं निरये।

१५३. ‘‘पञ्‍च खो इमा, सारिपुत्त, गतियो। कतमा पञ्‍च? निरयो, तिरच्छानयोनि, पेत्तिविसयो, मनुस्सा, देवा। निरयञ्‍चाहं, सारिपुत्त, पजानामि, निरयगामिञ्‍च मग्गं, निरयगामिनिञ्‍च पटिपदं; यथा पटिपन्‍नो च कायस्स भेदा परं मरणा अपायं दुग्गतिं विनिपातं निरयं उपपज्‍जति तञ्‍च पजानामि। तिरच्छानयोनिञ्‍चाहं, सारिपुत्त, पजानामि, तिरच्छानयोनिगामिञ्‍च मग्गं, तिरच्छानयोनिगामिनिञ्‍च पटिपदं; यथा पटिपन्‍नो च कायस्स भेदा परं मरणा तिरच्छानयोनिं उपपज्‍जति तञ्‍च पजानामि। पेत्तिविसयं चाहं, सारिपुत्त, पजानामि, पेत्तिविसयगामिञ्‍च मग्गं, पेत्तिविसयगामिनिञ्‍च पटिपदं; यथा पटिपन्‍नो च कायस्स भेदा परं मरणा पेत्तिविसयं उपपज्‍जति तञ्‍च पजानामि। मनुस्से चाहं, सारिपुत्त, पजानामि, मनुस्सलोकगामिञ्‍च मग्गं , मनुस्सलोकगामिनिञ्‍च पटिपदं; यथा पटिपन्‍नो च कायस्स भेदा परं मरणा मनुस्सेसु उपपज्‍जति तञ्‍च पजानामि। देवे चाहं, सारिपुत्त, पजानामि, देवलोकगामिञ्‍च मग्गं, देवलोकगामिनिञ्‍च पटिपदं; यथा पटिपन्‍नो च कायस्स भेदा परं मरणा सुगतिं सग्गं लोकं उपपज्‍जति तञ्‍च पजानामि। निब्बानञ्‍चाहं, सारिपुत्त, पजानामि, निब्बानगामिञ्‍च मग्गं, निब्बानगामिनिञ्‍च पटिपदं; यथा पटिपन्‍नो च आसवानं खया अनासवं चेतोविमुत्तिं पञ्‍ञाविमुत्तिं दिट्ठेव धम्मे सयं अभिञ्‍ञा सच्छिकत्वा उपसम्पज्‍ज विहरति तञ्‍च पजानामि।

१५४. ‘‘इधाहं, सारिपुत्त, एकच्‍चं पुग्गलं एवं चेतसा चेतो परिच्‍च पजानामि – तथायं पुग्गलो पटिपन्‍नो तथा च इरियति तञ्‍च मग्गं समारूळ्हो, यथा कायस्स भेदा परं मरणा अपायं दुग्गतिं विनिपातं निरयं उपपज्‍जिस्सतीति। तमेनं पस्सामि अपरेन समयेन दिब्बेन चक्खुना विसुद्धेन अतिक्‍कन्तमानुसकेन कायस्स भेदा परं मरणा अपायं दुग्गतिं विनिपातं निरयं उपपन्‍नं, एकन्तदुक्खा तिब्बा कटुका वेदना वेदयमानं। सेय्यथापि, सारिपुत्त, अङ्गारकासु साधिकपोरिसा पूरा अङ्गारानं वीतच्‍चिकानं वीतधूमानं। अथ पुरिसो आगच्छेय्य घम्माभितत्तो घम्मपरेतो किलन्तो तसितो पिपासितो एकायनेन मग्गेन तमेव अङ्गारकासुं पणिधाय। तमेनं चक्खुमा पुरिसो दिस्वा एवं वदेय्य – ‘तथायं भवं पुरिसो पटिपन्‍नो तथा च इरियति तञ्‍च मग्गं समारूळ्हो, यथा इमंयेव अङ्गारकासुं आगमिस्सती’ति । तमेनं पस्सेय्य अपरेन समयेन तस्सा अङ्गारकासुया पतितं, एकन्तदुक्खा तिब्बा कटुका वेदना वेदयमानं। एवमेव खो अहं, सारिपुत्त, इधेकच्‍चं पुग्गलं एवं चेतसा चेतो परिच्‍च पजानामि – तथायं पुग्गलो पटिपन्‍नो तथा च इरियति तञ्‍च मग्गं समारूळ्हो यथा कायस्स भेदा परं मरणा अपायं दुग्गतिं विनिपातं निरयं उपपज्‍जिस्सतीति। तमेनं पस्सामि अपरेन समयेन दिब्बेन चक्खुना विसुद्धेन अतिक्‍कन्तमानुसकेन कायस्स भेदा परं मरणा अपायं दुग्गतिं विनिपातं निरयं उपपन्‍नं, एकन्तदुक्खा तिब्बा कटुका वेदना वेदयमानं।

‘‘इध पनाहं, सारिपुत्त, एकच्‍चं पुग्गलं एवं चेतसा चेतो परिच्‍च पजानामि – तथायं पुग्गलो पटिपन्‍नो तथा च इरियति तञ्‍च मग्गं समारूळ्हो, यथा कायस्स भेदा परं मरणा तिरच्छानयोनिं उपपज्‍जिस्सतीति। तमेनं पस्सामि अपरेन समयेन दिब्बेन चक्खुना विसुद्धेन अतिक्‍कन्तमानुसकेन कायस्स भेदा परं मरणा तिरच्छानयोनिं उपपन्‍नं, दुक्खा तिब्बा कटुका वेदना वेदयमानं। सेय्यथापि, सारिपुत्त, गूथकूपो साधिकपोरिसो, पूरो गूथस्स। अथ पुरिसो आगच्छेय्य घम्माभितत्तो घम्मपरेतो किलन्तो तसितो पिपासितो एकायनेन मग्गेन तमेव गूथकूपं पणिधाय। तमेनं चक्खुमा पुरिसो दिस्वा एवं वदेय्य – ‘तथायं भवं पुरिसो पटिपन्‍नो तथा च इरियति तञ्‍च मग्गं समारूळ्हो यथा इमंयेव गूथकूपं आगमिस्सती’ति। तमेनं पस्सेय्य अपरेन समयेन तस्मिं गूथकूपे पतितं, दुक्खा तिब्बा कटुका वेदना वेदयमानं। एवमेव खो अहं, सारिपुत्त, इधेकच्‍चं पुग्गलं एवं चेतसा चेतो परिच्‍च पजानामि – तथायं पुग्गलो पटिपन्‍नो तथा च इरियति तञ्‍च मग्गं समारूळ्हो, यथा कायस्स भेदा परं मरणा तिरच्छानयोनिं उपपज्‍जिस्सतीति। तमेनं पस्सामि अपरेन समयेन दिब्बेन चक्खुना विसुद्धेन अतिक्‍कन्तमानुसकेन कायस्स भेदा परं मरणा तिरच्छानयोनिं उपपन्‍नं, दुक्खा तिब्बा कटुका वेदना वेदयमानं।

‘‘इध पनाहं, सारिपुत्त, एकच्‍चं पुग्गलं एवं चेतसा चेतो परिच्‍च पजानामि – तथायं पुग्गलो पटिपन्‍नो तथा च इरियति तञ्‍च मग्गं समारूळ्हो, यथा कायस्स भेदा परं मरणा पेत्तिविसयं उपपज्‍जिस्सतीति। तमेनं पस्सामि अपरेन समयेन दिब्बेन चक्खुना विसुद्धेन अतिक्‍कन्तमानुसकेन कायस्स भेदा परं मरणा पेत्तिविसयं उपपन्‍नं, दुक्खबहुला वेदना वेदयमानं। सेय्यथापि, सारिपुत्त, रुक्खो विसमे भूमिभागे जातो तनुपत्तपलासो कबरच्छायो । अथ पुरिसो आगच्छेय्य घम्माभितत्तो घम्मपरेतो किलन्तो तसितो पिपासितो एकायनेन मग्गेन तमेव रुक्खं पणिधाय। तमेनं चक्खुमा पुरिसो दिस्वा एवं वदेय्य – ‘तथायं भवं पुरिसो पटिपन्‍नो तथा च इरियति तञ्‍च मग्गं समारूळ्हो, यथा इमंयेव रुक्खं आगमिस्सती’ति। तमेनं पस्सेय्य, अपरेन समयेन तस्स रुक्खस्स छायाय निसिन्‍नं वा निपन्‍नं वा दुक्खबहुला वेदना वेदयमानं। एवमेव खो अहं, सारिपुत्त, इधेकच्‍चं पुग्गलं एवं चेतसा चेतो परिच्‍च पजानामि – तथायं पुग्गलो पटिपन्‍नो तथा च इरियति तञ्‍च मग्गं समारूळ्हो, यथा कायस्स भेदा परं मरणा पेत्तिविसयं उपपज्‍जिस्सतीति। तमेनं पस्सामि अपरेन समयेन दिब्बेन चक्खुना विसुद्धेन अतिक्‍कन्तमानुसकेन कायस्स भेदा परं मरणा पेत्तिविसयं उपपन्‍नं, दुक्खबहुला वेदना वेदयमानं।

‘‘इध पनाहं, सारिपुत्त, एकच्‍चं पुग्गलं एवं चेतसा चेतो परिच्‍च पजानामि – तथायं पुग्गलो पटिपन्‍नो तथा च इरियति तञ्‍च मग्गं समारूळ्हो यथा कायस्स भेदा परं मरणा मनुस्सेसु उपपज्‍जिस्सतीति। तमेनं पस्सामि अपरेन समयेन दिब्बेन चक्खुना विसुद्धेन अतिक्‍कन्तमानुसकेन कायस्स भेदा परं मरणा मनुस्सेसु उपपन्‍नं, सुखबहुला वेदना वेदयमानं। सेय्यथापि, सारिपुत्त, रुक्खो समे भूमिभागे जातो बहलपत्तपलासो सन्दच्छायो सण्डच्छायो (स्या॰), सन्तच्छायो (क॰)। अथ पुरिसो आगच्छेय्य घम्माभितत्तो घम्मपरेतो किलन्तो तसितो पिपासितो एकायनेन मग्गेन तमेव रुक्खं पणिधाय। तमेनं चक्खुमा पुरिसो दिस्वा एवं वदेय्य – ‘तथायं भवं पुरिसो पटिपन्‍नो तथा च इरियति तञ्‍च मग्गं समारूळ्हो, यथा इममेव रुक्खं आगमिस्सती’ति। तमेनं पस्सेय्य अपरेन समयेन तस्स रुक्खस्स छायाय निसिन्‍नं वा निपन्‍नं वा सुखबहुला वेदना वेदयमानं। एवमेव खो अहं, सारिपुत्त, इधेकच्‍चं पुग्गलं एवं चेतसा चेतो परिच्‍च पजानामि – तथायं पुग्गलो पटिपन्‍नो तथा च इरियति तञ्‍च मग्गं समारूळ्हो यथा कायस्स भेदा परं मरणा मनुस्सेसु उपपज्‍जिस्सतीति। तमेनं पस्सामि अपरेन समयेन दिब्बेन चक्खुना विसुद्धेन अतिक्‍कन्तमानुसकेन कायस्स भेदा परं मरणा मनुस्सेसु उपपन्‍नं, सुखबहुला वेदना वेदयमानं।

‘‘इध पनाहं, सारिपुत्त, एकच्‍चं पुग्गलं एवं चेतसा चेतो परिच्‍च पजानामि – तथायं पुग्गलो पटिपन्‍नो तथा च इरियति तञ्‍च मग्गं समारूळ्हो, यथा कायस्स भेदा परं मरणा सुगतिं सग्गं लोकं उपपज्‍जिस्सती’ति। तमेनं पस्सामि अपरेन समयेन दिब्बेन चक्खुना विसुद्धेन अतिक्‍कन्तमानुसकेन कायस्स भेदा परं मरणा सुगतिं सग्गं लोकं उपपन्‍नं, एकन्तसुखा वेदना वेदयमानं। सेय्यथापि, सारिपुत्त, पासादो, तत्रास्स कूटागारं उल्‍लित्तावलित्तं निवातं फुसितग्गळं पिहितवातपानं। तत्रास्स पल्‍लङ्को गोनकत्थतो पटिकत्थतो पटलिकत्थतो कदलिमिगपवरपच्‍चत्थरणो सउत्तरच्छदो उभतोलोहितकूपधानो। अथ पुरिसो आगच्छेय्य घम्माभितत्तो घम्मपरेतो किलन्तो तसितो पिपासितो एकायनेन मग्गेन तमेव पासादं पणिधाय। तमेनं चक्खुमा पुरिसो दिस्वा एवं वदेय्य – ‘तथायं भवं पुरिसो पटिपन्‍नो तथा च इरियति तञ्‍च मग्गं समारूळ्हो, यथा इमंयेव पासादं आगमिस्सती’ति। तमेनं पस्सेय्य अपरेन समयेन तस्मिं पासादे तस्मिं कूटागारे तस्मिं पल्‍लङ्के निसिन्‍नं वा निपन्‍नं वा एकन्तसुखा वेदना वेदयमानं। एवमेव खो अहं, सारिपुत्त, इधेकच्‍चं पुग्गलं एवं चेतसा चेतो परिच्‍च पजानामि – तथायं पुग्गलो पटिपन्‍नो तथा च इरियति तञ्‍च मग्गं समारूळ्हो यथा कायस्स भेदा परं मरणा सुगतिं सग्गं लोकं उपपज्‍जिस्सतीति। तमेनं पस्सामि अपरेन समयेन दिब्बेन चक्खुना विसुद्धेन अतिक्‍कन्तमानुसकेन कायस्स भेदा परं मरणा सुगतिं सग्गं लोकं उपपन्‍नं, एकन्तसुखा वेदना वेदयमानं।

‘‘इध पनाहं, सारिपुत्त, एकच्‍चं पुग्गलं चेतसा चेतो परिच्‍च पजानामि – तथायं पुग्गलो पटिपन्‍नो तथा च इरियति तञ्‍च मग्गं समारूळ्हो, यथा आसवानं खया अनासं चेतोविमुत्तिं पञ्‍ञाविमुत्तिं दिट्ठेव धम्मे सयं अभिञ्‍ञा सच्छिकत्वा उपसम्पज्‍ज विहरिस्सतीति। तमेनं पस्सामि अपरेन समयेन आसवानं खया अनासवं चेतोविमुत्तिं पञ्‍ञाविमुत्तिं दिट्ठेव धम्मे सयं अभिञ्‍ञा सच्छिकत्वा उपसम्पज्‍ज विहरन्तं, एकन्तसुखा वेदना वेदयमानं। सेय्यथापि, सारिपुत्त, पोक्खरणी अच्छोदका सातोदका सीतोदका सेतका सुपतित्था रमणीया। अविदूरे चस्सा तिब्बो वनसण्डो। अथ पुरिसो आगच्छेय्य घम्माभितत्तो घम्मपरेतो किलन्तो तसितो पिपासितो एकायनेन मग्गेन तमेव पोक्खरणिं पणिधाय। तमेनं चक्खुमा पुरिसो दिस्वा एवं वदेय्य – ‘तथा भवं पुरिसो पटिपन्‍नो तथा च इरियति तञ्‍च मग्गं समारूळ्हो, यथा इमंयेव पोक्खरणिं आगमिस्सती’ति। तमेनं पस्सेय्य अपरेन समयेन तं पोक्खरणिं ओगाहेत्वा न्हायित्वा च पिवित्वा च सब्बदरथकिलमथपरिळाहं पटिप्पस्सम्भेत्वा पच्‍चुत्तरित्वा तस्मिं वनसण्डे निसिन्‍नं वा निपन्‍नं वा, एकन्तसुखा वेदना वेदयमानं। एवमेव खो अहं, सारिपुत्त, इधेकच्‍चं पुग्गलं एवं चेतसा चेतो परिच्‍च पजानामि – तथायं पुग्गलो पटिपन्‍नो तथा च इरियति तञ्‍च मग्गं समारूळ्हो, यथा आसवानं खया अनासवं चेतोविमुत्तिं पञ्‍ञाविमुत्तिं दिट्ठेव धम्मे सयं अभिञ्‍ञा सच्छिकत्वा उपसम्पज्‍ज विहरिस्सती’ति। तमेनं पस्सामि अपरेन समयेन आसवानं खया अनासवं चेतोविमुत्तिं पञ्‍ञाविमुत्तिं दिट्ठेव धम्मे सयं अभिञ्‍ञा सच्छिकत्वा उपसम्पज्‍ज विहरन्तं, एकन्तसुखा वेदना वेदयमानं। इमा खो, सारिपुत्त, पञ्‍च गतियो।

‘‘यो खो मं, सारिपुत्त, एवं जानन्तं एवं पस्सन्तं एवं वदेय्य – ‘नत्थि समणस्स गोतमस्स उत्तरिमनुस्सधम्मा अलमरियञाणदस्सनविसेसो; तक्‍कपरियाहतं समणो गोतमो धम्मं देसेति वीमंसानुचरितं सयंपटिभान’न्ति तं, सारिपुत्त, वाचं अप्पहाय तं चित्तं अप्पहाय तं दिट्ठिं अप्पटिनिस्सज्‍जित्वा यथाभतं निक्खित्तो एवं निरये। सेय्यथापि, सारिपुत्त, भिक्खु सीलसम्पन्‍नो समाधिसम्पन्‍नो पञ्‍ञासम्पन्‍नो दिट्ठेव धम्मे अञ्‍ञं आराधेय्य, एवं सम्पदमिदं, सारिपुत्त, वदामि ‘तं वाचं अप्पहाय तं चित्तं अप्पहाय तं दिट्ठिं अप्पटिनिस्सज्‍जित्वा यथाभतं निक्खित्तो एवं निरये’।

१५५. ‘‘अभिजानामि खो पनाहं, सारिपुत्त, चतुरङ्गसमन्‍नागतं ब्रह्मचरियं चरिता चरित्वा (क॰) – तपस्सी सुदं होमि परमतपस्सी, लूखो सुदं लूखस्सुदं (सी॰ पी॰) होमि परमलूखो, जेगुच्छी सुदं होमि परमजेगुच्छी, पविवित्तो सुदं पविवित्तस्सुदं (सी॰ पी॰) होमि परमपविवित्तो । तत्रास्सु मे इदं, सारिपुत्त, तपस्सिताय होति – अचेलको होमि मुत्ताचारो हत्थापलेखनो हत्थावलेखनो (स्या॰), न एहिभद्दन्तिको न तिट्ठभद्दन्तिको; नाभिहटं न उद्दिस्सकतं न निमन्तनं सादियामि। सो न कुम्भिमुखा पटिग्गण्हामि, न कळोपिमुखा पटिग्गण्हामि, न एळकमन्तरं, न दण्डमन्तरं, न मुसलमन्तरं, न द्विन्‍नं भुञ्‍जमानानं, न गब्भिनिया, न पायमानाय पायन्तिया (क॰), न पुरिसन्तरगताय, न सङ्कित्तीसु, न यत्थ सा उपट्ठितो होति, न यत्थ मक्खिका सण्डसण्डचारिनी; न मच्छं न मंसं न सुरं न मेरयं न थुसोदकं पिवामि; सो एकागारिको वा होमि एकालोपिको, द्वागारिको वा होमि द्वालोपिको…पे॰… सत्तागारिको वा होमि सत्तालोपिको; एकिस्सापि दत्तिया यापेमि, द्वीहिपि दत्तीहि यापेमि…पे॰… सत्तहिपि दत्तीहि यापेमि; एकाहिकम्पि आहारं आहारेमि, द्वीहिकम्पि आहारं आहारेमि…पे॰… सत्ताहिकम्पि आहारं आहारेमि; इति एवरूपं अद्धमासिकम्पि परियायभत्तभोजनानुयोगमनुयुत्तो विहरामि।

‘‘सो साकभक्खो वा होमि, सामाकभक्खो वा होमि, नीवारभक्खो वा होमि, दद्दुलभक्खो वा होमि, हटभक्खो वा होमि, कणभक्खो वा होमि, आचामभक्खो वा होमि , पिञ्‍ञाकभक्खो वा होमि, तिणभक्खो वा होमि, गोमयभक्खो वा होमि, वनमूलफलाहारो यापेमि पवत्तफलभोजी।

‘‘सो साणानिपि धारेमि, मसाणानिपि धारेमि, छवदुस्सानिपि धारेमि, पंसुकूलानिपि धारेमि, तिरीटानिपि धारेमि, अजिनम्पि धारेमि, अजिनक्खिपम्पि धारेमि, कुसचीरम्पि धारेमि, वाकचीरम्पि धारेमि, फलकचीरम्पि धारेमि, केसकम्बलम्पि धारेमि, वाळकम्बलम्पि धारेमि, उलूकपक्खम्पि धारेमि; केसमस्सुलोचकोपि होमि केसमस्सुलोचनानुयोगमनुयुत्तो; उब्भट्ठकोपि होमि आसनपटिक्खित्तो; उक्‍कुटिकोपि होमि उक्‍कुटिकप्पधानमनुयुत्तो; कण्टकापस्सयिकोपि होमि कण्टकापस्सये सेय्यं कप्पेमि इमस्सानन्तरे अञ्‍ञोपि कोचि पाठपदेसो अञ्‍ञेसु आजीवकवतदीपकसुत्तेसु दिस्सति; सायततियकम्पि उदकोरोहनानुयोगमनुयुत्तो विहरामि – इति एवरूपं अनेकविहितं कायस्स आतापनपरितापनानुयोगमनुयुत्तो विहरामि। इदंसु मे, सारिपुत्त, तपस्सिताय होति।

१५६. ‘‘तत्रास्सु मे इदं, सारिपुत्त, लूखस्मिं होति – नेकवस्सगणिकं रजोजल्‍लं काये सन्‍निचितं होति पपटिकजातं। सेय्यथापि, सारिपुत्त, तिन्दुकखाणु नेकवस्सगणिको सन्‍निचितो होति पपटिकजातो, एवमेवास्सु मे, सारिपुत्त, नेकवस्सगणिकं रजोजल्‍लं काये सन्‍निचितं होति पपटिकजातं। तस्स मय्हं, सारिपुत्त, न एवं होति – ‘अहो वताहं इमं रजोजल्‍लं पाणिना परिमज्‍जेय्यं, अञ्‍ञे वा पन मे इमं रजोजल्‍लं पाणिना परिमज्‍जेय्यु’न्ति। एवम्पि मे, सारिपुत्त , न होति। इदंसु मे, सारिपुत्त, लूखस्मिं होति।

‘‘तत्रास्सु मे इदं, सारिपुत्त, जेगुच्छिस्मिं होति – सो खो अहं, सारिपुत्त, सतोव अभिक्‍कमामि, सतोव पटिक्‍कमामि, याव उदकबिन्दुम्हिपि मे दया पच्‍चुपट्ठिता होति – ‘माहं खुद्दके पाणे विसमगते सङ्घातं आपादेसि’न्ति। इदंसु मे, सारिपुत्त, जेगुच्छिस्मिं होति।

‘‘तत्रास्सु मे इदं, सारिपुत्त, पविवित्तस्मिं होति – सो खो अहं, सारिपुत्त, अञ्‍ञतरं अरञ्‍ञायतनं अज्झोगाहेत्वा विहरामि। यदा पस्सामि गोपालकं वा पसुपालकं वा तिणहारकं वा कट्ठहारकं वा वनकम्मिकं वा, वनेन वनं गहनेन गहनं निन्‍नेन निन्‍नं थलेन थलं संपतामि पपतामि (सी॰ स्या॰ पी॰)। तं किस्स हेतु? मा मं ते अद्दसंसु अहञ्‍च मा ते अद्दसन्ति। सेय्यथापि, सारिपुत्त, आरञ्‍ञको मगो मनुस्से दिस्वा वनेन वनं गहनेन गहनं निन्‍नेन निन्‍नं थलेन थलं संपतति, एवमेव खो अहं, सारिपुत्त, यदा पस्सामि गोपालकं वा पसुपालकं वा तिणहारकं वा कट्ठहारकं वा वनकम्मिकं वा वनेन वनं गहनेन गहनं निन्‍नेन निन्‍नं थलेन थलं संपतामि। तं किस्स हेतु? मा मं ते अद्दसंसु अहञ्‍च मा ते अद्दसन्ति। इदंसु मे, सारिपुत्त, पविवित्तस्मिं होति।

‘‘सो खो अहं, सारिपुत्त, ये ते गोट्ठा पट्ठितगावो अपगतगोपालका, तत्थ चतुक्‍कुण्डिको उपसङ्कमित्वा यानि तानि वच्छकानं तरुणकानं धेनुपकानं गोमयानि तानि सुदं आहारेमि। यावकीवञ्‍च मे , सारिपुत्त, सकं मुत्तकरीसं अपरियादिन्‍नं होति, सकंयेव सुदं मुत्तकरीसं आहारेमि। इदंसु मे, सारिपुत्त, महाविकटभोजनस्मिं होति।

१५७. ‘‘सो खो अहं, सारिपुत्त, अञ्‍ञतरं भिंसनकं वनसण्डं अज्झोगाहेत्वा विहरामि। तत्रास्सुदं, सारिपुत्त, भिंसनकस्स वनसण्डस्स भिंसनकतस्मिं होति – यो कोचि अवीतरागो तं वनसण्डं पविसति, येभुय्येन लोमानि हंसन्ति। सो खो अहं, सारिपुत्त, या ता रत्तियो सीता हेमन्तिका अन्तरट्ठका हिमपातसमया अन्तरट्ठके हिमपातसमये (सी॰ पी॰) तथारूपासु रत्तीसु रत्तिं अब्भोकासे विहरामि, दिवा वनसण्डे; गिम्हानं पच्छिमे मासे दिवा अब्भोकासे विहरामि, रत्तिं वनसण्डे। अपिस्सु मं, सारिपुत्त, अयं अनच्छरियगाथा पटिभासि पुब्बे अस्सुतपुब्बा –

‘‘सोतत्तो सोसिन्‍नो सोसीनो (सी॰ पी॰ क॰), सोसिनो (स्या॰), सोसिन्दो (सद्दनीति) चेव, एको भिंसनके वने।

नग्गो न चग्गिमासीनो, एसनापसुतो मुनी’’ति॥

‘‘सो खो अहं, सारिपुत्त, सुसाने सेय्यं कप्पेमि छवट्ठिकानि उपधाय। अपिस्सु मं, सारिपुत्त, गामण्डला गोमण्डला (बहूसु) चरियापिटकअट्ठकथा ओलोकेतब्बा उपसङ्कमित्वा ओट्ठुभन्तिपि, ओमुत्तेन्तिपि, पंसुकेनपि ओकिरन्ति, कण्णसोतेसुपि सलाकं पवेसेन्ति। न खो पनाहं, सारिपुत्त, अभिजानामि तेसु पापकं चित्तं उप्पादेता। इदंसु मे, सारिपुत्त, उपेक्खाविहारस्मिं होति।

१५८. ‘‘सन्ति खो पन, सारिपुत्त, एके समणब्राह्मणा एवंवादिनो एवंदिट्ठिनो – ‘आहारेन सुद्धी’ति। ते एवमाहंसु – ‘कोलेहि यापेमा’ति। ते कोलम्पि खादन्ति, कोलचुण्णम्पि खादन्ति, कोलोदकम्पि पिवन्ति – अनेकविहितम्पि कोलविकतिं परिभुञ्‍जन्ति। अभिजानामि खो पनाहं, सारिपुत्त, एकंयेव कोलं आहारं आहारिता। सिया खो पन ते, सारिपुत्त, एवमस्स – ‘महा नून तेन समयेन कोलो अहोसी’ति। न खो पनेतं, सारिपुत्त, एवं दट्ठब्बं। तदापि एतपरमोयेव कोलो अहोसि सेय्यथापि एतरहि। तस्स मय्हं, सारिपुत्त, एकंयेव कोलं आहारं आहारयतो अधिमत्तकसिमानं पत्तो कायो होति। सेय्यथापि नाम आसीतिकपब्बानि वा काळपब्बानि वा, एवमेवस्सु मे अङ्गपच्‍चङ्गानि भवन्ति तायेवप्पाहारताय। सेय्यथापि नाम ओट्ठपदं, एवमेवस्सु मे आनिसदं होति तायेवप्पाहारताय। सेय्यथापि नाम वट्टनावळी, एवमेवस्सु मे पिट्ठिकण्टको उन्‍नतावनतो होति तायेवप्पाहारताय। सेय्यथापि नाम जरसालाय गोपानसियो ओलुग्गविलुग्गा भवन्ति, एवमेवस्सु मे फासुळियो ओलुग्गविलुग्गा भवन्ति तायेवप्पाहारताय। सेय्यथापि नाम गम्भीरे उदपाने उदकतारका गम्भीरगता ओक्खायिका दिस्सन्ति, एवमेवस्सु मे अक्खिकूपेसु अक्खितारका गम्भीरगता ओक्खायिका दिस्सन्ति तायेवप्पाहारताय। सेय्यथापि नाम तित्तकालाबुआमकच्छिन्‍नो वातातपेन संफुटितो सम्फुसितो (स्या॰), संपुटितो (पी॰ क॰) एत्थ संफुटितोति सङ्कुचितोति अत्थो होति सम्मिलातो, एवमेवस्सु मे सीसच्छवि संफुटिता होति सम्मिलाता तायेवप्पाहारताय। सो खो अहं, सारिपुत्त, ‘उदरच्छविं परिमसिस्सामी’ति पिट्ठिकण्टकंयेव परिग्गण्हामि, ‘पिट्ठिकण्टकं परिमसिस्सामी’ति उदरच्छविंयेव परिग्गण्हामि, यावस्सु मे, सारिपुत्त, उदरच्छवि पिट्ठिकण्टकं अल्‍लीना होति तायेवप्पाहारताय। सो खो अहं, सारिपुत्त, ‘वच्‍चं वा मुत्तं वा करिस्सामी’ति तत्थेव अवकुज्‍जो पपतामि तायेवप्पाहारताय। सो खो अहं, सारिपुत्त, तमेव कायं अस्सासेन्तो पाणिना गत्तानि अनोमज्‍जामि। तस्स मय्हं, सारिपुत्त, पाणिना गत्तानि अनोमज्‍जतो पूतिमूलानि लोमानि कायस्मा पतन्ति तायेवप्पाहारताय।

१५९. ‘‘सन्ति खो पन, सारिपुत्त, एके समणब्राह्मणा एवंवादिनो एवंदिट्ठिनो – ‘आहारेन सुद्धी’ति। ते एवमाहंसु – ‘मुग्गेहि यापेम…पे॰… तिलेहि यापेम…पे॰… तण्डुलेहि यापेमा’ति। ते तण्डुलम्पि खादन्ति, तण्डुलचुण्णम्पि खादन्ति, तण्डुलोदकम्पि पिवन्ति – अनेकविहितम्पि तण्डुलविकतिं परिभुञ्‍जन्ति। अभिजानामि खो पनाहं, सारिपुत्त, एकंयेव तण्डुलं आहारं आहारिता। सिया खो पन ते, सारिपुत्त, एवमस्स – ‘महा नून तेन समयेन तण्डुलो अहोसी’ति। न खो पनेतं, सारिपुत्त, एवं दट्ठब्बं। तदापि एतपरमोयेव तण्डुलो अहोसि , सेय्यथापि एतरहि। तस्स मय्हं, सारिपुत्त, एकंयेव तण्डुलं आहारं आहारयतो अधिमत्तकसिमानं पत्तो कायो होति। सेय्यथापि नाम आसीतिकपब्बानि वा काळपब्बानि वा, एवमेवस्सु मे अङ्गपच्‍चङ्गानि भवन्ति तायेवप्पाहारताय। सेय्यथापि नाम ओट्ठपदं, एवमेवस्सु मे आनिसदं होति तायेवप्पाहारताय। सेय्यथापि नाम वट्टनावळी, एवमेवस्सु मे पिट्ठिकण्टको उन्‍नतावनतो होति तायेवप्पाहारताय। सेय्यथापि नाम जरसालाय गोपानसियो ओलुग्गविलुग्गा भवन्ति, एवमेवस्सु मे फासुळियो ओलुग्गविलुग्गा भवन्ति तायेवप्पाहारताय। सेय्यथापि नाम गम्भीरे उदपाने उदकतारका गम्भीरगता ओक्खायिका दिस्सन्ति, एवमेवस्सु मे अक्खिकूपेसु अक्खितारका गम्भीरगता ओक्खायिका दिस्सन्ति तायेवप्पाहारताय। सेय्यथापि नाम तित्तकालाबु आमकच्छिन्‍नो वातातपेन संफुटितो होति सम्मिलातो, एवमेवस्सु मे सीसच्छवि संफुटिता होति सम्मिलाता तायेवप्पाहारताय। सो खो अहं, सारिपुत्त, ‘उदरच्छविं परिमसिस्सामी’ति पिट्ठिकण्टकंयेव परिग्गण्हामि, ‘पिट्ठिकण्टकं परिमसिस्सामी’ति उदरच्छविंयेव परिग्गण्हामि। यावस्सु मे, सारिपुत्त, उदरच्छवि पिट्ठिकण्टकं अल्‍लीना होति तायेवप्पाहारताय। सो खो अहं, सारिपुत्त, ‘वच्‍चं वा मुत्तं वा करिस्सामी’ति तत्थेव अवकुज्‍जो पपतामि तायेवप्पाहारताय। सो खो अहं, सारिपुत्त, तमेव कायं अस्सासेन्तो पाणिना गत्तानि अनोमज्‍जामि। तस्स मय्हं, सारिपुत्त, पाणिना गत्तानि अनोमज्‍जतो पूतिमूलानि लोमानि कायस्मा पतन्ति तायेवप्पाहारताय।

‘‘तायपि खो अहं, सारिपुत्त, इरियाय ताय पटिपदाय ताय दुक्‍करकारिकाय नाज्झगमं उत्तरिं मनुस्सधम्मा अलमरियञाणदस्सनविसेसं। तं किस्स हेतु? इमिस्सायेव अरियाय पञ्‍ञाय अनधिगमा, यायं अरिया पञ्‍ञा अधिगता अरिया निय्यानिका, निय्याति तक्‍करस्स सम्मा दुक्खक्खयाय।

१६०. ‘‘सन्ति खो पन, सारिपुत्त, एके समणब्राह्मणा एवंवादिनो एवंदिट्ठिनो – ‘संसारेन सुद्धी’ति। न खो पन सो न खो पनेसो (सी॰ स्या॰), सारिपुत्त, संसारो सुलभरूपो यो मया असंसरितपुब्बो इमिना दीघेन अद्धुना, अञ्‍ञत्र सुद्धावासेहि देवेहि। सुद्धावासे चाहं, सारिपुत्त, देवे संसरेय्यं, नयिमं लोकं पुनरागच्छेय्यं।

‘‘सन्ति खो पन, सारिपुत्त, एके समणब्राह्मणा एवंवादिनो एवंदिट्ठिनो – ‘उपपत्तिया सुद्धी’ति। न खो पन सा, सारिपुत्त , उपपत्ति सुलभरूपा या मया अनुपपन्‍नपुब्बा इमिना दीघेन अद्धुना, अञ्‍ञत्र सुद्धावासेहि देवेहि। सुद्धावासे चाहं, सारिपुत्त, देवे उपपज्‍जेय्यं, नयिमं लोकं पुनरागच्छेय्यं।

‘‘सन्ति खो पन, सारिपुत्त, एके समणब्राह्मणा एवंवादिनो एवंदिट्ठिनो – ‘आवासेन सुद्धी’ति। न खो पन सो, सारिपुत्त, आवासो सुलभरूपो यो मया अनावुट्ठपुब्बो अनावुत्थपुब्बो (सी॰ पी॰) इमिना दीघेन अद्धुना, अञ्‍ञत्र सुद्धावासेहि देवेहि। सुद्धावासे चाहं, सारिपुत्त, देवे आवसेय्यं, नयिमं लोकं पुनरागच्छेय्यं।

‘‘सन्ति खो पन, सारिपुत्त, एके समणब्राह्मणा एवंवादिनो एवंदिट्ठिनो – ‘यञ्‍ञेन सुद्धी’ति। न खो पन सो, सारिपुत्त, यञ्‍ञो सुलभरूपो यो मया अयिट्ठपुब्बो इमिना दीघेन अद्धुना, तञ्‍च खो रञ्‍ञा वा सता खत्तियेन मुद्धावसित्तेन ब्राह्मणेन वा महासालेन।

‘‘सन्ति खो पन, सारिपुत्त, एके समणब्राह्मणा एवंवादिनो एवंदिट्ठिनो – ‘अग्गिपरिचरियाय सुद्धी’ति। न खो पन सो, सारिपुत्त, अग्गि सुलभरूपो यो मया अपरिचिण्णपुब्बो इमिना दीघेन अद्धुना, तञ्‍च खो रञ्‍ञा वा सता खत्तियेन मुद्धावसित्तेन ब्राह्मणेन वा महासालेन।

१६१. ‘‘सन्ति खो पन, सारिपुत्त, एके समणब्राह्मणा एवंवादिनो एवंदिट्ठिनो – ‘यावदेवायं भवं पुरिसो दहरो होति युवा सुसुकाळकेसो भद्रेन योब्बनेन समन्‍नागतो पठमेन वयसा तावदेव परमेन पञ्‍ञावेय्यत्तियेन समन्‍नागतो होति। यतो च खो अयं भवं पुरिसो जिण्णो होति वुद्धो महल्‍लको अद्धगतो वयोअनुप्पत्तो, आसीतिको वा नावुतिको वा वस्ससतिको वा जातिया, अथ तम्हा पञ्‍ञावेय्यत्तिया, परिहायती’ति। न खो पनेतं, सारिपुत्त , एवं दट्ठब्बं। अहं खो पन, सारिपुत्त, एतरहि जिण्णो वुद्धो महल्‍लको अद्धगतो वयोअनुप्पत्तो, आसीतिको मे वयो वत्तति। इध मे अस्सु, सारिपुत्त, चत्तारो सावका वस्ससतायुका वस्ससतजीविनो, परमाय सतिया च गतिया च धितिया च समन्‍नागता परमेन च पञ्‍ञावेय्यत्तियेन। सेय्यथापि, सारिपुत्त, दळ्हधम्मा दळ्हधम्मो (बहूसु) टीका च मोग्गल्‍लानब्याकरणं च ओलोकेतब्बं धनुग्गहो सिक्खितो कतहत्थो कतूपासनो लहुकेन असनेन अप्पकसिरेनेव तिरियं तालच्छायं अतिपातेय्य, एवं अधिमत्तसतिमन्तो एवं अधिमत्तगतिमन्तो एवं अधिमत्तधितिमन्तो एवं परमेन पञ्‍ञावेय्यत्तियेन समन्‍नागता। ते मं चतुन्‍नं सतिपट्ठानानं उपादायुपादाय पञ्हं पुच्छेय्युं, पुट्ठो पुट्ठो चाहं तेसं ब्याकरेय्यं, ब्याकतञ्‍च मे ब्याकततो धारेय्युं, न च मं दुतियकं उत्तरि पटिपुच्छेय्युं। अञ्‍ञत्र असितपीतखायितसायिता अञ्‍ञत्र उच्‍चारपस्सावकम्मा, अञ्‍ञत्र निद्दाकिलमथपटिविनोदना अपरियादिन्‍नायेवस्स, सारिपुत्त, तथागतस्स धम्मदेसना, अपरियादिन्‍नंयेवस्स तथागतस्स धम्मपदब्यञ्‍जनं, अपरियादिन्‍नंयेवस्स तथागतस्स पञ्हपटिभानं । अथ मे ते चत्तारो सावका वस्ससतायुका वस्ससतजीविनो वस्ससतस्स अच्‍चयेन कालं करेय्युं। मञ्‍चकेन चेपि मं, सारिपुत्त, परिहरिस्सथ, नेवत्थि तथागतस्स पञ्‍ञावेय्यत्तियस्स अञ्‍ञथत्तं। यं खो तं यं खो पनेतं (सी॰), सारिपुत्त, सम्मा वदमानो वदेय्य – ‘असम्मोहधम्मो सत्तो लोके उप्पन्‍नो बहुजनहिताय बहुजनसुखाय लोकानुकम्पाय अत्थाय हिताय सुखाय देवमनुस्सान’न्ति, ममेव तं सम्मा वदमानो वदेय्य ‘असम्मोहधम्मो सत्तो लोके उप्पन्‍नो बहुजनहिताय बहुजनसुखाय लोकानुकम्पाय अत्थाय हिताय सुखाय देवमनुस्सान’’’न्ति।

१६२. तेन खो पन समयेन आयस्मा नागसमालो भगवतो पिट्ठितो ठितो होति भगवन्तं बीजयमानो। अथ खो आयस्मा नागसमालो भगवन्तं एतदवोच – ‘‘अच्छरियं, भन्ते, अब्भुतं, भन्ते! अपि हि मे, भन्ते, इमं धम्मपरियायं सुत्वा लोमानि हट्ठानि। कोनामो अयं, भन्ते, धम्मपरियायो’’ति? ‘‘तस्मातिह त्वं, नागसमाल, इमं धम्मपरियायं लोमहंसनपरियायो त्वेव नं धारेही’’ति।

इदमवोच भगवा। अत्तमनो आयस्मा नागसमालो भगवतो भासितं अभिनन्दीति।

महासीहनादसुत्तं निट्ठितं दुतियं।