नमो तस्स भगवतो अरहतो सम्मा-सम्बुद्धस्स

📜 दुःखों की बड़ी गठरी

✦ ॥ नमो तस्स भगवतो अरहतो सम्मासम्बुद्धस्स ॥ ✦

Hindi

ऐसा मैंने सुना — एक समय भगवान श्रावस्ती में अनाथपिण्डक के जेतवन उद्यान में विहार कर रहे थे। तब बहुत से भिक्षु सुबह होने पर चीवर ओढ़, पात्र लेकर, भिक्षाटन के लिए श्रावस्ती में प्रवेश किया। तब उन्हें लगा, “अभी श्रावस्ती में भिक्षाटन करना बहुत जल्दी होगा। क्यों न हम परधर्मी घुमक्कड़ों के आश्रम जाएँ?”

तब वे भिक्षु परधर्मी घुमक्कड़ों के आश्रम गए। वहाँ जाकर वे परधर्मी घुमक्कड़ों से हालचाल पूछा। मैत्रीपूर्ण वार्तालाप कर वे भिक्षु एक ओर बैठ गए। एक ओर बैठे भिक्षुओं से परधर्मी घुमक्कड़ों ने कहा —

“मित्रों, श्रमण गौतम कामुकता को परिज्ञा (=अंतिम सीमा) तक समझाते हैं; हम भी कामुकता को परिज्ञा तक समझाते हैं। श्रमण गौतम रूपों को परिज्ञा तक समझाते है; हम भी रूपों को परिज्ञा तक समझाते हैं। श्रमण गौतम संवेदनाओं को परिज्ञा तक समझाते है; हम भी संवेदनाओं को परिज्ञा तक समझाते हैं। तब, मित्रों, श्रमण गौतम में हम से क्या विशेष है, क्या अंतरभेद है, क्या भिन्नता है — उनकी धर्म देशना और हमारी धर्म देशना में, उनके अनुशासन और हमारे अनुशासन में?”

तब उन भिक्षुओं ने परधर्मी घुममकड़ों की बात का न अभिनंदन किया, न अस्वीकार किया। बिना अभिनंदन किए, बिना अस्वीकार किए, वे अपने आसन से उठकर चल दिए, (सोचते हुए,) “भगवान से हम इस बात का अर्थ समझेंगे।”

तब वे भिक्षु श्रावस्ती में भिक्षाटन कर भोजन करने के पश्चात भगवान के पास गए। और भगवान को अभिवादन कर एक ओर बैठ गए। एक ओर बैठकर उन भिक्षुओं ने भगवान से कहा, “भंते, हम सुबह होने पर चीवर ओढ़, पात्र लेकर, भिक्षाटन के लिए श्रावस्ती में प्रवेश किया। तब हमें लगा, “अभी श्रावस्ती में भिक्षाटन करना बहुत जल्दी होगा। क्यों न हम परधर्मी घुमक्कड़ों के आश्रम जाएँ?”

तब हम परधर्मी घुमक्कड़ों के आश्रम गए। वहाँ जाकर वे परधर्मी घुमक्कड़ों से हालचाल पूछा। मैत्रीपूर्ण वार्तालाप कर हम एक ओर बैठ गए। एक ओर बैठे हम से परधर्मी घुमक्कड़ों ने कहा —

“मित्रों, श्रमण गौतम कामुकता को परिज्ञा तक समझाते हैं; हम भी कामुकता को परिज्ञा तक समझाते हैं। श्रमण गौतम रूपों को परिज्ञा तक समझाते है; हम भी रूपों को परिज्ञा तक समझाते हैं। श्रमण गौतम संवेदनाओं को परिज्ञा तक समझाते है; हम भी संवेदनाओं को परिज्ञा तक समझाते हैं। तब, मित्रों, श्रमण गौतम में हम से क्या विशेष है, क्या अंतरभेद है, क्या भिन्नता है — उनकी धर्म देशना और हमारी धर्म देशना में, उनके अनुशासन और हमारे अनुशासन में?”

तब हमने परधर्मी घुममकड़ों की बात का न अभिनंदन किया, न अस्वीकार किया। बिना अभिनंदन किए, बिना अस्वीकार किए, हम अपने आसन से उठकर चल दिए, (सोचते हुए,) “भगवान से हम इस बात का अर्थ समझेंगे।””

(भगवान ने कहा,) “ऐसा कहे जाने पर, भिक्षुओं, परधर्मी घुमक्कड़ों से कहना चाहिए, “किन्तु, मित्रों, कामुकता का प्रलोभन (“अस्साद”, आस्वाद) क्या है; दुष्परिणाम (“आदीनव”, खामी) क्या है; और बाहर निकलने का मार्ग (“निस्सरण”, निकास) क्या है? रूपों का प्रलोभन क्या है; खामी क्या है; और बच निकलने का मार्ग क्या है? और संवेदनाओं का प्रलोभन क्या है; खामी क्या है; निकलने का मार्ग क्या है?”

ऐसा पुछे जाने पर, भिक्षुओं, परधर्मी घुमक्कड़ जवाब नहीं दे पाएँगे, और ऊपर से परेशान हो जाएंगे। ऐसा क्यों? क्योंकि, यह उनके लिए विषय से बाहर (=आउट ऑफ सिलेबस!) है।

मैं किसी को नहीं देखता हूँ, भिक्षुओं, जो देव, मार, ब्रह्म, श्रमण, ब्राह्मण, राजा, और प्रजा से भरे इस लोक में इस प्रश्न का संतोषजनक उत्तर दे — बजाय तथागत के, या तथागत के श्रावक के, या उनसे ही सुने हुए व्यक्ति के।

कामुकता

और, भिक्षुओं, कामुकता का प्रलोभन क्या हैं?

ये पाँच कामसुख होते हैं —

  • आँख से दिखायी देते रूप, जो अच्छे, सुंदर, मनपसंद, आकर्षक, कामुक, ललचाते हो।
  • कान से सुनायी देती आवाज़े, जो अच्छी, मोहक, मनपसंद, आकर्षक, कामुक, ललचाती हो।
  • नाक से सुँघाई देती गन्ध, जो अच्छी, मोहक, मनपसंद, आकर्षक, कामुक, ललचाती हो।
  • जीभ से पता चलते स्वाद, जो अच्छे, मोहक, मनपसंद, आकर्षक, कामुक, ललचाते हो।
  • काया से पता चलते संस्पर्श, जो अच्छे, मोहक, मनपसंद, आकर्षक, कामुक, ललचाते हो।

अब, जो भी सुख और खुशी इन पाँच कामसुख के आधार पर उत्पन्न होती है, वही कामुकता का प्रलोभन है।


और, भिक्षुओं, कामुकता का दुष्परिणाम क्या है?

• ऐसा होता है कि कोई कुलपुत्र कोई कार्य कर के जीविका कमाता है — चाहे खेती, व्यवसाय, पशुपालन, तीरंदाजी, सरकारी कामकाज, अथवा कोई शिल्पकारी हो। तब उसे जीविका कमाते समय ठंडी लगती है, गर्मी लगती है, मक्खियाँ, मच्छर, पवन, धूप, बिच्छु, साँप आदि के संस्पर्श से परेशान होता रहता है। भूख-प्यास से मरता हुआ, वह अपनी जीविका कमाता है। यह दुष्परिणाम, यह दुःखों की गठरी, जो इस जीवन में दिखती है, उसका कारण कामुकता है, उसका स्त्रोत कामुकता है, वह कामुकता के परिणामस्वरूप है, जिसकी वजह केवल कामुकता है।

• अब, यदि कोई कुलपुत्र अपनी मेहनत से, कार्यशीलता से, प्रयास से, बाहों के बल से, पसीना बहाकर भोगसंपदा प्राप्त न कर पाए — तो वह अफ़सोस करता है, ढ़ीला पड़ता है, विलाप करता है, छाती पीटता है, बावला हो जाता है, “हाय! मेरी सारी मेहनत पानी में गई! सारा परिश्रम व्यर्थ गया!” यह दुष्परिणाम, यह दुःखों की गठरी, जो इस जीवन में दिखती है, उसका कारण भी कामुकता है, उसका स्त्रोत भी कामुकता है, वह कामुकता के परिणामस्वरूप ही है, जिसकी वजह केवल कामुकता है।

• अब, यदि कोई कुलपुत्र अपनी मेहनत से, कार्यशीलता से, प्रयास से, बाहों के बल से, पसीना बहाकर भोगसंपदा प्राप्त करें — तब उसकी रक्षा करते हुए, उसे पीड़ा और व्यथा होती है, “कही मेरी इस भोगसंपदा को सरकार या चोर न लूट लें, या आग न जला दे, या बाढ़ न बहा दे, या नालायक वारिस न बर्बाद कर दे!” यह दुष्परिणाम, यह दुःखों की गठरी, जो इस जीवन में दिखती है, उसका कारण भी कामुकता है, उसका स्त्रोत भी कामुकता है, वह कामुकता के परिणामस्वरूप ही है, जिसकी वजह केवल कामुकता है।

• अब, यदि कोई कुलपुत्र अपनी भोगसंपदा की रक्षा करते हुए देखता है कि उसकी भोगसंपदा को सरकार या चोर लूट लेती है, या आग जला देती है, या बाढ़ बहा देती है, या नालायक वारिस बर्बाद कर देता है, तो वह अफ़सोस करता है, ढ़ीला पड़ता है, विलाप करता है, छाती पीटता है, बावला हो जाता है, “हाय! जो मेरा था, अब नहीं रहा!’ यह दुष्परिणाम, यह दुःखों की गठरी, जो इस जीवन में दिखती है, उसका कारण भी कामुकता है, उसका स्त्रोत भी कामुकता है, वह कामुकता के परिणामस्वरूप ही है, जिसकी वजह केवल कामुकता है।

• और, कामुकता के कारण, कामुकता के स्त्रोत से, कामुकता के परिणामस्वरूप, जिसकी वजह केवल कामुकता ही है कि राजा राजा से लड़ता है, क्षत्रिय क्षत्रिय से लड़ता है, ब्राह्मण ब्राह्मण से लड़ता है, (वैश्य) गृहस्थ गृहस्थ से लड़ता है, माँ पुत्र से लड़ती है, पुत्र माँ से लड़ता है, बाप पुत्र से लड़ता है, पुत्र बाप से लड़ता है, भाई भाई से लड़ता है, भाई बहन से लड़ता है, बहन भाई से लड़ती है, बहन बहन से लड़ती है, और मित्र मित्र से लड़ता है। और, तब वे लड़ते, झगड़ते, विवाद करते हुए एक-दूसरे पर हाथ उठाते हैं, पत्थर उठाते हैं, डंडा, छुरी या शस्त्र से हमला करते हैं। और तब, इस कलह में मौते होती है, या मौत जैसी पीड़ा होती है। यह दुष्परिणाम, यह दुःखों की गठरी, जो इस जीवन में दिखती है, उसका कारण भी कामुकता है, उसका स्त्रोत भी कामुकता है, वह कामुकता के परिणामस्वरूप ही है, जिसकी वजह केवल कामुकता है।

• और, कामुकता के कारण, कामुकता के स्त्रोत से, कामुकता के परिणामस्वरूप, जिसकी वजह केवल कामुकता ही है कि लोग हाथों में ढ़ाल और तलवार पकड़े, धनुष में तीर चढ़ाकर, दोनों-ओर से व्यूहरचित युद्ध में आक्रमण करते हुए दौड़ पड़ते हैं। और वहाँ तीर व भालें उड़ते हैं, तलवारें चमकती हैं, तीर और भाले बींधते हुए लोगों को घायल करते हैं, तलवारों से सिर काटे जाते हैं। और तब, इस युद्ध में मौते होती है, या मौत जैसी पीड़ा होती है। यह दुष्परिणाम, यह दुःखों की गठरी, जो इस जीवन में दिखती है, उसका कारण भी कामुकता है, उसका स्त्रोत भी कामुकता है, वह कामुकता के परिणामस्वरूप ही है, जिसकी वजह केवल कामुकता है।

• और, कामुकता के कारण, कामुकता के स्त्रोत से, कामुकता के परिणामस्वरूप, जिसकी वजह केवल कामुकता ही है कि लोग हाथों में ढ़ाल और तलवार पकड़े, धनुष में तीर चढ़ाकर, ऊँचे फ़िसलनभरे किल्लों पर आक्रमण करते हुए दौड़ पड़ते हैं। और वहाँ तीर व भालें उड़ते हैं, तलवारें चमकती हैं, तीर और भाले बींधते हुए लोगों को घायल करते हैं, ऊपर से उबलता हुआ गर्म ग़ोबर गिराया जाता है, भारी चट्टान गिराकर कुचला जाता है, तलवारों से सिर काटे जाते हैं। और तब, इस युद्ध में मौते होती है, या मौत जैसी पीड़ा होती है। यह दुष्परिणाम, यह दुःखों की गठरी, जो इस जीवन में दिखती है, उसका कारण भी कामुकता है, उसका स्त्रोत भी कामुकता है, वह कामुकता के परिणामस्वरूप ही है, जिसकी वजह केवल कामुकता है।

• और, कामुकता के कारण, कामुकता के स्त्रोत से, कामुकता के परिणामस्वरूप, जिसकी वजह केवल कामुकता ही है कि लोग खिड़कियाँ तोड़कर चोरी करते हैं, लूटते हैं, डाका डालते हैं, मार्ग पर घात लगाते हैं, व्यभिचार करते हैं। और, जब उन्हें गिरफ्तार किया जाता है तो सरकार उन्हें दंडस्वरूप तरह-तरह से यातनाएँ देती है — जैसे चाबुक़ से पीटती है, कोड़े लगाती है, मुग्दर, बेंत या डंडे से पीटती है। हाथ काट देती है, पैर काट देती है, हाथ और पैर दोनों काट देती है। कान काट देती है, नाक काट देती है, कान और नाक दोनों काट देती है। खोपड़ी निकालकर गर्म लोहा दाल देती है। सिर की चमड़ी उतार कर खोपड़ी को कंकड़ों से रगड़ती है। चिमटे से मुँह खुलवा कर भीतर अँगारें या दीपक जला देती है। शरीर पर तेलबत्ती लपेट कर आग लगा देती है। हाथ पर तेलबत्ती लपेट कर आग लगा देती है। गले से कलाई तक की चमड़ी खींचकर उतार देती है। गले से कुल्हे तक की चमड़ी भी खींचकर उतार देती है। कोहनियों और घुटनों में खूँटा ठोक कर ज़मीन पर लिटा देती है। दोनों-ओर से नुक़िले काँटे घुसेड़ कर चमड़ी, माँस और नसें नचोट लेती है। सारे शरीर की चमड़ी को सिक्के-सिक्के भर छिलवा देती है। शरीर को पीट-पीटकर उस पर कंघी फेरती है, एक-करवट लिटाकर कानों में खूँटा गाड़ देती है। चमड़ी को बिना हानि पहुँचाये भीतर हड्डी पीस देती है। उबलता हुआ तेल डालती है। कुत्तों द्वारा नोच-नोचकर उनका भोजन बना देती है। खूँटी घुसाकर सुली पर लटका देती है। और तलवार से सिर काट देती है। और तब, इसमें मौते होती है, या मौत जैसी पीड़ा होती है। यह दुष्परिणाम, यह दुःखों की गठरी, जो इस जीवन में दिखती है, उसका कारण भी कामुकता है, उसका स्त्रोत भी कामुकता है, वह कामुकता के परिणामस्वरूप ही है, जिसकी वजह केवल कामुकता है।

• और आगे, कामुकता के कारण, कामुकता के स्त्रोत से, कामुकता के परिणामस्वरूप, जिसकी वजह केवल कामुकता ही है कि लोग काया से दुराचार करते हैं, वाणी से दुराचार करते हैं, मन से दुराचार करते हैं। और दुराचार में लिप्त होकर मरणोपरांत पतन होकर यातनालोक नर्क में उपजते हैं। यह दुष्परिणाम, यह दुःखों की गठरी, जो अगले जीवन में दिखती है, उसका कारण भी कामुकता है, उसका स्त्रोत भी कामुकता है, वह कामुकता के परिणामस्वरूप ही है, जिसकी वजह केवल कामुकता है।


और, भिक्षुओं, कामुकता से बाहर निकलने का मार्ग क्या है?

कामुकता के प्रति चाहत और दिलचस्पी को हटा देना, उसे त्याग देना — यही कामुकता से बाहर निकलने का मार्ग है।


अब, भिक्षुओं, कोई श्रमण या ब्राह्मण — जो ‘काम-प्रलोभन’ को प्रलोभन न समझता हो, ‘काम-दुष्परिणाम’ को दुष्परिणाम न समझता हो, ‘काम-निकास’ को निकास न समझता हो — वह स्वयं कामुकता समझ पाएगा या दूसरों को समझा पाएगा — यह असंभव है!

किन्तु, जो श्रमण या ब्राह्मण — ‘काम-प्रलोभन’ को प्रलोभन समझता हो, ‘काम-दुष्परिणाम’ को दुष्परिणाम समझता हो, ‘काम-निकास’ को निकास समझता हो — वह स्वयं कामुकता समझ पाएगा या दूसरों को समझा पाएगा — यह संभव है!

रूप

अब, भिक्षुओं, रूपों का आकर्षण क्या है?

कल्पना करों, भिक्षुओं, कोई पंद्रह या सोलह वर्ष की क्षत्रिय-कन्या हो, या ब्राह्मण-कन्या हो, या गृहस्थी-कन्या हो — न बहुत लंबी, न बहुत नाटी; न बहुत पतली, न बहुत मोटी; न बहुत काली, न बहुत गोरी। क्या उस समय उसकी सुंदरता और मोहकता चरम-स्थिति पर होगी?”

“हाँ, भन्ते!”

“उसकी सुंदरता व मोहकता पर आधारित जो भी शारीरिक और मानसिक सुख (“सुखं सोमनस्सं”) उत्पन्न होगा — वही रूपों का आकर्षण है।


और, भिक्षुओं, रूपों में खामी क्या है?

ऐसा हो, भिक्षुओं, कि कोई उसी स्त्री को कुछ समय-पश्चात देखे, जब वह अस्सी, नब्बे, या सौ वर्ष की हो जाए — बूढ़ी, ऊपर का शरीर टेढ़ा-मेढ़ा, झुका हुआ, लट्ठ के सहारे, लक़वे से पीड़ित, दुःखी और त्रस्त, दाँत टूट चुके, केश भूरे, थोड़े बचे केश, या गँजी हो चुकी, शरीर पूर्णतः झुर्रिदार और धब्बेदार!

तुम्हें क्या लगता है, भिक्षुओं? क्या अब उसकी पूर्व सुंदरता और मोहकता ग़ायब हो गयी, और खामी प्रकट हुई?”

“हाँ, भन्ते!”

“यह, भिक्षुओं, रूपों में खामी है।

और आगे, भिक्षुओं, कोई उसी स्त्री को देखे — रोगी, पीड़ा में, गंभीर बीमारी से ग्रस्त, स्वयं के मलमूत्र में सनी हुई, दूसरों के द्वारा उठायी जाती, दूसरों के द्वारा लिटायी जाती!

तुम्हें क्या लगता है, भिक्षुओं? क्या अब उसकी पूर्व सुंदरता और मोहकता ग़ायब हो गयी, और खामी प्रकट हुई?”

“हाँ, भन्ते!”

“यह भी, भिक्षुओं, रूपों में खामी है।

और आगे, भिक्षुओं, कोई उसी स्त्री को देखे — श्मशान में पड़े शव के रूप में — एक दिन पुरानी, दो दिन पुरानी, तीन दिन पुरानी — फूल चुकी, नीली पड़ चुकी, पीब रिसती हुई।

तुम्हें क्या लगता है, भिक्षुओं? क्या अब उसकी पूर्व सुंदरता और मोहकता ग़ायब हो गयी, और खामी प्रकट हुई?”

“हाँ, भन्ते!”

“यह भी, भिक्षुओं, रूपों में खामी है।

और आगे, कोई उसी स्त्री को देखे — श्मशान में पड़े शव के रूप में — कौवों द्वारा नोची जाती, चीलों द्वारा नोची जाती, गिद्धों द्वारा नोची जाती, बगुलों द्वारा नोची जाती, कुत्तों द्वारा चबाई जाती, बाघ द्वारा चबाई जाती, तेंदुए द्वारा चबाई जाती, सियार द्वारा चबाई जाती, अथवा विविध जंतुओं द्वारा खायी जाती।

तुम्हें क्या लगता है, भिक्षुओं? क्या अब उसकी पूर्व सुंदरता और मोहकता ग़ायब हो गयी, और खामी प्रकट हुई?”

“हाँ, भन्ते!”

“यह भी, भिक्षुओं, रूपों में खामी है।

और आगे, कोई उसी स्त्री को देखे — श्मशान में पड़े शव के रूप में —

  • माँस से युक्त, रक्त से सनी, नसों से बँधी, हड्डी-कंकालवाली…
  • माँस के बिना, रक्त से सनी, नसों से बँधी, हड्डी-कंकालवाली…
  • माँस के बिना, रक्त के बिना, नसों से बँधी, हड्डी-कंकालवाली…
  • माँस के बिना, रक्त के बिना, नसों से बिना बँधी, हड्डियाँ जहाँ-वहाँ बिखरी हुई — कही हाथ की हड्डी; कही पैर की; कही टखने की हड्डी; कही जाँघ की; कही कुल्हे की हड्डी; कही कमर की; कही पसली; कही पीठ की हड्डी; कही कंधे की हड्डी; कही गर्दन की; कही ठोड़ी की हड्डी; कही दाँत; कही खोपड़ी।
  • हड्डियाँ शंख जैसे सफ़ेद हो चुकी…
  • वर्षोंपश्चात, जब हड्डियों का ढ़ेर लगा हो…
  • जब हड्डियाँ सड़कर चूर्ण बन चुकी हो।

तुम्हें क्या लगता है, भिक्षुओं? क्या अब उसकी पूर्व सुंदरता और मोहकता ग़ायब हो गयी, और खामी प्रकट हुई?”

“हाँ, भन्ते!”

“यह भी, भिक्षुओं, रूपों में खामी है।

और, भिक्षुओं, रूप से बचने का मार्ग क्या है?

रूप के प्रति चाहत और दिलचस्पी को हटा देना, उसे त्याग देना — यही रूप से बचने का मार्ग है।

अब, भिक्षुओं, कोई श्रमण या ब्राह्मण — जो ‘रूप-प्रलोभन’ को प्रलोभन न समझता हो, ‘रूप-दुष्परिणाम’ को दुष्परिणाम न समझता हो, ‘रूप-निकास’ को निकास न समझता हो — वह स्वयं रूपों को समझ पाएगा या दूसरों को समझा पाएगा — यह असंभव है!

किन्तु, जो श्रमण या ब्राह्मण — ‘रूप-प्रलोभन’ को प्रलोभन समझता हो, ‘रूप-दुष्परिणाम’ को दुष्परिणाम समझता हो, ‘रूप-निकास’ को निकास समझता हो — वह स्वयं रूपों को समझ पाएगा या दूसरों को समझा पाएगा — यह संभव है!

वेदना

अब, भिक्षुओं, संवेदनाओं का प्रलोभन क्या है?

• ऐसा होता है, भिक्षुओं, कि कोई भिक्षु कामुकता से निर्लिप्त, अकुशल-स्वभाव से निर्लिप्त, सोच एवं विचार के साथ निर्लिप्तता से उपजे प्रफुल्लता और सुखपूर्ण प्रथम-ध्यान में प्रवेश पाकर रहता है।

उस समय, भिक्षुओं, वह स्वयं को पीड़ित नहीं करना चाहता, दूसरों को पीड़ित नहीं करना चाहता, या दोनों को पीड़ित नहीं करना चाहता। उस समय, वह पीड़ा-रहित अनुभूति करता है। वह पीड़ा-रहितता, भिक्षुओं, मैं कहता हूँ, संवेदनाओं का परम प्रलोभन है।

• आगे सोच एवं विचार के रुक जाने पर, भीतर आश्वस्त हुआ मानस एकरस होकर, बिना-सोच, बिना-विचार, समाधि से उपजे प्रफुल्लता और सुखपूर्ण द्वितीय-ध्यान में प्रवेश पाकर रहता है।

उस समय, भिक्षुओं, वह स्वयं को पीड़ित नहीं करना चाहता, दूसरों को पीड़ित नहीं करना चाहता, या दोनों को पीड़ित नहीं करना चाहता। उस समय, वह पीड़ा-रहित अनुभूति करता है। वह पीड़ा-रहितता, भिक्षुओं, मैं कहता हूँ, संवेदनाओं का परम प्रलोभन है।

• आगे प्रफुल्लता से विरक्त हो, स्मरणशील एवं सचेतता के साथ-साथ तटस्थता धारण कर शरीर से सुख महसूस करना। जिसे आर्यजन ‘तटस्थ, स्मरणशील, सुखविहारी’ कहते हैं, ऐसे तृतीय-ध्यान में प्रवेश पाकर रहता है।

उस समय, भिक्षुओं, वह स्वयं को पीड़ित नहीं करना चाहता, दूसरों को पीड़ित नहीं करना चाहता, या दोनों को पीड़ित नहीं करना चाहता। उस समय, वह पीड़ा-रहित अनुभूति करता है। वह पीड़ा-रहितता, भिक्षुओं, मैं कहता हूँ, संवेदनाओं का परम प्रलोभन है।

• और आगे, सुख एवं दर्द दोनों हटाकर, खुशी एवं परेशानी पूर्व ही विलुप्त होने पर, तटस्थता और स्मरणशीलता की परिशुद्धता के साथ, अब न-सुख-न-दर्द पूर्ण चतुर्थ-ध्यान में प्रवेश पाकर रहता है।

उस समय, भिक्षुओं, वह स्वयं को पीड़ित नहीं करना चाहता, दूसरों को पीड़ित नहीं करना चाहता, या दोनों को पीड़ित नहीं करना चाहता। उस समय, वह पीड़ा-रहित अनुभूति करता है। वह पीड़ा-रहितता, भिक्षुओं, मैं कहता हूँ, संवेदनाओं का परम प्रलोभन है।


और, भिक्षुओं, संवेदनाओं में खामी क्या है?

यहीं, भिक्षुओं, कि संवेदना अनित्य, दुःखपूर्ण, और बदलने वाली होती हैं (“विपरिणाम धम्मा”) — यही संवेदनाओं में खामी है।


और, भिक्षुओं, संवेदनाओं से निकलने का मार्ग क्या है?

संवेदनाओं के प्रति चाहत और दिलचस्पी को हटा देना, उसे त्याग देना — यही संवेदनाओं से बाहर निकलने का मार्ग है।

अब, भिक्षुओं, कोई श्रमण या ब्राह्मण — जो ‘संवेदना-प्रलोभन’ को प्रलोभन न समझता हो, ‘संवेदना-दुष्परिणाम’ को दुष्परिणाम न समझता हो, ‘संवेदना-निकास’ को निकास न समझता हो — वह स्वयं संवेदनाओं को समझ पाएगा या दूसरों को समझा पाएगा — यह असंभव है!

किन्तु, जो श्रमण या ब्राह्मण — ‘संवेदना-प्रलोभन’ को प्रलोभन समझता हो, ‘संवेदना-दुष्परिणाम’ को दुष्परिणाम समझता हो, ‘संवेदना-निकास’ को निकास समझता हो — वह स्वयं संवेदनाओं को समझ पाएगा या दूसरों को समझा पाएगा — यह संभव है!

भगवान ने ऐसा कहा। हर्षित होकर भिक्षुओं ने भगवान के कथन का अभिनंदन किया।

सुत्र समाप्त।

Pali

१६३. एवं मे सुतं – एकं समयं भगवा सावत्थियं विहरति जेतवने अनाथपिण्डिकस्स आरामे। अथ खो सम्बहुला भिक्खू पुब्बण्हसमयं निवासेत्वा पत्तचीवरमादाय सावत्थिं पिण्डाय पाविसिंसु। अथ खो तेसं भिक्खूनं एतदहोसि – ‘‘अतिप्पगो खो ताव सावत्थियं पिण्डाय चरितुं, यं नून मयं येन अञ्‍ञतित्थियानं परिब्बाजकानं आरामो तेनुपसङ्कमेय्यामा’’ति। अथ खो ते भिक्खू येन अञ्‍ञतित्थियानं परिब्बाजकानं आरामो तेनुपसङ्कमिंसु; उपसङ्कमित्वा तेहि अञ्‍ञतित्थियेहि परिब्बाजकेहि सद्धिं सम्मोदिंसु; सम्मोदनीयं कथं सारणीयं वीतिसारेत्वा एकमन्तं निसीदिंसु। एकमन्तं निसिन्‍ने खो ते भिक्खू ते अञ्‍ञतित्थिया परिब्बाजका एतदवोचुं – ‘‘समणो, आवुसो, गोतमो कामानं परिञ्‍ञं पञ्‍ञपेति, मयम्पि कामानं परिञ्‍ञं पञ्‍ञपेम; समणो, आवुसो, गोतमो रूपानं परिञ्‍ञं पञ्‍ञपेति, मयम्पि रूपानं परिञ्‍ञं पञ्‍ञपेम; समणो, आवुसो, गोतमो वेदनानं परिञ्‍ञं पञ्‍ञपेति, मयम्पि वेदनानं परिञ्‍ञं पञ्‍ञपेम; इध नो, आवुसो, को विसेसो, को अधिप्पयासो, किं नानाकरणं समणस्स वा गोतमस्स अम्हाकं वा – यदिदं धम्मदेसनाय वा धम्मदेसनं, अनुसासनिया वा अनुसासनि’’न्ति? अथ खो ते भिक्खू तेसं अञ्‍ञतित्थियानं परिब्बाजकानं भासितं नेव अभिनन्दिंसु, नप्पटिक्‍कोसिंसु; अनभिनन्दित्वा अप्पटिक्‍कोसित्वा उट्ठायासना पक्‍कमिंसु – ‘‘भगवतो सन्तिके एतस्स भासितस्स अत्थं आजानिस्सामा’’ति।

१६४. अथ खो ते भिक्खू सावत्थियं पिण्डाय चरित्वा पच्छाभत्तं पिण्डपातपटिक्‍कन्ता येन भगवा तेनुपसङ्कमिंसु; उपसङ्कमित्वा भगवन्तं अभिवादेत्वा एकमन्तं निसीदिंसु। एकमन्तं निसिन्‍ना खो ते भिक्खू भगवन्तं एतदवोचुं – ‘‘इध मयं, भन्ते, पुब्बण्हसमयं निवासेत्वा पत्तचीवरमादाय सावत्थिं पिण्डाय पाविसिम्ह। तेसं नो, भन्ते, अम्हाकं एतदहोसि – ‘अतिप्पगो खो ताव सावत्थियं पिण्डाय चरितुं, यं नून मयं येन अञ्‍ञतित्थियानं परिब्बाजकानं आरामो तेनुपसङ्कमेय्यामा’ति। अथ खो मयं, भन्ते, येन अञ्‍ञतित्थियानं परिब्बाजकानं आरामो तेनुपसङ्कमिम्ह; उपसङ्कमित्वा तेहि अञ्‍ञतित्थियेहि परिब्बाजकेहि सद्धिं सम्मोदिम्ह; सम्मोदनीयं कथं सारणीयं वीतिसारेत्वा एकमन्तं निसीदिम्ह। एकमन्तं निसिन्‍ने खो अम्हे, भन्ते, ते अञ्‍ञतित्थिया परिब्बाजका एतदवोचुं – ‘समणो, आवुसो, गोतमो कामानं परिञ्‍ञं पञ्‍ञपेति, मयम्पि कामानं परिञ्‍ञं पञ्‍ञपेम । समणो, आवुसो, गोतमो रूपानं परिञ्‍ञं पञ्‍ञपेति, मयम्पि रूपानं परिञ्‍ञं पञ्‍ञपेम। समणो, आवुसो, गोतमो वेदनानं परिञ्‍ञं पञ्‍ञपेति, मयम्पि वेदनानं परिञ्‍ञं पञ्‍ञपेम। इध नो, आवुसो, को विसेसो, को अधिप्पयासो, किं नानाकरणं समणस्स वा गोतमस्स अम्हाकं वा, यदिदं धम्मदेसनाय वा धम्मदेसनं अनुसासनिया वा अनुसासनि’न्ति। अथ खो मयं, भन्ते, तेसं अञ्‍ञतित्थियानं परिब्बाजकानं भासितं नेव अभिनन्दिम्ह, नप्पटिक्‍कोसिम्ह; अनभिनन्दित्वा अप्पटिक्‍कोसित्वा उट्ठायासना पक्‍कमिम्ह – ‘भगवतो सन्तिके एतस्स भासितस्स अत्थं आजानिस्सामा’’’ति।

१६५. ‘‘एवंवादिनो, भिक्खवे, अञ्‍ञतित्थिया परिब्बाजका एवमस्सु वचनीया – ‘को पनावुसो, कामानं अस्सादो, को आदीनवो, किं निस्सरणं? को रूपानं अस्सादो, को आदीनवो, किं निस्सरणं? को वेदनानं अस्सादो, को आदीनवो, किं निस्सरण’न्ति? एवं पुट्ठा, भिक्खवे, अञ्‍ञतित्थिया परिब्बाजका न चेव सम्पायिस्सन्ति, उत्तरिञ्‍च विघातं आपज्‍जिस्सन्ति। तं किस्स हेतु? यथा तं, भिक्खवे, अविसयस्मिं। नाहं तं, भिक्खवे, पस्सामि सदेवके लोके समारके सब्रह्मके सस्समणब्राह्मणिया पजाय सदेवमनुस्साय यो इमेसं पञ्हानं वेय्याकरणेन चित्तं आराधेय्य, अञ्‍ञत्र तथागतेन वा तथागतसावकेन वा, इतो वा पन सुत्वा।

१६६. ‘‘को च, भिक्खवे, कामानं अस्सादो? पञ्‍चिमे, भिक्खवे, कामगुणा। कतमे पञ्‍च? चक्खुविञ्‍ञेय्या रूपा इट्ठा कन्ता मनापा पियरूपा कामूपसंहिता रजनीया, सोतविञ्‍ञेय्या सद्दा…पे॰… घानविञ्‍ञेय्या गन्धा … जिव्हाविञ्‍ञेय्या रसा… कायविञ्‍ञेय्या फोट्ठब्बा इट्ठा कन्ता मनापा पियरूपा कामूपसंहिता रजनीया – इमे खो, भिक्खवे, पञ्‍च कामगुणा। यं खो, भिक्खवे, इमे पञ्‍च कामगुणे पटिच्‍च उप्पज्‍जति सुखं सोमनस्सं – अयं कामानं अस्सादो।

१६७. ‘‘को च, भिक्खवे, कामानं आदीनवो? इध, भिक्खवे, कुलपुत्तो येन सिप्पट्ठानेन जीविकं कप्पेति – यदि मुद्दाय यदि गणनाय यदि सङ्खानेन सङ्खाय (क॰) यदि कसिया यदि वणिज्‍जाय यदि गोरक्खेन यदि इस्सत्थेन यदि राजपोरिसेन यदि सिप्पञ्‍ञतरेन – सीतस्स पुरक्खतो उण्हस्स पुरक्खतो डंसमकसवातातपसरींसपसम्फस्सेहि रिस्समानो ईरयमानो (क॰), सम्फस्समानो (चूळनि॰ खग्गविसाणसुत्त १३६) खुप्पिपासाय मीयमानो; अयम्पि, भिक्खवे, कामानं आदीनवो सन्दिट्ठिको, दुक्खक्खन्धो कामहेतु कामनिदानं कामाधिकरणं कामानमेव हेतु।

‘‘तस्स चे, भिक्खवे, कुलपुत्तस्स एवं उट्ठहतो घटतो वायमतो ते भोगा नाभिनिप्फज्‍जन्ति। सो सोचति किलमति परिदेवति उरत्ताळिं कन्दति, सम्मोहं आपज्‍जति – ‘मोघं वत मे उट्ठानं, अफलो वत मे वायामो’ति। अयम्पि, भिक्खवे, कामानं आदीनवो सन्दिट्ठिको दुक्खक्खन्धो कामहेतु कामनिदानं कामाधिकरणं कामानमेव हेतु।

‘‘तस्स चे, भिक्खवे, कुलपुत्तस्स एवं उट्ठहतो घटतो वायमतो ते भोगा अभिनिप्फज्‍जन्ति। सो तेसं भोगानं आरक्खाधिकरणं दुक्खं दोमनस्सं पटिसंवेदेति – ‘किन्ति मे भोगे नेव राजानो हरेय्युं, न चोरा हरेय्युं, न अग्गि दहेय्य, न उदकं वहेय्य वाहेय्य (क॰), न अप्पिया दायादा हरेय्यु’न्ति। तस्स एवं आरक्खतो गोपयतो ते भोगे राजानो वा हरन्ति, चोरा वा हरन्ति, अग्गि वा दहति, उदकं वा वहति, अप्पिया वा दायादा हरन्ति। सो सोचति किलमति परिदेवति उरत्ताळिं कन्दति, सम्मोहं आपज्‍जति – ‘यम्पि मे अहोसि तम्पि नो नत्थी’ति। अयम्पि, भिक्खवे, कामानं आदीनवो सन्दिट्ठिको, दुक्खक्खन्धो कामहेतु कामनिदानं कामाधिकरणं कामानमेव हेतु।

१६८. ‘‘पुन चपरं, भिक्खवे, कामहेतु कामनिदानं कामाधिकरणं कामानमेव हेतु राजानोपि राजूहि विवदन्ति, खत्तियापि खत्तियेहि विवदन्ति , ब्राह्मणापि ब्राह्मणेहि विवदन्ति, गहपतीपि गहपतीहि विवदन्ति, मातापि पुत्तेन विवदति, पुत्तोपि मातरा विवदति, पितापि पुत्तेन विवदति, पुत्तोपि पितरा विवदति, भातापि भातरा विवदति, भातापि भगिनिया विवदति, भगिनीपि भातरा विवदति, सहायोपि सहायेन विवदति। ते तत्थ कलहविग्गहविवादापन्‍ना अञ्‍ञमञ्‍ञं पाणीहिपि उपक्‍कमन्ति, लेड्डूहिपि उपक्‍कमन्ति, दण्डेहिपि उपक्‍कमन्ति, सत्थेहिपि उपक्‍कमन्ति। ते तत्थ मरणम्पि निगच्छन्ति, मरणमत्तम्पि दुक्खं । अयम्पि, भिक्खवे, कामानं आदीनवो सन्दिट्ठिको, दुक्खक्खन्धो कामहेतु कामनिदानं कामाधिकरणं कामानमेव हेतु।

‘‘पुन चपरं, भिक्खवे, कामहेतु कामनिदानं कामाधिकरणं कामानमेव हेतु असिचम्मं गहेत्वा, धनुकलापं सन्‍नय्हित्वा, उभतोब्यूळ्हं सङ्गामं पक्खन्दन्ति उसूसुपि खिप्पमानेसु , सत्तीसुपि खिप्पमानासु, असीसुपि विज्‍जोतलन्तेसु। ते तत्थ उसूहिपि विज्झन्ति, सत्तियापि विज्झन्ति, असिनापि सीसं छिन्दन्ति। ते तत्थ मरणम्पि निगच्छन्ति, मरणमत्तम्पि दुक्खं। अयम्पि, भिक्खवे, कामानं आदीनवो सन्दिट्ठिको, दुक्खक्खन्धो कामहेतु कामनिदानं कामाधिकरणं कामानमेव हेतु।

‘‘पुन चपरं, भिक्खवे, कामहेतु कामनिदानं कामाधिकरणं कामानमेव हेतु असिचम्मं गहेत्वा, धनुकलापं सन्‍नय्हित्वा, अद्दावलेपना अट्टावलेपना (स्या॰ क॰) उपकारियो पक्खन्दन्ति उसूसुपि खिप्पमानेसु, सत्तीसुपि खिप्पमानासु , असीसुपि विज्‍जोतलन्तेसु। ते तत्थ उसूहिपि विज्झन्ति, सत्तियापि विज्झन्ति, छकणकायपि पकट्ठियापि (सी॰) ओसिञ्‍चन्ति, अभिवग्गेनपि ओमद्दन्ति, असिनापि सीसं छिन्दन्ति। ते तत्थ मरणम्पि निगच्छन्ति, मरणमत्तम्पि दुक्खं। अयम्पि, भिक्खवे, कामानं आदीनवो सन्दिट्ठिको, दुक्खक्खन्धो कामहेतु कामनिदानं कामाधिकरणं कामानमेव हेतु।

१६९. ‘‘पुन चपरं, भिक्खवे, कामहेतु कामनिदानं कामाधिकरणं कामानमेव हेतु सन्धिम्पि छिन्दन्ति, निल्‍लोपम्पि हरन्ति, एकागारिकम्पि करोन्ति, परिपन्थेपि तिट्ठन्ति, परदारम्पि गच्छन्ति। तमेनं राजानो गहेत्वा विविधा कम्मकारणा कारेन्ति – कसाहिपि ताळेन्ति, वेत्तेहिपि ताळेन्ति, अड्ढदण्डकेहिपि ताळेन्ति; हत्थम्पि छिन्दन्ति, पादम्पि छिन्दन्ति, हत्थपादम्पि छिन्दन्ति, कण्णम्पि छिन्दन्ति, नासम्पि छिन्दन्ति, कण्णनासम्पि छिन्दन्ति; बिलङ्गथालिकम्पि करोन्ति , सङ्खमुण्डिकम्पि करोन्ति, राहुमुखम्पि करोन्ति, जोतिमालिकम्पि करोन्ति, हत्थपज्‍जोतिकम्पि करोन्ति, एरकवत्तिकम्पि करोन्ति, चीरकवासिकम्पि करोन्ति, एणेय्यकम्पि करोन्ति, बळिसमंसिकम्पि करोन्ति, कहापणिकम्पि करोन्ति, खारापतच्छिकम्पि करोन्ति, पलिघपरिवत्तिकम्पि करोन्ति, पलालपीठकम्पि करोन्ति, तत्तेनपि तेलेन ओसिञ्‍चन्ति, सुनखेहिपि खादापेन्ति, जीवन्तम्पि सूले उत्तासेन्ति, असिनापि सीसं छिन्दन्ति । ते तत्थ मरणम्पि निगच्छन्ति, मरणमत्तम्पि दुक्खं। अयम्पि, भिक्खवे, कामानं आदीनवो सन्दिट्ठिको, दुक्खक्खन्धो कामहेतु कामनिदानं कामाधिकरणं कामानमेव हेतु।

‘‘पुन चपरं, भिक्खवे, कामहेतु कामनिदानं कामाधिकरणं कामानमेव हेतु कायेन दुच्‍चरितं चरन्ति, वाचाय दुच्‍चरितं चरन्ति, मनसा दुच्‍चरितं चरन्ति। ते कायेन दुच्‍चरितं चरित्वा, वाचाय दुच्‍चरितं चरित्वा, मनसा दुच्‍चरितं चरित्वा, कायस्स भेदा परं मरणा अपायं दुग्गतिं विनिपातं निरयं उपपज्‍जन्ति। अयम्पि, भिक्खवे, कामानं आदीनवो सम्परायिको, दुक्खक्खन्धो कामहेतु कामनिदानं कामाधिकरणं कामानमेव हेतु।

१७०. ‘‘किञ्‍च, भिक्खवे, कामानं निस्सरणं? यो खो, भिक्खवे, कामेसु छन्दरागविनयो छन्दरागप्पहानं – इदं कामानं निस्सरणं।

‘‘ये हि केचि, भिक्खवे, समणा वा ब्राह्मणा वा एवं कामानं अस्सादञ्‍च अस्सादतो आदीनवञ्‍च आदीनवतो निस्सरणञ्‍च निस्सरणतो यथाभूतं नप्पजानन्ति ते वत सामं वा कामे परिजानिस्सन्ति, परं वा तथत्ताय समादपेस्सन्ति यथा पटिपन्‍नो कामे परिजानिस्सतीति – नेतं ठानं विज्‍जति। ये च खो केचि, भिक्खवे, समणा वा ब्राह्मणा वा एवं कामानं अस्सादञ्‍च अस्सादतो आदीनवञ्‍च आदीनवतो निस्सरणञ्‍च निस्सरणतो यथाभूतं पजानन्ति, ते वत सामं वा कामे परिजानिस्सन्ति परं वा तथत्ताय समादपेस्सन्ति यथा पटिपन्‍नो कामे परिजानिस्सतीति – ठानमेतं विज्‍जति।

१७१. ‘‘को च, भिक्खवे, रूपानं अस्सादो? सेय्यथापि, भिक्खवे, खत्तियकञ्‍ञा वा ब्राह्मणकञ्‍ञा वा गहपतिकञ्‍ञा वा पन्‍नरसवस्सुद्देसिका वा सोळसवस्सुद्देसिका वा, नातिदीघा नातिरस्सा नातिकिसा नातिथूला नातिकाळी नाच्‍चोदाता परमा सा, भिक्खवे, तस्मिं समये सुभा वण्णनिभाति? ‘एवं, भन्ते’। यं खो, भिक्खवे, सुभं वण्णनिभं पटिच्‍च उप्पज्‍जति सुखं सोमनस्सं – अयं रूपानं अस्सादो।

‘‘को च, भिक्खवे, रूपानं आदीनवो? इध, भिक्खवे, तमेव भगिनिं पस्सेय्य अपरेन समयेन आसीतिकं वा नावुतिकं वा वस्ससतिकं वा जातिया, जिण्णं गोपानसिवङ्कं भोग्गं दण्डपरायनं पवेधमानं गच्छन्तिं आतुरं गतयोब्बनं खण्डदन्तं खण्डदन्तिं (सी॰ पी॰) पलितकेसं पलितकेसिं, विलूनं खलितसिरं वलिनं तिलकाहतगत्तं तिलकाहतगत्तिं (बहूसु) अट्ठकथा टीका ओलोकेतब्बा। तं किं मञ्‍ञथ, भिक्खवे, या पुरिमा सुभा वण्णनिभा सा अन्तरहिता, आदीनवो पातुभूतोति? ‘एवं, भन्ते’। अयम्पि, भिक्खवे, रूपानं आदीनवो।

‘‘पुन चपरं, भिक्खवे, तमेव भगिनिं पस्सेय्य आबाधिकं दुक्खितं बाळ्हगिलानं, सके मुत्तकरीसे पलिपन्‍नं सेमानं सेय्यमानं (क॰), अञ्‍ञेहि वुट्ठापियमानं, अञ्‍ञेहि संवेसियमानं। तं किं मञ्‍ञथ, भिक्खवे, या पुरिमा सुभा वण्णनिभा सा अन्तरहिता, आदीनवो पातुभूतोति? ‘एवं, भन्ते’। अयम्पि, भिक्खवे, रूपानं आदीनवो।

१७२. ‘‘पुन चपरं, भिक्खवे, तमेव भगिनिं पस्सेय्य सरीरं सिवथिकाय छड्डितं – एकाहमतं वा द्वीहमतं वा तीहमतं वा, उद्धुमातकं विनीलकं विपुब्बकजातं। तं किं मञ्‍ञथ, भिक्खवे, या पुरिमा सुभा वण्णनिभा सा अन्तरहिता, आदीनवो पातुभूतोति? ‘एवं, भन्ते’। अयम्पि, भिक्खवे, रूपानं आदीनवो।

‘‘पुन चपरं, भिक्खवे, तमेव भगिनिं पस्सेय्य सरीरं सिवथिकाय छड्डितं – काकेहि वा खज्‍जमानं, कुललेहि वा खज्‍जमानं, गिज्झेहि वा खज्‍जमानं, कङ्केहि वा खज्‍जमानं, सुनखेहि वा खज्‍जमानं, ब्यग्घेहि वा खज्‍जमानं, दीपीहि वा खज्‍जमानं, सिङ्गालेहि वा खज्‍जमानं, विविधेहि वा पाणकजातेहि खज्‍जमानं। तं किं मञ्‍ञथ, भिक्खवे , या पुरिमा सुभा वण्णनिभा सा अन्तरहिता, आदीनवो पातुभूतोति? ‘एवं, भन्ते’। अयम्पि, भिक्खवे, रूपानं आदीनवो।

‘‘पुन चपरं, भिक्खवे, तमेव भगिनिं पस्सेय्य सरीरं सिवथिकाय छड्डितं – अट्ठिकसङ्खलिकं समंसलोहितं न्हारुसम्बन्धं, अट्ठिकसङ्खलिकं निमंसलोहितमक्खितं न्हारुसम्बन्धं, अट्ठिकसङ्खलिकं अपगतमंसलोहितं न्हारुसम्बन्धं, अट्ठिकानि अपगतसम्बन्धानि दिसाविदिसाविक्खित्तानि – अञ्‍ञेन हत्थट्ठिकं, अञ्‍ञेन पादट्ठिकं, अञ्‍ञेन गोप्फकट्ठिकं, अञ्‍ञेन जङ्घट्ठिकं, अञ्‍ञेन ऊरुट्ठिकं, अञ्‍ञेन कटिट्ठिकं, अञ्‍ञेन फासुकट्ठिकं, अञ्‍ञेन पिट्ठिट्ठिकं, अञ्‍ञेन खन्धट्ठिकं, अञ्‍ञेन गीवट्ठिकं, अञ्‍ञेन हनुकट्ठिकं, अञ्‍ञेन दन्तट्ठिकं, अञ्‍ञेन सीसकटाहं। तं किं मञ्‍ञथ, भिक्खवे, या पुरिमा सुभा वण्णनिभा सा अन्तरहिता, आदीनवो पातुभूतोति? ‘एवं, भन्ते’। अयम्पि, भिक्खवे, रूपानं आदीनवो।

‘‘पुन चपरं, भिक्खवे, तमेव भगिनिं पस्सेय्य सरीरं सिवथिकाय छड्डितं – अट्ठिकानि सेतानि सङ्खवण्णपटिभागानि, अट्ठिकानि पुञ्‍जकितानि तेरोवस्सिकानि, अट्ठिकानि पूतीनि चुण्णकजातानि। तं किं मञ्‍ञथ, भिक्खवे, या पुरिमा सुभा वण्णनिभा सा अन्तरहिता, आदीनवो पातुभूतोति? ‘एवं, भन्ते’। अयम्पि, भिक्खवे, रूपानं आदीनवो।

‘‘किञ्‍च, भिक्खवे, रूपानं निस्सरणं? यो, भिक्खवे, रूपेसु छन्दरागविनयो छन्दरागप्पहानं – इदं रूपानं निस्सरणं।

‘‘ये हि केचि, भिक्खवे, समणा वा ब्राह्मणा वा एवं रूपानं अस्सादञ्‍च अस्सादतो आदीनवञ्‍च आदीनवतो निस्सरणञ्‍च निस्सरणतो यथाभूतं नप्पजानन्ति ते वत सामं वा रूपे परिजानिस्सन्ति, परं वा तथत्ताय समादपेस्सन्ति यथा पटिपन्‍नो रूपे परिजानिस्सतीति – नेतं ठानं विज्‍जति। ये च खो केचि, भिक्खवे, समणा वा ब्राह्मणा वा एवं रूपानं अस्सादञ्‍च अस्सादतो आदीनवञ्‍च आदीनवतो निस्सरणञ्‍च निस्सरणतो यथाभूतं पजानन्ति ते वत सामं वा रूपे परिजानिस्सन्ति परं वा तथत्ताय समादपेस्सन्ति यथा पटिपन्‍नो रूपे परिजानिस्सतीति – ठानमेतं विज्‍जति।

१७३. ‘‘को च, भिक्खवे, वेदनानं अस्सादो? इध, भिक्खवे, भिक्षु विविच्‍चेव कामेहि विविच्‍च अकुसलेहि धम्मेहि सवितक्‍कं सविचारं विवेकजं पीतिसुखं पठमं झानं उपसम्पज्‍ज विहरति। यस्मिं समये, भिक्खवे, भिक्षु विविच्‍चेव कामेहि विविच्‍च अकुसलेहि धम्मेहि सवितक्‍कं सविचारं विवेकजं पीतिसुखं पठमं झानं उपसम्पज्‍ज विहरति, नेव तस्मिं समये अत्तब्याबाधायपि चेतेति, न परब्याबाधायपि चेतेति, न उभयब्याबाधायपि चेतेति ; अब्याबज्झंयेव तस्मिं समये वेदनं वेदेति। अब्याबज्झपरमाहं, भिक्खवे, वेदनानं अस्सादं वदामि।

‘‘पुन चपरं, भिक्खवे, भिक्षु वितक्‍कविचारानं वूपसमा अज्झत्तं सम्पसादनं चेतसो एकोदिभावं अवितक्‍कं अविचारं समाधिजं पीतिसुखं दुतियं झानं उपसम्पज्‍ज विहरति…पे॰… यस्मिं समये, भिक्खवे, भिक्षु पीतिया च विरागा, उपेक्खको च विहरति, सतो च सम्पजानो सुखञ्‍च कायेन पटिसंवेदेति यं तं अरिया आचिक्खन्ति – ‘उपेक्खको सतिमा सुखविहारी’ति ततियं झानं उपसम्पज्‍ज विहरति…पे॰… यस्मिं समये, भिक्खवे, भिक्षु सुखस्स च पहाना दुक्खस्स च पहाना पुब्बेव सोमनस्सदोमनस्सानं अत्थङ्गमा अदुक्खमसुखं उपेक्खासतिपारिसुद्धिं चतुत्थं झानं उपसम्पज्‍ज विहरति, नेव तस्मिं समये अत्तब्याबाधायपि चेतेति, न परब्याबाधायपि चेतेति, न उभयब्याबाधायपि चेतेति; अब्याबज्झंयेव तस्मिं समये वेदनं वेदेति। अब्याबज्झपरमाहं, भिक्खवे, वेदनानं अस्सादं वदामि।

१७४. ‘‘को च, भिक्खवे, वेदनानं आदीनवो? यं, भिक्खवे, वेदना अनिच्‍चा दुक्खा विपरिणामधम्मा – अयं वेदनानं आदीनवो।

‘‘किञ्‍च, भिक्खवे, वेदनानं निस्सरणं? यो, भिक्खवे, वेदनासु छन्दरागविनयो, छन्दरागप्पहानं – इदं वेदनानं निस्सरणं।

‘‘ये हि केचि, भिक्खवे, समणा वा ब्राह्मणा वा एवं वेदनानं अस्सादञ्‍च अस्सादतो आदीनवञ्‍च आदीनवतो निस्सरणञ्‍च निस्सरणतो यथाभूतं नप्पजानन्ति, ते वत सामं वा वेदनं परिजानिस्सन्ति, परं वा तथत्ताय समादपेस्सन्ति यथा पटिपन्‍नो वेदनं परिजानिस्सतीति – नेतं ठानं विज्‍जति। ये च खो केचि, भिक्खवे, समणा वा ब्राह्मणा वा एवं वेदनानं अस्सादञ्‍च अस्सादतो आदीनवञ्‍च आदीनवतो निस्सरणञ्‍च निस्सरणतो यथाभूतं पजानन्ति ते वत सामं वा वेदनं परिजानिस्सन्ति, परं वा तथत्ताय समादपेस्सन्ति यथा पटिपन्‍नो वेदनं परिजानिस्सतीति – ठानमेतं विज्‍जती’’ति।

इदमवोच भगवा। अत्तमना ते भिक्खू भगवतो भासितं अभिनन्दुन्ति।

महादुक्खक्खन्धसुत्तं निट्ठितं ततियं।