भगवान कहते हैं कि कोई व्यक्ति कामुकता से पूरी तरह छूट नहीं पाता है, भले ही वह कामुकता के असली स्वरूप को “यथाभूत” सम्यक प्रज्ञा से देख ले। वह तभी छूट सकता है, जब वह उसके साथ ध्यान-अवस्थाओं से प्राप्त “प्रीति और सुख” को भी प्राप्त करे।
यह बात आर्यफल प्राप्त व्यक्ति के लिए भी लागू होती है। चूँकि श्रोतापति या सकृदागामी व्यक्ति कामुकता के प्रति अपनी आसक्ति को पूरी तरह से समाप्त नहीं कर पाते हैं, इसलिए उन्हें नियमित ध्यान-समाधि में लीन होना आवश्यक होता है। अन्यथा, उनके चित्त में गिरावट हो सकती है और कामुकता पुनः उभर सकती है। जैसे इस सूत्र से स्पष्ट होता है कि महानाम जैसे “सकृदागामी” व्यक्ति को सांसारिक और कामुक प्रलोभन बार-बार विचलित करते थे।
याद रहें कि “सम्यक समाधि” अर्थात, चार ध्यान-अवस्थाओं के साथ ही “आर्य अष्टांगिक मार्ग” परिपूर्ण भी होता है। और, ध्यान-सुख पाप और अकुशल धर्मों से उत्पन्न नहीं होता, बल्कि निर्लिप्त एकांतवास, चित्त की स्थिर एकाग्रता, और आर्य अष्टांगिक मार्ग की साधना से उत्पन्न होता है।
कामुकता की बार-बार लगने वाली ‘भूख-प्यास’ को शांत करने के लिए ऐसे वैकल्पिक सुख की आवश्यकता होती है, जो कुशल हो, निष्पाप हो, और जिसमें खतरा न हो। इसलिए मज्झिमनिकाय ६६ में भगवान उसे “‘निष्काम सुख’ कहते हैं, ‘निर्लिप्त सुख’ कहते हैं, ‘प्रशान्ति सुख’ कहते हैं, ‘संबोधि सुख’ कहते हैं। वह ऐसा सुख है, जिसके साथ जुड़ना चाहिए, जिसकी साधना करनी चाहिए, जिसके पीछे पड़ना चाहिए, जिससे भयभीत नहीं होना चाहिए।” इस तरह भगवान ने हमें ध्यान-समाधि के माध्यम से ऐसे सुख का सेवन करने और इसे हमेशा अपने लिए उपलब्ध रखने का प्रोत्साहन दिया।
सीधी बात यह है कि भूख-प्यास सभी को लगती है। यदि किसी को ध्यान-सुख का आहार न मिले, तो वह अपनी भूख-प्यास को काम-सुख से ही शांत करता है। तब वह न तो कामुकता से मुक्ति पा सकता है, न ही निर्वाण के करीब जा सकता है।
एक समय भगवान शाक्यों के साथ कपिलवस्तु में बरगद-विहार में रह रहे थे। तब (चचेरा भाई) महानाम शाक्य भगवान के पास गया, और अभिवादन कर एक-ओर बैठ गया। एक-ओर बैठकर महानाम शाक्य ने भगवान से कहा —
“भन्ते, मैं भगवान के द्वारा दीर्घकाल तक सिखाएँ धर्म को इस तरह जानता हूँ कि ‘लोभ चित्त का दूषण होता है, द्वेष चित्त का दूषण होता है, और भ्रम चित्त का दूषण होता है।’ इस तरह, मैं यह सब समझता हूँ! तब भी, कभी-कभी मेरे चित्त में लोभ स्वभाव, द्वेष स्वभाव, या भ्रम स्वभाव घुस कर बैठ जाता है। तब, मैं सोचता हूँ कि ‘आख़िर कौन-सा धर्म अब तक मेरे भीतर से छूटा नहीं, जिसकी वजह से कभी-कभी मेरे चित्त में ‘लोभ, द्वेष और भ्रम’ घुसकर बैठ जाता है?”
“महानाम! वे (लोभ, द्वेष और भ्रम) ही हैं, जो तुम्हारे भीतर से छूटे नहीं, जिसकी वजह से कभी-कभी तुम्हारे चित्त में लोभ स्वभाव, द्वेष स्वभाव, या भ्रम स्वभाव घुस कर बैठ जाता है। क्योंकि यदि वे तुम्हारे भीतर से छूटे चुके होते, तो तुम आज गृहस्थी-जीवन न जीते और कामभोग न करते। चूँकि, वे ही तुम्हारे भीतर से छूटे नहीं हैं, इसलिए आज तुम गृहस्थी-जीवन जीते हो और कामभोग भी करते हो।
‘कामुकता अल्प-संतोषी है, लेकिन बहुत दुःखदायी और बहुत निराशाजनक है, जिसके दुष्परिणाम भरपूर हैं’ — इस तरह, महानाम, भले ही कोई आर्यश्रावक सम्यक प्रज्ञा से यथास्वरूप अच्छे से देख लेता है; किन्तु जब तक कामुकता के अलावा, अकुशल धर्म के अलावा, प्रफुल्लता और सुख को पा नहीं लेता, या उससे अधिक शान्ति को — वह कामुकता पर लौट सकता है। 1
किन्तु, महानाम, जब कोई आर्यश्रावक सम्यक प्रज्ञा से यथास्वरूप अच्छे से देख लेता है कि ‘कामुकता अल्प-संतोषी है, लेकिन बहुत दुःखदायी और बहुत निराशाजनक है, जिसके दुष्परिणाम भरपूर हैं’ — और, वह कामुकता के अलावा, अकुशल धर्म के अलावा, प्रफुल्लता और सुख को पा लेता है, या उससे अधिक शान्ति को — तब वह कामुकता पर नहीं लौटता है।
मैं भी, महानाम, जब संबोधि पूर्व केवल एक अ-जागृत बोधिसत्व था, सम्यक प्रज्ञा से यथास्वरूप अच्छे से देख लिया था कि ‘कामुकता अल्प-संतोषी है, लेकिन बहुत दुःखदायी और बहुत निराशाजनक है, जिसके दुष्परिणाम भरपूर हैं’ — किन्तु जब तक कामुकता के अलावा, अकुशल धर्म के अलावा, प्रफुल्लता और सुख को पा नहीं लिया, या उससे अधिक शान्ति को — मैंने कामुकता पर न लौटने का दावा नहीं किया।
हालाँकि, जब मैंने सम्यक प्रज्ञा से यथास्वरूप अच्छे से देख लिया कि ‘कामुकता अल्प-संतोषी है, लेकिन बहुत दुःखदायी और बहुत निराशाजनक है, जिसके दुष्परिणाम भरपूर हैं’ — और, कामुकता के अलावा, अकुशल धर्म के अलावा, प्रफुल्लता और सुख को पा लिया, या उससे अधिक शान्ति को — तब मैंने कामुकता पर न लौटने का दावा किया।
और, महानाम, कामुकता का प्रलोभन क्या हैं?
ये पाँच कामसुख होते हैं —
अब, जो भी सुख और खुशी इन पाँच कामसुख के आधार पर उत्पन्न होती है, वही कामुकता का प्रलोभन है।
और, महानाम, कामुकता का दुष्परिणाम क्या है?
• ऐसा होता है कि कोई कुलपुत्र कोई कार्य कर के जीविका कमाता है — चाहे खेती, व्यवसाय, पशुपालन, तीरंदाजी, सरकारी कामकाज, अथवा कोई शिल्पकारी हो। तब उसे जीविका कमाते समय ठंडी लगती है, गर्मी लगती है, मक्खियाँ, मच्छर, पवन, धूप, बिच्छु, साँप आदि के संस्पर्श से परेशान होता रहता है। भूख-प्यास से मरता हुआ, वह अपनी जीविका कमाता है। यह दुष्परिणाम, यह दुःखों की गठरी, जो इस जीवन में दिखती है, उसका कारण कामुकता है, उसका स्त्रोत कामुकता है, वह कामुकता के परिणामस्वरूप है, जिसकी वजह केवल कामुकता है।
• अब, यदि कोई कुलपुत्र अपनी मेहनत से, कार्यशीलता से, प्रयास से, बाहों के बल से, पसीना बहाकर भोगसंपदा प्राप्त न कर पाए — तो वह अफ़सोस करता है, ढ़ीला पड़ता है, विलाप करता है, छाती पीटता है, बावला हो जाता है, “हाय! मेरी सारी मेहनत पानी में गई! सारा परिश्रम व्यर्थ गया!” यह दुष्परिणाम, यह दुःखों की गठरी, जो इस जीवन में दिखती है, उसका कारण भी कामुकता है, उसका स्त्रोत भी कामुकता है, वह कामुकता के परिणामस्वरूप ही है, जिसकी वजह केवल कामुकता है।
• अब, यदि कोई कुलपुत्र अपनी मेहनत से, कार्यशीलता से, प्रयास से, बाहों के बल से, पसीना बहाकर भोगसंपदा प्राप्त करें — तब उसकी रक्षा करते हुए, उसे पीड़ा और व्यथा होती है, “कही मेरी इस भोगसंपदा को सरकार या चोर न लूट लें, या आग न जला दे, या बाढ़ न बहा दे, या नालायक वारिस न बर्बाद कर दे!” यह दुष्परिणाम, यह दुःखों की गठरी, जो इस जीवन में दिखती है, उसका कारण भी कामुकता है, उसका स्त्रोत भी कामुकता है, वह कामुकता के परिणामस्वरूप ही है, जिसकी वजह केवल कामुकता है।
• अब, यदि कोई कुलपुत्र अपनी भोगसंपदा की रक्षा करते हुए देखता है कि उसकी भोगसंपदा को सरकार या चोर लूट लेती है, या आग जला देती है, या बाढ़ बहा देती है, या नालायक वारिस बर्बाद कर देता है, तो वह अफ़सोस करता है, ढ़ीला पड़ता है, विलाप करता है, छाती पीटता है, बावला हो जाता है, “हाय! जो मेरा था, अब नहीं रहा!’ यह दुष्परिणाम, यह दुःखों की गठरी, जो इस जीवन में दिखती है, उसका कारण भी कामुकता है, उसका स्त्रोत भी कामुकता है, वह कामुकता के परिणामस्वरूप ही है, जिसकी वजह केवल कामुकता है।
• और, कामुकता के कारण, कामुकता के स्त्रोत से, कामुकता के परिणामस्वरूप, जिसकी वजह केवल कामुकता ही है कि राजा राजा से लड़ता है, क्षत्रिय क्षत्रिय से लड़ता है, ब्राह्मण ब्राह्मण से लड़ता है, (वैश्य) गृहस्थ गृहस्थ से लड़ता है, माँ पुत्र से लड़ती है, पुत्र माँ से लड़ता है, बाप पुत्र से लड़ता है, पुत्र बाप से लड़ता है, भाई भाई से लड़ता है, भाई बहन से लड़ता है, बहन भाई से लड़ती है, बहन बहन से लड़ती है, और मित्र मित्र से लड़ता है। और, तब वे लड़ते, झगड़ते, विवाद करते हुए एक-दूसरे पर हाथ उठाते हैं, पत्थर उठाते हैं, डंडा, छुरी या शस्त्र से हमला करते हैं। और तब, इस कलह में मौते होती है, या मौत जैसी पीड़ा होती है। यह दुष्परिणाम, यह दुःखों की गठरी, जो इस जीवन में दिखती है, उसका कारण भी कामुकता है, उसका स्त्रोत भी कामुकता है, वह कामुकता के परिणामस्वरूप ही है, जिसकी वजह केवल कामुकता है।
• और, कामुकता के कारण, कामुकता के स्त्रोत से, कामुकता के परिणामस्वरूप, जिसकी वजह केवल कामुकता ही है कि लोग हाथों में ढ़ाल और तलवार पकड़े, धनुष में तीर चढ़ाकर, दोनों-ओर से व्यूहरचित युद्ध में आक्रमण करते हुए दौड़ पड़ते हैं। और वहाँ तीर व भालें उड़ते हैं, तलवारें चमकती हैं, तीर और भाले बींधते हुए लोगों को घायल करते हैं, तलवारों से सिर काटे जाते हैं। और तब, इस युद्ध में मौते होती है, या मौत जैसी पीड़ा होती है। यह दुष्परिणाम, यह दुःखों की गठरी, जो इस जीवन में दिखती है, उसका कारण भी कामुकता है, उसका स्त्रोत भी कामुकता है, वह कामुकता के परिणामस्वरूप ही है, जिसकी वजह केवल कामुकता है।
• और, कामुकता के कारण, कामुकता के स्त्रोत से, कामुकता के परिणामस्वरूप, जिसकी वजह केवल कामुकता ही है कि लोग हाथों में ढ़ाल और तलवार पकड़े, धनुष में तीर चढ़ाकर, ऊँचे फ़िसलनभरे किल्लों पर आक्रमण करते हुए दौड़ पड़ते हैं। और वहाँ तीर व भालें उड़ते हैं, तलवारें चमकती हैं, तीर और भाले बींधते हुए लोगों को घायल करते हैं, ऊपर से उबलता हुआ गर्म ग़ोबर गिराया जाता है, भारी चट्टान गिराकर कुचला जाता है, तलवारों से सिर काटे जाते हैं। और तब, इस युद्ध में मौते होती है, या मौत जैसी पीड़ा होती है। यह दुष्परिणाम, यह दुःखों की गठरी, जो इस जीवन में दिखती है, उसका कारण भी कामुकता है, उसका स्त्रोत भी कामुकता है, वह कामुकता के परिणामस्वरूप ही है, जिसकी वजह केवल कामुकता है।
• और, कामुकता के कारण, कामुकता के स्त्रोत से, कामुकता के परिणामस्वरूप, जिसकी वजह केवल कामुकता ही है कि लोग खिड़कियाँ तोड़कर चोरी करते हैं, लूटते हैं, डाका डालते हैं, मार्ग पर घात लगाते हैं, व्यभिचार करते हैं। और, जब उन्हें गिरफ्तार किया जाता है तो सरकार उन्हें दंडस्वरूप तरह-तरह से यातनाएँ देती है — जैसे चाबुक़ से पीटती है, कोड़े लगाती है, मुग्दर, बेंत या डंडे से पीटती है। हाथ काट देती है, पैर काट देती है, हाथ और पैर दोनों काट देती है। कान काट देती है, नाक काट देती है, कान और नाक दोनों काट देती है। खोपड़ी निकालकर गर्म लोहा दाल देती है। सिर की चमड़ी उतार कर खोपड़ी को कंकड़ों से रगड़ती है। चिमटे से मुँह खुलवा कर भीतर अँगारें या दीपक जला देती है। शरीर पर तेलबत्ती लपेट कर आग लगा देती है। हाथ पर तेलबत्ती लपेट कर आग लगा देती है। गले से कलाई तक की चमड़ी खींचकर उतार देती है। गले से कुल्हे तक की चमड़ी भी खींचकर उतार देती है। कोहनियों और घुटनों में खूँटा ठोक कर ज़मीन पर लिटा देती है। दोनों-ओर से नुक़िले काँटे घुसेड़ कर चमड़ी, माँस और नसें नचोट लेती है। सारे शरीर की चमड़ी को सिक्के-सिक्के भर छिलवा देती है। शरीर को पीट-पीटकर उस पर कंघी फेरती है, एक-करवट लिटाकर कानों में खूँटा गाड़ देती है। चमड़ी को बिना हानि पहुँचाये भीतर हड्डी पीस देती है। उबलता हुआ तेल डालती है। कुत्तों द्वारा नोच-नोचकर उनका भोजन बना देती है। खूँटी घुसाकर सुली पर लटका देती है। और तलवार से सिर काट देती है। और तब, इसमें मौते होती है, या मौत जैसी पीड़ा होती है। यह दुष्परिणाम, यह दुःखों की गठरी, जो इस जीवन में दिखती है, उसका कारण भी कामुकता है, उसका स्त्रोत भी कामुकता है, वह कामुकता के परिणामस्वरूप ही है, जिसकी वजह केवल कामुकता है।
• और आगे, कामुकता के कारण, कामुकता के स्त्रोत से, कामुकता के परिणामस्वरूप, जिसकी वजह केवल कामुकता ही है कि लोग काया से दुराचार करते हैं, वाणी से दुराचार करते हैं, मन से दुराचार करते हैं। और दुराचार में लिप्त होकर मरणोपरांत काया छूटने पर दुर्गति हो, यातनालोक नर्क में उपजते हैं। यह दुष्परिणाम, यह दुःखों की गठरी, जो अगले जीवन में दिखती है, उसका कारण भी कामुकता है, उसका स्त्रोत भी कामुकता है, वह कामुकता के परिणामस्वरूप ही है, जिसकी वजह केवल कामुकता है।
एक समय, महानाम, मैं राजगृह में गृद्धकूट पर्वत पर विहार कर रहा था। उस समय बहुत से निगण्ठ (=जैन तपस्वी), ऋषिगिरि की ढलान पर स्थित काले-पत्थर पर आसन त्याग कर लगातार खड़े थे। उस प्रयास में उन्हें तीव्र, तीखी, कटु वेदनाओं की अनुभूति हो रही थी।
तब, महानाम, मैं सायंकाल में एकांतवास से निकल कर ऋषिगिरि की ढलान पर स्थित काले-पत्थर पर उन निगण्ठों के पास गया। जाकर, उन निगण्ठों से कहा, ‘क्यों, निगण्ठ मित्रों, तुम आसन त्याग कर लगातार खड़े हो, ताकि इस प्रयास में तुम्हें तीव्र, तीखी, कटु वेदनाओं की अनुभूति हो?’
ऐसा कहने पर, महानाम, उन निगण्ठों ने कहा —
‘मित्र, निगण्ठ नाटपुत्त (=महावीर जैन) सर्वज्ञ है, सर्वदर्शी है, और (इस तरह) संपूर्ण ज्ञानदर्शन समझते हैं — (कहते हुए,) “मुझे चलते हुए, खड़े रहे, लेटे हुए, और जागते हुए सदैव और निरंतर ज्ञानदर्शन प्रतिष्ठित रहता है।”
और, वे हम से कहते हैं — “निगण्ठों, तुमने अतीतकाल में पाप कर्म किया हैं। इन कटु और कठोर तपस्याओं से उनका नाश कर दो। और, जब वर्तमान में काया का संवर, वाणी का संवर, और मन का संवर करोगे, तब भविष्य काल के लिये पाप कर्मों को अकृत रखोगे। इस तरह, पुराने कर्मों को तपस्या से मिटाने पर, और नये कर्मों को अकृत रखने पर भविष्य में कुछ न बहेगा। भविष्य में न बहने से कर्मों का क्षय होगा। कर्मों का क्षय होने पर दुःखों का क्षय होगा। दुःखों के क्षय होने पर वेदना का क्षय होगा। वेदना के क्षय होने पर सभी दुःखों का नाश हो जाएगा” — यही (शिक्षा) हमें पसंद है, स्वीकृत है, और हम इसमें संतुष्ट है।’
ऐसा कहने पर, महानाम, मैंने उन निगण्ठों से कहा, ‘किन्तु, मित्रों, क्या तुम्हें पता हैं कि — तुम अतीत में (निश्चित रूप से) थे। नहीं थे, ऐसा नहीं है?’
‘नहीं (पता), मित्र।’
‘और, मित्रों, क्या तुम्हें पता हैं कि — तुमने (निश्चित रूप से) पाप कर्म किए हैं। नहीं किए, ऐसा नहीं है?’
‘नहीं (पता), मित्र।’
‘और, मित्रों, क्या तुम्हें पता हैं कि — तुमने अतीत में कौन कौन से पाप कर्म किए हैं?’
‘नहीं (पता), मित्र।’
‘और, मित्रों, क्या तुम्हें पता हैं कि — ‘इतने-इतने दुःखों का नाश हो गया। इतने-इतने दुःखों का नाश करना बचा है। और, इतने-इतने दुःखों का नाश होने पर दुःखों का संपूर्ण नाश हो जायेगा?’
‘नहीं (पता), मित्र।’
‘और, मित्रों, क्या तुम्हें पता हैं कि — अभी इसी जीवन में अकुशल स्वभावों का त्याग, और कुशल स्वभावों को आत्मसात करना?’
‘नहीं (पता), मित्र।’
‘मित्रों, लगता है कि तुम्हें कुछ नहीं पता कि — तुम पहले थे भी, या नहीं, नहीं पता। अतीत में पाप कर्म किए हैं, या नहीं, नहीं पता। कौन-कौन से पाप कर्म किए है, नहीं पता। इतने-इतने दुःखों का नाश हो गया, नहीं पता। इतने-इतने दुःखों का नाश करना बचा है, नहीं पता। और, इतने-इतने दुःखों का नाश होने पर दुःखों का संपूर्ण नाश हो जायेगा, नहीं पता। और, अभी इसी जीवन में अकुशल स्वभावों का त्याग, और कुशल स्वभावों को आत्मसात करना, नहीं पता। यदि ऐसा होगा, मित्रों, तो इस दुनिया के हिंसक हत्यारे, रक्त से सने हाथ वाले, क्रूर कार्य करने वाले मनुष्य लोक में जन्म लेकर निगण्ठों में ही प्रवज्जित होते हैं।’
‘किन्तु, मित्र गौतम, सुख से सुख प्राप्त नहीं होता। बल्कि, दुःख से ही सुख प्राप्त होता है। क्योंकि, यदि सुख से सुख प्राप्त होता, तो मगधराज सेनिय बिम्बिसार को सुख प्राप्त होता। क्योंकि, मगधराज सेनिय बिम्बिसार, आयुष्मान गोतम से अधिक सुख से विहार करते हैं।’
‘अवश्य, आयुष्मान निगण्ठों ने बिना सोचें, जल्दबाजी में ऐसा कह दिया…, बल्कि, तुम्हें मुझसे पूछना चाहिये कि — “कौन अधिक सुख से रहता है: मगधराज सेनिय बिम्बिसार, अथवा आयुष्मान गौतम?”’
‘अवश्य, मित्र गौतम, हमने बिना सोचें, जल्दबाजी में ऐसा कह दिया…, किन्तु, उसे छोड़ो। हम ‘अब’ आयुष्मान गौतम से पूछते हैं कि — ‘कौन अधिक सुख से रहता है: मगधराज सेनिय बिम्बिसार, अथवा आयुष्मान गौतम?”’
‘ठीक है, निगण्ठों, मैं तुमसे ही प्रतिप्रश्न पूछता हूँ। तुम्हें जैसा लगे, वैसा उत्तर दो। तुम्हें क्या लगता है? क्या मगधराज सेनिय बिम्बिसार, बिना शरीर को हिलाए, बिना बोले, सात दिन-रातों तक मात्र सुख की अनुभूति कर विहार कर सकता है?’
‘नहीं, मित्र।’
‘तब, क्या मगधराज सेनिय बिम्बिसार, बिना शरीर को हिलाए, बिना बोले, छह दिन-रातों तक… पाँच दिन-रातों तक… चार दिन-रातों तक… तीन दिन-रातों तक… दो दिन-रातों तक… एक दिन-रात तक मात्र सुख की अनुभूति कर विहार कर सकता है?’
‘नहीं, मित्र।’
‘किन्तु, मित्र निगण्ठों, मैं बिना शरीर को हिलाए, बिना बोले, एक दिन-रात तक… दो दिन-रातों… तीन दिन-रातों… चार दिन-रातों… पाँच दिन-रातों… छह दिन-रातों… सात दिन-रातों तक मात्र सुख की अनुभूति कर विहार कर सकता हूँ।’ यदि ऐसा हो, तो तुम्हें क्या लगता है, मित्रों? कौन अधिक सुख से विहार करता है: मगधराज सेनिय बिम्बिसार, या मै?’
‘यदि ऐसा हो, तो आयुष्मान गौतम ही मगधराज सेनिय बिम्बिसार से अधिक सुख से विहार करते हैं।’"
भगवान ने ऐसा कहा। हर्षित होकर महानाम शाक्य ने भगवान के कथन का अभिनंदन किया।
अर्थात, जिसे कामुकता से मुक्ति साधनी हो, उसे ऐसे प्रीति-सुख के पीछे पड़ना होगा, जो ध्यान अवस्थाओं से प्राप्त होता है। इसका अर्थ है कि उसे “आर्य अष्टांगिक मार्ग” का परिपूर्णता से अभ्यास करना पड़ेगा, जिसका अंतिम अंग “सम्यक समाधि” है। इसलिए, अंगुत्तरनिकाय ३:७३ में महानाम कहते हैं कि वे समझ चुके हैं कि भगवान के धर्म में “ज्ञान उसी को मिलता है, जिसे समाधि प्राप्त हो। उसे नहीं, जो समाधि से विहीन हो।”
यह बात “सुक्क विपस्सना”, अर्थात सूखी विपश्यना साधना पर एक प्रश्नचिन्ह लगाती है, जिसमें ध्यान-अवस्थाओं से प्राप्त प्रीति-सुख को एक खतरा माना जाता है। साधक ध्यान-सुख से दूरी बनाता है, और उन्हें ‘अनित्य’ देखते हुए हटाते रहता है। वह डर के मारे ध्यान-अवस्थाओं में गहरे नहीं उतरता, और चित्त को “क्षणिक समाधि” में ही स्थित रखने का प्रयास करता है। ↩︎
१७५. एवं मे सुतं – एकं समयं भगवा सक्केसु विहरति कपिलवत्थुस्मिं निग्रोधारामे। अथ खो महानामो सक्को येन भगवा तेनुपसङ्कमि; उपसङ्कमित्वा भगवन्तं अभिवादेत्वा एकमन्तं निसीदि। एकमन्तं निसिन्नो खो महानामो सक्को भगवन्तं एतदवोच – ‘‘दीघरत्ताहं, भन्ते, भगवता एवं धम्मं देसितं आजानामि – ‘लोभो चित्तस्स उपक्किलेसो, दोसो चित्तस्स उपक्किलेसो, मोहो चित्तस्स उपक्किलेसो’ति। एवञ्चाहं एवंपाहं (क॰), भन्ते, भगवता धम्मं देसितं आजानामि – ‘लोभो चित्तस्स उपक्किलेसो, दोसो चित्तस्स उपक्किलेसो, मोहो चित्तस्स उपक्किलेसो’ति। अथ च पन मे एकदा लोभधम्मापि चित्तं परियादाय तिट्ठन्ति, दोसधम्मापि चित्तं परियादाय तिट्ठन्ति, मोहधम्मापि चित्तं परियादाय तिट्ठन्ति। तस्स मय्हं, भन्ते, एवं होति – ‘कोसु नाम मे धम्मो अज्झत्तं अप्पहीनो येन मे एकदा लोभधम्मापि चित्तं परियादाय तिट्ठन्ति, दोसधम्मापि चित्तं परियादाय तिट्ठन्ति, मोहधम्मापि चित्तं परियादाय तिट्ठन्ती’’’ति।
१७६. ‘‘सो एव खो ते, महानाम, धम्मो अज्झत्तं अप्पहीनो येन ते एकदा लोभधम्मापि चित्तं परियादाय तिट्ठन्ति, दोसधम्मापि चित्तं परियादाय तिट्ठन्ति, मोहधम्मापि चित्तं परियादाय तिट्ठन्ति। सो च हि ते, महानाम, धम्मो अज्झत्तं पहीनो अभविस्स, न त्वं अगारं अज्झावसेय्यासि, न कामे परिभुञ्जेय्यासि। यस्मा च खो ते, महानाम, सो एव धम्मो अज्झत्तं अप्पहीनो तस्मा त्वं अगारं अज्झावससि, कामे परिभुञ्जसि।
१७७. ‘‘‘अप्पस्सादा कामा बहुदुक्खा बहुपायासा, आदीनवो बहूपायासा (सी॰ स्या॰ पी॰) एत्थ भिय्यो’ति – इति चेपि, महानाम, अरियसावकस्स यथाभूतं सम्मप्पञ्ञाय सुदिट्ठं होति, सो च सोव (क॰) अञ्ञत्रेव कामेहि अञ्ञत्र अकुसलेहि धम्मेहि पीतिसुखं नाधिगच्छति, अञ्ञं वा ततो सन्ततरं; अथ खो सो नेव ताव अनावट्टी कामेसु होति। यतो च खो, महानाम, अरियसावकस्स ‘अप्पस्सादा कामा बहुदुक्खा बहुपायासा, आदीनवो एत्थ भिय्यो’ति – एवमेतं यथाभूतं सम्मप्पञ्ञाय सुदिट्ठं होति, सो च अञ्ञत्रेव कामेहि अञ्ञत्र अकुसलेहि धम्मेहि पीतिसुखं अधिगच्छति अञ्ञं वा ततो सन्ततरं; अथ खो सो अनावट्टी कामेसु होति।
‘‘मय्हम्पि खो, महानाम , पुब्बेव सम्बोधा, अनभिसम्बुद्धस्स बोधिसत्तस्सेव सतो, ‘अप्पस्सादा कामा बहुदुक्खा बहुपायासा, आदीनवो एत्थ भिय्यो’ति – एवमेतं यथाभूतं सम्मप्पञ्ञाय सुदिट्ठं होति, सो च अञ्ञत्रेव कामेहि अञ्ञत्र अकुसलेहि धम्मेहि पीतिसुखं नाज्झगमं, अञ्ञं वा ततो सन्ततरं; अथ ख्वाहं नेव ताव अनावट्टी कामेसु पच्चञ्ञासिं। यतो च खो मे, महानाम, ‘अप्पस्सादा कामा बहुदुक्खा बहुपायासा, आदीनवो एत्थ भिय्यो’ति – एवमेतं यथाभूतं सम्मप्पञ्ञाय सुदिट्ठं अहोसि, सो च सोव (क॰) अञ्ञत्रेव कामेहि अञ्ञत्र अकुसलेहि धम्मेहि पीतिसुखं अज्झगमं, अञ्ञं वा ततो सन्ततरं; अथाहं अनावट्टी कामेसु पच्चञ्ञासिं।
१७८. ‘‘को च, महानाम, कामानं अस्सादो? पञ्चिमे, महानाम, कामगुणा। कतमे पञ्च? चक्खुविञ्ञेय्या रूपा इट्ठा कन्ता मनापा पियरूपा कामूपसंहिता रजनीया; सोतविञ्ञेय्या सद्दा…पे॰… घानविञ्ञेय्या गन्धा… जिव्हाविञ्ञेय्या रसा… कायविञ्ञेय्या फोट्ठब्बा इट्ठा कन्ता मनापा पियरूपा कामूपसंहिता रजनीया – इमे खो, महानाम, पञ्च कामगुणा। यं खो, महानाम, इमे पञ्च कामगुणे पटिच्च उप्पज्जति सुखं सोमनस्सं – अयं कामानं अस्सादो।
‘‘को च, महानाम, कामानं आदीनवो? इध, महानाम, कुलपुत्तो येन सिप्पट्ठानेन जीविकं कप्पेति – यदि मुद्दाय यदि गणनाय यदि सङ्खानेन यदि कसिया यदि वणिज्जाय यदि गोरक्खेन यदि इस्सत्थेन यदि राजपोरिसेन यदि सिप्पञ्ञतरेन, सीतस्स पुरक्खतो उण्हस्स पुरक्खतो डंसमकसवातातपसरींसपसम्फस्सेहि रिस्समानो खुप्पिपासाय मीयमानो; अयम्पि, महानाम, कामानं आदीनवो सन्दिट्ठिको दुक्खक्खन्धो कामहेतु कामनिदानं कामाधिकरणं कामानमेव हेतु।
‘‘तस्स चे महानाम कुलपुत्तस्स एवं उट्ठहतो घटतो वायमतो ते भोगा नाभिनिप्फज्जन्ति, सो सोचति किलमति परिदेवति उरत्ताळिं कन्दति सम्मोहं आपज्जति ‘मोघं वत मे उट्ठानं, अफलो वत मे वायामो’ति। अयम्पि, महानाम, कामानं आदीनवो सन्दिट्ठिको दुक्खक्खन्धो कामहेतु कामनिदानं कामाधिकरणं कामानमेव हेतु।
‘‘तस्स चे, महानाम, कुलपुत्तस्स एवं उट्ठहतो घटतो वायमतो ते भोगा अभिनिप्फज्जन्ति। सो तेसं भोगानं आरक्खाधिकरणं दुक्खं दोमनस्सं पटिसंवेदेति – ‘किन्ति मे भोगे नेव राजानो हरेय्युं, न चोरा हरेय्युं, न अग्गि दहेय्य, न उदकं वहेय्य, न अप्पिया वा दायादा हरेय्यु’न्ति। तस्स एवं आरक्खतो गोपयतो ते भोगे राजानो वा हरन्ति, चोरा वा हरन्ति, अग्गि वा दहति, उदकं वा वहति, अप्पिया वा दायादा हरन्ति। सो सोचति किलमति परिदेवति उरत्ताळिं कन्दति सम्मोहं आपज्जति – ‘यम्पि मे अहोसि तम्पि नो नत्थी’ति। अयम्पि, महानाम, कामानं आदीनवो सन्दिट्ठिको दुक्खक्खन्धो कामहेतु कामनिदानं कामाधिकरणं कामानमेव हेतु।
‘‘पुन चपरं, महानाम, कामहेतु कामनिदानं कामाधिकरणं कामानमेव हेतु राजानोपि राजूहि विवदन्ति, खत्तियापि खत्तियेहि विवदन्ति, ब्राह्मणापि ब्राह्मणेहि विवदन्ति, गहपतीपि गहपतीहि विवदन्ति, मातापि पुत्तेन विवदति, पुत्तोपि मातरा विवदति, पितापि पुत्तेन विवदति, पुत्तोपि पितरा विवदति, भातापि भातरा विवदति, भातापि भगिनिया विवदति, भगिनीपि भातरा विवदति, सहायोपि सहायेन विवदति। ते तत्थ कलहविग्गहविवादापन्ना अञ्ञमञ्ञं पाणीहिपि उपक्कमन्ति, लेड्डूहिपि उपक्कमन्ति, दण्डेहिपि उपक्कमन्ति, सत्थेहिपि उपक्कमन्ति। ते तत्थ मरणम्पि निगच्छन्ति, मरणमत्तम्पि दुक्खं । अयम्पि, महानाम, कामानं आदीनवो सन्दिट्ठिको दुक्खक्खन्धो कामहेतु कामनिदानं कामाधिकरणं कामानमेव हेतु।
‘‘पुन चपरं, महानाम, कामहेतु कामनिदानं कामाधिकरणं कामानमेव हेतु असिचम्मं गहेत्वा, धनुकलापं सन्नय्हित्वा, उभतोब्यूळ्हं सङ्गामं पक्खन्दन्ति उसूसुपि खिप्पमानेसु, सत्तीसुपि खिप्पमानासु, असीसुपि विज्जोतलन्तेसु। ते तत्थ उसूहिपि विज्झन्ति, सत्तियापि विज्झन्ति, असिनापि सीसं छिन्दन्ति। ते तत्थ मरणम्पि निगच्छन्ति, मरणमत्तम्पि दुक्खं। अयम्पि, महानाम, कामानं आदीनवो सन्दिट्ठिको दुक्खक्खन्धो कामहेतु कामनिदानं कामाधिकरणं कामानमेव हेतु।
‘‘पुन चपरं, महानाम, कामहेतु कामनिदानं कामाधिकरणं कामानमेव हेतु असिचम्मं गहेत्वा, धनुकलापं सन्नय्हित्वा, अद्दावलेपना उपकारियो पक्खन्दन्ति उसूसुपि खिप्पमानेसु, सत्तीसुपि खिप्पमानासु, असीसुपि विज्जोतलन्तेसु। ते तत्थ उसूहिपि विज्झन्ति, सत्तियापि विज्झन्ति, छकणकायपि ओसिञ्चन्ति, अभिवग्गेनपि ओमद्दन्ति, असिनापि सीसं छिन्दन्ति। ते तत्थ मरणम्पि निगच्छन्ति, मरणमत्तम्पि दुक्खं। अयम्पि, महानाम, कामानं आदीनवो सन्दिट्ठिको दुक्खक्खन्धो कामहेतु कामनिदानं कामाधिकरणं कामानमेव हेतु।
‘‘पुन चपरं, महानाम, कामहेतु कामनिदानं कामाधिकरणं कामानमेव हेतु सन्धिम्पि छिन्दन्ति, निल्लोपम्पि हरन्ति, एकागारिकम्पि करोन्ति, परिपन्थेपि तिट्ठन्ति, परदारम्पि गच्छन्ति। तमेनं राजानो गहेत्वा विविधा कम्मकारणा कारेन्ति – कसाहिपि ताळेन्ति, वेत्तेहिपि ताळेन्ति, अड्ढदण्डकेहिपि ताळेन्ति; हत्थम्पि छिन्दन्ति, पादम्पि छिन्दन्ति, हत्थपादम्पि छिन्दन्ति, कण्णम्पि छिन्दन्ति, नासम्पि छिन्दन्ति, कण्णनासम्पि छिन्दन्ति; बिलङ्गथालिकम्पि करोन्ति, सङ्खमुण्डिकम्पि करोन्ति, राहुमुखम्पि करोन्ति, जोतिमालिकम्पि करोन्ति, हत्थपज्जोतिकम्पि करोन्ति, एरकवत्तिकम्पि करोन्ति, चीरकवासिकम्पि करोन्ति, एणेय्यकम्पि करोन्ति, बळिसमंसिकम्पि करोन्ति, कहापणिकम्पि करोन्ति, खारापतच्छिकम्पि करोन्ति, पलिघपरिवत्तिकम्पि करोन्ति, पलालपीठकम्पि करोन्ति, तत्तेनपि तेलेन ओसिञ्चन्ति, सुनखेहिपि खादापेन्ति, जीवन्तम्पि सूले उत्तासेन्ति, असिनापि सीसं छिन्दन्ति। ते तत्थ मरणम्पि निगच्छन्ति, मरणमत्तम्पि दुक्खं। अयम्पि, महानाम, कामानं आदीनवो सन्दिट्ठिको दुक्खक्खन्धो कामहेतु कामनिदानं कामाधिकरणं कामानमेव हेतु।
‘‘पुन चपरं, महानाम, कामहेतु कामनिदानं कामाधिकरणं कामानमेव हेतु कायेन दुच्चरितं चरन्ति, वाचाय दुच्चरितं चरन्ति, मनसा दुच्चरितं चरन्ति। ते कायेन दुच्चरितं चरित्वा, वाचाय दुच्चरितं चरित्वा, मनसा दुच्चरितं चरित्वा, कायस्स भेदा परं मरणा, अपायं दुग्गतिं विनिपातं निरयं उपपज्जन्ति। अयम्पि, महानाम, कामानं आदीनवो सम्परायिको , दुक्खक्खन्धो कामहेतु कामनिदानं कामाधिकरणं कामानमेव हेतु।
१७९. ‘‘एकमिदाहं, महानाम, समयं राजगहे विहरामि गिज्झकूटे पब्बते। तेन खो पन समयेन सम्बहुला निगण्ठा निगन्था (स्या॰ क॰) इसिगिलिपस्से काळसिलायं उब्भट्ठका होन्ति आसनपटिक्खित्ता, ओपक्कमिका दुक्खा तिब्बा खरा कटुका वेदना वेदयन्ति। अथ ख्वाहं, महानाम, सायन्हसमयं पटिसल्लाना वुट्ठितो येन इसिगिलिपस्से काळसिला येन ते निगण्ठा तेनुपसङ्कमिं; उपसङ्कमित्वा ते निगण्ठे एतदवोचं – ‘किन्नु तुम्हे, आवुसो, निगण्ठा उब्भट्ठका आसनपटिक्खित्ता, ओपक्कमिका दुक्खा तिब्बा खरा कटुका वेदना वेदयथा’ति? एवं वुत्ते, महानाम, ते निगण्ठा मं एतदवोचुं – ‘निगण्ठों, आवुसो, नाटपुत्तो नाथपुत्तो (सी॰ पी॰) सब्बञ्ञू सब्बदस्सावी अपरिसेसं ञाणदस्सनं पटिजानाति – ‘‘चरतो च मे तिट्ठतो च सुत्तस्स च जागरस्स च सततं समितं ञाणदस्सनं पच्चुपट्ठित’’न्ति। सो एवमाह – ‘‘अत्थि खो वो अत्थि खो भो (स्या॰ क॰), निगण्ठा, पुब्बे पापकम्मं कतं, तं इमाय कटुकाय दुक्करकारिकाय निज्जीरेथ निज्जरेथ (सी॰ स्या॰ पी॰); यं पनेत्थ मयं पनेत्थ (क॰) एतरहि कायेन संवुता वाचाय संवुता मनसा संवुता तं आयतिं पापस्स कम्मस्स अकरणं; इति पुराणानं कम्मानं तपसा ब्यन्तिभावा, नवानं कम्मानं अकरणा, आयतिं अनवस्सवो; आयतिं अनवस्सवा कम्मक्खयो, कम्मक्खया दुक्खक्खयो, दुक्खक्खया वेदनाक्खयो, वेदनाक्खया सब्बं दुक्खं निज्जिण्णं भविस्सती’’ति। तञ्च पनम्हाकं रुच्चति चेव खमति च, तेन चम्ह अत्तमना’ति।
१८०. ‘‘एवं वुत्ते, अहं, महानाम, ते निगण्ठे एतदवोचं – ‘किं पन तुम्हे, आवुसो निगण्ठा, जानाथ – अहुवम्हेव मयं पुब्बे न नाहुवम्हा’ति? ‘नो हिदं, आवुसो’। ‘किं पन तुम्हे, आवुसो निगण्ठा, जानाथ – अकरम्हेव मयं पुब्बे पापकम्मं न नाकरम्हा’ति? ‘नो हिदं, आवुसो’। ‘किं पन तुम्हे, आवुसो निगण्ठा, जानाथ – एवरूपं वा एवरूपं वा पापकम्मं अकरम्हा’ति? ‘नो हिदं, आवुसो’। ‘किं पन तुम्हे, आवुसो निगण्ठा, जानाथ – एत्तकं वा दुक्खं निज्जिण्णं, एत्तकं वा दुक्खं निज्जीरेतब्बं , एत्तकम्हि वा दुक्खे निज्जिण्णे सब्बं दुक्खं निज्जिण्णं भविस्सती’ति? ‘नो हिदं, आवुसो’। ‘किं पन तुम्हे, आवुसो निगण्ठा, जानाथ – दिट्ठेव धम्मे अकुसलानं धम्मानं पहानं, कुसलानं धम्मानं उपसम्पद’न्ति? ‘नो हिदं, आवुसो’।
‘‘‘इति किर तुम्हे, आवुसो निगण्ठा, न जानाथ – अहुवम्हेव मयं पुब्बे न नाहुवम्हाति, न जानाथ – अकरम्हेव मयं पुब्बे पापकम्मं न नाकरम्हाति, न जानाथ – एवरूपं वा एवरूपं वा पापकम्मं अकरम्हाति, न जानाथ – एत्तकं वा दुक्खं निज्जिण्णं, एत्तकं वा दुक्खं निज्जीरेतब्बं, एत्तकम्हि वा दुक्खे निज्जिण्णे सब्बं दुक्खं निज्जिण्णं भविस्सतीति। न जानाथ – दिट्ठेव धम्मे अकुसलानं धम्मानं पहानं, कुसलानं धम्मानं उपसम्पदं। एवं सन्ते, आवुसो निगण्ठा, ये लोके लुद्दा लोहितपाणिनो कुरूरकम्मन्ता मनुस्सेसु पच्चाजाता ते निगण्ठेसु पब्बजन्ती’ति? ‘न खो, आवुसो गोतम, सुखेन सुखं अधिगन्तब्बं, दुक्खेन खो सुखं अधिगन्तब्बं; सुखेन चावुसो गोतम, सुखं अधिगन्तब्बं अभविस्स, राजा मागधो सेनियो बिम्बिसारो सुखं अधिगच्छेय्य, राजा मागधो सेनियो बिम्बिसारो सुखविहारितरो आयस्मता गोतमेना’ति।
‘‘‘अद्धायस्मन्तेहि निगण्ठेहि सहसा अप्पटिसङ्खा वाचा भासिता – न खो, आवुसो गोतम, सुखेन सुखं अधिगन्तब्बं, दुक्खेन खो सुखं अधिगन्तब्बं; सुखेन चावुसो गोतम, सुखं अधिगन्तब्बं अभविस्स, राजा मागधो सेनियो बिम्बिसारो सुखं अधिगच्छेय्य, राजा मागधो सेनियो बिम्बिसारो सुखविहारितरो आयस्मता गोतमेना’’ति। अपि च अहमेव तत्थ पटिपुच्छितब्बो – को नु खो आयस्मन्तानं सुखविहारितरो राजा वा मागधो सेनियो बिम्बिसारो आयस्मा वा गोतमो’ति? अद्धावुसो गोतम, अम्हेहि सहसा अप्पटिसङ्खा वाचा भासिता, न खो, आवुसो गोतम, सुखेन सुखं अधिगन्तब्बं, दुक्खेन खो सुखं अधिगन्तब्बं; सुखेन चावुसो गोतम, सुखं अधिगन्तब्बं अभविस्स, राजा मागधो सेनियो बिम्बिसारो सुखं अधिगच्छेय्य, राजा मागधो सेनियो बिम्बिसारो सुखविहारितरो आयस्मता गोतमेनाति। अपि च तिट्ठतेतं, इदानिपि मयं आयस्मन्तं गोतमं पुच्छाम – को नु खो आयस्मन्तानं सुखविहारितरो राजा वा मागधो सेनियो बिम्बिसारो आयस्मा वा गोतमो’ति?
‘‘‘तेन हावुसो निगण्ठा, तुम्हेव तत्थ पटिपुच्छिस्सामि, यथा वो खमेय्य तथा नं ब्याकरेय्याथ। तं किं मञ्ञथावुसो निगण्ठा, पहोति राजा मागधो सेनियो बिम्बिसारो, अनिञ्जमानो कायेन, अभासमानो वाचं, सत्त रत्तिन्दिवानि एकन्तसुखं पटिसंवेदी विहरितु’न्ति? ‘नो हिदं, आवुसो’।
‘‘‘तं किं मञ्ञथावुसो निगण्ठा, पहोति राजा मागधो सेनियो बिम्बिसारो, अनिञ्जमानो कायेन, अभासमानो वाचं, छ रत्तिन्दिवानि…पे॰… पञ्च रत्तिन्दिवानि… चत्तारि रत्तिन्दिवानि… तीणि रत्तिन्दिवानि… द्वे रत्तिन्दिवानि… एकं रत्तिन्दिवं एकन्तसुखं पटिसंवेदी विहरितु’न्ति? ‘नो हिदं, आवुसो’।
‘‘‘अहं खो, आवुसो निगण्ठा, पहोमि अनिञ्जमानो कायेन, अभासमानो वाचं, एकं रत्तिन्दिवं एकन्तसुखं पटिसंवेदी विहरितुं। अहं खो, आवुसो निगण्ठा, पहोमि अनिञ्जमानो कायेन, अभासमानो वाचं, द्वे रत्तिन्दिवानि… तीणि रत्तिन्दिवानि… चत्तारि रत्तिन्दिवानि… पञ्च रत्तिन्दिवानि… छ रत्तिन्दिवानि… सत्त रत्तिन्दिवानि एकन्तसुखं पटिसंवेदी विहरितुं। तं किं मञ्ञथावुसो निगण्ठा, एवं सन्ते को सुखविहारितरो राजा वा मागधो सेनियो बिम्बिसारो अहं वा’ति? ‘एवं सन्ते आयस्माव गोतमो सुखविहारितरो रञ्ञा मागधेन सेनियेन बिम्बिसारेना’’’ति।
इदमवोच भगवा। अत्तमनो महानामो सक्को भगवतो भासितं अभिनन्दीति।
चूळदुक्खक्खन्धसुत्तं निट्ठितं चतुत्थं।