नमो तस्स भगवतो अरहतो सम्मा-सम्बुद्धस्स

📜 बंजर और जंजीर

✦ ॥ नमो तस्स भगवतो अरहतो सम्मासम्बुद्धस्स ॥ ✦

Hindi

ऐसा मैंने सुना — एक समय भगवान श्रावस्ती में अनाथपिण्डक के जेतवन उद्यान में विहार कर रहे थे। वहाँ भगवान ने भिक्षुओं से कहा, “भिक्षुओं!"

“भदंत”, भिक्षुओं ने भगवान को उत्तर दिया। भगवान ने कहा —

“भिक्षुओं, जो भिक्षु मानस की पाँच बंजरता नहीं छोड़ता, मानस के पाँच जंजीर नहीं तोड़ता, उसके लिए इस धर्म-विनय में प्रगति, वृद्धि, विकास और प्रौढ़ता पाना असंभव है।

चेतोखिल

मानस की पाँच बंजरता क्या होती है?

१. भिक्षुओं, कोई भिक्षु शास्ता के प्रति आशंकित, अनिश्चित, उलझन में, और अविश्वस्त होता है। और जो भिक्षु शास्ता के प्रति आशंकित, अनिश्चित, उलझन में, और अविश्वस्त हो, उसका चित्त तत्परता, संकल्पबद्धता, निरंतरता, और उद्यमता के लिए नहीं झुकता। और चित्त का तत्परता, संकल्पबद्धता, निरंतरता, और उद्यमता के लिए नहीं झुकना — यह मानस की पहली बंजरता है।

२. आगे, भिक्षुओं, कोई भिक्षु धर्म के प्रति आशंकित, अनिश्चित, उलझन में, और अविश्वस्त होता है। और जो भिक्षु धर्म के प्रति आशंकित, अनिश्चित, उलझन में, और अविश्वस्त हो, उसका चित्त तत्परता, संकल्पबद्धता, निरंतरता, और उद्यमता के लिए नहीं झुकता। और चित्त का तत्परता, संकल्पबद्धता, निरंतरता, और उद्यमता के लिए नहीं झुकना — यह मानस की दूसरी बंजरता है।

३. आगे, भिक्षुओं, कोई भिक्षु संघ के प्रति आशंकित, अनिश्चित, उलझन में, और अविश्वस्त होता है। और जो भिक्षु संघ के प्रति आशंकित, अनिश्चित, उलझन में, और अविश्वस्त हो, उसका चित्त तत्परता, संकल्पबद्धता, निरंतरता, और उद्यमता के लिए नहीं झुकता। और चित्त का तत्परता, संकल्पबद्धता, निरंतरता, और उद्यमता के लिए नहीं झुकना — यह मानस की तीसरी बंजरता है।

४. आगे, भिक्षुओं, कोई भिक्षु शिक्षा के प्रति आशंकित, अनिश्चित, उलझन में, और अविश्वस्त होता है। और जो भिक्षु संघ के प्रति आशंकित, अनिश्चित, उलझन में, और अविश्वस्त हो, उसका चित्त तत्परता, संकल्पबद्धता, निरंतरता, और उद्यमता के लिए नहीं झुकता। और चित्त का तत्परता, संकल्पबद्धता, निरंतरता, और उद्यमता के लिए नहीं झुकना — यह मानस की चौथी बंजरता है।

५. आगे, भिक्षुओं, कोई भिक्षु सब्रह्मचारियों (साथी भिक्षुओं) के प्रति कुपित, नाराज, आहत चित्त, उखड़े मन से रहता है। और जो भिक्षु सब्रह्मचारियों के प्रति कुपित, नाराज, आहत चित्त, उखड़े मन से रहे, उसका चित्त तत्परता, संकल्पबद्धता, निरंतरता, और उद्यमता के लिए नहीं झुकता। और चित्त का तत्परता, संकल्पबद्धता, निरंतरता, और उद्यमता के लिए नहीं झुकना — यह मानस की पाँचवी बंजरता है।

— वह मानस की इन पाँच बंजरता को छोड़ता नहीं है।

चेतसोविनिबन्ध

और, वह मानस के कौन सी पाँच जंजीर नहीं तोड़ता?

१. भिक्षुओं, कोई भिक्षु कामुकता के प्रति राग-रहित, इच्छा-रहित, प्रेम-रहित, प्यास-रहित, तड़प-रहित, तृष्णा-रहित नहीं होता। और जो भिक्षु कामुकता के प्रति राग-रहित, इच्छा-रहित, प्रेम-रहित, प्यास-रहित, तड़प-रहित, तृष्णा-रहित न हो, उसका चित्त तत्परता, संकल्पबद्धता, निरंतरता, और उद्यमता के लिए नहीं झुकता। और चित्त का तत्परता, संकल्पबद्धता, निरंतरता, और उद्यमता के लिए नहीं झुकना — यह मानस की पहली जंजीर है।

२. आगे, भिक्षुओं, कोई भिक्षु काया के प्रति राग-रहित, इच्छा-रहित, प्रेम-रहित, प्यास-रहित, तड़प-रहित, तृष्णा-रहित नहीं होता। और जो भिक्षु कामुकता के प्रति राग-रहित, इच्छा-रहित, प्रेम-रहित, प्यास-रहित, तड़प-रहित, तृष्णा-रहित न हो, उसका चित्त तत्परता, संकल्पबद्धता, निरंतरता, और उद्यमता के लिए नहीं झुकता। और चित्त का तत्परता, संकल्पबद्धता, निरंतरता, और उद्यमता के लिए नहीं झुकना — यह मानस की दूसरी जंजीर है।

३. आगे, भिक्षुओं, कोई भिक्षु रूप के प्रति राग-रहित, इच्छा-रहित, प्रेम-रहित, प्यास-रहित, तड़प-रहित, तृष्णा-रहित नहीं होता। और जो भिक्षु रूप के प्रति राग-रहित, इच्छा-रहित, प्रेम-रहित, प्यास-रहित, तड़प-रहित, तृष्णा-रहित न हो, उसका चित्त तत्परता, संकल्पबद्धता, निरंतरता, और उद्यमता के लिए नहीं झुकता। और चित्त का तत्परता, संकल्पबद्धता, निरंतरता, और उद्यमता के लिए नहीं झुकना — यह मानस की तीसरी जंजीर है।

४. आगे, भिक्षुओं, कोई भिक्षु भरपेट खा लेता है और सोने के सुख, लेटने के सुख, तंद्रा के सुख में लिप्त होकर विहार करता है। और जो भिक्षु भरपेट खाकर सोने के सुख, लेटने के सुख, तंद्रा के सुख में लिप्त होकर विहार करे, उसका चित्त तत्परता, संकल्पबद्धता, निरंतरता, और उद्यमता के लिए नहीं झुकता। और चित्त का तत्परता, संकल्पबद्धता, निरंतरता, और उद्यमता के लिए नहीं झुकना — यह मानस की चौथी जंजीर है।

५. आगे, भिक्षुओं, कोई भिक्षु किसी देव-समूह की आकांक्षा से ब्रह्मचर्य का पालन करता है, (सोचते हुए,) “मेरे इस शील, व्रत, तप, या ब्रह्मचर्य से मैं यह देवता, अथवा वह देवता बनूँ!” और जो भिक्षु किसी देव-समूह की आकांक्षा से ब्रह्मचर्य का पालन करे, “मेरे इस शील, व्रत, तप, या ब्रह्मचर्य से मैं यह देवता, अथवा वह देवता बनूँ”, उसका चित्त तत्परता, संकल्पबद्धता, निरंतरता, और उद्यमता के लिए नहीं झुकता। और चित्त का तत्परता, संकल्पबद्धता, निरंतरता, और उद्यमता के लिए नहीं झुकना — यह मानस की पाँचवी जंजीर है।

— वह मानस की इन पाँच जंजीर को तोड़ता नहीं है।

और, भिक्षुओं, जो भिक्षु मानस की पाँच बंजरता नहीं छोड़ता, मानस के पाँच जंजीर नहीं तोड़ता, उसके लिए इस धर्म-विनय में प्रगति, वृद्धि, विकास और प्रौढ़ता पाना असंभव है।

सच्चा भिक्षु

किन्तु, भिक्षुओं, जो भिक्षु मानस की पाँच बंजरता छोड़ता है, मानस के पाँच जंजीर तोड़ता है, उसके लिए इस धर्म-विनय में प्रगति, वृद्धि, विकास और प्रौढ़ता पाना संभव है।

वह मानस की कौन सी पाँच बंजरता छोड़ता है?

१. ऐसा होता है, भिक्षुओं, कोई भिक्षु शास्ता के प्रति न आशंकित, न अनिश्चित, न उलझन में, और न ही अविश्वस्त होता है। और जो भिक्षु शास्ता के प्रति न आशंकित, न अनिश्चित, न उलझन में, और न ही अविश्वस्त हो, उसका चित्त तत्परता, संकल्पबद्धता, निरंतरता, और उद्यमता के लिए झुकता है। और चित्त का तत्परता, संकल्पबद्धता, निरंतरता, और उद्यमता के लिए झुकना — यह मानस की पहली बंजरता को छोड़ना है।

२. आगे, भिक्षुओं, कोई भिक्षु धर्म के प्रति न आशंकित, न अनिश्चित, न उलझन में, और न ही अविश्वस्त होता है। और जो भिक्षु धर्म के प्रति न आशंकित, न अनिश्चित, न उलझन में, और न ही अविश्वस्त हो, उसका चित्त तत्परता, संकल्पबद्धता, निरंतरता, और उद्यमता के लिए झुकता है। और चित्त का तत्परता, संकल्पबद्धता, निरंतरता, और उद्यमता के लिए झुकना — यह मानस की दूसरी बंजरता को छोड़ना है।

३. आगे, भिक्षुओं, कोई भिक्षु संघ के प्रति न आशंकित, न अनिश्चित, न उलझन में, और न ही अविश्वस्त होता है। और जो भिक्षु संघ के प्रति न आशंकित, न अनिश्चित, न उलझन में, और न ही अविश्वस्त हो, उसका चित्त तत्परता, संकल्पबद्धता, निरंतरता, और उद्यमता के लिए झुकता है। और चित्त का तत्परता, संकल्पबद्धता, निरंतरता, और उद्यमता के लिए झुकना — यह मानस की तीसरी बंजरता को छोड़ना है।

४. आगे, भिक्षुओं, कोई भिक्षु शिक्षा के प्रति न आशंकित, न अनिश्चित, न उलझन में, और न ही अविश्वस्त होता है। और जो भिक्षु संघ के प्रति न आशंकित, न अनिश्चित, न उलझन में, और न ही अविश्वस्त हो, उसका चित्त तत्परता, संकल्पबद्धता, निरंतरता, और उद्यमता के लिए झुकता है। और चित्त का तत्परता, संकल्पबद्धता, निरंतरता, और उद्यमता के लिए झुकना — यह मानस की चौथी बंजरता को छोड़ना है।

५. आगे, भिक्षुओं, कोई भिक्षु सब्रह्मचारियों के प्रति न कुपित, न नाराज, न आहत चित्त, न उखड़े मन से रहता है। और जो भिक्षु सब्रह्मचारियों के प्रति न कुपित, न नाराज, न आहत चित्त, न उखड़े मन से न रहे, उसका चित्त तत्परता, संकल्पबद्धता, निरंतरता, और उद्यमता के लिए झुकता है। और चित्त का तत्परता, संकल्पबद्धता, निरंतरता, और उद्यमता के लिए झुकना — यह मानस की पाँचवी बंजरता को छोड़ना है।

— वह मानस की इन पाँच बंजरता को छोड़ता है।

और, वह मानस के कौन सी पाँच जंजीर तोड़ता है?

१. भिक्षुओं, कोई भिक्षु कामुकता के प्रति राग-रहित, इच्छा-रहित, प्रेम-रहित, प्यास-रहित, तड़प-रहित, तृष्णा-रहित होता है। और जो भिक्षु कामुकता के प्रति राग-रहित, इच्छा-रहित, प्रेम-रहित, प्यास-रहित, तड़प-रहित, तृष्णा-रहित हो, उसका चित्त तत्परता, संकल्पबद्धता, निरंतरता, और उद्यमता के लिए झुकता है। और चित्त का तत्परता, संकल्पबद्धता, निरंतरता, और उद्यमता के लिए झुकना — यह मानस की पहली जंजीर को तोड़ना है।

२. आगे, भिक्षुओं, कोई भिक्षु काया के प्रति राग-रहित, इच्छा-रहित, प्रेम-रहित, प्यास-रहित, तड़प-रहित, तृष्णा-रहित होता है। और जो भिक्षु कामुकता के प्रति राग-रहित, इच्छा-रहित, प्रेम-रहित, प्यास-रहित, तड़प-रहित, तृष्णा-रहित हो, उसका चित्त तत्परता, संकल्पबद्धता, निरंतरता, और उद्यमता के लिए झुकता है। और चित्त का तत्परता, संकल्पबद्धता, निरंतरता, और उद्यमता के लिए झुकना — यह मानस की दूसरी जंजीर को तोड़ना है।

३. आगे, भिक्षुओं, कोई भिक्षु रूप के प्रति राग-रहित, इच्छा-रहित, प्रेम-रहित, प्यास-रहित, तड़प-रहित, तृष्णा-रहित होता है। और जो भिक्षु रूप के प्रति राग-रहित, इच्छा-रहित, प्रेम-रहित, प्यास-रहित, तड़प-रहित, तृष्णा-रहित हो, उसका चित्त तत्परता, संकल्पबद्धता, निरंतरता, और उद्यमता के लिए झुकता है। और चित्त का तत्परता, संकल्पबद्धता, निरंतरता, और उद्यमता के लिए झुकना — यह मानस की तीसरी जंजीर को तोड़ना है।

४. आगे, भिक्षुओं, कोई भिक्षु भरपेट नहीं खाता है और सोने के सुख, लेटने के सुख, तंद्रा के सुख में लिप्त न होकर विहार करता है। और जो भिक्षु भरपेट न खाकर सोने के सुख, लेटने के सुख, तंद्रा के सुख में लिप्त न होकर विहार करे, उसका चित्त तत्परता, संकल्पबद्धता, निरंतरता, और उद्यमता के लिए झुकता है। और चित्त का तत्परता, संकल्पबद्धता, निरंतरता, और उद्यमता के लिए झुकना — यह मानस की चौथी जंजीर को तोड़ना है।

५. आगे, भिक्षुओं, कोई भिक्षु किसी देव-समूह की आकांक्षा से ब्रह्मचर्य का पालन नहीं करता है, “मेरे इस शील, व्रत, तप, या ब्रह्मचर्य से मैं यह देवता, अथवा वह देवता बनूँ!” और जो भिक्षु किसी देव-समूह की आकांक्षा से ब्रह्मचर्य का पालन न करे, “मेरे इस शील, व्रत, तप, या ब्रह्मचर्य से मैं यह देवता, अथवा वह देवता बनूँ”, उसका चित्त तत्परता, संकल्पबद्धता, निरंतरता, और उद्यमता के लिए झुकता है। और चित्त का तत्परता, संकल्पबद्धता, निरंतरता, और उद्यमता के लिए झुकना — यह मानस की पाँचवी जंजीर को तोड़ना है।

— वह मानस की इन पाँच जंजीर को तोड़ता है।

और, भिक्षुओं, जो भिक्षु मानस की पाँच बंजरता को छोड़ता है, मानस के पाँच जंजीर को तोड़ता है, उसके लिए इस धर्म-विनय में प्रगति, वृद्धि, विकास और प्रौढ़ता पाना संभव है।

ऋद्धिपद

वह —

  • चाहत (“छन्द”) और परिश्रम से रचित समाधि से संपन्न ऋद्धिबल को विकसित करता है,
  • ऊर्जा (“वीरिय”) और परिश्रम से रचित समाधि से संपन्न ऋद्धिबल को विकसित करता है,
  • मानस (“चित्त”) और परिश्रम से रचित समाधि से संपन्न ऋद्धिबल को विकसित करता है,
  • विवेक (“वीमंस”) और परिश्रम से रचित समाधि से संपन्न ऋद्धिबल को विकसित करता है
  • और, पाँचवा, केवल अतिउत्साह। 1

भिक्षुओं, जो भिक्षु इन पंधरा अंगों और अति-उत्साह से युक्त हो, वह (आवरण) तोड़कर बाहर निकलने में, संबोधि पाने में, और योगबंधन से सर्वोपरि राहत 2 पाने में सक्षम है।

जैसे, भिक्षुओं, किसी मुर्गी के आठ, दस, या बारह अंडे हो। मुर्गी उन्हें ठीक से ढकती है, ठीक से गर्म रखती है, ठीक से सेती है। तब, भले ही मुर्गी को इच्छा हो न हो कि ‘काश, मेरे चूज़े अपने नन्हें पंजे और चोंच से अंडे का आवरण तोड़ कर सुरक्षित बाहर निकले!’ तब भी संभव है कि उसके चूज़े नन्हें पंजे और चोंच से अंडे का आवरण तोड़ कर सुरक्षित निकलेंगे। ऐसा क्यों? क्योंकि मुर्गी अपने अंडों को ठीक से ढकती है, ठीक से गर्म रखती है, ठीक से सेती है।

उसी तरह, भिक्षुओं, जब कोई भिक्षु इन पंधरा अंगों और अति-उत्साह से युक्त हो, वह (आवरण) तोड़कर बाहर निकलने में, संबोधि पाने में, और योगबंधन से सर्वोपरि राहत पाने में सक्षम होता है।"

भगवान ने ऐसा कहा। हर्षित होकर भिक्षुओं ने भगवान की बात का अभिनंदन किया।

सुत्र समाप्त।


  1. इद्धि, जिसे कभी “ऋद्धि”, कभी “शक्ति”, तो कभी “सिद्धि” या “सफलता” भी कहा गया है, उसका कोई एक अर्थ नहीं है जो उसकी सभी परतों को समेट सके। इद्धिपाद के सन्दर्भ में इसका अर्थ समाधि से उत्पन्न होने वाली अलौकिक ऋद्धियों से है — जैसे कि मनोमय-ऋद्धि (अपने कई काया बनाना), विविध ऋद्धियाँ, दिव्यश्रोत, परचित्त ज्ञान, पूर्व-जन्मों की स्मृति, दिव्यचक्षु, और अन्त में आस्रवों का अन्त।

    ऋद्धिपद के चारों तत्व — छन्द, वीर्य, चित्त, और वीमंस — अलग-अलग भी साधे जाते हैं, और परस्पर सहायक बनाकर भी।

    छन्द लक्ष्य प्राप्ति की तीव्र इच्छा है। वीर्य उस लक्ष्य की ओर निरंतर बढ़ने की सक्रिय शक्ति और अविचल प्रयत्न है। कोई लक्ष्य जब मन में स्थापित होता है, तो उस पर टिके रहने के लिए चित्त को उत्पन्न और स्थिर किया जाता है। समय-समय पर साधना के मार्ग में आगे बढ़ने, दिशा सुधारने और भिन्न उपाय अपनाने के लिए वीमंस — विवेकपूर्ण निरीक्षण — का प्रयोग किया जाता है।

    आपस में जुड़े रूप में देखें तो, छन्द आरम्भिक प्रेरणा है — साधना करने की गहरी चाह। जब यह दृढ़ होता है, तो स्वाभाविक ही वीर्य को जन्म देता है, जो क्षणिक उत्साह नहीं, बल्कि निरंतर प्रयत्न है, जो मन को आलस्य और प्रमाद से बचाए रखता है। इस निरंतर प्रयत्न से चित्त क्रमशः शुद्ध, एकाग्र और स्थिर होता है। समाधि में स्थित यही चित्त, वीमंस के द्वारा सूक्ष्म निरीक्षण और तुलना की क्षमता पाता है, जिससे वस्तुओं का यथार्थ स्वरूप प्रत्यक्ष होता है।

    इस अभ्यास में उस्सोळ्हि — यानी उत्साहपूर्ण सजगता और निरंतर जाग्रत ऊर्जा — वीर्य का ही एक सजीव रूप है, जो साधना को मन्द होने नहीं देता। ऋद्धिपद की अधिक जानकारी के लिए हमारी मार्गदर्शिका पढ़ें। ↩︎

  2. योगक्खेम का अर्थ है — संसार-बंधनों के योग या जुए से मुक्त होकर सुरक्षित शरण पाना। जैसे लम्बी थकाऊ यात्रा के बाद कोई कारवाँ मंज़िल पर पहुँचकर बोझ उतारता है, पशुओं को जुए से मुक्त करता है और शीतल जल में विश्रांति लेता है — उसी प्रकार साधक इन गुणों के सहारे, इद्धिपाद के माध्यम से, निब्बान की शान्ति और मुक्ति का अनुभव करता है। ↩︎

Pali

१८५. एवं मे सुतं – एकं समयं भगवा सावत्थियं विहरति जेतवने अनाथपिण्डिकस्स आरामे। तत्र खो भगवा भिक्खू आमन्तेसि – ‘‘भिक्खवो’’ति। ‘‘भदन्ते’’ति ते भिक्खू भगवतो पच्‍चस्सोसुं। भगवा एतदवोच –

‘‘यस्स कस्सचि, भिक्खवे, भिक्खुनो पञ्‍च चेतोखिला अप्पहीना, पञ्‍च चेतसोविनिबन्धा चेतसोविनिबद्धा (सी॰), चेतोविनिबद्धा (सारत्थदीपनीटीका) असमुच्छिन्‍ना, सो वतिमस्मिं धम्मविनये वुद्धिं विरूळ्हिं वेपुल्‍लं आपज्‍जिस्सतीति – नेतं ठानं विज्‍जति।

‘‘कतमास्स पञ्‍च चेतोखिला अप्पहीना होन्ति? इध, भिक्खवे, भिक्खु सत्थरि कङ्खति विचिकिच्छति नाधिमुच्‍चति न सम्पसीदति। यो सो, भिक्खवे, भिक्खु सत्थरि कङ्खति विचिकिच्छति नाधिमुच्‍चति न सम्पसीदति तस्स चित्तं न नमति आतप्पाय अनुयोगाय सातच्‍चाय पधानाय। यस्स चित्तं न नमति आतप्पाय अनुयोगाय सातच्‍चाय पधानाय, एवमस्सायं पठमो चेतोखिलो अप्पहीनो होति।

‘‘पुन चपरं, भिक्खवे, भिक्खु धम्मे कङ्खति विचिकिच्छति नाधिमुच्‍चति न सम्पसीदति…पे॰… एवमस्सायं दुतियो चेतोखिलो अप्पहीनो होति।

‘‘पुन चपरं, भिक्खवे, भिक्खु सङ्घे कङ्खति विचिकिच्छति नाधिमुच्‍चति न सम्पसीदति…पे॰… एवमस्सायं ततियो चेतोखिलो अप्पहीनो होति।

‘‘पुन चपरं, भिक्खवे, भिक्खु सिक्खाय कङ्खति विचिकिच्छति नाधिमुच्‍चति न सम्पसीदति। यो सो, भिक्खवे, भिक्खु सिक्खाय कङ्खति विचिकिच्छति नाधिमुच्‍चति न सम्पसीदति, तस्स चित्तं न नमति आतप्पाय अनुयोगाय सातच्‍चाय पधानाय। यस्स चित्तं न नमति आतप्पाय अनुयोगाय सातच्‍चाय पधानाय, एवमस्सायं चतुत्थो चेतोखिलो अप्पहीनो होति।

‘‘पुन चपरं, भिक्खवे, भिक्खु सब्रह्मचारीसु कुपितो होति अनत्तमनो आहतचित्तो खिलजातो। यो सो, भिक्खवे, भिक्खु सब्रह्मचारीसु कुपितो होति अनत्तमनो आहतचित्तो खिलजातो, तस्स चित्तं न नमति आतप्पाय अनुयोगाय सातच्‍चाय पधानाय। यस्स चित्तं न नमति आतप्पाय अनुयोगाय सातच्‍चाय पधानाय, एवमस्सायं पञ्‍चमो चेतोखिलो अप्पहीनो होति। इमास्स पञ्‍च चेतोखिला अप्पहीना होन्ति।

१८६. ‘‘कतमास्स पञ्‍च चेतसोविनिबन्धा असमुच्छिन्‍ना होन्ति? इध, भिक्खवे, भिक्खु कामे अवीतरागो अविगतरागो (कत्थचि) होति अविगतच्छन्दो अविगतपेमो अविगतपिपासो अविगतपरिळाहो अविगततण्हो। यो सो, भिक्खवे, भिक्खु कामे अवीतरागो होति अविगतच्छन्दो अविगतपेमो अविगतपिपासो अविगतपरिळाहो अविगततण्हो, तस्स चित्तं न नमति आतप्पाय अनुयोगाय सातच्‍चाय पधानाय। यस्स चित्तं न नमति आतप्पाय अनुयोगाय सातच्‍चाय पधानाय, एवमस्सायं पठमो चेतसोविनिबन्धो असमुच्छिन्‍नो होति।

‘‘पुन चपरं, भिक्खवे, भिक्खु काये अवीतरागो होति…पे॰… एवमस्सायं दुतियो चेतसोविनिबन्धो असमुच्छिन्‍नो होति।

‘‘पुन चपरं, भिक्खवे, भिक्खु रूपे अवीतरागो होति…पे॰… एवमस्सायं ततियो चेतसोविनिबन्धो असमुच्छिन्‍नो होति।

‘‘पुन चपरं, भिक्खवे, भिक्खु यावदत्थं उदरावदेहकं भुञ्‍जित्वा सेय्यसुखं पस्ससुखं मिद्धसुखं अनुयुत्तो विहरति। यो सो, भिक्खवे, भिक्खु यावदत्थं उदरावदेहकं भुञ्‍जित्वा सेय्यसुखं पस्ससुखं मिद्धसुखं अनुयुत्तो विहरति, तस्स चित्तं न नमति आतप्पाय अनुयोगाय सातच्‍चाय पधानाय। यस्स चित्तं न नमति आतप्पाय अनुयोगाय सातच्‍चाय पधानाय, एवमस्सायं चतुत्थो चेतसोविनिबन्धो असमुच्छिन्‍नो होति।

‘‘पुन चपरं, भिक्खवे, भिक्खु अञ्‍ञतरं देवनिकायं पणिधाय ब्रह्मचरियं चरति – ‘इमिनाहं सीलेन वा वतेन वा तपेन वा ब्रह्मचरियेन वा देवो वा भविस्सामि देवञ्‍ञतरो वा’ति। यो सो, भिक्खवे, भिक्खु अञ्‍ञतरं देवनिकायं पणिधाय ब्रह्मचरियं चरति – ‘इमिनाहं सीलेन वा वतेन वा तपेन वा ब्रह्मचरियेन वा देवो वा भविस्सामि देवञ्‍ञतरो वा’ति, तस्स चित्तं न नमति आतप्पाय अनुयोगाय सातच्‍चाय पधानाय । यस्स चित्तं न नमति आतप्पाय अनुयोगाय सातच्‍चाय पधानाय, एवमस्सायं पञ्‍चमो चेतसोविनिबन्धो असमुच्छिन्‍नो होति। इमास्स पञ्‍च चेतसोविनिबन्धा असमुच्छिन्‍ना होन्ति।

‘‘यस्स कस्सचि, भिक्खवे, भिक्खुनो इमे पञ्‍च चेतोखिला अप्पहीना, इमे पञ्‍च चेतसोविनिबन्धा असमुच्छिन्‍ना, सो वतिमस्मिं धम्मविनये वुद्धिं विरूळ्हिं वेपुल्‍लं आपज्‍जिस्सतीति – नेतं ठानं विज्‍जति।

१८७. ‘‘यस्स कस्सचि, भिक्खवे, भिक्खुनो पञ्‍च चेतोखिला पहीना, पञ्‍च चेतसोविनिबन्धा सुसमुच्छिन्‍ना, सो वतिमस्मिं धम्मविनये वुद्धिं विरूळ्हिं वेपुल्‍लं आपज्‍जिस्सतीति – ठानमेतं विज्‍जति।

‘‘कतमास्स पञ्‍च चेतोखिला पहीना होन्ति? इध, भिक्खवे, भिक्खु सत्थरि न कङ्खति न विचिकिच्छति अधिमुच्‍चति सम्पसीदति। यो सो, भिक्खवे, भिक्खु सत्थरि न कङ्खति न विचिकिच्छति अधिमुच्‍चति सम्पसीदति, तस्स चित्तं नमति आतप्पाय अनुयोगाय सातच्‍चाय पधानाय। यस्स चित्तं नमति आतप्पाय अनुयोगाय सातच्‍चाय पधानाय, एवमस्सायं पठमो चेतोखिलो पहीनो होति।

‘‘पुन चपरं, भिक्खवे, भिक्खु धम्मे न कङ्खति न विचिकिच्छति अधिमुच्‍चति सम्पसीदति…पे॰… एवमस्सायं दुतियो चेतोखिलो पहीनो होति।

‘‘पुन चपरं, भिक्खवे, भिक्खु सङ्घे न कङ्खति न विचिकिच्छति अधिमुच्‍चति सम्पसीदति…पे॰… एवमस्सायं ततियो चेतोखिलो पहीनो होति।

‘‘पुन चपरं, भिक्खवे, भिक्खु सिक्खाय न कङ्खति न विचिकिच्छति अधिमुच्‍चति सम्पसीदति…पे॰… एवमस्सायं चतुत्थो चेतोखिलो पहीनो होति।

‘‘पुन चपरं, भिक्खवे, भिक्खु सब्रह्मचारीसु न कुपितो होति न अनत्तमनो अत्तमनो (सी॰ पी॰) अनाहतचित्तो अखिलजातो। यो सो, भिक्खवे, भिक्खु सब्रह्मचारीसु न कुपितो होति न अनत्तमनो अनाहतचित्तो अखिलजातो, तस्स चित्तं नमति आतप्पाय अनुयोगाय सातच्‍चाय पधानाय। यस्स चित्तं नमति आतप्पाय अनुयोगाय सातच्‍चाय पधानाय, एवमस्सायं पञ्‍चमो चेतोखिलो पहीनो होति। इमास्स पञ्‍च चेतोखिला पहीना होन्ति।

१८८. ‘‘कतमास्स पञ्‍च चेतसोविनिबन्धा सुसमुच्छिन्‍ना होन्ति? इध, भिक्खवे, भिक्खु कामे वीतरागो होति विगतच्छन्दो विगतपेमो विगतपिपासो विगतपरिळाहो विगततण्हो। यो सो, भिक्खवे, भिक्खु कामे वीतरागो होति विगतच्छन्दो विगतपेमो विगतपिपासो विगतपरिळाहो विगततण्हो, तस्स चित्तं नमति आतप्पाय अनुयोगाय सातच्‍चाय पधानाय। यस्स चित्तं नमति आतप्पाय अनुयोगाय सातच्‍चाय पधानाय, एवमस्सायं पठमो चेतसोविनिबन्धो सुसमुच्छिन्‍नो होति।

‘‘पुन चपरं, भिक्खवे, भिक्खु काये वीतरागो होति…पे॰… रूपे वीतरागो होति…पे॰… न यावदत्थं उदरावदेहकं भुञ्‍जित्वा सेय्यसुखं पस्ससुखं मिद्धसुखं अनुयुत्तो विहरति। यो सो, भिक्खवे, भिक्खु न यावदत्थं उदरावदेहकं भुञ्‍जित्वा सेय्यसुखं पस्ससुखं मिद्धसुखं अनुयुत्तो विहरति, तस्स चित्तं नमति आतप्पाय अनुयोगाय सातच्‍चाय पधानाय। यस्स चित्तं नमति आतप्पाय अनुयोगाय सातच्‍चाय पधानाय, एवमस्सायं चतुत्थो चेतसोविनिबन्धो सुसमुच्छिन्‍नो होति।

‘‘पुन चपरं, भिक्खवे, भिक्खु न अञ्‍ञतरं देवनिकायं पणिधाय ब्रह्मचरियं चरति – ‘इमिनाहं सीलेन वा वतेन वा तपेन वा ब्रह्मचरियेन वा देवो वा भविस्सामि देवञ्‍ञतरो वा’ति। यो सो, भिक्खवे, भिक्खु न अञ्‍ञतरं देवनिकायं पणिधाय ब्रह्मचरियं चरति – ‘इमिनाहं सीलेन वा वतेन वा तपेन वा ब्रह्मचरियेन वा देवो वा भविस्सामि देवञ्‍ञतरो वा’ति, तस्स चित्तं नमति आतप्पाय अनुयोगाय सातच्‍चाय पधानाय। यस्स चित्तं नमति आतप्पाय अनुयोगाय सातच्‍चाय पधानाय, एवमस्सायं पञ्‍चमो चेतसोविनिबन्धो सुसमुच्छिन्‍नो होति। इमास्स पञ्‍च चेतसोविनिबन्धा सुसमुच्छिन्‍ना होन्ति।

‘‘यस्स कस्सचि, भिक्खवे, भिक्खुनो इमे पञ्‍च चेतोखिला पहीना, इमे पञ्‍च चेतसोविनिबन्धा सुसमुच्छिन्‍ना, सो वतिमस्मिं धम्मविनये वुद्धिं विरूळ्हिं वेपुल्‍लं आपज्‍जिस्सतीति – ठानमेतं विज्‍जति।

१८९. ‘‘सो छन्दसमाधिपधानसङ्खारसमन्‍नागतं इद्धिपादं भावेति, वीरियसमाधिपधानसङ्खारसमन्‍नागतं इद्धिपादं भावेति, चित्तसमाधिपधानसङ्खारसमन्‍नागतं इद्धिपादं भावेति, वीमंसासमाधिपधानसङ्खारसमन्‍नागतं इद्धिपादं भावेति, उस्सोळ्हीयेव पञ्‍चमी। स खो सो, भिक्खवे, एवं उस्सोळ्हीपन्‍नरसङ्गसमन्‍नागतो भिक्खु भब्बो अभिनिब्बिदाय, भब्बो सम्बोधाय, भब्बो अनुत्तरस्स योगक्खेमस्स अधिगमाय। सेय्यथापि, भिक्खवे, कुक्‍कुटिया अण्डानि अट्ठ वा दस वा द्वादस वा। तानस्सु कुक्‍कुटिया सम्मा अधिसयितानि सम्मा परिसेदितानि सम्मा परिभावितानि। किञ्‍चापि तस्सा कुक्‍कुटिया न एवं इच्छा उप्पज्‍जेय्य – ‘अहो वतिमे कुक्‍कुटपोतका पादनखसिखाय वा मुखतुण्डकेन वा अण्डकोसं पदालेत्वा सोत्थिना अभिनिब्भिज्‍जेय्यु’न्ति। अथ खो भब्बाव ते कुक्‍कुटपोतका पादनखसिखाय वा मुखतुण्डकेन वा अण्डकोसं पदालेत्वा सोत्थिना अभिनिब्भिज्‍जितुं। एवमेव खो, भिक्खवे, एवं उस्सोळ्हिपन्‍नरसङ्गसमन्‍नागतो भिक्खु भब्बो अभिनिब्बिदाय, भब्बो सम्बोधाय, भब्बो अनुत्तरस्स योगक्खेमस्स अधिगमाया’’ति।

इदमवोच भगवा। अत्तमना ते भिक्खू भगवतो भासितं अभिनन्दुन्ति।

चेतोखिलसुत्तं निट्ठितं छट्ठं।