नमो तस्स भगवतो अरहतो सम्मा-सम्बुद्धस्स

📜 रहें या न रहें?

सूत्र परिचय

यहाँ भगवान एक अत्यंत व्यावहारिक बात बताते हैं — हमें कहाँ रहना चाहिए, और कहाँ नहीं।

कुछ सूत्रों में भगवान ने जंगल में रहने की सराहना की है, परंतु केवल स्थान की सुंदरता या शांति पर्याप्त नहीं होती। एकांतवास का उद्देश्य है — चित्त का विकास और अंततः मुक्ति की प्राप्ति। लेकिन साधक की आध्यात्मिक यात्रा सीधी और स्पष्ट नहीं होती।

कई बार जो स्थान या व्यक्ति हमें सहायक प्रतीत होते हैं, वही हमारे लिए अवरोध बन सकते हैं। इसलिए किसी स्थान की एकांतता या प्रेरणादायक वातावरण से अधिक महत्वपूर्ण है — वहाँ रहते हुए हमारा वास्तविक आध्यात्मिक विकास हो रहा है या नहीं।

यदि किसी स्थान पर कठिनाइयाँ हों, लेकिन वहाँ हमारा चित्त अधिक शुद्ध, एकाग्र और कुशल हो रहा हो — तो वही स्थान हमारे लिए उपयुक्त है। यही आत्मनिरीक्षण और विवेक की राह है।

✦ ॥ नमो तस्स भगवतो अरहतो सम्मासम्बुद्धस्स ॥ ✦

Hindi

ऐसा मैंने सुना — एक समय भगवान श्रावस्ती में अनाथपिण्डक के जेतवन उद्यान में विहार कर रहे थे। वहाँ भगवान ने भिक्षुओं से कहा, “भिक्षुओं!"

“भदंत”, भिक्षुओं ने भगवान को उत्तर दिया। भगवान ने कहा —

“भिक्षुओं, जंगली इलाके पर उपदेश देता हूँ। ध्यान देकर गौर से सुनों, मैं बताता हूँ!”

“ठीक है, भंते”, भिक्षुओं ने भगवान को उत्तर दिया। भगवान ने कहा —

~ घने जंगल में ~

कोई लाभ नहीं

“ऐसा होता है, भिक्षुओं, कोई भिक्षु किसी घने जंगल का निश्रय लेकर विहार करता है। तब उस घने जंगल का निश्रय लेकर विहार करने से उसकी अनुपस्थित स्मृति स्थापित नहीं होती; असमाहित चित्त को समाधि नहीं मिलती; अक्षीण आस्रवों का क्षय नहीं होता; अप्राप्त योगबन्धन से अनुत्तर राहत प्राप्त नहीं होती है।

और, जो प्रवज्जित जीवन की आवश्यकताएँ हैं — जैसे, चीवर, भिक्षान्न, आवास, और रोगावश्यक औषधि और भैषज्य — उनकी भी आपूर्ति नहीं होती।

तब, भिक्षुओं, उस भिक्षु को चिंतन करना चाहिए, “मैं इस घने जंगल का निश्रय लेकर विहार कर रहा हूँ । किन्तु इस घने जंगल का निश्रय लेकर विहार करने से मेरी अनुपस्थित स्मृति स्थापित नहीं हो रही; असमाहित चित्त को समाधि नहीं मिल रही; अक्षीण आस्रवों का क्षय नहीं हो रहा; अप्राप्त योगबन्धन से अनुत्तर राहत प्राप्त नहीं हो रही है। और, साथ ही, जो प्रवज्जित जीवन की आवश्यकताएँ हैं — जैसे, चीवर, भिक्षान्न, आवास, और रोगावश्यक औषधि और भैषज्य — उनकी भी आपूर्ति नहीं हो रही।”

तब, भिक्षुओं, रात हो या दिन, उस भिक्षु को उसी समय उस घने जंगल से निकल जाना चाहिए, रुकना नहीं चाहिए।

निरर्थक लाभ

किन्तु, ऐसा भी होता है, भिक्षुओं, कोई भिक्षु किसी घने जंगल का निश्रय लेकर विहार करता है। तब उस घने जंगल का निश्रय लेकर विहार करने से उसकी अनुपस्थित स्मृति स्थापित नहीं होती; असमाहित चित्त को समाधि नहीं मिलती; अक्षीण आस्रवों का क्षय नहीं होता; अप्राप्त योगबन्धन से अनुत्तर राहत प्राप्त नहीं होती है।

किन्तु, जो प्रवज्जित जीवन की आवश्यकताएँ हैं — जैसे, चीवर, भिक्षान्न, आवास, और रोगावश्यक औषधि और भैषज्य — उनकी आपूर्ति होती हैं।

तब, भिक्षुओं, उस भिक्षु को चिंतन करना चाहिए, “मैं इस घने जंगल का निश्रय लेकर विहार कर रहा हूँ । किन्तु इस घने जंगल का निश्रय लेकर विहार करने से मेरी अनुपस्थित स्मृति स्थापित नहीं हो रही; असमाहित चित्त को समाधि नहीं मिल रही; अक्षीण आस्रवों का क्षय नहीं हो रहा; अप्राप्त योगबन्धन से अनुत्तर राहत प्राप्त नहीं हो रही है। किन्तु, जो प्रवज्जित जीवन की आवश्यकताएँ हैं — जैसे, चीवर, भिक्षान्न, आवास, और रोगावश्यक औषधि और भैषज्य — उनकी अच्छे से आपूर्ति हो रही हैं। किन्तु, मैं चीवर के लिए… भिक्षान्न के लिए… आवास के लिए… रोगावश्यक औषधि और भैषज्य के लिए घर से बेघर होकर प्रवज्जित नहीं हुआ। किन्तु इस घने जंगल का निश्रय लेकर विहार करने से मेरी अनुपस्थित स्मृति स्थापित नहीं हो रही; असमाहित चित्त को समाधि नहीं मिल रही; अक्षीण आस्रवों का क्षय नहीं हो रहा; अप्राप्त योगबन्धन से अनुत्तर राहत प्राप्त नहीं हो रही है।”

इस तरह मूल्यांकन कर, भिक्षुओं, उस भिक्षु को उस घने जंगल से निकल जाना चाहिए, रुकना नहीं चाहिए।

अर्थपूर्ण लाभ

किन्तु, ऐसा भी होता है, भिक्षुओं, कोई भिक्षु किसी घने जंगल का निश्रय लेकर विहार करता है। तब उस घने जंगल का निश्रय लेकर विहार करने से उसकी अनुपस्थित स्मृति स्थापित होती है; असमाहित चित्त को समाधि मिलती है; अक्षीण आस्रवों का क्षय होता है; अप्राप्त योगबन्धन से अनुत्तर राहत प्राप्त होती है।

किन्तु, जो प्रवज्जित जीवन की आवश्यकताएँ हैं — जैसे, चीवर, भिक्षान्न, आवास, और रोगावश्यक औषधि और भैषज्य — उनकी आपूर्ति नहीं होती हैं।

तब, भिक्षुओं, उस भिक्षु को चिंतन करना चाहिए, “मैं इस घने जंगल का निश्रय लेकर विहार कर रहा हूँ । और इस घने जंगल का निश्रय लेकर विहार करने से मेरी अनुपस्थित स्मृति स्थापित हो रही है; असमाहित चित्त को समाधि मिल रही है; अक्षीण आस्रवों का क्षय हो रहा है; अप्राप्त योगबन्धन से अनुत्तर राहत प्राप्त हो रही है। किन्तु, जो प्रवज्जित जीवन की आवश्यकताएँ हैं — जैसे, चीवर, भिक्षान्न, आवास, और रोगावश्यक औषधि और भैषज्य — उनकी आपूर्ति नहीं हो रही हैं। किन्तु, मैं चीवर के लिए… भिक्षान्न के लिए… आवास के लिए… रोगावश्यक औषधि और भैषज्य के लिए घर से बेघर होकर प्रवज्जित नहीं हुआ। किन्तु, इस घने जंगल का निश्रय लेकर विहार करने से मेरी अनुपस्थित स्मृति स्थापित हो रही है; असमाहित चित्त को समाधि मिल रही है; अक्षीण आस्रवों का क्षय हो रहा है; अप्राप्त योगबन्धन से अनुत्तर राहत प्राप्त हो रही है।”

इस तरह मूल्यांकन कर, भिक्षुओं, उस भिक्षु को उस घने जंगल का निश्रय लेकर विहार करते रहना चाहिए।

संपूर्ण लाभ

और, ऐसा भी होता है, भिक्षुओं, कोई भिक्षु किसी घने जंगल का निश्रय लेकर विहार करता है। तब उस घने जंगल का निश्रय लेकर विहार करने से उसकी अनुपस्थित स्मृति स्थापित होती है; असमाहित चित्त को समाधि मिलती है; अक्षीण आस्रवों का क्षय होता है; अप्राप्त योगबन्धन से अनुत्तर राहत प्राप्त होती है।

और, साथ ही, जो प्रवज्जित जीवन की आवश्यकताएँ हैं — जैसे, चीवर, भिक्षान्न, आवास, और रोगावश्यक औषधि और भैषज्य — उनकी भी अच्छे से आपूर्ति होती हैं।

तब, भिक्षुओं, उस भिक्षु को चिंतन करना चाहिए, “मैं इस घने जंगल का निश्रय लेकर विहार कर रहा हूँ । और इस घने जंगल का निश्रय लेकर विहार करने से मेरी अनुपस्थित स्मृति स्थापित हो रही है; असमाहित चित्त को समाधि मिल रही है; अक्षीण आस्रवों का क्षय हो रहा है; अप्राप्त योगबन्धन से अनुत्तर राहत प्राप्त हो रही है। और, साथ ही, जो प्रवज्जित जीवन की आवश्यकताएँ हैं — जैसे, चीवर, भिक्षान्न, आवास, और रोगावश्यक औषधि और भैषज्य — उनकी भी अच्छे से आपूर्ति हो रही हैं।”

भिक्षुओं, उस भिक्षु को जीवन भर उसी घने जंगल का निश्रय लेकर विहार करना चाहिए।

~ अन्य जगह भी ~

कोई लाभ नहीं

“और, ऐसा भी होता है, भिक्षुओं, कोई भिक्षु —

  • किसी गाँव का निश्रय लेकर विहार करता है…
  • किसी नगर का निश्रय लेकर विहार करता है…
  • किसी शहर का निश्रय लेकर विहार करता है…
  • किसी राज्य का निश्रय लेकर विहार करता है…
  • किसी व्यक्ति का निश्रय लेकर विहार करता है…

— तब उस व्यक्ति का निश्रय लेकर विहार करने से उसकी अनुपस्थित स्मृति स्थापित नहीं होती; असमाहित चित्त को समाधि नहीं मिलती; अक्षीण आस्रवों का क्षय नहीं होता; अप्राप्त योगबन्धन से अनुत्तर राहत प्राप्त नहीं होती है।

और, जो प्रवज्जित जीवन की आवश्यकताएँ हैं — जैसे, चीवर, भिक्षान्न, आवास, और रोगावश्यक औषधि और भैषज्य — उनकी भी आपूर्ति नहीं होती।

तब, भिक्षुओं, उस भिक्षु को चिंतन करना चाहिए, “मैं इस व्यक्ति का निश्रय लेकर विहार कर रहा हूँ। किन्तु इस व्यक्ति का निश्रय लेकर विहार करने से मेरी अनुपस्थित स्मृति स्थापित नहीं हो रही; असमाहित चित्त को समाधि नहीं मिल रही; अक्षीण आस्रवों का क्षय नहीं हो रहा; अप्राप्त योगबन्धन से अनुत्तर राहत प्राप्त नहीं हो रही है। और, साथ ही, जो प्रवज्जित जीवन की आवश्यकताएँ हैं — जैसे, चीवर, भिक्षान्न, आवास, और रोगावश्यक औषधि और भैषज्य — उनकी भी आपूर्ति नहीं हो रही।”

तब, भिक्षुओं, रात हो या दिन, उस भिक्षु को उसी समय उस व्यक्ति को बिना बताएँ, निकल जाना चाहिए, उससे बंधे रहना नहीं चाहिए।

निरर्थक लाभ

किन्तु, ऐसा भी होता है, भिक्षुओं, कोई भिक्षु किसी व्यक्ति का निश्रय लेकर विहार करता है। तब उस व्यक्ति का निश्रय लेकर विहार करने से उसकी अनुपस्थित स्मृति स्थापित नहीं होती; असमाहित चित्त को समाधि नहीं मिलती; अक्षीण आस्रवों का क्षय नहीं होता; अप्राप्त योगबन्धन से अनुत्तर राहत प्राप्त नहीं होती है।

किन्तु, जो प्रवज्जित जीवन की आवश्यकताएँ हैं — जैसे, चीवर, भिक्षान्न, आवास, और रोगावश्यक औषधि और भैषज्य — उनकी आपूर्ति होती हैं।

तब, भिक्षुओं, उस भिक्षु को चिंतन करना चाहिए, “मैं इस व्यक्ति का निश्रय लेकर विहार कर रहा हूँ। किन्तु इस व्यक्ति का निश्रय लेकर विहार करने से मेरी अनुपस्थित स्मृति स्थापित नहीं हो रही; असमाहित चित्त को समाधि नहीं मिल रही; अक्षीण आस्रवों का क्षय नहीं हो रहा; अप्राप्त योगबन्धन से अनुत्तर राहत प्राप्त नहीं हो रही है। किन्तु, जो प्रवज्जित जीवन की आवश्यकताएँ हैं — जैसे, चीवर, भिक्षान्न, आवास, और रोगावश्यक औषधि और भैषज्य — उनकी अच्छे से आपूर्ति हो रही हैं। किन्तु, मैं चीवर के लिए… भिक्षान्न के लिए… आवास के लिए… रोगावश्यक औषधि और भैषज्य के लिए घर से बेघर होकर प्रवज्जित नहीं हुआ। किन्तु इस व्यक्ति का निश्रय लेकर विहार करने से मेरी अनुपस्थित स्मृति स्थापित नहीं हो रही; असमाहित चित्त को समाधि नहीं मिल रही; अक्षीण आस्रवों का क्षय नहीं हो रहा; अप्राप्त योगबन्धन से अनुत्तर राहत प्राप्त नहीं हो रही है।”

इस तरह मूल्यांकन कर, भिक्षुओं, उस भिक्षु को उस व्यक्ति को बताकर, निकल जाना चाहिए, उससे बंधे रहना नहीं चाहिए।

अर्थपूर्ण लाभ

किन्तु, ऐसा भी होता है, भिक्षुओं, कोई भिक्षु किसी व्यक्ति का निश्रय लेकर विहार करता है। तब उस व्यक्ति का निश्रय लेकर विहार करने से उसकी अनुपस्थित स्मृति स्थापित होती है; असमाहित चित्त को समाधि मिलती है; अक्षीण आस्रवों का क्षय होता है; अप्राप्त योगबन्धन से अनुत्तर राहत प्राप्त होती है।

किन्तु, जो प्रवज्जित जीवन की आवश्यकताएँ हैं — जैसे, चीवर, भिक्षान्न, आवास, और रोगावश्यक औषधि और भैषज्य — उनकी आपूर्ति नहीं होती हैं।

तब, भिक्षुओं, उस भिक्षु को चिंतन करना चाहिए, “मैं इस व्यक्ति का निश्रय लेकर विहार कर रहा हूँ। और इस व्यक्ति का निश्रय लेकर विहार करने से मेरी अनुपस्थित स्मृति स्थापित हो रही है; असमाहित चित्त को समाधि मिल रही है; अक्षीण आस्रवों का क्षय हो रहा है; अप्राप्त योगबन्धन से अनुत्तर राहत प्राप्त हो रही है। किन्तु, जो प्रवज्जित जीवन की आवश्यकताएँ हैं — जैसे, चीवर, भिक्षान्न, आवास, और रोगावश्यक औषधि और भैषज्य — उनकी आपूर्ति नहीं हो रही हैं। किन्तु, मैं चीवर के लिए… भिक्षान्न के लिए… आवास के लिए… रोगावश्यक औषधि और भैषज्य के लिए घर से बेघर होकर प्रवज्जित नहीं हुआ। किन्तु, इस व्यक्ति का निश्रय लेकर विहार करने से मेरी अनुपस्थित स्मृति स्थापित हो रही है; असमाहित चित्त को समाधि मिल रही है; अक्षीण आस्रवों का क्षय हो रहा है; अप्राप्त योगबन्धन से अनुत्तर राहत प्राप्त हो रही है।”

इस तरह मूल्यांकन कर, भिक्षुओं, उस भिक्षु को उस व्यक्ति का निश्रय लेकर विहार करते रहना चाहिए, उसे छोड़ना नहीं चाहिए।

संपूर्ण लाभ

और, ऐसा भी होता है, भिक्षुओं, कोई भिक्षु किसी व्यक्ति का निश्रय लेकर विहार करता है। तब उस व्यक्ति का निश्रय लेकर विहार करने से उसकी अनुपस्थित स्मृति स्थापित होती है; असमाहित चित्त को समाधि मिलती है; अक्षीण आस्रवों का क्षय होता है; अप्राप्त योगबन्धन से अनुत्तर राहत प्राप्त होती है।

और, साथ ही, जो प्रवज्जित जीवन की आवश्यकताएँ हैं — जैसे, चीवर, भिक्षान्न, आवास, और रोगावश्यक औषधि और भैषज्य — उनकी भी अच्छे से आपूर्ति होती हैं।

तब, भिक्षुओं, उस भिक्षु को चिंतन करना चाहिए, “मैं इस व्यक्ति का निश्रय लेकर विहार कर रहा हूँ । और इस व्यक्ति का निश्रय लेकर विहार करने से मेरी अनुपस्थित स्मृति स्थापित हो रही है; असमाहित चित्त को समाधि मिल रही है; अक्षीण आस्रवों का क्षय हो रहा है; अप्राप्त योगबन्धन से अनुत्तर राहत प्राप्त हो रही है। और, साथ ही, जो प्रवज्जित जीवन की आवश्यकताएँ हैं — जैसे, चीवर, भिक्षान्न, आवास, और रोगावश्यक औषधि और भैषज्य — उनकी भी अच्छे से आपूर्ति हो रही हैं।”

भिक्षुओं, उस भिक्षु को जीवन भर उसी व्यक्ति से बंधे रहकर, उसी का निश्रय लेकर विहार करना चाहिए। भले ही जाने के लिए कहे, तब भी उसे छोड़ना नहीं चाहिए।"

भगवान ने ऐसा कहा। हर्षित होकर भिक्षुओं ने भगवान की बात का अभिनंदन किया।

सुत्र समाप्त।

Pali

१९०. एवं मे सुतं – एकं समयं भगवा सावत्थियं विहरति जेतवने अनाथपिण्डिकस्स आरामे। तत्र खो भगवा भिक्खू आमन्तेसि – ‘‘भिक्खवो’’ति। ‘‘भदन्ते’’ति ते भिक्खू भगवतो पच्‍चस्सोसुं। भगवा एतदवोच – ‘‘वनपत्थपरियायं वो, भिक्खवे, देसेस्सामि, तं सुणाथ, साधुकं मनसिकरोथ, भासिस्सामी’’ति। ‘‘एवं, भन्ते’’ति खो ते भिक्खू भगवतो पच्‍चस्सोसुं। भगवा एतदवोच –

१९१. ‘‘इध, भिक्खवे, भिक्खु अञ्‍ञतरं वनपत्थं उपनिस्साय विहरति। तस्स तं वनपत्थं उपनिस्साय विहरतो अनुपट्ठिता चेव सति न उपट्ठाति, असमाहितञ्‍च चित्तं न समाधियति, अपरिक्खीणा च आसवा न परिक्खयं गच्छन्ति, अननुप्पत्तञ्‍च अनुत्तरं योगक्खेमं नानुपापुणाति। ये च खो इमे पब्बजितेन जीवितपरिक्खारा समुदानेतब्बा – चीवरपिण्डपातसेनासनगिलानप्पच्‍चयभेसज्‍जपरिक्खारा – ते कसिरेन समुदागच्छन्ति। तेन, भिक्खवे, भिक्खुना इति पटिसञ्‍चिक्खितब्बं – ‘अहं खो इमं वनपत्थं उपनिस्साय विहरामि, तस्स मे इमं वनपत्थं उपनिस्साय विहरतो अनुपट्ठिता चेव सति न उपट्ठाति, असमाहितञ्‍च चित्तं न समाधियति, अपरिक्खीणा च आसवा न परिक्खयं गच्छन्ति, अननुप्पत्तञ्‍च अनुत्तरं योगक्खेमं नानुपापुणामि। ये च खो इमे पब्बजितेन जीवितपरिक्खारा समुदानेतब्बा – चीवरपिण्डपातसेनासनगिलानप्पच्‍चयभेसज्‍जपरिक्खारा – ते कसिरेन समुदागच्छन्ती’ति। तेन, भिक्खवे, भिक्खुना रत्तिभागं वा दिवसभागं वा तम्हा वनपत्था पक्‍कमितब्बं, न वत्थब्बं।

१९२. ‘‘इध पन, भिक्खवे, भिक्खु अञ्‍ञतरं वनपत्थं उपनिस्साय विहरति। तस्स तं वनपत्थं उपनिस्साय विहरतो अनुपट्ठिता चेव सति न उपट्ठाति, असमाहितञ्‍च चित्तं न समाधियति, अपरिक्खीणा च आसवा न परिक्खयं गच्छन्ति, अननुप्पत्तञ्‍च अनुत्तरं योगक्खेमं नानुपापुणाति। ये च खो इमे पब्बजितेन जीवितपरिक्खारा समुदानेतब्बा – चीवरपिण्डपातसेनासनगिलानप्पच्‍चयभेसज्‍जपरिक्खारा – ते अप्पकसिरेन समुदागच्छन्ति। तेन , भिक्खवे, भिक्खुना इति पटिसञ्‍चिक्खितब्बं – ‘अहं खो इमं वनपत्थं उपनिस्साय विहरामि। तस्स मे इमं वनपत्थं उपनिस्साय विहरतो अनुपट्ठिता चेव सति न उपट्ठाति असमाहितञ्‍च चित्तं न समाधियति, अपरिक्खीणा च आसवा न परिक्खयं गच्छन्ति, अननुप्पत्तञ्‍च अनुत्तरं योगक्खेमं नानुपापुणामि। ये च खो इमे पब्बजितेन जीवितपरिक्खारा समुदानेतब्बा – चीवरपिण्डपातसेनासनगिलानप्पच्‍चयभेसज्‍जपरिक्खारा – ते अप्पकसिरेन समुदागच्छन्ति। न खो पनाहं चीवरहेतु अगारस्मा अनगारियं पब्बजितो न पिण्डपातहेतु…पे॰… न सेनासनहेतु…पे॰… न गिलानप्पच्‍चयभेसज्‍जपरिक्खारहेतु अगारस्मा अनगारियं पब्बजितो। अथ च पन मे इमं वनपत्थं उपनिस्साय विहरतो अनुपट्ठिता चेव सति न उपट्ठाति, असमाहितञ्‍च चित्तं न समाधियति, अपरिक्खीणा च आसवा न परिक्खयं गच्छन्ति, अननुप्पत्तञ्‍च अनुत्तरं योगक्खेमं नानुपापुणामी’ति। तेन, भिक्खवे, भिक्खुना सङ्खापि तम्हा वनपत्था पक्‍कमितब्बं, न वत्थब्बं।

१९३. ‘‘इध पन, भिक्खवे, भिक्खु अञ्‍ञतरं वनपत्थं उपनिस्साय विहरति। तस्स तं वनपत्थं उपनिस्साय विहरतो अनुपट्ठिता चेव सति उपट्ठाति, असमाहितञ्‍च चित्तं समाधियति, अपरिक्खीणा च आसवा परिक्खयं गच्छन्ति, अननुप्पत्तञ्‍च अनुत्तरं योगक्खेमं अनुपापुणाति। ये च खो इमे पब्बजितेन जीवितपरिक्खारा समुदानेतब्बा – चीवरपिण्डपातसेनासनगिलानप्पच्‍चयभेसज्‍जपरिक्खारा, ते कसिरेन समुदागच्छन्ति। तेन, भिक्खवे, भिक्खुना इति पटिसञ्‍चिक्खितब्बं – ‘अहं खो इमं वनपत्थं उपनिस्साय विहरामि। तस्स मे इमं वनपत्थं उपनिस्साय विहरतो अनुपट्ठिता चेव सति उपट्ठाति असमाहितञ्‍च चित्तं समाधियति, अपरिक्खीणा च आसवा परिक्खयं गच्छन्ति, अननुप्पत्तञ्‍च अनुत्तरं योगक्खेमं अनुपापुणामि। ये च खो इमे पब्बजितेन जीवितपरिक्खारा समुदानेतब्बा – चीवरपिण्डपातसेनासनगिलानप्पच्‍चयभेसज्‍जपरिक्खारा – ते कसिरेन समुदागच्छन्ति। न खो पनाहं चीवरहेतु अगारस्मा अनगारियं पब्बजितो, न पिण्डपातहेतु…पे॰… न सेनासनहेतु…पे॰… न गिलानप्पच्‍चयभेसज्‍जपरिक्खारहेतु अगारस्मा अनगारियं पब्बजितो । अथ च पन मे इमं वनपत्थं उपनिस्साय विहरतो अनुपट्ठिता चेव सति उपट्ठाति, असमाहितञ्‍च चित्तं समाधियति, अपरिक्खीणा च आसवा परिक्खयं गच्छन्ति, अननुप्पत्तञ्‍च अनुत्तरं योगक्खेमं अनुपापुणामी’ति। तेन, भिक्खवे, भिक्खुना सङ्खापि तस्मिं वनपत्थे वत्थब्बं, न पक्‍कमितब्बं।

१९४. ‘‘इध पन, भिक्खवे, भिक्खु अञ्‍ञतरं वनपत्थं उपनिस्साय विहरति। तस्स तं वनपत्थं उपनिस्साय विहरतो अनुपट्ठिता चेव सति उपट्ठाति, असमाहितञ्‍च चित्तं समाधियति, अपरिक्खीणा च आसवा परिक्खयं गच्छन्ति, अननुप्पत्तञ्‍च अनुत्तरं योगक्खेमं अनुपापुणाति। ये च खो इमे पब्बजितेन जीवितपरिक्खारा समुदानेतब्बा – चीवरपिण्डपातसेनासनगिलानप्पच्‍चयभेसज्‍जपरिक्खारा – ते अप्पकसिरेन समुदागच्छन्ति। तेन, भिक्खवे, भिक्खुना इति पटिसञ्‍चिक्खितब्बं – ‘अहं खो इमं वनपत्थं उपनिस्साय विहरामि। तस्स मे इमं वनपत्थं उपनिस्साय विहरतो अनुपट्ठिता चेव सति उपट्ठाति असमाहितञ्‍च चित्तं समाधियति, अपरिक्खीणा च आसवा परिक्खयं गच्छन्ति, अननुप्पत्तञ्‍च अनुत्तरं योगक्खेमं अनुपापुणामि। ये च खो इमे पब्बजितेन जीवितपरिक्खारा समुदानेतब्बा – चीवरपिण्डपातसेनासनगिलानप्पच्‍चयभेसज्‍जपरिक्खारा – ते अप्पकसिरेन समुदागच्छन्ती’ति । तेन, भिक्खवे, भिक्खुना यावजीवम्पि तस्मिं वनपत्थे वत्थब्बं, न पक्‍कमितब्बं।

१९५. ‘‘इध, भिक्खवे, भिक्खु अञ्‍ञतरं गामं उपनिस्साय विहरति …पे॰… अञ्‍ञतरं निगमं उपनिस्साय विहरति…पे॰… अञ्‍ञतरं नगरं उपनिस्साय विहरति…पे॰… अञ्‍ञतरं जनपदं उपनिस्साय विहरति…पे॰… अञ्‍ञतरं पुग्गलं उपनिस्साय विहरति। तस्स तं पुग्गलं उपनिस्साय विहरतो अनुपट्ठिता चेव सति न उपट्ठाति, असमाहितञ्‍च चित्तं न समाधियति, अपरिक्खीणा च आसवा न परिक्खयं गच्छन्ति, अननुप्पत्तञ्‍च अनुत्तरं योगक्खेमं नानुपापुणाति। ये च खो इमे पब्बजितेन जीवितपरिक्खारा समुदानेतब्बा – चीवरपिण्डपातसेनासनगिलानप्पच्‍चयभेसज्‍जपरिक्खारा – ते कसिरेन समुदागच्छन्ति। तेन, भिक्खवे, भिक्खुना इति पटिसञ्‍चिक्खितब्बं – ‘अहं खो इमं पुग्गलं उपनिस्साय विहरामि। तस्स मे इमं पुग्गलं उपनिस्साय विहरतो अनुपट्ठिता चेव सति न उपट्ठाति, असमाहितञ्‍च चित्तं न समाधियति, अपरिक्खीणा च आसवा न परिक्खयं गच्छन्ति, अननुप्पत्तञ्‍च अनुत्तरं योगक्खेमं नानुपापुणामि। ये च खो इमे पब्बजितेन जीवितपरिक्खारा समुदानेतब्बा – चीवरपिण्डपातसेनासनगिलानप्पच्‍चयभेसज्‍जपरिक्खारा – ते कसिरेन समुदागच्छन्ती’ति। तेन, भिक्खवे, भिक्खुना रत्तिभागं वा दिवसभागं वा सो पुग्गलो अनापुच्छा पक्‍कमितब्बं, नानुबन्धितब्बो।

१९६. ‘‘इध पन, भिक्खवे, भिक्खु अञ्‍ञतरं पुग्गलं उपनिस्साय विहरति। तस्स तं पुग्गलं उपनिस्साय विहरतो अनुपट्ठिता चेव सति न उपट्ठाति, असमाहितञ्‍च चित्तं न समाधियति, अपरिक्खीणा च आसवा न परिक्खयं गच्छन्ति, अननुप्पत्तञ्‍च अनुत्तरं योगक्खेमं नानुपापुणाति। ये च खो इमे पब्बजितेन जीवितपरिक्खारा समुदानेतब्बा – चीवरपिण्डपातसेनासनगिलानप्पच्‍चयभेसज्‍जपरिक्खारा, ते अप्पकसिरेन समुदागच्छन्ति। तेन, भिक्खवे, भिक्खुना इति पटिसञ्‍चिक्खितब्बं – ‘अहं खो इमं पुग्गलं उपनिस्साय विहरामि। तस्स मे इमं पुग्गलं उपनिस्साय विहरतो अनुपट्ठिता चेव सति न उपट्ठाति, असमाहितञ्‍च चित्तं न समाधियति, अपरिक्खीणा च आसवा न परिक्खयं गच्छन्ति, अननुप्पत्तञ्‍च अनुत्तरं योगक्खेमं नानुपापुणामि। ये च खो इमे पब्बजितेन जीवितपरिक्खारा समुदानेतब्बा – चीवरपिण्डपातसेनासनगिलानप्पच्‍चयभेसज्‍जपरिक्खारा – ते अप्पकसिरेन समुदागच्छन्ति। न खो पनाहं चीवरहेतु अगारस्मा अनगारियं पब्बजितो, न पिण्डपातहेतु…पे॰… न सेनासनहेतु…पे॰… न गिलानप्पच्‍चयभेसज्‍जपरिक्खारहेतु अगारस्मा अनगारियं पब्बजितो। अथ च पन मे इमं पुग्गलं उपनिस्साय विहरतो अनुपट्ठिता चेव सति न उपट्ठाति, असमाहितञ्‍च चित्तं न समाधियति, अपरिक्खीणा च आसवा न परिक्खयं गच्छन्ति, अननुप्पत्तञ्‍च अनुत्तरं योगक्खेमं नानुपापुणामी’ति। तेन, भिक्खवे, भिक्खुना सङ्खापि सो पुग्गलो आपुच्छा पक्‍कमितब्बं, नानुबन्धितब्बो।

१९७. ‘‘इध पन, भिक्खवे, भिक्खु अञ्‍ञतरं पुग्गलं उपनिस्साय विहरति। तस्स तं पुग्गलं उपनिस्साय विहरतो अनुपट्ठिता चेव सति उपट्ठाति, असमाहितञ्‍च चित्तं समाधियति, अपरिक्खीणा च आसवा परिक्खयं गच्छन्ति, अननुप्पत्तञ्‍च अनुत्तरं योगक्खेमं अनुपापुणाति। ये च खो इमे पब्बजितेन जीवितपरिक्खारा समुदानेतब्बा – चीवरपिण्डपातसेनासनगिलानप्पच्‍चयभेसज्‍जपरिक्खारा – ते कसिरेन समुदागच्छन्ति। तेन, भिक्खवे, भिक्खुना इति पटिसञ्‍चिक्खितब्बं – ‘अहं खो इमं पुग्गलं उपनिस्साय विहरामि। तस्स मे इमं पुग्गलं उपनिस्साय विहरतो अनुपट्ठिता चेव सति उपट्ठाति, असमाहितञ्‍च चित्तं समाधियति, अपरिक्खीणा च आसवा परिक्खयं गच्छन्ति, अननुप्पत्तञ्‍च अनुत्तरं योगक्खेमं अनुपापुणामि। ये च खो इमे पब्बजितेन जीवितपरिक्खारा समुदानेतब्बा – चीवरपिण्डपातसेनासनगिलानप्पच्‍चयभेसज्‍जपरिक्खारा – ते कसिरेन समुदागच्छन्ति। न खो पनाहं चीवरहेतु अगारस्मा अनगारियं पब्बजितो, न पिण्डपातहेतु…पे॰… न सेनासनहेतु…पे॰… न गिलानप्पच्‍चयभेसज्‍जपरिक्खारहेतु अगारस्मा अनगारियं पब्बजितो। अथ च पन मे इमं पुग्गलं उपनिस्साय विहरतो अनुपट्ठिता चेव सति उपट्ठाति, असमाहितञ्‍च चित्तं समाधियति, अपरिक्खीणा च आसवा परिक्खयं गच्छन्ति, अननुप्पत्तञ्‍च अनुत्तरं योगक्खेमं अनुपापुणामी’ति। तेन, भिक्खवे, भिक्खुना सङ्खापि सो पुग्गलो अनुबन्धितब्बो, न पक्‍कमितब्बं।

१९८. ‘‘इध पन, भिक्खवे, भिक्खु अञ्‍ञतरं पुग्गलं उपनिस्साय विहरति। तस्स तं पुग्गलं उपनिस्साय विहरतो अनुपट्ठिता चेव सति उपट्ठाति, असमाहितञ्‍च चित्तं समाधियति, अपरिक्खीणा च आसवा परिक्खयं गच्छन्ति , अननुप्पत्तञ्‍च अनुत्तरं योगक्खेमं अनुपापुणाति। ये च खो इमे पब्बजितेन जीवितपरिक्खारा समुदानेतब्बा – चीवरपिण्डपातसेनासनगिलानप्पच्‍चयभेसज्‍जपरिक्खारा – ते अप्पकसिरेन समुदागच्छन्ति। तेन, भिक्खवे, भिक्खुना इति पटिसञ्‍चिक्खितब्बं – ‘अहं खो इमं पुग्गलं उपनिस्साय विहरामि । तस्स मे इमं पुग्गलं उपनिस्साय विहरतो अनुपट्ठिता चेव सति उपट्ठाति, असमाहितञ्‍च चित्तं समाधियति, अपरिक्खीणा च आसवा परिक्खयं गच्छन्ति, अननुप्पत्तञ्‍च अनुत्तरं योगक्खेमं अनुपापुणामि। ये च खो इमे पब्बजितेन जीवितपरिक्खारा समुदानेतब्बा – चीवरपिण्डपातसेनासनगिलानप्पच्‍चयभेसज्‍जपरिक्खारा – ते अप्पकसिरेन समुदागच्छन्ती’ति। तेन, भिक्खवे, भिक्खुना यावजीवम्पि सो पुग्गलो अनुबन्धितब्बो, न पक्‍कमितब्बं, अपि पनुज्‍जमानेनपी’’ति अपि पणुज्‍जमानेनाति (?)।

इदमवोच भगवा। अत्तमना ते भिक्खू भगवतो भासितं अभिनन्दुन्ति।

वनपत्थसुत्तं निट्ठितं सत्तमं।