नमो तस्स भगवतो अरहतो सम्मा-सम्बुद्धस्स

📜 शहद का लड्डू

सूत्र परिचय

दण्डपाणि शाक्य, सैकड़ों वर्षों पश्चात लिखे महावंश २.१९ के अनुसार, सिद्धार्थ गोतम की जन्मदात्री माँ माया, पालनकर्ता माँ (मौसी) महापजापति, और ससुर सुप्पबुद्ध के भाई माने जाते हैं।

लेकिन ललितविस्तार १२.१५ के अनुसार, उन्हें ही सिद्धार्थ की पत्नी यशोधरा (या गोपा) के पिता के रूप में वर्णित किया गया है, जिनका मूल नाम सुप्पबुद्ध था। चूँकि वे हमेशा अपने हाथों में राजदंड लेकर चलते थे, इसलिए लोग उन्हें ‘दण्डपाणि’ (=हाथ में डंडा पकड़ने वाला) के नाम से पहचानते थे। हालाँकि प्रारंभिक सूत्रों (EBT) के अनुसार इसमें से किसी की पुष्टि नहीं होती।

लेकिन यदि ऐसा सत्य हो, तो पर्दे के पीछे ऐसा प्रतीत होता है कि दण्डपाणि के हृदय में बुद्ध के प्रति कोई विद्वेष पल रहा हो। जाहिर है, यदि उनका जन्म दण्डपाणि की एक बहन के जीवन की कीमत पर हुआ, तो दूसरी बहन उनके संन्यास लेने से शोकाकुल हो उठी। साथ ही, उन्होंने अपनी नवजात संतान और पत्नी (जो दण्डपाणि की पुत्री अथवा भतीजी थीं) को त्याग दिया था। तो यह विद्वेष स्वाभाविक भी प्रतीत होता है।

यहाँ दण्डपाणि, भगवान से एक डंडे पर टेक लेकर प्रश्न पूछते हैं। विनयपिटक में एक छोटा नियम है कि “जिसके हाथ में डंडा हो, उसे धर्म न सिखाया जाए।” यह इसीलिए, क्योंकि दण्ड एक प्रकार का शस्त्र भी है। और शस्त्रधारी को धर्म बताना धर्म का अपमान करना है। दण्डपाणि के विरोधात्मक व्यवहार के बावजूद, बुद्ध उन्हें ‘मित्र’ (“आवुस”) कहकर पुकारते हैं और विवाद छोड़ने पर बल देते हैं। जैसा कि वे दूसरे जगह भी कहते हैं —

“मैं जाकर इस दुनिया से विवाद नहीं करता। बल्कि यह दुनिया आकर मुझसे विवाद करती है।”

— संयुक्तनिकाय २२.९४

“अब संज्ञा नहीं सताती” — यह कथन विशेष रूप से केवल इसी प्रसंग में आया है। शायद इसका अर्थ हो कि बुद्ध अब भूतकाल (के रिश्तों) की स्मृतियों से बँधे नहीं हैं। संज्ञा वह प्रक्रिया है, जो वर्तमान को भूतकाल के आधार पर पहचानती है। इसलिए इसे “पहचान” भी कहा जाता है। शायद बुद्ध यह संकेत दे रहे हैं कि यदि दण्डपाणि अपने पूर्वग्रहों और स्मृतियों से मुक्त हों, तो वे भी अपने भीतर पल रहे वैर को त्याग सकते हैं।

यद्यपि बुद्ध उस क्षण संभावित टकराव को शांत कर देते हैं, फिर भी उनका कथन दण्डपाणि पर तुरंत प्रभाव नहीं डाल पाता। दण्डपाणि की मजेदार प्रतिक्रिया से यह बात स्पष्ट होती है।

✦ ॥ नमो तस्स भगवतो अरहतो सम्मासम्बुद्धस्स ॥ ✦

Hindi

ऐसा मैंने सुना — एक समय भगवान शाक्यों के साथ कपिलवस्तु के बरगद उद्यान में विहार कर रहे थे। तब सुबह होने पर भगवान ने चीवर ओढ़, पात्र लेकर, भिक्षाटन के लिए कपिलवस्तु में प्रवेश किया। वे कपिलवस्तु में भिक्षाटन कर, भोजन करने के पश्चात, दिन बिताने के लिए महावन गए। महावन में गहरे जाकर, दिन में ध्यान-विहार करने के लिए, छोटे बेल वृक्ष के नीचे बैठ गए।

तब दण्डपाणि शाक्य चहलकदमी कर घूमते हुए, टहलते हुए, महावन में गया। महावन में गहरे जाकर, वह छोटे बेल वृक्ष के पास, भगवान के पास गया। पास जाकर उसने भगवान से हालचाल पूछा। मैत्रीपूर्ण वार्तालाप कर, वह डंडे पर टेक लेकर, एक ओर खड़ा हुआ। एक ओर खड़े होकर, दण्डपाणि शाक्य ने भगवान से कहा, “श्रमण का क्या सिद्धान्त है, क्या दावा करते हैं?”

“मेरा सिद्धान्त ऐसा है, मित्र, कि जिसमें कोई — इस देव, मार, ब्रह्म, श्रमण, ब्राह्मण, राजा, और प्रजा से भरे इस दुनिया में — किसी से द्वंद नहीं करता। और, जो ब्राह्मण कामुकता से पृथक होकर विहार करता हो, ऐसे — उलझन से मुक्त, अनिश्चितता खत्म कर चुके, इस भव या उस भव के लिए तृष्णा-रहित — को अब संज्ञा नहीं सताती। ऐसा मेरा सिद्धान्त है, मित्र, ऐसा मेरा दावा है।”

जब ऐसा कहा गया, तब दण्डपाणि शाक्य ने सिर हिलाया, जीभ हिलायी, भौंहें चढ़ाकर माथे पर तीन शिकन डाली, और डंडे पर टेक लेता हुआ चला गया।

सायंकाल होने पर, भगवान एकांतवास से निकल कर बरगद उद्यान लौटे, और बिछे आसन पर बैठ गए। बैठकर भगवान ने भिक्षुओं को संबोधित किया (और महावन में घटित सब कुछ बताया।)

ऐसा कहे जाने पर, किसी भिक्षु ने भगवान से कहा, “किन्तु, भंते, भगवान का कैसा सिद्धान्त है, जिसमें कोई — इस देव, मार, ब्रह्म, श्रमण, ब्राह्मण, राजा, और प्रजा से भरे इस दुनिया में — किसी से द्वंद नहीं करता? और, जो ब्राह्मण कामुकता से पृथक होकर विहार करता हो, ऐसे — उलझन से मुक्त, अनिश्चितता खत्म कर चुके, इस भव या उस भव के लिए तृष्णा-रहित — को अब संज्ञा कैसे नहीं सताती?”

“भिक्षुओं, किसी पुरुष को संज्ञा प्रपंच का मूल्यांकन घेर लेता है। जहाँ से उसकी उत्पत्ति हो, यदि वहाँ उसे कुछ अभिनंदन करने योग्य, स्वागत करने योग्य, या आसक्त होने योग्य न मिले, तो वही राग अनुशय का अन्त है, वही प्रतिरोधी अनुशय का अन्त है, वही दृष्टि अनुशय का अन्त है, वही अनिश्चितता अनुशय का अन्त है, वही अहंभाव अनुशय का अन्त है, वही भवराग अनुशय का अन्त है, वही अविद्या अनुशय का अन्त है, और, वही डंडा या शस्त्र उठाना, झगड़ा, बहस, या विवाद करना, आरोप-प्रत्यारोप करना, फूट डालना और झूठ बोलने का अन्त है। यही पाप अकुशल स्वभाव बिना शेष बचे खत्म होते हैं।”

भगवान ने ऐसा कहा। ऐसा कहकर सुगत, आसन से उठ, अपने आवास चले गए।

कौन स्पष्ट करें?

भगवान जाने के कुछ समय पश्चात, भिक्षुओं को लगा, “मित्रों, भगवान ने संक्षिप्त सांकेतिक सार देकर, विस्तार से अर्थ को स्पष्ट न कर, उठकर आवास चले गए। कौन भगवान के इस संक्षिप्त सांकेतिक सार का अर्थ विस्तारपूर्वक स्पष्ट कर सकता है?”

तब भिक्षुओं को लगा, “ये आयुष्मान महाकच्चान 1 शास्ता के द्वारा प्रशंसित, और समझदार सब्रह्मचारियों के द्वारा (श्रेष्ठ) माने जाते हैं। आयुष्मान महाकच्चान भगवान के इस संक्षिप्त सांकेतिक सार का अर्थ विस्तारपूर्वक स्पष्ट कर सकते हैं। चलों, हम सब आयुष्मान महाकच्चान के पास जाए, और जाकर आयुष्मान महाकच्चान से इसका अर्थ पुछें।”

तब वे भिक्षुगण आयुष्मान महाकच्चान के पास गए, और जाकर आयुष्मान महाकच्चान से हालचाल पूछा, और मैत्रीपूर्ण वार्तालाप कर एक ओर बैठ गए। एक ओर बैठकर भिक्षुओं ने आयुष्मान महाकच्चान से (सब कुछ बताने पर) कहा, “… महाकच्चान इसका अर्थ विस्तार से बताएं।”

“मित्रों, जैसे कोई पुरुष सारकाष्ठ चाहता हो, वह सारकाष्ठ को ढूँढते हुए, सारकाष्ठ की खोज में उसे एक विशाल वृक्ष खड़ा मिले। किन्तु वह उसके सार को छोड़, अंतःकाष्ठ को छोड़, टहनियों और पत्तियों में सारकाष्ठ को ढूँढना उचित माने। 2

उसी तरह, मित्रों, आप आयुष्मानों के साथ हुआ। आप शास्ता के सम्मुख होकर भी भगवान को छोड़, मुझ से पुछना उचित मान रहे हो। मित्रों, वे भगवान हैं, जो जानते हैं, जो देखते हैं। वे चक्षु रूप, ज्ञान रूप, धर्म रूप, ब्रह्म रूप हैं! वे ही (धर्म के मूल) वक्ता (=व्यक्त करने वाले), प्रवक्ता (=दावा करने वाले), अर्थ को स्पष्ट करने वाले, अमृत के दाता, धर्म के स्वामी, तथागत हैं। वही समय उचित था, जब आप को भगवान के पास जाकर उसका अर्थ पुछना चाहिए था। जिस तरह भगवान व्याख्या करते, उसी तरह आप धारण करतें।”

“वाकई, कच्चान, वे भगवान हैं, जो जानते हैं, जो देखते हैं। वे चक्षु रूप, ज्ञान रूप, धर्म रूप, ब्रह्म रूप हैं! वे ही वक्ता, प्रवक्ता, अर्थ को स्पष्ट करने वाले, अमृत के दाता, धर्म के स्वामी, तथागत हैं। वही समय उचित था, जब हमें भगवान के पास जाकर उसका अर्थ पुछना चाहिए था। जिस तरह भगवान व्याख्या करते, उसी तरह हम धारण करतें। तब भी आयुष्मान महाकच्चान शास्ता के द्वारा प्रशंसित, और समझदार सब्रह्मचारियों के द्वारा माने जाते हैं। आयुष्मान महाकच्चान भगवान के इस संक्षिप्त सांकेतिक सार का अर्थ विस्तारपूर्वक स्पष्ट कर सकते हैं। यदि कष्ट न हो, महाकच्चान, तो तुम हमें इसका अर्थ विस्तार से बताओं।”

विस्तार से व्याख्या

“तब ठीक है, मित्रों, ध्यान देकर गौर से सुनों, मैं बताता हूँ!”

“ठीक है, मित्र।” भिक्षुओं ने आयुष्मान महाकच्चान को उत्तर दिया। आयुष्मान महाकच्चान ने कहा —

“मित्रों, भगवान ने इस संक्षिप्त सांकेतिक सार को देकर, विस्तार से अर्थ को स्पष्ट न कर, उठकर आवास चले गए — ‘किसी पुरुष को संज्ञा प्रपंच का मूल्यांकन घेर लेता है। जहाँ से उसकी उत्पत्ति हो, यदि वहाँ उसे कुछ अभिनंदन करने योग्य, स्वागत करने योग्य, या आसक्त होने योग्य न मिले, तो वही राग अनुशय का अन्त है, वही प्रतिरोधी अनुशय का अन्त है, वही दृष्टि अनुशय का अन्त है, वही अनिश्चितता अनुशय का अन्त है, वही अहंभाव अनुशय का अन्त है, वही भवराग अनुशय का अन्त है, वही अविद्या अनुशय का अन्त है, और, वही डंडा या शस्त्र उठाना, झगड़ा, बहस, या विवाद करना, आरोप-प्रत्यारोप करना, फूट डालना और झूठ बोलने का अन्त है। यही पाप अकुशल स्वभाव बिना शेष बचे खत्म होते हैं।’

मैं भगवान के इस संक्षिप्त सांकेतिक सार का, इस तरह विस्तार से अर्थ समझता हूँ —

आँख और रूप के आधार पर आँख का चैतन्य उत्पन्न होता है। तीनों का साथ मिलना (इंद्रिय) ‘संपर्क’ है। संपर्क से संवेदना (=अनुभूति) होती है। जो अनुभूति हो, उसे (किसी नजरिए से) पहचाना जाता है। जो पहचाना जाए, उसी का विचार करते हैं। जिसका विचार करते हो, उसी का प्रपंच 3 होता हैं। जिसका प्रपंच हो, उसी की उत्पत्ति से किसी पुरुष को संज्ञा प्रपंच का मूल्यांकन घेर लेता है। इस तरह, आँख के चैतन्य से रूप को जानते हुए भूत-भविष्य-वर्तमान (=त्रिकाल) में होता है।

(उसी तरह) —

  • कान और ध्वनि के आधार पर कान का चैतन्य उत्पन्न होता है…
  • नाक और गंध के आधार पर नाक का चैतन्य उत्पन्न होता है…
  • जीभ और स्वाद के आधार पर जीभ का चैतन्य उत्पन्न होता है…
  • काया और संस्पर्श के आधार पर काया का चैतन्य उत्पन्न होता है…
  • मन और स्वभाव के आधार पर मन का चैतन्य उत्पन्न होता है। तीनों का साथ मिलना संपर्क है। संपर्क से संवेदना होती है। जो अनुभूति हो, उसे पहचाना जाता है। जो पहचाना जाए, उसी का विचार करते हैं। जिसका विचार करते हो, उसी का प्रपंच होता हैं। जिसका प्रपंच हो, उसी की उत्पत्ति से किसी पुरुष को संज्ञा प्रपंच का मूल्यांकन घेर लेता है। इस तरह, मन के चैतन्य से स्वभाव को जानते हुए भूत-भविष्य-वर्तमान में भी होता है।

मित्रों, जहाँ आँख हो, रूप हो, आँख का चैतन्य हो — संभव है, वहीं ‘संपर्क’ का प्रकटीकरण भी दिखाया जा सकता है। जहाँ संपर्क का प्रकटीकरण हो — संभव है, वहीं संवेदना का प्रकटीकरण भी दिखाया जा सकता है। जहाँ संवेदना का प्रकटीकरण हो — संभव है, वहीं संज्ञा (=नजरिए) का प्रकटीकरण भी दिखाया जा सकता है। जहाँ संज्ञा का प्रकटीकरण हो — संभव है, वहीं विचारों का प्रकटीकरण भी दिखाया जा सकता है। जहाँ विचारों का प्रकटीकरण हो — संभव है, वहीं संज्ञा प्रपंच का मूल्यांकन घेरने का प्रकटीकरण भी दिखाया जा सकता है।

(उसी तरह) —

  • जहाँ कान हो, ध्वनि हो, कान का चैतन्य हो…
  • जहाँ नाक हो, गंध हो, नाक का चैतन्य हो…
  • जहाँ जीभ हो, स्वाद हो, जीभ का चैतन्य हो…
  • जहाँ काया हो, संस्पर्श हो, काया का चैतन्य हो…
  • जहाँ मन हो, स्वभाव हो, मन का चैतन्य हो — संभव है, वहीं ‘संपर्क’ का प्रकटीकरण भी दिखाया जा सकता है। जहाँ संपर्क का प्रकटीकरण हो — संभव है, वहीं संवेदना का प्रकटीकरण भी दिखाया जा सकता है। जहाँ संवेदना का प्रकटीकरण हो — संभव है, वहीं संज्ञा का प्रकटीकरण भी दिखाया जा सकता है। जहाँ संज्ञा का प्रकटीकरण हो — संभव है, वहीं विचारों का प्रकटीकरण भी दिखाया जा सकता है। जहाँ विचारों का प्रकटीकरण हो — संभव है, वहीं संज्ञा प्रपंच का मूल्यांकन घेरने का प्रकटीकरण भी दिखाया जा सकता है।

किन्तु, मित्रों, जहाँ आँख न हो, रूप न हो, आँख का चैतन्य न हो — वहाँ ‘संपर्क’ का प्रकटीकरण दिखाया जाना असंभव है। जहाँ संपर्क का प्रकटीकरण न हो — वहाँ संवेदना का प्रकटीकरण दिखाया जाना असंभव है। जहाँ संवेदना का प्रकटीकरण न हो — वहाँ संज्ञा का प्रकटीकरण दिखाया जाना असंभव है। जहाँ संज्ञा का प्रकटीकरण न हो — वहाँ विचारों का प्रकटीकरण दिखाया जाना असंभव है। जहाँ विचारों का प्रकटीकरण न हो — वहाँ संज्ञा प्रपंच का मूल्यांकन घेरने का प्रकटीकरण दिखाया जाना असंभव है।

(उसी तरह) —

  • जहाँ कान न हो, ध्वनि न हो, कान का चैतन्य न हो…
  • जहाँ नाक न हो, गंध न हो, नाक का चैतन्य न हो…
  • जहाँ जीभ न हो, स्वाद न हो, जीभ का चैतन्य न हो…
  • जहाँ काया न हो, संस्पर्श न हो, काया का चैतन्य न हो…
  • जहाँ मन न हो, स्वभाव न हो, मन का चैतन्य न हो — वहाँ ‘संपर्क’ का प्रकटीकरण दिखाया जाना असंभव है। जहाँ संपर्क का प्रकटीकरण न हो — वहाँ संवेदना का प्रकटीकरण दिखाया जाना असंभव है। जहाँ संवेदना का प्रकटीकरण न हो — वहाँ संज्ञा का प्रकटीकरण दिखाया जाना असंभव है। जहाँ संज्ञा का प्रकटीकरण न हो — वहाँ विचारों का प्रकटीकरण दिखाया जाना असंभव है। जहाँ विचारों का प्रकटीकरण न हो — वहाँ संज्ञा प्रपंच का मूल्यांकन घेरने का प्रकटीकरण दिखाया जाना असंभव है।

मित्रों, मैं इसी तरह भगवान के संक्षिप्त सांकेतिक सार का विस्तार से अर्थ समझता हूँ… यदि आप आयुष्मानों की इच्छा हो, तो भगवान के पास जाकर इसका अर्थ पुछें। जिस तरह भगवान व्याख्या करें, उसी तरह आप धारण करें।”

तब हर्षित होकर भिक्षुओं ने आयुष्मान महाकच्चान के कथन का अभिनंदन किया।

परीक्षण

वे भिक्षु आसन से उठकर भगवान के पास गए। और भगवान को अभिवादन कर एक ओर बैठ गए। एक ओर बैठकर उन भिक्षुओं ने भगवान (को सब कुछ बता दिया, और) से कहा, “…इस तरह, भंते, आयुष्मान महाकच्चान ने इस शैली में, इन शब्दों में, इन वाक्यों में अर्थ का विश्लेषण किया।”

(भगवान ने कहा,) “महाकच्चान पंडित है, भिक्षुओं। महाकच्चान महाप्रज्ञावान है, भिक्षुओं। यदि तुम (पहले) मुझसे उसका अर्थ पुछते, तो मैं ठीक उसी तरह उत्तर देता, जिस तरह महाकच्चान ने उत्तर दिया है। यही उसका अर्थ है। इसे ठीक इसी तरह धारण करों।”

जब ऐसा कहा गया, तब आयुष्मान आनन्द ने भगवान से कहा, “भंते, जैसे किसी भूख-प्यास से दुर्बल पुरुष को शहद का लड्डू (“मधुपिण्डिक”) प्राप्त हो जाए! उसे वह जहाँ-जहाँ से चखेगा, उसे वहाँ-वहाँ मीठा और स्वादिष्ट लगेगा। उसी तरह, भंते, यदि कोई सच्चा और सक्षम भिक्षु इस धर्म उपदेश के अर्थ का प्रज्ञापूर्वक परीक्षण करे, तो उसे फलस्वरूप केवल प्रसन्नता ही मिलेगी, चित्त की आस्थापूर्ण स्पष्टता ही प्राप्त होगी! क्या नाम है, भंते, इस धर्म उपदेश का?”

“ठीक है, आनन्द, तब इस धर्म उपदेश को तुम ‘शहद का लड्डू उपदेश’ के तौर पर धारण करो।”

भगवान ने ऐसा कहा। हर्षित होकर आयुष्मान आनन्द ने भगवान के कथन का अभिनंदन किया।

सुत्र समाप्त।


  1. आयुष्मान महाकच्चान (महाकच्चायन) भगवान बुद्ध के अग्र शिष्यों में एक थे, जिन्हें विशेष रूप से संक्षिप्त उपदेशों को विस्तारपूर्वक और गहन विश्लेषण के साथ समझाने में सर्वश्रेष्ठ माना जाता था। उनकी व्याख्याओं में गहराई के साथ व्यावहारिक मार्गदर्शन भी होता था। वे बुद्ध के संक्षिप्त वचनों को जीवंत रूप देते थे, ताकि श्रोता मात्र सुनकर ही न रह जाए, बल्कि प्रत्यक्ष रूप से उसे देख-समझ सकें। अंगुत्तरनिकाय १.१४ में भगवान उन्हें “संक्षेप को विस्तार से और विस्तार को संक्षेप में करने में सबसे अग्र” पुकारा है।

    बाद में महाकच्चान भंते अवंति देश (वर्तमान का मध्यप्रदेश) में जाकर स्थायी रूप से रहने लगे। विनयपिटक (महावग्ग, ८.१) में उल्लेख है कि जब बुद्ध ने वहाँ धर्म प्रचार के लिए भिक्षुओं को भेजने का विचार किया, तो महाकच्चान ने स्वयं उस क्षेत्र की यात्रा का संकल्प लिया। उस समय अवंति, उज्जयिनी (उज्जैन) और आस-पास का प्रदेश दूर-दराज़ माना जाता था, जहाँ संघ की उपस्थिति नहीं थी। महाकच्चान ने वहाँ दीर्घकाल तक रहकर स्थानीय लोगों को उपदेश दिया, भिक्षु-संघ की स्थापना की, और बुद्ध-वचन को उस प्रदेश में दृढ़ किया।

    कहा जाता हैं कि उनके ही प्रयास से अवंति महत्वपूर्ण बौद्ध केंद्र बना, जहाँ से आगे चलकर धर्म का प्रसार पश्चिमी और दक्षिणी भारत में हुआ। इस प्रकार, वे केवल गहन उपदेशों के व्याख्याता ही नहीं, बल्कि दूरस्थ और कठिन क्षेत्रों में धर्म-संस्थापक के रूप में भी विख्यात हुए। ↩︎

  2. सारकाष्ठ — यह पेड़ के मुख्य स्कन्ध या तने का सबसे भीतरी, ठोस, मजबूत और गाढ़ा भाग होता है। यही पेड़ को मजबूती देता है। यह अक्सर गहरे रंग का होता है। इसे पेड़ का “सार” भी कहते हैं, “मज्जा” भी कहते हैं। अँग्रेजी में ‘हार्टवूड’। इसी से फ़र्निचर बनाया जाता है।

    अंतःकाष्ठ — यह सारकाष्ठ और छाल के बीच का अपेक्षाकृत मृदु हिस्सा होता है। इसमें जीवित कोशिकाएँ होती है, जिनसे जल और पोषण ऊपर पत्तियों तक पहुँचता है। यह रंग में अपेक्षाकृत हल्का होता है। इसे “अन्तरकाष्ठ” भी कहते हैं। अँग्रेजी में ‘सैपवूड’। ↩︎

  3. प्रपंच के बारे में जानने के लिए पढ़ें — “प्रपंच शब्दावली” ↩︎

Pali

१९९. एवं मे सुतं – एकं समयं भगवा सक्‍केसु विहरति कपिलवत्थुस्मिं निग्रोधारामे। अथ खो भगवा पुब्बण्हसमयं निवासेत्वा पत्तचीवरमादाय कपिलवत्थुं पिण्डाय पाविसि। कपिलवत्थुस्मिं पिण्डाय चरित्वा पच्छाभत्तं पिण्डपातपटिक्‍कन्तो येन महावनं तेनुपसङ्कमि दिवाविहाराय। महावनं अज्झोगाहेत्वा बेलुवलट्ठिकाय मूले दिवाविहारं निसीदि। दण्डपाणिपि खो सक्‍को जङ्घाविहारं जङ्घविहारं (क॰) अनुचङ्कममानो अनुविचरमानो येन महावनं तेनुपसङ्कमि। महावनं अज्झोगाहेत्वा येन बेलुवलट्ठिका येन भगवा तेनुपसङ्कमि; उपसङ्कमित्वा भगवता सद्धिं सम्मोदि। सम्मोदनीयं कथं सारणीयं वीतिसारेत्वा दण्डमोलुब्भ एकमन्तं अट्ठासि। एकमन्तं ठितो खो दण्डपाणि सक्‍को भगवन्तं एतदवोच – ‘‘किंवादी समणो किमक्खायी’’ति? ‘‘यथावादी खो, आवुसो, सदेवके लोके समारके सब्रह्मके सस्समणब्राह्मणिया पजाय सदेवमनुस्साय न केनचि लोके विग्गय्ह तिट्ठति, यथा च पन कामेहि विसंयुत्तं विहरन्तं तं ब्राह्मणं अकथंकथिं छिन्‍नकुक्‍कुच्‍चं भवाभवे वीततण्हं सञ्‍ञा नानुसेन्ति – एवंवादी खो अहं, आवुसो, एवमक्खायी’’ति।

‘‘एवं वुत्ते दण्डपाणि सक्‍को सीसं ओकम्पेत्वा , जिव्हं निल्‍लाळेत्वा, तिविसाखं नलाटिकं नलाटे वुट्ठापेत्वा दण्डमोलुब्भ पक्‍कामि।

२००. अथ खो भगवा सायन्हसमयं पटिसल्‍लाना वुट्ठितो येन निग्रोधारामो तेनुपसङ्कमि; उपसङ्कमित्वा पञ्‍ञत्ते आसने निसीदि। निसज्‍ज खो भगवा भिक्खू आमन्तेसि – ‘‘इधाहं, भिक्खवे, पुब्बण्हसमयं निवासेत्वा पत्तचीवरमादाय कपिलवत्थुं पिण्डाय पाविसिं। कपिलवत्थुस्मिं पिण्डाय चरित्वा पच्छाभत्तं पिण्डपातपटिक्‍कन्तो येन महावनं तेनुपसङ्कमिं दिवाविहाराय। महावनं अज्झोगाहेत्वा बेलुवलट्ठिकाय मूले दिवाविहारं निसीदिं। दण्डपाणिपि खो, भिक्खवे, सक्‍को जङ्घाविहारं अनुचङ्कममानो अनुविचरमानो येन महावनं तेनुपसङ्कमि। महावनं अज्झोगाहेत्वा येन बेलुवलट्ठिका येनाहं तेनुपसङ्कमि; उपसङ्कमित्वा मया सद्धिं सम्मोदि। सम्मोदनीयं कथं सारणीयं वीतिसारेत्वा दण्डमोलुब्भ एकमन्तं अट्ठासि। एकमन्तं ठितो खो, भिक्खवे, दण्डपाणि सक्‍को मं एतदवोच – ‘किंवादी समणो किमक्खायी’ति?

‘‘एवं वुत्ते अहं, भिक्खवे, दण्डपाणिं सक्‍कं एतदवोचं – यथावादी खो, आवुसो, सदेवके लोके समारके सब्रह्मके सस्समणब्राह्मणिया पजाय सदेवमनुस्साय न केनचि लोके विग्गय्ह तिट्ठति, यथा च पन कामेहि विसंयुत्तं विहरन्तं तं ब्राह्मणं अकथंकथिं छिन्‍नकुक्‍कुच्‍चं भवाभवे वीततण्हं सञ्‍ञा नानुसेन्ति – एवंवादी खो अहं, आवुसो, एवमक्खायी’’ति। ‘‘एवं वुत्ते भिक्खवे, दण्डपाणि सक्‍को सीसं ओकम्पेत्वा, जिव्हं निल्‍लाळेत्वा, तिविसाखं नलाटिकं नलाटे वुट्ठापेत्वा दण्डमोलुब्भ पक्‍कामी’’ति।

२०१. एवं वुत्ते अञ्‍ञतरो भिक्खु भगवन्तं एतदवोच – ‘‘किंवादी पन, भन्ते, भगवा सदेवके लोके समारके सब्रह्मके सस्समणब्राह्मणिया पजाय सदेवमनुस्साय न केनचि लोके विग्गय्ह तिट्ठति? कथञ्‍च पन, भन्ते, भगवन्तं कामेहि विसंयुत्तं विहरन्तं तं ब्राह्मणं अकथंकथिं छिन्‍नकुक्‍कुच्‍चं भवाभवे वीततण्हं सञ्‍ञा नानुसेन्ती’’ति? ‘‘यतोनिदानं, भिक्खु, पुरिसं पपञ्‍चसञ्‍ञासङ्खा समुदाचरन्ति। एत्थ चे नत्थि अभिनन्दितब्बं अभिवदितब्बं अज्झोसितब्बं। एसेवन्तो रागानुसयानं, एसेवन्तो पटिघानुसयानं, एसेवन्तो दिट्ठानुसयानं , एसेवन्तो विचिकिच्छानुसयानं, एसेवन्तो मानानुसयानं, एसेवन्तो भवरागानुसयानं, एसेवन्तो अविज्‍जानुसयानं, एसेवन्तो दण्डादान-सत्थादान-कलह-विग्गह-विवाद-तुवंतुवं-पेसुञ्‍ञ-मुसावादानं। एत्थेते पापका अकुसला धम्मा अपरिसेसा निरुज्झन्ती’ति। इदमवोच भगवा। इदं वत्वान सुगतो उट्ठायासना विहारं पाविसि।

२०२. अथ खो तेसं भिक्खूनं अचिरपक्‍कन्तस्स भगवतो एतदहोसि – ‘‘इदं खो नो, आवुसो, भगवा संखित्तेन उद्देसं उद्दिसित्वा, वित्थारेन अत्थं अविभजित्वा, उट्ठायासना विहारं पविट्ठो – ‘यतोनिदानं, भिक्खु, पुरिसं पपञ्‍चसञ्‍ञासङ्खा समुदाचरन्ति। एत्थ चे नत्थि अभिनन्दितब्बं अभिवदितब्बं अज्झोसितब्बं। एसेवन्तो रागानुसयानं…पे॰… एत्थेते पापका अकुसला धम्मा अपरिसेसा निरुज्झन्ती’ति । को नु खो इमस्स भगवता संखित्तेन उद्देसस्स उद्दिट्ठस्स वित्थारेन अत्थं अविभत्तस्स वित्थारेन अत्थं विभजेय्या’’ति? अथ खो तेसं भिक्खूनं एतदहोसि – ‘‘अयं खो आयस्मा महाकच्‍चानो सत्थु चेव संवण्णितो सम्भावितो च विञ्‍ञूनं सब्रह्मचारीनं। पहोति चायस्मा महाकच्‍चानो इमस्स भगवता संखित्तेन उद्देसस्स उद्दिट्ठस्स वित्थारेन अत्थं अविभत्तस्स वित्थारेन अत्थं विभजितुं। यंनून मयं येनायस्मा महाकच्‍चानो तेनुपसङ्कमेय्याम; उपसङ्कमित्वा आयस्मन्तं महाकच्‍चानं एतमत्थं पटिपुच्छेय्यामा’’ति।

अथ खो ते भिक्खू येनायस्मा महाकच्‍चानो तेनुपसङ्कमिंसु; उपसङ्कमित्वा आयस्मता महाकच्‍चानेन सद्धिं सम्मोदिंसु। सम्मोदनीयं कथं सारणीयं वीतिसारेत्वा एकमन्तं निसीदिंसु। एकमन्तं निसिन्‍ना खो ते भिक्खू आयस्मन्तं महाकच्‍चानं एतदवोचुं – ‘‘इदं खो नो, आवुसो कच्‍चान, भगवा संखित्तेन उद्देसं उद्दिसित्वा वित्थारेन अत्थं अविभजित्वा उट्ठायासना विहारं पविट्ठो – ‘यतोनिदानं, भिक्खु, पुरिसं पपञ्‍चसञ्‍ञासङ्खा समुदाचरन्ति। एत्थ चे नत्थि अभिनन्दितब्बं अभिवदितब्बं अज्झोसितब्बं। एसेवन्तो रागानुसयानं…पे॰… एत्थेते पापका अकुसला धम्मा अपरिसेसा निरुज्झन्ती’ति। तेसं नो, आवुसो कच्‍चान, अम्हाकं अचिरपक्‍कन्तस्स भगवतो एतदहोसि – ‘इदं खो नो, आवुसो, भगवा संखित्तेन उद्देसं उद्दिसित्वा वित्थारेन अत्थं अविभजित्वा उट्ठायासना विहारं पविट्ठो – ‘‘यतोनिदानं, भिक्खु, पुरिसं पपञ्‍चसञ्‍ञासङ्खा समुदाचरन्ति। एत्थ चे नत्थि अभिनन्दितब्बं अभिवदितब्बं अज्झोसितब्बं। एसेवन्तो रागानुसयानं…पे॰… एत्थेते पापका अकुसला धम्मा अपरिसेसा निरुज्झन्ती’’ति। को नु खो इमस्स भगवता संखित्तेन उद्देसस्स उद्दिट्ठस्स वित्थारेन अत्थं अविभत्तस्स वित्थारेन अत्थं विभजेय्याति? तेसं नो, आवुसो कच्‍चान, अम्हाकं एतदहोसि – ‘अयं खो आयस्मा महाकच्‍चानो सत्थु चेव संवण्णितो सम्भावितो च विञ्‍ञूनं सब्रह्मचारीनं, पहोति चायस्मा महाकच्‍चानो इमस्स भगवता संखित्तेन उद्देसस्स उद्दिट्ठस्स वित्थारेन अत्थं अविभत्तस्स वित्थारेन अत्थं विभजितुं। यंनून मयं येनायस्मा महाकच्‍चानो तेनुपसङ्कमेय्याम; उपसङ्कमित्वा आयस्मन्तं महाकच्‍चानं एतमत्थं पटिपुच्छेय्यामा’ति। विभजतायस्मा महाकच्‍चानो’’ति।

२०३. ‘‘सेय्यथापि, आवुसो, पुरिसो सारत्थिको सारगवेसी सारपरियेसनं चरमानो महतो रुक्खस्स तिट्ठतो सारवतो अतिक्‍कम्मेव मूलं, अतिक्‍कम्म खन्धं, साखापलासे सारं परियेसितब्बं मञ्‍ञेय्य; एवंसम्पदमिदं आयस्मन्तानं सत्थरि सम्मुखीभूते, तं भगवन्तं अतिसित्वा , अम्हे एतमत्थं पटिपुच्छितब्बं मञ्‍ञथ। सो हावुसो, भगवा जानं जानाति, पस्सं पस्सति, चक्खुभूतो ञाणभूतो धम्मभूतो ब्रह्मभूतो, वत्ता पवत्ता, अत्थस्स निन्‍नेता, अमतस्स दाता, धम्मस्सामी तथागतो। सो चेव पनेतस्स कालो अहोसि, यं भगवन्तंयेव एतमत्थं पटिपुच्छेय्याथ। यथा वो भगवा ब्याकरेय्य तथा नं धारेय्याथा’’ति। ‘‘अद्धावुसो कच्‍चान, भगवा जानं जानाति, पस्सं पस्सति, चक्खुभूतो ञाणभूतो धम्मभूतो ब्रह्मभूतो, वत्ता पवत्ता, अत्थस्स निन्‍नेता, अमतस्स दाता, धम्मस्सामी तथागतो। सो चेव पनेतस्स कालो अहोसि, यं भगवन्तंयेव एतमत्थं पटिपुच्छेय्याम। यथा नो भगवा ब्याकरेय्य तथा नं धारेय्याम। अपि चायस्मा महाकच्‍चानो सत्थु चेव संवण्णितो सम्भावितो च विञ्‍ञूनं सब्रह्मचारीनं, पहोति चायस्मा महाकच्‍चानो इमस्स भगवता संखित्तेन उद्देसस्स उद्दिट्ठस्स वित्थारेन अत्थं अविभत्तस्स वित्थारेन अत्थं विभजितुं। विभजतायस्मा महाकच्‍चानो अगरुं कत्वा’’ति अगरुकत्वा (सी॰), अगरुकरित्वा (स्या॰ पी॰)। ‘‘तेन हावुसो, सुणाथ, साधुकं मनसिकरोथ, भासिस्सामी’’ति। ‘‘एवमावुसो’’ति खो ते भिक्खू आयस्मतो महाकच्‍चानस्स पच्‍चस्सोसुं। आयस्मा महाकच्‍चानो एतदवोच –

२०४. ‘‘यं खो नो, आवुसो, भगवा संखित्तेन उद्देसं उद्दिसित्वा वित्थारेन अत्थं अविभजित्वा उट्ठायासना विहारं पविट्ठो – ‘यतोनिदानं, भिक्खु, पुरिसं पपञ्‍चसञ्‍ञासङ्खा समुदाचरन्ति । एत्थ चे नत्थि अभिनन्दितब्बं अभिवदितब्बं अज्झोसितब्बं, एसेवन्तो रागानुसयानं…पे॰… एत्थेते पापका अकुसला धम्मा अपरिसेसा निरुज्झन्ती’ति, इमस्स खो अहं, आवुसो, भगवता संखित्तेन उद्देसस्स उद्दिट्ठस्स वित्थारेन अत्थं अविभत्तस्स एवं वित्थारेन अत्थं आजानामि –

‘‘चक्खुञ्‍चावुसो, पटिच्‍च रूपे च उप्पज्‍जति चक्खुविञ्‍ञाणं, तिण्णं सङ्गति फस्सो, फस्सपच्‍चया वेदना, यं वेदेति तं सञ्‍जानाति , यं सञ्‍जानाति तं वितक्‍केति, यं वितक्‍केति तं पपञ्‍चेति, यं पपञ्‍चेति ततोनिदानं पुरिसं पपञ्‍चसञ्‍ञासङ्खा समुदाचरन्ति अतीतानागतपच्‍चुप्पन्‍नेसु चक्खुविञ्‍ञेय्येसु रूपेसु। सोतञ्‍चावुसो, पटिच्‍च सद्दे च उप्पज्‍जति सोतविञ्‍ञाणं…पे॰… घानञ्‍चावुसो, पटिच्‍च गन्धे च उप्पज्‍जति घानविञ्‍ञाणं…पे॰… जिव्हञ्‍चावुसो, पटिच्‍च रसे च उप्पज्‍जति जिव्हाविञ्‍ञाणं…पे॰… कायञ्‍चावुसो, पटिच्‍च फोट्ठब्बे च उप्पज्‍जति कायविञ्‍ञाणं…पे॰… मनञ्‍चावुसो, पटिच्‍च धम्मे च उप्पज्‍जति मनोविञ्‍ञाणं, तिण्णं सङ्गति फस्सो, फस्सपच्‍चया वेदना, यं वेदेति तं सञ्‍जानाति, यं सञ्‍जानाति तं वितक्‍केति, यं वितक्‍केति तं पपञ्‍चेति, यं पपञ्‍चेति ततोनिदानं पुरिसं पपञ्‍चसञ्‍ञासङ्खा समुदाचरन्ति अतीतानागतपच्‍चुप्पन्‍नेसु मनोविञ्‍ञेय्येसु धम्मेसु।

‘‘सो वतावुसो, चक्खुस्मिं सति रूपे सति चक्खुविञ्‍ञाणे सति फस्सपञ्‍ञत्तिं पञ्‍ञापेस्सतीति – ठानमेतं विज्‍जति। फस्सपञ्‍ञत्तिया सति वेदनापञ्‍ञत्तिं पञ्‍ञापेस्सतीति – ठानमेतं विज्‍जति। वेदनापञ्‍ञत्तिया सति सञ्‍ञापञ्‍ञत्तिं पञ्‍ञापेस्सतीति – ठानमेतं विज्‍जति। सञ्‍ञापञ्‍ञत्तिया सति वितक्‍कपञ्‍ञत्तिं पञ्‍ञापेस्सतीति – ठानमेतं विज्‍जति। वितक्‍कपञ्‍ञत्तिया सति पपञ्‍चसञ्‍ञासङ्खासमुदाचरणपञ्‍ञत्तिं पञ्‍ञापेस्सतीति – ठानमेतं विज्‍जति। सो वतावुसो, सोतस्मिं सति सद्दे सति…पे॰… घानस्मिं सति गन्धे सति…पे॰… जिव्हाय सति रसे सति…पे॰… कायस्मिं सति फोट्ठब्बे सति…पे॰… मनस्मिं सति धम्मे सति मनोविञ्‍ञाणे सति फस्सपञ्‍ञत्तिं पञ्‍ञापेस्सतीति – ठानमेतं विज्‍जति। फस्सपञ्‍ञत्तिया सति वेदनापञ्‍ञत्तिं पञ्‍ञापेस्सतीति – ठानमेतं विज्‍जति। वेदनापञ्‍ञत्तिया सति सञ्‍ञापञ्‍ञत्तिं पञ्‍ञापेस्सतीति – ठानमेतं विज्‍जति। सञ्‍ञापञ्‍ञत्तिया सति वितक्‍कपञ्‍ञत्तिं पञ्‍ञापेस्सतीति – ठानमेतं विज्‍जति। वितक्‍कपञ्‍ञत्तिया सति पपञ्‍चसञ्‍ञासङ्खासमुदाचरणपञ्‍ञत्तिं पञ्‍ञापेस्सतीति – ठानमेतं विज्‍जति।

‘‘सो वतावुसो, चक्खुस्मिं असति रूपे असति चक्खुविञ्‍ञाणे असति फस्सपञ्‍ञत्तिं पञ्‍ञापेस्सतीति – नेतं ठानं विज्‍जति। फस्सपञ्‍ञत्तिया असति वेदनापञ्‍ञत्तिं पञ्‍ञापेस्सतीति – नेतं ठानं विज्‍जति। वेदनापञ्‍ञत्तिया असति सञ्‍ञापञ्‍ञत्तिं पञ्‍ञापेस्सतीति – नेतं ठानं विज्‍जति। सञ्‍ञापञ्‍ञत्तिया असति वितक्‍कपञ्‍ञत्तिं पञ्‍ञापेस्सतीति – नेतं ठानं विज्‍जति। वितक्‍कपञ्‍ञत्तिया असति पपञ्‍चसञ्‍ञासङ्खासमुदाचरणपञ्‍ञत्तिं पञ्‍ञापेस्सतीति – नेतं ठानं विज्‍जति। सो वतावुसो, सोतस्मिं असति सद्दे असति…पे॰… घानस्मिं असति गन्धे असति…पे॰… जिव्हाय असति रसे असति…पे॰… कायस्मिं असति फोट्ठब्बे असति…पे॰… मनस्मिं असति धम्मे असति मनोविञ्‍ञाणे असति फस्सपञ्‍ञत्तिं पञ्‍ञापेस्सतीति – नेतं ठानं विज्‍जति। फस्सपञ्‍ञत्तिया असति वेदनापञ्‍ञत्तिं पञ्‍ञापेस्सतीति – नेतं ठानं विज्‍जति। वेदनापञ्‍ञत्तिया असति सञ्‍ञापञ्‍ञत्तिं पञ्‍ञापेस्सतीति – नेतं ठानं विज्‍जति। सञ्‍ञापञ्‍ञत्तिया असति वितक्‍कपञ्‍ञत्तिं पञ्‍ञापेस्सतीति – नेतं ठानं विज्‍जति। वितक्‍कपञ्‍ञत्तिया असति पपञ्‍चसञ्‍ञासङ्खासमुदाचरणपञ्‍ञत्तिं पञ्‍ञापेस्सतीति – नेतं ठानं विज्‍जति।

‘‘यं खो नो, आवुसो, भगवा संखित्तेन उद्देसं उद्दिसित्वा वित्थारेन अत्थं अविभजित्वा उट्ठायासना विहारं पविट्ठो – ‘यतोनिदानं, भिक्खु, पुरिसं पपञ्‍चसञ्‍ञासङ्खा समुदाचरन्ति एत्थ चे नत्थि अभिनन्दितब्बं अभिवदितब्बं अज्झोसितब्बं एसेवन्तो रागानुसयानं…पे॰… एत्थेते पापका अकुसला धम्मा अपरिसेसा निरुज्झन्ती’ति, इमस्स खो अहं, आवुसो, भगवता संखित्तेन उद्देसस्स उद्दिट्ठस्स वित्थारेन अत्थं अविभत्तस्स एवं वित्थारेन अत्थं आजानामि। आकङ्खमाना च पन तुम्हे आयस्मन्तो भगवन्तंयेव उपसङ्कमित्वा एतमत्थं पटिपुच्छेय्याथ। यथा नो भगवा ब्याकरोति तथा नं धारेय्याथा’’ति।

२०५. अथ खो ते भिक्खू आयस्मतो महाकच्‍चानस्स भासितं अभिनन्दित्वा अनुमोदित्वा उट्ठायासना येन भगवा तेनुपसङ्कमिंसु; उपसङ्कमित्वा भगवन्तं अभिवादेत्वा एकमन्तं निसीदिंसु। एकमन्तं निसिन्‍ना खो ते भिक्खू भगवन्तं एतदवोचुं – ‘‘यं खो नो, भन्ते, भगवा संखित्तेन उद्देसं उद्दिसित्वा वित्थारेन अत्थं अविभजित्वा उट्ठायासना विहारं पविट्ठो – ‘यतोनिदानं, भिक्खु, पुरिसं पपञ्‍चसञ्‍ञासङ्खा समुदाचरन्ति। एत्थ चे नत्थि अभिनन्दितब्बं अभिवदितब्बं अज्झोसितब्बं। एसेवन्तो रागानुसयानं…पे॰… एत्थेते पापका अकुसला धम्मा अपरिसेसा निरुज्झन्ती’ति। तेसं नो, भन्ते, अम्हाकं अचिरपक्‍कन्तस्स भगवतो एतदहोसि – ‘इदं खो नो, आवुसो, भगवा संखित्तेन उद्देसं उद्दिसित्वा वित्थारेन अत्थं अविभजित्वा उट्ठायासना विहारं पविट्ठो – ‘‘यतोनिदानं, भिक्खु, पुरिसं पपञ्‍चसञ्‍ञासङ्खा समुदाचरन्ति। एत्थ चे नत्थि अभिनन्दितब्बं अभिवदितब्बं अज्झोसितब्बं। एसेवन्तो रागानुसयानं, एसेवन्तो पटिघानुसयानं, एसेवन्तो दिट्ठानुसयानं, एसेवन्तो विचिकिच्छानुसयानं, एसेवन्तो मानानुसयानं, एसेवन्तो भवरागानुसयानं , एसेवन्तो अविज्‍जानुसयानं, एसेवन्तो दण्डादान-सत्थादान-कलह-विग्गह-विवादतुवंतुवं-पेसुञ्‍ञ-मुसावादानं। एत्थेते पापका अकुसला धम्मा अपरिसेसा निरुज्झन्ती’’ति। को नु खो इमस्स भगवता संखित्तेन उद्देसस्स उद्दिट्ठस्स वित्थारेन अत्थं अविभत्तस्स वित्थारेन अत्थं विभजेय्या’ति? तेसं नो, भन्ते, अम्हाकं एतदहोसि – ‘अयं खो आयस्मा महाकच्‍चानो सत्थु चेव संवण्णितो सम्भावितो च विञ्‍ञूनं सब्रह्मचारीनं, पहोति चायस्मा महाकच्‍चानो इमस्स भगवता संखित्तेन उद्देसस्स उद्दिट्ठस्स वित्थारेन अत्थं अविभत्तस्स वित्थारेन अत्थं विभजितुं, यंनून मयं येनायस्मा महाकच्‍चानो तेनुपसङ्कमेय्याम; उपसङ्कमित्वा आयस्मन्तं महाकच्‍चानं एतमत्थं पटिपुच्छेय्यामा’ति। अथ खो मयं, भन्ते, येनायस्मा महाकच्‍चानो तेनुपसङ्कमिम्ह; उपसङ्कमित्वा आयस्मन्तं महाकच्‍चानं एतमत्थं पटिपुच्छिम्ह। तेसं नो, भन्ते, आयस्मता महाकच्‍चानेन इमेहि आकारेहि इमेहि पदेहि इमेहि ब्यञ्‍जनेहि अत्थो विभत्तो’’ति। ‘‘पण्डितो, भिक्खवे, महाकच्‍चानो; महापञ्‍ञो, भिक्खवे, महाकच्‍चानो। मं चेपि तुम्हे, भिक्खवे, एतमत्थं पटिपुच्छेय्याथ, अहम्पि तं एवमेवं ब्याकरेय्यं यथा तं महाकच्‍चानेन ब्याकतं। एसो चेवेतस्स अत्थो। एवञ्‍च एवेमेव च (क॰) नं धारेथा’’ति।

एवं वुत्ते आयस्मा आनन्दो भगवन्तं एतदवोच – ‘‘सेय्यथापि, भन्ते, पुरिसो जिघच्छादुब्बल्यपरेतो मधुपिण्डिकं अधिगच्छेय्य, सो यतो यतो सायेय्य, लभेथेव सादुरसं असेचनकं। एवमेव खो, भन्ते, चेतसो भिक्खु दब्बजातिको, यतो यतो इमस्स धम्मपरियायस्स पञ्‍ञाय अत्थं उपपरिक्खेय्य, लभेथेव अत्तमनतं, लभेथेव चेतसो पसादं। को नामो अयं को नामायं (स्या॰), भन्ते, धम्मपरियायो’’ति? ‘‘तस्मातिह त्वं, आनन्द, इमं धम्मपरियायं मधुपिण्डिकपरियायो त्वेव नं धारेही’’ति।

इदमवोच भगवा। अत्तमनो आयस्मा आनन्दो भगवतो भासितं अभिनन्दीति।

मधुपिण्डिकसुत्तं निट्ठितं अट्ठमं।