नमो तस्स भगवतो अरहतो सम्मा-सम्बुद्धस्स

📜 विचारों का विभाजन

सूत्र परिचय

बोधिसत्व ने अपने अकुशल चित्त और उत्पन्न होने वाले तरह-तरह के विचारों के बीच से, संबोधि की राह कैसे निकाली? वे कहते हैं कि उन्होंने अपने विचारों से निपटने के लिए पहले उनका विभाजन किया। उन्हें दो श्रेणियों में बांटा — एक तरफ वे अकुशल विचार थे जो कामुकता, दुर्भावना और हिंसा से भरे हुए थे, जिन्हें तुरंत छोड़ देना जरूरी था। दूसरी तरफ वे कुशल विचार थे जो निष्काम, दुर्भावना-रहित और अहिंसा से जुड़े थे। इन विचारों का इस्तेमाल ध्यान की दिशा में किया जा सकता था, लेकिन अंत में इन्हें भी छोड़ देना था, ताकि सम्यक समाधि की गहरी अवस्थाएँ प्राप्त हो सके।

ऐसा प्रतीत होता है कि विचारों को बांटने की साधना, बोधिसत्व के द्वारा अति मार्ग को त्यागने के बाद आत्मसात की गयी होगी। मज्झिमनिकाय ३६ में कहा गया है कि जब उन्होंने स्थूल आहार लेकर अपनी शारीरिक शक्ति को पुनः प्राप्त किया, तभी उन्होंने ध्यान और समाधि की अवस्थाओं को विकसित करना शुरू किया। यह इस विचारों को बांटने की साधना के तुरंत बाद ही घटित हुई होगी। हालांकि, वर्तमान सूत्र, और मज्झिमनिकाय १२८ में हुए उल्लेख, यह दर्शाते हैं कि इसमें कुछ समय लगा। यद्यपि यह स्पष्ट नहीं है कि यह समय कितना था।

यह उन कुछ सूत्रों में शामिल हैं, (जैसे, पिछला सूत्र मज्झिमनिकाय १८, अगला सूत्र मज्झिमनिकाय २० और अंगुत्तरनिकाय ३.१०१) जहाँ भगवान अपने विचारों से निपटने के अनूठे और प्रभावशाली तरीके बताते हैं।

हालांकि भगवान से पहले भी ध्यान की विभिन्न साधनाएँ, चार ध्यान अवस्थाएँ, और चार अरूप आयामों का उल्लेख किया गया है, लेकिन अपने विचारों के साथ इस प्रकार का व्यावहारिक और सटीक समाधान, जो ध्यान की गहरी अवस्था को प्राप्त करने का मार्ग प्रशस्त करता हो, कहीं और मिलना दुर्लभ है।

✦ ॥ नमो तस्स भगवतो अरहतो सम्मासम्बुद्धस्स ॥ ✦

Hindi

ऐसा मैंने सुना — एक समय भगवान श्रावस्ती में अनाथपिण्डक के जेतवन उद्यान में विहार कर रहे थे। वहाँ भगवान ने भिक्षुओं से कहा, “भिक्षुओं!"

“भदंत”, भिक्षुओं ने भगवान को उत्तर दिया। भगवान ने कहा —

“संबोधि से पहले, भिक्षुओं, जब मैं केवल एक अ-जागृत बोधिसत्व था, मुझे लगा, “क्यों न मैं अपने (विचार करने के) विषयों (“वितक्क”) को दो भागों में बांट-बांटकर विहार करूँ?”

भिक्षुओं, तब मैंने एक भाग में — कामुक विषयों, दुर्भावनापूर्ण विषयों, और हिंसक विषयों को रखा।

और, दूसरे भाग में — निष्काम विषयों, दुर्भावना-विहीन विषयों, और अहिंसक विषयों को रखा।

अकुशल विचार

तब, भिक्षुओं, मैं अप्रमत्त (=बिना मदहोश या लापरवाह हुए), तत्पर और दृढ़निश्चयी होकर विहार करते हुए, कामुक विषय उत्पन्न हुआ। सो मुझे पता चला, “मेरे भीतर कामुक विषय उत्पन्न हुआ है। इससे मुझे खुद को पीड़ा पहुँचती है, दूसरे को पीड़ा पहुँचती है, या दोनों को पीड़ा पहुँचती है। यह प्रज्ञा का निरोधी, बर्बादी के पक्ष का, निर्वाण के विपरीत पहुँचाने वाला है।”

भिक्षुओं, जब मैंने गौर किया, “इससे मुझे खुद को पीड़ा पहुँचती है”, तब वह (विचार) चला गया। जब मैंने गौर किया, “इससे दूसरे को पीड़ा पहुँचती है”, तब वह चला गया। जब मैंने गौर किया, “इससे दोनों को पीड़ा पहुँचती है”, तब वह चला गया। या जब मैंने गौर किया, “यह प्रज्ञा का निरोधी, बर्बादी के पक्ष का, निर्वाण के विपरीत पहुँचाने वाला है”, तब वह चला गया।

इस तरह, भिक्षुओं, मैंने बार-बार उत्पन्न होते कामुक विषयों को त्याग दिया, हटा दिया, दूर किया, अस्तित्व से मिटा दिया।

आगे, भिक्षुओं, मैं अप्रमत्त, तत्पर और दृढ़निश्चयी होकर विहार करते हुए, दुर्भावनापूर्ण विषय… हिंसक विषय उत्पन्न हुआ। सो मुझे पता चला, “मेरे भीतर दुर्भावनापूर्ण विषय… हिंसक विषय उत्पन्न हुआ है। इससे मुझे खुद को पीड़ा पहुँचती है, दूसरे को पीड़ा पहुँचती है, या दोनों को पीड़ा पहुँचती है। यह प्रज्ञा का निरोधी, बर्बादी के पक्ष का, निर्वाण के विपरीत पहुँचाने वाला है।”

भिक्षुओं, जब मैंने गौर किया, “इससे मुझे खुद को पीड़ा पहुँचती है”, तब वह चला गया। जब मैंने गौर किया, “इससे दूसरे को पीड़ा पहुँचती है”, तब वह चला गया। जब मैंने गौर किया, “इससे दोनों को पीड़ा पहुँचती है”, तब वह चला गया। या जब मैंने गौर किया, “यह प्रज्ञा का निरोधी, बर्बादी के पक्ष का, निर्वाण के विपरीत पहुँचाने वाला है”, तब वह चला गया।

इस तरह, भिक्षुओं, मैंने बार-बार उत्पन्न होते दुर्भावनापूर्ण विषयों… हिंसक विषयों को त्याग दिया, हटा दिया, दूर किया, अस्तित्व से मिटा दिया।

भिक्षुओं, जो भिक्षु जिस-जिस विषय पर बहुत सोचता है, विचार करता है, वही-वही उसके मानस का झुकाव बनता है।

यदि भिक्षु कामुक विषयों पर बहुत सोचता है, विचार करता है, तो वह निष्काम विषय को छोड़, कामुक विषयों को ही विकसित करता है। और, तब उसका चित्त कामुक विषयों पर ही झुकता है।

यदि भिक्षु दुर्भावनापूर्ण विषयों पर बहुत सोचता है, विचार करता है, तो वह दुर्भावना-विहीन विषय को छोड़, दुर्भावनापूर्ण विषयों को ही विकसित करता है। और, तब उसका चित्त दुर्भावनापूर्ण विषयों पर ही झुकता है।

और, यदि भिक्षु हिंसक विषयों पर बहुत सोचता है, विचार करता है, तो वह अहिंसक विषय को छोड़, हिंसक विषयों को ही विकसित करता है। और, तब उसका चित्त हिंसक विषयों पर ही झुकता है।

जैसे, भिक्षुओं, वर्षाकाल के अंतिम मास में, जब शरद ऋतु में फसल पक रही हो, तब गोपालक (=चरवाहा) अपने गायों को संभालता है। वह डंडे से गायों को इस दिशा या उस दिशा से थापता है, चुभोता है, रोकता है, नियंत्रित करता है। ऐसा क्यों? क्योंकि, (यदि गाय चर लें, तो) उसे उस कारणवश कोड़े, कारावास, दण्ड या भर्त्सना होना दिखायी देता है।

उसी तरह, भिक्षुओं, मुझे भी अकुशल स्वभावों में दुष्परिणाम, विकृति और दूषितता दिखायी दी, जबकि कुशल स्वभावों में निष्काम (=संन्यास) के पुरस्कार और पवित्र पक्ष दिखायी दिया।

कुशल विचार

आगे, भिक्षुओं, मैं अप्रमत्त, तत्पर और दृढ़निश्चयी होकर विहार करते हुए, निष्काम विषय उत्पन्न हुआ। सो मुझे पता चला, “मेरे भीतर निष्काम विषय उत्पन्न हुआ है। इससे मुझे खुद को पीड़ा नहीं पहुँचती, दूसरे को पीड़ा नहीं पहुँचती, या दोनों को पीड़ा नहीं पहुँचती है। यह प्रज्ञा की बढ़ोतरी, बर्बादी के विपक्ष का, निर्वाण तक पहुँचाने वाला है।

यदि मैं रात भर इस विषय पर सोचते रहूँ, विचार करते रहूँ, तब भी मुझे उस कारणवश कोई खतरा नहीं दिखायी देता। यदि मैं दिन भर इस विषय पर सोचते रहूँ, विचार करते रहूँ, तब भी मुझे उस कारणवश कोई खतरा नहीं दिखायी देता। यदि मैं रात-दिन इस विषय पर सोचते रहूँ, विचार करते रहूँ, तब भी मुझे उस कारणवश कोई खतरा नहीं दिखायी देता।

हालांकि बहुत देर तक सोचने से, विचार करने से मेरी काया थक जाएगी। और काया के थकने से चित्त पिटा जाता है। और पिटा चित्त समाधि से दूर होता है। तब, भिक्षुओं, मैंने अपने चित्त को भीतर से स्थिर किया, स्थापित किया, एकाग्र किया, समाहित किया। ऐसा क्यों? ताकि मेरा चित्त पिटा न जाए।

आगे, भिक्षुओं, मैं अप्रमत्त, तत्पर और दृढ़निश्चयी होकर विहार करते हुए, दुर्भावना-विहीन विषय… अहिंसक विषय उत्पन्न हुआ। सो मुझे पता चला, “मेरे भीतर दुर्भावना-विहीन विषय… अहिंसक विषय उत्पन्न हुआ है। इससे मुझे खुद को पीड़ा नहीं पहुँचती, दूसरे को पीड़ा नहीं पहुँचती, या दोनों को पीड़ा नहीं पहुँचती है। यह प्रज्ञा की बढ़ोतरी, बर्बादी के विपक्ष का, निर्वाण तक पहुँचाने वाला है।

यदि मैं रात भर इस विषय पर सोचते रहूँ, विचार करते रहूँ, तब भी मुझे उस कारणवश कोई खतरा नहीं दिखायी देता। यदि मैं दिन भर इस विषय पर सोचते रहूँ, विचार करते रहूँ, तब भी मुझे उस कारणवश कोई खतरा नहीं दिखायी देता। यदि मैं रात-दिन इस विषय पर सोचते रहूँ, विचार करते रहूँ, तब भी मुझे उस कारणवश कोई खतरा नहीं दिखायी देता।

हालांकि बहुत देर तक सोचने से, विचार करने से मेरी काया थक जाएगी। और काया के थकने से चित्त पिटा जाता है। और पिटा चित्त समाधि से दूर होता है। तब, भिक्षुओं, मैंने अपने चित्त को भीतर से स्थिर किया, स्थापित किया, एकाग्र किया, समाहित किया। ऐसा क्यों? ताकि मेरा चित्त पिटा न जाए।

भिक्षुओं, जो भिक्षु जिस-जिस विषय पर बहुत सोचता है, विचार करता है, वही-वही उसके मानस का झुकाव बनता है।

यदि भिक्षु निष्काम विषयों पर बहुत सोचता है, विचार करता है, तो वह कामुक विषय को छोड़, निष्काम विषयों को ही विकसित करता है। और, तब उसका चित्त निष्काम विषयों पर ही झुकता है।

यदि भिक्षु दुर्भावना-विहीन विषयों पर बहुत सोचता है, विचार करता है, तो वह दुर्भावनापूर्ण विषय को छोड़, दुर्भावना-विहीन विषयों को ही विकसित करता है। और, तब उसका चित्त दुर्भावना-विहीन विषयों पर ही झुकता है।

और, यदि भिक्षु अहिंसक विषयों पर बहुत सोचता है, विचार करता है, तो वह हिंसक विषय को छोड़, अहिंसक विषयों को ही विकसित करता है। और, तब उसका चित्त अहिंसक विषयों पर ही झुकता है।

जैसे, भिक्षुओं, ग्रीष्मकाल के अंतिम मास में, जब सारी फसल गाँव में इकट्ठा हो चुकी हो, तब गोपालक अपने गायों को संभालता है। बस, वह किसी पेड़ के तले या खुले आकाश के नीचे स्मृतिमान मात्र होता है, “गाएँ वहाँ हैं।'

उसी तरह, भिक्षुओं, मुझे भी स्मृतिमान मात्र होना था, ‘ये स्वभाव हैं।’

कुशल विचारों को लाँघना

भिक्षुओं, मेरी ऊर्जा जागृत और अथक थी। मेरी स्मृति उपस्थित और स्पष्ट थी। मेरी काया प्रशान्त और अनुत्तेजित थी। मेरा चित्त समाहित और एकाग्र था।

तब मैं कामुकता से निर्लिप्त, अकुशल-स्वभाव से निर्लिप्त, सोच और विचार 1 के साथ निर्लिप्तता से उपजे प्रफुल्लता और सुखपूर्ण प्रथम-ध्यान में प्रवेश पाकर रहा। आगे सोच एवं विचार के रुक जाने पर, भीतर आश्वस्त हुआ मानस एकरस होकर, बिना-सोच, बिना-विचार, समाधि से उपजे प्रफुल्लता और सुखपूर्ण द्वितीय-ध्यान में प्रवेश पाकर रहा। आगे प्रफुल्लता से विरक्त हो, स्मरणशील एवं सचेतता के साथ-साथ तटस्थता धारण कर शरीर से सुख महसूस किया। जिसे आर्यजन ‘तटस्थ, स्मरणशील, सुखविहारी’ कहते हैं, ऐसे तृतीय-ध्यान में प्रवेश पाकर रहा। और आगे, सुख एवं दर्द दोनों हटाकर, खुशी एवं परेशानी पूर्व ही विलुप्त होने पर, तटस्थता और स्मरणशीलता की परिशुद्धता के साथ, अब न-सुख-न-दर्द पूर्ण चतुर्थ-ध्यान में प्रवेश पाकर रहा।

जब मेरा चित्त इस तरह समाहित, परिशुद्ध, उज्ज्वल, बेदाग, निर्मल, मृदुल, काम करने-योग्य, स्थिर और अविचल हो गया, तब मैंने उस चित्त को पूर्वजन्मों का अनुस्मरण करने की ओर झुकाया। तो मुझे विविध प्रकार के पूर्वजन्म स्मरण होने लगे — जैसे एक जन्म, दो जन्म, तीन जन्म, चार, पाँच, दस जन्म, बीस, तीस, चालीस, पचास जन्म, सौ जन्म, हज़ार जन्म, लाख जन्म, कई कल्पों का लोक-संवर्त (=ब्रह्मांडिय सिकुड़न), कई कल्पों का लोक-विवर्त (=ब्रह्मांडिय विस्तार), कई कल्पों का संवर्त-विवर्त — ‘वहाँ मेरा ऐसा नाम था, ऐसा गोत्र था, ऐसा दिखता था। ऐसा भोज था, ऐसा सुख-दुःख महसूस हुआ, ऐसा जीवन अंत हुआ। उस लोक से च्युत होकर मैं वहाँ उत्पन्न हुआ। वहाँ मेरा वैसा नाम था, वैसा गोत्र था, वैसा दिखता था। वैसा भोज था, वैसा सुख-दुःख महसूस हुआ, वैसे जीवन अंत हुआ। उस लोक से च्युत होकर मैं यहाँ उत्पन्न हुआ।’ इस तरह मैंने अपने विविध प्रकार के पूर्वजन्म शैली एवं विवरण के साथ स्मरण किए।

मुझे इस प्रथम-ज्ञान का साक्षात्कार रात के प्रथम-पहर में हुआ। अविद्या नष्ट हुई, ज्ञान उत्पन्न हुआ! अँधेरा नष्ट हुआ, उजाला उत्पन्न हुआ! जैसे किसी अप्रमत्त, तत्पर और दृढ़निश्चयी के साथ होता है।

तब मैंने अपने समाहित, परिशुद्ध, उज्ज्वल, बेदाग, निर्मल, मृदुल, काम करने-योग्य, स्थिर और अविचल चित्त को सत्वों की गति जानने की ओर झुकाया। तब मुझे अपने विशुद्ध हुए अलौकिक दिव्यचक्षु से अन्य सत्वों की मौत और पुनर्जन्म होते हुए दिखा। और मुझे पता चला कि कर्मानुसार ही वे कैसे हीन अथवा उच्च हैं, सुंदर अथवा कुरूप हैं, सद्गति होते अथवा दुर्गति होते हैं। कैसे ये सत्व — काया दुराचार में संपन्न, वाणी दुराचार में संपन्न, एवं मन दुराचार में संपन्न, जिन्होंने आर्यजनों का अनादर किया, मिथ्यादृष्टि धारण की, और मिथ्यादृष्टि के प्रभाव में दुष्कृत्य किए — वे मरणोपरांत काया छूटने पर दुर्गति होकर यातनालोक नर्क में उपजे।’ किन्तु कैसे ये सत्व — काया सदाचार में संपन्न, वाणी सदाचार में संपन्न, एवं मन सदाचार में संपन्न, जिन्होंने आर्यजनों का अनादर नहीं किया, सम्यकदृष्टि धारण की, और सम्यकदृष्टि के प्रभाव में सुकृत्य किए — वे मरणोपरांत सद्गति होकर स्वर्ग में उपजे। इस तरह, मैंने अपने विशुद्ध हुए अलौकिक दिव्यचक्षु से अन्य सत्वों की मौत और पुनर्जन्म होते हुए देखा।

मुझे इस द्वितीय-ज्ञान का साक्षात्कार रात के मध्यम-पहर में हुआ। अविद्या नष्ट हुई, ज्ञान उत्पन्न हुआ! अँधेरा नष्ट हुआ, उजाला उत्पन्न हुआ! जैसे किसी अप्रमत्त, तत्पर और दृढ़निश्चयी के साथ होता है।

तब मैंने अपने समाहित, परिशुद्ध, उज्ज्वल, बेदाग, निर्मल, मृदुल, काम करने-योग्य, स्थिर और अविचल चित्त को आस्रव का क्षय जानने की ओर झुकाया। तब ‘दुःख’, मुझे यथास्वरूप पता चला। ‘दुःख की उत्पत्ति’, मुझे यथास्वरूप पता चली। ‘दुःख का निरोध’, मुझे यथास्वरूप पता चला। ‘दुःख का निरोधकर्ता मार्ग’, मुझे यथास्वरूप पता चला। ‘आस्रव’, मुझे यथास्वरूप पता चला। ‘आस्रव की उत्पत्ति’, मुझे यथास्वरूप पता चली। ‘आस्रव का निरोध’, मुझे यथास्वरूप पता चला। ‘आस्रव का निरोधकर्ता मार्ग’, मुझे यथास्वरूप पता चला। इस तरह जानने से, देखने से, मेरा चित्त कामुक-आस्रव से विमुक्त हुआ, अस्तित्व-आस्रव से विमुक्त हुआ, अविद्या-आस्रव से विमुक्त हुआ। विमुक्ति के साथ ज्ञान उत्पन्न हुआ, ‘विमुक्त हुआ!’ मुझे पता चला, ‘जन्म क्षीण हुए, ब्रह्मचर्य पूर्ण हुआ, काम समाप्त हुआ, आगे कोई काम बचा नहीं।’

मुझे इस तृतीय-ज्ञान का साक्षात्कार रात के अंतिम-पहर में हुआ। अविद्या नष्ट हुई, ज्ञान उत्पन्न हुआ! अँधेरा नष्ट हुआ, उजाला उत्पन्न हुआ! जैसे किसी अप्रमत्त, तत्पर और दृढ़निश्चयी के साथ होता है।

उपमा

कल्पना करो, भिक्षुओं, किसी घने जंगल में एक बड़ा दलदली इलाका हो। उसके आश्रय से हिरणों का एक विशाल झुंड विहार करता हो।

तब कोई पुरुष आता है, जो उनका अनर्थ करना चाहे, अहित करना चाहे, योगबन्धन से राहत न देना चाहे। वह उनके खुशियों तक पहुँचने का सुरक्षित और संरक्षित मार्ग को बंद कर दे, और गलत मार्ग को खोल दे। पालतू हिरण को उनके पीछे लगाए, और पालतू हिरणी का जाल बिछाए। ताकि, कुछ समय पश्चात, भिक्षुओं, हिरणों का वह विशाल झुंड तबाही और बर्बादी में गिर पड़े।

किन्तु, तब, भिक्षुओं, कोई दूसरा पुरुष आता है, जो उनकी भलाई चाहे, हित चाहे, योगबन्धन से राहत देना चाहे। वह उनके खुशियों तक पहुँचने का सुरक्षित और संरक्षित मार्ग को खोल दे, और गलत मार्ग को बंद कर दे। पालतू हिरण को पीटकर भगाए, और पालतू हिरणी का जाल तोड़ दे। ताकि, कुछ समय पश्चात, भिक्षुओं, हिरणों के उस विशाल झुंड की वृद्धि, समृद्धि और प्रगति हो।

भिक्षुओं, इस उपमा को मैंने (गहरा) अर्थ बताने के लिए बनाया है। उसका अर्थ यह है —

  • बड़ा दलदली इलाका — कामुकता के अर्थ से है
  • हिरणों का विशाल झुंड — (दुनिया के) सत्व के अर्थ से है
  • जो पुरुष उनका अनर्थ करना चाहे, अहित करना चाहे, योगबन्धन से राहत न देना चाहे — वह पापी मार के अर्थ से है
  • गलत मार्ग — मिथ्या अष्टांगिक मार्ग के अर्थ से है। अर्थात, गलत दृष्टि, गलत संकल्प, गलत वाणी, गलत कार्य, गलत जीविका, गलत प्रयास, गलत स्मृति, और गलत समाधि।
  • पालतू हिरण — दिलचस्पी और मजा (“नन्दीराग”) के अर्थ से है
  • पालतू हिरणी — अविद्या के अर्थ से है
  • जो पुरुष उनकी भलाई चाहे, हित चाहे, योगबन्धन से राहत देना चाहे — वह तथागत अरहंत सम्यक-सम्बुद्ध के अर्थ से है
  • खुशियों तक पहुँचने का सुरक्षित और संरक्षित मार्ग — आर्य अष्टांगिक मार्ग है। अर्थात, सम्यक दृष्टि, सम्यक संकल्प, सम्यक वाणी, सम्यक कार्य, सम्यक जीविका, सम्यक प्रयास, सम्यक स्मृति, और सम्यक समाधि।

तो, भिक्षुओं, मैंने खुशियों तक पहुँचने का सुरक्षित और संरक्षित मार्ग खोल दिया है। गलत मार्ग को बंद कर दिया है। पालतू हिरण को पीटकर भगा दिया है। पालतू हिरणी का जाल तोड़ दिया है। जो शास्ता को करना चाहिए — अपने शिष्यों का कल्याण चाहते हुए, उन पर अनुकंपा करते हुए — वह मैंने तुम्हारे लिए कर दिया। देखों, भिक्षुओं, वहाँ पेड़ों के तल हैं, वहाँ ख़ाली जगहें (शून्यागार) हैं। ध्यान करों, भिक्षुओं, लापरवाह मत बनो। फ़िर पश्चाताप मत करना। यह हमारा तुम्हें संदेश है।”

भगवान ने ऐसा कहा। हर्षित होकर भिक्षुओं ने भगवान की बात का अभिनंदन किया।

सुत्र समाप्त।


  1. प्रथम ध्यान-अवस्था का सोच और विचार (“वितक्क-विचार”) के साथ अनुभव होता है। किन्तु ध्यान एक “अधिचित्त” की अवस्था है, जहाँ सभी मानसिक प्रक्रियाएँ उच्चतम स्थिति में पहुँच जाती हैं। ‘निर्लिप्तता’ अब केवल शारीरिक अलगाव नहीं, बल्कि इन्द्रिय जगत से परे हटने की शुरुवात है। ‘प्रफुल्लता’ अब स्थूल मानसिक उत्तेजना नहीं, बल्कि निर्लिप्त स्थिति और एकाग्रचित्त से उत्पन्न होने वाला गहरा हर्ष है। ‘सुख’ अब इन्द्रिय आनंद नहीं, बल्कि निर्लिप्त और एकाग्र चित्त से उत्पन्न होने वाला सूक्ष्म सुख और शांति का अनुभव है। और ‘सोच और विचार’ अब शब्दों में विचार व्यक्त करने की प्रक्रिया नहीं, बल्कि चित्त को (चार स्मृतिप्रस्थान में से) किसी एक आलंबन पर स्थिर रखने की सूक्ष्म प्रक्रिया बन जाती है। आगे चलकर, इन सभी स्वभावों को धीरे-धीरे छोड़ते हुए, एक स्थिर और निराकार शांति की दिशा में प्रगति होती है। ↩︎

Pali

२०६. एवं मे सुतं – एकं समयं भगवा सावत्थियं विहरति जेतवने अनाथपिण्डिकस्स आरामे। तत्र खो भगवा भिक्खू आमन्तेसि – ‘‘भिक्खवो’’ति। ‘‘भदन्ते’’ति ते भिक्खू भगवतो पच्‍चस्सोसुं। भगवा एतदवोच –

‘‘पुब्बेव मे, भिक्खवे, सम्बोधा अनभिसम्बुद्धस्स बोधिसत्तस्सेव सतो एतदहोसि – ‘यंनूनाहं द्विधा कत्वा द्विधा कत्वा वितक्‍के विहरेय्य’न्ति। सो खो अहं, भिक्खवे, यो चायं कामवितक्‍को यो च ब्यापादवितक्‍को यो च विहिंसावितक्‍को – इमं एकं भागमकासिं ; यो चायं नेक्खम्मवितक्‍को यो च अब्यापादवितक्‍को यो च अविहिंसावितक्‍को – इमं दुतियं भागमकासिं।

२०७. ‘‘तस्स मय्हं, भिक्खवे, एवं अप्पमत्तस्स आतापिनो पहितत्तस्स विहरतो उप्पज्‍जति कामवितक्‍को। सो एवं पजानामि – ‘उप्पन्‍नो खो मे अयं कामवितक्‍को। सो च खो अत्तब्याबाधायपि संवत्तति, परब्याबाधायपि संवत्तति, उभयब्याबाधायपि संवत्तति, पञ्‍ञानिरोधिको विघातपक्खिको अनिब्बानसंवत्तनिको’ अनिब्बानसंवत्तनिको’’ति (?)। ‘अत्तब्याबाधाय संवत्तती’तिपि मे, भिक्खवे, पटिसञ्‍चिक्खतो अब्भत्थं गच्छति; ‘परब्याबाधाय संवत्तती’तिपि मे, भिक्खवे, पटिसञ्‍चिक्खतो अब्भत्थं गच्छति; ‘उभयब्याबाधाय संवत्तती’तिपि मे, भिक्खवे, पटिसञ्‍चिक्खतो अब्भत्थं गच्छति; ‘पञ्‍ञानिरोधिको विघातपक्खिको अनिब्बानसंवत्तनिको’तिपि मे, भिक्खवे, पटिसञ्‍चिक्खतो अब्भत्थं गच्छति। सो खो अहं, भिक्खवे, उप्पन्‍नुप्पन्‍नं कामवितक्‍कं पजहमेव अतीतकालिककिरियापदानियेव विनोदमेव अतीतकालिककिरियापदानियेव ब्यन्तमेव ब्यन्तेव (सी॰ स्या॰ पी॰) नं अकासिं।

२०८. ‘‘तस्स मय्हं, भिक्खवे, एवं अप्पमत्तस्स आतापिनो पहितत्तस्स विहरतो उप्पज्‍जति ब्यापादवितक्‍को…पे॰… उप्पज्‍जति विहिंसावितक्‍को। सो एवं पजानामि – ‘उप्पन्‍नो खो मे अयं विहिंसावितक्‍को। सो च खो अत्तब्याबाधायपि संवत्तति, परब्याबाधायपि संवत्तति, उभयब्याबाधायपि संवत्तति, पञ्‍ञानिरोधिको विघातपक्खिको अनिब्बानसंवत्तनिको’। ‘अत्तब्याबाधाय संवत्तती’तिपि मे, भिक्खवे, पटिसञ्‍चिक्खतो अब्भत्थं गच्छति; ‘परब्याबाधाय संवत्तती’तिपि मे, भिक्खवे, पटिसञ्‍चिक्खतो अब्भत्थं गच्छति; ‘उभयब्याबाधाय संवत्तती’तिपि मे, भिक्खवे, पटिसञ्‍चिक्खतो अब्भत्थं गच्छति; ‘पञ्‍ञानिरोधिको विघातपक्खिको अनिब्बानसंवत्तनिको’तिपि मे, भिक्खवे, पटिसञ्‍चिक्खतो अब्भत्थं गच्छति। सो खो अहं, भिक्खवे, उप्पन्‍नुप्पन्‍नं विहिंसावितक्‍कं पजहमेव विनोदमेव ब्यन्तमेव नं अकासिं।

‘‘यञ्‍ञदेव, भिक्खवे, भिक्खु बहुलमनुवितक्‍केति अनुविचारेति, तथा तथा नति होति चेतसो। कामवितक्‍कं चे, भिक्खवे, भिक्खु बहुलमनुवितक्‍केति अनुविचारेति, पहासि नेक्खम्मवितक्‍कं, कामवितक्‍कं बहुलमकासि, तस्स तं कामवितक्‍काय चित्तं नमति। ब्यापादवितक्‍कं चे, भिक्खवे…पे॰… विहिंसावितक्‍कं चे, भिक्खवे, भिक्खु बहुलमनुवितक्‍केति अनुविचारेति, पहासि अविहिंसावितक्‍कं, विहिंसावितक्‍कं बहुलमकासि, तस्स तं विहिंसावितक्‍काय चित्तं नमति। सेय्यथापि, भिक्खवे, वस्सानं पच्छिमे मासे सरदसमये किट्ठसम्बाधे गोपालको गावो रक्खेय्य। सो ता गावो ततो ततो दण्डेन आकोटेय्य पटिकोटेय्य सन्‍निरुन्धेय्य सन्‍निवारेय्य। तं किस्स हेतु? पस्सति हि सो, भिक्खवे, गोपालको ततोनिदानं वधं वा बन्धनं वा जानिं वा गरहं वा। एवमेव खो अहं, भिक्खवे, अद्दसं अकुसलानं धम्मानं आदीनवं ओकारं संकिलेसं, कुसलानं धम्मानं नेक्खम्मे आनिसंसं वोदानपक्खं।

२०९. ‘‘तस्स मय्हं, भिक्खवे, एवं अप्पमत्तस्स आतापिनो पहितत्तस्स विहरतो उप्पज्‍जति नेक्खम्मवितक्‍को। सो एवं पजानामि – ‘उप्पन्‍नो खो मे अयं नेक्खम्मवितक्‍को। सो च खो नेवत्तब्याबाधाय संवत्तति, न परब्याबाधाय संवत्तति, न उभयब्याबाधाय संवत्तति, पञ्‍ञावुद्धिको अविघातपक्खिको निब्बानसंवत्तनिको’। रत्तिं चेपि नं, भिक्खवे, अनुवितक्‍केय्यं अनुविचारेय्यं, नेव ततोनिदानं भयं समनुपस्सामि। दिवसं चेपि नं, भिक्खवे, अनुवितक्‍केय्यं अनुविचारेय्यं, नेव ततोनिदानं भयं समनुपस्सामि। रत्तिन्दिवं चेपि नं, भिक्खवे, अनुवितक्‍केय्यं अनुविचारेय्यं, नेव ततोनिदानं भयं समनुपस्सामि। अपि च खो मे अतिचिरं अनुवितक्‍कयतो अनुविचारयतो कायो किलमेय्य । काये किलन्ते किलमन्ते (क॰) चित्तं ऊहञ्‍ञेय्य। ऊहते चित्ते आरा चित्तं समाधिम्हाति। सो खो अहं, भिक्खवे, अज्झत्तमेव चित्तं सण्ठपेमि सन्‍निसादेमि एकोदिं करोमि एकोदि करोमि (पी॰) समादहामि। तं किस्स हेतु? ‘मा मे चित्तं ऊहञ्‍ञी’ति उग्घाटीति (स्या॰ क॰), ऊहनीति (पी॰)।

२१०. ‘‘तस्स मय्हं, भिक्खवे, एवं अप्पमत्तस्स आतापिनो पहितत्तस्स विहरतो उप्पज्‍जति अब्यापादवितक्‍को…पे॰… उप्पज्‍जति अविहिंसावितक्‍को। सो एवं पजानामि – ‘उप्पन्‍नो खो मे अयं अविहिंसावितक्‍को। सो च खो नेवत्तब्याबाधाय संवत्तति, न परब्याबाधाय संवत्तति, न उभयब्याबाधाय संवत्तति, पञ्‍ञावुद्धिको अविघातपक्खिको निब्बानसंवत्तनिको’। रत्तिं चेपि नं, भिक्खवे, अनुवितक्‍केय्यं अनुविचारेय्यं, नेव ततोनिदानं भयं समनुपस्सामि। दिवसं चेपि नं, भिक्खवे, अनुवितक्‍केय्यं अनुविचारेय्यं, नेव ततोनिदानं भयं समनुपस्सामि। रत्तिन्दिवं चेपि नं, भिक्खवे, अनुवितक्‍केय्यं अनुविचारेय्यं, नेव ततोनिदानं भयं समनुपस्सामि। अपि च खो मे अतिचिरं अनुवितक्‍कयतो अनुविचारयतो कायो किलमेय्य। काये किलन्ते चित्तं ऊहञ्‍ञेय्य। ऊहते चित्ते आरा चित्तं समाधिम्हाति। सो खो अहं, भिक्खवे, अज्झत्तमेव चित्तं सण्ठपेमि, सन्‍निसादेमि, एकोदिं करोमि समादहामि। तं किस्स हेतु? ‘मा मे चित्तं ऊहञ्‍ञी’ति।

‘‘यञ्‍ञदेव, भिक्खवे, भिक्खु बहुलमनुवितक्‍केति अनुविचारेति, तथा तथा नति होति चेतसो। नेक्खम्मवितक्‍कञ्‍चे, भिक्खवे, भिक्खु बहुलमनुवितक्‍केति अनुविचारेति, पहासि कामवितक्‍कं, नेक्खम्मवितक्‍कं बहुलमकासि, तस्सं तं नेक्खम्मवितक्‍काय चित्तं नमति। अब्यापादवितक्‍कञ्‍चे, भिक्खवे…पे॰… अविहिंसावितक्‍कञ्‍चे, भिक्खवे, भिक्खु बहुलमनुवितक्‍केति अनुविचारेति, पहासि विहिंसावितक्‍कं, अविहिंसावितक्‍कं बहुलमकासि, तस्स तं अविहिंसावितक्‍काय चित्तं नमति। सेय्यथापि, भिक्खवे, गिम्हानं पच्छिमे मासे सब्बसस्सेसु गामन्तसम्भतेसु गोपालको गावो रक्खेय्य , तस्स रुक्खमूलगतस्स वा अब्भोकासगतस्स वा सतिकरणीयमेव होति – ‘एता एते (क॰) गावो’ति। एवमेवं खो, भिक्खवे, सतिकरणीयमेव अहोसि – ‘एते धम्मा’ति।

२११. ‘‘आरद्धं खो पन मे, भिक्खवे, वीरियं अहोसि असल्‍लीनं, उपट्ठिता सति असम्मुट्ठा , पस्सद्धो कायो असारद्धो, समाहितं चित्तं एकग्गं। सो खो अहं, भिक्खवे, विविच्‍चेव कामेहि विविच्‍च अकुसलेहि धम्मेहि सवितक्‍कं सविचारं विवेकजं पीतिसुखं पठमं झानं उपसम्पज्‍ज विहासिं। वितक्‍कविचारानं वूपसमा अज्झत्तं सम्पसादनं चेतसो एकोदिभावं अवितक्‍कं अविचारं समाधिजं पीतिसुखं दुतियं झानं उपसम्पज्‍ज विहासिं। पीतिया च विरागा उपेक्खको च विहासिं सतो च सम्पजानो, सुखञ्‍च कायेन पटिसंवेदेसिं, यं तं अरिया आचिक्खन्ति ‘उपेक्खको सतिमा सुखविहारी’ति, ततियं झानं उपसम्पज्‍ज विहासिं। सुखस्स च पहाना दुक्खस्स च पहाना पुब्बेव सोमनस्सदोमनस्सानं अत्थङ्गमा अदुक्खमसुखं उपेक्खासतिपारिसुद्धिं चतुत्थं झानं उपसम्पज्‍ज विहासिं।

२१२. ‘‘सो एवं समाहिते चित्ते परिसुद्धे परियोदाते अनङ्गणे विगतूपक्‍किलेसे मुदुभूते कम्मनिये ठिते आनेञ्‍जप्पत्ते पुब्बेनिवासानुस्सतिञाणाय चित्तं अभिनिन्‍नामेसिं। सो अनेकविहितं पुब्बेनिवासं अनुस्सरामि। सेय्यथिदं, एकम्पि जातिं…पे॰… इति साकारं सउद्देसं अनेकविहितं पुब्बेनिवासं अनुस्सरामि। अयं खो मे, भिक्खवे, रत्तिया पठमे यामे पठमा विज्‍जा अधिगता; अविज्‍जा विहता विज्‍जा उप्पन्‍ना; तमो विहतो आलोको उप्पन्‍नो; यथा तं अप्पमत्तस्स आतापिनो पहितत्तस्स विहरतो।

२१३. ‘‘सो एवं समाहिते चित्ते परिसुद्धे परियोदाते अनङ्गणे विगतूपक्‍किलेसे मुदुभूते कम्मनिये ठिते आनेञ्‍जप्पत्ते सत्तानं चुतूपपातञाणाय चित्तं अभिनिन्‍नामेसिं। सो दिब्बेन चक्खुना विसुद्धेन अतिक्‍कन्तमानुसकेन सत्ते पस्सामि चवमाने उपपज्‍जमाने…पे॰… इमे वत भोन्तो सत्ता कायदुच्‍चरितेन समन्‍नागता…पे॰… इति दिब्बेन चक्खुना विसुद्धेन अतिक्‍कन्तमानुसकेन सत्ते पस्सामि चवमाने उपपज्‍जमाने हीने पणीते सुवण्णे दुब्बण्णे सुगते दुग्गते, यथाकम्मूपगे सत्ते पजानामि। अयं खो मे, भिक्खवे, रत्तिया मज्झिमे यामे दुतिया विज्‍जा अधिगता; अविज्‍जा विहता विज्‍जा उप्पन्‍ना; तमो विहतो आलोको उप्पन्‍नो; यथा तं अप्पमत्तस्स आतापिनो पहितत्तस्स विहरतो।

२१४. ‘‘सो एवं समाहिते चित्ते परिसुद्धे परियोदाते अनङ्गणे विगतूपक्‍किलेसे मुदुभूते कम्मनिये ठिते आनेञ्‍जप्पत्ते आसवानं खयञाणाय चित्तं अभिनिन्‍नामेसिं। सो ‘इदं दुक्ख’न्ति यथाभूतं अब्भञ्‍ञासिं, ‘अयं दुक्खसमुदयो’ति यथाभूतं अब्भञ्‍ञासिं, ‘अयं दुक्खनिरोधो’ति यथाभूतं अब्भञ्‍ञासिं, ‘अयं दुक्खनिरोधगामिनी पटिपदा’ति यथाभूतं अब्भञ्‍ञासिं । ‘इमे आसवा’ति यथाभूतं अब्भञ्‍ञासिं, ‘अयं आसवसमुदयो’ति यथाभूतं अब्भञ्‍ञासिं, ‘अयं आसवनिरोधो’ति यथाभूतं अब्भञ्‍ञासिं, ‘अयं आसवनिरोधगामिनी पटिपदा’ति यथाभूतं अब्भञ्‍ञासिं। तस्स मे एवं जानतो एवं पस्सतो कामासवापि चित्तं विमुच्‍चित्थ, भवासवापि चित्तं विमुच्‍चित्थ, अविज्‍जासवापि चित्तं विमुच्‍चित्थ, विमुत्तस्मिं विमुत्तमिति ञाणं अहोसि – ‘खीणा जाति, वुसितं ब्रह्मचरियं, कतं करणीयं, नापरं इत्थत्ताया’ति अब्भञ्‍ञासिं। अयं खो मे, भिक्खवे, रत्तिया पच्छिमे यामे ततिया विज्‍जा अधिगता; अविज्‍जा विहता विज्‍जा उप्पन्‍ना; तमो विहतो आलोको उप्पन्‍नो; यथा तं अप्पमत्तस्स आतापिनो पहितत्तस्स विहरतो।

२१५. ‘‘सेय्यथापि, भिक्खवे, अरञ्‍ञे पवने महन्तं निन्‍नं पल्‍ललं। तमेनं महामिगसङ्घो उपनिस्साय विहरेय्य। तस्स कोचिदेव पुरिसो उप्पज्‍जेय्य अनत्थकामो अहितकामो अयोगक्खेमकामो। सो य्वास्स मग्गो खेमो सोवत्थिको पीतिगमनीयो तं मग्गं पिदहेय्य, विवरेय्य कुम्मग्गं, ओदहेय्य ओकचरं, ठपेय्य ओकचारिकं। एवञ्हि सो, भिक्खवे, महामिगसङ्घो अपरेन समयेन अनयब्यसनं अनयब्यसनं तनुत्तं (सी॰ स्या॰ पी॰) आपज्‍जेय्य। तस्सेव खो पन, भिक्खवे, महतो मिगसङ्घस्स कोचिदेव पुरिसो उप्पज्‍जेय्य अत्थकामो हितकामो योगक्खेमकामो। सो य्वास्स मग्गो खेमो सोवत्थिको पीतिगमनीयो तं मग्गं विवरेय्य, पिदहेय्य कुम्मग्गं, ऊहनेय्य ओकचरं, नासेय्य ओकचारिकं। एवञ्हि सो, भिक्खवे, महामिगसङ्घो अपरेन समयेन वुद्धिं विरूळ्हिं वेपुल्‍लं आपज्‍जेय्य।

‘‘उपमा खो मे अयं, भिक्खवे, कता अत्थस्स विञ्‍ञापनाय । अयं चेवेत्थ अत्थो – महन्तं निन्‍नं पल्‍ललन्ति खो, भिक्खवे, कामानमेतं अधिवचनं। महामिगसङ्घोति खो, भिक्खवे, सत्तानमेतं अधिवचनं। पुरिसो अनत्थकामो अहितकामो अयोगक्खेमकामोति खो, भिक्खवे, मारस्सेतं पापिमतो अधिवचनं। कुम्मग्गोति खो, भिक्खवे, अट्ठङ्गिकस्सेतं मिच्छामग्गस्स अधिवचनं, सेय्यथिदं – मिच्छादिट्ठिया मिच्छासङ्कप्पस्स मिच्छावाचाय मिच्छाकम्मन्तस्स मिच्छाआजीवस्स मिच्छावायामस्स मिच्छासतिया मिच्छासमाधिस्स। ओकचरोति खो, भिक्खवे, नन्दीरागस्सेतं अधिवचनं। ओकचारिकाति खो, भिक्खवे, अविज्‍जायेतं अधिवचनं। पुरिसो अत्थकामो हितकामो योगक्खेमकामोति खो, भिक्खवे, तथागतस्सेतं अधिवचनं अरहतो सम्मासम्बुद्धस्स। खेमो मग्गो सोवत्थिको पीतिगमनीयोति खो , भिक्खवे, अरियस्सेतं अट्ठङ्गिकस्स मग्गस्स अधिवचनं, सेय्यथिदं – सम्मादिट्ठिया सम्मासङ्कप्पस्स सम्मावाचाय सम्माकम्मन्तस्स सम्माआजीवस्स सम्मावायामस्स सम्मासतिया सम्मासमाधिस्स।

‘‘इति खो, भिक्खवे, विवटो मया खेमो मग्गो सोवत्थिको पीतिगमनीयो, पिहितो कुम्मग्गो, ऊहतो ओकचरो, नासिता ओकचारिका। यं, भिक्खवे, सत्थारा करणीयं सावकानं हितेसिना अनुकम्पकेन अनुकम्पं उपादाय, कतं वो तं मया। एतानि, भिक्खवे , रुक्खमूलानि, एतानि सुञ्‍ञागारानि; झायथ, भिक्खवे, मा पमादत्थ; मा पच्छा विप्पटिसारिनो अहुवत्थ। अयं वो अम्हाकं अनुसासनी’’ति।

इदमवोच भगवा। अत्तमना ते भिक्खू भगवतो भासितं अभिनन्दुन्ति।

द्वेधावितक्‍कसुत्तं निट्ठितं नवमं।