ऐसा मैंने सुना — एक समय भगवान श्रावस्ती में अनाथपिण्डक के जेतवन उद्यान में विहार कर रहे थे। वहाँ भगवान ने भिक्षुओं से कहा, “भिक्षुओं!"
“भदंत”, भिक्षुओं ने भगवान को उत्तर दिया। भगवान ने कहा —
“भिक्षुओं, ऊँचे चित्त (“अधिचित्त”) का मन बना चुके भिक्षु को, समय-समय पर, पाँच आलंबन पर ध्यान देना चाहिये। कौन से पाँच?
ऐसा है, भिक्षुओं, किसी भिक्षु को किसी आलंबन (“निमित्त” =छाप, छवि) पर टिकने कर, गौर करने पर पाप अकुशल विचार आने लगते हैं, जो चाहत से जुड़े, या द्वेष से जुड़े, या मोह से जुड़े हो। तब उस भिक्षु को उस आलंबन के बजाय, किसी दूसरे, कुशलता से जुड़े आलंबन पर गौर करना चाहिए। 1
जब वह उस आलंबन के बजाय, किसी दूसरे, कुशलता से जुड़े आलंबन पर गौर करता है, तब पाप अकुशल विचार, जो चाहत से जुड़े, या द्वेष से जुड़े, या मोह से जुड़े हो, वे छूट जाते हैं, रुक जाते हैं। उनके छूटते ही, वह चित्त को भीतर से स्थिर करता है, स्थापित करता है, एकाग्र करता है, समाहित करता है।
जैसे, भिक्षुओं, कोई कुशल बढ़ई या बढ़ई का शिष्य हो, जो छोटी कील के उपयोग से बड़ी कील को ठोक कर, पीट कर, खींच कर बाहर निकालता है।
उसी तरह, भिक्षुओं, जब भिक्षु उस आलंबन के बजाय, किसी दूसरे, कुशलता से जुड़े आलंबन पर गौर करता है, तब पाप अकुशल विचार, जो चाहत से जुड़े, या द्वेष से जुड़े, या मोह से जुड़े हो, वे छूट जाते हैं, रुक जाते हैं। उनके छूटते ही, वह चित्त को भीतर से स्थिर करता है, स्थापित करता है, एकाग्र करता है, समाहित करता है।
हालांकि, भिक्षुओं, यदि भिक्षु उस आलंबन के बजाय, किसी दूसरे, कुशलता से जुड़े आलंबन पर गौर करने पर भी — चाहत से जुड़े, या द्वेष से जुड़े, या मोह से जुड़े — पाप अकुशल विचार आते ही रहे, तब उसे उन विचारों के दुष्परिणामों (“आदीनव”) की जाँच करनी चाहिए, ‘यह विचार वाकई अकुशल है! यह विचार निंदनीय है! यह विचार दुःख परिणामी है!’
जब वह उन विचारों के दुष्परिणामों की जाँच करता है, तब पाप अकुशल विचार, जो चाहत से जुड़े, या द्वेष से जुड़े, या मोह से जुड़े हो, वे छूट जाते हैं, रुक जाते हैं। उनके छूटते ही, वह चित्त को भीतर से स्थिर करता है, स्थापित करता है, एकाग्र करता है, समाहित करता है।
जैसे, भिक्षुओं, कोई स्त्री या पुरुष, तरुण और युवा, सजने के शौकीन हो। यदि उसकी गर्दन पर साँप का शव, या कुत्ते का शव, या मनुष्य का शव लटका दिया जाए, तब वह खौफ़, घृणा और घिन महसूस करेंगे।
उसी तरह, भिक्षुओं, जब भिक्षु उन विचारों के दुष्परिणाम की जाँच करता है, तब पाप अकुशल विचार, जो चाहत से जुड़े, या द्वेष से जुड़े, या मोह से जुड़े हो, वे छूट जाते हैं, रुक जाते हैं। उनके छूटते ही, वह चित्त को भीतर से स्थिर करता है, स्थापित करता है, एकाग्र करता है, समाहित करता है।
हालांकि, भिक्षुओं, यदि भिक्षु उन विचारों के दुष्परिणाम की जाँच करने पर भी — चाहत से जुड़े, या द्वेष से जुड़े, या मोह से जुड़े — पाप अकुशल विचार आते ही रहे, तब उसे उन विचारों को भुला देना चाहिए, ध्यान नहीं देना (=नजरंदाज करना) चाहिए।
जब वह उन विचारों को भुला देता है, ध्यान नहीं देता है, तब पाप अकुशल विचार, जो चाहत से जुड़े, या द्वेष से जुड़े, या मोह से जुड़े हो, वे छूट जाते हैं, रुक जाते हैं। उनके छूटते ही, वह चित्त को भीतर से स्थिर करता है, स्थापित करता है, एकाग्र करता है, समाहित करता है।
जैसे, भिक्षुओं, कोई चक्षुमान (=आँखों वाला) पुरुष, रूप को न देखना चाहे, तो आँखे बंद करता है, या दूसरी ओर देखता है।
उसी तरह, भिक्षुओं, जब भिक्षु उन विचारों को भुला देता है, ध्यान नहीं देता है, तब पाप अकुशल विचार, जो चाहत से जुड़े, या द्वेष से जुड़े, या मोह से जुड़े हो, वे छूट जाते हैं, रुक जाते हैं। उनके छूटते ही, वह चित्त को भीतर से स्थिर करता है, स्थापित करता है, एकाग्र करता है, समाहित करता है।
हालांकि, भिक्षुओं, यदि भिक्षु उन विचारों को भुला देने पर, ध्यान न देने पर भी — चाहत से जुड़े, या द्वेष से जुड़े, या मोह से जुड़े — पाप अकुशल विचार आते ही रहे, तब उसे उन विचारों की विषय-रचना को शिथिल करने पर ध्यान देना चाहिए। 2
जब वह उन विचारों की वचन-रचना को शिथिल करने पर ध्यान देता है, तब पाप अकुशल विचार, जो चाहत से जुड़े, या द्वेष से जुड़े, या मोह से जुड़े हो, वे छूट जाते हैं, रुक जाते हैं। उनके छूटते ही, वह चित्त को भीतर से स्थिर करता है, स्थापित करता है, एकाग्र करता है, समाहित करता है।
जैसे, भिक्षुओं, किसी तेज़ चलते पुरुष को लगता है, “मैं भला तेज़ क्यों चल रहा हूँ? क्यों न मैं धीमे चलूँ?” तब वह धीमे चलता है। तब उसे लगता है, “मैं धीमे भी क्यों चल रहा हूँ? क्यों न मैं (रुक कर) खड़ा रहूँ?” तब वह खड़ा रहता है। तब उसे लगता है, “मैं खड़ा भी क्यों हूँ? क्यों न मैं बैठ जाऊँ?” तब वह बैठ जाता है। तब उसे लगता है, “मैं बैठा भी क्यों हूँ? क्यों न मैं लेट जाऊँ?” तब वह लेट जाता है। इस तरह, भिक्षुओं, वह पुरुष स्थूल-स्थूल अवस्थाओं को छोड़, सूक्ष्म-सूक्ष्म अवस्थाओं को आत्मसात करता है।
उसी तरह, भिक्षुओं, जब भिक्षु उन विचारों की वचन-रचना को शिथिल करने पर ध्यान देता है, तब पाप अकुशल विचार, जो चाहत से जुड़े, या द्वेष से जुड़े, या मोह से जुड़े हो, वे छूट जाते हैं, रुक जाते हैं। उनके छूटते ही, वह चित्त को भीतर से स्थिर करता है, स्थापित करता है, एकाग्र करता है, समाहित करता है।
हालांकि, भिक्षुओं, यदि भिक्षु उन विचारों की वचन-रचना को शिथिल करने पर ध्यान देने पर भी — चाहत से जुड़े, या द्वेष से जुड़े, या मोह से जुड़े — पाप अकुशल विचार आते ही रहे, तब उसे दाँत भींचकर, जीभ को तालु पर लगाकर, अपने मानस से चित्त को खींच-पकड़ कर, दबा कर, कुचल देना चाहिए।
जब वह दाँत भींचकर, जीभ को तालु पर लगाकर, अपने मानस से चित्त को खींच-पकड़ कर, दबा कर, कुचल देता है। तब पाप अकुशल विचार, जो चाहत से जुड़े, या द्वेष से जुड़े, या मोह से जुड़े हो, वे छूट जाते हैं, रुक जाते हैं। उनके छूटते ही, वह चित्त को भीतर से स्थिर करता है, स्थापित करता है, एकाग्र करता है, समाहित करता है।
जैसे, भिक्षुओं, कोई बलवान पुरुष किसी दुर्बल पुरुष को सिर से, गले से, या कंधे से खींच-पकड़ कर, दबा कर, कुचल देता है।
उसी तरह, भिक्षुओं, जब भिक्षु दाँत भींचकर, जीभ को तालु पर लगाकर, अपने मानस से चित्त को खींच-पकड़ कर, दबा कर, कुचल देता है, तब पाप अकुशल विचार, जो चाहत से जुड़े, या द्वेष से जुड़े, या मोह से जुड़े हो, वे छूट जाते हैं, रुक जाते हैं। उनके छूटते ही, वह चित्त को भीतर से स्थिर करता है, स्थापित करता है, एकाग्र करता है, समाहित करता है।
इस तरह, भिक्षुओं, जिस भिक्षु को किसी आलंबन पर टिकने कर, गौर करने पर — चाहत से जुड़े, या द्वेष से जुड़े, या मोह से जुड़े — पाप अकुशल विचार आने लगते हैं, और यदि वह भिक्षु उस आलंबन के बजाय —
यदि… तब भी पाप अकुशल विचार आते ही रहे, और यदि वह भिक्षु उस आलंबन के बजाय —
— तब पाप अकुशल विचार, जो चाहत से जुड़े, या द्वेष से जुड़े, या मोह से जुड़े हो, वे छूट जाते हैं, रुक जाते हैं। उनके छूटते ही, वह चित्त को भीतर से स्थिर करता है, स्थापित करता है, एकाग्र करता है, समाहित करता है।
ऐसे भिक्षु को, भिक्षुओं, कहते हैं ‘विचारों के क्रमिक तरीकों में प्रभुत्व पाने वाला’। वह जिस विषय को चाहेगा, उसी विषय पर विचार करेगा। जिस विषय को नहीं चाहेगा, उस पर विचार नहीं करेगा। (वह) तृष्णा को काट चुका, बंधनों को फेंक चुका, अहंभाव का सम्यक भेदन कर, दुःखों का अंत कर चुका है। 3
भगवान ने ऐसा कहा। हर्षित होकर भिक्षुओं ने भगवान की बात का अभिनंदन किया।
उदाहरण के लिए — यदि किसी साधक का ध्यान किसी ऐसे व्यक्ति की छवि (आलंबन) पर केन्द्रित हो जाए, जिससे उसके मन में क्रोधी विचार उत्पन्न होने लगे, तो उसे उस नकारात्मक छवि से ध्यान हटाकर किसी अन्य, मैत्रीपूर्ण छवि पर केन्द्रित करना चाहिए। इसका उद्देश्य यह है कि द्वेष के स्थान पर करुणा और मित्रता के भाव विकसित हों। अर्थात्, जब क्रोध या द्वेष उत्पन्न हो, तो उसके मूल स्रोत — बुरी छवि — को त्यागकर ऐसी (प्रसन्न मुद्रा वाली) छवि अपनाएँ, जो सकारात्मक विचारों को जन्म दे।
उसी प्रकार, जब मन में कामुकता उत्पन्न हो, तो उस आकर्षक छवि (“सुभ निमित्त”) से ध्यान हटाकर किसी विपरीत, यथार्थपरक या विरूप छवि (“असुभ”) पर ध्यान केन्द्रित करें। जैसे, यदि वह व्यक्ति भविष्य में वृद्धावस्था में कैसा दिखेगा, इसकी कल्पना करें — उदाहरणस्वरूप, उसके बुज़ुर्ग माता-पिता की छवि को सामने लाएँ। इससे मन में यह विचार उत्पन्न होगा कि “यह व्यक्ति कुछ वर्षों में ऐसा ही दिखेगा/दिखेगी।” इस प्रकार, कामुक प्रवृत्ति कमजोर पड़ती है और विकारों पर नियंत्रण संभव होता है। ↩︎
इस अनोखे वाक्यांश “वितक्कसङ्खारसण्ठानं”, अर्थात, विषय-रचना को शिथिल करना — पर ही सूत्र का नाम पड़ा है। शायद यहाँ “सङ्खार” का मतलब ‘ऊर्जा’ से हो सकता है। ऐसी वैचारिक ऊर्जा, जो विचार को बनाती या रचती है। जब हम उस ऊर्जा को समझ कर उसे शिथिल करने या ढीला छोड़ने लगते हैं, तो वह विचार भीतर से बिखरने लगता है, और स्वयं से फिर खड़ा नहीं हो पाता। ↩︎
यह अंतिम वाक्य अनेक प्रकार से संशयपूर्ण है। यह हिस्सा भूतकाल में लिखा गया है, जबकि इससे पहले वाला वाक्य भूतकाल में नहीं है, जिससे दोनों वाक्य साथ में मेल नहीं खाते। अगर इसे उलटा रखा गया होता — “तृष्णा को काट चुका… वह जिस विषय को चाहेगा, उसी विषय पर विचार करेगा” — तो यह शायद सही भी लगता। साथ ही, यह अंतिम हिस्सा एक आवश्यक परिस्थिति में नहीं प्रकट हुआ, जैसे आमतौर पर इस तरह के सूत्रों में प्रकट होता है (जैसे: “जब कोई/वह भिक्षु… तब उसे कहा जाता है कि वह तृष्णा को काट चुका है”, जैसे मज्झिमनिकाय २२ में)।
इसके अलावा, यह सूत्र चीनी संस्करण (मध्यम आगम १०१) के साथ लगभग पूरी तरह से मेल खाता है, केवल इस अंतिम वाक्य को छोड़कर। वहाँ यह अंतिम वाक्य नहीं है। इन सभी बातों को देखते हुए, ऐसा लगता है कि यह वाक्य पालि सूत्र में गलती से जोड़ा गया होगा। तब इस मूल सूत्र का उद्देश्य शायद केवल विचारों को शांत करके समाधि प्राप्त करने पर ही केंद्रित रहा हो। ↩︎
२१६. एवं मे सुतं – एकं समयं भगवा सावत्थियं विहरति जेतवने अनाथपिण्डिकस्स आरामे। तत्र खो भगवा भिक्खू आमन्तेसि – ‘‘भिक्खवो’’ति। ‘‘भदन्ते’’ति ते भिक्खू भगवतो पच्चस्सोसुं। भगवा एतदवोच –
‘‘अधिचित्तमनुयुत्तेन, भिक्खवे, भिक्खुना पञ्च निमित्तानि कालेन कालं मनसि कातब्बानि। कतमानि पञ्च? इध, भिक्खवे, भिक्खुनो यं निमित्तं आगम्म यं निमित्तं मनसिकरोतो उप्पज्जन्ति पापका अकुसला वितक्का छन्दूपसंहितापि दोसूपसंहितापि मोहूपसंहितापि, तेन, भिक्खवे, भिक्खुना तम्हा निमित्ता अञ्ञं निमित्तं मनसि कातब्बं कुसलूपसंहितं। तस्स तम्हा निमित्ता अञ्ञं निमित्तं मनसिकरोतो कुसलूपसंहितं ये पापका अकुसला वितक्का छन्दूपसंहितापि दोसूपसंहितापि मोहूपसंहितापि ते पहीयन्ति ते अब्भत्थं गच्छन्ति। तेसं पहाना अज्झत्तमेव चित्तं सन्तिट्ठति सन्निसीदति एकोदि होति एकोदिभोति (स्या॰ क॰) समाधियति। सेय्यथापि, भिक्खवे, दक्खो पलगण्डो वा पलगण्डन्तेवासी वा सुखुमाय आणिया ओळारिकं आणिं अभिनिहनेय्य अभिनीहरेय्य अभिनिवत्तेय्य अभिनिवज्जेय्य (सी॰ पी॰); एवमेव खो, भिक्खवे, भिक्खुनो यं निमित्तं आगम्म यं निमित्तं मनसिकरोतो उप्पज्जन्ति पापका अकुसला वितक्का छन्दूपसंहितापि दोसूपसंहितापि मोहूपसंहितापि, तेन, भिक्खवे, भिक्खुना तम्हा निमित्ता अञ्ञं निमित्तं मनसि कातब्बं कुसलूपसंहितं। तस्स तम्हा निमित्ता अञ्ञं निमित्तं मनसिकरोतो कुसलूपसंहितं ये पापका अकुसला वितक्का छन्दूपसंहितापि दोसूपसंहितापि मोहूपसंहितापि ते पहीयन्ति ते अब्भत्थं गच्छन्ति। तेसं पहाना अज्झत्तमेव चित्तं सन्तिट्ठति सन्निसीदति एकोदि होति समाधियति।
२१७. ‘‘तस्स चे, भिक्खवे, भिक्खुनो तम्हा निमित्ता अञ्ञं निमित्तं मनसिकरोतो कुसलूपसंहितं उप्पज्जन्तेव पापका अकुसला वितक्का छन्दूपसंहितापि दोसूपसंहितापि मोहूपसंहितापि, तेन, भिक्खवे, भिक्खुना तेसं वितक्कानं आदीनवो उपपरिक्खितब्बो – ‘इतिपिमे वितक्का अकुसला, इतिपिमे वितक्का सावज्जा, इतिपिमे वितक्का दुक्खविपाका’ति। तस्स तेसं वितक्कानं आदीनवं उपपरिक्खतो ये पापका अकुसला वितक्का छन्दूपसंहितापि दोसूपसंहितापि मोहूपसंहितापि ते पहीयन्ति ते अब्भत्थं गच्छन्ति। तेसं पहाना अज्झत्तमेव चित्तं सन्तिट्ठति सन्निसीदति एकोदि होति समाधियति। सेय्यथापि, भिक्खवे, इत्थी वा पुरिसो वा दहरो युवा मण्डनकजातिको अहिकुणपेन वा कुक्कुरकुणपेन वा मनुस्सकुणपेन वा कण्ठे आसत्तेन अट्टियेय्य हरायेय्य जिगुच्छेय्य; एवमेव खो, भिक्खवे, तस्स चे भिक्खुनो तम्हापि निमित्ता अञ्ञं निमित्तं मनसिकरोतो कुसलूपसंहितं उप्पज्जन्तेव पापका अकुसला वितक्का छन्दूपसंहितापि दोसूपसंहितापि मोहूपसंहितापि, तेन, भिक्खवे, भिक्खुना तेसं वितक्कानं आदीनवो उपपरिक्खितब्बो – ‘इतिपिमे वितक्का अकुसला, इतिपिमे वितक्का सावज्जा, इतिपिमे वितक्का दुक्खविपाका’ति। तस्स तेसं वितक्कानं आदीनवं उपपरिक्खतो ये पापका अकुसला वितक्का छन्दूपसंहितापि दोसूपसंहितापि मोहूपसंहितापि ते पहीयन्ति ते अब्भत्थं गच्छन्ति। तेसं पहाना अज्झत्तमेव चित्तं सन्तिट्ठति सन्निसीदति एकोदि होति समाधियति।
२१८. ‘‘तस्स चे, भिक्खवे, भिक्खुनो तेसम्पि वितक्कानं आदीनवं उपपरिक्खतो उप्पज्जन्तेव पापका अकुसला वितक्का छन्दूपसंहितापि दोसूपसंहितापि मोहूपसंहितापि, तेन, भिक्खवे, भिक्खुना तेसं वितक्कानं असतिअमनसिकारो आपज्जितब्बो। तस्स तेसं वितक्कानं असतिअमनसिकारं आपज्जतो ये पापका अकुसला वितक्का छन्दूपसंहितापि दोसूपसंहितापि मोहूपसंहितापि ते पहीयन्ति ते अब्भत्थं गच्छन्ति। तेसं पहाना अज्झत्तमेव चित्तं सन्तिट्ठति सन्निसीदति एकोदि होति समाधियति। सेय्यथापि, भिक्खवे, चक्खुमा पुरिसो आपाथगतानं रूपानं अदस्सनकामो अस्स; सो निमीलेय्य वा अञ्ञेन वा अपलोकेय्य। एवमेव खो, भिक्खवे, तस्स चे भिक्खुनो तेसम्पि वितक्कानं आदीनवं उपपरिक्खतो उप्पज्जन्तेव पापका अकुसला वितक्का छन्दूपसंहितापि दोसूपसंहितापि मोहूपसंहितापि, ते पहीयन्ति ते अब्भत्थं गच्छन्ति। तेसं पहाना अज्झत्तमेव चित्तं सन्तिट्ठति सन्निसीदति एकोदि होति समाधियति।
२१९. ‘‘तस्स चे, भिक्खवे, भिक्खुनो तेसम्पि वितक्कानं असतिअमनसिकारं आपज्जतो उप्पज्जन्तेव पापका अकुसला वितक्का छन्दूपसंहितापि दोसूपसंहितापि मोहूपसंहितापि, तेन, भिक्खवे, भिक्खुना तेसं वितक्कानं वितक्कसङ्खारसण्ठानं मनसिकातब्बं। तस्स तेसं वितक्कानं वितक्कसङ्खारसण्ठानं मनसिकरोतो ये पापका अकुसला वितक्का छन्दूपसंहितापि दोसूपसंहितापि मोहूपसंहितापि ते पहीयन्ति ते अब्भत्थं गच्छन्ति। तेसं पहाना अज्झत्तमेव चित्तं सन्तिट्ठति सन्निसीदति एकोदि होति समाधियति। सेय्यथापि, भिक्खवे, पुरिसो सीघं गच्छेय्य। तस्स एवमस्स – ‘किं नु खो अहं सीघं गच्छामि? यंनूनाहं सणिकं गच्छेय्य’न्ति। सो सणिकं गच्छेय्य। तस्स एवमस्स – ‘किं नु खो अहं सणिकं गच्छामि? यंनूनाहं तिट्ठेय्य’न्ति। सो तिट्ठेय्य । तस्स एवमस्स – ‘किं नु खो अहं ठितो? यंनूनाहं निसीदेय्य’न्ति। सो निसीदेय्य। तस्स एवमस्स – ‘किं नु खो अहं निसिन्नो? यंनूनाहं निपज्जेय्य’न्ति। सो निपज्जेय्य। एवञ्हि सो, भिक्खवे, पुरिसो ओळारिकं ओळारिकं इरियापथं अभिनिवज्जेत्वा अभिनिस्सज्जेत्वा (स्या॰) सुखुमं सुखुमं इरियापथं कप्पेय्य। एवमेव खो, भिक्खवे, तस्स चे भिक्खुनो तेसम्पि वितक्कानं असतिअमनसिकारं आपज्जतो उप्पज्जन्तेव पापका अकुसला वितक्का छन्दूपसंहितापि दोसूपसंहितापि मोहूपसंहितापि ते पहीयन्ति ते अब्भत्थं गच्छन्ति। तेसं पहाना अज्झत्तमेव चित्तं सन्तिट्ठति सन्निसीदति एकोदि होति समाधियति।
२२०. ‘‘तस्स चे, भिक्खवे, भिक्खुनो तेसम्पि वितक्कानं वितक्कसङ्खारसण्ठानं मनसिकरोतो उप्पज्जन्तेव पापका अकुसला वितक्का छन्दूपसंहितापि दोसूपसंहितापि मोहूपसंहितापि। तेन, भिक्खवे, भिक्खुना दन्तेभिदन्तमाधाय दन्ते + अभिदन्तं + आधायाति टीकायं पदच्छेदो, दन्तेभीति पनेत्थ करणत्थो युत्तो विय दिस्सति जिव्हाय तालुं आहच्च चेतसा चित्तं अभिनिग्गण्हितब्बं अभिनिप्पीळेतब्बं अभिसन्तापेतब्बं । तस्स दन्तेभिदन्तमाधाय जिव्हाय तालुं आहच्च चेतसा चित्तं अभिनिग्गण्हतो अभिनिप्पीळयतो अभिसन्तापयतो ये पापका अकुसला वितक्का छन्दूपसंहितापि दोसूपसंहितापि मोहूपसंहितापि ते पहीयन्ति ते अब्भत्थं गच्छन्ति। तेसं पहाना अज्झत्तमेव चित्तं सन्तिट्ठति सन्निसीदति एकोदि होति समाधियति। सेय्यथापि, भिक्खवे, बलवा पुरिसो दुब्बलतरं पुरिसं सीसे वा गले वा खन्धे वा गहेत्वा अभिनिग्गण्हेय्य अभिनिप्पीळेय्य अभिसन्तापेय्य; एवमेव खो, भिक्खवे, तस्स चे भिक्खुनो तेसम्पि वितक्कानं वितक्कसङ्खारसण्ठानं मनसिकरोतो उप्पज्जन्तेव पापका अकुसला वितक्का छन्दूपसंहितापि दोसूपसंहितापि मोहूपसंहितापि। तेन, भिक्खवे, भिक्खुना दन्तेभिदन्तमाधाय जिव्हाय तालुं आहच्च चेतसा चित्तं अभिनिग्गण्हितब्बं अभिनिप्पीळेतब्बं अभिसन्तापेतब्बं। तस्स दन्तेभिदन्तमाधाय जिव्हाय तालुं आहच्च चेतसा चित्तं अभिनिग्गण्हतो अभिनिप्पीळयतो अभिसन्तापयतो ये पापका अकुसला वितक्का छन्दूपसंहितापि दोसूपसंहितापि मोहूपसंहितापि ते पहीयन्ति ते अब्भत्थं गच्छन्ति। तेसं पहाना अज्झत्तमेव चित्तं सन्तिट्ठति सन्निसीदति एकोदि होति समाधियति।
२२१. ‘‘यतो खो यतो च खो (स्या॰ क॰), भिक्खवे, भिक्खुनो यं निमित्तं आगम्म यं निमित्तं मनसिकरोतो उप्पज्जन्ति पापका अकुसला वितक्का छन्दूपसंहितापि दोसूपसंहितापि मोहूपसंहितापि, तस्स तम्हा निमित्ता अञ्ञं निमित्तं मनसिकरोतो कुसलूपसंहितं ये पापका अकुसला वितक्का छन्दूपसंहितापि दोसूपसंहितापि मोहूपसंहितापि ते पहीयन्ति ते अब्भत्थं गच्छन्ति। तेसं पहाना अज्झत्तमेव चित्तं सन्तिट्ठति सन्निसीदति एकोदि होति समाधियति। तेसम्पि वितक्कानं आदीनवं उपपरिक्खतो ये पापका अकुसला वितक्का छन्दूपसंहितापि दोसूपसंहितापि मोहूपसंहितापि ते पहीयन्ति ते अब्भत्थं गच्छन्ति। तेसं पहाना अज्झत्तमेव चित्तं सन्तिट्ठति सन्निसीदति एकोदि होति समाधियति। तेसम्पि वितक्कानं असतिअमनसिकारं आपज्जतो ये पापका अकुसला वितक्का छन्दूपसंहितापि दोसूपसंहितापि मोहूपसंहितापि ते पहीयन्ति ते अब्भत्थं गच्छन्ति। तेसं पहाना अज्झत्तमेव चित्तं सन्तिट्ठति सन्निसीदति एकोदि होति समाधियति। तेसम्पि वितक्कानं वितक्कसङ्खारसण्ठानं मनसिकरोतो ये पापका अकुसला वितक्का छन्दूपसंहितापि दोसूपसंहितापि मोहूपसंहितापि ते पहीयन्ति ते अब्भत्थं गच्छन्ति। तेसं पहाना अज्झत्तमेव चित्तं सन्तिट्ठति सन्निसीदति एकोदि होति समाधियति। दन्तेभिदन्तमाधाय जिव्हाय तालुं आहच्च चेतसा चित्तं अभिनिग्गण्हतो अभिनिप्पीळयतो अभिसन्तापयतो ये पापका अकुसला वितक्का छन्दूपसंहितापि दोसूपसंहितापि मोहूपसंहितापि ते पहीयन्ति ते अब्भत्थं गच्छन्ति। तेसं पहाना अज्झत्तमेव चित्तं सन्तिट्ठति सन्निसीदति एकोदि होति समाधियति। अयं वुच्चति, भिक्खवे, भिक्खु वसी वितक्कपरियायपथेसु। यं वितक्कं आकङ्खिस्सति तं वितक्कं वितक्केस्सति, यं वितक्कं नाकङ्खिस्सति न तं वितक्कं वितक्केस्सति। अच्छेच्छि तण्हं, विवत्तयि वावत्तयि (सी॰ पी॰) संयोजनं, सम्मा मानाभिसमया अन्तमकासि दुक्खस्सा’’ति।
इदमवोच भगवा। अत्तमना ते भिक्खू भगवतो भासितं अभिनन्दुन्ति।
वितक्कसण्ठानसुत्तं निट्ठितं दसमं।