नमो तस्स भगवतो अरहतो सम्मा-सम्बुद्धस्स

📜 आरी की उपमा

✦ ॥ नमो तस्स भगवतो अरहतो सम्मासम्बुद्धस्स ॥ ✦

Hindi

ऐसा मैंने सुना — एक समय भगवान श्रावस्ती में अनाथपिण्डक के जेतवन उद्यान में विहार कर रहे थे। उस समय आयुष्मान मोळियफग्गुन 1 भिक्षुणियों के साथ कुछ ज्यादा ही मिल-जुलकर रहते थे।

वे भिक्षुणियों के साथ इतना मिल-जुलकर रहते थे — कि यदि कोई भिक्षु आयुष्मान मोळियफग्गुन के सम्मुख किसी भिक्षुणी को कुछ बुरा कह दे, तो वे कुपित होकर, नाराज होकर अधिकरण 2 लगा देते थे। और यदि कोई भिक्षु, भिक्षुणियों के सम्मुख आयुष्मान मोळियफग्गुन को कुछ बुरा कह दे, तो वे भिक्षुणियाँ कुपित होकर, नाराज होकर अधिकरण लगा देती थीं। इतना मिल-जुलकर आयुष्मान मोळियफग्गुन भिक्षुणियों के साथ रहते थे।

तब कोई भिक्षु भगवान के पास गया, और जाकर भगवान को अभिवादन कर एक ओर बैठ गया। एक ओर बैठकर उस भिक्षु ने भगवान से कहा, “भंते, आयुष्मान मोळियफग्गुन भिक्षुणियों के साथ कुछ ज्यादा ही मिल-जुलकर रहता है। वह भिक्षुणियों के साथ इतना मिल-जुलकर रहता है — कि यदि कोई भिक्षु आयुष्मान मोळियफग्गुन के सम्मुख किसी भिक्षुणी को कुछ बुरा कह दे, तो वे कुपित होकर, नाराज होकर अधिकरण लगा देता है। और यदि कोई भिक्षु, भिक्षुणियों के सम्मुख आयुष्मान मोळियफग्गुन को कुछ बुरा कह दे, तो वे भिक्षुणियाँ कुपित होकर, नाराज होकर अधिकरण लगा देती हैं। इतना मिल-जुलकर आयुष्मान मोळियफग्गुन भिक्षुणियों के साथ रहता है।”

तब भगवान ने (पास खड़े) किसी भिक्षु को संबोधित किया, “जाओ, भिक्षु, मेरे नाम पर मोळियफग्गुन भिक्षु को सूचना दो, ‘मित्र फग्गुन, शास्ता तुम्हें आमंत्रित करते हैं।’”

“ठीक है, भंते!” उस भिक्षु ने भगवान को उत्तर दिया, आयुष्मान मोळियफग्गुन के पास गया, और जाकर आयुष्मान मोळियफग्गुन से कहा, “मित्र फग्गुन, शास्ता तुम्हें आमंत्रित करते हैं।”

“ठीक है, मित्र!” आयुष्मान मोळियफग्गुन ने उस भिक्षु को उत्तर दिया, और भगवान के पास गए। भगवान के पास जाकर, अभिवादन कर, वे एक ओर बैठ गए। एक ओर बैठे आयुष्मान मोळियफग्गुन से भगवान ने कहा:

“क्या यह सच है, फग्गुन, कि तुम भिक्षुणियों के साथ कुछ ज्यादा ही मिल-जुलकर रहते हो? (सुना है,) तुम भिक्षुणियों के साथ इतना मिल-जुलकर रहते हो — कि यदि कोई भिक्षु तुम्हारे सम्मुख किसी भिक्षुणी को कुछ बुरा कह दे, तो तुम कुपित होकर, नाराज होकर अधिकरण लगा देते हो? और यदि कोई भिक्षु, भिक्षुणियों के सम्मुख तुम्हें कुछ बुरा कह दे, तो वे भिक्षुणियाँ कुपित होकर, नाराज होकर अधिकरण लगा देती हैं। इतना मिल-जुलकर तुम भिक्षुणियों के साथ रहते हो?”

“हाँ, भंते।”

“फग्गुन, क्या तुम ऐसे कुलपुत्र नहीं थे, जो श्रद्धापूर्वक घर से बेघर होकर प्रवज्जित हुआ था?”

“हाँ, भंते।”

“तब ऐसा उचित नहीं है, फग्गुन, कि तुम जैसा कुलपुत्र, जो श्रद्धापूर्वक घर से बेघर होकर प्रवज्जित हुआ हो, वह भिक्षुणियों के साथ इतना मिल-जुलकर रहे।

यदि, फग्गुन, तुम्हारे सम्मुख कोई भिक्षुणियों को बुरा कहता है, तब तुम्हें ऐसी गृहस्थों जैसी चाहत को, गृहस्थों जैसी सोच को त्याग देना चाहिए। और सीखना चाहिए कि — ‘न मेरा चित्त विकृत होगा, न मैं कोई बुरे वचन बोल पड़ूँगा। बल्कि मैं उसकी भलाई के लिए दयावान, सद्भाव (“मेत्ता”) चित्त के साथ, बिना भीतरी नफरत के विहार करूँगा।’ इस तरह, फग्गुन, तुम्हें सीखना चाहिए।

और यदि, फग्गुन, तुम्हारे सम्मुख कोई भिक्षुणियों को हाथ से, पत्थर से, डंडे से, या शस्त्र से प्रहार करता है, तब भी तुम्हें ऐसी गृहस्थों जैसी चाहत को, गृहस्थों जैसी सोच को त्याग देना चाहिए। और सीखना चाहिए कि — ‘न मेरा चित्त विकृत होगा, न मैं कोई बुरे वचन बोल पड़ूँगा। बल्कि मैं उसकी भलाई के लिए दयावान, सद्भाव-चित्त के साथ, बिना भीतरी नफरत के विहार करूँगा।’ इस तरह, फग्गुन, तुम्हें सीखना चाहिए। 3

और यदि, फग्गुन, तुम्हारे सम्मुख ही कोई तुम्हें बुरा कहता है, तब तुम्हें ऐसी गृहस्थों जैसी चाहत को, गृहस्थों जैसी सोच को त्याग देना चाहिए। और सीखना चाहिए कि — ‘न मेरा चित्त विकृत होगा, न मैं कोई बुरे वचन बोल पड़ूँगा। बल्कि मैं उसकी भलाई के लिए दयावान, सद्भाव-चित्त के साथ, बिना भीतरी नफरत के विहार करूँगा।’ इस तरह, फग्गुन, तुम्हें सीखना चाहिए।

और यदि, फग्गुन, तुम्हें भी कोई हाथ से, पत्थर से, डंडे से, या शस्त्र से प्रहार करता है, तब भी तुम्हें ऐसी गृहस्थों जैसी चाहत को, गृहस्थों जैसी सोच को त्याग देना चाहिए। और सीखना चाहिए कि — ‘न मेरा चित्त विकृत होगा, न मैं कोई बुरे वचन बोल पड़ूँगा। बल्कि मैं उसकी भलाई के लिए दयावान, सद्भाव-चित्त के साथ, बिना भीतरी नफरत के विहार करूँगा।’ इस तरह, फग्गुन, तुम्हें सीखना चाहिए।”

प्रेरित करना

और तब, भगवान ने भिक्षुओं को संबोधित किया —

“एक समय था, भिक्षुओं, जब भिक्षुगण मेरे चित्त को कितना संतुष्ट करते थे! एक बार मैंने भिक्षुओं से कहा — ‘भिक्षुओं, मैं (दिन में) एक ही बार बैठकर भोजन करता हूँ। एक ही बार भोजन करने से, भिक्षुओं, मुझे न के बराबर रोग, न के बराबर पीड़ा, हल्कापन, शक्ति और राहत से विहार करना दिखायी देता है।

तुम भी, भिक्षुओं, एक ही बार भोजन करो! एक ही बार भोजन करने से, भिक्षुओं, तुम्हें भी न के बराबर रोग, न के बराबर पीड़ा, हल्कापन, शक्ति और राहत से विहार करना दिखायी देगा।”

भिक्षुओं, इसके लिए मुझे उन भिक्षुओं को (नियम लगाकर) अनुशासित नहीं करना पड़ा। बल्कि उन भिक्षुओं में केवल स्मृति जगानी पड़ी। 4

जैसे, भिक्षुओं, किसी समतल चौराहे पर एक रथ खड़ा हो — उत्तम नस्ल के घोड़ों से जुता हुआ, चाबुक के साथ तैयार! तब उस रथ पर एक निपुण रथाचार्य, घोड़ों का वशकर्ता, सारथी चढ़े। वह बाए हाथ से लगाम को खींच कर, दाए हाथ से चाबुक लगाते हुए, जहाँ जाना चाहे, जिधर जाना चाहे, सवार होकर निकल पड़ता है और लौट आता है।

उसी तरह, भिक्षुओं, मुझे उन भिक्षुओं को अनुशासित नहीं करना पड़ा। बल्कि उन भिक्षुओं में केवल स्मृति जगानी पड़ी।

इस तरह, भिक्षुओं, तुम भी अकुशल का त्याग करो, और कुशल स्वभाव के प्रति समर्पित हों। तब तुम भी इस धर्म-विनय में वृद्धि, समृद्धि और प्रगति प्राप्त करोगे।

जैसे, कल्पना करो, भिक्षुओं, किसी गाँव या नगर के समीप एक विशाल शालवन हो। वह अरंडी के खरपतवार से घिरा हुआ हो। 5 तब, भिक्षुओं, कोई पुरुष आता है, जो भलाई चाहे, हित चाहे, योगबन्धन से राहत देना चाहे। वह शालवृक्षों का पोषण चुराती खरपतवार को काटकर बाहर फेंक आता है, और वन के भीतरी भाग की साफ-सफाई करता है। और जो शाल के सीधे पौधे अच्छे से उग रहे हो, उनकी ठीक से देखभाल करता है। तब, भिक्षुओं, वह शालवन समय पाकर वृद्धि, समृद्धि और प्रगति प्राप्त करता है।

उसी तरह, भिक्षुओं, तुम भी अकुशल का त्याग करो, और कुशल स्वभाव के प्रति समर्पित हों। तब तुम भी इस धर्म-विनय में वृद्धि, समृद्धि और प्रगति प्राप्त करोगे।

वैदेहीका की कथा

बहुत पहले, भिक्षुओं, इसी श्रावस्ती में वेदेहिका नामक एक गृहिणी होती थी। उस वेदेहिका गृहिणी की अच्छी ख्याति थी — ‘वेदेहिका गृहिणी बड़ी सभ्य है’… ‘वेदेहिका गृहिणी बहुत सौम्य है’… ‘वेदेहिका गृहिणी बिलकुल शान्त है।’

भिक्षुओं, उस वेदेहिका गृहिणी की काली नामक एक दासी थी, जो निपुण, आलस्य-रहित, और कामकाज में सुव्यवस्थित थी।

उस काली दासी ने सोचा — ‘मेरी मालकिन वेदेहिका गृहिणी की अच्छी ख्याति है, ‘वेदेहिका गृहिणी बड़ी सभ्य है’… ‘वेदेहिका गृहिणी बहुत सौम्य है’… ‘वेदेहिका गृहिणी बिलकुल शान्त है।’ क्या मेरी मालकिन के भीतर गुस्सा छिपा हुआ है, जिसे वह प्रकट नहीं होने देती? अथवा गुस्सा वाकई नहीं है? अथवा मैं निपुण, आलस्य-रहित, और कामकाज में सुव्यवस्थित हूँ, केवल इसलिए उसके भीतर छिपा हुआ गुस्सा प्रकट नहीं होता है? क्यों न मैं मालकिन की परीक्षा लूँ?’

तब, भिक्षुओं, काली दासी दिन चढ़ने पर उठी।

वेदेहिका गृहिणी ने उसे कहा —“ऐ छोकरी, 6 काली!”

“क्या हुआ, मालकिन?”

“क्यों री, दिन चढ़ने पर क्यों उठी?”

“कुछ नहीं, मालकिन, बस यूँ ही!”

“कुछ नहीं? पापी दासी बस यूँ ही दिन चढ़ने पर उठती है”— कुपित होकर, नाराज़ होकर, उसने भौंए चढ़ा ली।

तब, भिक्षुओं, काली दासी को लगा — ‘मालकिन के भीतर गुस्सा छिपा हुआ तो है! उसे वह प्रकट नहीं होने देती। ऐसा नहीं कि नहीं है! मैं निपुण, आलस्य-रहित, और कामकाज में सुव्यवस्थित हूँ, केवल इसलिए उसके भीतर छिपा हुआ गुस्सा प्रकट नहीं होता था। क्यों न मैं मालकिन की और परीक्षा लूँ?’

तब, भिक्षुओं, काली दासी दिन चढ़ने पर और देरी से उठी।

वेदेहिका गृहिणी ने उसे कहा —“ऐ छोकरी, काली!”

“क्या हुआ, मालकिन?”

“क्यों री, आज दिन चढ़ने पर इतनी देरी से क्यों उठी?”

“कुछ नहीं, मालकिन, बस यूँ ही!”

“कुछ नहीं? पापी दासी बस यूँ ही दिन चढ़ने पर इतनी देरी से उठती है”— कुपित होकर, नाराज़ होकर, वह बड़बड़ाने लगी।

तब, भिक्षुओं, काली दासी को लगा — ‘मालकिन के भीतर गुस्सा छिपा हुआ तो बहुत है! उसे वह प्रकट नहीं होने देती। ऐसा नहीं कि नहीं है! मैं निपुण, आलस्य-रहित, और कामकाज में सुव्यवस्थित हूँ, केवल इसलिए उसके भीतर छिपा हुआ गुस्सा प्रकट नहीं होता था। क्यों न मैं मालकिन की और परीक्षा लूँ?’

तब, भिक्षुओं, काली दासी आधा दिन बीतने पर उठी।

वेदेहिका गृहिणी ने उसे कहा —“ऐ छोकरी, काली!”

“क्या हुआ, मालकिन?”

“क्यों री, आज आधा दिन बीत जाने पर क्यों उठी?”

“कुछ नहीं, मालकिन, बस यूँ ही!”

“कुछ नहीं? पापी दासी बस यूँ ही आधा दिन बीत जाने पर उठती है”— कुपित होकर, नाराज़ होकर, उसने बेलन उठाया और उसके सिर पर दे मारा — काली का सिर फट गया।

तब, भिक्षुओं, फटे सिर से रक्त बहते, काली दासी चीखते हुए पड़ोसियों की ओर भागी —“देखों, मालकिनों, देखों, ‘बड़ी सभ्य’ गृहिणी का कर्म! देखों, मालकिनों, देखों, ‘बहुत सौम्य’ गृहिणी का कर्म! देखों, मालकिनों, देखों, ‘बिलकुल शांत’ गृहिणी का कर्म! मैं सिर्फ देरी से क्या उठी, तो वह कैसे कुपित होकर, नाराज़ होकर बेलन उठाकर मेरे सिर पर दे मारा — मेरा सिर फट गया!”

उसके बाद, भिक्षुओं, वेदेहिका गृहिणी बड़ी कुख्यात हुई — ‘वेदेहिका गृहिणी बड़ी चण्ड है’… ‘वेदेहिका गृहिणी बहुत असभ्य है’… ‘वेदेहिका गृहिणी बिलकुल उग्र है!’

उसी तरह, भिक्षुओं, कोई भिक्षु सभ्य लोगों में ‘बड़ा सभ्य’ होता है, सौम्य लोगों में ‘बहुत सौम्य’ होता है, शान्त लोगों में ‘बिलकुल शांत’ होता है — जब तक उसे नापसंद बातें छूती नहीं हैं। किन्तु, भिक्षुओं, जब उस भिक्षु को नापसंद बातें छूती है, तब पता चलता है कि वह कितना सभ्य है, कितना सौम्य है, और कितना शांत है।

भिक्षुओं, मैं उस भिक्षु को “सुवचो” 7 नहीं कहता हूँ — जो केवल चीवर, भिक्षान्न, आवास या रोगावश्यक औषधि और भैषज्य के कारण सुवचो होता है, या स्वयं को सुवचनीय (=धीरज से सुनने वाला) बनाता है। ऐसा क्यों? क्योंकि, भिक्षुओं, यदि उस भिक्षु को चीवर, भिक्षान्न, आवास या रोगावश्यक औषधि और भैषज्य न प्राप्त हो, तब वह न सुवचो होता है, न ही स्वयं को सुवचनीय बनाता है।

किन्तु, भिक्षुओं, यदि कोई भिक्षु मात्र धर्म का सत्कार करने के कारण, धर्म का सम्मान करने के कारण, धर्म को मानते हुए, धर्म को पूजते हुए, धर्म के आदर में सुवचो होता है, या स्वयं को सुवचनीय बनाता है, उसे मैं ‘सुवचो’ कहता हूँ।

इस तरह, भिक्षुओं, तुम्हें सीखना चाहिए — ‘हम मात्र धर्म का सत्कार करने के कारण, धर्म का सम्मान करने के कारण, धर्म को मानते हुए, धर्म को पूजते हुए, धर्म के आदर में सुवचो होंगे, या स्वयं को सुवचनीय बनाएंगे।’

पाँच तरीके की वचनशैली

भिक्षुओं, कोई पराया तुम्हें पाँच तरीके की वचनशैली से बोल सकता है —

  • अच्छे समय पर, अथवा बेसमय,
  • सच्चाई के साथ, अथवा झूठ के साथ,
  • मृदुता से, अथवा कटुता से,
  • लाभकारी बात से, अथवा अनर्थकारी बात से,
  • सद्भाव-चित्त से, अथवा भीतरी द्वेष से।

(अर्थात,) भिक्षुओं, कोई पराया तुम्हें सुनाते हुए अच्छे समय पर बोल सकता है, या बेसमय। कोई पराया तुम्हें सुनाते हुए सच्चाई के साथ बोल सकता है, या झूठ के साथ। कोई पराया तुम्हें सुनाते हुए मृदुता से बोल सकता है, या कटुता से। कोई पराया तुम्हें सुनाते हुए लाभकारी बात बोल सकता है, या अनर्थकारी। कोई पराया तुम्हें सुनाते हुए सद्भाव-चित्त से बोल सकता है, या भीतरी द्वेष से।

जैसी (भी वचनशैली) हो, भिक्षुओं, तुम्हें सीखना चाहिए कि — ‘न हमारा चित्त विकृत होगा, न हम बुरे वचन बोल पड़ेंगे। हम उसकी भलाई के लिए दयावान रहेंगे, और सद्भाव-चित्त के साथ, बिना भीतरी नफरत पाले विहार करेंगे। हम उस पर मैत्रीपूर्ण मानस बरसाएँगे। और हम उसके आलंबन पर सर्वत्र ब्रह्मांड में — ऐसे सद्भावना से भरे निर्बैर, निर्द्वेष, विस्तृत, विराट, असीम चित्त को फैलाकर परिपूर्णतः व्याप्त करेंगे।’ इस तरह, भिक्षुओं, तुम्हें सीखना चाहिए।

विराट पृथ्वी की उपमा

कल्पना करो, भिक्षुओं, एक पुरुष आता है, कुदाल और टोकरी लेकर। और कहता है, ‘मैं इस विराट पृथ्वी को पृथ्वीरहित बना दूँगा!’ और तब वह यहाँ वहाँ खोदता है, यहाँ वहाँ बिखेरता है, यहाँ वहाँ थूकता है, यहाँ वहाँ पेशाब करता है, (बड़बड़ाते हुए,) ‘पृथ्वीरहित हो जा! पृथ्वीरहित हो जा!’

तो, भिक्षुओं, तुम्हें क्या लगता है? क्या वह पुरुष इस विराट पृथ्वी को पृथ्वीरहित करेगा?"

“नहीं, भंते।"

“क्यों नहीं?”

“क्योंकि, भंते, विराट पृथ्वी तो गहरी है, असीम है। इसे सरलता से पृथ्वीरहित नहीं कर सकते। अंततः वह पुरुष थकान और परेशानी का भागी होगा।”

“उसी तरह, भिक्षुओं… कोई पराया तुम्हें सुनाते हुए अच्छे समय पर बोल सकता है, या बेसमय। कोई पराया तुम्हें सुनाते हुए सच्चाई के साथ बोल सकता है, या झूठ के साथ। कोई पराया तुम्हें सुनाते हुए मृदुता से बोल सकता है, या कटुता से। कोई पराया तुम्हें सुनाते हुए लाभकारी बात बोल सकता है, या अनर्थकारी। कोई पराया तुम्हें सुनाते हुए सद्भाव-चित्त से बोल सकता है, या भीतरी द्वेष से।

जैसी (भी वचनशैली) हो, भिक्षुओं, तुम्हें सीखना चाहिए कि — ‘न हमारा चित्त विकृत होगा, न हम बुरे वचन बोल पड़ेंगे। हम उसकी भलाई के लिए दयावान रहेंगे, और सद्भाव-चित्त के साथ, बिना भीतरी नफरत पाले विहार करेंगे। हम उस पर मैत्रीपूर्ण मानस बरसाएँगे। और हम उसके आलंबन पर सर्वत्र ब्रह्मांड में — ऐसे सद्भावना से भरे निर्बैर, निर्द्वेष, विस्तृत, विराट, असीम चित्त को फैलाकर परिपूर्णतः व्याप्त करेंगे।’ इस तरह, भिक्षुओं, तुम्हें सीखना चाहिए।

आकाश की उपमा

कल्पना करो, भिक्षुओं, एक पुरुष आता है, लाख, या हल्दी, या नील, या लालिमा लेकर। और कहता है, ‘मैं आकाश में एक चित्र बनाऊँगा, चित्र प्रकट करूँगा।’

तो, भिक्षुओं, तुम्हें क्या लगता है? क्या वह पुरुष आकाश में एक चित्र बनाएगा, चित्र प्रकट करेगा?”

“नहीं, भंते।”

“क्यों नहीं?”

“क्योंकि, भंते, आकाश तो अरूप है, अनिदर्शित (=आकृतिहीन, बिना सतह का) है। उस पर चित्र बनाना, चित्र प्रकट करना सरल नहीं है। अंततः वह पुरुष थकान और परेशानी का भागी होगा।”

“उसी तरह, भिक्षुओं… कोई पराया तुम्हें सुनाते हुए अच्छे समय पर बोल सकता है, या बेसमय। कोई पराया तुम्हें सुनाते हुए सच्चाई के साथ बोल सकता है, या झूठ के साथ। कोई पराया तुम्हें सुनाते हुए मृदुता से बोल सकता है, या कटुता से। कोई पराया तुम्हें सुनाते हुए लाभकारी बात बोल सकता है, या अनर्थकारी। कोई पराया तुम्हें सुनाते हुए सद्भाव-चित्त से बोल सकता है, या भीतरी द्वेष से।

जैसी (भी वचनशैली) हो, भिक्षुओं, तुम्हें सीखना चाहिए कि — ‘न हमारा चित्त विकृत होगा, न हम बुरे वचन बोल पड़ेंगे। हम उसकी भलाई के लिए दयावान रहेंगे, और सद्भाव-चित्त के साथ, बिना भीतरी नफरत पाले विहार करेंगे। हम उस पर मैत्रीपूर्ण मानस बरसाएँगे। और हम उसके आलंबन पर सर्वत्र ब्रह्मांड में — ऐसे सद्भावना से भरे निर्बैर, निर्द्वेष, विस्तृत, विराट, असीम चित्त को फैलाकर परिपूर्णतः व्याप्त करेंगे।’ इस तरह, भिक्षुओं, तुम्हें सीखना चाहिए।

गंगा जल की उपमा

कल्पना करो, भिक्षुओं, एक पुरुष आता है, जलती घास की मशाल लेकर। और कहता है, ‘मैं इस जलती घास की मशाल से गंगा नदी को जला दूँगा, भस्म कर दूँगा।’

तो, भिक्षुओं, तुम्हें क्या लगता है? क्या वह पुरुष जलती घास की मशाल से गंगा नदी को जला देगा, भस्म कर देगा?”

“नहीं, भंते।”

“क्यों नहीं?”

“क्योंकि, भंते, गंगा नदी गहरी और असीम है। उसे घास की जलती मशाल से जला देना, भस्म करना सरल नहीं है। अंततः वह पुरुष थकान और परेशानी का भागी होगा।”

“उसी तरह, भिक्षुओं… कोई पराया तुम्हें सुनाते हुए अच्छे समय पर बोल सकता है, या बेसमय। कोई पराया तुम्हें सुनाते हुए सच्चाई के साथ बोल सकता है, या झूठ के साथ। कोई पराया तुम्हें सुनाते हुए मृदुता से बोल सकता है, या कटुता से। कोई पराया तुम्हें सुनाते हुए लाभकारी बात बोल सकता है, या अनर्थकारी। कोई पराया तुम्हें सुनाते हुए सद्भाव-चित्त से बोल सकता है, या भीतरी द्वेष से।

जैसी (भी वचनशैली) हो, भिक्षुओं, तुम्हें सीखना चाहिए कि — ‘न हमारा चित्त विकृत होगा, न हम बुरे वचन बोल पड़ेंगे। हम उसकी भलाई के लिए दयावान रहेंगे, और सद्भाव-चित्त के साथ, बिना भीतरी नफरत पाले विहार करेंगे। हम उस पर मैत्रीपूर्ण मानस बरसाएँगे। और हम उसके आलंबन पर सर्वत्र ब्रह्मांड में — ऐसे सद्भावना से भरे निर्बैर, निर्द्वेष, विस्तृत, विराट, असीम चित्त को फैलाकर परिपूर्णतः व्याप्त करेंगे।’ इस तरह, भिक्षुओं, तुम्हें सीखना चाहिए।

बिल्ली की चमड़ी से बनी थैली

कल्पना करो, भिक्षुओं, एक बिल्ली के चमड़ी से बना थैला हो, जिसे (पीट-पीटकर) लचीला, अच्छे से लचीला, अत्यधिक लचीला बनाया गया हो — मृदु, रेशमी, और सरसर-चटचट की आवाज से मुक्त । तब, एक पुरुष आता है, लकड़ी या पत्थर लेकर। और कहता है, ‘यह जो बिल्ली के चमड़ी से बना थैला है — जिसे (पीट-पीटकर) लचीला, अच्छे से लचीला, अत्यधिक लचीला बनाया गया है, मृदु, रेशमी, और सरसर-चटचट की आवाज से मुक्त — मैं उसे इस लकड़ी या पत्थर से सरसर कराऊँगा, चटचट कराऊँगा।’

तो, भिक्षुओं, तुम्हें क्या लगता है? क्या वह पुरुष उस बिल्ली के चमड़ी से बना जो थैला है — जिसे (पीट-पीटकर) लचीला, अच्छे से लचीला, अत्यधिक लचीला बनाया गया है, मृदु, रेशमी, और सरसर-चटचट की आवाज से मुक्त — उसे लकड़ी या पत्थर से सरसर कराएगा, चटचट कराएगा?

“नहीं, भंते।”

“क्यों नहीं?”

“क्योंकि, भंते, बिल्ली के चमड़ी से बना थैला (जो पहले से ही बहुत मृदु, लचीला और चिकना होता है) — जिसे (ऊपर से और पीट-पीटकर) लचीला, अच्छे से लचीला, अत्यधिक लचीला बनाया गया हो, मृदु, रेशमी, और सरसर-चटचट की आवाज से मुक्त — उसे लकड़ी या पत्थर से सरसर कराना, चटचट कराना सरल नहीं है। अंततः वह पुरुष थकान और परेशानी का भागी होगा।”

“उसी तरह, भिक्षुओं… कोई पराया तुम्हें सुनाते हुए अच्छे समय पर बोल सकता है, या बेसमय। कोई पराया तुम्हें सुनाते हुए सच्चाई के साथ बोल सकता है, या झूठ के साथ। कोई पराया तुम्हें सुनाते हुए मृदुता से बोल सकता है, या कटुता से। कोई पराया तुम्हें सुनाते हुए लाभकारी बात बोल सकता है, या अनर्थकारी। कोई पराया तुम्हें सुनाते हुए सद्भाव-चित्त से बोल सकता है, या भीतरी द्वेष से।

जैसी (भी वचनशैली) हो, भिक्षुओं, तुम्हें सीखना चाहिए कि — ‘न हमारा चित्त विकृत होगा, न हम बुरे वचन बोल पड़ेंगे। हम उसकी भलाई के लिए दयावान रहेंगे, और सद्भाव-चित्त के साथ, बिना भीतरी नफरत पाले विहार करेंगे। हम उस पर मैत्रीपूर्ण मानस बरसाएँगे। और हम उसके आलंबन पर सर्वत्र ब्रह्मांड में — ऐसे सद्भावना से भरे निर्बैर, निर्द्वेष, विस्तृत, विराट, असीम चित्त को फैलाकर परिपूर्णतः व्याप्त करेंगे।’ इस तरह, भिक्षुओं, तुम्हें सीखना चाहिए।

आरी की उपमा

भले ही, भिक्षुओं, कोई क्रूर लुटेरा, दो मूँठ वाली आरी लेकर तुम्हारे अंग-प्रत्यंग को काटते रहे, तब भी जो मन दूषित करेगा — वह मेरा आज्ञाधारक नहीं है।

तब भी तुम्हें सीखना चाहिए कि — ‘न हमारा चित्त विकृत होगा, न हम बुरे वचन बोल पड़ेंगे। हम उसकी भलाई के लिए दयावान रहेंगे, और सद्भाव-चित्त के साथ, बिना भीतरी नफरत पाले विहार करेंगे। हम उस पर मैत्रीपूर्ण मानस बरसाएँगे। और हम उसके आलंबन पर सर्वत्र ब्रह्मांड में — ऐसे सद्भावना से भरे निर्बैर, निर्द्वेष, विस्तृत, विराट, असीम चित्त को फैलाकर परिपूर्णतः व्याप्त करेंगे।’ इस तरह, भिक्षुओं, तुम्हें सीखना चाहिए।

भिक्षुओं, यदि तुम इस ‘आरी की उपमा वाले निर्देश’ (“ककचूपम ओवाद”) पर अक्सर चिंतन करो, तब क्या तुम्हें वचनशैली का कोई छोटा-बड़ा तरीका दिखाई देता है, जिसे तुम सहन नहीं कर पाओगे?”

“नहीं, भंते।”

“ठीक है, भिक्षुओं, तब तुम इस ‘आरी की उपमा वाले निर्देश’ पर अक्सर चिंतन करो। वह तुम्हारे दीर्घकालीन हित और सुख के लिए होगा।”

भगवान ने ऐसा कहा। हर्षित होकर भिक्षुओं ने भगवान की बात का अभिनंदन किया।

सुत्र समाप्त।


  1. मोळियफग्गुन, या “ऊपर चोटी बांधने वाला फाल्गुन” भंते तीन सूत्रों में आते हैं, लेकिन निश्चित तौर पर पता नहीं चलता कि ये भंते कौन थे। संयुक्तनिकाय १२.१२ में यह भंते बार-बार प्रयास करते हैं कि प्रतित्यसमुत्पाद को किसी तरह “आत्मा” के दृष्टिकोण से समझाया जाए। और संयुक्तनिकाय १२.३२ में सारिपुत्त भंते को खबर मिलती है कि इस मोळियफग्गुन ने प्रवज्जित जीवन को त्याग दिया।

    अट्ठकथा के अनुसार, उन्हें “ऊपर चोटी बांधने वाला फाल्गुन” इसलिए कहा जाता था क्योंकि जब वे गृहस्थ थे, तो अपने केश को मोड़कर विशेष अंदाज से जूड़ा बांधते थे। यह नाम शायद इसलिए भी बना रहा ताकि उसका अंतर उस दूसरे फाल्गुन भंते से किया जा सके, जो अंगुत्तरनिकाय ६.५६, और संभवतः संयुक्तनिकाय ३५.८३ में आते हैं, जिन्होंने एक धर्म को सुनते ही, अनागामी अवस्था प्राप्त की, और चीवर में तुरंत प्राण त्याग दिए। ↩︎

  2. अधिकरण विनय में एक संघ की न्यायिक प्रक्रिया का मामला होता है। इसमें चार अधिकरण नियम हैं, जिसे मज्झिमनिकाय १०४ में भी बताया गया है। यद्यपि इस सूत्र के मामले में अधिकरण का प्रकार स्पष्ट नहीं किया गया, लेकिन अट्ठकथा बताती है कि आयुष्मान मोळियफग्गुन ने कई भिक्षुओं पर तरह-तरह के आरोप लगाए और फिर विनयधारी भिक्षुओं को बुला-बुलाकर संघिक मुकदमा चलवाया। इस कारण इसे अनुवादाधिकरण या “आरोप के कारण उत्पन्न हुआ अधिकरण” कहा गया (चूळवग्ग समथक्खन्धक १४:१४)। ↩︎

  3. इसका अर्थ यह नहीं कि हमले होते व्यक्ति को बचाने का प्रयास न करें। अवश्य बचाना चाहिए, चाहे उस प्रयास में आपकी जान ही क्यों न चली जाए। लेकिन तब भी चित्त को विकृत न होने दें, कोई बुरे वचन न बोल पड़ें। बल्कि हमला होते व्यक्ति से साथ-साथ हमलावर की भलाई के लिए भी दयावान ही बने रहें, सद्भाव-चित्त के साथ, बिना भीतरी नफरत पाले। ↩︎

  4. यह बुद्ध शासन के प्रारम्भिक वर्षों की बात है, जब औपचारिक विनय नियमों की स्थापना नहीं हुई थी। बुद्ध किसी नियमावली की रचना करने में अनिच्छुक थे और उन्होंने ऐसा तभी किया जब इसकी अनिवार्यता महसूस हुई। वे न्याय और दण्ड के माध्यम से नहीं, बल्कि तर्क, प्रोत्साहन, और अपने स्वयं के आचरण से प्रेरणा देकर मार्गदर्शन करना पसंद करते थे, जैसे यहाँ स्पष्ट होता है। ↩︎

  5. अरंडी (Castor) के पौधे बहुत तेजी से बढ़ते हैं और अपने बीजों को दूर-दूर तक फैलाते हैं। अगर इन्हें नियंत्रित न किया जाए तो ये बहुत बड़े क्षेत्र में फैल सकते हैं। जब अरंडी किसी पेड़ या फसल के साथ उगती है, तो यह मिट्टी से सारा पोषक तत्व और पानी छीन लेती है। इससे पेड़ या मुख्य फसल की वृद्धि पर बुरा असर पड़ता है और उपज कम हो जाती है। ↩︎

  6. यहाँ पाली जे शब्द का उपयोग हुआ है, जो औरतों को लिए बहुत अपमानजनक शब्द है। उदाहरण के तौर पर, आम्रपाली वेश्या को पुकारने के लिए, लोग इसी “जे” शब्द का इस्तेमाल करते थे। लेकिन मैंने यहाँ “छोकरी” शब्द का उपयोग करना बेहतर समझा। ↩︎

  7. सुवचो वह होता है, जिससे कुछ भी कहना सरल हो। जो दूसरों की बात धैर्य और विनम्रता से सुनता है — यहाँ तक कि आलोचना, कटु सत्य, या अपमान भी सह लेता है, और फिर भी मैत्रीपूर्ण चित्त बनाए रखता है। ऐसे व्यक्ति का सम्मान उसके पीठ पीछे भी बना रहता है।

    उसके विपरीत, दुर्वचो वह होता है, जिससे कुछ कहना कठिन हो जाता है। ऐसे लोग सुनते नहीं, आलोचना सहन नहीं करते, और बात-बात में उग्र हो जाते हैं। वे अहंकार से भरे होते हैं, और इसी कारण लोग उनसे कुछ कहने से कतराते हैं। लेकिन पीठ पीछे, उनकी निंदा, भर्त्सना, और उपेक्षा होती है। ↩︎

Pali

२२२. एवं मे सुतं – एकं समयं भगवा सावत्थियं विहरति जेतवने अनाथपिण्डिकस्स आरामे. तेन खो पन समयेन आयस्मा मोळियफग्गुनो भिक्खुनीहि सद्धिं अतिवेलं संसट्ठो विहरति. एवं संसट्ठो आयस्मा मोळियफग्गुनो भिक्खुनीहि सद्धिं विहरति – सचे कोचि भिक्खु आयस्मतो मोळियफग्गुनस्स सम्मुखा तासं भिक्खुनीनं अवण्णं भासति, तेनायस्मा मोळियफग्गुनो कुपितो अनत्तमनो अधिकरणम्पि करोति. सचे पन कोचि भिक्खु तासं भिक्खुनीनं सम्मुखा आयस्मतो मोळियफग्गुनस्स अवण्णं भासति, तेन ता भिक्खुनियो कुपिता अनत्तमना अधिकरणम्पि करोन्ति. एवं संसट्ठो आयस्मा मोळियफग्गुनो भिक्खुनीहि सद्धिं विहरति. अथ खो अञ्ञतरो भिक्खु येन भगवा तेनुपसङ्कमि; उपसङ्कमित्वा भगवन्तं अभिवादेत्वा एकमन्तं निसीदि. एकमन्तं निसिन्नो खो सो भिक्खु भगवन्तं एतदवोच – ‘‘आयस्मा, भन्ते, मोळियफग्गुनो भिक्खुनीहि सद्धिं अतिवेलं संसट्ठो विहरति. एवं संसट्ठो, भन्ते, आयस्मा मोळियफग्गुनो भिक्खुनीहि सद्धिं विहरति – सचे कोचि भिक्खु आयस्मतो मोळियफग्गुनस्स सम्मुखा तासं भिक्खुनीनं अवण्णं भासति, तेनायस्मा मोळियफग्गुनो कुपितो अनत्तमनो अधिकरणम्पि करोति. सचे पन कोचि भिक्खु तासं भिक्खुनीनं सम्मुखा आयस्मतो मोळियफग्गुनस्स अवण्णं भासति, तेन ता भिक्खुनियो कुपिता अनत्तमना अधिकरणम्पि करोन्ति. एवं संसट्ठो, भन्ते, आयस्मा मोळियफग्गुनो भिक्खुनीहि सद्धिं विहरती’’ति.

२२३. अथ खो भगवा अञ्ञतरं भिक्खुं आमन्तेसि – ‘‘एहि त्वं , भिक्खु, मम वचनेन मोळियफग्गुनं भिक्खुं आमन्तेहि – ‘सत्था तं, आवुसो फग्गुन, आमन्तेती’’’ति. ‘‘एवं , भन्ते’’ति खो सो भिक्खु भगवतो पटिस्सुत्वा येनायस्मा मोळियफग्गुनो तेनुपसङ्कमि; उपसङ्कमित्वा आयस्मन्तं मोळियफग्गुनं एतदवोच – ‘‘सत्था तं, आवुसो फग्गुन, आमन्तेती’’ति. ‘‘एवमावुसो’’ति खो आयस्मा मोळियफग्गुनो तस्स भिक्खुनो पटिस्सुत्वा येन भगवा तेनुपसङ्कमि; उपसङ्कमित्वा भगवन्तं अभिवादेत्वा एकमन्तं निसीदि. एकमन्तं निसिन्नं खो आयस्मन्तं मोळियफग्गुनं भगवा एतदवोच –

‘‘सच्चं किर त्वं, फग्गुन, भिक्खुनीहि सद्धिं अतिवेलं संसट्ठो विहरसि? एवं संसट्ठो किर त्वं, फग्गुन, भिक्खुनीहि सद्धिं विहरसि – सचे कोचि भिक्खु तुय्हं सम्मुखा तासं भिक्खुनीनं अवण्णं भासति, तेन त्वं कुपितो अनत्तमनो अधिकरणम्पि करोसि. सचे पन कोचि भिक्खु तासं भिक्खुनीनं सम्मुखा तुय्हं अवण्णं भासति, तेन ता भिक्खुनियो कुपिता अनत्तमना अधिकरणम्पि करोन्ति. एवं संसट्ठो किर त्वं, फग्गुन, भिक्खुनीहि सद्धिं विहरसी’’ति? ‘‘एवं, भन्ते’’ति. ‘‘ननु त्वं, फग्गुन, कुलपुत्तो सद्धा अगारस्मा अनगारियं पब्बजितो’’ति? ‘‘एवं, भन्ते’’ति.

२२४. ‘‘न खो ते एतं, फग्गुन, पतिरूपं कुलपुत्तस्स सद्धा अगारस्मा अनगारियं पब्बजितस्स, यं त्वं भिक्खुनीहि सद्धिं अतिवेलं संसट्ठो विहरेय्यासि. तस्मातिह, फग्गुन, तव चेपि कोचि सम्मुखा तासं भिक्खुनीनं अवण्णं भासेय्य, तत्रापि त्वं, फग्गुन, ये गेहसिता [गेहस्सिता (?)] छन्दा ये गेहसिता वितक्का ते पजहेय्यासि. तत्रापि ते, फग्गुन, एवं सिक्खितब्बं – ‘न चेव मे चित्तं विपरिणतं भविस्सति, न च पापिकं वाचं निच्छारेस्सामि, हितानुकम्पी च विहरिस्सामि मेत्तचित्तो, न दोसन्तरो’ति. एवञ्हि ते, फग्गुन, सिक्खितब्बं.

‘‘तस्मातिह, फग्गुन, तव चेपि कोचि सम्मुखा तासं भिक्खुनीनं पाणिना पहारं ददेय्य, लेड्डुना पहारं ददेय्य, दण्डेन पहारं ददेय्य, सत्थेन पहारं ददेय्य. तत्रापि त्वं, फग्गुन, ये गेहसिता छन्दा ये गेहसिता वितक्का ते पजहेय्यासि. तत्रापि ते, फग्गुन, एवं सिक्खितब्बं ‘न चेव मे चित्तं विपरिणतं भविस्सति, न च पापिकं वाचं निच्छारेस्सामि, हितानुकम्पी च विहरिस्सामि मेत्तचित्तो, न दोसन्तरो’ति. एवञ्हि ते, फग्गुन, सिक्खितब्बं.

‘‘तस्मातिह, फग्गुन, तव चेपि कोचि सम्मुखा अवण्णं भासेय्य, तत्रापि त्वं, फग्गुन , ये गेहसिता छन्दा ये गेहसिता वितक्का ते पजहेय्यासि. तत्रापि ते, फग्गुन, एवं सिक्खितब्बं ‘न चेव मे चित्तं विपरिणतं भविस्सति, न च पापिकं वाचं निच्छारेस्सामि, हितानुकम्पी च विहरिस्सामि मेत्तचित्तो, न दोसन्तरो’ति. एवञ्हि ते, फग्गुन, सिक्खितब्बं.

‘‘तस्मातिह, फग्गुन, तव चेपि कोचि पाणिना पहारं ददेय्य, लेड्डुना पहारं ददेय्य, दण्डेन पहारं ददेय्य, सत्थेन पहारं ददेय्य, तत्रापि त्वं, फग्गुन, ये गेहसिता छन्दा ये गेहसिता वितक्का ते पजहेय्यासि. तत्रापि ते, फग्गुन, एवं सिक्खितब्बं ‘न चेव मे चित्तं विपरिणतं भविस्सति, न च पापिकं वाचं निच्छारेस्सामि, हितानुकम्पी च विहरिस्सामि मेत्तचित्तो, न दोसन्तरो’ति. एवञ्हि ते, फग्गुन, सिक्खितब्ब’’न्ति.

२२५. अथ खो भगवा भिक्खू आमन्तेसि – ‘‘आराधयिंसु वत मे, भिक्खवे, भिक्खू एकं समयं चित्तं. इधाहं, भिक्खवे, भिक्खू आमन्तेसिं – अहं खो, भिक्खवे, एकासनभोजनं भुञ्जामि. एकासनभोजनं खो अहं, भिक्खवे, भुञ्जमानो अप्पाबाधतञ्च सञ्जानामि अप्पातङ्कतञ्च लहुट्ठानञ्च बलञ्च फासुविहारञ्च. एथ तुम्हेपि, भिक्खवे, एकासनभोजनं भुञ्जथ. एकासनभोजनं खो, भिक्खवे, तुम्हेपि भुञ्जमाना अप्पाबाधतञ्च सञ्जानिस्सथ अप्पातङ्कतञ्च लहुट्ठानञ्च बलञ्च फासुविहारञ्चाति. न मे, भिक्खवे, तेसु भिक्खूसु अनुसासनी करणीया अहोसि; सतुप्पादकरणीयमेव मे, भिक्खवे, तेसु भिक्खूसु अहोसि.

‘‘सेय्यथापि, भिक्खवे, सुभूमियं चतुमहापथे आजञ्ञरथो युत्तो अस्स ठितो ओधस्तपतोदो. तमेनं दक्खो योग्गाचरियो अस्सदम्मसारथि अभिरुहित्वा, वामेन हत्थेन रस्मियो गहेत्वा, दक्खिणेन हत्थेन पतोदं गहेत्वा, येनिच्छकं यदिच्छकं सारेय्यपि पच्चासारेय्यपि. एवमेव खो, भिक्खवे, न मे तेसु भिक्खूसु अनुसासनी करणीया अहोसि, सतुप्पादकरणीयमेव मे, भिक्खवे, तेसु भिक्खूसु अहोसि. तस्मातिह, भिक्खवे, तुम्हेपि अकुसलं पजहथ, कुसलेसु धम्मेसु आयोगं करोथ. एवञ्हि तुम्हेपि इमस्मिं धम्मविनये वुद्धिं विरूळ्हिं वेपुल्लं आपज्जिस्सथ.

‘‘सेय्यथापि , भिक्खवे, गामस्स वा निगमस्स वा अविदूरे महन्तं सालवनं. तञ्चस्स एळण्डेहि सञ्छन्नं. तस्स कोचिदेव पुरिसो उप्पज्जेय्य अत्थकामो हितकामो योगक्खेमकामो. सो या ता साललट्ठियो कुटिला ओजापहरणियो [ओजहरणियो (क.)] ता छेत्वा [तच्छेत्वा (सी. स्या. पी.)] बहिद्धा नीहरेय्य, अन्तोवनं सुविसोधितं विसोधेय्य. या पन ता साललट्ठियो उजुका सुजाता ता सम्मा परिहरेय्य. एवञ्हेतं, भिक्खवे, सालवनं अपरेन समयेन वुद्धिं विरूळ्हिं वेपुल्लं आपज्जेय्य. एवमेव खो, भिक्खवे, तुम्हेपि अकुसलं पजहथ, कुसलेसु धम्मेसु आयोगं करोथ. एवञ्हि तुम्हेपि इमस्मिं धम्मविनये वुद्धिं विरूळ्हिं वेपुल्लं आपज्जिस्सथ.

२२६. ‘‘भूतपुब्बं, भिक्खवे, इमिस्सायेव सावत्थिया वेदेहिका नाम गहपतानी अहोसि. वेदेहिकाय, भिक्खवे, गहपतानिया एवं कल्याणो कित्तिसद्दो अब्भुग्गतो – ‘सोरता वेदेहिका गहपतानी, निवाता वेदेहिका गहपतानी, उपसन्ता वेदेहिका गहपतानी’ति. वेदेहिकाय खो पन, भिक्खवे, गहपतानिया काळी नाम दासी अहोसि दक्खा अनलसा सुसंविहितकम्मन्ता.

‘‘अथ खो, भिक्खवे, काळिया दासिया एतदहोसि – ‘मय्हं खो अय्याय एवं कल्याणो कित्तिसद्दो अब्भुग्गतो – ‘‘सोरता वेदेहिका गहपतानी, निवाता वेदेहिका गहपतानी, उपसन्ता वेदेहिका गहपतानी’’ति. किं नु खो मे अय्या सन्तंयेव नु खो अज्झत्तं कोपं न पातुकरोति उदाहु असन्तं उदाहु मय्हमेवेते [मय्हेवेते (सी. पी.)] कम्मन्ता सुसंविहिता येन मे अय्या सन्तंयेव अज्झत्तं कोपं न पातुकरोति, नो असन्तं? यंनूनाहं अय्यं वीमंसेय्य’न्ति. अथ खो, भिक्खवे, काळी दासी दिवा उट्ठासि. अथ खो, भिक्खवे, वेदेहिका गहपतानी काळिं दासिं एतदवोच – ‘हे जे काळी’ति. ‘किं, अय्ये’ति? ‘किं, जे, दिवा उट्ठासी’ति? ‘न ख्वय्ये [न खो अय्ये (सी. पी.)], किञ्ची’ति. ‘नो वत रे किञ्चि, पापि दासि [पापदासि (स्या. क.)], दिवा उट्ठासी’ति कुपिता अनत्तमना भाकुटिं [भूकुटिं (सी. पी.), भकुटीं (स्या.)] अकासि. अथ खो, भिक्खवे, काळिया दासिया एतदहोसि – ‘सन्तंयेव खो मे अय्या अज्झत्तं कोपं न पातुकरोति, नो असन्तं; मय्हमेवेते कम्मन्ता सुसंविहिता, येन मे अय्या सन्तंयेव अज्झत्तं कोपं न पातुकरोति, नो असन्तं. यंनूनाहं भिय्योसोमत्ताय अय्यं वीमंसेय्य’’’न्ति.

‘‘अथ खो, भिक्खवे, काळी दासी दिवातरंयेव उट्ठासि. अथ खो, भिक्खवे, वेदेहिका गहपतानी काळिं दासिं एतदवोच – ‘हे जे, काळी’ति. ‘किं, अय्ये’ति? ‘किं, जे, दिवातरं उट्ठासी’ति? ‘न ख्वय्ये, किञ्ची’ति. ‘नो वत रे किञ्चि, पापि दासि, दिवातरं उट्ठासी’ति कुपिता अनत्तमना अनत्तमनवाचं निच्छारेसि. अथ खो, भिक्खवे, काळिया दासिया एतदहोसि – ‘सन्तंयेव खो मे अय्या अज्झत्तं कोपं न पातुकरोति, नो असन्तं. मय्हमेवेते कम्मन्ता सुसंविहिता, येन मे अय्या सन्तंयेव अज्झत्तं कोपं न पातुकरोति, नो असन्तं. यंनूनाहं भिय्योसोमत्ताय अय्यं वीमंसेय्य’न्ति.

‘‘अथ खो, भिक्खवे, काळी दासी दिवातरंयेव उट्ठासि. अथ खो, भिक्खवे, वेदेहिका गहपतानी काळिं दासिं एतदवोच – ‘हे जे, काळी’ति. ‘किं, अय्ये’ति? ‘किं, जे, दिवा उट्ठासी’ति? ‘न ख्वय्ये, किञ्ची’ति. ‘नो वत रे किञ्चि, पापि दासि, दिवा उट्ठासी’ति कुपिता अनत्तमना अग्गळसूचिं गहेत्वा सीसे पहारं अदासि, सीसं वोभिन्दि [वि + अव + भिन्दि = वोभिन्दि]. अथ खो, भिक्खवे, काळी दासी भिन्नेन सीसेन लोहितेन गलन्तेन पटिविस्सकानं उज्झापेसि – ‘पस्सथय्ये, सोरताय कम्मं; पस्सथय्ये, निवाताय कम्मं, पस्सथय्ये, उपसन्ताय कम्मं! कथञ्हि नाम एकदासिकाय दिवा उट्ठासीति कुपिता अनत्तमना अग्गळसूचिं गहेत्वा सीसे पहारं दस्सति, सीसं वोभिन्दिस्सती’ति.

‘‘अथ खो, भिक्खवे, वेदेहिकाय गहपतानिया अपरेन समयेन एवं पापको कित्तिसद्दो अब्भुग्गच्छि – ‘चण्डी वेदेहिका गहपतानी, अनिवाता वेदेहिका गहपतानी, अनुपसन्ता वेदेहिका गहपतानी’ति.

‘‘एवमेव खो, भिक्खवे, इधेकच्चो भिक्खु तावदेव सोरतसोरतो होति निवातनिवातो होति उपसन्तूपसन्तो होति याव न अमनापा वचनपथा फुसन्ति. यतो च, भिक्खवे, भिक्खुं अमनापा वचनपथा फुसन्ति, अथ भिक्खु ‘सोरतो’ति वेदितब्बो, ‘निवातो’ति वेदितब्बो, ‘उपसन्तो’ति वेदितब्बो. नाहं तं, भिक्खवे, भिक्खुं ‘सुवचो’ति वदामि यो चीवरपिण्डपातसेनासनगिलानप्पच्चयभेसज्जपरिक्खारहेतु सुवचो होति, सोवचस्सतं आपज्जति. तं किस्स हेतु? तञ्हि सो, भिक्खवे, भिक्खु चीवरपिण्डपातसेनासनगिलानप्पच्चयभेसज्जपरिक्खारं अलभमानो न सुवचो होति, न सोवचस्सतं आपज्जति. यो च खो, भिक्खवे, भिक्खु धम्मंयेव सक्करोन्तो, धम्मं गरुं करोन्तो, धम्मं मानेन्तो, धम्मं पूजेन्तो, धम्मं अपचायमानो [धम्मं येव सक्करोन्तो धम्मं गरुकरोन्तो धम्मं अपचायमानो (सी. स्या. पी.)] सुवचो होति, सोवचस्सतं आपज्जति, तमहं ‘सुवचो’ति वदामि. तस्मातिह, भिक्खवे, ‘धम्मंयेव सक्करोन्ता, धम्मं गरुं करोन्ता, धम्मं मानेन्ता, धम्मं पूजेन्ता, धम्मं अपचायमाना सुवचा भविस्साम, सोवचस्सतं आपज्जिस्सामा’ति. एवञ्हि वो, भिक्खवे, सिक्खितब्बं.

२२७. ‘‘पञ्चिमे, भिक्खवे, वचनपथा येहि वो परे वदमाना वदेय्युं – कालेन वा अकालेन वा; भूतेन वा अभूतेन वा; सण्हेन वा फरुसेन वा; अत्थसंहितेन वा अनत्थसंहितेन वा; मेत्तचित्ता वा दोसन्तरा वा. कालेन वा, भिक्खवे, परे वदमाना वदेय्युं अकालेन वा; भूतेन वा, भिक्खवे, परे वदमाना वदेय्युं अभूतेन वा; सण्हेन वा, भिक्खवे, परे वदमाना वदेय्युं फरुसेन वा; अत्थसंहितेन वा, भिक्खवे, परे वदमाना वदेय्युं अनत्थसंहितेन वा ; मेत्तचित्ता वा, भिक्खवे, परे वदमाना वदेय्युं दोसन्तरा वा. तत्रापि वो, भिक्खवे, एवं सिक्खितब्बं – ‘न चेव नो चित्तं विपरिणतं भविस्सति, न च पापिकं वाचं निच्छारेस्साम, हितानुकम्पी च विहरिस्साम मेत्तचित्ता, न दोसन्तरा. तञ्च पुग्गलं मेत्तासहगतेन चेतसा फरित्वा विहरिस्साम, तदारम्मणञ्च सब्बावन्तं लोकं मेत्तासहगतेन चित्तेन विपुलेन महग्गतेन अप्पमाणेन अवेरेन अब्याबज्झेन [अब्यापज्झेन (सी. स्या. पी.), अब्यापज्जेन (क.) अङ्गुत्तरतिकनिपातटीका ओलोकेतब्बा] फरित्वा विहरिस्सामा’ति. एवञ्हि वो, भिक्खवे, सिक्खितब्बं.

२२८. ‘‘सेय्यथापि, भिक्खवे, पुरिसो आगच्छेय्य कुदालपिटकं [कुद्दालपिटकं (सी. स्या. पी.)] आदाय. सो एवं वदेय्य – ‘अहं इमं महापथविं अपथविं करिस्सामी’ति . सो तत्र तत्र विखणेय्य [खणेय्य (सी. स्या. पी.)], तत्र तत्र विकिरेय्य, तत्र तत्र ओट्ठुभेय्य, तत्र तत्र ओमुत्तेय्य – ‘अपथवी भवसि, अपथवी भवसी’ति. तं किं मञ्ञथ, भिक्खवे, अपि नु सो पुरिसो इमं महापथविं अपथविं करेय्या’’ति? ‘‘नो हेतं, भन्ते’’. ‘‘तं किस्स हेतु’’? ‘‘अयञ्हि, भन्ते, महापथवी गम्भीरा अप्पमेय्या. सा न सुकरा अपथवी कातुं; यावदेव च पन सो पुरिसो किलमथस्स विघातस्स भागी अस्सा’’ति. ‘‘एवमेव खो, भिक्खवे, पञ्चिमे वचनपथा येहि वो परे वदमाना वदेय्युं – कालेन वा अकालेन वा; भूतेन वा अभूतेन वा; सण्हेन वा फरुसेन वा; अत्थसंहितेन वा अनत्थसंहितेन वा; मेत्तचित्ता वा दोसन्तरा वा. कालेन वा , भिक्खवे, परे वदमाना वदेय्युं अकालेन वा; भूतेन वा भिक्खवे, परे वदमाना वदेय्युं अभूतेन वा; सण्हेन वा, भिक्खवे, परे वदमाना वदेय्युं फरुसेन वा; अत्थसंहितेन वा, भिक्खवे, परे वदमाना वदेय्युं अनत्थसंहितेन वा; मेत्तचित्ता वा, भिक्खवे, परे वदमाना वदेय्युं दोसन्तरा वा. तत्रापि वो, भिक्खवे, एवं सिक्खितब्बं – ‘न चेव नो चित्तं विपरिणतं भविस्सति, न च पापिकं वाचं निच्छारेस्साम, हितानुकम्पी च विहरिस्साम मेत्तचित्ता न दोसन्तरा. तञ्च पुग्गलं मेत्तासहगतेन चेतसा फरित्वा विहरिस्साम, तदारम्मणञ्च सब्बावन्तं लोकं पथविसमेन चेतसा विपुलेन महग्गतेन अप्पमाणेन अवेरेन अब्याबज्झेन फरित्वा विहरिस्सामा’ति. एवञ्हि वो, भिक्खवे, सिक्खितब्बं.

२२९. ‘‘सेय्यथापि, भिक्खवे, पुरिसो आगच्छेय्य लाखं वा हलिद्दिं वा नीलं वा मञ्जिट्ठं वा आदाय. सो एवं वदेय्य – ‘अहं इमस्मिं आकासे रूपं लिखिस्सामि, रूपपातुभावं करिस्सामी’ति. तं किं मञ्ञथ, भिक्खवे, अपि नु सो पुरिसो इमस्मिं आकासे रूपं लिखेय्य, रूपपातुभावं करेय्या’’ति? ‘‘नो हेतं, भन्ते’’. ‘‘तं किस्स हेतु’’? ‘‘अयञ्हि, भन्ते, आकासो अरूपी अनिदस्सनो. तत्थ न सुकरं रूपं लिखितुं, रूपपातुभावं कातुं; यावदेव च पन सो पुरिसो किलमथस्स विघातस्स भागी अस्सा’’ति. ‘‘एवमेव खो, भिक्खवे, पञ्चिमे वचनपथा येहि वो परे वदमाना वदेय्युं कालेन वा अकालेन वा …पे… ‘न चेव… तदारम्मणञ्च सब्बावन्तं लोकं आकाससमेन चेतसा विपुलेन महग्गतेन अप्पमाणेन अवेरेन अब्याबज्झेन फरित्वा विहरिस्सामा’ति. एवञ्हि वो, भिक्खवे, सिक्खितब्बं.

२३०. ‘‘सेय्यथापि, भिक्खवे, पुरिसो आगच्छेय्य आदित्तं तिणुक्कं आदाय. सो एवं वदेय्य – ‘अहं इमाय आदित्ताय तिणुक्काय गङ्गं नदिं सन्तापेस्सामि संपरितापेस्सामी’ति. तं किं मञ्ञथ, भिक्खवे, अपि नु सो पुरिसो आदित्ताय तिणुक्काय गङ्गं नदिं सन्तापेय्य संपरितापेय्या’’ति? ‘‘नो हेतं, भन्ते’’. ‘‘तं किस्स हेतु’’? ‘‘गङ्गा हि, भन्ते, नदी गम्भीरा अप्पमेय्या. सा न सुकरा आदित्ताय तिणुक्काय सन्तापेतुं संपरितापेतुं; यावदेव च पन सो पुरिसो किलमथस्स विघातस्स भागी अस्सा’’ति. ‘‘एवमेव खो, भिक्खवे, पञ्चिमे वचनपथा येहि वो परे वदमाना वदेय्युं कालेन वा अकालेन वा…पे… ‘न चेव… तदारम्मणञ्च सब्बावन्तं लोकं गङ्गासमेन चेतसा विपुलेन महग्गतेन अप्पमाणेन अवेरेन अब्याबज्झेन फरित्वा विहरिस्सामा’’ति. एवञ्हि वो, भिक्खवे, सिक्खितब्बं.

२३१. ‘‘सेय्यथापि, भिक्खवे, बिळारभस्ता मद्दिता सुमद्दिता सुपरिमद्दिता, मुदुका तूलिनी छिन्नसस्सरा छिन्नभब्भरा. अथ पुरिसो आगच्छेय्य कट्ठं वा कथलं [कठलं (सी. स्या. पी.)] वा आदाय. सो एवं वदेय्य – ‘अहं इमं बिळारभस्तं मद्दितं सुमद्दितं सुपरिमद्दितं, मुदुकं तूलिनिं, छिन्नसस्सरं छिन्नभब्भरं कट्ठेन वा कथलेन वा सरसरं करिस्सामि भरभरं करिस्सामी’ति . तं किं मञ्ञथ, भिक्खवे, अपि नु सो पुरिसो अमुं बिळारभस्तं मद्दितं सुमद्दितं सुपरिमद्दितं, मुदुकं तूलिनिं, छिन्नसस्सरं छिन्नभब्भरं कट्ठेन वा कथलेन वा सरसरं करेय्य, भरभरं करेय्या’’ति? ‘‘नो हेतं, भन्ते’’. ‘‘तं किस्स हेतु’’? ‘‘अमु हि, भन्ते, बिळारभस्ता मद्दिता सुमद्दिता सुपरिमद्दिता, मुदुका तूलिनी, छिन्नसस्सरा छिन्नभब्भरा. सा न सुकरा कट्ठेन वा कथलेन वा सरसरं कातुं भरभरं कातुं; यावदेव च पन सो पुरिसो किलमथस्स विघातस्स भागी अस्सा’’ति. ‘‘एवमेव खो, भिक्खवे, पञ्चिमे वचनपथा येहि वो परे वदमाना वदेय्युं कालेन वा अकालेन वा; भूतेन वा अभूतेन वा; सण्हेन वा फरुसेन वा; अत्थसंहितेन वा अनत्थसंहितेन वा; मेत्तचित्ता वा दोसन्तरा वा. कालेन वा भिक्खवे परे वदमाना वदेय्युं अकालेन वा; भूतेन वा, भिक्खवे, परे वदमाना वदेय्युं अभूतेन वा; सण्हेन वा, भिक्खवे, परे वदमाना वदेय्युं फरुसेन वा; अत्थसंहितेन वा, भिक्खवे, परे वदमाना वदेय्युं अनत्थसंहितेन वा; मेत्तचित्ता वा, भिक्खवे, परे वदमाना वदेय्युं दोसन्तरा वा. तत्रापि वो, भिक्खवे, एवं सिक्खितब्बं – ‘न चेव नो चित्तं विपरिणतं भविस्सति, न च पापिकं वाचं निच्छारेस्साम हितानुकम्पी च विहरिस्साम मेत्तचित्ता न दोसन्तरा. तञ्च पुग्गलं मेत्तासहगतेन चेतसा फरित्वा विहरिस्साम, तदारम्मणञ्च सब्बावन्तं लोकं बिळारभस्तासमेन चेतसा विपुलेन महग्गतेन अप्पमाणेन अवेरेन अब्याबज्झेन फरित्वा विहरिस्सामा’ति. एवञ्हि वो, भिक्खवे, सिक्खितब्बं.

२३२. ‘‘उभतोदण्डकेन चेपि, भिक्खवे, ककचेन चोरा ओचरका अङ्गमङ्गानि ओकन्तेय्युं, तत्रापि यो मनो पदूसेय्य, न मे सो तेन सासनकरो. तत्रापि वो, भिक्खवे , एवं सिक्खितब्बं – ‘न चेव नो चित्तं विपरिणतं भविस्सति, न च पापिकं वाचं निच्छारेस्साम, हितानुकम्पी च विहरिस्साम मेत्तचित्ता न दोसन्तरा. तञ्च पुग्गलं मेत्तासहगतेन चेतसा फरित्वा विहरिस्साम तदारम्मणञ्च सब्बावन्तं लोकं मेत्तासहगतेन चेतसा विपुलेन महग्गतेन अप्पमाणेन अवेरेन अब्याबज्झेन फरित्वा विहरिस्सामा’ति. एवञ्हि वो, भिक्खवे, सिक्खितब्बं.

२३३. ‘‘इमञ्च [इमञ्चे (?)] तुम्हे, भिक्खवे, ककचूपमं ओवादं अभिक्खणं मनसि करेय्याथ. पस्सथ नो तुम्हे, भिक्खवे, तं वचनपथं, अणुं वा थूलं वा, यं तुम्हे नाधिवासेय्याथा’’ति? ‘‘नो हेतं, भन्ते’’. ‘‘तस्मातिह, भिक्खवे, इमं ककचूपमं ओवादं अभिक्खणं मनसिकरोथ. तं वो भविस्सति दीघरत्तं हिताय सुखाया’’ति.

इदमवोच भगवा. अत्तमना ते भिक्खू भगवतो भासितं अभिनन्दुन्ति.

ककचूपमसुत्तं निट्ठितं पठमं.