यह उपदेश “दिट्ठिगत”, या पापी धारणाओं को अपनाने की प्रवृत्तियों पर केन्द्रित है। इस उपदेश में भगवान ने बहुत प्रसिद्ध दो उपमाएँ दी हैं: साँप की, और बेड़े की। इन दोनों का उद्देश्य यह दिखाना है कि धम्म को सही ढंग से, कौशलपूर्वक समझना और ग्रहण करना कितना ज़रूरी है। उसे दुख-निवृत्ति का साधन बनाना चाहिए, न कि किसी प्रकार की आसक्ति या बहस का विषय। और जब वह अपने उद्देश्य को पूरा कर दे, तब उसे भी त्याग देना चाहिए।
इस सूत्र में अरिट्ठ भिक्षु, जो पहले गिद्ध पकड़ने के व्यवसाय में थे, उसे पापी धारणा उपजती है। उसका स्पष्ट विवरण इस सूत्र में नहीं मिलता है। किन्तु, अट्ठकथा में लिखा मिलता है —
“यह भिक्षु, एकांत में बैठ कर विचार करता है, ‘बहुत से लोग गृहस्थ जीवन में पाँच कामभोग करते हुए भी सोतापन्न, सकदागामी और अनागामी बन जाते हैं। और भिक्षु भी तो आंखों से सुखद रूप देखते हैं, कानों से मधुर ध्वनि सुनते हैं, गंध सूंघते हैं, स्वाद लेते हैं, शरीर से सुखद स्पर्श अनुभव करते हैं। वे कोमल वस्त्रों और आसनों का उपयोग करते हैं — जब यह सब उचित (=सेवन करने के योग्य) माना जाता है। तब स्त्री के रूप, आवाज़, गंध, स्वाद और स्पर्श को अनुचित क्यों माना जाए? उनका सेवन भी उचित होना चाहिए!’
इस प्रकार, जैसे कोई एक सरसों के दाने की तुलना महासुमेरु पर्वत से करे, वैसा कर के वह यह दुष्ट पापी दृष्टिकोण अपनाता है, ‘भगवान ने ‘समुद्र को समेटने के जैसा’ विकट प्रयास कर प्रथम पाराजिक नियम (=स्त्री से संभोग के खिलाफ नियम) क्यों बनाया? इसमें कुछ भी गलत नहीं है।’”
यहाँ स्पष्ट होता है कि भिक्षु अरिट्ठ, धर्म के एक तर्क को खींचते-खींचते, किसी अनर्थकारी निष्कर्ष पर पहुँच गए थे। धर्म के किसी तर्क को खींच-खींचकर उससे कोई धारणा बना लेने का मतलब यह नहीं होता कि वह धारणा सही हो, उचित हो, कल्याणी हो, या उपयोगी हो। बुद्ध का मार्ग केवल तर्क पर नहीं, सम्यक दृष्टि और अनुभवजन्य ज्ञान पर आधारित है — जो दुःख के अंत की ओर ले जाती है। भगवान ने स्वयं इस बात को अंगुत्तरनिकाय २:२५ में कहा था कि “दो प्रकार के लोग उनकी शिक्षाओं को गलत तरीके से प्रस्तुत करते हैं:
(१) वे जो उनके बयानों से गलत निष्कर्ष निकालते हैं — ऐसा निष्कर्ष जिसे निकालना उचित नहीं था। वे उत्तर (के तर्क) को कुछ ज्यादा ही खींच कर उसे अनर्थकारी बातों पर लागू कर देते हैं।
(२) वे जो उन बयानों से उस निष्कर्ष को नहीं निकालते, जिसे निकालना जरूरी था। यानि, वे उत्तर को उन अन्य पहलुओं पर लागू नहीं करते, जहाँ उसकी जरूरत थी।
इसका सीधा अर्थ यह है कि धर्म को समझने में विवेक, सावधानी और प्रामाणिक संदर्भों की आवश्यकता होती है। केवल सतही तर्क या निजी समझ पर आधारित व्याख्या अक्सर गलत दिशा में ले जा सकती है — जैसा अरिट्ठ के उदाहरण में देखने को मिलता है।
इसके बारे में अधिक जानने के लिए हमारे आवश्यक लेख पढ़ें — क्या धर्म का तार्किक होना अनिवार्य है? और आत्मा है, या नहीं?
ऐसा मैंने सुना — एक समय भगवान श्रावस्ती में अनाथपिण्डक के जेतवन उद्यान में विहार कर रहे थे। उस समय अरिट्ठ नामक भिक्षु, जो पहले गिद्ध पकड़ता था, उसे ऐसी पापी धारणा उत्पन्न हुई — “जिस तरह मैं भगवान की धर्म शिक्षा को जानता हूँ, जिन धर्मों (स्वभावों) को भगवान बाधा (“अन्तराय”) कहते हैं, वे आत्मसात करने वाले को (दरअसल) बाधित नहीं करते हैं।” 1
तब बहुत से भिक्षुओं ने सुना — “अरिट्ठ नामक भिक्षु, जो पहले गिद्ध पकड़ता था, उसे ऐसी पापी धारणा उत्पन्न हुई — “जिस तरह मैं भगवान की धर्म शिक्षा को जानता हूँ, जिन धर्मों को भगवान बाधा कहते हैं, वे आत्मसात करने वाले को बाधित नहीं करते हैं।”
तब वे भिक्षुगण अरिट्ठ भिक्षु के पास गए। जाकर भिक्षुओं ने अरिट्ठ भिक्षु से कहा, “क्या यह सच है, मित्र अरिट्ठ, कि तुम्हें ऐसी पापी धारणा उत्पन्न हुई है — ‘जिस तरह मैं भगवान की धर्म शिक्षा को जानता हूँ, जिन धर्मों को भगवान बाधा कहते हैं, वे आत्मसात करने वाले को बाधित नहीं करते हैं?’”
“ऐसा ही (सच) है, मित्रों। जिस तरह मैं भगवान की धर्म शिक्षा को जानता हूँ, जिन धर्मों को भगवान बाधा कहते हैं, वे आत्मसात करने वाले को बाधित नहीं करते हैं।”
तब वे भिक्षुगण, अरिट्ठ भिक्षु को उस पापी धारणा से दूर हटाने के लिए, उसे मनाने लगे, दबाव डालने लगे, पूछताछ करने लगे — “ऐसा मत कहो, मित्र अरिट्ठ। भगवान का मिथ्यावर्णन मत करो। भगवान का मिथ्यावर्णन करना अच्छा नहीं है। भगवान ऐसा नहीं कहते हैं। भगवान अनेक प्रकार से जिन धर्मों को बाधा कहते हैं, मित्र अरिट्ठ, वे आत्मसात करने वाले को बाधित ही करते हैं।
भगवान कामुकता को —
हालांकि वे भिक्षुगण, अरिट्ठ भिक्षु को इस तरह मनाने लगे, दबाव डालने लगे, पूछताछ करने लगे, तब भी वह अपने पापी धारणा को जिद के साथ पकड़े रहा और दुराग्रह करते रहा — “जिस तरह मैं भगवान की धर्म शिक्षा को जानता हूँ, जिन धर्मों को भगवान बाधा कहते हैं, वे आत्मसात करने वाले को बाधित नहीं करते हैं।”
जब वे भिक्षुगण अरिट्ठ भिक्षु को उसकी पापी धारणा से दूर हटाने में असफल हुए, तब वे भिक्षु भगवान के पास गए। जाकर भगवान को अभिवादन कर वे एक ओर बैठ गए। एक ओर बैठकर उन भिक्षुओं ने भगवान से (सब कुछ) कह दिया, “भंते, अरिट्ठ नामक भिक्षु, जो पहले गिद्ध पकड़ता था, उसे ऐसी पापी धारणा उत्पन्न हुई… हम अरिट्ठ भिक्षु को इस तरह मनाने लगे, दबाव डालने लगे, पूछताछ करने लगे, तब भी वह अपने पापी धारणा को जिद के साथ पकड़े रहा और दुराग्रह करते रहा — ‘जिस तरह मैं भगवान की धर्म शिक्षा को जानता हूँ, जिन धर्मों को भगवान बाधा कहते हैं, वे आत्मसात करने वाले को बाधित नहीं करते हैं।’”
तब भगवान ने (पास खड़े) किसी भिक्षु को संबोधित किया, “जाओ, भिक्षु, मेरे नाम पर अरिट्ठ भिक्षु, जो पहले गिद्ध पकड़ता था, उसे सूचना दो, ‘मित्र अरिट्ठ, शास्ता तुम्हें आमंत्रित करते हैं।’”
“ठीक है, भंते!” उस भिक्षु ने भगवान को उत्तर दिया, अरिट्ठ भिक्षु के पास गया, और जाकर अरिट्ठ भिक्षु से कहा, “मित्र अरिट्ठ, शास्ता तुम्हें आमंत्रित करते हैं।”
“ठीक है, मित्र!” अरिट्ठ भिक्षु ने उस भिक्षु को उत्तर दिया, और भगवान के पास गए। भगवान के पास जाकर, अभिवादन कर, वे एक ओर बैठ गए। एक ओर बैठे अरिट्ठ भिक्षु से भगवान ने कहा:
“क्या यह सच है, अरिट्ठ, कि तुम्हें ऐसी पापी धारणा उत्पन्न हुई है — ‘जिस तरह मैं भगवान की धर्म शिक्षा को जानता हूँ, जिन धर्मों को भगवान बाधा कहते हैं, वे आत्मसात करने वाले को बाधित नहीं करते हैं?’”
“बिलकुल ऐसा ही है, भंते। जिस तरह मैं भगवान की धर्म शिक्षा को जानता हूँ, ‘जिन धर्मों को भगवान बाधा कहते हैं, वे आत्मसात करने वाले को बाधित नहीं करते हैं।’”
“निकम्मे पुरुष, मैंने इस तरह धर्म किसे बताया, जिसे जानते हो? निकम्मे पुरुष, क्या मैंने अनेक प्रकार से बाधित करते स्वभावों को बाधा नहीं कहा, जो आत्मसात करने वाले को बाधित करते हैं?
मैंने कामुकता को —
किन्तु तब भी, निकम्मे पुरुष, तुम स्वयं की गलत धारणा से मेरा मिथ्यावर्णन कर स्वयं को घायल करते हो, और बहुत अपुण्य (=बुरा कर्म) कमाते हो। निकम्मे पुरुष, यह तुम्हारे लिए दीर्घकाल तक अहितकारी और दुःखदायी होगा।” 3
और तब, भगवान ने भिक्षुओं को संबोधित किया —
“तुम्हें क्या लगता है, भिक्षुओं? क्या इस अरिट्ठ भिक्षु ने इस धर्म-विनय में थोड़ी भी गर्मी पैदा की है?” 4
“कैसे हो सकता है, भंते? नहीं, भंते!”
जब ऐसा कहा गया, तो अरिट्ठ भिक्षु, जो पहले गिद्ध पकड़ता था, चुप हो गया, और लज्जित हो, कंधे झुकाए, सिर नीचे कर, उदास मन से, निशब्द होकर बैठा रहा।
तब भगवान ने अरिट्ठ भिक्षु को चुप होकर, लज्जित होकर, कंधे झुकाए, सिर नीचे किए, उदास मन से, निशब्द होकर बैठा जान कर, अरिट्ठ भिक्षु से कहा, “निकम्मे पुरुष, तुम्हें स्वयं की पापी धारणा से ही पहचाना जाएगा। अब मैं इस मुद्दे पर भिक्षुओं से प्रतिप्रश्न करूँगा।”
और, भगवान ने भिक्षुओं को संबोधित किया —
“क्या तुम भी, भिक्षुओं, इस अरिट्ठ भिक्षु की तरह मेरी शिक्षा को समझते हो, जो स्वयं की गलत धारणा से मेरा मिथ्यावर्णन कर स्वयं को घायल करता है, और बहुत अपुण्य कमाता है?”
“नहीं, भंते। भगवान ने अनेक प्रकार से जिन धर्मों को बाधा कहा हैं, वे आत्मसात करने वाले को बाधित ही करते हैं। भगवान ने कामुकता को —
“साधु साधु, भिक्षुओं। बहुत अच्छा हैं जो तुम मेरी शिक्षा को इस तरह समझते हो। मैंने अनेक प्रकार से बाधित करते स्वभावों को बाधा कहा हैं, जो आत्मसात करने वाले को बाधित ही करते हैं। मैंने कामुकता को —
किन्तु तब भी, यह अरिट्ठ भिक्षु स्वयं की गलत धारणा से मेरा मिथ्यावर्णन कर स्वयं को घायल करता है, और बहुत अपुण्य कमाता है। यह इस निकम्मे पुरुष के लिए दीर्घकाल तक अहितकारी और दुःखदायी होगा।
वाकई, भिक्षुओं, कामुकता के अलावा, कामुक संज्ञाओं के अलावा, कामुक विचारों के अलावा कामुकता का सेवन करना असंभव है।
ऐसा होता है, भिक्षुओं, कोई निकम्मा पुरुष धर्म का अध्ययन करता है — सूत्र, गद्य, विश्लेषण, गाथा, उद्गार, उद्धरण, पूर्वजन्म कथा, चमत्कारी घटना, और संवाद। किन्तु वह धर्म का अध्ययन धर्म के अर्थ का प्रज्ञापूर्वक परीक्षण करने के लिए नहीं करता है। वह धर्म के अर्थ का प्रज्ञापूर्वक परीक्षण न कर, चिंतन-मनन कर धर्म को स्वीकार तक नहीं करता है।
बल्कि वह धर्म का अध्ययन केवल बहस करने के लिए, और धारणाओं से जुड़े वाद-विवाद को जीतने के लिए करता है। वाकई जिस ध्येय से धर्म का अध्ययन किया जाता है, वह उस ध्येय को छूता तक नहीं है। इस तरह, धर्म को गलत तरह से पकड़ना (=धारण करना), दीर्घकाल तक अहितकारी और दुःखदायी होता है। ऐसा क्यों? क्योंकि धर्म को गलत तरह से पकड़ा गया।
जैसे, भिक्षुओं, किसी पुरुष को (विषैले) जलसर्प की आवश्यकता हो, जो जलसर्प को ढूँढते हुए, जलसर्प की खोज में भटक रहा हो। तब उसे एक विशाल जलसर्प दिखाई देता है। उसे वह कुंडल या पूँछ से पकड़ता है। तब जलसर्प पलट कर उसके हाथ, बाह या किसी अंग-प्रत्यंग को डस लेगा। उस कारण उस पुरुष की मौत या मौत जैसी पीड़ा होगी। ऐसा क्यों? क्योंकि जलसर्प को गलत तरह से पकड़ा गया।
भिक्षुओं, कोई निकम्मा पुरुष धर्म का अध्ययन करता है — सूत्र, गद्य, विश्लेषण, गाथा, उद्गार, उद्धरण, पूर्वजन्म कथा, चमत्कारी घटना, और संवाद। किन्तु वह धर्म का अध्ययन धर्म के अर्थ का प्रज्ञापूर्वक परीक्षण करने के लिए नहीं करता है। वह धर्म के अर्थ का प्रज्ञापूर्वक परीक्षण न कर, चिंतन-मनन कर धर्म को स्वीकार तक नहीं करता है।
बल्कि वह धर्म का अध्ययन केवल बहस करने के लिए, और धारणाओं से जुड़े वाद-विवाद को जीतने के लिए करता है। वाकई जिस ध्येय से धर्म का अध्ययन किया जाता है, वह उस ध्येय को छूता तक नहीं है। इस तरह, धर्म को गलत तरह से पकड़ना दीर्घकाल तक अहितकारी और दुःखदायी होता है। ऐसा क्यों? क्योंकि धर्म को गलत तरह से पकड़ा गया।
किन्तु, भिक्षुओं, कोई (अच्छे घर का) कुलपुत्र धर्म का अध्ययन करता है — सूत्र, गद्य, विश्लेषण, गाथा, उद्गार, उद्धरण, पूर्वजन्म कथा, चमत्कारी घटना, और संवाद। वह धर्म का अध्ययन धर्म के अर्थ का प्रज्ञापूर्वक परीक्षण करने के लिए करता है। वह धर्म के अर्थ का प्रज्ञापूर्वक परीक्षण कर, चिंतन-मनन कर धर्म को स्वीकार करता है।
वह धर्म का अध्ययन केवल बहस करने के लिए, और धारणाओं से जुड़े वाद-विवाद को जीतने के लिए नहीं करता है। बल्कि वाकई जिस ध्येय से धर्म का अध्ययन किया जाता है, वह उस ध्येय को प्राप्त करता है। इस तरह, धर्म को सही तरह से पकड़ना दीर्घकाल तक हितकारी और सुखदायी होता है। ऐसा क्यों? क्योंकि धर्म को सही तरह से पकड़ा गया।
जैसे, भिक्षुओं, किसी पुरुष को (विषैले) जलसर्प की आवश्यकता हो, जो जलसर्प को ढूँढते हुए, जलसर्प की खोज में भटक रहा हो। तब उसे एक विशाल जलसर्प दिखाई देता है। उसे वह दो मुँहे डंडे से अच्छे से दबाता है। दो मुँहे डंडे से अच्छे से दबाने पर, वह उसकी गर्दन को अच्छे से पकड़ता है। तब भले ही जलसर्प उसके हाथ, बाह या किसी अंग-प्रत्यंग को लपेट सकता है, किन्तु उस कारण उस पुरुष की न मौत होगी, न ही मौत जैसी पीड़ा। ऐसा क्यों? क्योंकि जलसर्प को सही तरह से पकड़ा गया।
उसी तरह, भिक्षुओं, कोई कुलपुत्र धर्म का अध्ययन करता है — सूत्र, गद्य, विश्लेषण, गाथा, उद्गार, उद्धरण, पूर्वजन्म कथा, चमत्कारी घटना, और संवाद। वह धर्म का अध्ययन धर्म के अर्थ का प्रज्ञापूर्वक परीक्षण करने के लिए करता है। वह धर्म के अर्थ का प्रज्ञापूर्वक परीक्षण कर, चिंतन-मनन कर धर्म को स्वीकार करता है।
वह धर्म का अध्ययन केवल बहस करने के लिए, और धारणाओं से जुड़े वाद-विवाद को जीतने के लिए नहीं करता है। बल्कि वाकई जिस ध्येय से धर्म का अध्ययन किया जाता है, वह उस ध्येय को प्राप्त करता है। इस तरह, धर्म को सही तरह से पकड़ना दीर्घकाल तक हितकारी और सुखदायी होता है। ऐसा क्यों? क्योंकि धर्म को सही तरह से पकड़ा गया।
इसलिए, भिक्षुओं, जब तुम्हें मेरा बताए का अर्थ समझ आता है, तब उसे उसी तरह धारण करना चाहिए। और जब तुम्हें मेरे बताए का अर्थ नहीं समझ आता, तब उसके बारे में मुझे प्रतिप्रश्न करना चाहिए, या किसी अनुभवी भिक्षु को।
भिक्षुओं, मैं बेड़े की उपमा से धर्म बताता हूँ, जो लाँघने के ध्येय से है, पकड़ने के धेय से नहीं। ध्यान देकर गौर से सुनों, मैं बताता हूँ।”
“ठीक है, भंते।” भिक्षुओं ने भगवान को उत्तर दिया। भगवान ने कहा —
“जैसे, भिक्षुओं, कोई पुरुष किसी मार्ग पर चल रहा हो। उसे बड़ी बाढ़ दिखाई देती है, जिसका करीबी तट संदेहास्पद और खतरनाक हो, जबकि दूर का तट सुरक्षित हो, खतरनाक न हो । इस पार से उस पार जाने के लिए न कोई नाव उपलब्ध हो, न ही पुल।
तब उसे लगता है, ‘यहाँ तो बड़ी बाढ़ दिखाई देती है, जिसका करीबी तट संदेहास्पद और खतरनाक है, जबकि दूर का तट सुरक्षित है, खतरनाक नहीं। किन्तु इस पार से उस पार जाने के लिए न कोई नाव उपलब्ध है, न ही पुल। क्यों न मैं घास, लकड़ियाँ, टहनियाँ और पत्तों को इकट्ठा करूँ, और एक बेड़ा बांधूँ? उस बेड़े पर सवार होकर, हाथों और पैरों को चलाकर, पार करते हुए दूर के सुरक्षित तट पर पहुँच जाऊँगा।’ 5
तब, भिक्षुओं, वह पुरुष घास, लकड़ियाँ, टहनियाँ और पत्तों को इकट्ठा करता है, और एक बेड़ा बाँधता है। और फिर उस बेड़े पर सवार होकर, हाथों और पैरों को चलाकर, पार करते हुए दूर के सुरक्षित तट पर पहुँचता है।
जब वह पुरुष लाँघ कर पार कर लेता है, तो उसे लगता है, “यह बेड़ा मेरे लिए बहुत उपयोगी हुई। मैं इसी बेड़े पर सवार होकर, हाथों और पैरों को चलाकर, पार करते हुए दूर के सुरक्षित तट पर पहुँच गया हूँ। क्यों न मैं इस बेड़े को अपने सिर पर रख कर, या कंधे पर उठा कर, जहाँ जाना चाहूँ वहाँ जाऊँ?”
तुम्हें क्या लगता है, भिक्षुओं? क्या वह पुरुष उस बेड़े के साथ जो किया जाना चाहिए, वह कर रहा है?”
“नहीं, भंते।”
“तब, उस पुरुष को उस बेड़े के साथ क्या करना चाहिए? जब वह पुरुष लाँघ कर पार कर लेता है, उसे लगता है, “यह बेड़ा मेरे लिए बहुत उपयोगी हुई। मैं इसी बेड़े पर सवार होकर, हाथों और पैरों को चलाकर, पार करते हुए दूर के सुरक्षित तट पर पहुँच गया हूँ। क्यों न मैं अब इस बेड़े को थल पर खींचूँ, या जल में बहा दूँ, और फिर जहाँ जाना चाहूँ वहाँ जाऊँ?” इस तरह करने पर, वह पुरुष उस बेड़े के साथ जो किया जाना चाहिए, वह करेगा।
उसी तरह, भिक्षुओं, मैंने बेड़े की उपमा से धर्म बताया है, जो लाँघने के ध्येय से है, पकड़ने के धेय से नहीं। इस तरह, भिक्षुओं, बेड़े की उपमा से धर्म समझते हुए, जब तुम्हें अंततः धर्म को भी त्याग देना है, तो अधर्म का बात ही क्या?
भिक्षुओं, दृष्टियों के छह आधार हैं। 6 कौन से छह?
भिक्षुओं, कोई ऐसा जो आर्यजनों के दर्शन से वंचित, आर्य-धर्म से अपरिचित, आर्य-धर्म में अनुशासित न हो; या सत्पुरुषों के दर्शन से वंचित, सत्पुरूष-धर्म से अपरिचित, सत्पुरूष-धर्म में अनुशासित न हो, ऐसे धर्म न सुना, आम आदमी —
किन्तु, भिक्षुओं, कोई ऐसा जो धर्म सुना आर्यश्रावक हो, जो आर्यजनों के दर्शन से लाभान्वित, आर्य-धर्म से परिचित, आर्य-धर्म में अनुशासित हो; या सत्पुरुषों के दर्शन से लाभान्वित, सत्पुरूष-धर्म से परिचित, सत्पुरूष-धर्म में अनुशासित हो —
— इस तरह देखने से जो न हो, वे उसे लेकर व्याकुल नहीं होते हैं।”
जब ऐसा कहा गया, तो किसी भिक्षु ने भगवान से कहा, “भंते, जो बाहर न हो, क्या उसे लेकर व्याकुलता हो सकती है?”
“हो सकती है, भिक्षु”, भगवान ने कहा।
“जब किसी भिक्षु को लगता है, ‘ओ, वह मेरा था! ओ, जो मेरा था, वह नहीं रहा! ओ, काश वह मेरा हो जाए! ओ, वह मुझे प्राप्त नहीं होता’ — और वह अफ़सोस करता है, ढ़ीला पड़ता है, विलाप करता है, छाती पीटता है, बावला हो जाता है। इस तरह, भिक्षु, जो बाहर न हो, उसे लेकर व्याकुलता होती है।”
“किन्तु, भंते, जो बाहर न हो, क्या उसे लेकर व्याकुलता नहीं हो सकती?”
“ऐसा हो सकता है, भिक्षु”, भगवान ने कहा।
“जब किसी भिक्षु को नहीं लगता है, ‘ओ, वह मेरा था! ओ, जो मेरा था, वह नहीं रहा! ओ, काश वह मेरा हो जाए! ओ, वह मुझे प्राप्त नहीं होता’— और वह न अफ़सोस करता है, न ढ़ीला पड़ता है, न विलाप करता है, न छाती पीटता है, न ही बावला हो जाता है। इस तरह, भिक्षु, जो बाहर न हो, उसे लेकर व्याकुलता नहीं होती।”
“किन्तु, भंते, जो भीतर न हो, क्या उसे लेकर व्याकुलता हो सकती है?”
“हो सकती है, भिक्षु”, भगवान ने कहा।
“ऐसा है, भिक्षु, किसी की दृष्टि ऐसी होती है — ‘जो लोक है, वही आत्मा है। और मरणोपरांत मैं भी वही नित्य, ध्रुव, शाश्वत, अपरिवर्तनशील होकर, हमेशा-हमेशा के लिए बने रहूँगा।’ (किन्तु) वह तथागत या तथागत के श्रावक को धर्म बताते हुए सुनता है — दृष्टियों के आधार, अधिष्ठान, पूर्वाग्रह, झुकाव, और अनुशय का जड़ से उखड़ना, सभी रचनाओं का रुकना, सभी अर्जित वस्तुओं का त्याग, तृष्णा का क्षय, विराग, निरोध, और निर्वाण।
तब उसे लगता है, ‘ओ, मेरा उच्छेद हो जाएगा! मेरा विनाश हो जाएगा! मैं नहीं रहूँगा’ — और वह अफ़सोस करता है, ढ़ीला पड़ता है, विलाप करता है, छाती पीटता है, बावला हो जाता है। इस तरह, भिक्षु, जो भीतर न हो, उसे लेकर व्याकुलता होती है।”
“किन्तु, भंते, जो भीतर न हो, क्या उसे लेकर व्याकुलता नहीं हो सकती?”
“ऐसा हो सकता है, भिक्षु”, भगवान ने कहा।
“ऐसा है, भिक्षु, किसी की दृष्टि ऐसी होती है — ‘जो लोक है, वही आत्मा है। और मरणोपरांत मैं भी वही नित्य, ध्रुव, शाश्वत, अपरिवर्तनशील होकर, हमेशा-हमेशा के लिए बने रहूँगा।’ (और) वह तथागत या तथागत के श्रावक को धर्म बताते हुए सुनता है — दृष्टियों के आधार, अधिष्ठान, पूर्वाग्रह, झुकाव, और अनुशय का जड़ से उखड़ना, सभी रचनाओं का रुकना, सभी अर्जित वस्तुओं का त्याग, तृष्णा का क्षय, विराग, निरोध, और निर्वाण।
तब उसे नहीं लगता, ‘ओ, मेरा उच्छेद हो जाएगा! मेरा विनाश हो जाएगा! मैं नहीं रहूँगा’ — और वह न अफ़सोस करता है, न ढ़ीला पड़ता है, न विलाप करता है, न छाती पीटता है, न ही बावला हो जाता है। इस तरह, भिक्षु, जो भीतर न हो, उसे लेकर व्याकुलता नहीं होती।
भिक्षुओं, ऐसी किसी कब्जा करने योग्य वस्तु (“परिग्गह”) पर कब्जा किया जाना चाहिए, जो नित्य हो, ध्रुव हो, शाश्वत हो, अपरिवर्तनशील हो, और जो हमेशा-हमेशा के लिए बने रहे। क्या तुम्हें ऐसी कोई कब्जा करने योग्य वस्तु दिखती है, जो नित्य हो, ध्रुव हो, शाश्वत हो, अपरिवर्तनशील हो, और जो हमेशा-हमेशा के लिए बने रहे?”
“नहीं, भंते!”
“साधु, भिक्षुओं। मुझे भी ऐसी कोई कब्जा करने योग्य वस्तु नहीं दिखती है, जो नित्य हो, ध्रुव हो, शाश्वत हो, अपरिवर्तनशील हो, और जो हमेशा-हमेशा के लिए बने रहे।
भिक्षुओं, ऐसी किसी आत्मदृष्टि के प्रति आसक्ति पर आसक्त होना चाहिए, जो शोक, विलाप, दर्द, व्यथा और निराशा न उत्पन्न करती हो। क्या तुम्हें ऐसी कोई आत्मदृष्टि के प्रति आसक्ति दिखती है, जो शोक, विलाप, दर्द, व्यथा और निराशा न उत्पन्न करती हो?”
“नहीं, भंते!”
“साधु, भिक्षुओं। मुझे भी ऐसी कोई आत्मदृष्टि के प्रति आसक्ति नहीं दिखती है, जो शोक, विलाप, दर्द, व्यथा और निराशा न उत्पन्न करती हो।
भिक्षुओं, ऐसी किसी दृष्टि के निश्रय पर निश्रय लेना चाहिए, जो शोक, विलाप, दर्द, व्यथा और निराशा न उत्पन्न करता हो। क्या तुम्हें ऐसी कोई दृष्टि का निश्रय दिखता है, जो शोक, विलाप, दर्द, व्यथा और निराशा न उत्पन्न करता हो?”
“नहीं, भंते!”
“साधु, भिक्षुओं। मुझे भी ऐसी कोई दृष्टि का निश्रय नहीं दिखता है, जो शोक, विलाप, दर्द, व्यथा और निराशा न उत्पन्न करता हो।
भिक्षुओं, यदि आत्मा हो, तो क्या ऐसा लगेगा, ‘यह मेरी आत्मा का (हिस्सा) है’?”
“हाँ, भंते।”
“या, भिक्षुओं, यदि आत्मा का (हिस्सा) हो, तो क्या ऐसा लगेगा, ‘मेरी आत्मा है’?”
“हाँ, भंते।”
“किन्तु, भिक्षुओं, जब आत्मा और आत्मा का (हिस्सा) सच्चाई और वास्तविकता के तौर पर उपलब्ध न हो, तब इस दृष्टि का आधार — ‘जो लोक है, वही आत्मा है। और मरणोपरांत मैं भी वही नित्य, ध्रुव, शाश्वत, अपरिवर्तनशील होकर, हमेशा-हमेशा के लिए बने रहूँगा’ — क्या पूरी तरह से केवल मूर्ख धर्म नहीं है?”
“कैसे नहीं होगा, भंते! वह पूरी तरह से केवल मूर्ख धर्म ही है!”
“तुम्हें क्या लगता है, भिक्षुओं, रूप नित्य है या अनित्य?”
“अनित्य, भन्ते।”
“जो नित्य नहीं, वह कष्टदायी है या सुखदायी?”
“कष्टदायी, भन्ते।”
“जो नित्य नहीं, कष्टदायी है, परिवर्तनशील है, क्या उसे इस तरह देखना योग्य है कि ‘यह मेरा है, यह मेरा आत्म है, यही तो मैं हूँ’?”
“नहीं, भन्ते।”
“संवेदना नित्य है या अनित्य?… नजरिया नित्य है या अनित्य?… रचना नित्य है या अनित्य?… चैतन्य नित्य है या अनित्य?”
“अनित्य, भन्ते।”
“जो नित्य नहीं, वह कष्टदायी है या सुखदायी?”
“कष्टदायी, भन्ते।”
“जो नित्य नहीं, कष्टदायी है, परिवर्तनशील है, क्या उसे इस तरह देखना योग्य है कि ‘यह मेरा है, यह मेरा आत्म है, यही तो मैं हूँ’?”
“नहीं, भन्ते।”
“इसलिए, भिक्षुओं, जो भी रूप हो — भूत, भविष्य या वर्तमान के, आंतरिक या बाहरी, स्थूल या सूक्ष्म, हीन या उत्तम, दूर या समीप का। सभी रूपों को यह ‘मेरे नहीं हैं, मेरा आत्म नहीं हैं, मैं यह नहीं हूँ’, इस तरह, सम्यक अन्तर्ज्ञान से यथास्वरूप देखना है।
जो भी संवेदना हो… जो भी संज्ञा हो… जो भी रचना हो… जो भी चैतन्य हो — भूत, भविष्य या वर्तमान के, आंतरिक या बाहरी, स्थूल या सूक्ष्म, हीन या उत्तम, दूर या समीप का। सभी चैतन्य को यह ‘मेरे नहीं हैं, मेरा आत्म नहीं हैं, मैं यह नहीं हूँ’, इस तरह, सम्यक अन्तर्ज्ञान से यथास्वरूप देखना है।
भिक्षुओं, इस तरह देखने से धर्म-सुने आर्यश्रावक का रूप के प्रति मोहभंग होता है, संवेदना के प्रति मोहभंग होता है, नजरिये के प्रति मोहभंग होता है, रचना के प्रति मोहभंग होता है, चैतन्य के प्रति मोहभंग होता है।
मोहभंग होने से विराग होता है। विराग होने से विमुक्त होता है। विमुक्ति से ज्ञात होता है, ‘विमुक्त हुआ!’ और पता चलता है, ‘जन्म समाप्त हुए! ब्रह्मचर्य परिपूर्ण हुआ! काम पुरा हुआ! अभी यहाँ करने के लिए कुछ बचा नहीं!’
ऐसे भिक्षु को, भिक्षुओं, कहते हैं कि उसने — ‘अर्गला (=रुकावट) उठा लिया’, जिसने गड्ढा बुझा दिया, जिसने खंबा खींच लिया, जो बिना-रोकटोक है, जिसने ध्वज नीचे किया, भार नीचे रख दिया, असंलग्न है।
भिक्षुओं, कैसे कोई भिक्षु अर्गला उठा लेता है? ऐसा होता है, भिक्षुओं, कोई भिक्षु अविद्या को त्याग देता है, जड़ से उखाड़ता है, ताड़ के ठूँठ जैसा बनाता है, अस्तित्व मिटाता है, ताकि भविष्य में फिर प्रकट न हो। ऐसे भिक्षु को कहते हैं कि उसने ‘अर्गला उठा लिया।’
आगे, भिक्षुओं, कैसे कोई भिक्षु गड्ढा बुझाता है? ऐसा होता है, भिक्षुओं, कोई भिक्षु बार-बार के जन्म-जन्मांतर में संसरण को त्याग देता है, जड़ से उखाड़ता है, ताड़ के ठूँठ जैसा बनाता है, अस्तित्व मिटाता है, ताकि भविष्य में फिर प्रकट न हो। ऐसे भिक्षु को कहते हैं कि उसने ‘गड्ढा बुझा दिया।’
आगे, भिक्षुओं, कैसे कोई भिक्षु खंबा खींचता है? ऐसा होता है, भिक्षुओं, कोई भिक्षु तृष्णा को त्याग देता है, जड़ से उखाड़ता है, ताड़ के ठूँठ जैसा बनाता है, अस्तित्व मिटाता है, ताकि भविष्य में फिर प्रकट न हो। ऐसे भिक्षु को कहते हैं कि उसने ‘खंबा खींच लिया।’
आगे, भिक्षुओं, कैसे कोई भिक्षु बिना रोकटोक है? ऐसा होता है, भिक्षुओं, कोई भिक्षु पाँच निचले भाग के बंधनों को त्याग देता है, जड़ से उखाड़ता है, ताड़ के ठूँठ जैसा बनाता है, अस्तित्व मिटाता है, ताकि भविष्य में फिर प्रकट न हो। ऐसे भिक्षु को कहते हैं कि वह ‘बिना रोकटोक है।’
आगे, भिक्षुओं, कैसे कोई भिक्षु ध्वज नीचे करता है, भार नीचे रखता है, असंलग्न (=जुड़ा नहीं) है? ऐसा होता है, भिक्षुओं, कोई भिक्षु ‘मैं हूँ’ अहंभाव को त्याग देता है, जड़ से उखाड़ता है, ताड़ के ठूँठ जैसा बनाता है, अस्तित्व मिटाता है, ताकि भविष्य में फिर प्रकट न हो। ऐसे भिक्षु को कहते हैं कि उसने ‘ध्वज नीचे किया, भार नीचे रखा, असंलग्न है।’
भिक्षुओं, ऐसे विमुक्त चित्त भिक्षु, भले ही इन्द्र के साथ तमाम देवता हो, या प्रजापति के साथ तमाम ब्रह्मा, खोजने पर भी नहीं मिलता है कि ‘यहाँ इस तथागत का चैतन्य निश्रित है।’ ऐसा क्यों? क्योंकि, भिक्षुओं, तथागत का इस जीवन में भी पता नहीं चलता है। 7
भले ही, भिक्षुओं, मैं ऐसा कहता हूँ, ऐसा दावा करता हूँ, किन्तु कुछ श्रमण और ब्राह्मण तुच्छ, झूठी और तथ्यहीन बातों से मेरा मिथ्यावर्णन करते हैं कि — “श्रमण गौतम विनाशक है, जो सत्वों का उच्छेद, विनाश, और अस्तित्व मिटाने की घोषणा करते हैं।” 8
जो मैं नहीं हूँ, और जो मैं नहीं कहता हूँ, उन्हीं बातों से कुछ सम्मानित श्रमण और ब्राह्मण तुच्छ, झूठी और तथ्यहीन बातों से मेरा मिथ्यावर्णन करते हैं कि — “श्रमण गौतम विनाशक है, जो सत्वों का उच्छेद, विनाश, और अस्तित्व मिटाने की घोषणा करते हैं।”
भिक्षुओं, मैं पहले भी, और आज भी “दुःख” घोषित करता हूँ, और “दुःख का निरोध”। 9 और यदि कोई तथागत को कोसता है, उन्हें अपशब्द कहता है, उन पर क्रोधित होता है, उन्हें परेशान करता है, तब तथागत को न कोई घृणा, न कोई कड़वाहट, न चित्त अप्रसन्न होता है। और यदि कोई तथागत का सत्कार करता है, आदर करता है, उन्हें मानता है, पूजता है, तब तथागत को न आनंद, न खुशी, न चित्त में हर्षोल्लास होता है।
और यदि कोई तथागत का सत्कार करता है, आदर करता है, उन्हें मानता है, पूजता है, तब तथागत को लगता है, ‘जो पहले पूरी तरह से समझ लिया गया, वह उसके लिए ऐसा कर रहे हैं ।’
इसलिए, भिक्षुओं, यदि कोई तुम्हें भी कोसता है, अपशब्द कहता है, क्रोधित होता है, परेशान करता है, तब तुम भी न घृणा, न कड़वाहट, न चित्त अप्रसन्न करों। और यदि कोई तुम्हारा सत्कार करता है, आदर करता है, मानता है, पूजता है, तब तुम भी न आनंदित, न खुश, न चित्त को हर्षोल्लासित करो। बल्कि यदि कोई तुम्हारा सत्कार करता है, आदर करता है, मानता है, पूजता है, तब तुम्हें भी ऐसा लगे कि ‘जो पहले पूरी तरह से समझ लिया गया, वह उसके लिए ऐसा कर रहे हैं ।’
इसलिए, भिक्षुओं, जो तुम्हारा नहीं, उसे त्याग दो। उसका त्याग तुम्हारे लिए दीर्घकाल तक हितकारक और सुखदायी होगा।
और, भिक्षुओं, क्या तुम्हारा नहीं है?
रूप, भिक्षुओं, तुम्हारा नहीं है। उसे त्याग दो। उसका त्याग तुम्हारे लिए दीर्घकाल तक हितकारक और सुखदायी होगा।
वेदना, भिक्षुओं, तुम्हारा नहीं है। उसे त्याग दो। उसका त्याग तुम्हारे लिए दीर्घकाल तक हितकारक और सुखदायी होगा।
संज्ञा, भिक्षुओं, तुम्हारा नहीं है। उसे त्याग दो। उसका त्याग तुम्हारे लिए दीर्घकाल तक हितकारक और सुखदायी होगा।
रचना, भिक्षुओं, तुम्हारा नहीं है। उसे त्याग दो। उसका त्याग तुम्हारे लिए दीर्घकाल तक हितकारक और सुखदायी होगा।
चैतन्य, भिक्षुओं, तुम्हारा नहीं है। उसे त्याग दो। उसका त्याग तुम्हारे लिए दीर्घकाल तक हितकारक और सुखदायी होगा।
तुम्हें क्या लगता है, भिक्षुओं? यदि कोई व्यक्ति इस जेतवन की घास, लकड़ियों, शाखाओं, और पत्तियों को ले जाता है, जला देता है, या जो करना चाहे, करता है। तब क्या तुम्हें ऐसा लगेगा, ‘यह व्यक्ति हमें ले जा रहा है, हमें जला रहा है, या जो करना चाहे, कर रहा है’?”
“नहीं, भंते!”
“ऐसा क्यों?”
“क्योंकि, भंते, वह हमारे लिए न आत्मा है, न आत्मा का (हिस्सा) है।”
“उसी तरह, भिक्षुओं, जो तुम्हारा नहीं, उसे त्याग दो। उसका त्याग तुम्हारे लिए दीर्घकाल तक हितकारक और सुखदायी होगा।
और, भिक्षुओं, क्या तुम्हारा नहीं है?
रूप, भिक्षुओं, तुम्हारा नहीं है। उसे त्याग दो। उसका त्याग तुम्हारे लिए दीर्घकाल तक हितकारक और सुखदायी होगा।
वेदना… संज्ञा… रचना… चैतन्य, भिक्षुओं, तुम्हारा नहीं है। उसे त्याग दो। उसका त्याग तुम्हारे लिए दीर्घकाल तक हितकारक और सुखदायी होगा।
इस तरह, भिक्षुओं, मैंने धर्म को स्पष्ट बताया है, खोल दिया है, प्रकाशित किया है, चिथड़े हटा दिया 10 है।
और, भिक्षुओं, ऐसे स्पष्ट बताए, खोल दिए, प्रकाशित किए, चिथड़े हटाए धर्म में जो भिक्षुगण अरहंत होते हैं, आस्रव खत्म करते हैं, ब्रह्मचर्य परिपूर्ण करते हैं, कर्तव्य समाप्त करते हैं, बोझ को नीचे रखते हैं, परम-ध्येय प्राप्त करते हैं, भव-बंधन को पूर्णतः तोड़ देते हैं, सम्यक-ज्ञान से विमुक्त होते हैं, उनके लिए कोई (पुनर्जन्म के) दुष्चक्र का पता नहीं चलता। मैंने इस तरह के धर्म को स्पष्ट बताया है, खोल दिया है, प्रकाशित किया है, चिथड़े हटा दिया है।
और, भिक्षुओं, ऐसे स्पष्ट बताए, खोल दिए, प्रकाशित किए, चिथड़े हटाए धर्म में जो भिक्षुगण निचले पाँच संयोजन तोड़ कर स्वप्रकट होते हैं, और वही परिनिर्वाण प्राप्त करते हैं, अब इस लोक में नहीं लौटते हैं। मैंने इस तरह के धर्म को स्पष्ट बताया है, खोल दिया है, प्रकाशित किया है, चिथड़े हटा दिया है।
और, भिक्षुओं, ऐसे स्पष्ट बताए, खोल दिए, प्रकाशित किए, चिथड़े हटाए धर्म में जो भिक्षुगण तीन संयोजन तोड़ कर, राग-द्वेष-मोह को दुर्बल कर सकृदागामी बनते हैं, जो इस लोक में दुबारा लौट कर अपने दुःखों का अन्त करते हैं। मैंने इस तरह के धर्म को स्पष्ट बताया है, खोल दिया है, प्रकाशित किया है, चिथड़े हटा दिया है।
और, भिक्षुओं, ऐसे स्पष्ट बताए, खोल दिए, प्रकाशित किए, चिथड़े हटाए धर्म में जो भिक्षुगण तीन संयोजन तोड़ कर श्रोतापन्न बनते हैं — अ-पतन स्वभाव का, निश्चित संबोधि की ओर अग्रसर। मैंने इस तरह के धर्म को स्पष्ट बताया है, खोल दिया है, प्रकाशित किया है, चिथड़े हटा दिया है।
और, भिक्षुओं, ऐसे स्पष्ट बताए, खोल दिए, प्रकाशित किए, चिथड़े हटाए धर्म में जो भिक्षुगण धर्म के अनुसार चलने वाले (“धम्मानुसारी”), और श्रद्धा पर चलने वाले (“सद्धानुसारी”) हैं, वे सभी संबोधि की ओर अग्रसर होते हैं। 11 मैंने इस तरह के धर्म को स्पष्ट बताया है, खोल दिया है, प्रकाशित किया है, चिथड़े हटा दिया है।
और, भिक्षुओं, ऐसे स्पष्ट बताए, खोल दिए, प्रकाशित किए, चिथड़े हटाए धर्म में, जिसे मुझ पर एक (खास) स्तर तक श्रद्धा हैं, एक स्तर तक प्रेम हैं, वे सभी स्वर्ग की ओर अग्रसर होते हैं।”
भगवान ने ऐसा कहा। हर्षित होकर भिक्षुओं ने भगवान की बात का अभिनंदन किया।
अर्थात, अरिट्ठ नामक भिक्षु, भगवान के द्वारा बताएं चार आश्वासन में से एक को सीधा ठुकरा देता है। चार आश्वासन के बारे में जानने के लिए पढ़ें — मज्झिमनिकाय १२ ↩︎
पहली सात उपमाएँ मज्झिमनिकाय ५४ में विस्तार से समझाई गई हैं। कसाई की छुरी और काटने के तख्ता की उपमा अगले सूत्र मज्झिमनिकाय २३ में आती है। भाले और तलवार की उपमा संयुक्तनिकाय ५:१ में मिलती है। साँप के फन की उपमा सुत्तनिपात ४:१ में बताई गई है। ↩︎
यहाँ तक की कहानी लगभग वैसी ही है जैसी विनयपिटक में पाचित्तिय ६८ की निदान-कथा में मिलती है, और जैसे चुल्लवग्ग में निलंबन (परिवास) के संबंध में नियम दिया गया है। अरिट्ठ पहले भिक्षु थे, जिन्हें संघ से निलम्बित (परिवास) किया गया था। चुल्लवग्ग में यह बताया गया है कि अरिट्ठ ने अपने आचरण को सुधारने का कोई प्रयास नहीं किया, जिससे उनका निलम्बन हटाया जा सके। इसके बजाय, उन्होंने प्रव्रज्या ही छोड़ दी। ↩︎
यहाँ जो उपमा दी गई है, वह अग्नि-संयोग (अरणि-मंथन) द्वारा आग जलाने की है। जैसे कोई व्यक्ति लकड़ी से लकड़ी रगड़कर आग जलाने की कोशिश करता है, लेकिन न तो गर्मी पैदा कर पाता है, और न ही चिंगारी। उसी तरह अरिट्ठ ने भी कोई ऐसा प्रयास नहीं किया जिससे भीतर बोध की गर्मी पैदा हो, या चिंगारी जले, या प्रकाश उत्पन्न हो। अर्थात, अरिट्ठ ने न तो प्रयास किया, न ही कोई समझ विकसित की। केवल बाहरी रूप में ही भिक्षु बने रहे, लेकिन भीतर मुक्ति के लिए कोई सच्चा प्रयास नहीं था। ↩︎
संयुक्तनिकाय ३५:२३८ के अनुसार, इस उपमा को अर्थ के साथ इस तरह बताया गया हैं —
इसके अलावा, जिस घास, लकड़ियाँ, टहनियाँ और पत्तों से नाव बनाई जाती है, वे सभी इसी किनारे पर पाई जाती हैं। इसका अर्थ यह है कि ये सभी चीज़ें, जैसे आर्य अष्टांगिक मार्ग, “सङ्खात धम्म” हैं, यानी कारणों से उत्पन्न, रचे गए साधन हैं। इनका उपयोग उस “असङ्खात धम्म”, या निर्वाण तक पहुँचने के लिए किया जाता है, जो अकारण, अजन्मा और पूर्ण मुक्ति की अवस्था है। इसलिए मज्झिमनिकाय ४४ में भिक्षुणी धम्मदिन्ना आर्य अष्टांगिक मार्ग को सङ्खात धर्म कहती हैं, क्योंकि यह एक ऐसा साधन है जो संसार-सागर से पार कराने में सहायक तो है, पर स्वयं निर्वाण नहीं है। ↩︎
दृष्टि का आधार: किसी भी धारणा के पनपने के पीछे उसका कोई न कोई आधार होता है — कोई अनुभव हो सकता है, या तर्क हो सकता है। भगवान यहाँ समझा रहे हैं कि अरिट्ठ किस प्रकार अपनी मिथ्या दृष्टि में पड़ गया। इस विश्लेषण का एक उद्देश्य यह दर्शाना है कि यद्यपि विभिन्न दृष्टियाँ देखने में गूढ़, नवीन या साहसी प्रतीत हो सकती हैं, वे सभी अंततः एक ही मूलभूत विपर्यय पर आधारित होती हैं। ↩︎
भगवान ने यहाँ “तथागत” शब्द का प्रयोग सभी अरहंतों के संबंध में किया है। ↩︎
“उच्छेदवाद” और “शाश्वतवाद”, दोनों ही दृष्टियों को भगवान ने नकारा है। कुछ लोग यह मानना चाहते हैं कि “उच्छेदवाद” सिर्फ वही है जिसमें कोई आत्मा या व्यक्ति मरने के बाद पूरी तरह नष्ट हो जाता है। ऐसे लोग कहते हैं कि जब बुद्ध कहते हैं कि “कोई आत्मा नहीं है”, तो वह उच्छेदवाद नहीं कहलाता, क्योंकि आत्मा है ही नहीं, तो नष्ट कैसे होगी।
लेकिन ये विचार सही नहीं है, क्योंकि संयुक्तनिकाय ४४:१० में साफ कहा गया है कि “कोई आत्मा नहीं है” — ऐसा कहना भी उच्छेदवादी सोच का भाग है।
अब जहाँ तक “सत्व” या “अस्तित्व रखने वाला” की बात है: संयुक्तनिकाय २२:३६ और संयुक्तनिकाय २३:२ के अनुसार, कोई भी सत्व उसी वस्तु से परिभाषित होता है जिससे वह आसक्त होता है। संयुक्तनिकाय ५:१० कहता है कि इस आसक्ति को खत्म करने का एक तरीका यह है कि हम यह समझें कि “सत्व” या “अस्तित्व” की धारणा कैसे बनती है, बिना यह माने कि वह सच है।
और मज्झिमनिकाय ७२, संयुक्तनिकाय २२:८५ , और संयुक्तनिकाय २२:८६ में बताया गया है कि जब यह चिपकाव पूरी तरह खत्म हो जाता है, तो उस व्यक्ति को “तथागत” कहा जाता है। तथागत वही होता है जो सभी चिपकावों से मुक्त हो चुका हो, और जिसे अब किसी भी रूप में परिभाषित या पहचाना नहीं जा सकता। ↩︎
कुछ लोग, संयुक्तनिकाय १२.१५ के आधार पर, यह सुझाव देते हैं कि बुद्ध के अनुसार इस संसार में केवल दो ही चीजें वास्तव में घट रही हैं — दु:ख और दु:ख का निरोध।
लेकिन जब हम यही बात संयुक्तनिकाय २२.८६ के संदर्भ में देखते हैं, तो उसका अर्थ कुछ और ही निकलता है। वहाँ यह स्पष्ट है कि बुद्ध यह नहीं कह रहे कि केवल यही दो चीज़ें अस्तित्व में हैं, बल्कि वह यह दिखा रहे हैं कि वे किन विषयों पर बोलना चुनते हैं और किन पर नहीं। उस सूत्र में भगवान की मृत्यु के बाद उसके अस्तित्व या स्थिति को लेकर कोई मत नहीं देते। इसी तरह, वह “अस्तित्ववान सत्व” की स्थिति को लेकर भी कोई ठोस दावा नहीं करते हैं। हर बार, बुद्ध केवल उन्हीं सवालों पर बात करते हैं, जिनका उत्तर संबोधि की ओर ले जाने वाला हो।
इस बात की पुष्टि मज्झिमनिकाय ६३ और संयुक्तनिकाय ५६:३१ में भी होती है। वहाँ यह बताया गया है कि बुद्ध अनावश्यक दार्शनिक बहसों में नहीं उलझते। वे केवल वही और उतना ही सिखाते हैं जो मुक्ति के लिए उपयोगी हो। ↩︎
धम्म के बहुत से पहलू हैं, और वे अलग-अलग तरह के लग सकते हैं। लेकिन असल में ये सभी पहलू आपस में गहराई से जुड़े हुए हैं और मिलकर एक समग्र, एकीकृत सत्य को प्रकट करते हैं। ये ऐसे बिखरे हुए टुकड़े या वस्त्र के चिथड़े नहीं हैं जिन्हें बस सिलकर आपस में जोड़ दिया गया हो। बल्कि ये एक व्यवस्थित और परिपूर्ण शिक्षा का भाग हैं — जो समझने वाले को अंततः मुक्ति की ओर ले जाती है। ↩︎
धम्मानुसारी और सद्धानुसारी के बारे में जानने के लिए हमारी शब्दावली पढ़ें। ↩︎
२३४. एवं मे सुतं – एकं समयं भगवा सावत्थियं विहरति जेतवने अनाथपिण्डिकस्स आरामे. तेन खो पन समयेन अरिट्ठस्स नाम भिक्खुनो गद्धबाधिपुब्बस्स [गन्धबाधिपुब्बस्स (क.)] एवरूपं पापकं दिट्ठिगतं उप्पन्नं होति – ‘‘तथाहं भगवता धम्मं देसितं आजानामि यथा येमे अन्तरायिका धम्मा वुत्ता भगवता ते पटिसेवतो नालं अन्तरायाया’’ति. अस्सोसुं खो सम्बहुला भिक्खू – ‘‘अरिट्ठस्स किर नाम भिक्खुनो गद्धबाधिपुब्बस्स एवरूपं पापकं दिट्ठिगतं उप्पन्नं – ‘तथाहं भगवता धम्मं देसितं आजानामि यथा येमे अन्तरायिका धम्मा वुत्ता भगवता ते पटिसेवतो नालं अन्तरायाया’’’ति. अथ खो ते भिक्खू येन अरिट्ठो भिक्खु गद्धबाधिपुब्बो तेनुपसङ्कमिंसु; उपसङ्कमित्वा अरिट्ठं भिक्खुं गद्धबाधिपुब्बं एतदवोचुं – ‘‘सच्चं किर ते, आवुसो अरिट्ठ, एवरूपं पापकं दिट्ठिगतं उप्पन्नं – ‘तथाहं भगवता धम्मं देसितं आजानामि यथा येमे अन्तरायिका धम्मा वुत्ता भगवता ते पटिसेवतो नालं अन्तरायाया’’’ति. ‘‘एवंब्याखो [एवं खो (?) भगवतो सम्मुखायेवस्स ‘‘एवंब्याखो’’ति] अहं, आवुसो, भगवता धम्मं देसितं आजानामि यथा येमे अन्तरायिका धम्मा वुत्ता भगवता ते पटिसेवतो नालं अन्तरायाया’’ति.
अथ खो तेपि भिक्खू अरिट्ठं भिक्खुं गद्धबाधिपुब्बं एतस्मा पापका दिट्ठिगता विवेचेतुकामा समनुयुञ्जन्ति समनुगाहन्ति [समनुग्गाहन्ति (स्या.)] समनुभासन्ति – ‘‘मा हेवं, आवुसो अरिट्ठ, अवच, मा भगवन्तं अब्भाचिक्खि; न हि साधु भगवतो अब्भक्खानं [अब्भाचिक्खनं (क.)], न हि भगवा एवं वदेय्य. अनेकपरियायेनावुसो अरिट्ठ, अन्तरायिका धम्मा अन्तरायिका वुत्ता भगवता, अलञ्च पन ते पटिसेवतो अन्तरायाय. अप्पस्सादा कामा वुत्ता भगवता बहुदुक्खा बहुपायासा,आदीनवो एत्थ भिय्यो. अट्ठिकङ्कलूपमा कामा वुत्ता भगवता…पे… मंसपेसूपमा कामा वुत्ता भगवता… तिणुक्कूपमा कामा वुत्ता भगवता… अङ्गारकासूपमा कामा वुत्ता भगवता… सुपिनकूपमा कामा वुत्ता भगवता… याचितकूपमा कामा वुत्ता भगवता… रुक्खफलूपमा कामा वुत्ता भगवता… असिसूनूपमा कामा वुत्ता भगवता… सत्तिसूलूपमा कामा वुत्ता भगवता… सप्पसिरूपमा कामा वुत्ता भगवता बहुदुक्खा बहुपायासा, आदीनवो एत्थ भिय्यो’’ति. एवम्पि खो अरिट्ठो भिक्खु गद्धबाधिपुब्बो तेहि भिक्खूहि समनुयुञ्जियमानो समनुगाहियमानो [समनुग्गाहियमानो (स्या. विनयेपि)] समनुभासियमानो तदेव [तथेव तं (विनये)] पापकं दिट्ठिगतं थामसा परामासा अभिनिविस्स वोहरति – ‘‘एवंब्याखो अहं, आवुसो, भगवता धम्मं देसितं आजानामि यथा येमे अन्तरायिका धम्मा वुत्ता भगवता ते पटिसेवतो नालं अन्तरायाया’’ति.
२३५. यतो खो ते भिक्खू नासक्खिंसु अरिट्ठं भिक्खुं गद्धबाधिपुब्बं एतस्मा पापका दिट्ठिगता विवेचेतुं, अथ खो ते भिक्खू येन भगवा तेनुपसङ्कमिंसु; उपसङ्कमित्वा भगवन्तं अभिवादेत्वा एकमन्तं निसीदिंसु. एकमन्तं निसिन्ना खो ते भिक्खू भगवन्तं एतदवोचुं – ‘‘अरिट्ठस्स नाम, भन्ते, भिक्खुनो गद्धबाधिपुब्बस्स एवरूपं पापकं दिट्ठिगतं उप्पन्नं – ‘तथाहं भगवता धम्मं देसितं आजानामि यथा येमे अन्तरायिका धम्मा वुत्ता भगवता ते पटिसेवतो नालं अन्तरायाया’ति. अस्सुम्ह खो मयं, भन्ते – ‘अरिट्ठस्स किर नाम भिक्खुनो गद्धबाधिपुब्बस्स एवरूपं पापकं दिट्ठिगतं उप्पन्नं – तथाहं भगवता धम्मं देसितं आजानामि यथा येमे अन्तरायिका धम्मा वुत्ता भगवता ते पटिसेवतो नालं अन्तरायाया’ति. अथ खो मयं, भन्ते, येन अरिट्ठो भिक्खु गद्धबाधिपुब्बो तेनुपसङ्कमिम्ह; उपसङ्कमित्वा अरिट्ठं भिक्खुं गद्धबाधिपुब्बं एतदवोचुम्ह – ‘सच्चं किर ते, आवुसो अरिट्ठ, एवरूपं पापकं दिट्ठिगतं उप्पन्नं – तथाहं भगवता धम्मं देसितं आजानामि यथा येमे अन्तरायिका धम्मा वुत्ता भगवता ते पटिसेवतो नालं अन्तरायाया’ति?
‘‘एवं वुत्ते, भन्ते, अरिट्ठो भिक्खु गद्धबाधिपुब्बो अम्हे एतदवोच – ‘एवंब्याखो अहं, आवुसो, भगवता धम्मं देसितं आजानामि यथा येमे अन्तरायिका धम्मा वुत्ता भगवता ते पटिसेवतो नालं अन्तरायाया’ति. अथ खो मयं, भन्ते, अरिट्ठं भिक्खुं गद्धबाधिपुब्बं एतस्मा पापका दिट्ठिगता विवेचेतुकामा समनुयुञ्जिम्ह समनुगाहिम्ह समनुभासिम्ह – ‘मा हेवं, आवुसो अरिट्ठ, अवच, मा भगवन्तं अब्भाचिक्खि; न हि साधु भगवतो अब्भक्खानं , न हि भगवा एवं वदेय्य. अनेकपरियायेनावुसो अरिट्ठ, अन्तरायिका धम्मा अन्तरायिका वुत्ता भगवता, अलञ्च पन ते पटिसेवतो अन्तरायाय. अप्पस्सादा कामा वुत्ता भगवता बहुदुक्खा बहुपायासा, आदीनवो एत्थ भिय्यो. अट्ठिकङ्कलूपमा कामा वुत्ता भगवता…पे… सप्पसिरूपमा कामा वुत्ता भगवता बहुदुक्खा बहुपायासा, आदीनवो एत्थ भिय्यो’ति. एवम्पि खो, भन्ते, अरिट्ठो भिक्खु गद्धबाधिपुब्बो अम्हेहि समनुयुञ्जियमानो समनुगाहियमानो समनुभासियमानो तदेव पापकं दिट्ठिगतं थामसा परामासा अभिनिविस्स वोहरति – ‘एवंब्याखो अहं, आवुसो, भगवता धम्मं देसितं आजानामि यथा येमे अन्तरायिका धम्मा वुत्ता भगवता ते पटिसेवतो नालं अन्तरायाया’ति. यतो खो मयं, भन्ते, नासक्खिम्ह अरिट्ठं भिक्खुं गद्धबाधिपुब्बं एतस्मा पापका दिट्ठिगता विवेचेतुं, अथ मयं एतमत्थं भगवतो आरोचेमा’’ति.
२३६. अथ खो भगवा अञ्ञतरं भिक्खुं आमन्तेसि – ‘‘एहि त्वं, भिक्खु, मम वचनेन अरिट्ठं भिक्खुं गद्धबाधिपुब्बं आमन्तेहि – ‘सत्था तं, आवुसो अरिट्ठ, आमन्तेती’’’ति. ‘‘एवं , भन्ते’’ति खो सो भिक्खु भगवतो पटिस्सुत्वा, येन अरिट्ठो भिक्खु गद्धबाधिपुब्बो तेनुपसङ्कमि; उपसङ्कमित्वा अरिट्ठं भिक्खुं गद्धबाधिपुब्बं एतदवोच – ‘‘सत्था तं, आवुसो अरिट्ठ, आमन्तेती’’ति. ‘‘एवमावुसो’’ति खो अरिट्ठो भिक्खु गद्धबाधिपुब्बो तस्स भिक्खुनो पटिस्सुत्वा येन भगवा तेनुपसङ्कमि; उपसङ्कमित्वा भगवन्तं अभिवादेत्वा एकमन्तं निसीदि. एकमन्तं निसिन्नं खो अरिट्ठं भिक्खुं गद्धबाधिपुब्बं भगवा एतदवोच – ‘‘सच्चं किर ते, अरिट्ठ, एवरूपं पापकं दिट्ठिगतं उप्पन्नं – ‘तथाहं भगवता धम्मं देसितं आजानामि यथा येमे अन्तरायिका धम्मा वुत्ता भगवता ते पटिसेवतो नालं अन्तरायाया’’’ति?
‘‘एवंब्याखो अहं, भन्ते, भगवता धम्मं देसितं आजानामि – ‘यथा येमे अन्तरायिका धम्मा वुत्ता भगवता ते पटिसेवतो नालं अन्तरायाया’’’ति. ‘‘कस्स खो नाम त्वं, मोघपुरिस, मया एवं धम्मं देसितं आजानासि? ननु मया, मोघपुरिस, अनेकपरियायेन अन्तरायिका धम्मा अन्तरायिका वुत्ता? अलञ्च पन ते पटिसेवतो अन्तरायाय. अप्पस्सादा कामा वुत्ता मया, बहुदुक्खा बहुपायासा, आदीनवो एत्थ भिय्यो. अट्ठिकङ्कलूपमा कामा वुत्ता मया… मंसपेसूपमा कामा वुत्ता मया… तिणुक्कूपमा कामा वुत्ता मया… अङ्गारकासूपमा कामा वुत्ता मया… सुपिनकूपमा कामा वुत्ता मया… याचितकूपमा कामा वुत्ता मया… रुक्खफलूपमा कामा वुत्ता मया… असिसूनूपमा कामा वुत्ता मया… सत्तिसूलूपमा कामा वुत्ता मया… सप्पसिरूपमा कामा वुत्ता मया, बहुदुक्खा बहुपायासा, आदीनवो एत्थ भिय्यो. अथ च पन त्वं, मोघपुरिस, अत्तना दुग्गहितेन अम्हे चेव अब्भाचिक्खसि, अत्तानञ्च खनसि, बहुञ्च अपुञ्ञं पसवसि. तञ्हि ते, मोघपुरिस, भविस्सति दीघरत्तं अहिताय दुक्खाया’’ति.
अथ खो भगवा भिक्खू आमन्तेसि – ‘‘तं किं मञ्ञथ, भिक्खवे, अपि नायं अरिट्ठो भिक्खु गद्धबाधिपुब्बो उस्मीकतोपि इमस्मिं धम्मविनये’’ति? ‘‘किञ्हि [किंति (क.)] सिया, भन्ते; नो हेतं, भन्ते’’ति. एवं वुत्ते, अरिट्ठो भिक्खु गद्धबाधिपुब्बो तुण्हीभूतो मङ्कुभूतो पत्तक्खन्धो अधोमुखो पज्झायन्तो अप्पटिभानो निसीदि. अथ खो भगवा अरिट्ठं भिक्खुं गद्धबाधिपुब्बं तुण्हीभूतं मङ्कुभूतं पत्तक्खन्धं अधोमुखं पज्झायन्तं अप्पटिभानं विदित्वा अरिट्ठं भिक्खुं गद्धबाधिपुब्बं एतदवोच – ‘‘पञ्ञायिस्ससि खो त्वं, मोघपुरिस, एतेन सकेन पापकेन दिट्ठिगतेन. इधाहं भिक्खू पटिपुच्छिस्सामी’’ति.
२३७. अथ खो भगवा भिक्खू आमन्तेसि – ‘‘तुम्हेपि मे, भिक्खवे , एवं धम्मं देसितं आजानाथ यथायं अरिट्ठो भिक्खु गद्धबाधिपुब्बो अत्तना दुग्गहितेन अम्हे चेव अब्भाचिक्खति, अत्तानञ्च खनति, बहुञ्च अपुञ्ञं पसवती’’ति? ‘‘नो हेतं, भन्ते. अनेकपरियायेन हि नो, भन्ते, अन्तरायिका धम्मा अन्तरायिका वुत्ता भगवता; अलञ्च पन ते पटिसेवतो अन्तरायाय. अप्पस्सादा कामा वुत्ता भगवता बहुदुक्खा बहुपायासा, आदीनवो एत्थ भिय्यो. अट्ठिकङ्कलूपमा कामा वुत्ता भगवता…पे… सप्पसिरूपमा कामा वुत्ता भगवता बहुदुक्खा बहुपायासा , आदीनवो एत्थ भिय्यो’’ति. ‘‘साधु साधु, भिक्खवे, साधु, खो मे तुम्हे, भिक्खवे, एवं धम्मं देसितं आजानाथ. अनेकपरियायेन हि खो, भिक्खवे, अन्तरायिका धम्मा वुत्ता मया, अलञ्च पन ते पटिसेवतो अन्तरायाय. अप्पस्सादा कामा वुत्ता मया , बहुदुक्खा बहुपायासा, आदीनवो एत्थ भिय्यो. अट्ठिकङ्कलूपमा कामा वुत्ता मया…पे… सप्पसिरूपमा कामा वुत्ता मया, बहुदुक्खा बहुपायासा, आदीनवो एत्थ भिय्यो. अथ च पनायं अरिट्ठो भिक्खु गद्धबाधिपुब्बो अत्तना दुग्गहितेन अम्हे चेव अब्भाचिक्खति, अत्तानञ्च खनति, बहुञ्च अपुञ्ञं पसवति. तञ्हि तस्स मोघपुरिसस्स भविस्सति दीघरत्तं अहिताय दुक्खाय. सो वत, भिक्खवे, अञ्ञत्रेव कामेहि अञ्ञत्र कामसञ्ञाय अञ्ञत्र कामवितक्केहि कामे पटिसेविस्सतीति – नेतं ठानं विज्जति’’.
२३८. ‘‘इध, भिक्खवे, एकच्चे मोघपुरिसा धम्मं परियापुणन्ति – सुत्तं, गेय्यं, वेय्याकरणं, गाथं, उदानं, इतिवुत्तकं, जातकं, अब्भुतधम्मं, वेदल्लं. ते तं धम्मं परियापुणित्वा तेसं धम्मानं पञ्ञाय अत्थं न उपपरिक्खन्ति. तेसं ते धम्मा पञ्ञाय अत्थं अनुपपरिक्खतं न निज्झानं खमन्ति. ते उपारम्भानिसंसा चेव धम्मं परियापुणन्ति इतिवादप्पमोक्खानिसंसा च. यस्स चत्थाय धम्मं परियापुणन्ति तञ्चस्स अत्थं नानुभोन्ति. तेसं ते धम्मा दुग्गहिता दीघरत्तं अहिताय दुक्खाय संवत्तन्ति. तं किस्स हेतु? दुग्गहितत्ता, भिक्खवे, धम्मानं.
‘‘सेय्यथापि, भिक्खवे, पुरिसो अलगद्दत्थिको अलगद्दगवेसी अलगद्दपरियेसनं चरमानो. सो पस्सेय्य महन्तं अलगद्दं. तमेनं भोगे वा नङ्गुट्ठे वा गण्हेय्य. तस्स सो अलगद्दो पटिपरिवत्तित्वा [पटिनिवत्तित्वा (स्या. क.)] हत्थे वा बाहाय वा अञ्ञतरस्मिं वा अङ्गपच्चङ्गे डंसेय्य [डसेय्य (सी. पी.)]. सो ततोनिदानं मरणं वा निगच्छेय्य मरणमत्तं वा दुक्खं. तं किस्स हेतु? दुग्गहितत्ता, भिक्खवे, अलगद्दस्स. एवमेव खो, भिक्खवे, इधेकच्चे मोघपुरिसा धम्मं परियापुणन्ति – सुत्तं, गेय्यं, वेय्याकरणं, गाथं, उदानं, इतिवुत्तकं, जातकं, अब्भुतधम्मं, वेदल्लं. ते तं धम्मं परियापुणित्वा तेसं धम्मानं पञ्ञाय अत्थं न उपपरिक्खन्ति. तेसं ते धम्मा पञ्ञाय अत्थं अनुपपरिक्खतं न निज्झानं खमन्ति. ते उपारम्भानिसंसा चेव धम्मं परियापुणन्ति इतिवादप्पमोक्खानिसंसा च. यस्स चत्थाय धम्मं परियापुणन्ति तञ्चस्स अत्थं नानुभोन्ति. तेसं ते धम्मा दुग्गहिता दीघरत्तं अहिताय दुक्खाय संवत्तन्ति. तं किस्स हेतु? दुग्गहितत्ता भिक्खवे धम्मानं.
२३९. ‘‘इध पन, भिक्खवे, एकच्चे कुलपुत्ता धम्मं परियापुणन्ति – सुत्तं, गेय्यं, वेय्याकरणं, गाथं, उदानं, इतिवुत्तकं, जातकं, अब्भुतधम्मं, वेदल्लं. ते तं धम्मं परियापुणित्वा तेसं धम्मानं पञ्ञाय अत्थं उपपरिक्खन्ति. तेसं ते धम्मा पञ्ञाय अत्थं उपपरिक्खतं निज्झानं खमन्ति. ते न चेव उपारम्भानिसंसा धम्मं परियापुणन्ति न इतिवादप्पमोक्खानिसंसा च [न च इतिवादप्पमोक्खानिसंसा (?)]. यस्स चत्थाय धम्मं परियापुणन्ति तञ्चस्स अत्थं अनुभोन्ति. तेसं ते धम्मा सुग्गहिता दीघरत्तं हिताय सुखाय संवत्तन्ति. तं किस्स हेतु? सुग्गहितत्ता भिक्खवे धम्मानं.
‘‘सेय्यथापि, भिक्खवे, पुरिसो अलगद्दत्थिको अलगद्दगवेसी अलगद्दपरियेसनं चरमानो. सो पस्सेय्य महन्तं अलगद्दं. तमेनं अजपदेन दण्डेन सुनिग्गहितं निग्गण्हेय्य. अजपदेन दण्डेन सुनिग्गहितं निग्गहित्वा, गीवाय सुग्गहितं गण्हेय्य. किञ्चापि सो, भिक्खवे , अलगद्दो तस्स पुरिसस्स हत्थं वा बाहं वा अञ्ञतरं वा अङ्गपच्चङ्गं भोगेहि पलिवेठेय्य, अथ खो सो नेव ततोनिदानं मरणं वा निगच्छेय्य मरणमत्तं वा दुक्खं. तं किस्स हेतु? सुग्गहितत्ता, भिक्खवे, अलगद्दस्स. एवमेव खो, भिक्खवे, इधेकच्चे कुलपुत्ता धम्मं परियापुणन्ति – सुत्तं, गेय्यं, वेय्याकरणं, गाथं, उदानं, इतिवुत्तकं, जातकं, अब्भुतधम्मं, वेदल्लं. ते तं धम्मं परियापुणित्वा तेसं धम्मानं पञ्ञाय अत्थं उपपरिक्खन्ति. तेसं ते धम्मा पञ्ञाय अत्थं उपपरिक्खतं निज्झानं खमन्ति. ते न चेव उपारम्भानिसंसा धम्मं परियापुणन्ति, न इतिवादप्पमोक्खानिसंसा च. यस्स चत्थाय धम्मं परियापुणन्ति, तञ्चस्स अत्थं अनुभोन्ति. तेसं ते धम्मा सुग्गहिता दीघरत्तं अत्थाय हिताय सुखाय संवत्तन्ति. तं किस्स हेतु? सुग्गहितत्ता, भिक्खवे, धम्मानं. तस्मातिह, भिक्खवे, यस्स मे भासितस्स अत्थं आजानेय्याथ, तथा नं धारेय्याथ. यस्स च पन मे भासितस्स अत्थं न आजानेय्याथ, अहं वो तत्थ पटिपुच्छितब्बो, ये वा पनास्सु वियत्ता भिक्खू.
२४०. ‘‘कुल्लूपमं वो, भिक्खवे, धम्मं देसेस्सामि नित्थरणत्थाय, नो गहणत्थाय. तं सुणाथ, साधुकं मनसिकरोथ, भासिस्सामी’’ति. ‘‘एवं, भन्ते’’ति खो ते भिक्खू भगवतो पच्चस्सोसुं. भगवा एतदवोच – ‘‘सेय्यथापि , भिक्खवे, पुरिसो अद्धानमग्गप्पटिपन्नो. सो पस्सेय्य महन्तं उदकण्णवं, ओरिमं तीरं सासङ्कं सप्पटिभयं, पारिमं तीरं खेमं अप्पटिभयं; न चस्स नावा सन्तारणी उत्तरसेतु वा अपारा पारं गमनाय. तस्स एवमस्स – ‘अयं खो महाउदकण्णवो, ओरिमं तीरं सासङ्कं सप्पटिभयं, पारिमं तीरं खेमं अप्पटिभयं; नत्थि च नावा सन्तारणी उत्तरसेतु वा अपारा पारं गमनाय. यंनूनाहं तिणकट्ठसाखापलासं संकड्ढित्वा, कुल्लं बन्धित्वा, तं कुल्लं निस्साय हत्थेहि च पादेहि च वायममानो सोत्थिना पारं उत्तरेय्य’न्ति. अथ खो सो, भिक्खवे, पुरिसो तिणकट्ठसाखापलासं संकड्ढित्वा, कुल्लं बन्धित्वा तं कुल्लं निस्साय हत्थेहि च पादेहि च वायममानो सोत्थिना पारं उत्तरेय्य. तस्स पुरिसस्स उत्तिण्णस्स [तिण्णस्स (पी. क.)] पारङ्गतस्स एवमस्स – ‘बहुकारो खो मे अयं कुल्लो; इमाहं कुल्लं निस्साय हत्थेहि च पादेहि च वायममानो सोत्थिना पारं उत्तिण्णो. यंनूनाहं इमं कुल्लं सीसे वा आरोपेत्वा खन्धे वा उच्चारेत्वा [उच्चोपेत्वा (क.)] येन कामं पक्कमेय्य’न्ति. तं किं मञ्ञथ, भिक्खवे, अपि नु सो पुरिसो एवंकारी तस्मिं कुल्ले किच्चकारी अस्सा’’ति? ‘‘नो हेतं, भन्ते’’. ‘‘कथंकारी च सो, भिक्खवे, पुरिसो तस्मिं कुल्ले किच्चकारी अस्स? इध, भिक्खवे, तस्स पुरिसस्स उत्तिण्णस्स पारङ्गतस्स एवमस्स – ‘बहुकारो खो मे अयं कुल्लो; इमाहं कुल्लं निस्साय हत्थेहि च पादेहि च वायममानो सोत्थिना पारं उत्तिण्णो. यंनूनाहं इमं कुल्लं थले वा उस्सादेत्वा [उस्सारेत्वा (क.)] उदके वा ओपिलापेत्वा येन कामं पक्कमेय्य’न्ति. एवंकारी खो सो, भिक्खवे, पुरिसो तस्मिं कुल्ले किच्चकारी अस्स. एवमेव खो, भिक्खवे, कुल्लूपमो मया धम्मो देसितो नित्थरणत्थाय, नो गहणत्थाय. कुल्लूपमं वो, भिक्खवे, धम्मं देसितं, आजानन्तेहि धम्मापि वो पहातब्बा पगेव अधम्मा.
२४१. ‘‘छयिमानि, भिक्खवे, दिट्ठिट्ठानानि. कतमानि छ? इध, भिक्खवे, अस्सुतवा पुथुज्जनो अरियानं अदस्सावी अरियधम्मस्स अकोविदो अरियधम्मे अविनीतो, सप्पुरिसानं अदस्सावी सप्पुरिसधम्मस्स अकोविदो सप्पुरिसधम्मे अविनीतो, रूपं ‘एतं मम, एसोहमस्मि, एसो मे अत्ता’ति समनुपस्सति; वेदनं ‘एतं मम, एसोहमस्मि, एसो मे अत्ता’ति समनुपस्सति; सञ्ञं ‘एतं मम, एसोहमस्मि, एसो मे अत्ता’ति समनुपस्सति; सङ्खारे ‘एतं मम, एसोहमस्मि, एसो मे अत्ता’ति समनुपस्सति; यम्पि तं दिट्ठं सुतं मुतं विञ्ञातं पत्तं परियेसितं, अनुविचरितं मनसा तम्पि ‘एतं मम, एसोहमस्मि, एसो मे अत्ता’ति समनुपस्सति; यम्पि तं दिट्ठिट्ठानं – सो लोको सो अत्ता, सो पेच्च भविस्सामि निच्चो धुवो सस्सतो अविपरिणामधम्मो , सस्सतिसमं तथेव ठस्सामीति – तम्पि ‘एतं मम, एसोहमस्मि, एसो मे अत्ता’ति समनुपस्सति. सुतवा च खो, भिक्खवे, अरियसावको अरियानं दस्सावी अरियधम्मस्स कोविदो अरियधम्मे सुविनीतो, सप्पुरिसानं दस्सावी सप्पुरिसधम्मस्स कोविदो सप्पुरिसधम्मे सुविनीतो, रूपं ‘नेतं मम, नेसोहमस्मि, न मेसो अत्ता’ति समनुपस्सति; वेदनं ‘नेतं मम, नेसोहमस्मि, न मेसो अत्ता’ति समनुपस्सति; सञ्ञं ‘नेतं मम, नेसोहमस्मि, न मेसो अत्ता’ति समनुपस्सति; सङ्खारे ‘नेतं मम, नेसोहमस्मि, न मेसो अत्ता’ति समनुपस्सति; यम्पि तं दिट्ठं सुतं मुतं विञ्ञातं पत्तं परियेसितं, अनुविचरितं मनसा, तम्पि ‘नेतं मम, नेसोहमस्मि, न मेसो अत्ता’ति समनुपस्सति; यम्पि तं दिट्ठिट्ठानं – सो लोको सो अत्ता, सो पेच्च भविस्सामि निच्चो धुवो सस्सतो अविपरिणामधम्मो, सस्सतिसमं तथेव ठस्सामीति – तम्पि ‘नेतं मम, नेसोहमस्मि, न मेसो अत्ता’ति समनुपस्सति. सो एवं समनुपस्सन्तो असति न परितस्सती’’ति.
२४२. एवं वुत्ते, अञ्ञतरो भिक्खु भगवन्तं एतदवोच – ‘‘सिया नु खो, भन्ते, बहिद्धा असति परितस्सना’’ति? ‘‘सिया, भिक्खू’’ति – भगवा अवोच. ‘‘इध भिक्खु एकच्चस्स एवं होति – ‘अहु वत मे, तं वत मे नत्थि; सिया वत मे, तं वताहं न लभामी’ति. सो सोचति किलमति परिदेवति उरत्ताळिं कन्दति सम्मोहं आपज्जति. एवं खो, भिक्खु, बहिद्धा असति परितस्सना होती’’ति.
‘‘सिया पन, भन्ते, बहिद्धा असति अपरितस्सना’’ति? ‘‘सिया, भिक्खू’’ति – भगवा अवोच. ‘‘इध भिक्खु एकच्चस्स न एवं होति – ‘अहु वत मे, तं वत मे नत्थि; सिया वत मे, तं वताहं न लभामी’ति. सो न सोचति न किलमति न परिदेवति न उरत्ताळिं कन्दति न सम्मोहं आपज्जति. एवं खो, भिक्खु, बहिद्धा असति अपरितस्सना होती’’ति.
‘‘सिया नु खो, भन्ते, अज्झत्तं असति परितस्सना’’ति? ‘‘सिया, भिक्खू’’ति – भगवा अवोच. ‘‘इध, भिक्खु, एकच्चस्स एवं दिट्ठि होति – ‘सो लोको सो अत्ता, सो पेच्च भविस्सामि निच्चो धुवो सस्सतो अविपरिणामधम्मो, सस्सतिसमं तथेव ठस्सामी’ति. सो सुणाति तथागतस्स वा तथागतसावकस्स वा सब्बेसं दिट्ठिट्ठानाधिट्ठानपरियुट्ठानाभिनिवेसानुसयानं समुग्घाताय सब्बसङ्खारसमथाय सब्बूपधिपटिनिस्सग्गाय तण्हाक्खयाय विरागाय निरोधाय निब्बानाय धम्मं देसेन्तस्स. तस्स एवं होति – ‘उच्छिज्जिस्सामि नामस्सु, विनस्सिस्सामि नामस्सु, नस्सु नाम भविस्सामी’ति. सो सोचति किलमति परिदेवति उरत्ताळिं कन्दति सम्मोहं आपज्जति. एवं खो, भिक्खु, अज्झत्तं असति परितस्सना होती’’ति.
‘‘सिया पन, भन्ते, अज्झत्तं असति अपरितस्सना’’ति? ‘‘सिया, भिक्खू’’ति भगवा अवोच. ‘‘इध, भिक्खु, एकच्चस्स न एवं दिट्ठि होति – ‘सो लोको सो अत्ता, सो पेच्च भविस्सामि निच्चो धुवो सस्सतो अविपरिणामधम्मो, सस्सतिसमं तथेव ठस्सामी’ति. सो सुणाति तथागतस्स वा तथागतसावकस्स वा सब्बेसं दिट्ठिट्ठानाधिट्ठानपरियुट्ठानाभिनिवेसानुसयानं समुग्घाताय सब्बसङ्खारसमथाय सब्बूपधिपटिनिस्सग्गाय तण्हाक्खयाय विरागाय निरोधाय निब्बानाय धम्मं देसेन्तस्स. तस्स न एवं होति – ‘उच्छिज्जिस्सामि नामस्सु, विनस्सिस्सामि नामस्सु, नस्सु नाम भविस्सामी’ति. सो न सोचति न किलमति न परिदेवति न उरत्ताळिं कन्दति न सम्मोहं आपज्जति. एवं खो, भिक्खु, अज्झत्तं असति अपरितस्सना होति’’.
२४३. ‘‘तं [तञ्च (क.)], भिक्खवे, परिग्गहं परिग्गण्हेय्याथ, य्वास्स [य्वास्सु (क.)] परिग्गहो निच्चो धुवो सस्सतो अविपरिणामधम्मो, सस्सतिसमं तथेव तिट्ठेय्य. पस्सथ नो तुम्हे, भिक्खवे, तं परिग्गहं य्वास्स परिग्गहो निच्चो धुवो सस्सतो अविपरिणामधम्मो, सस्सतिसमं तथेव तिट्ठेय्या’’ति? ‘‘नो हेतं, भन्ते’’. ‘‘साधु, भिक्खवे. अहम्पि खो तं, भिक्खवे, परिग्गहं न समनुपस्सामि य्वास्स परिग्गहो निच्चो धुवो सस्सतो अविपरिणामधम्मो सस्सतिसमं तथेव तिट्ठेय्य.
‘‘तं, भिक्खवे, अत्तवादुपादानं उपादियेथ, यंस [यस्स (स्या. क.)] अत्तवादुपादानं उपादियतो न उप्पज्जेय्युं सोकपरिदेवदुक्खदोमनस्सुपायासा. पस्सथ नो तुम्हे, भिक्खवे, तं अत्तवादुपादानं यंस अत्तवादुपादानं उपादियतो न उप्पज्जेय्युं सोकपरिदेवदुक्खदोमनस्सुपायासा’’ति? ‘‘नो हेतं, भन्ते’’. ‘‘साधु, भिक्खवे. अहम्पि खो तं, भिक्खवे, अत्तवादुपादानं न समनुपस्सामि यंस अत्तवादुपादानं उपादियतो न उप्पज्जेय्युं सोकपरिदेवदुक्खदोमनस्सुपायासा.
‘‘तं, भिक्खवे, दिट्ठिनिस्सयं निस्सयेथ यंस दिट्ठिनिस्सयं निस्सयतो न उप्पज्जेय्युं सोकपरिदेवदुक्खदोमनस्सुपायासा. पस्सथ नो तुम्हे, भिक्खवे, तं दिट्ठिनिस्सयं यंस दिट्ठिनिस्सयं निस्सयतो न उप्पज्जेय्युं सोकपरिदेवदुक्खदोमनस्सुपायासा’’ति? ‘‘नो हेतं, भन्ते’’. ‘‘साधु, भिक्खवे. अहम्पि खो तं, भिक्खवे, दिट्ठिनिस्सयं न समनुपस्सामि यंस दिट्ठिनिस्सयं निस्सयतो न उप्पज्जेय्युं सोकपरिदेवदुक्खदोमनस्सुपायासा’’.
२४४. ‘‘अत्तनि वा, भिक्खवे, सति अत्तनियं मे ति अस्सा’’ति?
‘‘एवं, भन्ते’’.
‘‘अत्तनिये वा, भिक्खवे, सति अत्ता मे ति अस्सा’’ति? ‘‘एवं, भन्ते’’.
‘‘अत्तनि च, भिक्खवे, अत्तनिये च सच्चतो थेततो अनुपलब्भमाने, यम्पि तं दिट्ठिट्ठानं – ‘सो लोको सो अत्ता, सो पेच्च भविस्सामि निच्चो धुवो सस्सतो अविपरिणामधम्मो, सस्सतिसमं तथेव ठस्सामी’ति – ननायं [न च खोयं (क.)], भिक्खवे, केवलो परिपूरो बालधम्मो’’’ति?
‘‘किञ्हि नो सिया, भन्ते, केवलो हि, भन्ते, परिपूरो [केवलो परिपूरो (सी. पी.)] बालधम्मो’’ति.
‘‘तं किं मञ्ञथ, भिक्खवे, रूपं निच्चं वा अनिच्चं वा’’ति?
‘‘अनिच्चं, भन्ते’’ .
‘‘यं पनानिच्चं, दुक्खं वा तं सुखं वा’’ति?
‘‘दुक्खं, भन्ते’’.
‘‘यं पनानिच्चं दुक्खं विपरिणामधम्मं, कल्लं नु तं समनुपस्सितुं – एतं मम, एसोहमस्मि, एसो मे अत्ता’’ति?
‘‘नो हेतं, भन्ते’’.
‘‘तं किं मञ्ञथ, भिक्खवे, वेदना…पे… सञ्ञा… सङ्खारा… विञ्ञाणं निच्चं वा अनिच्चं वा’’ति?
‘‘अनिच्चं, भन्ते’’.
‘‘यं पनानिच्चं, दुक्खं वा तं सुखं वा’’ति?
‘‘दुक्खं, भन्ते’’.
‘‘यं पनानिच्चं दुक्खं विपरिणामधम्मं, कल्लं नु तं समनुपस्सितुं – एतं मम, एसोहमस्मि, एसो मे अत्ता’’ति?
‘‘नो हेतं, भन्ते’’.
‘‘तस्मातिह, भिक्खवे, यं किञ्चि रूपं अतीतानागतपच्चुप्पन्नं, अज्झत्तं वा बहिद्धा वा , ओळारिकं वा सुखुमं वा, हीनं वा पणीतं वा, यं दूरे सन्तिके वा, सब्बं रूपं ‘नेतं मम, नेसोहमस्मि, न मेसो अत्ता’ति – एवमेतं यथाभूतं सम्मप्पञ्ञाय दट्ठब्बं. या काचि वेदना…पे… या काचि सञ्ञा… ये केचि सङ्खारा… यं किञ्चि विञ्ञाणं अतीतानागतपच्चुप्पन्नं, अज्झत्तं वा बहिद्धा वा, ओळारिकं वा सुखुमं वा, हीनं वा पणीतं वा, यं दूरे सन्तिके वा, सब्बं विञ्ञाणं ‘नेतं मम, नेसोहमस्मि, न मेसो अत्ता’ति – एवमेतं यथाभूतं सम्मप्पञ्ञाय दट्ठब्बं’’.
२४५. ‘‘एवं पस्सं, भिक्खवे, सुतवा अरियसावको रूपस्मिं निब्बिन्दति, वेदनाय निब्बिन्दति, सञ्ञाय निब्बिन्दति, सङ्खारेसु निब्बिन्दति, विञ्ञाणस्मिं निब्बिन्दति, निब्बिदा विरज्जति [निब्बिन्दं विरज्जति (सी. स्या. पी.)], विरागा विमुच्चति , विमुत्तस्मिं विमुत्तमिति ञाणं होति. ‘खीणा जाति, वुसितं ब्रह्मचरियं, कतं करणीयं, नापरं इत्थत्ताया’ति पजानाति. अयं वुच्चति, भिक्खवे, भिक्खु उक्खित्तपलिघो इतिपि, संकिण्णपरिक्खो इतिपि, अब्बूळ्हेसिको इतिपि, निरग्गळो इतिपि, अरियो पन्नद्धजो पन्नभारो विसंयुत्तो इतिपि.
‘‘कथञ्च, भिक्खवे, भिक्खु उक्खित्तपलिघो होति? इध, भिक्खवे, भिक्खुनो अविज्जा पहीना होति, उच्छिन्नमूला तालावत्थुकता अनभावंकता, आयतिं अनुप्पादधम्मा. एवं खो, भिक्खवे, भिक्खु उक्खित्तपलिघो होति.
‘‘कथञ्च, भिक्खवे, भिक्खु संकिण्णपरिक्खो होति? इध, भिक्खवे, भिक्खुनो पोनोब्भविको जातिसंसारो पहीनो होति, उच्छिन्नमूलो तालावत्थुकतो अनभावंकतो, आयतिं अनुप्पादधम्मो. एवं खो, भिक्खवे, भिक्खु संकिण्णपरिक्खो होति.
‘‘कथञ्च, भिक्खवे, भिक्खु अब्बूळ्हेसिको होति? इध, भिक्खवे, भिक्खुनो तण्हा पहीना होति, उच्छिन्नमूला तालावत्थुकता अनभावंकता, आयतिं अनुप्पादधम्मा. एवं खो, भिक्खवे, भिक्खु अब्बूळ्हेसिको होति.
‘‘कथञ्च, भिक्खवे, भिक्खु निरग्गळो होति? इध, भिक्खवे, भिक्खुनो पञ्च ओरम्भागियानि संयोजनानि पहीनानि होन्ति, उच्छिन्नमूलानि तालावत्थुकतानि अनभावंकतानि, आयतिं अनुप्पादधम्मानि . एवं खो, भिक्खवे, भिक्खु निरग्गळो होति.
‘‘कथञ्च, भिक्खवे, भिक्खु अरियो पन्नद्धजो पन्नभारो विसंयुत्तो होति? इध, भिक्खवे, भिक्खुनो अस्मिमानो पहीनो होति, उच्छिन्नमूलो तालावत्थुकतो अनभावंकतो , आयतिं अनुप्पादधम्मो . एवं खो, भिक्खवे, भिक्खु अरियो पन्नद्धजो पन्नभारो विसंयुत्तो होति.
२४६. ‘‘एवं विमुत्तचित्तं खो, भिक्खवे, भिक्खुं सइन्दा देवा सब्रह्मका सपजापतिका अन्वेसं नाधिगच्छन्ति – ‘इदं निस्सितं तथागतस्स विञ्ञाण’न्ति. तं किस्स हेतु? दिट्ठेवाहं, भिक्खवे, धम्मे तथागतं अननुविज्जोति वदामि. एवंवादिं खो मं, भिक्खवे, एवमक्खायिं एके समणब्राह्मणा असता तुच्छा मुसा अभूतेन अब्भाचिक्खन्ति – ‘वेनयिको समणो गोतमो, सतो सत्तस्स उच्छेदं विनासं विभवं पञ्ञापेती’ति. यथा चाहं न, भिक्खवे [भिक्खवे न (सी. स्या. पी.)], यथा चाहं न वदामि, तथा मं ते भोन्तो समणब्राह्मणा असता तुच्छा मुसा अभूतेन अब्भाचिक्खन्ति – ‘वेनयिको समणो गोतमो, सतो सत्तस्स उच्छेदं विनासं विभवं पञ्ञापेती’ति. पुब्बे चाहं भिक्खवे, एतरहि च दुक्खञ्चेव पञ्ञापेमि, दुक्खस्स च निरोधं. तत्र चे, भिक्खवे, परे तथागतं अक्कोसन्ति परिभासन्ति रोसेन्ति विहेसेन्ति, तत्र, भिक्खवे, तथागतस्स न होति आघातो न अप्पच्चयो न चेतसो अनभिरद्धि.
‘‘तत्र चे, भिक्खवे, परे तथागतं सक्करोन्ति गरुं करोन्ति मानेन्ति पूजेन्ति, तत्र, भिक्खवे, तथागतस्स न होति आनन्दो न सोमनस्सं न चेतसो उप्पिलावितत्तं. तत्र चे, भिक्खवे , परे वा तथागतं सक्करोन्ति गरुं करोन्ति मानेन्ति पूजेन्ति, तत्र, भिक्खवे, तथागतस्स एवं होति – ‘यं खो इदं पुब्बे परिञ्ञातं तत्थ मे एवरूपा कारा [सक्कारा (क.)] करीयन्ती’ति. तस्मातिह, भिक्खवे, तुम्हे चेपि परे अक्कोसेय्युं परिभासेय्युं रोसेय्युं विहेसेय्युं, तत्र तुम्हे हि न आघातो न अप्पच्चयो न चेतसो अनभिरद्धि करणीया. तस्मातिह, भिक्खवे, तुम्हे चेपि परे सक्करेय्युं गरुं करेय्युं मानेय्युं पूजेय्युं, तत्र तुम्हेहि न आनन्दो न सोमनस्सं न चेतसो उप्पिलावितत्तं करणीयं. तस्मातिह, भिक्खवे, तुम्हे चेपि परे सक्करेय्युं गरुं करेय्युं मानेय्युं पूजेय्युं, तत्र तुम्हाकं एवमस्स – ‘यं खो इदं पुब्बे परिञ्ञातं, तत्थ मे [तत्थ नो (क.) तत्थ + इमेति पदच्छेदो] एवरूपा कारा करीयन्ती’ति.
२४७. ‘‘तस्मातिह, भिक्खवे, यं न तुम्हाकं तं पजहथ; तं वो पहीनं दीघरत्तं हिताय सुखाय भविस्सति. किञ्च, भिक्खवे, न तुम्हाकं? रूपं, भिक्खवे, न तुम्हाकं, तं पजहथ; तं वो पहीनं दीघरत्तं हिताय सुखाय भविस्सति. वेदना, भिक्खवे, न तुम्हाकं, तं पजहथ; सा वो पहीना दीघरत्तं हिताय सुखाय भविस्सति. सञ्ञा, भिक्खवे, न तुम्हाकं, तं पजहथ; सा वो पहीना दीघरत्तं हिताय सुखाय भविस्सति. सङ्खारा, भिक्खवे, न तुम्हाकं, ते पजहथ; ते वो पहीना दीघरत्तं हिताय सुखाय भविस्सन्ति. विञ्ञाणं, भिक्खवे, न तुम्हाकं, तं पजहथ; तं वो पहीनं दीघरत्तं हिताय सुखाय भविस्सति. तं किं मञ्ञथ, भिक्खवे, यं इमस्मिं जेतवने तिणकट्ठसाखापलासं, तं जनो हरेय्य वा दहेय्य वा यथापच्चयं वा करेय्य. अपि नु तुम्हाकं एवमस्स – ‘अम्हे जनो हरति वा दहति वा यथापच्चयं वा करोती’ति? ‘‘नो हेतं, भन्ते’’. ‘‘तं किस्स हेतु’’? ‘‘न हि नो एतं, भन्ते, अत्ता वा अत्तनियं वा’’ति. ‘‘एवमेव खो, भिक्खवे, यं न तुम्हाकं तं पजहथ; तं वो पहीनं दीघरत्तं हिताय सुखाय भविस्सति. किञ्च, भिक्खवे, न तुम्हाकं? रूपं, भिक्खवे, न तुम्हाकं, तं पजहथ; तं वो पहीनं दीघरत्तं हिताय सुखाय भविस्सति. वेदना, भिक्खवे…पे… सञ्ञा, भिक्खवे… सङ्खारा, भिक्खवे…पे… विञ्ञाणं, भिक्खवे, न तुम्हाकं, तं पजहथ; तं वो पहीनं दीघरत्तं हिताय सुखाय भविस्सति.
२४८. ‘‘एवं स्वाक्खातो, भिक्खवे, मया धम्मो उत्तानो विवटो पकासितो छिन्नपिलोतिको. एवं स्वाक्खाते, भिक्खवे, मया धम्मे उत्ताने विवटे पकासिते छिन्नपिलोतिके ये ते भिक्खू अरहन्तो खीणासवा वुसितवन्तो कतकरणीया ओहितभारा अनुप्पत्तसदत्था परिक्खीणभवसंयोजना सम्मदञ्ञा विमुत्ता, वट्टं तेसं नत्थि पञ्ञापनाय. एवं स्वाक्खातो, भिक्खवे, मया धम्मो उत्तानो विवटो पकासितो छिन्नपिलोतिको. एवं स्वाक्खाते, भिक्खवे, मया धम्मे उत्ताने विवटे पकासिते छिन्नपिलोतिके येसं भिक्खूनं पञ्चोरम्भागियानि संयोजनानि पहीनानि, सब्बे ते ओपपातिका, तत्थ परिनिब्बायिनो, अनावत्तिधम्मा तस्मा लोका. एवं स्वाक्खातो, भिक्खवे, मया धम्मो उत्तानो विवटो पकासितो छिन्नपिलोतिको. एवं स्वाक्खाते, भिक्खवे, मया धम्मे उत्ताने विवटे पकासिते छिन्नपिलोतिके येसं भिक्खूनं तीणि संयोजनानि पहीनानि, रागदोसमोहा तनुभूता, सब्बे ते सकदागामिनो, सकिदेव इमं लोकं आगन्त्वा दुक्खस्सन्तं करिस्सन्ति. एवं स्वाक्खातो, भिक्खवे, मया धम्मो उत्तानो विवटो पकासितो छिन्नपिलोतिको. एवं स्वाक्खाते, भिक्खवे, मया धम्मे उत्ताने विवटे पकासिते छिन्नपिलोतिके येसं भिक्खूनं तीणि संयोजनानि पहीनानि, सब्बे ते सोतापन्ना, अविनिपातधम्मा , नियता सम्बोधिपरायना. एवं स्वाक्खातो, भिक्खवे, मया धम्मो उत्तानो विवटो पकासितो छिन्नपिलोतिको. एवं स्वाक्खाते, भिक्खवे, मया धम्मे उत्ताने विवटे पकासिते छिन्नपिलोतिके ये ते भिक्खू धम्मानुसारिनो सद्धानुसारिनो सब्बे ते सम्बोधिपरायना. एवं स्वाक्खातो, भिक्खवे, मया धम्मो उत्तानो विवटो पकासितो छिन्नपिलोतिको. एवं स्वाक्खाते, भिक्खवे, मया धम्मे उत्ताने विवटे पकासिते छिन्नपिलोतिके येसं मयि सद्धामत्तं पेममत्तं सब्बे ते सग्गपरायना’’ति.
इदमवोच भगवा. अत्तमना ते भिक्खू भगवतो भासितं अभिनन्दुन्ति.
अलगद्दूपमसुत्तं निट्ठितं दुतियं.