नमो तस्स भगवतो अरहतो सम्मा-सम्बुद्धस्स

📜 बाँबी

सूत्र परिचय

यह सूत्र पाली साहित्य के सबसे अनोखे सूत्रों में से एक है, जिसमें अनेक रहस्यमयी पहेलियाँ छिपी हुई हैं। यह न केवल एक रोचक संवाद है, बल्कि यह एक आध्यात्मिक यात्रा का संक्षिप्त मानचित्र भी है। यह साधक को चुनौती देता है कि वे इन प्रतीकों के माध्यम से अपने भीतर झाँकें और बौद्ध साधना की वास्तविकता को अनुभव करें। यह सुत्त, प्रतीकात्मक शैली के माध्यम से, बौद्ध धर्म के मूल सिद्धांतों — जैसे चित्त की शुद्धि, ध्यान की साधना, और निर्वाण की प्राप्ति — को एक नई दृष्टि से प्रस्तुत करता है।

इन प्रतीकों के पीछे छिपे अर्थ बहुत ही गहन और ध्यान की गहराइयों से संबंधित हैं। इस संवाद का स्वरूप स्वप्न-जैसा है — कहीं-कहीं भ्रमित करने वाला, लेकिन भीतर गहराई से सोचने पर यह आध्यात्मिक विकास, ज्ञान और मुक्ति के पथ को प्रकाशित करता है। हालांकि, भगवान कभी भी रहस्यमय तरीके से पहेलियाँ नहीं बुझाते थे। वे हमेशा सीधे और स्पष्ट रूप में सत्य को उजागर कर सभी गुत्थियों को सुलझा देते थे। इस सूत्र में भी यही तत्व विद्यमान है।

✦ ॥ नमो तस्स भगवतो अरहतो सम्मासम्बुद्धस्स ॥ ✦

Hindi

ऐसा मैंने सुना — एक समय भगवान श्रावस्ती में अनाथपिण्डक के जेतवन उद्यान में विहार कर रहे थे। उस समय आयुष्मान कुमार कश्यप 1 अन्धवन में विहार कर रहे थे।

तब देर रात में कोई देवता, 2 अत्याधिक कांति से संपूर्ण अन्धवन को रौशन करते हुए, आयुष्मान कुमार कश्यप के पास गया, और एक-ओर खड़ा हुआ। एक ओर खड़े होकर उस देवता ने आयुष्मान कुमार कश्यप से कहा:

“भिक्षु, भिक्षु। यह बाँबी (=दीमक या चींटी का टीला, वर्मिक) रात में धुआँ करता है, दिन में प्रज्वलित होता है।

ब्राह्मण ने कहा — ‘शस्त्र लो, सुमेध (=होशियार), और खुदाई करो।’ सुमेध को शस्त्र लेकर खुदाई करते हुए बंबू दिखा; एक बंबू, भदंत।

ब्राह्मण ने कहा — ‘बंबू फेंको। शस्त्र लो, सुमेध, और खुदाई करो।’ सुमेध को शस्त्र लेकर खुदाई करते हुए तब मेंढक दिखा; एक मेंढक, भदंत।

ब्राह्मण ने कहा — ‘मेंढक फेंको। शस्त्र लो, सुमेध, और खुदाई करो।’ सुमेध को शस्त्र लेकर खुदाई करते हुए तब दोराहा (=जहाँ दो रास्ते खुले) दिखा; एक दोराहा, भदंत।

ब्राह्मण ने कहा — ‘दोराहा फेंको। शस्त्र लो, सुमेध, और खुदाई करो।’ सुमेध को शस्त्र लेकर खुदाई करते हुए तब बर्तन दिखा; एक बर्तन, भदंत।

ब्राह्मण ने कहा — ‘बर्तन फेंको। शस्त्र लो, सुमेध, और खुदाई करो।’ सुमेध को शस्त्र लेकर खुदाई करते हुए तब कछुआ दिखा; एक कछुआ, भदंत।

ब्राह्मण ने कहा — ‘कछुआ फेंको। शस्त्र लो, सुमेध, और खुदाई करो।’ सुमेध को शस्त्र लेकर खुदाई करते हुए तब (कसाई की) छुरी और मंच दिखा; एक छुरी और मंच, भदंत।

ब्राह्मण ने कहा — ‘छुरी और मंच फेंको। शस्त्र लो, सुमेध, और खुदाई करो।’ सुमेध को शस्त्र लेकर खुदाई करते हुए तब मांसपेशी दिखी; एक मांसपेशी, भदंत।

ब्राह्मण ने कहा — ‘मांसपेशी फेंको। शस्त्र लो, सुमेध, और खुदाई करो।’ सुमेध को शस्त्र लेकर खुदाई करते हुए तब नाग दिखा; एक नाग, भदंत।

ब्राह्मण ने कहा — ‘नाग रहने दो, नाग को मत छेड़ो। नाग को नमन करो।’

भिक्षु, भगवान के पास जाओ, और उनसे यह प्रश्न पुछो। जैसे भगवान उत्तर दे, उसी तरह धारण करो। मैं किसी को नहीं देखता हूँ, जो देव, मार, ब्रह्म, श्रमण, ब्राह्मण, राजा, और प्रजा से भरे इस लोक में इस प्रश्न का संतोषजनक उत्तर दे — बजाय तथागत के, या तथागत के श्रावक के, या उनसे ही सुने हुए व्यक्ति के।”

देवता ने ऐसा कहा, और विलुप्त हो गया।

भगवान का स्पष्टीकरण

तब रात बीतने पर, आयुष्मान कुमार कश्यप भगवान के पास गए, और जाकर अभिवादन कर एक ओर बैठ गए। एक ओर बैठकर आयुष्मान कुमार कश्यप ने भगवान से (सब कुछ) कहा,

“भंते, देर रात में कोई देवता अत्याधिक कांति से संपूर्ण अन्धवन को रौशन करते हुए मेरे पास आया और एक-ओर खड़ा हुआ। एक ओर खड़े होकर उस देवता ने मुझे कहा:

‘भिक्षु, भिक्षु। यह बाँबी रात में धुआँ करता है, दिन में प्रज्वलित होता है…’ देवता ने ऐसा कहा, और विलुप्त हो गया।

भंते, यह बाँबी क्या है? रात में धुआँ करना क्या है? दिन में प्रज्वलित होना क्या है? ब्राह्मण क्या है? सुमेध क्या है? शस्त्र क्या है? खोदना क्या है? बंबू क्या है? मेंढक क्या है? दोहरा रास्ता क्या है? बर्तन क्या है? कछुआ क्या है? छुरी और मंच क्या है? मांसपेशी क्या है? नाग क्या है?”

(भगवान ने उत्तर दिया:)

“भिक्षु, ‘बाँबी’ — चार महाभूत से बनी इस काया को कहते हैं — जो माता-पिता द्वारा जन्मी, दाल-चावल द्वारा पोषित, अनित्य, रगड़न, छेदन, विघटन और विध्वंस स्वभाव की है।

आगे, दिन के कर्मों के बारे में पूरी रात भर चिंतन-मनन करना — ‘रात में धुआँ करना’ कहते हैं।

आगे, पूरी रात भर चिंतन-मनन कर दिन में काया, वाणी और मन से कर्म करना — ‘दिन में प्रज्वलित होना’ कहते हैं।

आगे, ‘ब्राह्मण’ — ‘तथागत अरहंत सम्यक-सम्बुद्ध को कहते हैं।

और, ‘सुमेध’ — सीखते हुए भिक्षु को कहते हैं।

आगे, ‘शस्त्र’ — आर्य प्रज्ञा को कहते हैं।

और, ‘खोदना’ — ऊर्जा जागृत कर (साधना में जुटना) को कहते हैं।

आगे, ‘बंबू’ — अविद्या को कहते हैं। बंबू फेंको, अर्थात, अविद्या को त्याग दो। शस्त्र लो, सुमेध, और खुदाई करो।

आगे, ‘मेंढक’ — क्रोध और निराशा को कहते हैं। मेंढक फेंको, अर्थात, क्रोध और निराशा को त्याग दो। शस्त्र लो, सुमेध, और खुदाई करो।

आगे, ‘दोहरा रास्ता’ — अनिश्चितता को कहते हैं। दोहरा रास्ता फेकों, अर्थात, अनिश्चितता को त्याग दो। शस्त्र लो, सुमेध, और खुदाई करो।

आगे, ‘बर्तन’ — पाँच अवरोध (“नीवरण”) को कहते हैं। जैसे, कामेच्छा अवरोध, दुर्भावना अवरोध, सुस्ती और तंद्रा अवरोध, बेचैनी और पश्चाताप अवरोध, अनिश्चितता अवरोध। बर्तन फेकों, अर्थात, पाँच अवरोध को त्याग दो। शस्त्र लो, सुमेध, और खुदाई करो।

आगे, ‘कछुआ’ — पाँच आसक्ति संग्रह (“उपादानक्खन्ध”) को कहते हैं। जैसे, रूप आसक्ति संग्रह, संवेदना आसक्ति संग्रह, संज्ञा आसक्ति संग्रह, रचना आसक्ति संग्रह, और चैतन्य आसक्ति संग्रह। कछुआ फेंको, अर्थात, पाँच आसक्ति संग्रह को त्याग दो। शस्त्र लो, सुमेध, और खुदाई करो।

आगे, ‘छुरी और मंच’ — पाँच कामसुख को कहते हैं —

  • आँख से दिखायी देते रूप, जो अच्छे, सुंदर, मनपसंद, आकर्षक, कामुक, ललचाते हो।
  • कान से सुनायी देती आवाज़े, जो अच्छी, मोहक, मनपसंद, आकर्षक, कामुक, ललचाती हो।
  • नाक से सुँघाई देती गन्ध, जो अच्छी, मोहक, मनपसंद, आकर्षक, कामुक, ललचाती हो।
  • जीभ से पता चलते स्वाद, जो अच्छे, मोहक, मनपसंद, आकर्षक, कामुक, ललचाते हो।
  • काया से पता चलते संस्पर्श, जो अच्छे, मोहक, मनपसंद, आकर्षक, कामुक, ललचाते हो।

छुरी और मंच फेंको, अर्थात, पाँच कामसुख को त्याग दो। शस्त्र लो, सुमेध, और खुदाई करो।

आगे, ‘मांसपेशी’ — मजा और दिलचस्पी को कहते हैं। मांसपेशी फेंको, अर्थात, मजा और दिलचस्पी को त्याग दो। शस्त्र लो, सुमेध, और खुदाई करो।

आगे, ‘नाग’ — क्षीणास्रव भिक्षु (=अरहंत) को कहते हैं। ‘नाग रहने दो, नाग को मत छेड़ो। नाग को नमन करो’ — इसी अर्थ से है।”

भगवान ने ऐसा कहा। हर्षित होकर आयुष्मान कुमार कश्यप ने भगवान की बात का अभिनंदन किया।

सुत्र समाप्त।


  1. कुमार कश्यप भंते, कोशल देश के महाराज प्रसेनजित के दत्तक पुत्र थे। उनका जन्म उस स्त्री से हुआ था जो गर्भवती होने के बावजूद, बिना इस बात को जाने, भिक्षुणी के रूप में प्रवज्जित हो गयी थी। कहा जाता है कि इस सूत्र के समय वे अभी तक अरहंत नहीं हुए थे। और इसी सूत्र को ध्यान का विषय और आलंबन बनाकर उन्होंने आगे चलकर अरहत्व प्राप्त किया। अरहंत बनकर, वे अपनी धर्म बताने की प्रतिभाओं के लिए प्रसिद्ध हुए। भगवान ने उन्हें धर्म की गहरी व्याख्या करने वालों में सर्वश्रेष्ठ कहा। उनकी जीवंत उपमाओं और विलक्षण तर्क का उदाहरण दीघनिकाय २३ में देखने को मिलता है, जिसे अवश्य पढ़ें। ↩︎

  2. मध्यम आगम की अट्ठकथा के अनुसार, यह देवता अनागामी था, जो शुद्धवास ब्रह्मलोक में रहता था। कुमार कश्यप और यह देवता, पूर्वबुद्ध भगवान कश्यप के समय, पाँच प्रतिभाशाली भिक्षुओं के एक गुट में से थे। वे पाँचों मिलकर एक पर्वत शिखर पर ध्यानाभ्यास करते थे। और आगे चलकर, गोतम बुद्ध के समय, उन्होंने एक दूसरे को निर्वाण पाने में भी सहायता की। जैसे प्रसिद्ध बाहिय दारुचिरीय (उदान १:१०) भी उन पाँचों में से एक था, जिसे इसी देवता ने भगवान बुद्ध से मिलने के लिए प्रेरित किया था।

    बाहिय दारुचिरीय वही था, जिसे भगवान ने सबसे कम शब्दों में अरहंत बना दिया, केवल इतना कह कर —

    “बाहिय, तुम्हें इस तरह सीखना चाहिए —

    • (“दिट्ठे दिट्ठमत्तं भविस्सति”) — देखने में मात्र देखना ही होगा,
    • (सुते सुतमत्तं भविस्सति”) — सुनने में मात्र सुनना ही होगा,
    • (“मुते मुतमत्तं भविस्सति”) — महसूस करने में मात्र महसूस करना ही होगा,
    • (“विञ्ञाते विञ्ञातमत्तं भविस्सति”) — जानने में मात्र जानना ही होगा।

    और जब, बाहिय, तुम्हारे लिए ऐसा हो जाएगा — देखने में मात्र देखना, सुनने में मात्र सुनना, महसूस करने में मात्र महसूस करना, जानने में मात्र जानना — तब उन्हें लेकर (उन प्रक्रियाओं में कहीं) ‘तुम’ नहीं होंगे। जब उन्हें लेकर तुम नहीं होंगे, तो तुम नहीं रहोगे। जब तुम नहीं रहोगे — तब तुम न यहाँ, न वहाँ, न कहीं बीच में रहोगे! बस, यही अंत है दुःखों का!”

    — उदान १:१०

     ↩︎

Pali

२४९. एवं मे सुतं – एकं समयं भगवा सावत्थियं विहरति जेतवने अनाथपिण्डिकस्स आरामे. तेन खो पन समयेन आयस्मा कुमारकस्सपो अन्धवने विहरति. अथ खो अञ्ञतरा देवता अभिक्कन्ताय रत्तिया अभिक्कन्तवण्णा केवलकप्पं अन्धवनं ओभासेत्वा येनायस्मा कुमारकस्सपो तेनुपसङ्कमि; उपसङ्कमित्वा एकमन्तं अट्ठासि. एकमन्तं ठिता खो सा देवता आयस्मन्तं कुमारकस्सपं एतदवोच –

‘‘भिक्खु भिक्खु, अयं वम्मिको [वम्मीको (कत्थचि) सक्कतानुरूपं] रत्तिं धूमायति, दिवा पज्जलति. ब्राह्मणो एवमाह – ‘अभिक्खण, सुमेध, सत्थं आदाया’ति. अभिक्खणन्तो सुमेधो सत्थं आदाय अद्दस लङ्गिं ‘लङ्गी, भदन्ते’ति. ब्राह्मणो एवमाह – ‘उक्खिप लङ्गिं; अभिक्खण, सुमेध, सत्थं आदाया’ति. अभिक्खणन्तो सुमेधो सत्थं आदाय अद्दस उद्धुमायिकं. ‘उद्धुमायिका, भदन्ते’ति. ब्राह्मणो एवमाह – ‘उक्खिप उद्धुमायिकं; अभिक्खण, सुमेध, सत्थं आदाया’ति. अभिक्खणन्तो सुमेधो सत्थं आदाय अद्दस द्विधापथं. ‘द्विधापथो, भदन्ते’ति. ब्राह्मणो एवमाह – ‘उक्खिप द्विधापथं; अभिक्खण, सुमेध, सत्थं आदाया’ति. अभिक्खणन्तो सुमेधो सत्थं आदाय अद्दस चङ्गवारं [पङ्कवारं (स्या.), चङ्कवारं (क.)]. ‘चङ्गवारो, भदन्ते’ति. ब्राह्मणो एवमाह – ‘उक्खिप चङ्गवारं; अभिक्खण, सुमेध, सत्थं आदाया’ति. अभिक्खणन्तो सुमेधो सत्थं आदाय अद्दस कुम्मं. ‘कुम्मो , भदन्ते’ति. ब्राह्मणो एवमाह – ‘उक्खिप कुम्मं; अभिक्खण, सुमेध, सत्थं आदाया’ति. अभिक्खणन्तो सुमेधो सत्थं आदाय अद्दस असिसूनं. ‘असिसूना, भदन्ते’ति. ब्राह्मणो एवमाह – ‘उक्खिप असिसूनं; अभिक्खण, सुमेध, सत्थं आदाया’ति. अभिक्खणन्तो सुमेधो सत्थं आदाय अद्दस मंसपेसिं. ‘मंसपेसि, भदन्ते’ति. ब्राह्मणो एवमाह – ‘उक्खिप मंसपेसिं; अभिक्खण, सुमेध, सत्थं आदाया’ति. अभिक्खणन्तो सुमेधो सत्थं आदाय अद्दस नागं. ‘नागो, भदन्ते’ति. ब्राह्मणो एवमाह – ‘तिट्ठतु नागो, मा नागं घट्टेसि; नमो करोहि नागस्सा’’’ति.

‘‘इमे खो त्वं, भिक्खु, पञ्हे भगवन्तं उपसङ्कमित्वा पुच्छेय्यासि, यथा च ते भगवा ब्याकरोति तथा नं धारेय्यासि. नाहं तं, भिक्खु, पस्सामि सदेवके लोके समारके सब्रह्मके सस्समणब्राह्मणिया पजाय सदेवमनुस्साय, यो इमेसं पञ्हानं वेय्याकरणेन चित्तं आराधेय्य अञ्ञत्र तथागतेन वा, तथागतसावकेन वा, इतो वा पन सुत्वा’’ति – इदमवोच सा देवता. इदं वत्वा तत्थेवन्तरधायि.

२५०. अथ खो आयस्मा कुमारकस्सपो तस्सा रत्तिया अच्चयेन येन भगवा तेनुपसङ्कमि; उपसङ्कमित्वा भगवन्तं अभिवादेत्वा एकमन्तं निसीदि. एकमन्तं निसिन्नो खो आयस्मा कुमारकस्सपो भगवन्तं एतदवोच – ‘‘इमं, भन्ते, रत्तिं अञ्ञतरा देवता अभिक्कन्ताय रत्तिया अभिक्कन्तवण्णा केवलकप्पं अन्धवनं ओभासेत्वा येनाहं तेनुपसङ्कमि; उपसङ्कमित्वा एकमन्तं अट्ठासि. एकमन्तं ठिता खो, भन्ते, सा देवता मं एतदवोच – ‘भिक्खु भिक्खु, अयं वम्मिको रत्तिं धूमायति, दिवा पज्जलति’. ब्राह्मणो एवमाह – ‘अभिक्खण, सुमेध, सत्थं आदाया’ति. अभिक्खणन्तो सुमेधो सत्थं आदाय…पे… इतो वा पन सुत्वाति. इदमवोच, भन्ते, सा देवता. इदं वत्वा तत्थेवन्तरधायि. ‘को नु खो, भन्ते, वम्मिको, का रत्तिं धूमायना, का दिवा पज्जलना, को ब्राह्मणो, को सुमेधो, किं सत्थं, किं अभिक्खणं, का लङ्गी, का उद्धुमायिका, को द्विधापथो, किं चङ्गवारं, को कुम्मो, का असिसूना , का मंसपेसि, को नागो’’’ति?

२५१. ‘‘‘वम्मिको’ति खो, भिक्खु, इमस्सेतं चातुमहाभूतिकस्स [चातुम्महाभूतिकस्स (सी. स्या. पी.)] कायस्स अधिवचनं, मातापेत्तिकसम्भवस्स ओदनकुम्मासूपचयस्स अनिच्चुच्छादन-परिमद्दनभेदन-विद्धंसन-धम्मस्स.

‘‘यं खो, भिक्खु, दिवा कम्मन्ते [कम्मन्तं (क.)] आरब्भ रत्तिं अनुवितक्केति अनुविचारेति – अयं रत्तिं धूमायना. यं खो, भिक्खु, रत्तिं अनुवितक्केत्वा अनुविचारेत्वा दिवा कम्मन्ते पयोजेति कायेन वाचाय ‘मनसा’ [( ) नत्थि (सी. स्या.)] – अयं दिवा पज्जलना.

‘‘‘ब्राह्मणो’ति खो, भिक्खु, तथागतस्सेतं अधिवचनं अरहतो सम्मासम्बुद्धस्स. ‘सुमेधो’ति खो भिक्खु सेक्खस्सेतं भिक्खुनो अधिवचनं.

‘‘‘सत्थ’न्ति खो, भिक्खु, अरियायेतं पञ्ञाय अधिवचनं. ‘अभिक्खण’न्ति खो, भिक्खु, वीरियारम्भस्सेतं अधिवचनं.

‘‘‘लङ्गी’ति खो, भिक्खु, अविज्जायेतं अधिवचनं. उक्खिप लङ्गिं, पजह अविज्जं; अभिक्खण, सुमेध, सत्थं आदायाति अयमेतस्स अत्थो.

‘‘‘उद्धुमायिका’ति खो, भिक्खु, कोधूपायासस्सेतं अधिवचनं. उक्खिप उद्धुमायिकं, पजह कोधूपायासं; अभिक्खण, सुमेध, सत्थं आदायाति अयमेतस्स अत्थो.

‘‘‘द्विधापथो’ति खो, भिक्खु, विचिकिच्छायेतं अधिवचनं. उक्खिप द्विधापथं, पजह विचिकिच्छं; अभिक्खण, सुमेध, सत्थं आदायाति अयमेतस्स अत्थो.

‘‘‘चङ्गवार’न्ति खो, भिक्खु, पञ्चन्नेतं नीवरणानं अधिवचनं, सेय्यथिदं – कामच्छन्दनीवरणस्स, ब्यापादनीवरणस्स, थीनमिद्धनीवरणस्स, उद्धच्चकुक्कुच्चनीवरणस्स, विचिकिच्छानीवरणस्स. उक्खिप चङ्गवारं, पजह पञ्च नीवरणे ; अभिक्खण, सुमेध, सत्थं आदायाति अयमेतस्स अत्थो.

‘‘‘कुम्मो’ति खो, भिक्खु, पञ्चन्नेतं उपादानक्खन्धानं अधिवचनं, सेय्यथिदं – रूपुपादानक्खन्धस्स, वेदनुपादानक्खन्धस्स, सञ्ञुपादानक्खन्धस्स, सङ्खारुपादानक्खन्धस्स, विञ्ञाणुपादानक्खन्धस्स. उक्खिप कुम्मं, पजह पञ्चुपादानक्खन्धे; अभिक्खण, सुमेध, सत्थं आदायाति अयमेतस्स अत्थो.

‘‘‘असिसूना’ति खो, भिक्खु, पञ्चन्नेतं कामगुणानं अधिवचनं – चक्खुविञ्ञेय्यानं रूपानं इट्ठानं कन्तानं मनापानं पियरूपानं कामूपसंहितानं रजनीयानं, सोतविञ्ञेय्यानं सद्दानं…पे… घानविञ्ञेय्यानं गन्धानं…पे… जिव्हाविञ्ञेय्यानं रसानं…पे… कायविञ्ञेय्यानं फोट्ठब्बानं इट्ठानं कन्तानं मनापानं पियरूपानं कामूपसंहितानं रजनीयानं. उक्खिप असिसूनं, पजह पञ्च कामगुणे; अभिक्खण, सुमेध, सत्थं आदायाति अयमेतस्स अत्थो.

‘‘‘मंसपेसी’ति खो, भिक्खु, नन्दीरागस्सेतं अधिवचनं. उक्खिप मंसपेसिं, पजह नन्दीरागं; अभिक्खण, सुमेध, सत्थं आदायाति अयमेतस्स अत्थो.

‘‘‘नागो’ति खो, भिक्खु, खीणासवस्सेतं भिक्खुनो अधिवचनं. तिट्ठतु नागो, मा नागं घट्टेसि; नमो करोहि नागस्साति अयमेतस्स अत्थो’’ति.

इदमवोच भगवा. अत्तमनो आयस्मा कुमारकस्सपो भगवतो भासितं अभिनन्दीति.

वम्मिकसुत्तं निट्ठितं ततियं.