यह सुत्त कई संकेतों के आधार पर बहुत बाद का प्रतीत होता है। इसमें कुछ अनोखे वाक्यांश हैं जो किसी अन्य सूत्र में पाए नहीं जाते। लेकिन सबसे विशेष बात है इसका अनोखा दार्शनिक दृष्टिकोण।
आश्चर्य की बात यह है कि यहाँ विशुद्धियों की चर्चा इस ढंग से होती है मानो वे कोई प्रचलित और सर्वस्वीकृत बौद्ध शिक्षा हों। जबकि अन्य किसी भी प्रारंभिक सूत्र में ये सात विशुद्धियाँ नहीं मिलतीं।
उदाहरण के रूप में, इस सुत्त में जो सात विशुद्धियाँ बताई गई हैं, वे अंगुत्तरनिकाय ४.१९४ में पाई जाने वाली चार विशुद्धियों का विस्तार हैं। इसी तरह दीघ निकाय ३४, जो स्पष्ट रूप से सबसे उत्तरवर्ती सूत्रों में से एक है, में इन विशुद्धियों को नौ तक बढ़ा दिया गया। इन सभी सूत्रों की भाषा, संरचना और शैली से यह अनुमान लगाया जा सकता है कि ये सभी बाद में रचे गए।
हालाँकि, सबसे प्रारंभिक और वैध सूत्रों में से एक, सुत्तनिपात अट्ठकवग्ग ४, में कुछ दूसरे धर्म संप्रदायों का उल्लेख जरूर मिलता है जो “विशुद्धि” को अपना लक्ष्य मानते थे, और उसे शील, दृष्टि, ज्ञान, और आचरण की विशुद्धि के आधार पर परिभाषित करते थे। संभव है कि ये सात विशुद्धियाँ मूल रूप से बौद्ध न होकर किसी अन्य परंपरा से ली गई हों, और बाद में उन्हें जैसे-तैसे रूपांतरित कर, लक्ष्य बनाने के बजाय लक्ष्य तक पहुँचने का क्रमिक मार्ग बना दिया गया हो।
जो भी हो, यही ‘सात विशुद्धियाँ’ आगे चलकर बौद्ध परंपरा को एक विशेष दिशा में ले जाती हैं, जो कभी-कभी मूल बुद्ध वचनों से भिन्न भी हो सकती है। यही ढाँचा आगे चलकर थेरवाद परंपरा में विकसित होने वाली “विपश्यना ज्ञान” प्रणाली का आधार बनता है। यही नहीं, आचार्य बुद्धघोष के प्रसिद्ध ग्रंथ “विशुद्धिमग्ग” की रचना भी इन्हीं विशुद्धियों पर आधारित है। यह ग्रंथ, अभिधम्म के साथ मिलकर, उनकी पाली अट्ठकथाओं का आधार स्तंभ बनता है।
इसलिए उचित होगा कि इस सुत्त को उसके सीमित ऐतिहासिक और शिक्षात्मक संदर्भ में ही समझा जाए। यदि हम इसे बाद की विकसित परंपराओं की दृष्टि से पढ़ेंगे, तो संभव है कि हम बुद्ध की मूल और सरल शिक्षाओं से दूर चले जाएँ।
ऐसा मैंने सुना — एक समय भगवान राजगृह के वेणुवन में गिलहरियों के परिसर पर विहार कर रहे थे। उस समय बहुत से भिक्षुओं ने अपने-अपने जन्मस्थलों पर वर्षावास कर भगवान के पास गए, और जाकर भगवान को अभिवादन कर एक ओर बैठ गए। एक ओर बैठे उन भिक्षुओं से भगवान ने कहा —
“भिक्षुओं, कौन से भिक्षु तुम्हारे जन्मस्थल पर सब्रह्मचरियों में (इस तरह) प्रतिष्ठित हैं, जो —
“भंते, ऐसे आयुष्मान पुण्ण मन्ताणिपुत्त 1 हैं, जो हमारे जन्मस्थल पर सब्रह्मचरियों में प्रतिष्ठित हैं, जो —
उस समय, आयुष्मान सारिपुत्त भगवान से ज्यादा दूर नहीं बैठे थे। तब आयुष्मान सारिपुत्त को लगा, “भाग्यशाली हैं आयुष्मान पुण्ण मन्ताणिपुत्त! सौभाग्यशाली हैं आयुष्मान पुण्ण मन्ताणिपुत्त, जो उनके समझदार सब्रह्मचारी, शास्ता के सम्मुख, उनकी एक-एक मुद्दे पर प्रशंसा कर रहे हैं, और शास्ता भी उसका अनुमोदन कर रहे हैं। काश, कभी ऐसा हो कि मैं आयुष्मान पुण्ण मन्ताणिपुत्त से मिल पाऊँ, और उनसे कोई चर्चा कर पाऊँ!”
तब भगवान राजगृह में जितना रुकना चाहते थे, उतना रुके और फिर श्रावस्ती की ओर चल पड़ें। तब भगवान अनुक्रम से भ्रमण करते हुए श्रावस्ती में पहुँचे। वहाँ जाकर भगवान ने श्रावस्ती में अनाथपिण्डक के जेतवन उद्यान में विहार किया।
तब आयुष्मान पुण्ण मन्ताणिपुत्त ने सुना, “भगवान श्रावस्ती आ पहुँचे हैं, और श्रावस्ती में अनाथपिण्डक के जेतवन उद्यान में विहार कर रहे हैं।”
तब आयुष्मान पुण्ण मन्ताणिपुत्त ने अपना आवास व्यवस्थित कर, पात्र और चीवर लेकर श्रावस्ती की ओर चल पड़ें। तब अनुक्रम से भ्रमण करते हुए, वे श्रावस्ती में अनाथपिण्डक के जेतवन उद्यान में भगवान के पास गए, और जाकर भगवान को अभिवादन कर एक ओर बैठ गए। एक ओर बैठे आयुष्मान पुण्ण मन्ताणिपुत्त को भगवान ने धर्म-चर्चा से निर्देशित किया, उत्प्रेरित किया, उत्साहित किया, हर्षित किया।
तब, आयुष्मान पुण्ण मन्ताणिपुत्त ने भगवान के द्वारा धर्म-चर्चा से निर्देशित होकर, उत्प्रेरित होकर, उत्साहित होकर, हर्षित होकर, भगवान की बात का अभिनंदन किया। और, आसन से उठकर उन्हें प्रदक्षिणा कर, वे दिन बिताने के लिए अन्धवन की ओर चले गए।
तब कोई भिक्षु आयुष्मान सारिपुत्त के पास गया, और जाकर आयुष्मान सारिपुत्त से कहा, “मित्र सारिपुत्त, पुण्ण मन्ताणिपुत्त नामक भिक्षु, जिसके बारे में अक्सर तुम प्रशंसाभरी बातें करते हो, वह भगवान के द्वारा धर्म-चर्चा से निर्देशित होकर, उत्प्रेरित होकर, उत्साहित होकर, हर्षित होकर, भगवान की बात का अभिनंदन कर, आसन से उठ, उन्हें प्रदक्षिणा कर, दिन बिताने के लिए अन्धवन की ओर चला गया है।”
तब आयुष्मान सारिपुत्त ने तुरंत अपना आसन उठाया और आयुष्मान पुण्ण मन्ताणिपुत्त के पीछे-पीछे सिर देखते हुए चलने लगे। आयुष्मान पुण्ण मन्ताणिपुत्त अन्धवन में गहरे जाकर किसी वृक्ष के तले दिन का विहार करने के लिए बैठ गए। तब आयुष्मान सारिपुत्त भी अन्धवन में गहरे जाकर किसी वृक्ष के तले दिन का विहार करने के लिए बैठ गए।
सायंकाल होने पर आयुष्मान सारिपुत्त ने एकांतवास से निकल कर आयुष्मान पुण्ण मन्ताणिपुत्त के पास गए, और जाकर आयुष्मान पुण्ण मन्ताणिपुत्त से हाल-चाल पूछा। मैत्रीपूर्ण वार्तालाप कर वे एक ओर बैठ गए। एक ओर बैठकर आयुष्मान सारिपुत्त ने आयुष्मान पुण्ण मन्ताणिपुत्त से कहा, “मित्र, क्या हम भगवान का ब्रह्मचर्य पालन करते हैं?” 2
“हाँ, मित्र।”
“मित्र, क्या (हम अपने) शील की विशुद्धि के लिए भगवान का ब्रह्मचर्य पालन करते हैं?”
“नहीं, मित्र।”
“मित्र, क्या चित्त की विशुद्धि के लिए भगवान का ब्रह्मचर्य पालन करते हैं?”
“नहीं, मित्र।”
“मित्र, क्या दृष्टि की विशुद्धि के लिए भगवान का ब्रह्मचर्य पालन करते हैं?”
“नहीं, मित्र।”
“मित्र, क्या शंकाओं के समाधान की विशुद्धि के लिए भगवान का ब्रह्मचर्य पालन करते हैं?”
“नहीं, मित्र।”
“मित्र, क्या मार्ग-अमार्ग के ज्ञानदर्शन की विशुद्धि के लिए भगवान का ब्रह्मचर्य पालन करते हैं?”
“नहीं, मित्र।”
“मित्र, क्या साधनापथ (“पटिपदा”) के ज्ञानदर्शन की विशुद्धि के लिए भगवान का ब्रह्मचर्य पालन करते हैं?”
“नहीं, मित्र।”
“मित्र, क्या ज्ञानदर्शन की विशुद्धि के लिए भगवान का ब्रह्मचर्य पालन करते हैं?”
“नहीं, मित्र।”
“मित्र, जब (ये सारे प्रश्न) पुछे गए, तो तुम केवल ‘नहीं, मित्र’ कहते हो। तो, हम (आखिर) किस ध्येय से भगवान का ब्रह्मचर्य पालन करते हैं?”
“अनासक्त होकर परिनिर्वृत होने के ध्येय से, मित्र, भगवान का ब्रह्मचर्य पालन करते हैं।” 3
“मित्र, क्या शील की विशुद्धि से अनासक्त हो परिनिर्वृत होते हैं?”
“नहीं, मित्र।”
“मित्र, क्या दृष्टि की विशुद्धि से… शंकाओं के समाधान की विशुद्धि से… मार्ग-अमार्ग ज्ञानदर्शन की विशुद्धि से… साधनापथ ज्ञानदर्शन की विशुद्धि से… ज्ञानदर्शन की विशुद्धि से अनासक्त हो परिनिर्वृत होते हैं?”
“नहीं, मित्र।”
“तब मित्र, क्या इनके बजाय किसी दूसरे धर्मों से अनासक्त हो परिनिर्वृत होते हैं?”
“नहीं, मित्र।”
“मित्र, जब (ये सारे प्रश्न) पुछे गए, तो तुम केवल ‘नहीं, मित्र’ कहते हो। तब इनका अर्थ कैसे समझा जाए?”
“मित्र, यदि भगवान शील की विशुद्धि से अनासक्त हो परिनिर्वृत होना घोषित करते, तो वे आसक्ति जैसे ही (किसी बात) के साथ, अनासक्त हो परिनिर्वृत होना घोषित करते। यदि भगवान दृष्टि की विशुद्धि से… शंकाओं के समाधान की विशुद्धि से… मार्ग-अमार्ग ज्ञानदर्शन की विशुद्धि से… साधनापथ ज्ञानदर्शन की विशुद्धि से… ज्ञानदर्शन की विशुद्धि से अनासक्त हो परिनिर्वृत होना घोषित करते, तो वे आसक्ति जैसे ही (किसी बात) के साथ, अनासक्त हो परिनिर्वृत होना घोषित करते।
और, मित्र, यदि इनके बजाय किसी दूसरे धर्मों से अनासक्त हो परिनिर्वृत हो पाते, तो कोई आम आदमी भी परिनिर्वृत हो जाता। क्योंकि, आम आदमी में इनके बजाय दूसरे धर्म होते हैं। ठीक है, मित्र, मैं तुम्हें एक उपमा देता हूँ। क्योंकि उपमा से कोई समझदार पुरुष बताए का अर्थ समझ जाता है।
कल्पना करो, मित्र, श्रावस्ती में बसने वाले कोसल (देश) के राजा प्रसेनजित को साकेत में कोई आवश्यक कार्य आ पड़ा। तब उनके लिए श्रावस्ती से साकेत के बीच सात रथ तैयार रखे गए। तब, मित्र, कोसलराज प्रसेनजित श्रावस्ती में पहले तैयार रथ पर सवार होकर अंतःपुर के द्वार से निकल पड़ेंगे। पहला रथ उन्हें दूसरे तैयार रथ तक ले जाएगा। तब वे पहले रथ से उतर कर दूसरे तैयार रथ पर सवार होंगे। तब दूसरा रथ उन्हें तीसरे तैयार रथ तक… तीसरा रथ उन्हें चौथे तैयार रथ तक… चौथा रथ उन्हें पाँचवे तैयार रथ तक… पाँचवा रथ उन्हें छठे तैयार रथ तक… और छठा रथ उन्हें सातवे तैयार रथ तक… और सातवा रथ उन्हें साकेत के अंतःपुर द्वार तक ले जाएगा।
तब, अंतःपुर के द्वार पर उनके मित्र-सहकारी, नाती-रिश्तेदार पुछेंगे, ‘क्या, महाराज, आप इसी रथ से श्रावस्ती से साकेत के अंतःपुर द्वार तक पहुँचे हैं?’ तब, मित्र, कोसल के राजा प्रसेनजित को सही ढंग से उत्तर कैसे देना चाहिए?”
“मित्र, कोसल के राजा प्रसेनजित को सही ढंग से उत्तर इस तरह देना चाहिए — ‘मैं श्रावस्ती में था, तब मुझे साकेत में कोई आवश्यक कार्य आ पड़ा। तब मेरे लिए श्रावस्ती से साकेत के बीच सात रथ तैयार रखे गए। तब, मैं श्रावस्ती में पहले तैयार रथ पर सवार होकर अंतःपुर के द्वार से निकल पड़ा। पहला रथ मुझे दूसरे तैयार रथ तक ले गया। तब मैं पहले रथ से उतर कर दूसरे तैयार रथ पर सवार हुआ। तब दूसरा रथ मुझे तीसरे तैयार रथ तक… तीसरा रथ मुझे चौथे तैयार रथ तक… चौथा रथ मुझे पाँचवे तैयार रथ तक… पाँचवा रथ मुझे छठे तैयार रथ तक… और छठा रथ मुझे सातवे तैयार रथ तक… और सातवा रथ मुझे साकेत के अंतःपुर द्वार तक ले आया है।’ इस तरह, मित्र, कोसल के राजा प्रसेनजित को सही ढंग से उत्तर देना चाहिए।”
“उसी तरह, मित्र, शील विशुद्धि केवल चित्त विशुद्धि के ध्येय से है। चित्त विशुद्धि केवल दृष्टि विशुद्धि के ध्येय से है। दृष्टि विशुद्धि केवल शंका समाधान विशुद्धि के ध्येय से है। शंका समाधान विशुद्धि केवल मार्ग-अमार्ग ज्ञानदर्शन विशुद्धि के ध्येय से है। मार्ग-अमार्ग ज्ञानदर्शन विशुद्धि केवल साधनापथ ज्ञानदर्शन विशुद्धि के ध्येय से है। साधनापथ ज्ञानदर्शन विशुद्धि केवल ज्ञानदर्शन विशुद्धि के ध्येय से है। ज्ञानदर्शन विशुद्धि केवल अनासक्त होकर परिनिर्वृत होने के ध्येय से है। और, अनासक्त होकर परिनिर्वृत होने के ध्येय से, मित्र, भगवान का ब्रह्मचर्य पालन करते हैं।”
जब ऐसा कहा गया, तब आयुष्मान सारिपुत्त ने आयुष्मान पुण्ण मन्ताणिपुत्त से कहा, “क्या नाम है तुम्हारा, मित्र? आयुष्मान सब्रह्मचारी तुम्हें किस नाम से जानते हैं?”
“मेरा नाम ‘पुण्ण’ है, मित्र। आयुष्मान सब्रह्मचारी मुझे ‘मन्ताणिपुत्त’ के नाम से जानते हैं।”
“आश्चर्य है, मित्र! अद्भुत है, मित्र! जिस तरह तुम जैसे श्रुतवान श्रावक ने शास्ता के शासन (=शिक्षा) को समझा है! आयुष्मान पुण्ण मन्ताणिपुत्त ने गंभीर प्रश्नों पर, एक-एक मुद्दे पर इतनी गंभीरता से उत्तर दिया है। भाग्यशाली है सब्रह्मचारी! सौभाग्यशाली हैं सब्रह्मचारी, जो उन्हें आयुष्मान पुण्ण मन्ताणिपुत्त का दर्शन लाभ होता है, भेट लाभ होता है! यद्यपि वे आयुष्मान पुण्ण मन्ताणिपुत्त के दर्शन लाभ और भेट लाभ के लिए, उन्हें अपने सिर के ऊपर गद्दे पर बिठा कर ढोते हुए लाते हैं, तब भी भाग्यशाली होंगे, सौभाग्यशाली होंगे! मैं भी भाग्यशाली हूँ, सौभाग्यशाली हूँ, जो मुझे आयुष्मान पुण्ण मन्ताणिपुत्त का दर्शन लाभ हुआ, भेट लाभ हुआ।”
जब ऐसा कहा गया, तब आयुष्मान पुण्ण मन्ताणिपुत्त ने आयुष्मान सारिपुत्त से कहा, “और तुम्हारा क्या नाम है, मित्र? आयुष्मान सब्रह्मचारी तुम्हें किस नाम से जानते हैं?”
“मेरा नाम ‘उपतिस्स’ है, मित्र। आयुष्मान सब्रह्मचारी मुझे ‘सारिपुत्त’ के नाम से जानते हैं।”
“ओ भाई साहब! मैं नहीं जानता था कि मैं शास्ता के ही समरूप श्रावक — साक्षात ‘आयुष्मान सारिपुत्त’ — से बात कर रहा था! यदि मुझे पता होता कि वे साक्षात ‘आयुष्मान सारिपुत्त’ हैं, तो इतना लंबा उत्तर न देता। आश्चर्य है, मित्र! अद्भुत है, मित्र! जिस तरह तुम जैसे शास्ता के ही समरूप श्रावक ने शास्ता के शासन को समझा है! आयुष्मान सारिपुत्त ने गंभीर विषयों पर, एक-एक मुद्दे पर इतनी गंभीरता से प्रश्न किया है। भाग्यशाली है सब्रह्मचारी! सौभाग्यशाली हैं सब्रह्मचारी, जो उन्हें आयुष्मान सारिपुत्त का दर्शन लाभ होता है, भेट लाभ होता है! यद्यपि वे आयुष्मान सारिपुत्त के दर्शन लाभ और भेट लाभ के लिए, उन्हें अपने सिर के ऊपर गद्दे पर बिठा कर ढोते हुए लाते हैं, तब भी भाग्यशाली होंगे, सौभाग्यशाली होंगे! मैं भी भाग्यशाली हूँ, सौभाग्यशाली हूँ, जो मुझे आयुष्मान सारिपुत्त का दर्शन लाभ हुआ, भेट लाभ हुआ।”
इस तरह, उन दोनों महानागों (=आध्यात्मिक रूप से विराटकाय) ने एक-दूसरे की सुभाषितता पर सहानुमोदन किया।
पुण्ण मन्ताणिपुत्त भंते को भगवान ने धर्म का उपदेश देने में सर्वश्रेष्ठ बताया है। यद्यपि वे धम्मवक्ता के रूप में अत्यंत सम्मानित थे, तथापि उनके बहुत ही थोड़े उपदेश ही ग्रंथों में सुरक्षित हैं। संयुक्तनिकाय २२.८३ में भंते आनंद यह स्वीकार करते हैं कि उनके भीतर आरंभिक ज्ञान का उदय — या सरल शब्दों में कहें तो श्रोतापतिफल — पुण्ण मन्ताणिपुत्त भंते के उपदेशों से ही हुआ। इससे यह स्पष्ट होता है कि उनका प्रभाव केवल उपदेश देने तक सीमित नहीं था, अपितु उन्होंने अन्य भिक्षुओं की आध्यात्मिक उन्नति में भी महत्वपूर्ण योगदान दिया। थेरगाथा (१.४) में उनके नाम से केवल एक गाथा मिलती है, किंतु यह संक्षिप्त रचना भी उनके धम्मबोध की गहराई को दर्शाती है। मज्झिमनिकाय ८६ के अनुसार, पुण्ण मन्ताणिपुत्त भंते उसी मातृकुल से थे जिससे प्रसिद्ध अरहंत अंगुलिमाल भंते का संबंध था। यह तथ्य उनके जीवन और पारिवारिक पृष्ठभूमि की एक रोचक झलक प्रदान करता है, जिससे यह संकेत मिलता है कि एक ही कुल में विविध जीवन-पथ अपनाने वाले साधकों का जन्म हुआ। ↩︎
चूंकि आयुष्मान पुण्ण मन्ताणिपुत्त अब भी एक अजनबी ही थे, इसलिए सारिपुत्त भंते एक आपसी सहमति स्थापित करते हुए बातचीत की शुरुआत करते हैं। यह एक संवादात्मक रणनीति होती है, जिसके बाद सारिपुत्त एक के बाद एक ऐसे अनेक प्रश्न पूछते हैं जिनके उत्तर में शायद सहमति न बन पाए। ↩︎
अर्थात, अरहंत होने के लिए भगवान का ब्रह्मचर्य पालन करते हैं, केवल श्रोतापतिफल पाने के लिए नहीं।" ↩︎
२५२. एवं मे सुतं – एकं समयं भगवा राजगहे विहरति वेळुवने कलन्दकनिवापे. अथ खो सम्बहुला जातिभूमका भिक्खू जातिभूमियं वस्संवुट्ठा येन भगवा तेनुपसङ्कमिंसु; उपसङ्कमित्वा भगवन्तं अभिवादेत्वा एकमन्तं निसीदिंसु. एकमन्तं निसिन्ने खो ते भिक्खू भगवा एतदवोच –
‘‘को नु खो, भिक्खवे, जातिभूमियं जातिभूमकानं भिक्खूनं सब्रह्मचारीनं एवं सम्भावितो – ‘अत्तना च अप्पिच्छो अप्पिच्छकथञ्च भिक्खूनं कत्ता, अत्तना च सन्तुट्ठो सन्तुट्ठिकथञ्च भिक्खूनं कत्ता, अत्तना च पविवित्तो पविवेककथञ्च भिक्खूनं कत्ता, अत्तना च असंसट्ठो असंसग्गकथञ्च भिक्खूनं कत्ता, अत्तना च आरद्धवीरियो वीरियारम्भकथञ्च भिक्खूनं कत्ता, अत्तना च सीलसम्पन्नो सीलसम्पदाकथञ्च भिक्खूनं कत्ता, अत्तना च समाधिसम्पन्नो समाधिसम्पदाकथञ्च भिक्खूनं कत्ता, अत्तना च पञ्ञासम्पन्नो पञ्ञासम्पदाकथञ्च भिक्खूनं कत्ता, अत्तना च विमुत्तिसम्पन्नो विमुत्तिसम्पदाकथञ्च भिक्खूनं कत्ता, अत्तना च विमुत्तिञाणदस्सनसम्पन्नो विमुत्तिञाणदस्सनसम्पदाकथञ्च भिक्खूनं कत्ता, ओवादको विञ्ञापको सन्दस्सको समादपको समुत्तेजको सम्पहंसको सब्रह्मचारीन’’’न्ति? ‘‘पुण्णो नाम, भन्ते, आयस्मा मन्ताणिपुत्तो जातिभूमियं जातिभूमकानं भिक्खूनं सब्रह्मचारीनं एवं सम्भावितो – ‘अत्तना च अप्पिच्छो अप्पिच्छकथञ्च भिक्खूनं कत्ता, अत्तना च सन्तुट्ठो…पे… ओवादको विञ्ञापको सन्दस्सको समादपको समुत्तेजको सम्पहंसको सब्रह्मचारीन’’’न्ति.
२५३. तेन खो पन समयेन आयस्मा सारिपुत्तो भगवतो अविदूरे निसिन्नो होति. अथ खो आयस्मतो सारिपुत्तस्स एतदहोसि – ‘‘लाभा आयस्मतो पुण्णस्स मन्ताणिपुत्तस्स, सुलद्धलाभा आयस्मतो पुण्णस्स मन्ताणिपुत्तस्स, यस्स विञ्ञू सब्रह्मचारी सत्थु सम्मुखा अनुमस्स अनुमस्स वण्णं भासन्ति, तञ्च सत्था अब्भनुमोदति. अप्पेव नाम मयम्पि कदाचि करहचि आयस्मता पुण्णेन मन्ताणिपुत्तेन सद्धिं समागच्छेय्याम [समागमं गच्छेय्य (क.)], अप्पेव नाम सिया कोचिदेव कथासल्लापो’’ति.
२५४. अथ खो भगवा राजगहे यथाभिरन्तं विहरित्वा येन सावत्थि तेन चारिकं पक्कामि. अनुपुब्बेन चारिकं चरमानो येन सावत्थि तदवसरि. तत्र सुदं भगवा सावत्थियं विहरति जेतवने अनाथपिण्डिकस्स आरामे. अस्सोसि खो आयस्मा पुण्णो मन्ताणिपुत्तो – ‘‘भगवा किर सावत्थिं अनुप्पत्तो; सावत्थियं विहरति जेतवने अनाथपिण्डिकस्स आरामे’’ति.
२५५. अथ खो आयस्मा पुण्णो मन्ताणिपुत्तो सेनासनं संसामेत्वा पत्तचीवरमादाय येन सावत्थि तेन चारिकं पक्कामि. अनुपुब्बेन चारिकं चरमानो येन सावत्थि जेतवनं अनाथपिण्डिकस्स आरामो येन भगवा तेनुपसङ्कमि; उपसङ्कमित्वा भगवन्तं अभिवादेत्वा एकमन्तं निसीदि. एकमन्तं निसिन्नं खो आयस्मन्तं पुण्णं मन्ताणिपुत्तं भगवा धम्मिया कथाय सन्दस्सेसि समादपेसि समुत्तेजेसि सम्पहंसेसि. अथ खो आयस्मा पुण्णो मन्ताणिपुत्तो भगवता धम्मिया कथाय सन्दस्सितो समादपितो समुत्तेजितो सम्पहंसितो भगवतो भासितं अभिनन्दित्वा अनुमोदित्वा उट्ठायासना भगवन्तं अभिवादेत्वा पदक्खिणं कत्वा येन अन्धवनं तेनुपसङ्कमि दिवाविहाराय.
२५६. अथ खो अञ्ञतरो भिक्खु येनायस्मा सारिपुत्तो तेनुपसङ्कमि; उपसङ्कमित्वा आयस्मन्तं सारिपुत्तं एतदवोच – ‘‘यस्स खो त्वं, आवुसो सारिपुत्त, पुण्णस्स नाम भिक्खुनो मन्ताणिपुत्तस्स अभिण्हं कित्तयमानो अहोसि, सो भगवता धम्मिया कथाय सन्दस्सितो समादपितो समुत्तेजितो सम्पहंसितो भगवतो भासितं अभिनन्दित्वा अनुमोदित्वा उट्ठायासना भगवन्तं अभिवादेत्वा पदक्खिणं कत्वा येन अन्धवनं तेन पक्कन्तो दिवाविहाराया’’ति.
अथ खो आयस्मा सारिपुत्तो तरमानरूपो निसीदनं आदाय आयस्मन्तं पुण्णं मन्ताणिपुत्तं पिट्ठितो पिट्ठितो अनुबन्धि सीसानुलोकी. अथ खो आयस्मा पुण्णो मन्ताणिपुत्तो अन्धवनं अज्झोगाहेत्वा अञ्ञतरस्मिं रुक्खमूले दिवाविहारं निसीदि. आयस्मापि खो सारिपुत्तो अन्धवनं अज्झोगाहेत्वा अञ्ञतरस्मिं रुक्खमूले दिवाविहारं निसीदि.
अथ खो आयस्मा सारिपुत्तो सायन्हसमयं पटिसल्लाना वुट्ठितो येनायस्मा पुण्णो मन्ताणिपुत्तो तेनुपसङ्कमि; उपसङ्कमित्वा आयस्मता पुण्णेन मन्ताणिपुत्तेन सद्धिं सम्मोदि. सम्मोदनीयं कथं सारणीयं वीतिसारेत्वा एकमन्तं निसीदि. एकमन्तं निसिन्नो खो आयस्मा सारिपुत्तो आयस्मन्तं पुण्णं मन्ताणिपुत्तं एतदवोच –
२५७. ‘‘भगवति नो, आवुसो, ब्रह्मचरियं वुस्सती’’ति?
‘‘एवमावुसो’’ति.
‘‘किं नु खो, आवुसो, सीलविसुद्धत्थं भगवति ब्रह्मचरियं वुस्सती’’ति?
‘‘नो हिदं, आवुसो’’.
‘‘किं पनावुसो, चित्तविसुद्धत्थं भगवति ब्रह्मचरियं वुस्सती’’ति?
‘‘नो हिदं, आवुसो’’.
‘‘किं नु खो, आवुसो, दिट्ठिविसुद्धत्थं भगवति ब्रह्मचरियं वुस्सती’’ति?
‘‘नो हिदं, आवुसो’’.
‘‘किं पनावुसो, कङ्खावितरणविसुद्धत्थं भगवति ब्रह्मचरियं वुस्सती’’ति?
‘‘नो हिदं, आवुसो’’.
‘‘किं नु खो, आवुसो, मग्गामग्गञाणदस्सनविसुद्धत्थं भगवति ब्रह्मचरियं वुस्सती’’ति?
‘‘नो हिदं, आवुसो’’.
‘‘किं पनावुसो, पटिपदाञाणदस्सनविसुद्धत्थं भगवति ब्रह्मचरियं वुस्सती’’ति?
‘‘नो हिदं, आवुसो’’.
‘‘किं नु खो, आवुसो, ञाणदस्सनविसुद्धत्थं भगवति ब्रह्मचरियं वुस्सती’’ति?
‘‘नो हिदं, आवुसो’’.
‘‘‘किं नु खो, आवुसो, सीलविसुद्धत्थं भगवति ब्रह्मचरियं वुस्सती’ति इति पुट्ठो समानो ‘नो हिदं, आवुसो’ति वदेसि. ‘किं पनावुसो, चित्तविसुद्धत्थं भगवति ब्रह्मचरियं वुस्सती’ति इति पुट्ठो समानो ‘नो हिदं, आवुसो’ति वदेसि. ‘किं नु खो, आवुसो, दिट्ठिविसुद्धत्थं…पे… कङ्खावितरणविसुद्धत्थं…पे… मग्गामग्गञाणदस्सनविसुद्धत्थं…पे… पटिपदाञाणदस्सनविसुद्धत्थं…पे… किं नु खो, आवुसो, ञाणदस्सनविसुद्धत्थं भगवति ब्रह्मचरियं वुस्सती’ति इति पुट्ठो समानो ‘नो हिदं आवुसो’ति वदेसि. किमत्थं चरहावुसो, भगवति ब्रह्मचरियं वुस्सती’’ति? ‘‘अनुपादापरिनिब्बानत्थं खो, आवुसो, भगवति ब्रह्मचरियं वुस्सती’’ति.
‘‘किं नु खो, आवुसो, सीलविसुद्धि अनुपादापरिनिब्बान’’न्ति?
‘‘नो हिदं, आवुसो’’.
‘‘किं पनावुसो, चित्तविसुद्धि अनुपादापरिनिब्बान’’न्ति?
‘‘नो हिदं, आवुसो’’.
‘‘किं नु खो, आवुसो, दिट्ठिविसुद्धि अनुपादापरिनिब्बान’’न्ति?
‘‘नो हिदं, आवुसो’’.
‘‘किं पनावुसो कङ्खावितरणविसुद्धि अनुपादापरिनिब्बान’’न्ति ?
‘‘नो हिदं, आवुसो’’.
‘‘किं नु खो, आवुसो, मग्गामग्गञाणदस्सनविसुद्धि अनुपादापरिनिब्बान’’न्ति?
‘‘नो हिदं, आवुसो’’.
‘‘किं पनावुसो, पटिपदाञाणदस्सनविसुद्धि अनुपादापरिनिब्बान’’न्ति?
‘‘नो हिदं, आवुसो’’.
‘‘किं नु खो, आवुसो, ञाणदस्सनविसुद्धि अनुपादापरिनिब्बान’’न्ति?
‘‘नो हिदं , आवुसो’’.
‘‘किं पनावुसो, अञ्ञत्र इमेहि धम्मेहि अनुपादापरिनिब्बान’’न्ति?
‘‘नो हिदं, आवुसो’’.
‘‘‘किं नु खो, आवुसो, सीलविसुद्धि अनुपादापरिनिब्बान’न्ति इति पुट्ठो समानो ‘नो हिदं, आवुसो’ति वदेसि. ‘किं पनावुसो, चित्तविसुद्धि अनुपादापरिनिब्बान’न्ति इति पुट्ठो समानो ‘नो हिदं, आवुसो’ति वदेसि. ‘किं नु खो, आवुसो, दिट्ठिविसुद्धि अनुपादापरिनिब्बान’न्ति…पे… कङ्खावितरणविसुद्धि… मग्गामग्गञाणदस्सनविसुद्धि… पटिपदाञाणदस्सनविसुद्धि… ‘किं नु खो, आवुसो, ञाणदस्सनविसुद्धि अनुपादापरिनिब्बान’न्ति इति पुट्ठो समानो ‘नो हिदं, आवुसो’ति वदेसि. ‘किं पनावुसो, अञ्ञत्र इमेहि धम्मेहि अनुपादापरिनिब्बान’न्ति इति पुट्ठो समानो ‘नो हिदं, आवुसो’ति वदेसि. यथाकथं पनावुसो, इमस्स भासितस्स अत्थो दट्ठब्बो’’ति?
२५८. ‘‘सीलविसुद्धिं चे, आवुसो, भगवा अनुपादापरिनिब्बानं पञ्ञपेय्य, सउपादानंयेव समानं अनुपादापरिनिब्बानं पञ्ञपेय्य [पञ्ञापेस्स (सी. स्या.) एवमञ्ञत्थपि]. चित्तविसुद्धिं चे, आवुसो, भगवा अनुपादापरिनिब्बानं पञ्ञपेय्य, सउपादानंयेव समानं अनुपादापरिनिब्बानं पञ्ञपेय्य. दिट्ठिविसुद्धिं चे, आवुसो, भगवा अनुपादापरिनिब्बानं पञ्ञपेय्य, सउपादानंयेव समानं अनुपादापरिनिब्बानं पञ्ञपेय्य. कङ्खावितरणविसुद्धिं चे, आवुसो, भगवा अनुपादापरिनिब्बानं पञ्ञपेय्य, सउपादानंयेव समानं अनुपादापरिनिब्बानं पञ्ञपेय्य . मग्गामग्गञाणदस्सनविसुद्धिं चे, आवुसो, भगवा अनुपादापरिनिब्बानं पञ्ञपेय्य, सउपादानंयेव समानं अनुपादापरिनिब्बानं पञ्ञपेय्य. पटिपदाञाणदस्सनविसुद्धिं चे, आवुसो, भगवा अनुपादापरिनिब्बानं पञ्ञपेय्य, सउपादानंयेव समानं अनुपादापरिनिब्बानं पञ्ञपेय्य. ञाणदस्सनविसुद्धिं चे, आवुसो, भगवा अनुपादापरिनिब्बानं पञ्ञपेय्य, सउपादानंयेव समानं अनुपादापरिनिब्बानं पञ्ञपेय्य. अञ्ञत्र चे, आवुसो, इमेहि धम्मेहि अनुपादापरिनिब्बानं अभविस्स, पुथुज्जनो परिनिब्बायेय्य. पुथुज्जनो हि, आवुसो, अञ्ञत्र इमेहि धम्मेहि. तेन हावुसो, उपमं ते करिस्सामि; उपमायपिधेकच्चे विञ्ञू पुरिसा भासितस्स अत्थं आजानन्ति.
२५९. ‘‘सेय्यथापि, आवुसो, रञ्ञो पसेनदिस्स कोसलस्स सावत्थियं पटिवसन्तस्स साकेते किञ्चिदेव अच्चायिकं करणीयं उप्पज्जेय्य. तस्स अन्तरा च सावत्थिं अन्तरा च साकेतं सत्त रथविनीतानि उपट्ठपेय्युं. अथ खो, आवुसो, राजा पसेनदि कोसलो सावत्थिया निक्खमित्वा अन्तेपुरद्वारा पठमं रथविनीतं अभिरुहेय्य, पठमेन रथविनीतेन दुतियं रथविनीतं पापुणेय्य, पठमं रथविनीतं विस्सज्जेय्य दुतियं रथविनीतं अभिरुहेय्य. दुतियेन रथविनीतेन ततियं रथविनीतं पापुणेय्य, दुतियं रथविनीतं विस्सज्जेय्य, ततियं रथविनीतं अभिरुहेय्य. ततियेन रथविनीतेन चतुत्थं रथविनीतं पापुणेय्य, ततियं रथविनीतं विस्सज्जेय्य, चतुत्थं रथविनीतं अभिरुहेय्य. चतुत्थेन रथविनीतेन पञ्चमं रथविनीतं पापुणेय्य, चतुत्थं रथविनीतं विस्सज्जेय्य, पञ्चमं रथविनीतं अभिरुहेय्य. पञ्चमेन रथविनीतेन छट्ठं रथविनीतं पापुणेय्य, पञ्चमं रथविनीतं विस्सज्जेय्य, छट्ठं रथविनीतं अभिरुहेय्य. छट्ठेन रथविनीतेन सत्तमं रथविनीतं पापुणेय्य, छट्ठं रथविनीतं विस्सज्जेय्य, सत्तमं रथविनीतं अभिरुहेय्य. सत्तमेन रथविनीतेन साकेतं अनुपापुणेय्य अन्तेपुरद्वारं. तमेनं अन्तेपुरद्वारगतं समानं मित्तामच्चा ञातिसालोहिता एवं पुच्छेय्युं – ‘इमिना त्वं, महाराज, रथविनीतेन सावत्थिया साकेतं अनुप्पत्तो अन्तेपुरद्वार’न्ति ? कथं ब्याकरमानो नु खो, आवुसो, राजा पसेनदि कोसलो सम्मा ब्याकरमानो ब्याकरेय्या’’ति?
‘‘एवं ब्याकरमानो खो, आवुसो, राजा पसेनदि कोसलो सम्मा ब्याकरमानो ब्याकरेय्य – ‘इध मे सावत्थियं पटिवसन्तस्स साकेते किञ्चिदेव अच्चायिकं करणीयं उप्पज्जि [उप्पज्जति (क.)]. तस्स मे अन्तरा च सावत्थिं अन्तरा च साकेतं सत्त रथविनीतानि उपट्ठपेसुं. अथ ख्वाहं सावत्थिया निक्खमित्वा अन्तेपुरद्वारा पठमं रथविनीतं अभिरुहिं. पठमेन रथविनीतेन दुतियं रथविनीतं पापुणिं, पठमं रथविनीतं विस्सज्जिं दुतियं रथविनीतं अभिरुहिं. दुतियेन रथविनीतेन ततियं रथविनीतं पापुणिं, दुतियं रथविनीतं विस्सज्जिं, ततियं रथविनीतं अभिरुहिं. ततियेन रथविनीतेन चतुत्थं रथविनीतं पापुणिं, ततियं रथविनीतं विस्सज्जिं, चतुत्थं रथविनीतं अभिरुहिं. चतुत्थेन रथविनीतेन पञ्चमं रथविनीतं पापुणिं, चतुत्थं रथविनीतं विस्सज्जिं, पञ्चमं रथविनीतं अभिरुहिं. पञ्चमेन रथविनीतेन छट्ठं रथविनीतं पापुणिं, पञ्चमं रथविनीतं विस्सज्जिं, छट्ठं रथविनीतं अभिरुहिं. छट्ठेन रथविनीतेन सत्तमं रथविनीतं पापुणिं, छट्ठं रथविनीतं विस्सज्जिं, सत्तमं रथविनीतं अभिरुहिं. सत्तमेन रथविनीतेन साकेतं अनुप्पत्तो अन्तेपुरद्वार’न्ति. एवं ब्याकरमानो खो, आवुसो, राजा पसेनदि कोसलो सम्मा ब्याकरमानो ब्याकरेय्या’’ति.
‘‘एवमेव खो, आवुसो, सीलविसुद्धि यावदेव चित्तविसुद्धत्था, चित्तविसुद्धि यावदेव दिट्ठिविसुद्धत्था, दिट्ठिविसुद्धि यावदेव कङ्खावितरणविसुद्धत्था, कङ्खावितरणविसुद्धि यावदेव मग्गामग्गञाणदस्सनविसुद्धत्था, मग्गामग्गञाणदस्सनविसुद्धि यावदेव पटिपदाञाणदस्सनविसुद्धत्था, पटिपदाञाणदस्सनविसुद्धि यावदेव ञाणदस्सनविसुद्धत्था, ञाणदस्सनविसुद्धि यावदेव अनुपादापरिनिब्बानत्था. अनुपादापरिनिब्बानत्थं खो, आवुसो, भगवति ब्रह्मचरियं वुस्सती’’ति.
२६०. एवं वुत्ते, आयस्मा सारिपुत्तो आयस्मन्तं पुण्णं मन्ताणिपुत्तं एतदवोच – ‘‘कोनामो आयस्मा, कथञ्च पनायस्मन्तं सब्रह्मचारी जानन्ती’’ति? ‘‘पुण्णोति खो मे, आवुसो, नामं; मन्ताणिपुत्तोति च पन मं सब्रह्मचारी जानन्ती’’ति. ‘‘अच्छरियं, आवुसो, अब्भुतं, आवुसो! यथा तं सुतवता सावकेन सम्मदेव सत्थुसासनं आजानन्तेन, एवमेव आयस्मता पुण्णेन मन्ताणिपुत्तेन गम्भीरा गम्भीरपञ्हा अनुमस्स अनुमस्स ब्याकता. लाभा सब्रह्मचारीनं, सुलद्धलाभा सब्रह्मचारीनं, ये आयस्मन्तं पुण्णं मन्ताणिपुत्तं लभन्ति दस्सनाय, लभन्ति पयिरूपासनाय. चेलण्डुकेन [चेलण्डकेन (क.), चेलण्डुपेकेन (?)] चेपि सब्रह्मचारी आयस्मन्तं पुण्णं मन्ताणिपुत्तं मुद्धना परिहरन्ता लभेय्युं दस्सनाय, लभेय्युं पयिरूपासनाय, तेसम्पि लाभा तेसम्पि सुलद्धं, अम्हाकम्पि लाभा अम्हाकम्पि सुलद्धं, ये मयं आयस्मन्तं पुण्णं मन्ताणिपुत्तं लभाम दस्सनाय, लभाम पयिरूपासनाया’’ति.
एवं वुत्ते, आयस्मा पुण्णो मन्ताणिपुत्तो आयस्मन्तं सारिपुत्तं एतदवोच – ‘‘को नामो आयस्मा, कथञ्च पनायस्मन्तं सब्रह्मचारी जानन्ती’’ति? ‘‘उपतिस्सोति खो मे, आवुसो, नामं; सारिपुत्तोति च पन मं सब्रह्मचारी जानन्ती’’ति. ‘‘सत्थुकप्पेन वत किर, भो [खो (क.)], सावकेन सद्धिं मन्तयमाना न जानिम्ह – ‘आयस्मा सारिपुत्तो’ति. सचे हि मयं जानेय्याम ‘आयस्मा सारिपुत्तो’ति, एत्तकम्पि नो नप्पटिभासेय्य [नप्पटिभेय्य (?)]. अच्छरियं, आवुसो, अब्भुतं, आवुसो! यथा तं सुतवता सावकेन सम्मदेव सत्थुसासनं आजानन्तेन, एवमेव आयस्मता सारिपुत्तेन गम्भीरा गम्भीरपञ्हा अनुमस्स अनुमस्स पुच्छिता. लाभा सब्रह्मचारीनं सुलद्धलाभा सब्रह्मचारीनं, ये आयस्मन्तं सारिपुत्तं लभन्ति दस्सनाय, लभन्ति पयिरूपासनाय. चेलण्डुकेन चेपि सब्रह्मचारी आयस्मन्तं सारिपुत्तं मुद्धना परिहरन्ता लभेय्युं दस्सनाय, लभेय्युं पयिरूपासनाय, तेसम्पि लाभा तेसम्पि सुलद्धं, अम्हाकम्पि लाभा अम्हाकम्पि सुलद्धं, ये मयं आयस्मन्तं सारिपुत्तं लभाम दस्सनाय, लभाम पयिरूपासनाया’’ति.
इतिह ते उभोपि महानागा अञ्ञमञ्ञस्स सुभासितं समनुमोदिंसूति.
रथविनीतसुत्तं निट्ठितं चतुत्थं.