ऐसा मैंने सुना — एक समय भगवान श्रावस्ती में अनाथपिण्डक के जेतवन उद्यान में विहार कर रहे थे। वहाँ भगवान ने भिक्षुओं से कहा, “भिक्षुओं!"
“भदंत”, भिक्षुओं ने भगवान को उत्तर दिया। भगवान ने कहा —
“भिक्षुओं, हिरणों के लिए (नशीले) रोप बोते हुए वापक (=बुआई करने वाला) को ऐसा नहीं लगता कि — ‘मेरे द्वारा बोये ये रोप खाकर हिरण दीर्घायु हों, रूपवान हों, दीर्घकाल तक उनका जीवन यापन हों!’
बल्कि, भिक्षुओं, हिरणों के लिए रोप बोते हुए वापक को (दरअसल) ऐसा लगता है कि — ‘मैंने जहाँ रोप बोये हैं, वहाँ छलांग लगाते हुए हिरण आए और मदहोश होकर भोजन करे। मदहोश होकर भोजन करने पर उन्हें नशा हो जाए। नशे में वे अप्रमत्त (=लापरवाह) हो जाए। लापरवाह हो जाने पर, तब मैं उस (नशीले) रोप के सहारे उनके साथ जो करना चाहूँ, कर सकता हूँ।’
(१) तब, भिक्षुओं, जहाँ रोप बोये होते हैं, वहाँ छलांग लगाते हुए हिरणों का पहला झुंड आता है और मदहोश होकर भोजन करता है। मदहोश होकर भोजन करने पर उन्हें नशा हो जाता है। नशे में वे लापरवाह हो जाते हैं। लापरवाह हो जाने पर, तब वापक उस (नशीले) रोप के सहारे उनके साथ जो करना चाहे, करता है। इस तरह, भिक्षुओं, हिरणों का पहला झुंड वापक के वर्चस्व से छूट नहीं पाता।
(२) तब, भिक्षुओं, हिरणों के दूसरे झुंड ने सोचा — “हिरणों का पहला झुंड छलांग लगाते हुए वहाँ गया, और जहाँ रोप बोये हैं, वहाँ उन्होंने मदहोश होकर भोजन किया। मदहोश होकर भोजन करने पर उन्हें नशा हो गया। नशे में वे लापरवाह हो गए। लापरवाह हो जाने पर, तब वापक ने उस रोप के सहारे उनके साथ जो करना चाहा, किया। इस तरह हिरणों का पहला झुंड वापक के वर्चस्व से छूट नहीं पाया। क्यों न हम सब मिलकर उस रोप से विरत रहें? उस खतरनाक भोग से विरत होकर, हम जंगल के गहरे इलाके में जाकर विहार करें?”
तब वे सभी उस रोप भोजन से विरत हुए। और वे उस खतरनाक भोग से विरत होकर, जंगल के गहरे इलाके में जाकर विहार करने लगे। फिर, ग्रीष्मकाल का अंतिम मास आया, घास और जल सूख गया, और उनकी काया बहुत दुबली-पतली हुई। काया के दुबला-पतला होने पर, उन्होंने अपने बल और ऊर्जा को खो दिया। बल और ऊर्जा के खोने पर, वे उसी वापक के द्वारा बोये गए (नशीले) रोप की ओर लौट गए, और मदहोश होकर भोजन किया। मदहोश होकर भोजन करने पर उन्हें नशा हो गया। नशे में वे लापरवाह हो गए। लापरवाह हो जाने पर, तब वापक ने उस रोप के सहारे उनके साथ जो करना चाहा, किया। इस तरह, भिक्षुओं, हिरणों का दूसरा झुंड भी वापक के वर्चस्व से छूट नहीं पाया।
(३) तब, भिक्षुओं, तीसरे हिरणों के झुंड ने सोचा — “पहला हिरणों का झुंड छलांग लगाते हुए वहाँ गया… और वापक के वर्चस्व से छूट नहीं पाया। दूसरा झुंड… उस खतरनाक भोग से विरत होकर, जंगल के गहरे इलाके में गया… लेकिन फिर, ग्रीष्मकाल का अंतिम मास आया… बल और ऊर्जा के खोने पर, वे लौट गए… और वापक के वर्चस्व से छूट नहीं पाये। क्यों न हम उस वापक के खेत के पास ही आश्रय लें? पास ही आश्रय लेने पर, हम चुपके-चुपके, बिना मदहोश हुए भोजन करेंगे। मदहोश न होने पर हमें नशा नहीं होगा। नशे न होने से हम लापरवाह नहीं होंगे। लापरवाह न होने पर वापक हमारे साथ जो चाहेगा, नहीं कर पाएगा।”
तब, भिक्षुओं, उन्होंने वापक के खेत के पास ही आश्रय लिया। पास ही आश्रय लेकर, वे चुपके-चुपके, बिना मदहोश हुए भोजन करते। मदहोश न होने पर उन्हें नशा नहीं होता। नशे न होने पर वे लापरवाह नहीं हुए। लापरवाह न होने पर वापक ने उनके साथ जो चाहा, नहीं कर पाया।
तब, भिक्षुओं, वापक और उसके सहायकों को लगा, “वाह! हिरणों का ये तीसरा झुंड कितना ठग और धोखेबाज हैं! हिरणों का ये तीसरा झुंड तो मानो जादुई भूत हैं! कैसे वे बोये रोप को खा लेते हैं — न उनके आने का पता चलता है, न ही जाने का? क्यों न हम रोप के आसपास समस्त परिसर में ऊँची (लकड़ी की) छड़ियों का जाल बिछाएँ? ताकि इस तीसरे झुंड के उस आश्रय को देख पाए, जहाँ वे खाकर चले जाते हैं।” 1
तब वे रोप के आसपास समस्त परिसर में ऊँची छड़ियों का जाल बिछाते हैं। तब, भिक्षुओं, उस वापक और उसके सहायकों को हिरणों के तीसरे झुंड का आश्रय दिख जाता है, जहाँ वे खाकर चले जाते थे। इस तरह, भिक्षुओं, हिरणों का तीसरा झुंड भी वापक के वर्चस्व से छूट नहीं पाया।
(४) तब, भिक्षुओं, हिरणों के चौथे झुंड ने सोचा — “पहला हिरणों का झुंड छलांग लगाते हुए वहाँ गए… और वापक के वर्चस्व से छूट नहीं पाये। दूसरा झुंड… उस खतरनाक भोग से विरत होकर, जंगल के गहरे इलाके में गए… फिर, ग्रीष्मकाल का अंतिम मास आया… बल और ऊर्जा के खोने पर, वे लौट गए… और वापक के वर्चस्व से छूट नहीं पाये। तीसरे झुंड ने वापक के खेत के पास ही आश्रय लिया… तब, रोप के आसपास समस्त परिसर में ऊँची छड़ियों का जाल बिछाया गया… और उन्हें आश्रय दिख गया… और वे वापक के वर्चस्व से छूट नहीं पाये।
क्यों न हम ऐसी जगह आश्रय लें, जहाँ वापक या उसके सहायक जा ही न सकें? वहाँ आश्रय लेकर, हम चुपके-चुपके आएंगे और बिना मदहोश हुए भोजन करेंगे। मदहोश न होने पर हमें नशा नहीं होगा। नशे न होने से हम लापरवाह नहीं होंगे। लापरवाह न होने पर वापक हमारे साथ जो चाहेगा, नहीं कर पाएगा।”
तब उन्होंने ऐसी जगह आश्रय लिया, जहाँ वापक या उसके सहायक न जा सकें। ऐसी जगह आश्रय लेकर, वे चुपके-चुपके आकर, बिना मदहोश हुए भोजन करते। मदहोश न होने पर उन्हें नशा नहीं होता। नशे न होने से वे लापरवाह नहीं हुए। लापरवाह न होने पर वापक ने उनके साथ जो चाहा, नहीं कर पाया।
तब, भिक्षुओं, वापक और उसके सहायकों को लगा, “वाह! हिरणों का ये चौथा झुंड भी बड़ा ठग और धोखेबाज हैं! हिरणों का ये चौथा झुंड भी मानो जादुई भूत हैं! कैसे वे बोये रोप को खा लेते हैं — न उनके आने का पता चलता है, न ही जाने का? क्यों न हम रोप के आसपास समस्त परिसर में ऊँची छड़ियों का जाल बिछाएँ? ताकि इस चौथे झुंड के भी आश्रय को देख पाए, जहाँ वे खाकर चले जाते हैं।”
तब वे रोप के आसपास समस्त परिसर में ऊँची छड़ियों का जाल बिछाते हैं। किन्तु तब भी, भिक्षुओं, वापक और उसके सहायकों को हिरणों के चौथे झुंड का आश्रय नहीं दिख पाता है, जहाँ वे खाकर चले जाते थे।
तब, भिक्षुओं, वापक और उसके सहायकों को लगा, “यदि हम हिरणों के चौथे झुंड को भयभीत (या व्याकुल) रखें। भयभीत होकर वे दूसरों को भयभीत रखेंगे, और दूसरे तीसरों को भयभीत रखेंगे। और इस तरह हम अपने बोये रोप को हिरणों के झुंड से मुक्त रखेंगे। क्यों न हम हिरणों के चौथे झुंड को नजरंदाज करें?”
तब वापक और उसके सहायकों ने हिरणों के उस चौथे झुंड को नजरंदाज किया। इस तरह, भिक्षुओं, हिरणों का चौथा झुंड वापक के वर्चस्व से छूट पाया।
भिक्षुओं, इस उपमा को मैंने (गहरा) अर्थ बताने के लिए बनाया है। उसका अर्थ यह है —
(१) भिक्षुओं, श्रमण-ब्राह्मणों के पहले झुंड ने मार के द्वारा बोये गए रोप और लोक-आमिष (=सांसारिक प्रलोभन) का मदहोश होकर भोजन किया। मदहोश होकर भोजन करने पर उन्हें नशा हुआ। नशे में वे लापरवाह हुए। लापरवाह हो जाने पर, तब मार ने उस रोप के सहारे उनके साथ जो करना चाहा, किया। इस तरह, भिक्षुओं, श्रमण-ब्राह्मणों का पहला झुंड मार के वर्चस्व से छूट नहीं पाया। मैं कहता हूँ, भिक्षुओं, श्रमण-ब्राह्मणों का यह पहला झुंड हिरणों के पहले झुंड जैसा ही है।
(२) आगे, भिक्षुओं, श्रमण-ब्राह्मणों के दूसरे झुंड ने सोचा — “श्रमण-ब्राह्मणों के पहले झुंड ने मार के द्वारा बोये गए रोप और लोक-आमिष का मदहोश होकर भोजन किया। मदहोश होकर भोजन करने पर उन्हें नशा हुआ। नशे में वे लापरवाह हुए। लापरवाह हो जाने पर, तब मार ने उस रोप के सहारे उनके साथ जो करना चाहा, किया। इस तरह श्रमण-ब्राह्मणों का पहला झुंड मार के वर्चस्व से छूट नहीं पाया। क्यों न हम सब मिलकर उस रोप (=पाँच कामभोग) और लोक-आमिष से विरत रहें? उस खतरनाक भोग से विरत होकर, हम जंगल के गहरे इलाके में जाकर विहार करें?”
तब वे सभी उस रोप और लोक-आमिष से विरत हुए। और वे उस खतरनाक भोग से विरत होकर, जंगल के गहरे इलाके में जाकर विहार करने लगे। वहाँ वे (केवल) साग खाकर रहते थे, या (केवल) जंगली बाजरा खाकर रहते थे, या (केवल) लाल चावल खाकर रहते थे, या (केवल) चमड़े के टुकड़े खाकर रहते थे, या (केवल) शैवाल (=जल के पौधे) खाकर रहते थे, या (केवल) कणिक (=टूटा चावल) खाकर रहते थे, या (केवल) काँजी (=उबले चावल का पानी) पीकर रहते थे, या (केवल) तिल खाकर रहते थे, या (केवल) घास खाकर रहते थे, या (केवल) गोबर खाकर रहते थे, या (केवल) जंगल के कन्द-मूल या गिरे हुए फल खाकर यापन करते थे।
फिर, ग्रीष्मकाल का अंतिम मास आया, घास और जल सूख गया, और उनकी काया बहुत दुबली-पतली हुई। काया के दुबला-पतला होने पर, उन्होंने अपने बल और ऊर्जा को खो दिया। बल और ऊर्जा के खोने पर, उनकी चेतो-विमुक्ति खो गयी। 3 चेतो-विमुक्ति के खोने पर वे उसी मार के द्वारा बोये गए रोप और लोक-आमिष की ओर लौट गए, और उन्होंने मदहोश होकर भोजन किया। मदहोश होकर भोजन करने पर उन्हें नशा हो गया। नशे में वे लापरवाह हो गए। लापरवाह हो जाने पर, तब मार ने उस रोप और लोक-आमिष के सहारे उनके साथ जो करना चाहा, किया। इस तरह, भिक्षुओं, श्रमण-ब्राह्मणों का दूसरा झुंड भी मार के वर्चस्व से छूट नहीं पाया। मैं कहता हूँ, भिक्षुओं, श्रमण-ब्राह्मणों का यह दूसरा झुंड हिरणों के दूसरे झुंड जैसा ही है।
(३) आगे, भिक्षुओं, श्रमण-ब्राह्मणों के तीसरे झुंड ने सोचा — “श्रमण-ब्राह्मणों के पहले झुंड ने मार के द्वारा बोये गए रोप और लोक-आमिष का मदहोश होकर भोजन किया… और मार के वर्चस्व से छूट नहीं पाया। दूसरा झुंड… उस खतरनाक भोग से विरत होकर, जंगल के गहरे इलाके में गया… लेकिन फिर, ग्रीष्मकाल का अंतिम मास आया… बल और ऊर्जा के खोने पर, वे उसी रोप और लोक-आमिष की ओर लौट गए… और मार के वर्चस्व से छूट नहीं पाया। क्यों न हम मार के रोप और लोक-आमिष के पास ही आश्रय लें? पास ही आश्रय लेने पर, हम चुपके-चुपके, बिना मदहोश हुए भोजन करेंगे। मदहोश न होने पर हमें नशा नहीं होगा। नशे न होने से हम लापरवाह नहीं होंगे। लापरवाह न होने पर मार हमारे साथ जो चाहेगा, नहीं कर पाएगा।”
तब, भिक्षुओं, उन्होंने मार के खेत के पास ही आश्रय लिया। पास ही आश्रय लेकर, वे चुपके-चुपके, बिना मदहोश हुए भोजन करते। मदहोश न होने पर उन्हें नशा नहीं होता। नशे न होने पर वे लापरवाह नहीं हुए। लापरवाह न होने पर मार ने उनके साथ जो चाहा, नहीं कर पाया। किन्तु उनकी ऐसी दृष्टि थी —
इस तरह, भिक्षुओं, श्रमण-ब्राह्मणों का तीसरा झुंड भी मार के वर्चस्व से छूट नहीं पाया। मैं कहता हूँ, भिक्षुओं, श्रमण-ब्राह्मणों का यह तीसरा झुंड हिरणों के तीसरे झुंड जैसा ही है।
(४) आगे, भिक्षुओं, श्रमण-ब्राह्मणों के चौथे झुंड ने सोचा — “श्रमण-ब्राह्मणों के पहले झुंड ने मार के द्वारा बोये गए रोप और लोक-आमिष का मदहोश होकर भोजन किया… और मार के वर्चस्व से छूट नहीं पाया। दूसरा झुंड… उस खतरनाक भोग से विरत होकर, जंगल के गहरे इलाके में गया… लेकिन फिर, ग्रीष्मकाल का अंतिम मास आया… बल और ऊर्जा के खोने पर, वे उसी रोप और लोक-आमिष की ओर लौट गए… और मार के वर्चस्व से छूट नहीं पाया। तीसरे झुंड ने मार के खेत के पास ही आश्रय लिया… किन्तु उनकी ऐसी दृष्टि थी — “लोक शाश्वत है… या लोक अशाश्वत है।…” और वे मार के वर्चस्व से छूट नहीं पाये।
क्यों न हम ऐसी जगह आश्रय लें, जहाँ मार या उसके दरबारी जा ही न सकें? वहाँ आश्रय लेकर, हम मार के द्वारा बोये गए रोप और लोक-आमिष का बिना मदहोश हुए भोजन करेंगे। मदहोश न होने पर हमें नशा नहीं होगा। नशे न होने से हम लापरवाह नहीं होंगे। लापरवाह न होने पर, मार अपने रोप और लोक-आमिष के सहारे हमारे साथ जो करना चाहेगा, नहीं कर पाएगा।”
तब उन्होंने ऐसी जगह आश्रय लिया, जहाँ मार या उसके दरबारी न जा सकें। ऐसी जगह आश्रय लेकर, वे मार के द्वारा बोये गए रोप और लोक-आमिष का बिना मदहोश हुए भोजन करते। मदहोश न होने पर उन्हें नशा नहीं होता। नशे न होने से वे लापरवाह नहीं हुए। लापरवाह न होने पर मार ने अपने रोप और लोक-आमिष के सहारे उनके साथ जो चाहा, नहीं कर पाया। इस तरह, भिक्षुओं, श्रमण-ब्राह्मणों का चौथा झुंड वापक के वर्चस्व से छूट पाया। मैं कहता हूँ, भिक्षुओं, श्रमण-ब्राह्मणों का यह चौथा झुंड हिरणों के चौथे झुंड जैसा ही है।
और, भिक्षुओं, कहाँ मार और उसके दरबारी नहीं जा सकते हैं?
(१) ऐसा होता है, भिक्षुओं, कोई भिक्षु कामुकता से निर्लिप्त, अकुशल-स्वभाव से निर्लिप्त, सोच एवं विचार के साथ निर्लिप्तता से उपजे प्रफुल्लता और सुखपूर्ण प्रथम-ध्यान में प्रवेश पाकर रहता है। ऐसे भिक्षु को कहते हैं, भिक्षुओं, कि उसने मार को अंधा कर दिया, मारचक्षु का मार्ग खत्म किया, और वहाँ गया जहाँ पापी को दिखायी न दे।
(२) आगे, भिक्षुओं, वह भिक्षु सोच एवं विचार के रुक जाने पर, भीतर आश्वस्त हुआ मानस एकरस होकर, बिना-सोच, बिना-विचार, समाधि से उपजे प्रफुल्लता और सुखपूर्ण द्वितीय-ध्यान में प्रवेश पाकर रहता है। ऐसे भिक्षु को कहते हैं, भिक्षुओं, कि उसने मार को अंधा कर दिया, मारचक्षु का मार्ग खत्म किया, और वहाँ गया जहाँ पापी को दिखायी न दे।
(३) आगे, भिक्षुओं, वह भिक्षु प्रफुल्लता से विरक्त हो, स्मरणशील एवं सचेतता के साथ-साथ तटस्थता धारण कर शरीर से सुख महसूस करता है। जिसे आर्यजन ‘तटस्थ, स्मरणशील, सुखविहारी’ कहते हैं, वह ऐसे तृतीय-ध्यान में प्रवेश पाकर रहता है। ऐसे भिक्षु को कहते हैं, भिक्षुओं, कि उसने मार को अंधा कर दिया, मारचक्षु का मार्ग खत्म किया, और वहाँ गया जहाँ पापी को दिखायी न दे।
(४) आगे, भिक्षुओं, वह भिक्षु सुख एवं दर्द दोनों हटाकर, खुशी एवं परेशानी पूर्व ही विलुप्त होने पर, तटस्थता और स्मरणशीलता की परिशुद्धता के साथ, अब न-सुख-न-दर्द पूर्ण चतुर्थ-ध्यान में प्रवेश पाकर रहता है। ऐसे भिक्षु को कहते हैं, भिक्षुओं, कि उसने मार को अंधा कर दिया, मारचक्षु का मार्ग खत्म किया, और वहाँ गया जहाँ पापी को दिखायी न दे।
(५) आगे, भिक्षुओं, वह भिक्षु रूप नजरिए पूर्णतः लाँघकर, विरोधी नजरिए ओझल होने पर, विविध नजरियों पर ध्यान न देकर — ‘आकाश अनन्त है’ (देखते हुए) ‘अनन्त आकाश-आयाम’ में प्रवेश कर रहता है। ऐसे भिक्षु को कहते हैं, भिक्षुओं, कि उसने मार को अंधा कर दिया, मारचक्षु का मार्ग खत्म किया, और वहाँ गया जहाँ पापी को दिखायी न दे।
(६) आगे, भिक्षुओं, वह भिक्षु अनन्त आकाश-आयाम पूर्णतः लाँघकर, ‘चैतन्य अनन्त है’ (देखते हुए) ‘अनन्त चैतन्य-आयाम’ में प्रवेश कर रहता है। ऐसे भिक्षु को कहते हैं, भिक्षुओं, कि उसने मार को अंधा कर दिया, मारचक्षु का मार्ग खत्म किया, और वहाँ गया जहाँ पापी को दिखायी न दे।
(७) आगे, भिक्षुओं, वह भिक्षु अनन्त चैतन्य-आयाम पूर्णतः लाँघकर, ‘कुछ नहीं है’ (देखते हुए) ‘सूने-आयाम’ में प्रवेश कर रहता है। ऐसे भिक्षु को कहते हैं, भिक्षुओं, कि उसने मार को अंधा कर दिया, मारचक्षु का मार्ग खत्म किया, और वहाँ गया जहाँ पापी को दिखायी न दे।
(८) आगे, भिक्षुओं, वह भिक्षु सूने-आयाम को पूर्णतः लाँघकर, न-संज्ञा-न-असंज्ञा आयाम में प्रवेश कर रहता है। ऐसे भिक्षु को कहते हैं, भिक्षुओं, कि उसने मार को अंधा कर दिया, मारचक्षु का मार्ग खत्म किया, और वहाँ गया जहाँ पापी को दिखायी न दे।
(९) आगे, भिक्षुओं, वह भिक्षु न-संज्ञा-न-असंज्ञा आयाम को पूर्णतः लाँघकर, संज्ञा और अनुभूति के निरोध में प्रवेश कर रहता है। और प्रज्ञा से देखने पर उसके आस्रव पूरी तरह खत्म हो जाते हैं। ऐसे भिक्षु को कहते हैं, भिक्षुओं, कि उसने मार को अंधा कर दिया, मारचक्षु का मार्ग खत्म किया, वहाँ गया जहाँ पापी को दिखायी न दे, और दुनिया की आसक्तियों को लाँघ लिया।”
भगवान ने ऐसा कहा। हर्षित होकर भिक्षुओं ने भगवान की बात का अभिनंदन किया।
अर्थात, हिरणों के जाने के पश्चात, जहाँ-जहाँ की छड़ियाँ झुकी हुई या भूमि पर पड़ी हुई पायी जाएगी, उसका पीछा करते हुए अंततः हिरणों का छिपा हुआ आश्रय दिख सकता है। ↩︎
पापी मार के बारे में जानने के लिए हमारी यह शब्दावली पढ़ें। ↩︎
चेतो-विमुक्ति, अट्ठकथा के अनुसार, उनके जंगल में ही रहने की चेतना है। किंतु वास्तव में, यह ध्यान की एक ऐसी गहन अवस्था है जिसमें चित्त कुछ समय के लिए समस्त क्लेशों से मुक्त हो जाता है। अंगुत्तरनिकाय ६:१३ के अनुसार, जब कोई व्यक्ति चार ब्रह्मविहारों के आधार पर समाधि प्राप्त करता है, (या समाधि के बाद ब्रह्मविहार का अभ्यास करता है,) तब वह चेतो-विमुक्ति की इस अवस्था को प्राप्त कर सकता है।
यद्यपि, जैसा कि यहाँ संकेत किया गया है, कुछ श्रमण और ब्राह्मण वास्तव में कुछ समय के लिए क्लेशों से मुक्त होकर मार से मुक्ति का अनुभव कर सकते हैं। परंतु जब जीवन में कठिन परिस्थितियाँ आती हैं, और चेतो-विमुक्ति तक पहुँचना दुर्लभ हो जाता है, तब वे पुनः सुख और राहत की इच्छा से व्याकुल हो उठते हैं। ऐसी स्थिति में, यदि वे आर्य अष्टांगिक मार्ग पर नहीं चलते, तो अपनी उस भूख को तृप्त करने के लिए वे मार के पाँच कामभोगों की ओर आकृष्ट हो जाते हैं। ↩︎
यह प्रसिद्ध दस “अघोषित दृष्टियों” की सूची है, जो सम्पूर्ण सुत्तपिटक में पाई जाती है (उदाहरण के लिए, दीघनिकाय ९, मज्झिमनिकाय ६३, मज्झिमनिकाय ७२, तथा संयुक्तनिकाय ४४)। ऐसा प्रतीत होता है कि ये दस धारणाएँ एक प्रकार की चेकलिस्ट जैसी होती थी, जिससे कोई दार्शनिकों का वर्गीकरण और खंडन करते थे।
जैन साहित्य के “भागवतीसूत्र ९.३३” में इन्द्रभूति गौतम, जमालि नामक नकली श्रमण को परखने के लिए उससे प्रश्न करते हैं — “क्या लोक और आत्मा शाश्वत हैं?” जब जमालि इसका उत्तर नहीं दे पाता, तब भगवान महावीर हस्तक्षेप करते हुए स्पष्ट करते हैं कि “आत्मा और लोक एक अर्थ में शाश्वत ही हैं, क्योंकि वे सदा अस्तित्व में रहते हैं। परंतु दूसरे अर्थ में वे क्षणिक हैं, क्योंकि वे निरंतर रूपांतरण और परिवर्तनों से गुजरते हैं।”
भगवान ने ऐसे किसी भी दार्शनिक धारणाओं पर उत्तर देने से मना किया। क्योंकि उन प्रश्नों पर किसी भी तरह से उत्तर देने पर दृष्टियों के मायाजाल में फँस जाते हैं, और ब्रह्मचर्य के ध्येय से दूर हो जाते हैं। इसके बजाय, केवल चार आर्य सत्य और प्रतित्य समुत्पाद की दृष्टि से उत्तर देने पर दृष्टियों का मायाजाल टूटता है, और मुक्ति प्राप्त की जा सकती है। ↩︎
२६१. एवं मे सुतं – एकं समयं भगवा सावत्थियं विहरति जेतवने अनाथपिण्डिकस्स आरामे. तत्र खो भगवा भिक्खू आमन्तेसि – ‘‘भिक्खवो’’ति. ‘‘भदन्ते’’ति ते भिक्खू भगवतो पच्चस्सोसुं. भगवा एतदवोच –
‘‘न , भिक्खवे, नेवापिको निवापं निवपति मिगजातानं – ‘इमं मे निवापं निवुत्तं मिगजाता परिभुञ्जन्ता दीघायुका वण्णवन्तो चिरं दीघमद्धानं यापेन्तू’ति. एवञ्च खो, भिक्खवे, नेवापिको निवापं निवपति मिगजातानं – ‘इमं मे निवापं निवुत्तं मिगजाता अनुपखज्ज मुच्छिता भोजनानि भुञ्जिस्सन्ति, अनुपखज्ज मुच्छिता भोजनानि भुञ्जमाना मदं आपज्जिस्सन्ति, मत्ता समाना पमादं आपज्जिस्सन्ति, पमत्ता समाना यथाकामकरणीया भविस्सन्ति इमस्मिं निवापे’ति.
२६२. ‘‘तत्र, भिक्खवे, पठमा मिगजाता अमुं निवापं निवुत्तं नेवापिकस्स अनुपखज्ज मुच्छिता भोजनानि भुञ्जिंसु, ते तत्थ अनुपखज्ज मुच्छिता भोजनानि भुञ्जमाना मदं आपज्जिंसु, मत्ता समाना पमादं आपज्जिंसु, पमत्ता समाना यथाकामकरणीया अहेसुं नेवापिकस्स अमुस्मिं निवापे. एवञ्हि ते, भिक्खवे, पठमा मिगजाता न परिमुच्चिंसु नेवापिकस्स इद्धानुभावा.
२६३. ‘‘तत्र, भिक्खवे, दुतिया मिगजाता एवं समचिन्तेसुं – ‘ये खो ते पठमा मिगजाता अमुं निवापं निवुत्तं नेवापिकस्स अनुपखज्ज मुच्छिता भोजनानि भुञ्जिंसु. ते तत्थ अनुपखज्ज मुच्छिता भोजनानि भुञ्जमाना मदं आपज्जिंसु, मत्ता समाना पमादं आपज्जिंसु, पमत्ता समाना यथाकामकरणीया अहेसुं नेवापिकस्स अमुस्मिं निवापे. एवञ्हि ते पठमा मिगजाता न परिमुच्चिंसु नेवापिकस्स इद्धानुभावा. यंनून मयं सब्बसो निवापभोजना पटिविरमेय्याम, भयभोगा पटिविरता अरञ्ञायतनानि अज्झोगाहेत्वा विहरेय्यामा’ति. ते सब्बसो निवापभोजना पटिविरमिंसु, भयभोगा पटिविरता अरञ्ञायतनानि अज्झोगाहेत्वा विहरिंसु. तेसं गिम्हानं पच्छिमे मासे, तिणोदकसङ्खये, अधिमत्तकसिमानं पत्तो कायो होति. तेसं अधिमत्तकसिमानं पत्तकायानं बलवीरियं परिहायि. बलवीरिये परिहीने तमेव निवापं निवुत्तं नेवापिकस्स पच्चागमिंसु. ते तत्थ अनुपखज्ज मुच्छिता भोजनानि भुञ्जिंसु. ते तत्थ अनुपखज्ज मुच्छिता भोजनानि भुञ्जमाना मदं आपज्जिंसु, मत्ता समाना पमादं आपज्जिंसु, पमत्ता समाना यथाकामकरणीया अहेसुं नेवापिकस्स अमुस्मिं निवापे. एवञ्हि ते, भिक्खवे, दुतियापि मिगजाता न परिमुच्चिंसु नेवापिकस्स इद्धानुभावा.
२६४. ‘‘तत्र , भिक्खवे, ततिया मिगजाता एवं समचिन्तेसुं – ‘ये खो ते पठमा मिगजाता अमुं निवापं निवुत्तं नेवापिकस्स…पे… एवञ्हि ते पठमा मिगजाता न परिमुच्चिंसु नेवापिकस्स इद्धानुभावा. येपि ते दुतिया मिगजाता एवं समचिन्तेसुं – ये खो ते पठमा मिगजाता अमुं निवापं निवुत्तं नेवापिकस्स…पे… एवञ्हि ते पठमा मिगजाता न परिमुच्चिंसु नेवापिकस्स इद्धानुभावा. यंनून मयं सब्बसो निवापभोजना पटिविरमेय्याम, भयभोगा पटिविरता अरञ्ञायतनानि अज्झोगाहेत्वा विहरेय्यामाति. ते सब्बसो निवापभोजना पटिविरमिंसु, भयभोगा पटिविरता अरञ्ञायतनानि अज्झोगाहेत्वा विहरिंसु. तेसं गिम्हानं पच्छिमे मासे तिणोदकसङ्खये अधिमत्तकसिमानं पत्तो कायो होति. तेसं अधिमत्तकसिमानं पत्तकायानं बलवीरियं परिहायि. बलवीरिये परिहीने तमेव निवापं निवुत्तं नेवापिकस्स पच्चागमिंसु. ते तत्थ अनुपखज्ज मुच्छिता भोजनानि भुञ्जिंसु. ते तत्थ अनुपखज्ज मुच्छिता भोजनानि भुञ्जमाना मदं आपज्जिंसु, मत्ता समाना पमादं आपज्जिंसु, पमत्ता समाना यथाकामकरणीया अहेसुं नेवापिकस्स अमुस्मिं निवापे. एवञ्हि ते दुतियापि मिगजाता न परिमुच्चिंसु नेवापिकस्स इद्धानुभावा. यंनून मयं अमुं निवापं निवुत्तं नेवापिकस्स उपनिस्साय आसयं कप्पेय्याम. तत्रासयं कप्पेत्वा अमुं निवापं निवुत्तं नेवापिकस्स अननुपखज्ज अमुच्छिता भोजनानि भुञ्जिस्साम, अननुपखज्ज अमुच्छिता भोजनानि भुञ्जमाना न मदं आपज्जिस्साम, अमत्ता समाना न पमादं आपज्जिस्साम, अप्पमत्ता समाना न यथाकामकरणीया भविस्साम नेवापिकस्स अमुस्मिं निवापे’ति. ते अमुं निवापं निवुत्तं नेवापिकस्स उपनिस्साय आसयं कप्पयिंसु. तत्रासयं कप्पेत्वा अमुं निवापं निवुत्तं नेवापिकस्स अननुपखज्ज अमुच्छिता भोजनानि भुञ्जिंसु, ते तत्थ अननुपखज्ज अमुच्छिता भोजनानि भुञ्जमाना न मदं आपज्जिंसु, अमत्ता समाना न पमादं आपज्जिंसु, अप्पमत्ता समाना न यथाकामकरणीया अहेसुं नेवापिकस्स अमुस्मिं निवापे.
‘‘तत्र, भिक्खवे, नेवापिकस्स च नेवापिकपरिसाय च एतदहोसि – ‘सठास्सुनामिमे ततिया मिगजाता केतबिनो, इद्धिमन्तास्सुनामिमे ततिया मिगजाता परजना; इमञ्च नाम निवापं निवुत्तं परिभुञ्जन्ति, न च नेसं जानाम आगतिं वा गतिं वा. यंनून मयं इमं निवापं निवुत्तं महतीहि दण्डवाकराहि [दण्डवागुराहि (स्या.)] समन्ता सप्पदेसं अनुपरिवारेय्याम – अप्पेव नाम ततियानं मिगजातानं आसयं पस्सेय्याम, यत्थ ते गाहं गच्छेय्यु’न्ति. ते अमुं निवापं निवुत्तं महतीहि दण्डवाकराहि समन्ता सप्पदेसं अनुपरिवारेसुं. अद्दसंसु खो, भिक्खवे, नेवापिको च नेवापिकपरिसा च ततियानं मिगजातानं आसयं, यत्थ ते गाहं अगमंसु. एवञ्हि ते, भिक्खवे, ततियापि मिगजाता न परिमुच्चिंसु नेवापिकस्स इद्धानुभावा.
२६५. ‘‘तत्र, भिक्खवे, चतुत्था मिगजाता एवं समचिन्तेसुं – ‘ये खो ते पठमा मिगजाता…पे… एवञ्हि ते पठमा मिगजाता न परिमुच्चिंसु नेवापिकस्स इद्धानुभावा. येपि ते दुतिया मिगजाता एवं समचिन्तेसुं ‘ये खो ते पठमा मिगजाता…पे… एवञ्हि ते पठमा मिगजाता न परिमुच्चिंसु नेवापिकस्स इद्धानुभावा. यंनून मयं सब्बसो निवापभोजना पटिविरमेय्याम, भयभोगा पटिविरता अरञ्ञायतनानि अज्झोगाहेत्वा विहरेय्यामा’ति. ते सब्बसो निवापभोजना पटिविरमिंसु…पे… एवञ्हि ते दुतियापि मिगजाता न परिमुच्चिंसु नेवापिकस्स इद्धानुभावा. येपि ते ततिया मिगजाता एवं समचिन्तेसुं ‘ये खो ते पठमा मिगजाता…पे… एवञ्हि ते पठमा मिगजाता न परिमुच्चिंसु नेवापिकस्स इद्धानुभावा. येपि ते दुतिया मिगजाता एवं समचिन्तेसुं ‘ये खो ते पठमा मिगजाता…पे… एवञ्हि ते पठमा मिगजाता न परिमुच्चिंसु नेवापिकस्स इद्धानुभावा. यंनून मयं सब्बसो निवापभोजना पटिविरमेय्याम, भयभोगा पटिविरता अरञ्ञायतनानि अज्झोगाहेत्वा विहरेय्यामा’ति. ते सब्बसो निवापभोजना पटिविरमिंसु…पे… एवञ्हि ते दुतियापि मिगजाता न परिमुच्चिंसु नेवापिकस्स इद्धानुभावा. यंनून मयं अमुं निवापं निवुत्तं नेवापिकस्स उपनिस्साय आसयं कप्पेय्याम, तत्रासयं कप्पेत्वा अमुं निवापं निवुत्तं नेवापिकस्स अननुपखज्ज अमुच्छिता भोजनानि भुञ्जिस्साम, अननुपखज्ज अमुच्छिता भोजनानि भुञ्जमाना न मदं आपज्जिस्साम, अमत्ता समाना न पमादं आपज्जिस्साम, अप्पमत्ता समाना न यथाकामकरणीया भविस्साम नेवापिकस्स अमुस्मिं निवापे’ति. ते अमुं निवापं निवुत्तं नेवापिकस्स उपनिस्साय आसयं कप्पयिंसु, तत्रासयं कप्पेत्वा अमुं निवापं निवुत्तं नेवापिकस्स अननुपखज्ज अमुच्छिता भोजनानि भुञ्जिंसु, ते तत्थ अननुपखज्ज अमुच्छिता भोजनानि भुञ्जमाना न मदं आपज्जिंसु, अमत्ता समाना न पमादं आपज्जिंसु, अप्पमत्ता समाना न यथाकामकरणीया अहेसुं नेवापिकस्स अमुस्मिं निवापे.
‘‘तत्र नेवापिकस्स च नेवापिकपरिसाय च एतदहोसि – ‘सठास्सुनामिमे ततिया मिगजाता केतबिनो, इद्धिमन्तास्सुनामिमे ततिया मिगजाता परजना, इमञ्च नाम निवापं निवुत्तं परिभुञ्जन्ति. न च नेसं जानाम आगतिं वा गतिं वा. यंनून मयं इमं निवापं निवुत्तं महतीति दण्डवाकराहि समन्ता सप्पदेसं अनुपरिवारेय्याम, अप्पेव नाम ततियानं मिगजातानं आसयं पस्सेय्याम, यत्थ ते गाहं गच्छेय्यु’न्ति. ते अमुं निवापं निवुत्तं महतीति दण्डवाकराहि समन्ता सप्पदेसं अनुपरिवारेसुं. अद्दसंसु खो नेवापिको च नेवापिकपरिसा च ततियानं मिगजातानं आसयं, यत्थ ते गाहं अगमंसु. एवञ्हि ते ततियापि मिगजाता न परिमुच्चिंसु नेवापिकस्स इद्धानुभावा. यंनून मयं यत्थ अगति नेवापिकस्स च नेवापिकपरिसाय च तत्रासयं कप्पेय्याम, तत्रासयं कप्पेत्वा अमुं निवापं निवुत्तं नेवापिकस्स अननुपखज्ज अमुच्छिता भोजनानि भुञ्जिस्साम, अननुपखज्ज अमुच्छिता भोजनानि भुञ्जमाना न मदं आपज्जिस्साम, अमत्ता समाना न पमादं आपज्जिस्साम, अप्पमत्ता समाना न यथाकामकरणीया भविस्साम नेवापिकस्स अमुस्मिं निवापे’ति. ते यत्थ अगति नेवापिकस्स च नेवापिकपरिसाय च तत्रासयं कप्पयिंसु. तत्रासयं कप्पेत्वा अमुं निवापं निवुत्तं नेवापिकस्स अननुपखज्ज अमुच्छिता भोजनानि भुञ्जिंसु, ते तत्थ अननुपखज्ज अमुच्छिता भोजनानि भुञ्जमाना न मदं आपज्जिंसु, अमत्ता समाना न पमादं आपज्जिंसु, अप्पमत्ता समाना न यथाकामकरणीया अहेसुं नेवापिकस्स अमुस्मिं निवापे.
‘‘तत्र, भिक्खवे, नेवापिकस्स च नेवापिकपरिसाय च एतदहोसि – ‘सठास्सुनामिमे चतुत्था मिगजाता केतबिनो, इद्धिमन्तास्सुनामिमे चतुत्था मिगजाता परजना. इमञ्च नाम निवापं निवुत्तं परिभुञ्जन्ति, न च नेसं जानाम आगतिं वा गतिं वा. यंनून मयं इमं निवापं निवुत्तं महतीहि दण्डवाकराहि समन्ता सप्पदेसं अनुपरिवारेय्याम, अप्पेव नाम चतुत्थानं मिगजातानं आसयं पस्सेय्याम यत्थ ते गाहं गच्छेय्यु’न्ति. ते अमुं निवापं निवुत्तं महतीहि दण्डवाकराहि समन्ता सप्पदेसं अनुपरिवारेसुं. नेव खो, भिक्खवे, अद्दसंसु नेवापिको च नेवापिकपरिसा च चतुत्थानं मिगजातानं आसयं, यत्थ ते गाहं गच्छेय्युं. तत्र, भिक्खवे, नेवापिकस्स च नेवापिकपरिसाय च एतदहोसि – ‘सचे खो मयं चतुत्थे मिगजाते घट्टेस्साम, ते घट्टिता अञ्ञे घट्टिस्सन्ति ते घट्टिता अञ्ञे घट्टिस्सन्ति. एवं इमं निवापं निवुत्तं सब्बसो मिगजाता परिमुञ्चिस्सन्ति. यंनून मयं चतुत्थे मिगजाते अज्झुपेक्खेय्यामा’ति. अज्झुपेक्खिंसु खो, भिक्खवे, नेवापिको च नेवापिकपरिसा च चतुत्थे मिगजाते. एवञ्हि ते, भिक्खवे, चतुत्था मिगजाता परिमुच्चिंसु नेवापिकस्स इद्धानुभावा.
२६६. ‘‘उपमा खो मे अयं, भिक्खवे, कता अत्थस्स विञ्ञापनाय. अयं चेवेत्थ अत्थो – निवापोति खो, भिक्खवे, पञ्चन्नेतं कामगुणानं अधिवचनं. नेवापिकोति खो, भिक्खवे, मारस्सेतं पापिमतो अधिवचनं. नेवापिकपरिसाति खो, भिक्खवे, मारपरिसायेतं अधिवचनं. मिगजाताति खो, भिक्खवे, समणब्राह्मणानमेतं अधिवचनं.
२६७. ‘‘तत्र, भिक्खवे, पठमा समणब्राह्मणा अमुं निवापं निवुत्तं मारस्स अमूनि च लोकामिसानि अनुपखज्ज मुच्छिता भोजनानि भुञ्जिंसु. ते तत्थ अनुपखज्ज मुच्छिता भोजनानि भुञ्जमाना मदं आपज्जिंसु, मत्ता समाना पमादं आपज्जिंसु, पमत्ता समाना यथाकामकरणीया अहेसुं मारस्स अमुस्मिं निवापे अमुस्मिञ्च लोकामिसे . एवञ्हि ते, भिक्खवे, पठमा समणब्राह्मणा न परिमुच्चिंसु मारस्स इद्धानुभावा. सेय्यथापि ते, भिक्खवे, पठमा मिगजाता तथूपमे अहं इमे पठमे समणब्राह्मणे वदामि.
२६८. ‘‘तत्र, भिक्खवे, दुतिया समणब्राह्मणा एवं समचिन्तेसुं – ‘ये खो ते पठमा समणब्राह्मणा अमुं निवापं निवुत्तं मारस्स अमूनि च लोकामिसानि अनुपखज्ज मुच्छिता भोजनानि भुञ्जिंसु. ते तत्थ अनुपखज्ज मुच्छिता भोजनानि भुञ्जमाना मदं आपज्जिंसु, मत्ता समाना पमादं आपज्जिंसु, पमत्ता समाना यथाकामकरणीया अहेसुं मारस्स अमुस्मिं निवापे अमुस्मिञ्च लोकामिसे. एवञ्हि ते पठमा समणब्राह्मणा न परिमुच्चिंसु मारस्स इद्धानुभावा. यंनून मयं सब्बसो निवापभोजना लोकामिसा पटिविरमेय्याम, भयभोगा पटिविरता अरञ्ञायतनानि अज्झोगाहेत्वा विहरेय्यामा’ति. ते सब्बसो निवापभोजना लोकामिसा पटिविरमिंसु, भयभोगा पटिविरता अरञ्ञायतनानि अज्झोगाहेत्वा विहरेय्यामाति. ते सब्बसो निवापभोजना लोकामिसा पटिविरमिंसु, भयभोगा पटिविरता अरञ्ञायतनानि अज्झोगाहेत्वा विहरिंसु. ते तत्थ साकभक्खापि अहेसुं, सामाकभक्खापि अहेसुं, नीवारभक्खापि अहेसुं, दद्दुलभक्खापि अहेसुं, हटभक्खापि अहेसुं, कणभक्खापि अहेसुं, आचामभक्खापि अहेसुं, पिञ्ञाकभक्खापि अहेसुं, तिणभक्खापि अहेसुं, गोमयभक्खापि अहेसुं, वनमूलफलाहारा यापेसुं पवत्तफलभोजी.
‘‘तेसं गिम्हानं पच्छिमे मासे, तिणोदकसङ्खये, अधिमत्तकसिमानं पत्तो कायो होति. तेसं अधिमत्तकसिमानं पत्तकायानं बलवीरियं परिहायि. बलवीरिये परिहीने चेतोविमुत्ति परिहायि. चेतोविमुत्तिया परिहीनाय तमेव निवापं निवुत्तं मारस्स पच्चागमिंसु तानि च लोकामिसानि. ते तत्थ अनुपखज्ज मुच्छिता भोजनानि भुञ्जिंसु. ते तत्थ अनुपखज्ज मुच्छिता भोजनानि भुञ्जमाना मदं आपज्जिंसु, मत्ता समाना पमादं आपज्जिंसु, पमत्ता समाना यथाकामकरणीया अहेसुं मारस्स अमुस्मिं निवापे अमुस्मिञ्च लोकामिसे. एवञ्हि ते, भिक्खवे, दुतियापि समणब्राह्मणा न परिमुच्चिंसु मारस्स इद्धानुभावा. सेय्यथापि ते, भिक्खवे, दुतिया मिगजाता तथूपमे अहं इमे दुतिये समणब्राह्मणे वदामि.
२६९. ‘‘तत्र, भिक्खवे, ततिया समणब्राह्मणा एवं समचिन्तेसुं – ‘ये खो ते पठमा समणब्राह्मणा अमुं निवापं निवुत्तं मारस्स अमूनि च लोकामिसानि…पे…. एवञ्हि ते पठमा समणब्राह्मणा न परिमुच्चिंसु मारस्स इद्धानुभावा. येपि ते दुतिया समणब्राह्मणा एवं समचिन्तेसुं – ‘ये खो ते पठमा समणब्राह्मणा अमुं निवापं निवुत्तं मारस्स अमूनि च लोकामिसानि…पे…. एवञ्हि ते पठमा समणब्राह्मणा न परिमुच्चिंसु मारस्स इद्धानुभावा. यंनून मयं सब्बसो निवापभोजना लोकामिसा पटिविरमेय्याम, भयभोगा पटिविरता अरञ्ञायतनानि अज्झोगाहेत्वा विहरेय्यामा’ति. ते सब्बसो निवापभोजना लोकामिसा पटिविरमिंसु. भयभोगा पटिविरता अरञ्ञायतनानि अज्झोगाहेत्वा विहरिंसु. ते तत्थ साकभक्खापि अहेसुं…पे… पवत्तफलभोजी. तेसं गिम्हानं पच्छिमे मासे तिणोदकसङ्खये अधिमत्तकसिमानं पत्तो कायो होति. तेसं अधिमत्तकसिमानं पत्तकायानं बलवीरियं परिहायि, बलवीरिये परिहीने चेतोविमुत्ति परिहायि, चेतोविमुत्तिया परिहीनाय तमेव निवापं निवुत्तं मारस्स पच्चागमिंसु तानि च लोकामिसानि. ते तत्थ अनुपखज्ज मुच्छिता भोजनानि भुञ्जिंसु. ते तत्थ अनुपखज्ज मुच्छिता भोजनानि भुञ्जमाना मदं आपज्जिंसु, मत्ता समाना पमादं आपज्जिंसु, पमत्ता समाना यथाकामकरणीया अहेसुं मारस्स अमुस्मिं निवापे अमुस्मिञ्च लोकामिसे. एवञ्हि ते दुतियापि समणब्राह्मणा न परिमुच्चिंसु मारस्स इद्धानुभावा. यंनून मयं अमुं निवापं निवुत्तं मारस्स अमूनि च लोकामिसानि उपनिस्साय आसयं कप्पेय्याम, तत्रासयं कप्पेत्वा अमुं निवापं निवुत्तं मारस्स अमूनि च लोकामिसानि अननुपखज्ज अमुच्छिता भोजनानि भुञ्जिस्साम, अननुपखज्ज अमुच्छिता भोजनानि भुञ्जमाना न मदं आपज्जिस्साम, अमत्ता समाना न पमादं आपज्जिस्साम, अप्पमत्ता समाना न यथाकामकरणीया भविस्साम मारस्स अमुस्मिं निवापे अमुस्मिञ्च लोकामिसे’’ति.
‘‘ते अमुं निवापं निवुत्तं मारस्स अमूनि च लोकामिसानि उपनिस्साय आसयं कप्पयिंसु. तत्रासयं कप्पेत्वा अमुं निवापं निवुत्तं मारस्स अमूनि च लोकामिसानि अननुपखज्ज अमुच्छिता भोजनानि भुञ्जिंसु. ते तत्थ अननुपखज्ज अमुच्छिता भोजनानि भुञ्जमाना न मदं आपज्जिंसु, अमत्ता समाना न पमादं आपज्जिंसु, अप्पमत्ता समाना न यथाकामकरणीया अहेसुं मारस्स अमुस्मिं निवापे अमुस्मिञ्च लोकामिसे . अपि च खो एवंदिट्ठिका अहेसुं – सस्सतो लोको इतिपि, असस्सतो लोको इतिपि; अन्तवा लोको इतिपि, अनन्तवा लोको इतिपि; तं जीवं तं सरीरं इतिपि, अञ्ञं जीवं अञ्ञं सरीरं इतिपि; होति तथागतो परं मरणा इतिपि, न होति तथागतो परं मरणा इतिपि, होति च न च होति तथागतो परं मरणा इतिपि, नेव होति न न होति तथागतो परं मरणा इतिपि . एवञ्हि ते, भिक्खवे, ततियापि समणब्राह्मणा न परिमुच्चिंसु मारस्स इद्धानुभावा. सेय्यथापि ते, भिक्खवे, ततिया मिगजाता तथूपमे अहं इमे ततिये समणब्राह्मणे वदामि.
२७०. ‘‘तत्र, भिक्खवे, चतुत्था समणब्राह्मणा एवं समचिन्तेसुं – ‘ये खो ते पठमा समणब्राह्मणा अमुं निवापं निवुत्तं मारस्स…पे…. एवञ्हि ते पठमा समणब्राह्मणा न परिमुच्चिंसु मारस्स इद्धानुभावा. येपि ते दुतिया समणब्राह्मणा एवं समचिन्तेसुं – ‘ये खो ते पठमा समणब्राह्मणा…पे…. एवञ्हि ते पठमा समणब्राह्मणा न परिमुच्चिंसु मारस्स इद्धानुभावा. यंनून मयं सब्बसो निवापभोजना लोकामिसा पटिविरमेय्याम भयभोगा पटिविरता अरञ्ञायतनानि अज्झोगाहेत्वा विहरेय्यामा’ति. ते सब्बसो निवापभोजना लोकामिसा पटिविरमिंसु…पे…. एवञ्हि ते दुतियापि समणब्राह्मणा न परिमुच्चिंसु मारस्स इद्धानुभावा. येपि ते ततिया समणब्राह्मणा एवं समचिन्तेसुं ये खो ते पठमा समणब्राह्मणा …पे…. एवञ्हि ते पठमा समणब्राह्मणा न परिमुच्चिंसु मारस्स इद्धानुभावा. येपि ते दुतिया समणब्राह्मणा एवं समचिन्तेसुं ये खो ते पठमा समणब्राह्मणा…पे…. एवञ्हि ते पठमा समणब्राह्मणा न परिमुच्चिंसु मारस्स इद्धानुभावा. यंनून मयं सब्बसो निवापभोजना लोकामिसा पटिविरमेय्याम, भयभोगा पटिविरता अरञ्ञायतनानि अज्झोगाहेत्वा विहरेय्यामा’ति. ते सब्बसो निवापभोजना लोकामिसा पटिविरमिंसु…पे…. एवञ्हि ते दुतियापि समणब्राह्मणा न परिमुच्चिंसु मारस्स इद्धानुभावा. यंनून मयं अमुं निवापं निवुत्तं मारस्स अमूनि च लोकामिसानि उपनिस्साय आसयं कप्पेय्याम. तत्रासयं कप्पेत्वा अमुं निवापं निवुत्तं मारस्स अमूनि च लोकामिसानि अननुपखज्ज अमुच्छिता भोजनानि भुञ्जिस्साम, अननुपखज्ज अमुच्छिता भोजनानि भुञ्जमाना न मदं आपज्जिस्साम, अमत्ता समाना न पमादं आपज्जिस्साम, अप्पमत्ता समाना न यथाकामकरणीया भविस्साम मारस्स अमुस्मिं निवापे अमुस्मिञ्च लोकामिसेति.
‘‘ते अमुं निवापं निवुत्तं मारस्स अमूनि च लोकामिसानि उपनिस्साय आसयं कप्पयिंसु. तत्रासयं कप्पेत्वा अमुं निवापं निवुत्तं मारस्स अमूनि च लोकामिसानि अननुपखज्ज अमुच्छिता भोजनानि भुञ्जिंसु. ते तत्थ अननुपखज्ज अमुच्छिता भोजनानि भुञ्जमाना न मदं आपज्जिंसु. अमत्ता समाना न पमादं आपज्जिंसु. अप्पमत्ता समाना न यथाकामकरणीया अहेसुं मारस्स अमुस्मिं निवापे अमुस्मिञ्च लोकामिसे. अपि च खो एवंदिट्ठिका अहेसुं सस्सतो लोको इतिपि…पे… नेव होति न न होति तथागतो परं मरणा इतिपि. एवञ्हि ते ततियापि समणब्राह्मणा न परिमुच्चिंसु मारस्स इद्धानुभावा. यंनून मयं यत्थ अगति मारस्स च मारपरिसाय च तत्रासयं कप्पेयाम. तत्रासयं कप्पेत्वा अमुं निवापं निवुत्तं मारस्स अमूनि च लोकामिसानि अननुपखज्ज अमुच्छिता भोजनानि भुञ्जिस्साम, अननुपखज्ज अमुच्छिता भोजनानि भुञ्जमाना न मदं आपज्जिस्साम, अमत्ता समाना न पमादं आपज्जिस्साम, अप्पमत्ता समाना न यथाकामकरणीया भविस्साम मारस्स अमुस्मिं निवापे अमुस्मिञ्च लोकामिसेति.
‘‘ते यत्थ अगति मारस्स च मारपरिसाय च तत्रासयं कप्पयिंसु. तत्रासयं कप्पेत्वा अमुं निवापं निवुत्तं मारस्स अमूनि च लोकामिसानि अननुपखज्ज अमुच्छिता भोजनानि भुञ्जिंसु, ते तत्थ अननुपखज्ज अमुच्छिता भोजनानि भुञ्जमाना न मदं आपज्जिंसु, अमत्ता समाना न पमादं आपज्जिंसु, अप्पमत्ता समाना न यथाकामकरणीया अहेसुं मारस्स अमुस्मिं निवापे अमुस्मिञ्च लोकामिसे. एवञ्हि ते, भिक्खवे, चतुत्था समणब्राह्मणा परिमुच्चिंसु मारस्स इद्धानुभावा. सेय्यथापि ते, भिक्खवे, चतुत्था मिगजाता तथूपमे अहं इमे चतुत्थे समणब्राह्मणे वदामि.
२७१. ‘‘कथञ्च, भिक्खवे, अगति मारस्स च मारपरिसाय च? इध, भिक्खवे, भिक्खु विविच्चेव कामेहि विविच्च अकुसलेहि धम्मेहि सवितक्कं सविचारं विवेकजं पीतिसुखं पठमं झानं उपसम्पज्ज विहरति. अयं वुच्चति, भिक्खवे, भिक्खु अन्धमकासि मारं, अपदं वधित्वा मारचक्खुं अदस्सनं गतो पापिमतो.
‘‘पुन चपरं, भिक्खवे, भिक्खु वितक्कविचारानं वूपसमा अज्झत्तं सम्पसादनं चेतसो एकोदिभावं अवितक्कं अविचारं समाधिजं पीतिसुखं दुतियं झानं उपसम्पज्ज विहरति. अयं वुच्चति, भिक्खवे…पे… पापिमतो.
‘‘पुन चपरं, भिक्खवे, भिक्खु पीतिया च विरागा उपेक्खको च विहरति सतो च सम्पजानो, सुखञ्च कायेन पटिसंवेदेति यं तं अरिया आचिक्खन्ति ‘उपेक्खको सतिमा सुखविहारी’ति ततियं झानं उपसम्पज्ज विहरति. अयं वुच्चति, भिक्खवे…पे… पापिमतो.
‘‘पुन चपरं, भिक्खवे, भिक्खु सुखस्स च पहाना दुक्खस्स च पहाना, पुब्बेव सोमनस्सदोमनस्सानं अत्थङ्गमा, अदुक्खमसुखं उपेक्खासतिपारिसुद्धिं चतुत्थं झानं उपसम्पज्ज विहरति. अयं वुच्चति, भिक्खवे…पे… पापिमतो.
‘‘पुन चपरं, भिक्खवे, भिक्खु सब्बसो रूपसञ्ञानं समतिक्कमा पटिघसञ्ञानं अत्थङ्गमा नानत्तसञ्ञानं अमनसिकारा ‘अनन्तो आकासो’ति आकासानञ्चायतनं उपसम्पज्ज विहरति. अयं वुच्चति, भिक्खवे…पे… पापिमतो.
‘‘पुन चपरं, भिक्खवे, भिक्खु सब्बसो आकासानञ्चायतनं समतिक्कम्म ‘अनन्तं विञ्ञाण’न्ति विञ्ञाणञ्चायतनं उपसम्पज्ज विहरति. अयं वुच्चति, भिक्खवे…पे… पापिमतो.
‘‘पुन चपरं, भिक्खवे, भिक्खु सब्बसो विञ्ञाणञ्चायतनं समतिक्कम्म ‘नत्थि किञ्ची’ति आकिञ्चञ्ञायतनं उपसम्पज्ज विहरति. अयं वुच्चति, भिक्खवे…पे… पापिमतो.
‘‘पुन चपरं, भिक्खवे, भिक्खु सब्बसो आकिञ्चञ्ञायतनं समतिक्कम्म नेवसञ्ञानासञ्ञायतनं उपसम्पज्ज विहरति. अयं वुच्चति, भिक्खवे…पे… पापिमतो.
‘‘पुन चपरं, भिक्खवे, भिक्खु सब्बसो नेवसञ्ञानासञ्ञायतनं समतिक्कम्म सञ्ञावेदयितनिरोधं उपसम्पज्ज विहरति. पञ्ञाय चस्स दिस्वा आसवा परिक्खीणा होन्ति. अयं वुच्चति, भिक्खवे, भिक्खु अन्धमकासि मारं, अपदं वधित्वा मारचक्खुं अदस्सनं गतो पापिमतो तिण्णो लोके विसत्तिक’’न्ति.
इदमवोच भगवा. अत्तमना ते भिक्खू भगवतो भासितं अभिनन्दुन्ति.
निवापसुत्तं निट्ठितं पञ्चमं.