नमो तस्स भगवतो अरहतो सम्मा-सम्बुद्धस्स

📜 एक आर्य खोज

सूत्र परिचय

यह सूत्र पाली साहित्य में दो नाम से जाना जाता है, कहीं “आर्य खोज”, तो कहीं “फंदों का ढेर” के रूप में। चीनी समानांतर सूत्र (मध्यमागम २०४) में इसे “राम के आश्रम में उपदेश” कहा गया है। यह मज्झिम निकाय के उन कुछ प्रवचनों में से है जिनमें सिद्धार्थ के संबोधि-पूर्व साधना जीवन का आंशिक वर्णन मिलता है। इस संस्करण में मुख्यतः ब्राह्मण आचार्यों के साथ उनके अनुभव का वर्णन है, जबकि अन्य सूत्रों (जैसे मज्झिमनिकाय ३६, ८५, १००) में जैन साधकों जैसी आत्मपीड़ा की तपस्याओं का विस्तार से वर्णन है।

कुछ विद्वानों का मानना है कि यह सूत्र बुद्ध के आत्मकथात्मक वर्णनों में सबसे प्राचीन है। इसी आधार पर वे कहते हैं कि क्योंकि इसमें चार आर्यसत्यों का न तो बोध के समय उल्लेख है और न ही पहले शिष्यों को उपदेश देते समय, इसलिए चार आर्यसत्य बाद में जोड़े गए होंगे।

लेकिन इस तर्क को मानने का कोई ठोस कारण नहीं है। सबसे पहले, इस सूत्र में बोधिसत्व की तपस्याओं का वर्णन नहीं है, न ही पंचवर्गीय भिक्षुओं की चर्चा है जो पहले उनकी सेवा करते थे और कठोर तप त्यागने पर उन्हें छोड़ गए थे। फिर भी, सूत्र के अंत में इन घटनाओं की ओर संकेत है, मानो श्रोता पहले से उन्हें जानते हों। इसका अर्थ यह हुआ कि वे सूत्र (जैसे, मज्झिमनिकाय ३६), जो इन घटनाओं को स्पष्ट रूप से बताते हैं, संभवतः अधिक प्राचीन हैं।

दूसरी बात, चार आर्यसत्यों का उल्लेख न होना यह सिद्ध नहीं करता कि वे बुद्ध की संबोधि या उनके पहले उपदेश (धम्मचक्कपवत्तन सुत्त) में शामिल नहीं थे। यह सूत्र भी बुद्ध की आत्मकथा के अन्य वर्णनों की तरह किसी विशेष शिक्षा को उजागर करने के लिए रचा गया है। यहां आर्य खोज और अनार्य खोज के बीच का भेद समझाया गया है। पूरी कथा इसी दृष्टि से बुनी गई है — अजन्म, अरोग, अजीर्ण, अमृत, अशोक, अक्लेश, योगबन्धन से सर्वोपरि राहत, निर्वाण की खोज।

यदि यह सूत्र चार आर्यसत्यों पर केंद्रित होता, तो उनका ज़िक्र अवश्य होता। इसलिए, यह मानने का कोई आधार नहीं कि चार आर्यसत्य बाद की शिक्षा हैं। फिर भी, यह सूत्र धर्म के कई गहरे पाठ देता है और बुद्ध के जीवन की कुछ घटनाएं बताता है जो अन्यत्र नहीं मिलतीं।

✦ ॥ नमो तस्स भगवतो अरहतो सम्मासम्बुद्धस्स ॥ ✦

Hindi

ऐसा मैंने सुना — एक समय भगवान श्रावस्ती में अनाथपिण्डक के जेतवन उद्यान में विहार कर रहे थे। तब सुबह होने पर भगवान ने पात्र और चीवर लिया और श्रावस्ती में भिक्षाटन के लिए प्रवेश किया।

तब बहुत से भिक्षुगण आयुष्मान आनन्द के पास गए, और जाकर आयुष्मान आनन्द से कहा, “मित्र आनन्द, भगवान के मुख से धर्मकथा सुने बहुत समय बीत गया। अच्छा होगा, मित्र आनन्द, जो हमें भगवान के मुख से धर्मकथा सुनने का लाभ मिलें।”

“ठीक है, आयुष्मानों, रम्मक ब्राह्मण के आश्रम में जाओ। शायद वहाँ तुम्हें भगवान के मुख से धर्मकथा सुनने को मिलें।”

“ठीक है, मित्र।” भिक्षुओं ने आयुष्मान आनन्द को उत्तर दिया।

तब भगवान ने श्रावस्ती में भिक्षाटन कर, भोजन करने के पश्चात, लौटकर आयुष्मान आनन्द को संबोधित किया, “आओ, आनन्द, दिन बिताने के लिए मिगारमाता के विहार पूर्वाराम 1 जाएँ।”

“ठीक है, भंते!” आयुष्मान आनन्द ने भगवान को उत्तर दिया। तब भगवान दिन बिताने के लिए आयुष्मान आनन्द के साथ मिगारमाता के विहार पूर्वाराम गए।

सायंकाल होने पर भगवान एकांतवास से निकले, और आयुष्मान आनन्द को संबोधित किया, “आओ, आनन्द, नहाने के लिए पूर्वी द्वार की ओर जाएँ।”

“ठीक है, भंते!” आयुष्मान आनन्द ने भगवान को उत्तर दिया। तब भगवान नहाने के लिए आयुष्मान आनन्द के साथ पूर्वी द्वार की ओर गए। पूर्वी द्वार जाकर नहाने पर, जल से निकल कर, वे अपने अंगों को सुखाते हुए एक चीवर (अंतर्वास) में खड़े हुए।

तब आयुष्मान आनन्द ने भगवान से कहा, “भंते, रम्मक ब्राह्मण का आश्रम यहाँ से दूर नहीं है। रम्मक ब्राह्मण का आश्रम रमणीय है, भंते। रम्मक ब्राह्मण का आश्रम सुहाना है, भंते। अच्छा होगा, भंते, जो भगवान रम्मक ब्राह्मण के आश्रम चलने की कृपा करें।”

भगवान ने मौन रहकर स्वीकृति दी। तब भगवान रम्मक ब्राह्मण के आश्रम गए।

उस समय रम्मक ब्राह्मण के आश्रम में बहुत से भिक्षुगण साथ बैठकर धर्मचर्चा कर रहे थे। तब भगवान बाहरी द्वार पर खड़े होकर उनकी चर्चा रुकने का इंतजार करने लगे। अंततः जब भगवान ने जाना कि चर्चा रुक गयी, तब उन्होंने खाँस कर द्वार खटखटाया। भिक्षुओं ने भगवान के लिए द्वार खोला। भगवान रम्मक ब्राह्मण के आश्रम में प्रवेश कर बिछे आसन पर बैठ गए। भगवान ने बैठकर भिक्षुओं को संबोधित किया, “भिक्षुओं, आप बैठ कर क्या चर्चा कर रहे थे? कौन सी बात बीच में अधूरी रह गयी?”

“भंते, हम स्वयं भगवान के ऊपर ही धर्मचर्चा कर रहे थे। वही बात बीच में अधूरी रह गयी।”

“बहुत अच्छा, भिक्षुओं। यही उचित है कि तुम जैसे कुलपुत्र, जो श्रद्धा से घर से बेघर होकर प्रवज्ज्यित हुए हो, वे साथ बैठकर धर्म-चर्चा करें। जब तुम आपस में साथ बैठते हो, भिक्षुओं, तुम्हारे दो कर्तव्य हैं — धर्म चर्चा, अथवा आर्य मौन।” 2

खोज

भिक्षुओं, दो तरह की खोज होती है — आर्य खोज, और अनार्य खोज।

अनार्य खोज क्या है, भिक्षुओं?

कोई व्यक्ति होता है, भिक्षुओं, जो —

  • स्वयं जन्म स्वभाव वाला होकर, (किसी) जन्म स्वभाव वाले की ही खोज करता है।
  • स्वयं बुढ़ापा स्वभाव वाला होकर, बुढ़ापा स्वभाव वाले की ही खोज करता है।
  • स्वयं रोग स्वभाव वाला होकर, रोग स्वभाव वाले की ही खोज करता है।
  • स्वयं मरण स्वभाव वाला होकर, मरण स्वभाव वाले की ही खोज करता है।
  • स्वयं शोक स्वभाव वाला होकर, शोक स्वभाव वाले की ही खोज करता है।
  • स्वयं दूषित (“सङ्किलेस”) स्वभाव वाला होकर, दूषित स्वभाव वाले की ही खोज करता है।

भिक्षुओं, जन्म स्वभाव वाला किसे कहते हैं?

संतान और पत्नी (या पति), भिक्षुओं, जन्म स्वभाव वाले हैं। दासी और दास जन्म स्वभाव वाले हैं। भेड़ और बकरियाँ जन्म स्वभाव वाले हैं। मुर्गी और सुवर जन्म स्वभाव वाले हैं। हाथी, गाय और बैल जन्म स्वभाव वाले हैं। स्वर्ण और रुपया जन्म स्वभाव वाले हैं। ये आसक्तियाँ, भिक्षुओं, जन्म स्वभाव वाली हैं। जो भी व्यक्ति इनसे बंधा हो, मदहोश हो, इनमें ही पड़ा हो, वह स्वयं जन्म स्वभाव वाला होकर, जन्म स्वभाव वाले की ही खोज में है।

और, भिक्षुओं, बुढ़ापा स्वभाव वाला किसे कहते हैं?

संतान और पत्नी (या पति), भिक्षुओं, बुढ़ापा स्वभाव वाले हैं। दासी और दास बुढ़ापा स्वभाव वाले हैं। भेड़ और बकरियाँ बुढ़ापा स्वभाव वाले हैं। मुर्गी और सुवर बुढ़ापा स्वभाव वाले हैं। हाथी, गाय और बैल बुढ़ापा स्वभाव वाले हैं। स्वर्ण और रुपया बुढ़ापा स्वभाव वाले हैं। ये आसक्तियाँ, भिक्षुओं, बुढ़ापा स्वभाव वाली हैं। जो भी व्यक्ति इनसे बंधा हो, मदहोश हो, इनमें ही पड़ा हो, वह स्वयं बुढ़ापा स्वभाव वाला होकर, बुढ़ापा स्वभाव वाले की ही खोज में है।

और, भिक्षुओं, रोग स्वभाव वाला किसे कहते हैं?

संतान और पत्नी (या पति), भिक्षुओं, रोग स्वभाव वाले हैं। दासी और दास रोग स्वभाव वाले हैं। भेड़ और बकरियाँ रोग स्वभाव वाले हैं। मुर्गी और सुवर रोग स्वभाव वाले हैं। हाथी, गाय और बैल रोग स्वभाव वाले हैं। ये आसक्तियाँ, भिक्षुओं, रोग स्वभाव वाली हैं। जो भी व्यक्ति इनसे बंधा हो, मदहोश हो, इनमें ही पड़ा हो, वह स्वयं रोग स्वभाव वाला होकर, रोग स्वभाव वाले की ही खोज में है।

और, भिक्षुओं, मरण स्वभाव वाला किसे कहते हैं?

संतान और पत्नी (या पति), भिक्षुओं, मरण स्वभाव वाले हैं। दासी और दास मरण स्वभाव वाले हैं। भेड़ और बकरियाँ मरण स्वभाव वाले हैं। मुर्गी और सुवर मरण स्वभाव वाले हैं। हाथी, गाय और बैल मरण स्वभाव वाले हैं। ये आसक्तियाँ, भिक्षुओं, मरण स्वभाव वाली हैं। जो भी व्यक्ति इनसे बंधा हो, मदहोश हो, इनमें ही पड़ा हो, वह स्वयं मरण स्वभाव वाला होकर, मरण स्वभाव वाले की ही खोज में है।

और, भिक्षुओं, शोक स्वभाव वाला किसे कहते हैं?

संतान और पत्नी (या पति), भिक्षुओं, शोक स्वभाव वाले हैं। दासी और दास शोक स्वभाव वाले हैं। भेड़ और बकरियाँ शोक स्वभाव वाले हैं। मुर्गी और सुवर शोक स्वभाव वाले हैं। हाथी, गाय और बैल शोक स्वभाव वाले हैं। ये आसक्तियाँ, भिक्षुओं, शोक स्वभाव वाली हैं। जो भी व्यक्ति इनसे बंधा हो, मदहोश हो, इनमें ही पड़ा हो, वह स्वयं शोक स्वभाव वाला होकर, शोक स्वभाव वाले की ही खोज में है।

और, भिक्षुओं, दूषित स्वभाव वाला किसे कहते हैं?

संतान और पत्नी (या पति), भिक्षुओं, दूषित स्वभाव वाले हैं। दासी और दास दूषित स्वभाव वाले हैं। भेड़ और बकरियाँ दूषित स्वभाव वाले हैं। मुर्गी और सुवर दूषित स्वभाव वाले हैं। हाथी, गाय और बैल दूषित स्वभाव वाले हैं। स्वर्ण और रुपया दूषित स्वभाव वाले हैं। ये आसक्तियाँ, भिक्षुओं, दूषित स्वभाव वाली हैं। जो भी व्यक्ति इनसे बंधा हो, मदहोश हो, इनमें ही पड़ा हो, वह स्वयं दूषित स्वभाव वाला होकर, दूषित स्वभाव वाले की ही खोज में है।

— इसे कहते हैं, भिक्षुओं, अनार्य खोज।


और, आर्य खोज क्या है, भिक्षुओं?

कोई व्यक्ति होता है, भिक्षुओं, जो —

  • स्वयं जन्म स्वभाव वाला होने पर, (किसी) जन्म स्वभाव वाले में ख़ामी जान कर, अजन्म, योगबन्धन से अनुत्तर राहत, निर्वाण की खोज करता है।
  • स्वयं बुढ़ापा (=जीर्ण) स्वभाव वाला होने पर, बुढ़ापा स्वभाव वाले में ख़ामी जान कर, अजर (=जीर्ण न होने वाला), योगबन्धन से अनुत्तर राहत, निर्वाण की खोज करता है।
  • स्वयं रोग स्वभाव वाला होने पर, रोग स्वभाव वाले में ख़ामी जान कर, अरोग, योगबन्धन से अनुत्तर राहत, निर्वाण की खोज करता है।
  • स्वयं मरण स्वभाव वाला होने पर, मरण स्वभाव वाले में ख़ामी जान कर, अमर, योगबन्धन से अनुत्तर राहत, निर्वाण की खोज करता है।
  • स्वयं शोक स्वभाव वाला होने पर, शोक स्वभाव वाले में ख़ामी जान कर, अशोक, योगबन्धन से अनुत्तर राहत, निर्वाण की खोज करता है।
  • स्वयं दूषित स्वभाव वाला होने पर, दूषित स्वभाव वाले में ख़ामी जान कर, निर्दोष, योगबन्धन से अनुत्तर राहत, निर्वाण की खोज करता है।

— इसे कहते हैं, भिक्षुओं, आर्य खोज।

बोधिसत्व की खोज

मैं भी, भिक्षुओं, जब संबोधि से पहले केवल एक अजागृत बोधिसत्व था, मैं भी —

  • स्वयं जन्म स्वभाव वाला होकर, (किसी) जन्म स्वभाव वाले को ही खोजता था।
  • स्वयं बुढ़ापा स्वभाव वाला होकर, बुढ़ापा स्वभाव वाले को ही खोजता था।
  • स्वयं रोग स्वभाव वाला होकर, रोग स्वभाव वाले को ही खोजता था।
  • स्वयं मरण स्वभाव वाला होकर, मरण स्वभाव वाले को ही खोजता था।
  • स्वयं शोक स्वभाव वाला होकर, शोक स्वभाव वाले को ही खोजता था।
  • स्वयं दूषित स्वभाव वाला होकर, दूषित स्वभाव वाले को ही खोजता था।

तब, भिक्षुओं, मुझे लगा, “क्यों मैं स्वयं जन्म… बुढ़ापा… रोग… मरण… शोक… दूषित स्वभाव वाला होकर, (किसी) जन्म… बुढ़ापा… रोग… मरण… शोक… दूषित स्वभाव वाले को ही खोजता हूँ?

क्यों न मैं स्वयं जन्म स्वभाव वाला होने पर, अब जन्म स्वभाव वाले में ख़ामी जान कर, अजन्म, योगबन्धन से अनुत्तर राहत, निर्वाण की खोज करूँ? क्यों न मैं स्वयं बुढ़ापा… रोग… मरण… शोक… दूषित स्वभाव वाला होने पर, अब उनमें ख़ामी जान कर, अजर… अरोग… अमर… अशोक… निर्दोष, योगबन्धन से अनुत्तर राहत, निर्वाण की खोज करूँ?”

तब कुछ समय बीतने पर, भिक्षुओं, जब मैं युवा ही था — घने काले केश वाला, यौवन वरदान से युक्त, जीवन के प्रथम चरण में — तब मैंने अपने माता-पिता के इच्छा विरुद्ध, उन्हें आँसू भरे चेहरे से रोते-बिलखते छोड़ कर, सिर और दाढ़ी मुंडवा कर, काषाय वस्त्र धारण कर, घर से बेघर होकर प्रवज्ज्यित हुआ।

प्रथम गुरु

इस तरह प्रवज्ज्यित होकर — कुशलता की खोज में, अनुत्तर शांति की अद्वितीय अवस्था की खोज में — मैं उदक रामपुत्त के पास गया। और जाकर, उदक रामपुत्त से कहा, ‘मित्र कालाम, मुझे इस धर्म-विनय में ब्रह्मचर्य पालन करने की इच्छा है।’

ऐसा कहे जाने पर, भिक्षुओं, उदक रामपुत्त ने कहा, ‘यहीं रहिए, आयुष्मान। यह ऐसा धर्म है कि कोई समझदार पुरुष जल्द ही अपने आचार्य के ज्ञान का स्वयं प्रत्यक्ष साक्षात्कार कर विहार कर सकता है।’

तब, भिक्षुओं, बहुत समय नहीं बीता, जल्द ही मैंने उस धर्म का अध्ययन कर लिया। जहाँ तक होठों से पठन और रटकर दोहराने की बात थी, मैं और दूसरे भी ऐसे ज्ञान के सिद्धान्त (ञाणवाद), और वरिष्ठों के सिद्धान्त (“थेरवाद”) को ‘जानता हूँ, देखता हूँ’ का दावा करते थे।

किन्तु, भिक्षुओं, तब मुझे लगा, ‘यह उदक रामपुत्त इस धर्म के प्रति केवल श्रद्धा मात्र से ही प्रत्यक्ष ज्ञान से साक्षात्कार कर विहार करने की घोषणा नहीं करता। अवश्य ही उदक रामपुत्त वाकई इस धर्म को जानते हुए और देखते हुए विहार करता है।’

तब, भिक्षुओं, मैं उदक रामपुत्त के पास गया, और जाकर उदक रामपुत्त से कहा, ‘मित्र कालाम, तुम इस धर्म में कहाँ तक प्रत्यक्ष ज्ञान से साक्षात्कार कर विहार कर घोषणा करते हो?’

ऐसा कहे जाने पर, भिक्षुओं, उदक रामपुत्त ने ‘सूने आयाम’ की घोषणा की।

तब, भिक्षुओं, मुझे लगा, ‘केवल उदक रामपुत्त में ही श्रद्धा नहीं, मुझमें भी श्रद्धा है। केवल उदक रामपुत्त में ही ऊर्जा नहीं, मुझमें भी ऊर्जा है। केवल उदक रामपुत्त में ही स्मृति नहीं, मुझमें भी स्मृति है। केवल उदक रामपुत्त में ही समाधि नहीं, मुझमें भी समाधि है। केवल उदक रामपुत्त में ही प्रज्ञा नहीं, मुझमें भी प्रज्ञा है। क्यों न मैं भी उस धर्म का साक्षात्कार करने का प्रयास करूँ, जिस धर्म को उदक रामपुत्त प्रत्यक्ष ज्ञान से साक्षात्कार कर विहार करने की घोषणा करता है।’

और, भिक्षुओं, बहुत समय नहीं बीता, जल्द ही मैंने उस धर्म का प्रत्यक्ष ज्ञान से साक्षात्कार कर विहार करने लगा। तब, भिक्षुओं, मैं उदक रामपुत्त के पास गया, और जाकर उदक रामपुत्त से कहा, ‘मित्र कालाम, क्या तुम इस धर्म में यहाँ-यहाँ तक प्रत्यक्ष ज्ञान से साक्षात्कार कर विहार करने की घोषणा करते हो? मैं भी, मित्र कालाम, इस धर्म में यहाँ-यहाँ तक प्रत्यक्ष ज्ञान से साक्षात्कार कर विहार करने की घोषणा करता हूँ।’

‘हम भाग्यशाली हैं, मित्र! हम सौभाग्यशाली हैं, मित्र! जो मैंने तुम जैसे आयुष्मान सब्रह्मचारी को देखा! जिस तरह मैं इस धर्म में प्रत्यक्ष ज्ञान से साक्षात्कार कर विहार करने की घोषणा करता हूँ, उसी तरह तुम भी इस धर्म में प्रत्यक्ष ज्ञान से साक्षात्कार कर विहार करने की घोषणा करते हो। मैं इस धर्म को जिस तरह जानता हूँ, तुम भी उस धर्म को उसी तरह जानते हो। तुम इस धर्म को जिस तरह जानते हो, मैं भी उस धर्म को उसी तरह जानता हूँ। जैसा मैं हूँ, वैसे ही तुम हो। और जैसे तुम हो, वैसा ही मैं हूँ। आओ, मेरे मित्र, हम दोनों अब इस समुदाय को चलाएँ।’

इस तरह, भिक्षुओं, मेरे आचार्य उदक रामपुत्त ने मुझे, अपने शिष्य को, अपने स्वयं के स्तर पर रखा और अत्याधिक सम्मानित करते हुए पूजा।

किन्तु, भिक्षुओं, मुझे लगा, ‘यह धर्म न मोहभंग, न विराग, न निरोध, न प्रशांति, न प्रत्यक्ष ज्ञान, न संबोधि, और न ही निर्वाण की ओर ले जाता है। बल्कि वह केवल ‘सूने आयाम में पुनरुत्पत्ति’ की ओर ले जाता है।’ इस तरह, भिक्षुओं, उस धर्म को अनुपयुक्त पाकर, उस धर्म से मोहभंग होने पर, मैं चला गया।

द्वितीय गुरु

इस तरह, कुशलता की खोज में, अनुत्तर शांति की अद्वितीय अवस्था की खोज में — मैं उदक रामपुत्त के पास गया। और जाकर, उदक रामपुत्त से कहा, ‘मित्र राम, मुझे इस धर्म-विनय में ब्रह्मचर्य पालन करने की इच्छा है।’

ऐसा कहे जाने पर, भिक्षुओं, उदक रामपुत्त ने कहा, ‘यहीं रहिए, आयुष्मान। यह ऐसा धर्म है कि कोई समझदार पुरुष जल्द ही अपने आचार्य के ज्ञान का स्वयं प्रत्यक्ष साक्षात्कार कर विहार कर सकता है।’

तब, भिक्षुओं, बहुत समय नहीं बीता, जल्द ही मैंने उस धर्म का अध्ययन कर लिया। जहाँ तक होठों से पठन और रटकर दोहराने की बात थी, मैं और दूसरे भी ऐसे ज्ञान के सिद्धान्त, और वरिष्ठों के सिद्धान्त को ‘जानता हूँ, देखता हूँ’ का दावा करते थे।

किन्तु, भिक्षुओं, तब मुझे लगा, ‘यह उदक रामपुत्त इस धर्म के प्रति केवल श्रद्धा मात्र से ही प्रत्यक्ष ज्ञान से साक्षात्कार कर विहार करने की घोषणा नहीं करता। अवश्य ही उदक रामपुत्त वाकई इस धर्म को जानते हुए और देखते हुए विहार करता है।’

तब, भिक्षुओं, मैं उदक रामपुत्त के पास गया, और जाकर उदक रामपुत्त से कहा, ‘मित्र राम, तुम इस धर्म में कहाँ तक प्रत्यक्ष ज्ञान से साक्षात्कार कर विहार कर घोषणा करते हो?’

ऐसा कहे जाने पर, भिक्षुओं, उदक रामपुत्त ने ‘न संज्ञा न ही असंज्ञा आयाम’ की घोषणा की।

तब, भिक्षुओं, मुझे लगा, ‘केवल उदक रामपुत्त में ही श्रद्धा नहीं, मुझमें भी श्रद्धा है। केवल उदक रामपुत्त में ही ऊर्जा नहीं, मुझमें भी ऊर्जा है। केवल उदक रामपुत्त में ही स्मृति नहीं, मुझमें भी स्मृति है। केवल उदक रामपुत्त में ही समाधि नहीं, मुझमें भी समाधि है। केवल उदक रामपुत्त में ही प्रज्ञा नहीं, मुझमें भी प्रज्ञा है। क्यों न मैं भी उस धर्म का साक्षात्कार करने का प्रयास करूँ, जिस धर्म को उदक रामपुत्त प्रत्यक्ष ज्ञान से साक्षात्कार कर विहार करने की घोषणा करता है।’

और, भिक्षुओं, बहुत समय नहीं बीता, जल्द ही मैंने उस धर्म का प्रत्यक्ष ज्ञान से साक्षात्कार कर विहार करने लगा। तब, भिक्षुओं, मैं उदक रामपुत्त के पास गया, और जाकर उदक रामपुत्त से कहा, ‘मित्र राम, क्या तुम इस धर्म में यहाँ-यहाँ तक प्रत्यक्ष ज्ञान से साक्षात्कार कर विहार करने की घोषणा करते हो? मैं भी, मित्र राम, इस धर्म में यहाँ-यहाँ तक प्रत्यक्ष ज्ञान से साक्षात्कार कर विहार करने की घोषणा करता हूँ।’

‘हम भाग्यशाली हैं, मित्र! हम सौभाग्यशाली हैं, मित्र! जो मैंने तुम जैसे आयुष्मान सब्रह्मचारी को देखा! जिस तरह मैं इस धर्म में प्रत्यक्ष ज्ञान से साक्षात्कार कर विहार करने की घोषणा करता हूँ, उसी तरह तुम भी इस धर्म में प्रत्यक्ष ज्ञान से साक्षात्कार कर विहार करने की घोषणा करते हो। मैं इस धर्म को जिस तरह जानता हूँ, तुम भी उस धर्म को उसी तरह जानते हो। तुम इस धर्म को जिस तरह जानते हो, मैं भी उस धर्म को उसी तरह जानता हूँ। जैसा मैं हूँ, वैसे ही तुम हो। और जैसे तुम हो, वैसा ही मैं हूँ। आओ, मेरे मित्र, हम दोनों अब इस समुदाय को चलाएँ।’

इस तरह, भिक्षुओं, मेरे आचार्य उदक रामपुत्त ने मुझे, अपने शिष्य को, अपने स्वयं के स्तर पर रखा और अत्याधिक सम्मानित करते हुए पूजा।

किन्तु, भिक्षुओं, मुझे लगा, ‘यह धर्म न मोहभंग, न विराग, न निरोध, न प्रशांति, न प्रत्यक्ष ज्ञान, न संबोधि, और न ही निर्वाण की ओर ले जाता है। बल्कि वह केवल ‘न संज्ञा न ही असंज्ञा आयाम में पुनरुत्पत्ति’ की ओर ले जाता है।’ इस तरह, भिक्षुओं, उस धर्म को अनुपयुक्त पाकर, उस धर्म से मोहभंग होने पर, मैं चला गया।

स्वयं खोजना

इस तरह, कुशलता की खोज में, अनुत्तर शांति की अद्वितीय अवस्था की खोज में, मगध देश में अनुक्रम से भ्रमण करते हुए — मैं उरुवेला सैन्य नगर में पहुँचा। वहाँ मुझे रमणीय क्षेत्र देखा, जहाँ एक प्रेरणादायी जंगली इलाका, रमणीय और स्वच्छ किनारों वाली (नेरञ्जरा) नदी बहती थी, और भिक्षाटन के लिए सभी ओर गाँव बसे थे।

तब, भिक्षुओं, मुझे लगा, ‘यहाँ, श्रीमान, अच्छा रमणीय क्षेत्र है, एक प्रेरणादायी जंगली इलाका, रमणीय और स्वच्छ किनारों वाली नदी बहती है, और भिक्षाटन के लिए सभी ओर गाँव बसे हैं। किसी कुलपुत्र के उद्यम करने के ध्येय से यह बिलकुल ठीक है।’

तब, भिक्षुओं, मैं बस वहीं बैठ गया — ‘यहीं उद्यम करने के लिए ठीक है।’

और, तब भिक्षुओं, मैं स्वयं जन्म स्वभाव वाला, जन्म स्वभाव में ख़ामी जानकर, अजन्म, योगबन्धन से अनुत्तर राहत, निर्वाण की खोज करते हुए, मैंने उस अजन्मे, योगबन्धन से अनुत्तर राहत, निर्वाण को प्राप्त किया। मैं स्वयं बुढ़ापा… रोग… मरण… शोक… दूषित स्वभाव वाला, उन स्वभावों में ख़ामी जानकर, अजर… अरोग… अमर… अशोक… निर्दोष, योगबन्धन से अनुत्तर राहत, निर्वाण की खोज करते हुए, मैंने उस अजर… अरोग… अमर… अशोक… निर्दोष, योगबन्धन से अनुत्तर राहत, निर्वाण को प्राप्त किया।

मुझमें ज्ञान और दर्शन उत्पन्न हुआ — ‘मेरी विमुक्ति अविचल 3 है! यह मेरा अंतिम जन्म है! अब पुनर्भव नहीं होगा!’

धर्म सिखाने की याचना

तब, भिक्षुओं, मुझे लगा, ‘मैंने ऐसे धर्म को प्राप्त किया है, जो गहरा, दुर्दर्शी (=मुश्किल से दिखने वाला), दुर्ज्ञेय (=मुश्किल से पता चलने वाला), शांतिमय, सर्वोत्तम, तर्क-वितर्क से प्राप्त न होने वाला, निपुण और ज्ञानियों द्वारा अनुभव करने योग्य है। किन्तु, यह जनता आसक्तियों में रमती है, आसक्तियों में रत रहती है, और आसक्तियों में ही प्रसन्न होती है। और ऐसी जनता, जो आसक्तियों में रमती हो, आसक्तियों में रत रहती हो, और आसक्तियों में ही प्रसन्न होती हो, उनके लिए यह इद-पच्चयता (=कार्य-कारण भाव) और प्रतित्य-समुत्पाद अत्यंत दुर्दर्शी होगा। और उनके लिए यह भी बहुत दुर्दर्शी होगा — सभी रचनाओं का रुक जाना, सभी अर्जित वस्तुओं का त्याग, तृष्णा का अन्त, विराग, निरोध, निर्वाण! यदि मैं उन्हें ऐसा धर्म दूँ, जो उन्हें समझ में न आएँ, तो वह मेरे लिए थकाऊ और परेशानी से भरा होगा।’

तब, भिक्षुओं, मुझे पहले कभी न सुनी गयी, अनाश्चर्यकारक 4 गाथाएँ सूझ पड़ी —

“जिस धर्म को पा लिया मैंने,
उसे प्रकाशित करने का अर्थ नहीं होगा।
राग-द्वेष में पड़े हुए को,
इस धर्म का बोध नहीं होगा।
उल्टी धारा में तैरने की निपुणता,
जो गहरी, दुर्दर्शी, और सूक्ष्म है,
नहीं दिखेगा उन्हें, जो राग में रत रहते हो,
और घोर अंधकार से घिरे हुए हो।”

जब इस तरह, भिक्षुओं, मैंने सोच-विचार किया तो मेरा चित्त अल्प उत्सुकता (=उदासीन और निष्क्रिय भाव) और धर्म न सिखाने की ओर झुक गया। और तब, सहम्पति ब्रह्मा 5 ने भगवान के चित्त में चल रहे तर्क-वितर्क को जान लिया। उसे लगा, ‘नाश हो गया इस लोक का! विनाश हो गया इस लोक का! जो तथागत अर्हंत सम्यक-सम्बुद्ध का चित्त अल्प उत्सुकता और धर्म न सिखाने की ओर झुक गया।’

तब, भिक्षुओं, जैसे कोई बलवान पुरुष अपनी समेटी हुई बाह को पसार दे, या पसारी हुई बाह को समेट ले, उसी तरह, सहम्पति ब्रह्मा ब्रह्मलोक से विलुप्त हुआ और मेरे समक्ष प्रकट हुआ। उस सहम्पति ब्रह्मा ने बाहरी वस्त्र को एक कंधे पर कर, दाएँ घुटने को भूमि पर टिकाकर, हाथ जोड़कर मुझसे कहा —

“भंते, भगवान धर्म का उपदेश करें! सुगत धर्म का उपदेश करें! ऐसे सत्व हैं जिनकी आँखों में कम धूल है, किन्तु जो धर्म न सुनने से बर्बाद हैं, जो अवश्य धर्म को समझ जाएँगे!”

ब्रह्मा सहम्पति ने ऐसा कहा, और ऐसा कह कर उसने आगे कहा —

“मगध में पूर्व प्रकट हुआ है,
अशुद्ध धर्म, दुष्टों द्वारा गढ़ा हुआ।
खोल दें आप, इस अमृत द्वार को!
सुनने दें उन्हें, विमल बुद्ध के धर्म को!
जैसे हो खड़ा कोई, ऊँचे पर्वत शिखर पर,
दिखे उसे जनता सारी, फैली कई दिशाओं में,
उसी तरह, धर्म से बने सुमेध,
शोक लाँघे, सर्वत्र चक्षुमान,
महल पर चढ़कर, जनता देखें,
शोक में डूबी, जन्म, बुढ़ापे से अभिभूत!
उठें, कृपया, हे वीर, संग्राम विजेता!
काफिले के मुखिया, लोक में ऋणमुक्त विचरते हुए,
दें उपदेश भगवान, धर्म का!
ऐसे लोग हैं, जो समझ जाएँगे!”

तब, भिक्षुओं, मैंने उस ब्रह्मा की याचना पर गौर किया। और, सत्वों के प्रति करुणा से, बुद्धचक्षु से ब्रह्मांड का अवलोकन किया। मैंने बुद्धचक्षु से ब्रह्मांड का अवलोकन करते हुए ऐसे सत्वों को देखा जिनकी आँखों में कम धूल थी, और जिनकी आँखों में अधिक धूल थी, जिनकी इंद्रियाँ तीक्ष्ण थी, और जिनकी इंद्रियाँ मन्द थी, भली वृत्ति के, और बुरी वृत्ति के, सरलता से सिखाएँ जाने वाले, और कठिनाई से सिखाएँ जाने वाले, परलोक में ख़तरा जानकर रहने वाले कुछ सत्व, और परलोक में कोई ख़तरा न जानकर रहने वाले कुछ सत्व।

जैसे, भिक्षुओं, किसी पुष्करणी में कोई कोई नीलकमल, रक्तकमल या श्वेतकमल होते हैं, जो जल के भीतर जन्म लेते हैं, जल के भीतर बढ़ते हैं, जल के भीतर पनपते हैं, बिना जल से बाहर निकले। जबकि कोई कोई नीलकमल, रक्तकमल या श्वेतकमल होते हैं, जो जल के भीतर जन्म लेते हैं, जल के भीतर बढ़ते हैं, और ऊपर तक आकर जल की सतह को छू पाते हैं। जबकि कोई कोई नीलकमल, रक्तकमल या श्वेतकमल होते हैं, जो जल के भीतर जन्म लेते हैं, और जल के भीतर बढ़ते हुए सतह से ऊपर आकर, जल से अछूत रहते हैं।

उसी तरह, भिक्षुओं, मैंने बुद्धचक्षु से ब्रह्मांड का अवलोकन करते हुए ऐसे सत्वों को देखा जिनकी आँखों में कम धूल थी, और जिनकी आँखों में अधिक धूल थी, जिनकी इंद्रियाँ तीक्ष्ण थी, और जिनकी इंद्रियाँ मन्द थी, भली वृत्ति के, और बुरी वृत्ति के, सरलता से सिखाएँ जाने वाले, और कठिनाई से सिखाएँ जाने वाले, परलोक में ख़तरा जानकर रहने वाले कुछ सत्व, और परलोक में कोई ख़तरा न जानकर रहने वाले कुछ सत्व।

ऐसा देखकर, भिक्षुओं, मैंने सहम्पति ब्रह्मा को गाथाओं में कहा —

“खुले हैं द्वार अमृत के!
जिन्हें कान हो, वे श्रद्धा प्रकट करें!
ब्रह्मा, मैं परेशानी देख, चाहता न था
मानव को सद्गुणी उत्कृष्ट धर्म बताना।”


तब, भिक्षुओं, ब्रह्मा सहम्पति को लगा, “भगवान ने मेरी याचना को स्वीकार लिया है।” तब उसने मुझे अभिवादन कर, प्रदक्षिणा कर, वही अन्तर्धान हो गया।

चुनाव

तब, भिक्षुओं, मुझे लगा, “मैं पहले किसे धर्म का उपदेश करूँ? कौन है, जो इस धर्म को तुरंत समझ लेगा?"

तब, भिक्षुओं, मुझे लगा, “यह आळार कालाम पण्डित है, अनुभवी है, मेधावी है, और दीर्घकाल से आँखों में कम धूल वाला है। मैं पहले उसे धर्म का उपदेश करता हूँ। वही है, जो इस धर्म को तुरंत समझ लेगा।”

तब, भिक्षुओं, एक अदृश्य देवता ने मुझे सूचित किया, “भंते, आळार कालाम की मौत हुए एक सप्ताह बीत चुका है।” और मुझे भी ज्ञान उत्पन्न हुआ, “आळार कालाम की मौत हुए एक सप्ताह बीत चुका है।” मुझे लगा, “बड़ा नुकसान हुआ आळार कालाम का। यदि वह इस धर्म को सुनता, तो तुरंत समझ जाता।”

तब, भिक्षुओं, मुझे लगा, “अब मैं पहले किसे धर्म का उपदेश करूँ? कौन है, जो इस धर्म को तुरंत समझ लेगा?" तब मुझे लगा, “यह उदक रामपुत्त पण्डित है, अनुभवी है, मेधावी है, और दीर्घकाल से आँखों में कम धूल वाला है। मैं पहले उसे धर्म का उपदेश करता हूँ। वही है, जो इस धर्म को तुरंत समझ लेगा।”

तब, भिक्षुओं, एक अदृश्य देवता ने मुझे फिर सूचित किया, “भंते, उदक रामपुत्त की मौत कल रात हुई।” और मुझे भी ज्ञान उत्पन्न हुआ, “उदक रामपुत्त की मौत कल रात हुई।” मुझे लगा, “बड़ा नुकसान हुआ उदक रामपुत्त का। यदि वह भी इस धर्म को सुनता, तो तुरंत समझ जाता।”

तब, भिक्षुओं, मुझे लगा, “अब मैं पहले किसे धर्म का उपदेश करूँ? कौन है, जो इस धर्म को तुरंत समझ लेगा?" तब मुझे लगा, “ये पञ्चवर्गीय भिक्षुगण बहुत उपयोगी थे, जब मैं कठोर तप कर रहा था। मैं उन पञ्चवर्गीय भिक्षुओं को पहले धर्म का उपदेश करूँगा।” तब मुझे लगा, “किन्तु इस समय पञ्चवर्गीय भिक्षुगण कहाँ रह रहे हैं?”

तब, भिक्षुओं, मैंने अपने मनुष्योत्तर दिव्यचक्षु से पञ्चवर्गीय भिक्षुओं को वाराणसी में ऋषिपतन के मृगवन में रहते हुए देखा। तब, मैंने उरुवेला में इच्छानुसार जितना रुकना था, उतना रुका, 6 और वाराणसी के भ्रमण पर निकल पड़ा।

तब, भिक्षुओं, उपक आजीवक (=संन्यासी) ने मुझे गया से बोधि उत्पन्न होने वाले स्थान (=बोधगया के बोधिवृक्ष) के मार्ग में यात्रा करते देखा। उसने मुझे कहा, “तुम्हारे इंद्रिय प्रसन्न हैं, मित्र, और तुम्हारी त्वचा परिशुद्ध और तेजस्वी है। तुम किसे उद्देश्य कर प्रवज्जित हुए हो, मित्र? कौन हैं तुम्हारे शास्ता? तुम्हें किसके धर्म में रुचि है?”

ऐसा कहे जाने पर, भिक्षुओं, मैंने उपक आजीवक को गाथाओं में कहा —

“सभी में, मैं अभिभू हूँ,
सब कुछ का जानकार हूँ,
सभी धर्मों को त्याग कर,
मैं न किसी से मलिन हूँ,
सर्वस्व का त्याग कर,
तृष्णा मिटाकर विमुक्त हूँ,
स्वयं से प्राप्त प्रत्यक्ष-ज्ञान को
किसे मैं उद्देश्य करूँ?
मेरा कोई आचार्य नहीं,
न मेरे जैसा कोई लगता है,
देवताओं से भरे ब्रह्मांड में
मेरे समान कोई नहीं,
मैं इस लोक में अर्हंत हूँ,
शास्ता हूँ मैं सर्वोपरि,
सम्यकसम्बुद्ध मैं एकमेव,
शीतल हो निवृत्त हूँ!
इस अंधकारमय लोक में,
धर्मचक्र प्रवर्तन करने
जा रहा हूँ मैं काशी में,
अमृत का बिगुल बजाने!”

“तुम्हारे दावे से तो लगता है, मित्र, कि जैसे तुम कोई काबिल ‘अनन्त-विजेता’ 7 हो!”

“वाकई विजेता, मुझ जैसे हो।
आस्रव का अन्त जो करते हैं।
सभी पापी धर्मों को हरा चुके हो।
इसलिए ही मैं विजेता हूँ!”

ऐसा कहे जाने पर, भिक्षुओं, उपक आजीवक ने “ऐसा ही होगा, मित्र!” कहते हुए अपना सिर हिलाया, और उल्टे रास्ते से चला गया।

पञ्चवर्गीय भिक्षुओं से भेंट

तब, भिक्षुओं, मैंने अनुक्रम से वाराणसी में ऋषिपतन के मृगवन की ओर भ्रमण करते हुए पञ्चवर्गीय भिक्षुओं के पास गया। पञ्चवर्गीय भिक्षुओं ने मुझे दूर से आते हुए देखा। और, उन्हें देखते ही एक-दूसरे से सहमति बनायी —

“मित्रों, ये श्रमण गौतम आ रहा है — विलासी, तपस्या से भटका, विलासी जीवन में लौटा हुआ । हमें उसका न अभिवादन करना चाहिए, न उसके लिए खड़े होना चाहिए, न उसका पात्र और चीवर ही उठाना चाहिए। किन्तु, बैठने का आसन रख देना चाहिए। उसे बैठने की इच्छा हो तो बैठेगा।"

किन्तु, भिक्षुओं, जैसे-जैसे मैं पञ्चवर्गीय भिक्षुओं के पास गया, वैसे-वैसे पञ्चवर्गीय भिक्षुगण बनी आम-सहमति पर टिक नहीं पाएँ। एक ने आगे बढ़कर मेरा पात्र और चीवर ग्रहण किया, एक ने आसन लगाया, एक ने पैर धोने का जल रखा, एक ने पैर रखने का पीठ रखा, और एक ने पैर रगड़ने का पत्थर रखा।

तब, भिक्षुओं, मैं बिछे आसन पर बैठ गया और बैठकर अपने पैर धोएँ। हालाँकि, वे तब भी मुझे नाम से और ‘मित्र’ कहकर पुकार रहे थे। ऐसा कहे जाने पर मैंने पञ्चवर्गीय भिक्षुओं से कहा, “भिक्षुओं, तथागत को नाम से और ‘मित्र’ कहकर ना पुकारें। तथागत ‘अर्हंत सम्यक-सम्बुद्ध’ है। सुनों, भिक्षुओं, अमृत की ओर बढ़ती धारा मिल चुकी है। मैं तुम्हें अनुशासित करूँगा और धर्म का उपदेश करूँगा। बताएँ अनुसार चलोगे तो इसी जीवन में जल्द ही ब्रह्मचर्य की उस सर्वोच्च मंज़िल पर पहुँचकर स्थित हो जाओगे, जिस ध्येय से कुलपुत्र घर से बेघर होकर प्रवज्यित होते हैं।”

ऐसा कहे जाने पर, भिक्षुओं, पञ्चवर्गीय भिक्षुओं ने मुझसे कहा, “मित्र गौतम, जब तुम्हें इतनी दुष्कर तपस्या से कोई मनुष्योत्तर अवस्था, विशेष आर्य-ज्ञानदर्शन प्राप्त नहीं हुआ, तब विलासी होकर, तपस्या से भटक कर, विलासी जीवन में लौटने से, भला कैसे ये सब प्राप्त हो गया?”

ऐसा कहे जाने पर, भिक्षुओं, मैंने पञ्चवर्गीय भिक्षुओं से कहा, “भिक्षुओं, तथागत न विलासी, न तपस्या से भटके, और न ही विलासी जीवन में लौटे है। बल्कि तथागत ‘अर्हंत सम्यक-सम्बुद्ध’ है। सुनों, भिक्षुओं, अमृत की ओर बढ़ती धारा मिल चुकी है। मैं तुम्हें अनुशासित करूँगा और धर्म का उपदेश करूँगा। बताएँ अनुसार चलोगे तो इसी जीवन में जल्द ही ब्रह्मचर्य की उस सर्वोच्च मंज़िल पर पहुँचकर स्थित हो जाओगे, जिस ध्येय से कुलपुत्र घर से बेघर होकर प्रवज्यित होते हैं।”

तब, भिक्षुओं, पञ्चवर्गीय भिक्षुओं ने दूसरी बार मुझसे कहा, “किन्तु, मित्र गौतम, जब तुम्हें इतनी दुष्कर तपस्या से कोई मनुष्योत्तर अवस्था, विशेष आर्य-ज्ञानदर्शन प्राप्त नहीं हुआ, तब विलासी होकर, तपस्या से भटक कर, विलासी जीवन में लौटने से, भला कैसे ये सब प्राप्त हो गया?”

तब, भिक्षुओं, मैंने दूसरी बार पञ्चवर्गीय भिक्षुओं से कहा, “भिक्षुओं, तथागत न विलासी, न तपस्या से भटके, और न ही विलासी जीवन में लौटे है। बल्कि तथागत ‘अर्हंत सम्यक-सम्बुद्ध’ है। सुनों, भिक्षुओं, अमृत की ओर बढ़ती धारा मिल चुकी है…”

तब, भिक्षुओं, पञ्चवर्गीय भिक्षुओं ने तीसरी बार मुझसे कहा, “किन्तु, मित्र गौतम, जब तुम्हें इतनी दुष्कर तपस्या से कोई मनुष्योत्तर अवस्था, विशेष आर्य-ज्ञानदर्शन प्राप्त नहीं हुआ, तब विलासी होकर, तपस्या से भटक कर, विलासी जीवन में लौटने से, भला कैसे ये सब प्राप्त हो गया?”

तब, भिक्षुओं, मैंने पञ्चवर्गीय भिक्षुओं से कहा, “भिक्षुओं, क्या तुमने मुझे ऐसा कहते हुए पहले कभी सुना है?”

“नहीं, भंते!”

“तब सुनों, भिक्षुओं! तथागत ‘अर्हंत सम्यक-सम्बुद्ध’ है। अमृत की ओर बढ़ती धारा मिल चुकी है। मैं तुम्हें अनुशासित करूँगा और धर्म का उपदेश करूँगा। बताएँ अनुसार चलोगे तो इसी जीवन में जल्द ही ब्रह्मचर्य की उस सर्वोच्च मंज़िल पर पहुँचकर स्थित हो जाओगे, जिस ध्येय से कुलपुत्र घर से बेघर होकर प्रवज्यित होते हैं।”

इस तरह, भिक्षुओं, मैं पञ्चवर्गीय भिक्षुओं को समझाने में सफल हुआ ।

तब, भिक्षुओं, जब कभी मैं दो भिक्षुओं को निर्देशित करता, तब तीन भिक्षु भिक्षाटन करने के लिए जाते। और उन तीन भिक्षुओं को मिले भिक्षान्न पर हम सभी छह लोग यापन करते। और, जब कभी मैं तीन भिक्षुओं को निर्देशित करता, तब दो भिक्षु भिक्षाटन करने के लिए जाते। और उन दो भिक्षुओं को मिले भिक्षान्न पर हम सभी छह लोग यापन करते।

इस तरह, भिक्षुओं, मेरे द्वारा निर्देशित होने पर, अनुशासित होने पर, पञ्चवर्गीय भिक्षुगण, जो — स्वयं जन्म स्वभाव वाले होकर, जन्म स्वभाव में ख़ामी जान कर, अजन्म, योगबन्धन से अनुत्तर राहत, निर्वाण की खोज करते हुए, उस अजन्मे, योगबन्धन से अनुत्तर राहत, निर्वाण को प्राप्त किया। वे स्वयं बुढ़ापा… रोग… मरण… शोक… दूषित स्वभाव वाले होकर, उन स्वभावों में ख़ामी जान कर, अजर… अरोग… अमर… अशोक… निर्दोष, योगबन्धन से अनुत्तर राहत, निर्वाण की खोज करते हुए, उस अजर… अरोग… अमर… अशोक… निर्दोष, योगबन्धन से अनुत्तर राहत, निर्वाण को प्राप्त किया।

उनमें ज्ञान और दर्शन उत्पन्न हुआ — ‘मेरी विमुक्ति अविचल है! यह मेरा अंतिम जन्म है! अब पुनर्भव नहीं होगा!’

कामुकता

भिक्षुओं, पाँच कामसुख हैं —

  • आँख से दिखायी देते रूप, जो अच्छे, सुंदर, मनपसंद, आकर्षक, कामुक, ललचाते हो।
  • कान से सुनायी देती आवाज़े, जो अच्छी, मोहक, मनपसंद, आकर्षक, कामुक, ललचाती हो।
  • नाक से सुँघाई देती गन्ध, जो अच्छी, मोहक, मनपसंद, आकर्षक, कामुक, ललचाती हो।
  • जीभ से पता चलते स्वाद, जो अच्छे, मोहक, मनपसंद, आकर्षक, कामुक, ललचाते हो।
  • काया से पता चलते संस्पर्श, जो अच्छे, मोहक, मनपसंद, आकर्षक, कामुक, ललचाते हो।

— ये पाँच, भिक्षुओं, कामसुख हैं।

भिक्षुओं, जो कोई श्रमण या ब्राह्मण इन पाँच कामसुखों से बंधा हो, मदहोश हो, इनमें ही पड़ा हो, खामी न देखने वाला हो, निकलने का मार्ग प्रज्ञापूर्वक न जानता हो — तब तुम समझ लों कि ‘उनके साथ तबाही हुई, बर्बादी हुई, पापी (=मार) 8 उनके साथ जो करना चाहे, कर सकता है।’

जैसे, भिक्षुओं, किसी जंगल में एक हिरण जाल में फँस कर पड़ा हो — तब तुम समझ लोगे कि ‘इसके साथ तबाही हुई, बर्बादी हुई, शिकारी इसके साथ जो करना चाहे, कर सकता है।’ क्योंकि जब शिकारी आएगा, तब वह हिरण उठकर जहाँ भागना चाहे, नहीं भाग पाएगा।

उसी तरह, भिक्षुओं, जो कोई श्रमण या ब्राह्मण इन पाँच कामसुखों से बंधा हो, मदहोश हो, इनमें ही पड़ा हो, खामी न देखने वाला हो, निकलने का मार्ग प्रज्ञापूर्वक न जानता हो — तब तुम समझ लों कि ‘उनके साथ तबाही हुई, बर्बादी हुई, पापी उनके साथ जो करना चाहे, कर सकता है।’

किन्तु, भिक्षुओं, जो कोई श्रमण या ब्राह्मण इन पाँच कामसुखों से बंधा न हो, मदहोश न हो, इनमें ही पड़ा न हो, बल्कि खामी देखने वाला हो, निकलने का मार्ग प्रज्ञापूर्वक जानता हो — तब तुम समझ लों कि ‘उनके साथ तबाही नहीं हुई, बर्बादी नहीं हुई, पापी उनके साथ जो करना चाहे, नहीं कर सकता।’

जैसे, भिक्षुओं, किसी जंगल में एक हिरण, जाल में बिना फँसे, लेटा पड़ा हो — तब तुम समझ लोगे कि ‘इसके साथ तबाही नहीं हुई, बर्बादी नहीं हुई, शिकारी इसके साथ जो करना चाहे, नहीं कर सकता।’ क्योंकि जब शिकारी आएगा, तब वह हिरण उठकर जहाँ भागना चाहे, भाग पाएगा।

जैसे, भिक्षुओं, किसी जंगल में भटकता हुआ एक हिरण, आश्वस्त होकर चलता है, आश्वस्त होकर खड़ा होता है, आश्वस्त होकर बैठता है, आश्वस्त होकर लेटता है। ऐसा क्यों? क्योंकि, भिक्षुओं, वह शिकारी के मार्ग पर नहीं है।

(१) उसी तरह, भिक्षुओं, कोई भिक्षु कामुकता से निर्लिप्त, अकुशल-स्वभाव से निर्लिप्त, सोच एवं विचार के साथ निर्लिप्तता से उपजे प्रफुल्लता और सुखपूर्ण प्रथम-ध्यान में प्रवेश पाकर रहता है। ऐसे भिक्षु को कहते हैं, भिक्षुओं, कि उसने मार को अंधा कर दिया, मारचक्षु का मार्ग खत्म किया, और वहाँ गया जहाँ पापी को दिखायी न दे।

(२) आगे, भिक्षुओं, वह भिक्षु सोच एवं विचार के रुक जाने पर, भीतर आश्वस्त हुआ मानस एकरस होकर, बिना-सोच, बिना-विचार, समाधि से उपजे प्रफुल्लता और सुखपूर्ण द्वितीय-ध्यान में प्रवेश पाकर रहता है। ऐसे भिक्षु को कहते हैं, भिक्षुओं, कि उसने मार को अंधा कर दिया, मारचक्षु का मार्ग खत्म किया, और वहाँ गया जहाँ पापी को दिखायी न दे।

(३) आगे, भिक्षुओं, वह भिक्षु प्रफुल्लता से विरक्त हो, स्मरणशील एवं सचेतता के साथ-साथ तटस्थता धारण कर शरीर से सुख महसूस करता है। जिसे आर्यजन ‘तटस्थ, स्मरणशील, सुखविहारी’ कहते हैं, वह ऐसे तृतीय-ध्यान में प्रवेश पाकर रहता है। ऐसे भिक्षु को कहते हैं, भिक्षुओं, कि उसने मार को अंधा कर दिया, मारचक्षु का मार्ग खत्म किया, और वहाँ गया जहाँ पापी को दिखायी न दे।

(४) आगे, भिक्षुओं, वह भिक्षु सुख एवं दर्द दोनों हटाकर, खुशी एवं परेशानी पूर्व ही विलुप्त होने पर, तटस्थता और स्मरणशीलता की परिशुद्धता के साथ, अब न-सुख-न-दर्द पूर्ण चतुर्थ-ध्यान में प्रवेश पाकर रहता है। ऐसे भिक्षु को कहते हैं, भिक्षुओं, कि उसने मार को अंधा कर दिया, मारचक्षु का मार्ग खत्म किया, और वहाँ गया जहाँ पापी को दिखायी न दे।

(५) आगे, भिक्षुओं, वह भिक्षु रूप नजरिए पूर्णतः लाँघकर, विरोधी नजरिए ओझल होने पर, विविध नजरियों पर ध्यान न देकर — ‘आकाश अनन्त है’ (देखते हुए) ‘अनन्त आकाश-आयाम’ में प्रवेश कर रहता है। ऐसे भिक्षु को कहते हैं, भिक्षुओं, कि उसने मार को अंधा कर दिया, मारचक्षु का मार्ग खत्म किया, और वहाँ गया जहाँ पापी को दिखायी न दे।

(६) आगे, भिक्षुओं, वह भिक्षु अनन्त आकाश-आयाम पूर्णतः लाँघकर, ‘चैतन्य अनन्त है’ (देखते हुए) ‘अनन्त चैतन्य-आयाम’ में प्रवेश कर रहता है। ऐसे भिक्षु को कहते हैं, भिक्षुओं, कि उसने मार को अंधा कर दिया, मारचक्षु का मार्ग खत्म किया, और वहाँ गया जहाँ पापी को दिखायी न दे।

(७) आगे, भिक्षुओं, वह भिक्षु अनन्त चैतन्य-आयाम पूर्णतः लाँघकर, ‘कुछ नहीं है’ (देखते हुए) ‘सूने-आयाम’ में प्रवेश कर रहता है। ऐसे भिक्षु को कहते हैं, भिक्षुओं, कि उसने मार को अंधा कर दिया, मारचक्षु का मार्ग खत्म किया, और वहाँ गया जहाँ पापी को दिखायी न दे।

(८) आगे, भिक्षुओं, वह भिक्षु सूने-आयाम को पूर्णतः लाँघकर, न-संज्ञा-न-असंज्ञा आयाम में प्रवेश कर रहता है। ऐसे भिक्षु को कहते हैं, भिक्षुओं, कि उसने मार को अंधा कर दिया, मारचक्षु का मार्ग खत्म किया, और वहाँ गया जहाँ पापी को दिखायी न दे।

(९) आगे, भिक्षुओं, वह भिक्षु न-संज्ञा-न-असंज्ञा आयाम को पूर्णतः लाँघकर, संज्ञा और अनुभूति के निरोध में प्रवेश कर रहता है। और प्रज्ञा से देखने पर उसके आस्रव पूरी तरह खत्म हो जाते हैं। ऐसे भिक्षु को कहते हैं, भिक्षुओं, कि उसने मार को अंधा कर दिया, मारचक्षु का मार्ग खत्म किया, वहाँ गया जहाँ पापी को दिखायी न दे।

वह दुनिया की आसक्तियों को लाँघ कर, आश्वस्त होकर चलता है, आश्वस्त होकर खड़ा होता है, आश्वस्त होकर बैठता है, आश्वस्त होकर लेटता है। ऐसा क्यों? क्योंकि, भिक्षुओं, वह पापी (मार) के मार्ग पर नहीं है।”

भगवान ने ऐसा कहा। हर्षित होकर भिक्षुओं ने भगवान की बात का अभिनंदन किया।

सुत्र समाप्त।


  1. जेतवन के पश्चात् श्रावस्ती का दूसरा सबसे प्रसिद्ध और प्रतिष्ठित विहार पूर्वाराम था, जिसे “मिगारमातुपसाद”, अर्थात मिगारमाता का महल, भी कहा जाता था। यह विहार जेतवन के मुख्य द्वार से पूर्व दिशा में, लगभग २ किलोमीटर की दूरी पर स्थित था। शांत वातावरण में स्थित यह स्थान बुद्ध के निवास और उपदेश के लिए उपयुक्त था, जहाँ उन्होंने कई बार वर्षावास भी किया।

    इस विहार का निर्माण महाउपासिका विशाखा ने कराया था, जो बुद्धकाल की महानतम दायकों में मानी जाती हैं। विशाखा को “मिगार की माँ” के नाम से जाना जाता है। यह नामकरण साधारण नहीं था—मिगार, जो उसका ससुर था, उसे विशाखा ने धर्म में प्रवृत्त किया और उसे उपासक बनाया। इस धार्मिक उत्थान के कारण, यद्यपि वह सांसारिक दृष्टि से उसकी बहू थी, धर्म की दृष्टि से वह उसकी ‘माँ’ बन गई। ↩︎

  2. जहाँ दूसरे धर्मों में मौन व्रत को साधना माना जाता है, बौद्ध धर्म में ऐसा मौन व्रत वर्जित है। बुद्ध ने कहा कि जब हम दूसरों के साथ रहते हैं—चाहे गृहस्थ हों या भिक्षु—एक-दूसरे से आवश्यक संवाद करना हमारी सामाजिक या संघिक ज़िम्मेदारी है। उस जिम्मेदारी से चुप रहकर बचना धर्म नहीं, पलायन है। इसलिए विनयपिटक में ऐसा मौन व्रत “दुक्कट”, यानी दुष्कृत्य कहा गया है। क्योंकि जानबूझकर मौन साधने से संवाद टलता है, और गलतफहमियाँ, उपेक्षा और अहंकार पनप सकते हैं।

    लेकिन बौद्ध धर्म में मौन का एक गहरा और अर्थपूर्ण रूप है, जिसे आर्य मौन कहा गया है। संयुक्तनिकाय २१.१ के अनुसार, यह मौन शब्दों का नहीं, मन का मौन है। ध्यान की दूसरी अवस्था में प्रवेश करके साधक उस स्थिति में पहुंचता है जहाँ न कोई विचार चलता है, न कोई विषय। भीतर पूरी शांति, एकाग्रता और स्थिरता। यही मौन सार्थक है।

    कुछ लोग कहते हैं कि मौन व्रत से जुबान को आराम मिलता है और पता चलता है कि हम कितनी फालतू बातें करते हैं—इसमें थोड़ी सच्चाई जरूर है। लेकिन देखा गया है कि कई दिन मौन रहने के बाद भी, जब लोग बोलना शुरू करते हैं तो फिर उसी पुराने ढर्रे पर लौट जाते हैं। इसलिए बुद्ध ने कहा—मौन रहने से ज्यादा ज़रूरी है सजग होकर बोलना। हर बार बोलते समय देखें—क्या यह झूठ है? क्या यह फूट डालने वाली बात है? क्या यह कटु है? क्या यह व्यर्थ बकवास है? अगर हाँ, तो रुक जाएँ।

    अपनी अकुशल वाणी को कुशल बनाने का अभ्यास करना चाहिए। उससे हताश होकर मौन व्रत लेकर संवाद से भाग जाना — यह मौन नहीं, मोह है। ↩︎

  3. अकुप्पा शब्द का एक अर्थ “अडिग” या “अविचल” लिया जाता है, परंतु “अकुप्पा” का एक गहरा अर्थ भी है — कुछ ऐसा जिसे छेड़ा न जा सके, हिलाया न जा सके, जगाया न जा सके, जो किसी बाहरी उत्तेजना या उद्दीपन से उत्पन्न न हुआ हो — एक ऐसा अप्रवर्तित या अप्रेरित भाव, जो स्वयं ही स्वयं के प्रकट होने के लिए कारणीभूत हो।

    उदाहरण के लिए, जैसे एक व्यक्ति किसी दूसरे के भीतर छिपे हुए बुरे स्वभाव — जैसे क्रोध या कामुकता — को छेड़ देता है, जगा देता है, और उस स्वभाव को “कुपित” कर देता है, तो वह वृत्ति पूरे स्वरूप में प्रकट हो सकती है। लेकिन “अकुप्पा” कुछ ऐसा है, जिसे कोई दूसरा छेड़ नहीं सकता, जगा नहीं सकता, “कुपित” नहीं कर सकता। जब वह स्वभाव जागेगा, तो स्वयं से जागेगा — क्योंकि वह किसी दूसरी बात पर निर्भर नहीं है। ↩︎

  4. अनाश्चर्यकारक का यहाँ अर्थ है, जो किसी दिव्यशक्ति से प्राप्त न हो। विद्वानों का मानना है कि ऐसी गाथाएँ सूझ पड़ना, जो पहले सुनी न गयी हो, और जब उनका स्त्रोत या माध्यम दिव्य हो, तब उन्हें “आश्चर्यकारक गाथाएँ” कहते हैं। वैदिक परंपरा के अनुसार, ऐसी आश्चर्यकारक गाथाएँ, जिन्हें ‘श्रुति’ भी कहते हैं, वे ईश्वर या देवताओं के माध्यम से प्राप्त होती हैं। ठीक उसी तरह, जैसे पैगंबरों को कोई दिव्यशक्ति आकर गाथाओं में धर्म बताती है। लेकिन यहाँ भगवान कहते हैं कि उन्हें ये गाथाएँ, जो पहले सुनी न गयी थी, वे “अनाश्चर्यकारक” थी, जो उन्हें साधारण रूप से सूझ पड़ी। ↩︎

  5. सहम्पति ब्रह्मा को ‘ज्येष्ठ महाब्रह्मा’ भी कहा जाता है, जो प्रसिद्ध ‘बकब्रह्मा’ से ऊपर के ब्रह्मलोक में रहता है। सहम्पति पिछले जीवन में सहक नामक मनुष्य था, जो भगवान कश्यप बुद्ध के संघ में भिक्षु बना था। उसने भिक्षु जीवन में पाँच इंद्रियों (=श्रद्धा, शील, स्मृति, समाधि और प्रज्ञा) को विकसित किया, जिसके फलस्वरूप आनागामि फ़ल प्राप्त कर ऊँचे ब्रह्मलोक में उत्पन्न हुआ। उसका बौद्ध धर्म में उपकार माना जाता है। उसी ने भगवान गौतम बुद्ध को धर्म सिखाने के लिए राजी किया, और मानवलोक का अनन्त कल्याण हुआ । यही नहीं, बल्कि वह महत्वपूर्ण क्षण में प्रकट होकर, भगवान गौतम बुद्ध को आश्वस्त भी करता, जैसे धर्म को गौरवान्वित करने के समय, या भिक्षुओं को चार स्मृतिप्रस्थान और पाँच इंद्रिय की साधना सिखाने से पूर्व। कहा जाता हैं कि उसे पश्चात ब्राह्मण साहित्य में ‘स्वयंभू ब्रह्मा’ के नाम पर शामिल किया गया। ↩︎

  6. त्रिपिटक के अनुसार, भगवान उसके पश्चात तीन सप्ताह और रुके। इस तरह, भगवान ने उरुवेला में बुद्धत्व लाभ होने के पश्चात कुल सात सप्ताह बिताएँ। किन्तु, कुछ अन्य ग्रन्थों में मिथ्या लिखा है कि बोधिसत्व ने सात सप्ताह तक निरंतर ध्यानसाधना करने पर बुद्धत्व प्राप्त हुआ। ↩︎

  7. पश्चात, भगवान बुद्ध के लिए “अनन्तजिन” विशेषण का उपयोग करना अत्यंत प्रसिद्ध हुआ। ↩︎

  8. पापी मार के बारे में जानने के लिए हमारी यह शब्दावली पढ़ें। ↩︎

Pali

२७२. एवं मे सुतं – एकं समयं भगवा सावत्थियं विहरति जेतवने अनाथपिण्डिकस्स आरामे. अथ खो भगवा पुब्बण्हसमयं निवासेत्वा पत्तचीवरमादाय सावत्थिं पिण्डाय पाविसि. अथ खो सम्बहुला भिक्खू येनायस्मा आनन्दो तेनुपसङ्कमिंसु; उपसङ्कमित्वा आयस्मन्तं आनन्दं एतदवोचुं – ‘‘चिरस्सुता नो, आवुसो आनन्द, भगवतो सम्मुखा धम्मी कथा. साधु मयं, आवुसो आनन्द, लभेय्याम भगवतो सम्मुखा धम्मिं कथं सवनाया’’ति. ‘‘तेन हायस्मन्तो येन रम्मकस्स ब्राह्मणस्स अस्समो तेनुपसङ्कमथ; अप्पेव नाम लभेय्याथ भगवतो सम्मुखा धम्मिं कथं सवनाया’’ति. ‘‘एवमावुसो’’ति खो ते भिक्खू आयस्मतो आनन्दस्स पच्चस्सोसुं.

अथ खो भगवा सावत्थियं पिण्डाय चरित्वा पच्छाभत्तं पिण्डपातपटिक्कन्तो आयस्मन्तं आनन्दं आमन्तेसि – ‘‘आयामानन्द, येन पुब्बारामो मिगारमातुपासादो तेनुपसङ्कमिस्साम दिवाविहाराया’’ति. ‘‘एवं, भन्ते’’ति खो आयस्मा आनन्दो भगवतो पच्चस्सोसि. अथ खो भगवा आयस्मता आनन्देन सद्धिं येन पुब्बारामो मिगारमातुपासादो तेनुपसङ्कमि दिवाविहाराय. अथ खो भगवा सायन्हसमयं पटिसल्लाना वुट्ठितो आयस्मन्तं आनन्दं आमन्तेसि – ‘‘आयामानन्द, येन पुब्बकोट्ठको तेनुपसङ्कमिस्साम गत्तानि परिसिञ्चितु’’न्ति. ‘‘एवं, भन्ते’’ति खो आयस्मा आनन्दो भगवतो पच्चस्सोसि.

२७३. अथ खो भगवा आयस्मता आनन्देन सद्धिं येन पुब्बकोट्ठको तेनुपसङ्कमि गत्तानि परिसिञ्चितुं. पुब्बकोट्ठके गत्तानि परिसिञ्चित्वा पच्चुत्तरित्वा एकचीवरो अट्ठासि गत्तानि पुब्बापयमानो. अथ खो आयस्मा आनन्दो भगवन्तं एतदवोच – ‘‘अयं, भन्ते, रम्मकस्स ब्राह्मणस्स अस्समो अविदूरे. रमणीयो, भन्ते, रम्मकस्स ब्राह्मणस्स अस्समो; पासादिको, भन्ते, रम्मकस्स ब्राह्मणस्स अस्समो. साधु, भन्ते, भगवा येन रम्मकस्स ब्राह्मणस्स अस्समो तेनुपसङ्कमतु अनुकम्पं उपादाया’’ति. अधिवासेसि भगवा तुण्हीभावेन.

अथ खो भगवा येन रम्मकस्स ब्राह्मणस्स अस्समो तेनुपसङ्कमि. तेन खो पन समयेन सम्बहुला भिक्खू रम्मकस्स ब्राह्मणस्स अस्समे धम्मिया कथाय सन्निसिन्ना होन्ति. अथ खो भगवा बहिद्वारकोट्ठके अट्ठासि कथापरियोसानं आगमयमानो. अथ खो भगवा कथापरियोसानं विदित्वा उक्कासित्वा अग्गळं आकोटेसि. विवरिंसु खो ते भिक्खू भगवतो द्वारं. अथ खो भगवा रम्मकस्स ब्राह्मणस्स अस्समं पविसित्वा पञ्ञत्ते आसने निसीदि. निसज्ज खो भगवा भिक्खू आमन्तेसि – ‘‘कायनुत्थ, भिक्खवे, एतरहि कथाय सन्निसिन्ना? का च पन वो अन्तराकथा विप्पकता’’ति ? ‘‘भगवन्तमेव खो नो, भन्ते, आरब्भ धम्मी कथा विप्पकता, अथ भगवा अनुप्पत्तो’’ति. ‘‘साधु, भिक्खवे! एतं खो, भिक्खवे, तुम्हाकं पतिरूपं कुलपुत्तानं सद्धा अगारस्मा अनगारियं पब्बजितानं यं तुम्हे धम्मिया कथाय सन्निसीदेय्याथ. सन्निपतितानं वो, भिक्खवे, द्वयं करणीयं – धम्मी वा कथा, अरियो वा तुण्हीभावो’’.

२७४. ‘‘द्वेमा, भिक्खवे, परियेसना – अरिया च परियेसना, अनरिया च परियेसना.

‘‘कतमा च, भिक्खवे, अनरिया परियेसना? इध, भिक्खवे, एकच्चो अत्तना जातिधम्मो समानो जातिधम्मंयेव परियेसति, अत्तना जराधम्मो समानो जराधम्मंयेव परियेसति, अत्तना ब्याधिधम्मो समानो ब्याधिधम्मंयेव परियेसति, अत्तना मरणधम्मो समानो मरणधम्मंयेव परियेसति, अत्तना सोकधम्मो समानो सोकधम्मंयेव परियेसति, अत्तना संकिलेसधम्मो समानो संकिलेसधम्मंयेव परियेसति.

‘‘किञ्च, भिक्खवे, जातिधम्मं वदेथ? पुत्तभरियं, भिक्खवे, जातिधम्मं, दासिदासं जातिधम्मं, अजेळकं जातिधम्मं, कुक्कुटसूकरं जातिधम्मं, हत्थिगवास्सवळवं जातिधम्मं, जातरूपरजतं जातिधम्मं. जातिधम्मा हेते, भिक्खवे, उपधयो. एत्थायं गथितो [गधीतो (स्या. क.)] मुच्छितो अज्झापन्नो अत्तना जातिधम्मो समानो जातिधम्मंयेव परियेसति.

‘‘किञ्च, भिक्खवे, जराधम्मं वदेथ? पुत्तभरियं, भिक्खवे, जराधम्मं, दासिदासं जराधम्मं, अजेळकं जराधम्मं, कुक्कुटसूकरं जराधम्मं, हत्थिगवास्सवळवं जराधम्मं , जातरूपरजतं जराधम्मं. जराधम्मा हेते, भिक्खवे, उपधयो. एत्थायं गथितो मुच्छितो अज्झापन्नो अत्तना जराधम्मो समानो जराधम्मंयेव परियेसति.

‘‘किञ्च, भिक्खवे, ब्याधिधम्मं वदेथ? पुत्तभरियं, भिक्खवे, ब्याधिधम्मं, दासिदासं ब्याधिधम्मं, अजेळकं ब्याधिधम्मं, कुक्कुटसूकरं ब्याधिधम्मं, हत्थिगवास्सवळवं ब्याधिधम्मं. ब्याधिधम्मा हेते, भिक्खवे, उपधयो. एत्थायं गथितो मुच्छितो अज्झापन्नो अत्तना ब्याधिधम्मो समानो ब्याधिधम्मंयेव परियेसति.

‘‘किञ्च, भिक्खवे, मरणधम्मं वदेथ? पुत्तभरियं, भिक्खवे, मरणधम्मं, दासिदासं मरणधम्मं, अजेळकं मरणधम्मं, कुक्कुटसूकरं मरणधम्मं, हत्थिगवास्सवळवं मरणधम्मं. मरणधम्मा हेते, भिक्खवे, उपधयो. एत्थायं गथितो मुच्छितो अज्झापन्नो अत्तना मरणधम्मो समानो मरणधम्मंयेव परियेसति.

‘‘किञ्च, भिक्खवे, सोकधम्मं वदेथ? पुत्तभरियं, भिक्खवे, सोकधम्मं, दासिदासं सोकधम्मं, अजेळकं सोकधम्मं, कुक्कुटसूकरं सोकधम्मं, हत्थिगवास्सवळवं सोकधम्मं. सोकधम्मा हेते, भिक्खवे, उपधयो. एत्थायं गथितो मुच्छितो अज्झापन्नो अत्तना सोकधम्मो समानो सोकधम्मंयेव परियेसति.

‘‘किञ्च, भिक्खवे, संकिलेसधम्मं वदेथ? पुत्तभरियं, भिक्खवे, संकिलेसधम्मं, दासिदासं संकिलेसधम्मं, अजेळकं संकिलेसधम्मं , कुक्कुटसूकरं संकिलेसधम्मं, हत्थिगवास्सवळवं संकिलेसधम्मं, जातरूपरजतं संकिलेसधम्मं. संकिलेसधम्मा हेते, भिक्खवे, उपधयो. एत्थायं गथितो मुच्छितो अज्झापन्नो अत्तना संकिलेसधम्मो समानो संकिलेसधम्मंयेव परियेसति. अयं, भिक्खवे, अनरिया परियेसना.

२७५. ‘‘कतमा च, भिक्खवे, अरिया परियेसना? इध, भिक्खवे, एकच्चो अत्तना जातिधम्मो समानो जातिधम्मे आदीनवं विदित्वा अजातं अनुत्तरं योगक्खेमं निब्बानं परियेसति, अत्तना जराधम्मो समानो जराधम्मे आदीनवं विदित्वा अजरं अनुत्तरं योगक्खेमं निब्बानं परियेसति, अत्तना ब्याधिधम्मो समानो ब्याधिधम्मे आदीनवं विदित्वा अब्याधिं अनुत्तरं योगक्खेमं निब्बानं परियेसति, अत्तना मरणधम्मो समानो मरणधम्मे आदीनवं विदित्वा अमतं अनुत्तरं योगक्खेमं निब्बानं परियेसति, अत्तना सोकधम्मो समानो सोकधम्मे आदीनवं विदित्वा असोकं अनुत्तरं योगक्खेमं निब्बानं परियेसति, अत्तना संकिलेसधम्मो समानो संकिलेसधम्मे आदीनवं विदित्वा असंकिलिट्ठं अनुत्तरं योगक्खेमं निब्बानं परियेसति. अयं, भिक्खवे, अरिया परियेसना.

२७६. ‘‘अहम्पि सुदं, भिक्खवे, पुब्बेव सम्बोधा अनभिसम्बुद्धो बोधिसत्तोव समानो अत्तना जातिधम्मो समानो जातिधम्मंयेव परियेसामि, अत्तना जराधम्मो समानो जराधम्मंयेव परियेसामि, अत्तना ब्याधिधम्मो समानो ब्याधिधम्मंयेव परियेसामि, अत्तना मरणधम्मो समानो मरणधम्मंयेव परियेसामि, अत्तना सोकधम्मो समानो सोकधम्मंयेव परियेसामि, अत्तना संकिलेसधम्मो समानो संकिलेसधम्मंयेव परियेसामि. तस्स मय्हं, भिक्खवे, एतदहोसि – ‘किं नु खो अहं अत्तना जातिधम्मो समानो जातिधम्मंयेव परियेसामि, अत्तना जराधम्मो समानो…पे… ब्याधिधम्मो समानो… मरणधम्मो समानो… सोकधम्मो समानो… अत्तना संकिलेसधम्मो समानो संकिलेसधम्मंयेव परियेसामि? यंनूनाहं अत्तना जातिधम्मो समानो जातिधम्मे आदीनवं विदित्वा अजातं अनुत्तरं योगक्खेमं निब्बानं परियेसेय्यं, अत्तना जराधम्मो समानो जराधम्मे आदीनवं विदित्वा अजरं अनुत्तरं योगक्खेमं निब्बानं परियेसेय्यं, अत्तना ब्याधिधम्मो समानो ब्याधिधम्मे आदीनवं विदित्वा अब्याधिं अनुत्तरं योगक्खेमं निब्बानं परियेसेय्यं, अत्तना मरणधम्मो समानो मरणधम्मे आदीनवं विदित्वा अमतं अनुत्तरं योगक्खेमं निब्बानं परियेसेय्यं, अत्तना सोकधम्मो समानो सोकधम्मे आदीनवं विदित्वा असोकं अनुत्तरं योगक्खेमं निब्बानं परियेसेय्यं, अत्तना संकिलेसधम्मो समानो संकिलेसधम्मे आदीनवं विदित्वा असंकिलिट्ठं अनुत्तरं योगक्खेमं निब्बानं परियेसेय्य’न्ति.

२७७. ‘‘सो खो अहं, भिक्खवे, अपरेन समयेन दहरोव समानो सुसुकाळकेसो , भद्रेन योब्बनेन समन्नागतो पठमेन वयसा अकामकानं मातापितूनं अस्सुमुखानं रुदन्तानं केसमस्सुं ओहारेत्वा कासायानि वत्थानि अच्छादेत्वा अगारस्मा अनगारियं पब्बजिं. सो एवं पब्बजितो समानो किं कुसलगवेसी [किंकुसलंगवेसी (क.)] अनुत्तरं सन्तिवरपदं परियेसमानो येन आळारो कालामो तेनुपसङ्कमिं. उपसङ्कमित्वा आळारं कालामं एतदवोचं – ‘इच्छामहं, आवुसो कालाम, इमस्मिं धम्मविनये ब्रह्मचरियं चरितु’न्ति. एवं वुत्ते, भिक्खवे, आळारो कालामो मं एतदवोच – ‘विहरतायस्मा; तादिसो अयं धम्मो यत्थ विञ्ञू पुरिसो नचिरस्सेव सकं आचरियकं सयं अभिञ्ञा सच्छिकत्वा उपसम्पज्ज विहरेय्या’ति. सो खो अहं, भिक्खवे, नचिरस्सेव खिप्पमेव तं धम्मं परियापुणिं. सो खो अहं, भिक्खवे, तावतकेनेव ओट्ठपहतमत्तेन लपितलापनमत्तेन ञाणवादञ्च वदामि थेरवादञ्च, ‘जानामि पस्सामी’ति च पटिजानामि अहञ्चेव अञ्ञे च. तस्स मय्हं, भिक्खवे, एतदहोसि – ‘न खो आळारो कालामो इमं धम्मं केवलं सद्धामत्तकेन सयं अभिञ्ञा सच्छिकत्वा उपसम्पज्ज विहरामीति पवेदेति; अद्धा आळारो कालामो इमं धम्मं जानं पस्सं विहरती’ति.

‘‘अथ ख्वाहं, भिक्खवे, येन आळारो कालामो तेनुपसङ्कमिं; उपसङ्कमित्वा आळारं कालामं एतदवोचं – ‘कित्तावता नो, आवुसो कालाम, इमं धम्मं सयं अभिञ्ञा सच्छिकत्वा उपसम्पज्ज विहरामीति पवेदेसी’ति [उपसम्पज्ज पवेदेसीति (सी. स्या. पी.)]? एवं वुत्ते, भिक्खवे, आळारो कालामो आकिञ्चञ्ञायतनं पवेदेसि. तस्स मय्हं, भिक्खवे, एतदहोसि – ‘न खो आळारस्सेव कालामस्स अत्थि सद्धा, मय्हंपत्थि सद्धा; न खो आळारस्सेव कालामस्स अत्थि वीरियं, मय्हंपत्थि वीरियं; न खो आळारस्सेव कालामस्स अत्थि सति, मय्हंपत्थि सति; न खो आळारस्सेव कालामस्स अत्थि समाधि, मय्हंपत्थि समाधि; न खो आळारस्सेव कालामस्स अत्थि पञ्ञा, मय्हंपत्थि पञ्ञा. यंनूनाहं यं धम्मं आळारो कालामो सयं अभिञ्ञा सच्छिकत्वा उपसम्पज्ज विहरामीति पवेदेति, तस्स धम्मस्स सच्छिकिरियाय पदहेय्य’न्ति. सो खो अहं, भिक्खवे, नचिरस्सेव खिप्पमेव तं धम्मं सयं अभिञ्ञा सच्छिकत्वा उपसम्पज्ज विहासिं.

‘‘अथ ख्वाहं, भिक्खवे, येन आळारो कालामो तेनुपसङ्कमिं; उपसङ्कमित्वा आळारं कालामं एतदवोचं –

‘एत्तावता नो, आवुसो कालाम, इमं धम्मं सयं अभिञ्ञा सच्छिकत्वा उपसम्पज्ज पवेदेसी’ति?

‘एत्तावता खो अहं, आवुसो, इमं धम्मं सयं अभिञ्ञा सच्छिकत्वा उपसम्पज्ज पवेदेमी’ति.

‘अहम्पि खो, आवुसो, एत्तावता इमं धम्मं सयं अभिञ्ञा सच्छिकत्वा उपसम्पज्ज विहरामी’ति.

‘लाभा नो, आवुसो, सुलद्धं नो, आवुसो, ये मयं आयस्मन्तं तादिसं सब्रह्मचारिं पस्साम. इति याहं धम्मं सयं अभिञ्ञा सच्छिकत्वा उपसम्पज्ज पवेदेमि तं त्वं धम्मं सयं अभिञ्ञा सच्छिकत्वा उपसम्पज्ज विहरसि. यं त्वं धम्मं सयं अभिञ्ञा सच्छिकत्वा उपसम्पज्ज विहरसि तमहं धम्मं सयं अभिञ्ञा सच्छिकत्वा उपसम्पज्ज पवेदेमि. इति याहं धम्मं जानामि तं त्वं धम्मं जानासि, यं त्वं धम्मं जानासि तमहं धम्मं जानामि. इति यादिसो अहं तादिसो तुवं, यादिसो तुवं तादिसो अहं. एहि दानि, आवुसो, उभोव सन्ता इमं गणं परिहरामा’ति. इति खो, भिक्खवे, आळारो कालामो आचरियो मे समानो (अत्तनो) [( ) नत्थि (सी. स्या. पी.)] अन्तेवासिं मं समानं अत्तना [अत्तनो (सी. पी.)] समसमं ठपेसि, उळाराय च मं पूजाय पूजेसि. तस्स मय्हं, भिक्खवे, एतदहोसि – ‘नायं धम्मो निब्बिदाय न विरागाय न निरोधाय न उपसमाय न अभिञ्ञाय न सम्बोधाय न निब्बानाय संवत्तति, यावदेव आकिञ्चञ्ञायतनूपपत्तिया’ति. सो खो अहं, भिक्खवे, तं धम्मं अनलङ्करित्वा तस्मा धम्मा निब्बिज्ज अपक्कमिं.

२७८. ‘‘सो खो अहं, भिक्खवे, किं कुसलगवेसी अनुत्तरं सन्तिवरपदं परियेसमानो येन उदको [उद्दको (सी. स्या. पी.)] रामपुत्तो तेनुपसङ्कमिं; उपसङ्कमित्वा उदकं रामपुत्तं एतदवोचं – ‘इच्छामहं, आवुसो [आवुसो राम (सी. स्या. क.) महासत्तो रामपुत्तमेव अवोच, न रामं, रामो हि तत्थ गणाचरियो भवेय्य, तदा च कालङ्कतो असन्तो. तेनेवेत्थ रामायत्तानि क्रियपदानि अतीतकालवसेन आगतानि, उदको च रामपुत्तो महासत्तस्स सब्रह्मचारीत्वेव वुत्तो, न आचरियोति. टीकायं च ‘‘पाळियं रामस्सेव समापत्तिलाभिता आगता न उदकस्सा’’ति आदि पच्छाभागे पकासिता], इमस्मिं धम्मविनये ब्रह्मचरियं चरितु’न्ति. एवं वुत्ते, भिक्खवे, उदको रामपुत्तो मं एतदवोच – ‘विहरतायस्मा; तादिसो अयं धम्मो यत्थ विञ्ञू पुरिसो नचिरस्सेव सकं आचरियकं सयं अभिञ्ञा सच्छिकत्वा उपसम्पज्ज विहरेय्या’ति. सो खो अहं, भिक्खवे, नचिरस्सेव खिप्पमेव तं धम्मं परियापुणिं. सो खो अहं, भिक्खवे, तावतकेनेव ओट्ठपहतमत्तेन लपितलापनमत्तेन ञाणवादञ्च वदामि थेरवादञ्च, ‘जानामि पस्सामी’ति च पटिजानामि अहञ्चेव अञ्ञे च. तस्स मय्हं, भिक्खवे, एतदहोसि – ‘न खो रामो इमं धम्मं केवलं सद्धामत्तकेन सयं अभिञ्ञा सच्छिकत्वा उपसम्पज्ज विहरामीति पवेदेसि; अद्धा रामो इमं धम्मं जानं पस्सं विहासी’ति.

‘‘अथ ख्वाहं, भिक्खवे, येन उदको रामपुत्तो तेनुपसङ्कमिं; उपसङ्कमित्वा उदकं रामपुत्तं एतदवोचं – ‘कित्तावता नो, आवुसो, रामो इमं धम्मं सयं अभिञ्ञा सच्छिकत्वा उपसम्पज्ज विहरामीति पवेदेसी’ति? एवं वुत्ते, भिक्खवे, उदको रामपुत्तो नेवसञ्ञानासञ्ञायतनं पवेदेसि. तस्स मय्हं, भिक्खवे, एतदहोसि – ‘न खो रामस्सेव अहोसि सद्धा, मय्हंपत्थि सद्धा; न खो रामस्सेव अहोसि वीरियं , मय्हंपत्थि वीरियं; न खो रामस्सेव अहोसि सति, मय्हंपत्थि सति; न खो रामस्सेव अहोसि समाधि, मय्हंपत्थि समाधि, न खो रामस्सेव अहोसि पञ्ञा, मय्हंपत्थि पञ्ञा. यंनूनाहं यं धम्मं रामो सयं अभिञ्ञा सच्छिकत्वा उपसम्पज्ज विहरामीति पवेदेसि, तस्स धम्मस्स सच्छिकिरियाय पदहेय्य’न्ति. सो खो अहं, भिक्खवे, नचिरस्सेव खिप्पमेव तं धम्मं सयं अभिञ्ञा सच्छिकत्वा उपसम्पज्ज विहासिं.

‘‘अथ ख्वाहं, भिक्खवे, येन उदको रामपुत्तो तेनुपसङ्कमिं; उपसङ्कमित्वा उदकं रामपुत्तं एतदवोचं –

‘एत्तावता नो, आवुसो, रामो इमं धम्मं सयं अभिञ्ञा सच्छिकत्वा उपसम्पज्ज पवेदेसी’ति?

‘एत्तावता खो, आवुसो, रामो इमं धम्मं सयं अभिञ्ञा सच्छिकत्वा उपसम्पज्ज पवेदेसी’ति.

‘अहम्पि खो, आवुसो, एत्तावता इमं धम्मं सयं अभिञ्ञा सच्छिकत्वा उपसम्पज्ज विहरामी’ति.

‘लाभा नो, आवुसो, सुलद्धं नो, आवुसो, ये मयं आयस्मन्तं तादिसं सब्रह्मचारिं पस्साम. इति यं धम्मं रामो सयं अभिञ्ञा सच्छिकत्वा उपसम्पज्ज पवेदेसि, तं त्वं धम्मं सयं अभिञ्ञा सच्छिकत्वा उपसम्पज्ज विहरसि. यं त्वं धम्मं सयं अभिञ्ञा सच्छिकत्वा उपसम्पज्ज विहरसि, तं धम्मं रामो सयं अभिञ्ञा सच्छिकत्वा उपसम्पज्ज पवेदेसि. इति यं धम्मं रामो अभिञ्ञासि तं त्वं धम्मं जानासि, यं त्वं धम्मं जानासि, तं धम्मं रामो अभिञ्ञासि. इति यादिसो रामो अहोसि तादिसो तुवं, यादिसो तुवं तादिसो रामो अहोसि. एहि दानि, आवुसो, तुवं इमं गणं परिहरा’ति . इति खो, भिक्खवे , उदको रामपुत्तो सब्रह्मचारी मे समानो आचरियट्ठाने मं ठपेसि, उळाराय च मं पूजाय पूजेसि. तस्स मय्हं, भिक्खवे, एतदहोसि – ‘नायं धम्मो निब्बिदाय न विरागाय न निरोधाय न उपसमाय न अभिञ्ञाय न सम्बोधाय न निब्बानाय संवत्तति, यावदेव नेवसञ्ञानासञ्ञायतनूपपत्तिया’ति. सो खो अहं, भिक्खवे, तं धम्मं अनलङ्करित्वा तस्मा धम्मा निब्बिज्ज अपक्कमिं.

२७९. ‘‘सो खो अहं, भिक्खवे, किं कुसलगवेसी अनुत्तरं सन्तिवरपदं परियेसमानो मगधेसु अनुपुब्बेन चारिकं चरमानो येन उरुवेला सेनानिगमो तदवसरिं. तत्थद्दसं रमणीयं भूमिभागं, पासादिकञ्च वनसण्डं, नदिञ्च सन्दन्तिं सेतकं सुपतित्थं रमणीयं, समन्ता [सामन्ता (?)] च गोचरगामं . तस्स मय्हं, भिक्खवे, एतदहोसि – ‘रमणीयो वत, भो, भूमिभागो, पासादिको च वनसण्डो, नदी च सन्दति सेतका सुपतित्था रमणीया, समन्ता च गोचरगामो. अलं वतिदं कुलपुत्तस्स पधानत्थिकस्स पधानाया’ति. सो खो अहं, भिक्खवे, तत्थेव निसीदिं – अलमिदं पधानायाति.

२८०. ‘‘सो खो अहं, भिक्खवे, अत्तना जातिधम्मो समानो जातिधम्मे आदीनवं विदित्वा अजातं अनुत्तरं योगक्खेमं निब्बानं परियेसमानो अजातं अनुत्तरं योगक्खेमं निब्बानं अज्झगमं, अत्तना जराधम्मो समानो जराधम्मे आदीनवं विदित्वा अजरं अनुत्तरं योगक्खेमं निब्बानं परियेसमानो अजरं अनुत्तरं योगक्खेमं निब्बानं अज्झगमं, अत्तना ब्याधिधम्मो समानो ब्याधिधम्मे आदीनवं विदित्वा अब्याधिं अनुत्तरं योगक्खेमं निब्बानं परियेसमानो अब्याधिं अनुत्तरं योगक्खेमं निब्बानं अज्झगमं, अत्तना मरणधम्मो समानो मरणधम्मे आदीनवं विदित्वा अमतं अनुत्तरं योगक्खेमं निब्बानं अज्झगमं, अत्तना सोकधम्मो समानो सोकधम्मे आदीनवं विदित्वा असोकं अनुत्तरं योगक्खेमं निब्बानं अज्झगमं, अत्तना संकिलेसधम्मो समानो संकिलेसधम्मे आदीनवं विदित्वा असंकिलिट्ठं अनुत्तरं योगक्खेमं निब्बानं परियेसमानो असंकिलिट्ठं अनुत्तरं योगक्खेमं निब्बानं अज्झगमं. ञाणञ्च पन मे दस्सनं उदपादि – ‘अकुप्पा मे विमुत्ति, अयमन्तिमा जाति, नत्थि दानि पुनब्भवो’ति.

२८१. ‘‘तस्स मय्हं, भिक्खवे, एतदहोसि – ‘अधिगतो खो म्यायं धम्मो गम्भीरो दुद्दसो दुरनुबोधो सन्तो पणीतो अतक्कावचरो निपुणो पण्डितवेदनीयो. आलयरामा खो पनायं पजा आलयरता आलयसम्मुदिता. आलयरामा खो पनायं पजा आलयरताय आलयसम्मुदिताय दुद्दसं इदं ठानं यदिदं – इदप्पच्चयता पटिच्चसमुप्पादो. इदम्पि खो ठानं दुद्दसं यदिदं – सब्बसङ्खारसमथो सब्बूपधिपटिनिस्सग्गो तण्हाक्खयो विरागो निरोधो निब्बानं. अहञ्चेव खो पन धम्मं देसेय्यं, परे च मे न आजानेय्युं, सो ममस्स किलमथो, सा ममस्स विहेसा’ति. अपिस्सु मं, भिक्खवे, इमा अनच्छरिया गाथायो पटिभंसु पुब्बे अस्सुतपुब्बा –

‘किच्छेन मे अधिगतं, हलं दानि पकासितुं;

रागदोसपरेतेहि, नायं धम्मो सुसम्बुधो.

‘पटिसोतगामिं निपुणं, गम्भीरं दुद्दसं अणुं;

रागरत्ता न दक्खन्ति, तमोखन्धेन आवुटा’’’ति [आवटाति (सी.), आवुता (स्या.)].

२८२. ‘‘इतिह मे, भिक्खवे, पटिसञ्चिक्खतो अप्पोस्सुक्कताय चित्तं नमति, नो धम्मदेसनाय. अथ खो, भिक्खवे, ब्रह्मुनो सहम्पतिस्स मम चेतसा चेतोपरिवितक्कमञ्ञाय एतदहोसि – ‘नस्सति वत भो लोको, विनस्सति वत भो लोको, यत्र हि नाम तथागतस्स अरहतो सम्मासम्बुद्धस्स अप्पोस्सुक्कताय चित्तं नमति [नमिस्सति (?)], नो धम्मदेसनाया’ति. अथ खो, भिक्खवे, ब्रह्मा सहम्पति – सेय्यथापि नाम बलवा पुरिसो समिञ्जितं वा बाहं पसारेय्य, पसारितं वा बाहं समिञ्जेय्य, एवमेव – ब्रह्मलोके अन्तरहितो मम पुरतो पातुरहोसि. अथ खो, भिक्खवे, ब्रह्मा सहम्पति एकंसं उत्तरासङ्गं करित्वा येनाहं तेनञ्जलिं पणामेत्वा मं एतदवोच – ‘देसेतु, भन्ते, भगवा धम्मं, देसेतु सुगतो धम्मं. सन्ति सत्ता अप्परजक्खजातिका, अस्सवनता धम्मस्स परिहायन्ति. भविस्सन्ति धम्मस्स अञ्ञातारो’ति. इदमवोच, भिक्खवे, ब्रह्मा सहम्पति. इदं वत्वा अथापरं एतदवोच –

‘पातुरहोसि मगधेसु पुब्बे,

धम्मो असुद्धो समलेहि चिन्तितो;

अपापुरेतं [अवापुरेतं (सी.)] अमतस्स द्वारं,

सुणन्तु धम्मं विमलेनानुबुद्धं.

‘सेले यथा पब्बतमुद्धनिट्ठितो,

यथापि पस्से जनतं समन्ततो;

तथूपमं धम्ममयं सुमेध,

पासादमारुय्ह समन्तचक्खु;

सोकावतिण्णं [सोकावकिण्णं (स्या.)] जनतमपेतसोको,

अवेक्खस्सु जातिजराभिभूतं.

‘उट्ठेहि वीर विजितसङ्गाम,

सत्थवाह अणण विचर लोके;

देसस्सु [देसेतु (स्या. क.)] भगवा धम्मं,

अञ्ञातारो भविस्सन्ती’’’ति.

२८३. ‘‘अथ खो अहं, भिक्खवे, ब्रह्मुनो च अज्झेसनं विदित्वा सत्तेसु च कारुञ्ञतं पटिच्च बुद्धचक्खुना लोकं वोलोकेसिं. अद्दसं खो अहं, भिक्खवे, बुद्धचक्खुना लोकं वोलोकेन्तो सत्ते अप्परजक्खे महारजक्खे, तिक्खिन्द्रिये मुदिन्द्रिये, स्वाकारे द्वाकारे, सुविञ्ञापये दुविञ्ञापये, अप्पेकच्चे परलोकवज्जभयदस्साविने [दस्साविनो (स्या. कं. क.)] विहरन्ते, अप्पेकच्चे न परलोकवज्जभयदस्साविने [दस्साविनो (स्या. कं. क.)] विहरन्ते. सेय्यथापि नाम उप्पलिनियं वा पदुमिनियं वा पुण्डरीकिनियं वा अप्पेकच्चानि उप्पलानि वा पदुमानि वा पुण्डरीकानि वा उदके जातानि उदके संवड्ढानि उदकानुग्गतानि अन्तोनिमुग्गपोसीनि, अप्पेकच्चानि उप्पलानि वा पदुमानि वा पुण्डरीकानि वा उदके जातानि उदके संवड्ढानि उदकानुग्गतानि समोदकं ठितानि, अप्पेकच्चानि उप्पलानि वा पदुमानि वा पुण्डरीकानि वा उदके जातानि उदके संवड्ढानि उदकं अच्चुग्गम्म ठितानि [तिट्ठन्ति (सी. स्या. पी.)] अनुपलित्तानि उदकेन; एवमेव खो अहं, भिक्खवे, बुद्धचक्खुना लोकं वोलोकेन्तो अद्दसं सत्ते अप्परजक्खे महारजक्खे, तिक्खिन्द्रिये मुदिन्द्रिये, स्वाकारे द्वाकारे, सुविञ्ञापये दुविञ्ञापये, अप्पेकच्चे परलोकवज्जभयदस्साविने विहरन्ते, अप्पेकच्चे न परलोकवज्जभयदस्साविने विहरन्ते. अथ ख्वाहं, भिक्खवे, ब्रह्मानं सहम्पतिं गाथाय पच्चभासिं –

‘अपारुता तेसं अमतस्स द्वारा,

ये सोतवन्तो पमुञ्चन्तु सद्धं;

विहिंससञ्ञी पगुणं न भासिं,

धम्मं पणीतं मनुजेसु ब्रह्मे’’’ति.

‘‘अथ खो, भिक्खवे, ब्रह्मा सहम्पति ‘कतावकासो खोम्हि भगवता धम्मदेसनाया’ति मं अभिवादेत्वा पदक्खिणं कत्वा तत्थेवन्तरधायि.

२८४. ‘‘तस्स मय्हं, भिक्खवे, एतदहोसि – ‘कस्स नु खो अहं पठमं धम्मं देसेय्यं; को इमं धम्मं खिप्पमेव आजानिस्सती’ति? तस्स मय्हं, भिक्खवे, एतदहोसि – ‘अयं खो आळारो कालामो पण्डितो वियत्तो मेधावी दीघरत्तं अप्परजक्खजातिको. यंनूनाहं आळारस्स कालामस्स पठमं धम्मं देसेय्यं. सो इमं धम्मं खिप्पमेव आजानिस्सती’ति. अथ खो मं, भिक्खवे, देवता उपसङ्कमित्वा एतदवोच – ‘सत्ताहकालङ्कतो, भन्ते, आळारो कालामो’ति. ञाणञ्च पन मे दस्सनं उदपादि – ‘सत्ताहकालङ्कतो आळारो कालामो’ति. तस्स मय्हं, भिक्खवे, एतदहोसि – ‘महाजानियो खो आळारो कालामो. सचे हि सो इमं धम्मं सुणेय्य, खिप्पमेव आजानेय्या’ति.

‘‘तस्स मय्हं, भिक्खवे, एतदहोसि – ‘कस्स नु खो अहं पठमं धम्मं देसेय्यं; को इमं धम्मं खिप्पमेव आजानिस्सती’ति? तस्स मय्हं, भिक्खवे, एतदहोसि – ‘अयं खो उदको रामपुत्तो पण्डितो वियत्तो मेधावी दीघरत्तं अप्परजक्खजातिको. यंनूनाहं उदकस्स रामपुत्तस्स पठमं धम्मं देसेय्यं. सो इमं धम्मं खिप्पमेव आजानिस्सती’ति. अथ खो मं, भिक्खवे, देवता उपसङ्कमित्वा एतदवोच – ‘अभिदोसकालङ्कतो, भन्ते, उदको रामपुत्तो’ति. ञाणञ्च पन मे दस्सनं उदपादि – ‘अभिदोसकालङ्कतो उदको रामपुत्तो’ति. तस्स मय्हं, भिक्खवे, एतदहोसि – ‘महाजानियो खो उदको रामपुत्तो. सचे हि सो इमं धम्मं सुणेय्य , खिप्पमेव आजानेय्या’ति.

‘‘तस्स मय्हं , भिक्खवे, एतदहोसि – ‘कस्स नु खो अहं पठमं धम्मं देसेय्यं; को इमं धम्मं खिप्पमेव आजानिस्सती’ति? तस्स मय्हं, भिक्खवे, एतदहोसि – ‘बहुकारा खो मे पञ्चवग्गिया भिक्खू, ये मं पधानपहितत्तं उपट्ठहिंसु. यंनूनाहं पञ्चवग्गियानं भिक्खूनं पठमं धम्मं देसेय्य’न्ति. तस्स मय्हं, भिक्खवे, एतदहोसि – ‘कहं नु खो एतरहि पञ्चवग्गिया भिक्खू विहरन्ती’ति? अद्दसं खो अहं, भिक्खवे, दिब्बेन चक्खुना विसुद्धेन अतिक्कन्तमानुसकेन पञ्चवग्गिये भिक्खू बाराणसियं विहरन्ते इसिपतने मिगदाये. अथ ख्वाहं, भिक्खवे, उरुवेलायं यथाभिरन्तं विहरित्वा येन बाराणसी तेन चारिकं पक्कमिं [पक्कामिं (स्या. पी. क.)].

२८५. ‘‘अद्दसा खो मं, भिक्खवे, उपको आजीवको अन्तरा [आजीविको (सी. पी. क.)] च गयं अन्तरा च बोधिं अद्धानमग्गप्पटिपन्नं. दिस्वान मं एतदवोच – ‘विप्पसन्नानि खो ते, आवुसो, इन्द्रियानि, परिसुद्धो छविवण्णो परियोदातो! कंसि त्वं, आवुसो, उद्दिस्स पब्बजितो, को वा ते सत्था, कस्स वा त्वं धम्मं रोचेसी’ति ? एवं वुत्ते, अहं, भिक्खवे, उपकं आजीवकं गाथाहि अज्झभासिं –

‘सब्बाभिभू सब्बविदूहमस्मि, सब्बेसु धम्मेसु अनूपलित्तो;

सब्बञ्जहो तण्हाक्खये विमुत्तो, सयं अभिञ्ञाय कमुद्दिसेय्यं.

‘न मे आचरियो अत्थि, सदिसो मे न विज्जति;

सदेवकस्मिं लोकस्मिं, नत्थि मे पटिपुग्गलो.

‘अहञ्हि अरहा लोके, अहं सत्था अनुत्तरो;

एकोम्हि सम्मासम्बुद्धो, सीतिभूतोस्मि निब्बुतो.

‘धम्मचक्कं पवत्तेतुं, गच्छामि कासिनं पुरं;

अन्धीभूतस्मिं [अन्धभूतस्मिं (सी. स्या. पी.)] लोकस्मिं, आहञ्छं अमतदुन्दुभि’न्ति.

‘यथा खो त्वं, आवुसो, पटिजानासि, अरहसि अनन्तजिनो’ति!

‘मादिसा वे जिना होन्ति, ये पत्ता आसवक्खयं;

जिता मे पापका धम्मा, तस्माहमुपक जिनो’ति.

‘‘एवं वुत्ते, भिक्खवे, उपको आजीवको ‘हुपेय्यपावुसो’ति [हुवेय्यपावुसो (सी. पी.), हुवेय्यावुसो (स्या.)] वत्वा सीसं ओकम्पेत्वा उम्मग्गं गहेत्वा पक्कामि.

२८६. ‘‘अथ ख्वाहं, भिक्खवे, अनुपुब्बेन चारिकं चरमानो येन बाराणसी इसिपतनं मिगदायो येन पञ्चवग्गिया भिक्खू तेनुपसङ्कमिं. अद्दसंसु खो मं, भिक्खवे, पञ्चवग्गिया भिक्खू दूरतो आगच्छन्तं. दिस्वान अञ्ञमञ्ञं सण्ठपेसुं [अञ्ञमञ्ञं कतिकं सण्ठपेसुं (विनयपिटके महावग्गे)] – ‘अयं खो, आवुसो, समणो गोतमो आगच्छति बाहुल्लिको [बाहुलिको (सी. पी.) सारत्थदीपनीटीकाय समेति] पधानविब्भन्तो आवत्तो बाहुल्लाय. सो नेव अभिवादेतब्बो, न पच्चुट्ठातब्बो; नास्स पत्तचीवरं पटिग्गहेतब्बं. अपि च खो आसनं ठपेतब्बं, सचे आकङ्खिस्सति निसीदिस्सती’ति. यथा यथा खो अहं, भिक्खवे, उपसङ्कमिं तथा तथा पञ्चवग्गिया भिक्खू नासक्खिंसु सकाय कतिकाय सण्ठातुं. अप्पेकच्चे मं पच्चुग्गन्त्वा पत्तचीवरं पटिग्गहेसुं, अप्पेकच्चे आसनं पञ्ञपेसुं, अप्पेकच्चे पादोदकं उपट्ठपेसुं. अपि च खो मं नामेन च आवुसोवादेन च समुदाचरन्ति.

‘‘एवं वुत्ते, अहं, भिक्खवे, पञ्चवग्गिये भिक्खू एतदवोचं – ‘मा, भिक्खवे, तथागतं नामेन च आवुसोवादेन च समुदाचरथ [समुदाचरित्थ (सी. स्या. पी.)]. अरहं, भिक्खवे, तथागतो सम्मासम्बुद्धो . ओदहथ, भिक्खवे, सोतं, अमतमधिगतं, अहमनुसासामि, अहं धम्मं देसेमि. यथानुसिट्ठं तथा पटिपज्जमाना नचिरस्सेव – यस्सत्थाय कुलपुत्ता सम्मदेव अगारस्मा अनगारियं पब्बजन्ति तदनुत्तरं – ब्रह्मचरियपरियोसानं दिट्ठेव धम्मे सयं अभिञ्ञा सच्छिकत्वा उपसम्पज्ज विहरिस्सथा’ति. एवं वुत्ते, भिक्खवे, पञ्चवग्गिया भिक्खू मं एतदवोचुं – ‘तायपि खो त्वं, आवुसो गोतम, इरियाय ताय पटिपदाय ताय दुक्करकारिकाय नाज्झगमा उत्तरिमनुस्सधम्मा अलमरियञाणदस्सनविसेसं, किं पन त्वं एतरहि बाहुल्लिको पधानविब्भन्तो आवत्तो बाहुल्लाय अधिगमिस्ससि उत्तरिमनुस्सधम्मा अलमरियञाणदस्सनविसेस’न्ति? एवं वुत्ते, अहं, भिक्खवे, पञ्चवग्गिये भिक्खू एतदवोचं – ‘न, भिक्खवे, तथागतो बाहुल्लिको, न पधानविब्भन्तो, न आवत्तो बाहुल्लाय . अरहं, भिक्खवे, तथागतो सम्मासम्बुद्धो. ओदहथ, भिक्खवे, सोतं, अमतमधिगतं, अहमनुसासामि, अहं धम्मं देसेमि. यथानुसिट्ठं तथा पटिपज्जमाना नचिरस्सेव – यस्सत्थाय कुलपुत्ता सम्मदेव अगारस्मा अनगारियं पब्बजन्ति तदनुत्तरं – ब्रह्मचरियपरियोसानं दिट्ठेव धम्मे सयं अभिञ्ञा सच्छिकत्वा उपसम्पज्ज विहरिस्सथा’ति. दुतियम्पि खो, भिक्खवे, पञ्चवग्गिया भिक्खू मं एतदवोचुं – ‘तायपि खो त्वं, आवुसो गोतम, इरियाय ताय पटिपदाय ताय दुक्करकारिकाय नाज्झगमा उत्तरिमनुस्सधम्मा अलमरियञाणदस्सनविसेसं, किं पन त्वं एतरहि बाहुल्लिको पधानविब्भन्तो आवत्तो बाहुल्लाय अधिगमिस्ससि उत्तरिमनुस्सधम्मा अलमरियञाणदस्सनविसेस’न्ति? दुतियम्पि खो अहं, भिक्खवे, पञ्चवग्गिये भिक्खू एतदवोचं – ‘न, भिक्खवे, तथागतो बाहुल्लिको…पे… उपसम्पज्ज विहरिस्सथा’ति. ततियम्पि खो, भिक्खवे, पञ्चवग्गिया भिक्खू मं एतदवोचुं – ‘तायपि खो त्वं, आवुसो गोतम, इरियाय ताय पटिपदाय ताय दुक्करकारिकाय नाज्झगमा उत्तरिमनुस्सधम्मा अलमरियञाणदस्सनविसेसं, किं पन त्वं एतरहि बाहुल्लिको पधानविब्भन्तो आवत्तो बाहुल्लाय अधिगमिस्ससि उत्तरिमनुस्सधम्मा अलमरियञाणदस्सनविसेस’न्ति?

‘‘एवं वुत्ते, अहं, भिक्खवे, पञ्चवग्गिये भिक्खू एतदवोचं – ‘अभिजानाथ मे नो तुम्हे, भिक्खवे, इतो पुब्बे एवरूपं पभावितमेत’न्ति [भासितमेतन्ति (सी. स्या. विनयेपि)]? ‘नो हेतं, भन्ते’. ‘अरहं, भिक्खवे, तथागतो सम्मासम्बुद्धो. ओदहथ, भिक्खवे, सोतं, अमतमधिगतं, अहमनुसासामि, अहं धम्मं देसेमि. यथानुसिट्ठं तथा पटिपज्जमाना नचिरस्सेव – यस्सत्थाय कुलपुत्ता सम्मदेव अगारस्मा अनगारियं पब्बजन्ति तदनुत्तरं – ब्रह्मचरियपरियोसानं दिट्ठेव धम्मे सयं अभिञ्ञा सच्छिकत्वा उपसम्पज्ज विहरिस्सथा’ति.

‘‘असक्खिं खो अहं, भिक्खवे, पञ्चवग्गिये भिक्खू सञ्ञापेतुं. द्वेपि सुदं, भिक्खवे, भिक्खू ओवदामि, तयो भिक्खू पिण्डाय चरन्ति. यं तयो भिक्खू पिण्डाय चरित्वा आहरन्ति तेन छब्बग्गिया [छब्बग्गा (सी. स्या.)] यापेम. तयोपि सुदं, भिक्खवे, भिक्खू ओवदामि, द्वे भिक्खू पिण्डाय चरन्ति. यं द्वे भिक्खू पिण्डाय चरित्वा आहरन्ति तेन छब्बग्गिया यापेम. अथ खो, भिक्खवे, पञ्चवग्गिया भिक्खू मया एवं ओवदियमाना एवं अनुसासियमाना अत्तना जातिधम्मा समाना जातिधम्मे आदीनवं विदित्वा अजातं अनुत्तरं योगक्खेमं निब्बानं परियेसमाना अजातं अनुत्तरं योगक्खेमं निब्बानं अज्झगमंसु, अत्तना जराधम्मा समाना जराधम्मे आदीनवं विदित्वा अजरं अनुत्तरं योगक्खेमं निब्बानं परियेसमाना अजरं अनुत्तरं योगक्खेमं निब्बानं अज्झगमंसु, अत्तना ब्याधिधम्मा समाना…पे… अत्तना मरणधम्मा समाना… अत्तना सोकधम्मा समाना… अत्तना संकिलेसधम्मा समाना संकिलेसधम्मे आदीनवं विदित्वा असंकिलिट्ठं अनुत्तरं योगक्खेमं निब्बानं परियेसमाना असंकिलिट्ठं अनुत्तरं योगक्खेमं निब्बानं अज्झगमंसु. ञाणञ्च पन नेसं दस्सनं उदपादि – ‘अकुप्पा नो विमुत्ति [अकुप्पा नेसं विमुत्ति (क.)], अयमन्तिमा जाति, नत्थि दानि पुनब्भवो’ति.

२८७. ‘‘पञ्चिमे, भिक्खवे, कामगुणा. कतमे पञ्च? चक्खुविञ्ञेय्या रूपा इट्ठा कन्ता मनापा पियरूपा कामूपसंहिता रजनीया, सोतविञ्ञेय्या सद्दा…पे… घानविञ्ञेय्या गन्धा… जिव्हाविञ्ञेय्या रसा… कायविञ्ञेय्या फोट्ठब्बा इट्ठा कन्ता मनापा पियरूपा कामूपसंहिता रजनीया. इमे खो, भिक्खवे, पञ्च कामगुणा. ये हि केचि, भिक्खवे, समणा वा ब्राह्मणा वा इमे पञ्च कामगुणे गथिता मुच्छिता अज्झोपन्ना अनादीनवदस्साविनो अनिस्सरणपञ्ञा परिभुञ्जन्ति, ते एवमस्सु वेदितब्बा – ‘अनयमापन्ना ब्यसनमापन्ना यथाकामकरणीया पापिमतो’ [पापिमतो’’ति (?)]. ‘सेय्यथापि, भिक्खवे, आरञ्ञको मगो बद्धो पासरासिं अधिसयेय्य. सो एवमस्स वेदितब्बो – अनयमापन्नो ब्यसनमापन्नो यथाकामकरणीयो लुद्दस्स. आगच्छन्ते च पन लुद्दे येन कामं न पक्कमिस्सती’ति. एवमेव खो, भिक्खवे, ये हि केचि समणा वा ब्राह्मणा वा इमे पञ्च कामगुणे गथिता मुच्छिता अज्झोपन्ना अनादीनवदस्साविनो अनिस्सरणपञ्ञा परिभुञ्जन्ति, ते एवमस्सु वेदितब्बा – ‘अनयमापन्ना ब्यसनमापन्ना यथाकामकरणीया पापिमतो’. ये च खो केचि, भिक्खवे, समणा वा ब्राह्मणा वा इमे पञ्च कामगुणे अगथिता अमुच्छिता अनज्झोपन्ना आदीनवदस्साविनो निस्सरणपञ्ञा परिभुञ्जन्ति, ते एवमस्सु वेदितब्बा – ‘न अनयमापन्ना न ब्यसनमापन्ना न यथाकामकरणीया पापिमतो’.

‘‘सेय्यथापि , भिक्खवे, आरञ्ञको मगो अबद्धो पासरासिं अधिसयेय्य. सो एवमस्स वेदितब्बो – ‘न अनयमापन्नो न ब्यसनमापन्नो न यथाकामकरणीयो लुद्दस्स. आगच्छन्ते च पन लुद्दे येन कामं पक्कमिस्सती’ति. एवमेव खो, भिक्खवे, ये हि केचि समणा वा ब्राह्मणा वा इमे पञ्च कामगुणे अगथिता अमुच्छिता अनज्झोपन्ना आदीनवदस्साविनो निस्सरणपञ्ञा परिभुञ्जन्ति, ते एवमस्सु वेदितब्बा – ‘न अनयमापन्ना न ब्यसनमापन्ना न यथाकामकरणीया पापिमतो’.

‘‘सेय्यथापि, भिक्खवे, आरञ्ञको मगो अरञ्ञे पवने चरमानो विस्सत्थो गच्छति, विस्सत्थो तिट्ठति, विस्सत्थो निसीदति, विस्सत्थो सेय्यं कप्पेति. तं किस्स हेतु? अनापाथगतो, भिक्खवे, लुद्दस्स. एवमेव खो, भिक्खवे, भिक्खु विविच्चेव कामेहि विविच्च अकुसलेहि धम्मेहि सवितक्कं सविचारं विवेकजं पीतिसुखं पठमं झानं उपसम्पज्ज विहरति. अयं वुच्चति, भिक्खवे, भिक्खु अन्धमकासि मारं अपदं, वधित्वा मारचक्खुं अदस्सनं गतो पापिमतो.

‘‘पुन चपरं, भिक्खवे, भिक्खु वितक्कविचारानं वूपसमा अज्झत्तं सम्पसादनं चेतसो एकोदिभावं अवितक्कं अविचारं समाधिजं पीतिसुखं दुतियं झानं उपसम्पज्ज विहरति. अयं वुच्चति, भिक्खवे…पे… पापिमतो.

‘‘पुन चपरं, भिक्खवे, भिक्खु पीतिया च विरागा उपेक्खको च विहरति, सतो च सम्पजानो, सुखञ्च कायेन पटिसंवेदेति यं तं अरिया आचिक्खन्ति ‘उपेक्खको सतिमा सुखविहारी’ति ततियं झानं उपसम्पज्ज विहरति. अयं वुच्चति, भिक्खवे…पे… पापिमतो.

‘‘पुन चपरं, भिक्खवे, भिक्खु सुखस्स च पहाना दुक्खस्स च पहाना पुब्बेव सोमनस्सदोमनस्सानं अत्थङ्गमा अदुक्खमसुखं उपेक्खासतिपारिसुद्धिं चतुत्थं झानं उपसम्पज्ज विहरति. अयं वुच्चति, भिक्खवे…पे… पापिमतो.

‘‘पुन चपरं, भिक्खवे, भिक्खु सब्बसो रूपसञ्ञानं समतिक्कमा पटिघसञ्ञानं अत्थङ्गमा नानत्तसञ्ञानं अमनसिकारा ‘अनन्तो आकासो’ति आकासानञ्चायतनं उपसम्पज्ज विहरति. अयं वुच्चति, भिक्खवे…पे… पापिमतो.

‘‘पुन चपरं, भिक्खवे, भिक्खु सब्बसो आकासानञ्चायतनं समतिक्कम्म ‘अनन्तं विञ्ञाण’न्ति विञ्ञाणञ्चायतनं उपसम्पज्ज विहरति. अयं वुच्चति, भिक्खवे…पे… पापिमतो.

‘‘पुन चपरं, भिक्खवे, भिक्खु सब्बसो विञ्ञाणञ्चायतनं समतिक्कम्म ‘नत्थि किञ्ची’ति आकिञ्चञ्ञायतनं उपसम्पज्ज विहरति. अयं वुच्चति, भिक्खवे…पे… पापिमतो.

‘‘पुन चपरं, भिक्खवे, भिक्खु सब्बसो आकिञ्चञ्ञायतनं समतिक्कम्म नेवसञ्ञानासञ्ञायतनं उपसम्पज्ज विहरति. अयं वुच्चति, भिक्खवे…पे… पापिमतो.

‘‘पुन चपरं, भिक्खवे, भिक्खु सब्बसो नेवसञ्ञानासञ्ञायतनं समतिक्कम्म सञ्ञावेदयितनिरोधं उपसम्पज्ज विहरति, पञ्ञाय चस्स दिस्वा आसवा परिक्खीणा होन्ति. अयं वुच्चति, भिक्खवे, भिक्खु अन्धमकासि मारं अपदं, वधित्वा मारचक्खुं अदस्सनं गतो पापिमतो. तिण्णो लोके विसत्तिकं विस्सत्थो गच्छति, विस्सत्थो तिट्ठति, विस्सत्थो निसीदति, विस्सत्थो सेय्यं कप्पेति. तं किस्स हेतु? अनापाथगतो, भिक्खवे, पापिमतो’’ति.

इदमवोच भगवा. अत्तमना ते भिक्खू भगवतो भासितं अभिनन्दुन्ति.

पासरासिसुत्तं निट्ठितं छट्ठं.