नमो तस्स भगवतो अरहतो सम्मा-सम्बुद्धस्स

📜 हाथी के पदचिन्ह

सूत्र परिचय

भोले लोग छोटी-सी झलक पाकर तुरंत निष्कर्ष निकालते हैं। जो बड़ी जल्दी मान लेता है, वह अक्सर छोटा-सा लाभ पाकर संतुष्ट हो जाता है। संतुष्ट हुआ व्यक्ति वहीं रुक जाता है, आगे बढ़कर उसके दावों का न परीक्षण करता है, न सत्यापित करता है।

अनेक धार्मिक लोग श्रद्धा के अतिरेक में किसी भी बात को बिना सोचे-समझे, बिना जाँचें-परखें, तुरंत मान लेते हैं। देखा जाता हैं कि अक्सर ऐसे लोग धर्म में बहुत आगे नहीं बढ़ पाते। लेकिन भगवान सुझाव देते हैं कि किसी बड़े निष्कर्ष पर पहुँचने से पहले जल्दबाजी न करें। किसी बड़े दावे का स्वीकार करने के लिए, उसके पक्ष में उतनी ही बड़ी दलील होनी चाहिए, उतने ही ठोस सबूत होने चाहिए। यह एक गहरी समझ और धैर्य की बात है।

धर्म की सच्चाई उसके ऊँचे दावों से नहीं, उसके उपजने वाले परिणामों से सिद्ध होती है। भगवान कहते हैं कि इस धर्म की कसकर परीक्षा लेनी चाहिए और उसके दावों को चुनौती देने का प्रयास करना चाहिए। लेकिन इस परीक्षण की शुरुवात करने से पहले धर्म को ठीक से धारण करना अनिवार्य है।

व्यक्तिगत रूप से, यह सूत्र मुझे बहुत प्रभावित करता है। यह धर्म के प्रति सतर्कता और यथार्थवादी दृष्टिकोण को अपनाने की प्रेरणा देता है। भगवान ने इस प्रकार की सावधानी को कई सूत्रों में विस्तार से बताया है, जैसे कि मज्झिमनिकाय ४७, ६० और ९९ में।

श्रीलंकाई ऐतिहासिक ग्रंथ महावंश १४.२२ के अनुसार, यही सूत्र वह पहला उपदेश था, जो सम्राट अशोक के पुत्र, अरहंत भिक्षु महिन्द ने श्रीलंका के राजा देवानंपियतिस्स को दिया था। यह घटना लगभग २५० ईसापूर्व की मानी जाती है। इस उपदेश के ही कारण राजा का धर्मांतरण हुआ और श्रीलंका में बौद्ध धर्म का प्रचार प्रारंभ हुआ। और शायद, इसी प्रभावशाली सूत्र के अपने योगदान के कारण, आज भी धर्म हमारे लिए संरक्षित है।

✦ ॥ नमो तस्स भगवतो अरहतो सम्मासम्बुद्धस्स ॥ ✦

Hindi

ऐसा मैंने सुना — एक समय भगवान श्रावस्ती में अनाथपिण्डक के जेतवन उद्यान में विहार कर रहे थे। उस समय जाणुस्सोणि ब्राह्मण, पूर्ण श्वेत (=सफेद) घोड़ियों के रथ पर सवार होकर, दिन के बीच श्रावस्ती से निकला। तब जाणुस्सोणि ब्राह्मण ने पिलोतिक घुमक्कड़ को दूर से आते देखा। और देखकर पिलोतिक घुमक्कड़ से कहा, “दिन के बीच में वच्छायन श्रीमान, कहाँ से आ रहे हैं?”

“श्रीमान, अभी मैं श्रमण गौतम के पास के आ रहा हूँ।”

“क्या लगता है, वच्छायन श्रीमान? क्या श्रमण गौतम की प्रज्ञा में धार है? क्या पंडित लगते हैं?”

“भला मैं कौन होता हूँ, श्रीमान, श्रमण गौतम की प्रज्ञा में धार जानने वाला? उसे जानने के लिए तो हमें भी उस स्तर का होना पड़ेगा।”

“वच्छायन श्रीमान तो श्रमण गौतम की भव्य प्रशंसा करते हैं।”

“भला मैं कौन होता हूँ, श्रीमान, श्रमण गौतम की भव्य प्रशंसा करने वाला? श्रमण गौतम तो प्रशंसितों के द्वारा प्रशंसित होते हैं, (कहते हुए,) ‘देव-मनुष्यों में श्रेष्ठ!’”

“क्या कारण देख कर, वच्छायन श्रीमान, आप श्रमण गौतम के प्रति इतने अधिक आस्थावान है?”

“जैसे, श्रीमान, कोई हाथियों का खोजी (या शिकारी) हाथियों के वन में प्रवेश करता है। और उसे उस हाथियों के वन में एक भारी हाथी का पदचिन्ह दिखायी देता है — बहुत लंबा और चौड़ा। तो वह इस निष्कर्ष पर पहुँचता है, ‘ओह भाई! यह तो कोई विशाल नर हाथी है!’

उसी तरह, श्रीमान, मैं श्रमण गौतम के चार पदचिन्हों को देखकर इस निष्कर्ष पर पहुँचा हूँ कि — ‘भगवान ही सम्यक-सम्बुद्ध हैं! भगवान का धर्म स्पष्ट बताया है! भगवान का श्रावकसंघ सुमार्ग पर चलता है!’

कौन-से चार?

(१) श्रीमान, मैं ऐसे क्षत्रियों को देखता हूँ, जो पण्डित हैं, निपुण हैं, शास्त्रार्थ में माहिर हैं, बाल की खाल निकालने वाले हैं, और अन्तर्ज्ञान से दूसरे की धारणाओं की चीर-फाड़ करते घूमते हैं। वे सुनते हैं, ‘ओह श्रीमान, सुना हैं कि श्रमण गौतम अमुक गाँव या नगर में पधारने वाले हैं।’ तब वे (तरह-तरह के) प्रश्न बुनते हैं, ‘हम जाकर श्रमण गौतम से ये प्रश्न पूछेंगे! यदि वे उस प्रश्न का उत्तर इस तरह दे, तो हम इस तरह उसका खण्डन करेंगे। और यदि वे उस प्रश्न का उत्तर उस तरह दे, तो हम उस तरह उसका खण्डन करेंगे।’

और वे सुनते हैं, ‘ओह श्रीमान, श्रमण गौतम अमुक गाँव या नगर में पधार चुके हैं।’

तब वे श्रमण गौतम के पास जाते हैं। और उन्हें श्रमण गौतम अपने धर्म-कथन से निर्देशित करते हैं, उत्प्रेरित करते हैं, प्रोत्साहित करते हैं, हर्षित करते हैं। तब श्रमण गौतम के धर्म-कथन से निर्देशित, उत्प्रेरित, प्रोत्साहित, हर्षित होकर, वे श्रमण गौतम को प्रश्न तक नहीं पूछ पाते हैं, तो भला खण्डन क्या करेंगे? बल्कि, बिना अपवाद के वे श्रमण गौतम के श्रावक होकर रह जाते हैं।

इस तरह, श्रीमान, श्रमण गौतम के पहले पदचिन्ह को देखकर मैं इस निष्कर्ष पर पहुँचा हूँ कि — ‘भगवान ही सम्यक-सम्बुद्ध हैं! भगवान का धर्म स्पष्ट बताया है! भगवान का श्रावकसंघ सुमार्ग पर चलता है!’

(२) आगे, श्रीमान, मैं ऐसे ब्राह्मणों को…

(३) आगे, श्रीमान, मैं ऐसे गृहस्थों (=वैश्य) को…

(४) आगे, श्रीमान, मैं ऐसे श्रमणों 1 को देखता हूँ, जो पण्डित हैं, निपुण हैं, शास्त्रार्थ में माहिर हैं, बाल की खाल निकालने वाले हैं, और अन्तर्ज्ञान से दूसरे की धारणाओं की चीर-फाड़ करते घूमते हैं। वे सुनते हैं, ‘ओह श्रीमान, सुना हैं कि श्रमण गौतम अमुक गाँव या नगर में पधारने वाले हैं।’ तब वे प्रश्न बुनते हैं, ‘हम जाकर श्रमण गौतम से ये प्रश्न पूछेंगे! यदि वे उस प्रश्न का उत्तर इस तरह दे, तो हम इस तरह उसका खण्डन करेंगे। और यदि वे उस प्रश्न का उत्तर उस तरह दे, तो हम उस तरह उसका खण्डन करेंगे।’

और वे सुनते हैं, ‘ओह श्रीमान, श्रमण गौतम अमुक गाँव या नगर में पधार चुके हैं।’

तब वे श्रमण गौतम के पास जाते हैं। और उन्हें श्रमण गौतम अपने धर्म-कथन से निर्देशित करते हैं, उत्प्रेरित करते हैं, प्रोत्साहित करते हैं, हर्षित करते हैं। तब श्रमण गौतम के धर्म-कथन से निर्देशित, उत्प्रेरित, प्रोत्साहित, हर्षित होकर, वे श्रमण गौतम को प्रश्न तक नहीं पूछ पाते हैं, तो भला खण्डन क्या करेंगे? बल्कि, बिना अपवाद के वे घर से बेघर होकर श्रमण गौतम से प्रवज्या की याचना करते हैं। और श्रमण गौतम उन्हें प्रवज्या देते हैं।

तब प्रवज्ज्यित होकर अधिक समय नहीं बीतता है, जब वे निर्लिप्त-एकांतवास लेकर फ़िक्रमन्द, सचेत और दृढ़निश्चयी होकर रहते हुए, जिस ध्येय से कोई कुलपुत्र घर से बेघर होकर प्रवज्ज्यित होता है, वे उस ब्रह्मचर्य की सर्वोच्च मंज़िल पर पहुँचकर, इसी जीवन में स्वयं जान कर, साक्षात्कार कर विहार करते हैं। वे कहते हैं, ‘ओह भाई, हम तो मानो खोए हुए थे! हम तो मानो बर्बाद ही थे! हम पहले श्रमण न होकर भी खुद को श्रमण समझते थे! ब्राह्मण न होकर भी खुद को ब्राह्मण समझते थे! अरहंत न होकर भी खुद को अरहंत समझते थे! किन्तु, अब हम वाकई श्रमण है! अब हम वाकई ब्राह्मण है! अब हम वाकई अरहंत है!’

इस तरह, श्रीमान, श्रमण गौतम के इस चौथे पदचिन्ह को देखकर मैं इस निष्कर्ष पर पहुँचा हूँ कि — ‘भगवान ही सम्यक-सम्बुद्ध हैं! भगवान का धर्म स्पष्ट बताया है! भगवान का श्रावकसंघ सुमार्ग पर चलता है!’

और, श्रीमान, श्रमण गौतम के इन चारों पदचिन्हों को देखकर मैं इस निष्कर्ष पर पहुँचा हूँ कि — ‘भगवान ही सम्यक-सम्बुद्ध हैं! भगवान का धर्म स्पष्ट बताया है! भगवान का श्रावकसंघ सुमार्ग पर चलता है!’

जब ऐसा कहा गया, तब जाणुस्सोणि ब्राह्मण अपने पूर्ण श्वेत घोड़ियों के रथ से उतर गया। उसने अपने बाहरी वस्त्र को एक कंधे पर रखा, और भगवान की दिशा में हाथ जोड़कर, अंजलिबद्ध मुद्रा में, तीन बार सहज उद्गार किया — “नमो तस्स भगवतो अरहतो सम्मासम्बुद्धस्स। (अर्थात,) नमन है उस भगवान अरहंत सम्यकसम्बुद्ध को। नमन है उस भगवान अरहंत सम्यकसम्बुद्ध को। नमन है उस भगवान अरहंत सम्यकसम्बुद्ध को। काश, मैं भी कभी, किसी समय गुरु गौतम के साथ भेट करूँ! काश, हमारा भी कभी वार्तालाप हो!”

भगवान से भेट

तब जाणुस्सोणि ब्राह्मण भगवान के पास गया, और जाकर भगवान से हालचाल पूछा। मैत्रीपूर्ण वार्तालाप कर वह एक ओर बैठ गया। एक ओर बैठ कर, जाणुस्सोणि ब्राह्मण ने पिलोतिक घुमक्कड़ के साथ हुए वार्तालाप को सब जस-का-तस भगवान को सुना दिया।

ऐसा कहे जाने पर, भगवान ने जाणुस्सोणि ब्राह्मण से कहा, “किन्तु, ब्राह्मण, हाथी के पदचिन्ह की उपमा परिपूर्ण नहीं है। वह उपमा विस्तार के साथ परिपूर्ण कैसे होगी, ध्यान देकर गौर से सुनो, मैं बताता हूँ।”

“ठीक है, भंते!” जाणुस्सोणि ब्राह्मण ने भगवान को उत्तर दिया।

भगवान ने कहा, “जैसे, ब्राह्मण, कोई हाथियों का ‘कुशल’ खोजी हाथियों के वन में प्रवेश करता है। और उसे उस हाथियों के वन में भारी हाथी का पदचिन्ह दिखायी देता है — बहुत लंबा और चौड़ा। किन्तु, ‘कुशल’ खोजी इस निष्कर्ष पर तुरंत नहीं पहुँचता है कि — ‘ओह भाई! यह तो कोई विशाल नर हाथी है!’

ऐसा क्यों? क्योंकि, ब्राह्मण, हाथियों के वन में मोटे पैरों वाली, ‘वामनिका’ नामक, नाटी हाथिनी भी होती है। वह पैर उसके भी हो सकते हैं। तब वह उसका पीछा करता है। पीछा करते-करते उसे हाथियों के वन में भारी हाथी का पदचिन्ह दिखायी देता है — बहुत लंबा और चौड़ा, और (पेड़ों के) ऊँचाई पर लगे निशान । किन्तु, तब भी ‘कुशल’ खोजी इस निष्कर्ष पर तुरंत नहीं पहुँचता है कि — ‘ओह भाई! यह तो कोई विशाल नर हाथी है!’

ऐसा क्यों? क्योंकि, ब्राह्मण, हाथियों के वन में मोटे पैरों वाली, ‘काळारिका’ नामक, ऊँची हाथिनी भी होती है। वह पैर उसके भी हो सकते हैं। तब वह उसका पीछा करता है। पीछा करते-करते उसे हाथियों के वन में भारी हाथी का पदचिन्ह दिखायी देता है — बहुत लंबा और चौड़ा, और ऊँचाई पर लगे निशान, और ऊँचाई पर हाथी दाँत से लगी खरोंचे । किन्तु, तब भी ‘कुशल’ खोजी इस निष्कर्ष पर तुरंत नहीं पहुँचता है कि — ‘ओह भाई! यह तो कोई विशाल नर हाथी है!’

ऐसा क्यों? क्योंकि, ब्राह्मण, हाथियों के वन में मोटे पैरों वाली, ‘कणेरुका’ नामक, ऊँची हाथिनी भी होती है। वह पैर उसके भी हो सकते हैं। तब वह उसका पीछा करता है। पीछा करते-करते उसे हाथियों के वन में भारी हाथी का पदचिन्ह दिखायी देता है — बहुत लंबा और चौड़ा, और ऊँचाई पर लगे निशान, और ऊँचाई पर हाथी दाँत से लगी खरोंचे, और टूटी हुई ऊँची टहनियाँ। और वह विशाल नर हाथी को देखता है — किसी पेड़ के तले या खुले आकाश के नीचे चलते हुए, या खड़े, या बैठे हुए, या लेटे हुए। तब वह इस निष्कर्ष पर पहुँचता है कि — ‘यह रहा, विशाल नर हाथी!’

उसी तरह, ब्राह्मण, यहाँ कभी इस लोक में ‘तथागत अरहंत सम्यकसम्बुद्ध’ प्रकट होते हैं — जो विद्या और आचरण से संपन्न होते हैं, परम लक्ष्य पा चुके, दुनिया के ज्ञाता, दमनशील पुरुषों के अनुत्तर सारथी, देवों और मनुष्यों के गुरु, बुद्ध भगवान!’ वे प्रत्यक्ष-ज्ञान का साक्षात्कार कर, उसे — देव, मार, ब्रह्मा, श्रमण, ब्राह्मण, राजा और जनता से भरे इस लोक में — प्रकट करते हैं। वे ऐसा सार्थक और शब्दशः धर्म बताते हैं, जो आरंभ में कल्याणकारी, मध्य में कल्याणकारी, अन्त में कल्याणकारी हो; और सर्वपरिपूर्ण, परिशुद्ध ‘ब्रह्मचर्य’ प्रकाशित हो।

ऐसा धर्म सुनकर किसी गृहस्थ या कुलपुत्र को तथागत के प्रति श्रद्धा जागती है। उसे लगता है, “गृहस्थ जीवन बंधनकारी है, जैसे धूलभरा रास्ता हो! किंतु प्रवज्या, मानो खुला आकाश हो! घर रहते हुए ऐसा परिपूर्ण, परिशुद्ध ब्रह्मचर्य निभाना कठिन है, जो शुद्ध शंख जैसा उज्ज्वल हो! क्यों न मैं सिरदाढ़ी मुंडवाकर, काषाय वस्त्र धारण कर, घर से बेघर होकर प्रव्रजित हो जाऊँ?’

फिर वह समय पाकर, थोड़ी या अधिक धन-संपत्ति त्यागकर, छोटा या बड़ा परिवार त्यागकर, सिरदाढ़ी मुंडवाकर, काषाय वस्त्र धारण कर, घर से बेघर हो प्रव्रजित होता है।

शील

• प्रव्रजित होकर ऐसा भिक्षु शिक्षा और आजीविका से संपन्न होकर हिंसा त्यागकर जीवहत्या से विरत रहता है — डंडा और शस्त्र फेंक चुका, शर्मिला और दयावान, समस्त जीवहित के प्रति करुणामयी।

• वह ‘न सौपी चीज़ें’ त्यागकर चोरी से विरत रहता है — मात्र सौपी चीज़ें ही उठाता, स्वीकारता है। पावन जीवन जीता है, चोरी-चुपके नहीं।

• वह ब्रह्मचर्य धारणकर अब्रह्मचर्य से विरत रहता है — ‘देहाती’ मैथुनधर्म से विरत!

• वह झूठ बोलना त्यागकर असत्यवचन से विरत रहता है। वह सत्यवादी, सत्य का पक्षधर, दृढ़ और भरोसेमंद बनता है; दुनिया को ठगता नहीं।

• वह विभाजित करनेवाली बातें त्यागकर फूट डालनेवाले वचन से विरत रहता है। यहाँ सुनकर वहाँ नहीं बताता, ताकि वहाँ दरार पड़े। वहाँ सुनकर यहाँ नहीं बताता, ताकि यहाँ दरार पड़े। बल्कि वह बटे हुए लोगों का मेल कराता है, साथ रहते लोगों को जोड़ता है, एकता चाहता है, आपसी भाईचारे में प्रसन्न और ख़ुश होता है; ‘सामंजस्यता बढ़े’ ऐसे बोल बोलता है।

• वह तीखा बोलना त्यागकर कटु वचन से विरत रहता है। वह ऐसे मीठे बोल बोलता है — जो राहत दे, कर्णमधुर लगे, हृदय छू ले, स्नेहपूर्ण हो, सौम्य हो, अधिकांश लोगों को अनुकूल और स्वीकार्य लगे।

• वह बक़वास त्यागकर व्यर्थ वचन से विरत रहता है। वह समयानुकूल बोलता है, तथ्यात्मक बोलता है, अर्थपूर्ण बोलता है, धर्मानुकूल बोलता है, विनयानुकूल बोलता है; ‘बहुमूल्य लगे’ ऐसे सटीक वचन वह बोलता है — तर्क के साथ, नपे-तुले शब्दों में, सही समय पर, सही दिशा में, ध्येय के साथ।

• वह बीज और पौधों का जीवनाश करना त्यागता है।…

• वह दिन में एक-बार भोजन करता है — रात्रिभोज व विकालभोज से विरत।…

• वह नृत्य, गीत, वाद्यसंगीत तथा मनोरंजन से विरत रहता है।…

• वह मालाएँ, गन्ध, लेप, सुडौलता-लानेवाले तथा अन्य सौंदर्य-प्रसाधन से विरत रहता है।…

• वह बड़े विलासी आसन और पलंग का उपयोग करने से विरत रहता है।…

• वह स्वर्ण व रुपये स्वीकारने से विरत रहते है।…

• वह कच्चा अनाज… कच्चा माँस… स्त्री व कुमारी… दासी व दास… भेड़ व बकरी… मुर्गी व सूवर… हाथी, गाय, घोड़ा, खच्चर… ख़ेत व संपत्ति स्वीकारने से विरत रहता है।…

• वह दूत [=संदेशवाहक] का काम… ख़रीद-बिक्री… भ्रामक तराज़ू, नाप, मानदंडों द्वारा ठगना… घूसख़ोरी, ठगना, ज़ाली काम, छलकपट… हाथपैर काटने, पीटने बाँधने, लूट डाका व हिंसा करने से विरत रहता है।

संतुष्टि

वह शरीर ढकने के लिए चीवर और पेट भरने के लिए भिक्षा पर संतुष्ट रहता है। वह जहाँ भी जाता है, अपनी सभी मूल आवश्यकताओं को साथ लेकर जाता है। जैसे पक्षी जहाँ भी जाता है, मात्र अपने पंखों को लेकर उड़ता है। उसी तरह, कोई भिक्षु शरीर ढकने के लिए चीवर और पेट भरने के लिए भिक्षा पर संतुष्ट रहता है। वह ऐसे आर्य शीलस्कन्ध से संपन्न होकर भीतर निष्पाप सुख का अनुभव करता है।

इंद्रिय सँवर

  • वह आँखों से कोई रूप देखता है, तो न वह उसकी छाप [“निमित्त”] पकड़ता है, न ही उसकी आकर्षक विशेषताओं [“अनुव्यंजन”] को ग्रहण करता है। यदि वह चक्षु-इंद्रिय पर संयम न रखे, तो लालसा या निराशा जैसे पाप-अकुशल स्वभाव उसे घेर सकते हैं। इसलिए वह संयम का मार्ग अपनाता है, चक्षु-इंद्रिय की रक्षा करता है, और उस पर संयम करता है।
  • कान से कोई ध्वनि सुनता है…
  • नाक से कोई गंध सूँघता है…
  • जीभ से कोई स्वाद चखता है…
  • शरीर से कोई संस्पर्श अनुभव करता है…
  • मन से कोई विचार करता है, तो न वह उसकी छाप पकड़ता है, न ही उसकी आकर्षक विशेषताओं को ग्रहण करता है। यदि वह मन-इंद्रिय पर संयम न रखे, तो लालसा या निराशा जैसे पाप-अकुशल स्वभाव उसे घेर सकते हैं। इसलिए वह संयम का मार्ग अपनाता है, मन-इंद्रिय की रक्षा करता है, और उस पर संयम करता है।

वह ऐसे आर्यसँवर से संपन्न होकर भीतर निष्पाप सुख का अनुभव करता है।

स्मृति सचेतता

वह आगे बढ़ते और लौट आते सचेत होता है। वह नज़र टिकाते और नज़र हटाते सचेत होता है। वह [अंग] सिकोड़ते और पसारते हुए सचेत होता है। वह संघाटी, पात्र और चीवर धारण करते हुए सचेत होता है। वह खाते, पीते, चबाते, स्वाद लेते हुए सचेत होता है। वह पेशाब और शौच करते हुए सचेत होता है। वह चलते, खड़े रहते, बैठते, सोते, जागते, बोलते, मौन होते हुए सचेत होता है।

इस तरह वह आर्य शीलस्कन्ध से संपन्न होकर, आर्य संतुष्टि से संपन्न होकर, इंद्रियों पर आर्य सँवर से संपन्न होकर, आर्य स्मरणशीलता और सचेतता से संपन्न होकर एकांतवास ढूँढता है — जैसे जंगल, पेड़ के तले, पहाड़, सँकरी घाटी, गुफ़ा, श्मशानभूमि, उपवन, खुली-जगह या पुआल का ढ़ेर। भिक्षाटन से लौटकर भोजन के पश्चात, वह पालथी मार, काया सीधी रखकर बैठता है और स्मरणशीलता आगे लाता है।

नीवरण त्याग

  • वह दुनिया के प्रति लालसा [“अभिज्झा”] हटाकर लालसाविहीन चित्त से रहता है। अपने चित्त से लालसा को साफ़ करता है।
  • वह भीतर से दुर्भावना और द्वेष [“ब्यापादपदोस”] हटाकर दुर्भावनाविहीन चित्त से रहता है — समस्त जीवहित के लिए करुणामयी। अपने चित्त से दुर्भावना और द्वेष को साफ़ करता है।
  • वह भीतर से सुस्ती और तंद्रा [“थिनमिद्धा”] हटाकर सुस्ती और तंद्राविहीन चित्त से रहता है — उजाला देखने वाला, स्मरणशील और सचेत। अपने चित्त से सुस्ती और तंद्रा को साफ़ करता है।
  • वह भीतर से बेचैनी और पश्चाताप [“उद्धच्चकुक्कुच्च”] हटाकर बिना व्याकुलता के रहता है; भीतर से शान्त चित्त। अपने चित्त से बेचैनी और पश्चाताप को साफ़ करता है।
  • वह अनिश्चितता [“विचिकिच्छा”] हटाकर उलझन को लाँघता है; कुशल स्वभावों के प्रति संभ्रमता के बिना। अपने चित्त से अनिश्चितता को साफ़ करता है।

वह इन पाँच व्यवधानों (“नीवरण”) को हटाता है, ऐसे चित्त के उपक्लेश जो प्रज्ञा को दुर्बल बनाते हैं।

समाधि

(१) तब, ब्राह्मण, वह कामुकता से निर्लिप्त, अकुशल-स्वभाव से निर्लिप्त, सोच एवं विचार के साथ निर्लिप्तता से उपजे प्रफुल्लता और सुखपूर्ण प्रथम-ध्यान में प्रवेश पाकर रहता है। इसे कहते हैं, ब्राह्मण, तथागत का पदचिन्ह, तथागत का लगा हुआ निशान, तथागत का प्रकट हुआ लक्षण!

किन्तु, तब भी कोई आर्यश्रावक तुरंत इस निष्कर्ष पर नहीं पहुँचता है कि — ‘भगवान ही सम्यक-सम्बुद्ध हैं! भगवान का धर्म स्पष्ट बताया है! भगवान का श्रावकसंघ सुमार्ग पर चलता है!’

(२) आगे, ब्राह्मण, वह सोच एवं विचार के रुक जाने पर, भीतर आश्वस्त हुआ मानस एकरस होकर, बिना-सोच, बिना-विचार, समाधि से उपजे प्रफुल्लता और सुखपूर्ण द्वितीय-ध्यान में प्रवेश पाकर रहता है। इसे कहते हैं, ब्राह्मण, तथागत का पदचिन्ह, तथागत का लगा हुआ निशान, तथागत का प्रकट हुआ लक्षण!

किन्तु, तब भी कोई आर्यश्रावक तुरंत इस निष्कर्ष पर नहीं पहुँचता है कि — ‘भगवान ही सम्यक-सम्बुद्ध हैं! भगवान का धर्म स्पष्ट बताया है! भगवान का श्रावकसंघ सुमार्ग पर चलता है!’

(३) आगे, ब्राह्मण, वह प्रफुल्लता से विरक्त हो, स्मरणशील एवं सचेतता के साथ-साथ तटस्थता धारण कर शरीर से सुख महसूस करता है। जिसे आर्यजन ‘तटस्थ, स्मरणशील, सुखविहारी’ कहते हैं, वह ऐसे तृतीय-ध्यान में प्रवेश पाकर रहता है। इसे कहते हैं, ब्राह्मण, तथागत का पदचिन्ह, तथागत का लगा हुआ निशान, तथागत का प्रकट हुआ लक्षण!

किन्तु, तब भी कोई आर्यश्रावक तुरंत इस निष्कर्ष पर नहीं पहुँचता है कि — ‘भगवान ही सम्यक-सम्बुद्ध हैं! भगवान का धर्म स्पष्ट बताया है! भगवान का श्रावकसंघ सुमार्ग पर चलता है!’

(४) आगे, ब्राह्मण, वह सुख एवं दर्द दोनों हटाकर, खुशी एवं परेशानी पूर्व ही विलुप्त होने पर, तटस्थता और स्मरणशीलता की परिशुद्धता के साथ, अब न-सुख-न-दर्द पूर्ण चतुर्थ-ध्यान में प्रवेश पाकर रहता है। इसे कहते हैं, ब्राह्मण, तथागत का पदचिन्ह, तथागत का लगा हुआ निशान, तथागत का प्रकट हुआ लक्षण!

किन्तु, तब भी कोई आर्यश्रावक तुरंत इस निष्कर्ष पर नहीं पहुँचता है कि — ‘भगवान ही सम्यक-सम्बुद्ध हैं! भगवान का धर्म स्पष्ट बताया है! भगवान का श्रावकसंघ सुमार्ग पर चलता है!’

प्रज्ञा

आगे, ब्राह्मण, जब उसका चित्त इस तरह समाहित, परिशुद्ध, उज्ज्वल, बेदाग, निर्मल, मृदुल, काम करने-योग्य, स्थिर और अविचल हो जाता है, तब वह उस चित्त को पूर्वजन्मों का अनुस्मरण करने की ओर झुकाता है। तो उसे विविध प्रकार के पूर्वजन्म स्मरण होने लगते है — जैसे एक जन्म, दो जन्म, तीन जन्म, चार, पाँच, दस जन्म, बीस, तीस, चालीस, पचास जन्म, सौ जन्म, हज़ार जन्म, लाख जन्म, कई कल्पों का लोक-संवर्त [=ब्रह्मांडिय सिकुड़न], कई कल्पों का लोक-विवर्त [=ब्रह्मांडिय विस्तार], कई कल्पों का संवर्त-विवर्त — ‘वहाँ मेरा ऐसा नाम था, ऐसा गोत्र था, ऐसा दिखता था। ऐसा भोज था, ऐसा सुख-दुःख महसूस हुआ, ऐसा जीवन अंत हुआ। उस लोक से च्युत होकर मैं वहाँ उत्पन्न हुआ। वहाँ मेरा वैसा नाम था, वैसा गोत्र था, वैसा दिखता था। वैसा भोज था, वैसा सुख-दुःख महसूस हुआ, वैसे जीवन अंत हुआ। उस लोक से च्युत होकर मैं यहाँ उत्पन्न हुआ।’ इस तरह वह अपने विविध प्रकार के पूर्वजन्म शैली एवं विवरण के साथ स्मरण करता है। इसे कहते हैं, ब्राह्मण, तथागत का पदचिन्ह, तथागत का लगा हुआ निशान, तथागत का प्रकट हुआ लक्षण!

किन्तु, तब भी कोई आर्यश्रावक तुरंत इस निष्कर्ष पर नहीं पहुँचता है कि — ‘भगवान ही सम्यक-सम्बुद्ध हैं! भगवान का धर्म स्पष्ट बताया है! भगवान का श्रावकसंघ सुमार्ग पर चलता है!’

आगे, ब्राह्मण, जब उसका चित्त इस तरह समाहित, परिशुद्ध, उज्ज्वल, बेदाग, निर्मल, मृदुल, काम करने-योग्य, स्थिर और अविचल हो जाता है, तब वह उस चित्त को सत्वों की गति जानने [“चुतूपपात ञाण”] की ओर झुकाता है। तब विशुद्ध हुए अलौकिक दिव्यचक्षु से उसे अन्य सत्वों की मौत और पुनर्जन्म होते हुए दिखता है। और उसे पता चलता है कि कर्मानुसार ही वे कैसे हीन अथवा उच्च हैं, सुंदर अथवा कुरूप हैं, सद्गति होते अथवा दुर्गति होते हैं। कैसे ये सत्व — काया दुराचार में संपन्न, वाणी दुराचार में संपन्न, एवं मन दुराचार में संपन्न, जिन्होंने आर्यजनों का अनादर किया, मिथ्यादृष्टि धारण की, और मिथ्यादृष्टि के प्रभाव में दुष्कृत्य किए — वे मरणोपरांत काया छूटने पर दुर्गति होकर यातनालोक नर्क में उपजे।’ किन्तु कैसे ये सत्व — काया सदाचार में संपन्न, वाणी सदाचार में संपन्न, एवं मन सदाचार में संपन्न, जिन्होंने आर्यजनों का अनादर नहीं किया, सम्यकदृष्टि धारण की, और सम्यकदृष्टि के प्रभाव में सुकृत्य किए — वे मरणोपरांत सद्गति होकर स्वर्ग में उपजे। इस तरह विशुद्ध हुए अलौकिक दिव्यचक्षु से उसे अन्य सत्वों की मौत और पुनर्जन्म होते हुए दिखता है। और उसे पता चलता है कि कर्मानुसार ही वे कैसे हीन अथवा उच्च हैं, सुंदर अथवा कुरूप हैं, सद्गति होते अथवा दुर्गति होते हैं। इसे कहते हैं, ब्राह्मण, तथागत का पदचिन्ह, तथागत का लगा हुआ निशान, तथागत का प्रकट हुआ लक्षण!

किन्तु, तब भी कोई आर्यश्रावक तुरंत इस निष्कर्ष पर नहीं पहुँचता है कि — ‘भगवान ही सम्यक-सम्बुद्ध हैं! भगवान का धर्म स्पष्ट बताया है! भगवान का श्रावकसंघ सुमार्ग पर चलता है!’

आगे, ब्राह्मण, जब उसका चित्त इस तरह समाहित, परिशुद्ध, उज्ज्वल, बेदाग, निर्मल, मृदुल, काम करने-योग्य, स्थिर और अविचल हो जाता है, तब वह उस चित्त को आस्रव का क्षय जानने की ओर झुकाता है। तब ‘दुःख ऐसा है’, उसे यथास्वरूप पता चलता है। ‘दुःख की उत्पत्ति ऐसी है’, उसे यथास्वरूप पता चलता है। ‘दुःख का निरोध ऐसा है’, उसे यथास्वरूप पता चलता है। ‘दुःख का निरोध-मार्ग ऐसा है’, उसे यथास्वरूप पता चलता है।

‘आस्रव ऐसा है’, उसे यथास्वरूप पता चलता है। ‘आस्रव की उत्पत्ति ऐसी है’, उसे यथास्वरूप पता चलता है। ‘आस्रव का निरोध ऐसा है’, उसे यथास्वरूप पता चलता है। ‘आस्रव का निरोध-मार्ग ऐसा है’, उसे यथास्वरूप पता चलता है। इसे कहते हैं, ब्राह्मण, तथागत का पदचिन्ह, तथागत का लगा हुआ निशान, तथागत का प्रकट हुआ लक्षण!

किन्तु, तब भी कोई आर्यश्रावक तुरंत इस निष्कर्ष पर नहीं पहुँचता है कि — ‘भगवान ही सम्यक-सम्बुद्ध हैं! भगवान का धर्म स्पष्ट बताया है! भगवान का श्रावकसंघ सुमार्ग पर चलता है!’

इस तरह जानने से, देखने से, उसका चित्त कामुक-आस्रव से विमुक्त हो जाता है, अस्तित्व-आस्रव से विमुक्त हो जाता है, अविद्या-बहाव से विमुक्त हो जाता है। विमुक्ति के साथ ज्ञान उत्पन्न होता है, ‘विमुक्त हुआ!’ उसे पता चलता है, ‘जन्म क्षीण हुए, ब्रह्मचर्य पूर्ण हुआ, काम समाप्त हुआ, आगे कोई काम बचा नहीं।’ इसे कहते हैं, ब्राह्मण, तथागत का पदचिन्ह, तथागत का लगा हुआ निशान, तथागत का प्रकट हुआ लक्षण!

केवल तभी, ब्राह्मण, कोई आर्यश्रावक इस निष्कर्ष पर पहुँचता है कि — ‘भगवान ही सम्यक-सम्बुद्ध हैं! भगवान का धर्म स्पष्ट बताया है! भगवान का श्रावकसंघ सुमार्ग पर चलता है!’

और, ब्राह्मण, इसी बात के साथ हाथी के पदचिन्ह की उपमा परिपूर्ण होती है।”

जब ऐसा कहा गया, तब जाणुस्सोणि ब्राह्मण ने भगवान से कहा, “अतिउत्तम, गुरु गौतम! अतिउत्तम, गुरु गौतम! जैसे कोई पलटे को सीधा करे, छिपे को खोल दे, भटके को मार्ग दिखाए, या अँधेरे में दीप जलाकर दिखाए, ताकि तेज आँखों वाला स्पष्ट देख पाए — उसी तरह भगवान ने धर्म को अनेक तरह से स्पष्ट कर दिया। मैं बुद्ध की शरण जाता हूँ! धर्म की और संघ की भी! भगवान मुझे आज से लेकर प्राण रहने तक शरणागत उपासक धारण करें!”

सुत्र समाप्त।


  1. श्रमण के बारे में अधिक जानने के लिए हमारी इस शब्दावली को जरूर पढ़ें। ↩︎

Pali

२८८. एवं मे सुतं – एकं समयं भगवा सावत्थियं विहरति जेतवने अनाथपिण्डिकस्स आरामे. तेन खो पन समयेन जाणुस्सोणि ब्राह्मणो सब्बसेतेन वळवाभिरथेन [वळभीरथेन (सी. पी.)] सावत्थिया निय्याति दिवादिवस्स. अद्दसा खो जाणुस्सोणि ब्राह्मणो पिलोतिकं परिब्बाजकं दूरतोव आगच्छन्तं. दिस्वान पिलोतिकं परिब्बाजकं एतदवोच –

‘‘हन्द, कुतो नु भवं वच्छायनो आगच्छति दिवादिवस्सा’’ति?

‘‘इतो हि खो अहं , भो, आगच्छामि समणस्स गोतमस्स सन्तिका’’ति.

‘‘तं किं मञ्ञति, भवं वच्छायनो, समणस्स गोतमस्स पञ्ञावेय्यत्तियं?

‘‘पण्डितो मञ्ञे’’ति.

‘‘को चाहं, भो, को च समणस्स गोतमस्स पञ्ञावेय्यत्तियं जानिस्सामि! सोपि नूनस्स तादिसोव यो समणस्स गोतमस्स पञ्ञावेय्यत्तियं जानेय्या’’ति.

‘‘उळाराय खलु भवं वच्छायनो समणं गोतमं पसंसाय पसंसती’’ति.

‘‘को चाहं, भो, को च समणं गोतमं पसंसिस्सामि?

‘‘पसत्थपसत्थोव सो भवं गोतमो सेट्ठो देवमनुस्सान’’न्ति.

‘‘कं पन भवं वच्छायनो अत्थवसं सम्पस्समानो समणे गोतमे एवं अभिप्पसन्नो’’ति [अभिप्पसन्नो होतीति (स्या.)]?

‘‘सेय्यथापि, भो, कुसलो नागवनिको नागवनं पविसेय्य. सो पस्सेय्य नागवने महन्तं हत्थिपदं, दीघतो च आयतं, तिरियञ्च वित्थतं. सो निट्ठं गच्छेय्य – ‘महा वत, भो, नागो’ति. एवमेव खो अहं, भो, यतो अद्दसं समणे गोतमे चत्तारि पदानि अथाहं निट्ठमगमं – ‘सम्मासम्बुद्धो भगवा, स्वाक्खातो भगवता धम्मो, सुप्पटिपन्नो भगवतो सावकसङ्घो’ति.

२८९. ‘‘कतमानि चत्तारि? इधाहं, भो, पस्सामि एकच्चे खत्तियपण्डिते निपुणे कतपरप्पवादे वालवेधिरूपे, ते भिन्दन्ता [वोभिन्दन्ता (सी. पी.) वि + अव + भिन्दन्ता] मञ्ञे चरन्ति पञ्ञागतेन दिट्ठिगतानि. ते सुणन्ति – ‘समणो खलु, भो, गोतमो अमुकं नाम गामं वा निगमं वा ओसरिस्सती’ति. ते पञ्हं अभिसङ्खरोन्ति – ‘इमं मयं पञ्हं समणं गोतमं उपसङ्कमित्वा पुच्छिस्साम. एवं चे नो पुट्ठो एवं ब्याकरिस्सति, एवमस्स मयं वादं आरोपेस्साम. एवं चेपि नो पुट्ठो एवं ब्याकरिस्सति, एवम्पिस्स मयं वादं आरोपेस्सामा’ति. ते सुणन्ति – ‘समणो खलु, भो, गोतमो अमुकं नाम गामं वा निगमं वा ओसटो’ति. ते येन समणो गोतमो तेनुपसङ्कमन्ति. ते समणो गोतमो धम्मिया कथाय सन्दस्सेति समादपेति समुत्तेजेति सम्पहंसेति. ते समणेन गोतमेन धम्मिया कथाय सन्दस्सिता समादपिता समुत्तेजिता सम्पहंसिता न चेव समणं गोतमं पञ्हं पुच्छन्ति, कुतोस्स [कुतस्स (सी. स्या. पी.)] वादं आरोपेस्सन्ति? अञ्ञदत्थु समणस्सेव गोतमस्स सावका सम्पज्जन्ति. यदाहं, भो, समणे गोतमे इमं पठमं पदं अद्दसं अथाहं निट्ठमगमं – ‘सम्मासम्बुद्धो भगवा, स्वाक्खातो भगवता धम्मो, सुप्पटिपन्नो भगवतो सावकसङ्घो’ति.

‘‘पुन चपराहं, भो, पस्सामि इधेकच्चे ब्राह्मणपण्डिते…पे… गहपतिपण्डिते…पे… समणपण्डिते निपुणे कतपरप्पवादे वालवेधिरूपे ते भिन्दन्ता मञ्ञे चरन्ति पञ्ञागतेन दिट्ठिगतानि. ते सुणन्ति – ‘समणो खलु भो गोतमो अमुकं नाम गामं वा निगमं वा ओसरिस्सती’ति. ते पञ्हं अभिसङ्खरोन्ति ‘इमं मयं पञ्हं समणं गोतमं उपसङ्कमित्वा पुच्छिस्साम. एवं चे नो पुट्ठो एवं ब्याकरिस्सति, एवमस्स मयं वादं आरोपेस्साम. एवं चेपि नो पुट्ठो एवं ब्याकरिस्सति, एवंपिस्स मयं वादं आरोपेस्सामा’ति. ते सुणन्ति ‘समणो खलु भो गोतमो अमुकं नाम गामं वा निगमं वा ओसटो’ति. ते येन समणो गोतमो तेनुपसङ्कमन्ति. ते समणो गोतमो धम्मिया कथाय सन्दस्सेति समादपेति समुत्तेजेति सम्पहंसेति. ते समणेन गोतमेन धम्मिया कथाय सन्दस्सिता समादपिता समुत्तेजिता सम्पहंसिता न चेव समणं गोतमं पञ्हं पुच्छन्ति, कुतोस्स वादं आरोपेस्सन्ति? अञ्ञदत्थु समणंयेव गोतमं ओकासं याचन्ति अगारस्मा अनगारियं पब्बज्जाय. ते समणो गोतमो पब्बाजेति [पब्बाजेति उपसम्पादेति (सी.)]. ते तत्थ पब्बजिता समाना वूपकट्ठा अप्पमत्ता आतापिनो पहितत्ता विहरन्ता नचिरस्सेव – यस्सत्थाय कुलपुत्ता सम्मदेव अगारस्मा अनगारियं पब्बजन्ति तदनुत्तरं – ब्रह्मचरियपरियोसानं दिट्ठेव धम्मे सयं अभिञ्ञा सच्छिकत्वा उपसम्पज्ज विहरन्ति. ते एवमाहंसु – ‘मनं वत, भो, अनस्साम, मनं वत, भो, पनस्साम; मयञ्हि पुब्बे अस्समणाव समाना समणम्हाति पटिजानिम्ह, अब्राह्मणाव समाना ब्राह्मणम्हाति पटिजानिम्ह, अनरहन्तोव समाना अरहन्तम्हाति पटिजानिम्ह. इदानि खोम्ह समणा, इदानि खोम्ह ब्राह्मणा, इदानि खोम्ह अरहन्तो’ति. यदाहं, भो, समणे गोतमे इमं चतुत्थं पदं अद्दसं अथाहं निट्ठमगमं – ‘सम्मासम्बुद्धो भगवा, स्वाक्खातो भगवता धम्मो, सुप्पटिपन्नो भगवतो सावकसङ्घो’’’ति.

‘‘यतो खो अहं, भो, समणे गोतमे इमानि चत्तारि पदानि अद्दसं अथाहं निट्ठमगमं – ‘सम्मासम्बुद्धो भगवा, स्वाक्खातो भगवता धम्मो, सुप्पटिपन्नो भगवतो सावकसङ्घो’’’ति.

२९०. एवं वुत्ते, जाणुस्सोणि ब्राह्मणो सब्बसेता वळवाभिरथा ओरोहित्वा एकंसं उत्तरासङ्गं करित्वा येन भगवा तेनञ्जलिं पणामेत्वा तिक्खत्तुं उदानं उदानेसि – ‘‘नमो तस्स भगवतो अरहतो सम्मासम्बुद्धस्स; नमो तस्स भगवतो अरहतो सम्मासम्बुद्धस्स; नमो तस्स भगवतो अरहतो सम्मासम्बुद्धस्स. अप्पेव नाम मयम्पि कदाचि करहचि तेन भोता गोतमेन सद्धिं समागच्छेय्याम, अप्पेव नाम सिया कोचिदेव कथासल्लापो’’ति! अथ खो जाणुस्सोणि ब्राह्मणो येन भगवा तेनुपसङ्कमि ; उपसङ्कमित्वा भगवता सद्धिं सम्मोदि. सम्मोदनीयं कथं सारणीयं वीतिसारेत्वा एकमन्तं निसीदि. एकमन्तं निसिन्नो खो जाणुस्सोणि ब्राह्मणो यावतको अहोसि पिलोतिकेन परिब्बाजकेन सद्धिं कथासल्लापो तं सब्बं भगवतो आरोचेसि. एवं वुत्ते, भगवा जाणुस्सोणिं ब्राह्मणं एतदवोच – ‘‘न खो, ब्राह्मण, एत्तावता हत्थिपदोपमो वित्थारेन परिपूरो होति. अपि च, ब्राह्मण, यथा हत्थिपदोपमो वित्थारेन परिपूरो होति तं सुणाहि, साधुकं मनसि करोहि, भासिस्सामी’’ति. ‘‘एवं, भो’’ति खो जाणुस्सोणि ब्राह्मणो भगवतो पच्चस्सोसि. भगवा एतदवोच –

२९१. ‘‘सेय्यथापि, ब्राह्मण, नागवनिको नागवनं पविसेय्य. सो पस्सेय्य नागवने महन्तं हत्थिपदं, दीघतो च आयतं, तिरियञ्च वित्थतं. यो होति कुसलो नागवनिको नेव ताव निट्ठं गच्छति – ‘महा वत, भो, नागो’ति. तं किस्स हेतु? सन्ति हि, ब्राह्मण, नागवने वामनिका नाम हत्थिनियो महापदा, तासं पेतं पदं अस्साति.

‘‘सो तमनुगच्छति. तमनुगच्छन्तो पस्सति नागवने महन्तं हत्थिपदं, दीघतो च आयतं, तिरियञ्च वित्थतं, उच्चा च निसेवितं. यो होति कुसलो नागवनिको नेव ताव निट्ठं गच्छति – ‘महा वत, भो, नागो’ति. तं किस्स हेतु? सन्ति हि, ब्राह्मण, नागवने उच्चा काळारिका नाम हत्थिनियो महापदा, तासं पेतं पदं अस्साति.

‘‘सो तमनुगच्छति. तमनुगच्छन्तो पस्सति नागवने महन्तं हत्थिपदं, दीघतो च आयतं, तिरियञ्च वित्थतं, उच्चा च निसेवितं, उच्चा च दन्तेहि आरञ्जितानि. यो होति कुसलो नागवनिको नेव ताव निट्ठं गच्छति – ‘महा वत, भो, नागो’ति. तं किस्स हेतु? सन्ति हि, ब्राह्मण, नागवने उच्चा कणेरुका नाम हत्थिनियो महापदा, तासं पेतं पदं अस्साति.

‘‘सो तमनुगच्छति. तमनुगच्छन्तो पस्सति नागवने महन्तं हत्थिपदं, दीघतो च आयतं, तिरियञ्च वित्थतं, उच्चा च निसेवितं, उच्चा च दन्तेहि आरञ्जितानि, उच्चा च साखाभङ्गं. तञ्च नागं पस्सति रुक्खमूलगतं वा अब्भोकासगतं वा गच्छन्तं वा तिट्ठन्तं वा निसिन्नं वा निपन्नं वा. सो निट्ठं गच्छति – ‘अयमेव सो महानागो’ति.

‘‘एवमेव खो , ब्राह्मण, इध तथागतो लोके उप्पज्जति अरहं सम्मासम्बुद्धो विज्जाचरणसम्पन्नो सुगतो लोकविदू अनुत्तरो पुरिसदम्मसारथि सत्था देवमनुस्सानं बुद्धो भगवा. सो इमं लोकं सदेवकं समारकं सब्रह्मकं सस्समणब्राह्मणिं पजं सदेवमनुस्सं सयं अभिञ्ञा सच्छिकत्वा पवेदेति. सो धम्मं देसेति आदिकल्याणं मज्झेकल्याणं परियोसानकल्याणं सात्थं सब्यञ्जनं; केवलपरिपुण्णं परिसुद्धं ब्रह्मचरियं पकासेति. तं धम्मं सुणाति गहपति वा गहपतिपुत्तो वा अञ्ञतरस्मिं वा कुले पच्चाजातो. सो तं धम्मं सुत्वा तथागते सद्धं पटिलभति. सो तेन सद्धापटिलाभेन समन्नागतो इति पटिसञ्चिक्खति – ‘सम्बाधो घरावासो रजोपथो , अब्भोकासो पब्बज्जा. नयिदं सुकरं अगारं अज्झावसता एकन्तपरिपुण्णं एकन्तपरिसुद्धं सङ्खलिखितं ब्रह्मचरियं चरितुं. यंनूनाहं केसमस्सुं ओहारेत्वा कासायानि वत्थानि अच्छादेत्वा अगारस्मा अनगारियं पब्बजेय्य’न्ति. सो अपरेन समयेन अप्पं वा भोगक्खन्धं पहाय महन्तं वा भोगक्खन्धं पहाय अप्पं वा ञातिपरिवट्टं पहाय महन्तं वा ञातिपरिवट्टं पहाय केसमस्सुं ओहारेत्वा कासायानि वत्थानि अच्छादेत्वा अगारस्मा अनगारियं पब्बजति.

२९२. ‘‘सो एवं पब्बजितो समानो भिक्खूनं सिक्खासाजीवसमापन्नो पाणातिपातं पहाय पाणातिपाता पटिविरतो होति, निहितदण्डो निहितसत्थो लज्जी दयापन्नो सब्बपाणभूतहितानुकम्पी विहरति.

‘‘अदिन्नादानं पहाय अदिन्नादाना पटिविरतो होति दिन्नादायी दिन्नपाटिकङ्खी. अथेनेन सुचिभूतेन अत्तना विहरति.

‘‘अब्रह्मचरियं पहाय ब्रह्मचारी होति आराचारी विरतो मेथुना गामधम्मा.

‘‘मुसावादं पहाय मुसावादा पटिविरतो होति सच्चवादी सच्चसन्धो थेतो [ठेतो (स्या. कं.)] पच्चयिको अविसंवादको लोकस्स.

‘‘पिसुणं वाचं पहाय पिसुणाय वाचाय पटिविरतो होति, इतो सुत्वा न अमुत्र अक्खाता इमेसं भेदाय, अमुत्र वा सुत्वा न इमेसं अक्खाता अमूसं भेदाय. इति भिन्नानं वा सन्धाता सहितानं वा अनुप्पदाता, समग्गारामो समग्गरतो समग्गनन्दी समग्गकरणिं वाचं भासिता होति .

‘‘फरुसं वाचं पहाय फरुसाय वाचाय पटिविरतो होति. या सा वाचा नेला कण्णसुखा पेमनीया हदयङ्गमा पोरी बहुजनकन्ता बहुजनमनापा तथारूपिं वाचं भासिता होति.

‘‘सम्फप्पलापं पहाय सम्फप्पलापा पटिविरतो होति कालवादी भूतवादी अत्थवादी धम्मवादी विनयवादी, निधानवतिं वाचं भासिता कालेन सापदेसं परियन्तवतिं अत्थसंहितं.

२९३. ‘‘सो बीजगामभूतगामसमारम्भा पटिविरतो होति, एकभत्तिको होति रत्तूपरतो, विरतो विकालभोजना, नच्चगीतवादितविसूकदस्सना पटिविरतो होति, मालागन्धविलेपनधारणमण्डनविभूसनट्ठाना पटिविरतो होति, उच्चासयनमहासयना पटिविरतो होति, जातरूपरजतपटिग्गहणा पटिविरतो होति, आमकधञ्ञपटिग्गहणा पटिविरतो होति, आमकमंसपटिग्गहणा पटिविरतो होति, इत्थिकुमारिकपटिग्गहणा पटिविरतो होति, दासिदासपटिग्गहणा पटिविरतो होति, अजेळकपटिग्गहणा पटिविरतो होति, कुक्कुटसूकरपटिग्गहणा पटिविरतो होति, हत्थिगवास्सवळवापटिग्गहणा पटिविरतो होति, खेत्तवत्थुपटिग्गहणा पटिविरतो होति, दूतेय्यपहिणगमनानुयोगा पटिविरतो होति, कयविक्कया पटिविरतो होति, तुलाकूटकंसकूटमानकूटा पटिविरतो होति, उक्कोटनवञ्चननिकतिसाचियोगा पटिविरतो होति, छेदनवधबन्धनविपरामोसआलोपसहसाकारा [साहसाकारा (क.)] पटिविरतो होति [इमस्स अनन्तरं ‘‘सो इमिना अरियेन सीलक्खन्धेन समन्नागतो अज्झत्तं अनवज्जसुखं पटिसंवेदेती’’ति वचनं दीघनिकाये आगतं, तं इध सन्तोसकथावसाने आगतं, सा च सन्तोसकथा तत्थ सतिसम्पजञ्ञानन्तरमेव आगता].

२९४. ‘‘सो सन्तुट्ठो होति कायपरिहारिकेन चीवरेन कुच्छिपरिहारिकेन पिण्डपातेन. सो येन येनेव पक्कमति समादायेव पक्कमति. सेय्यथापि नाम पक्खी सकुणो येन येनेव डेति सपत्तभारोव डेति, एवमेव भिक्खु सन्तुट्ठो होति कायपरिहारिकेन चीवरेन कुच्छिपरिहारिकेन पिण्डपातेन. सो येन येनेव पक्कमति समादायेव पक्कमति. सो इमिना अरियेन सीलक्खन्धेन समन्नागतो अज्झत्तं अनवज्जसुखं पटिसंवेदेति.

२९५. ‘‘सो चक्खुना रूपं दिस्वा न निमित्तग्गाही होति नानुब्यञ्जनग्गाही. यत्वाधिकरणमेनं चक्खुन्द्रियं असंवुतं विहरन्तं अभिज्झादोमनस्सा पापका अकुसला धम्मा अन्वास्सवेय्युं तस्स संवराय पटिपज्जति, रक्खति चक्खुन्द्रियं, चक्खुन्द्रिये संवरं आपज्जति. सोतेन सद्दं सुत्वा…पे… घानेन गन्धं घायित्वा… जिव्हाय रसं सायित्वा… कायेन फोट्ठब्बं फुसित्वा… मनसा धम्मं विञ्ञाय न निमित्तग्गाही होति नानुब्यञ्जनग्गाही. यत्वाधिकरणमेनं मनिन्द्रियं असंवुतं विहरन्तं अभिज्झादोमनस्सा पापका अकुसला धम्मा अन्वास्सवेय्युं तस्स संवराय पटिपज्जति, रक्खति मनिन्द्रियं, मनिन्द्रिये संवरं आपज्जति. सो इमिना अरियेन इन्द्रियसंवरेन समन्नागतो अज्झत्तं अब्यासेकसुखं पटिसंवेदेति.

‘‘सो अभिक्कन्ते पटिक्कन्ते सम्पजानकारी होति, आलोकिते विलोकिते सम्पजानकारी होति , समिञ्जिते पसारिते सम्पजानकारी होति, संघाटिपत्तचीवरधारणे सम्पजानकारी होति, असिते पीते खायिते सायिते सम्पजानकारी होति, उच्चारपस्सावकम्मे सम्पजानकारी होति, गते ठिते निसिन्ने सुत्ते जागरिते भासिते तुण्हीभावे सम्पजानकारी होति.

२९६. ‘‘सो इमिना च अरियेन सीलक्खन्धेन समन्नागतो, (इमाय च अरियाय सन्तुट्ठिया समन्नागतो) [( ) एत्थन्तरे पाठो इध नदिस्सति, चतुक्कङ्गुत्तरे पन इमस्मिं ठाने दिस्सति, अट्ठकथाटीकासु च तदत्थो पकासितो. तस्मा सो एत्थ पटीपूरितो] इमिना च अरियेन इन्द्रियसंवरेन समन्नागतो, इमिना च अरियेन सतिसम्पजञ्ञेन समन्नागतो विवित्तं सेनासनं भजति अरञ्ञं रुक्खमूलं पब्बतं कन्दरं गिरिगुहं सुसानं वनपत्थं अब्भोकासं पलालपुञ्जं. सो पच्छाभत्तं पिण्डपातपटिक्कन्तो निसीदति पल्लङ्कं आभुजित्वा, उजुं कायं पणिधाय, परिमुखं सतिं उपट्ठपेत्वा. सो अभिज्झं लोके पहाय विगताभिज्झेन चेतसा विहरति, अभिज्झाय चित्तं परिसोधेति. ब्यापादप्पदोसं पहाय अब्यापन्नचित्तो विहरति, सब्बपाणभूतहितानुकम्पी ब्यापादप्पदोसा चित्तं परिसोधेति. थिनमिद्धं पहाय विगतथिनमिद्धो विहरति आलोकसञ्ञी सतो सम्पजानो, थिनमिद्धा चित्तं परिसोधेति. उद्धच्चकुक्कुच्चं पहाय अनुद्धतो विहरति, अज्झत्तं वूपसन्तचित्तो उद्धच्चकुक्कुच्चा चित्तं परिसोधेति. विचिकिच्छं पहाय तिण्णविचिकिच्छो विहरति अकथंकथी कुसलेसु धम्मेसु, विचिकिच्छाय चित्तं परिसोधेति.

२९७. ‘‘सो इमे पञ्च नीवरणे पहाय चेतसो उपक्किलेसे पञ्ञाय दुब्बलीकरणे, विविच्चेव कामेहि विविच्च अकुसलेहि धम्मेहि सवितक्कं सविचारं विवेकजं पीतिसुखं पठमं झानं उपसम्पज्ज विहरति. इदम्पि वुच्चति, ब्राह्मण, तथागतपदं इतिपि, तथागतनिसेवितं इतिपि, तथागतारञ्जितं इतिपि. न त्वेव ताव अरियसावको निट्ठं गच्छति – ‘सम्मासम्बुद्धो भगवा, स्वाक्खातो भगवता धम्मो, सुप्पटिपन्नो भगवतो सावकसङ्घो’ति.

‘‘पुन चपरं, ब्राह्मण, भिक्खु वितक्कविचारानं वूपसमा अज्झत्तं सम्पसादनं चेतसो एकोदिभावं अवितक्कं अविचारं समाधिजं पीतिसुखं दुतियं झानं उपसम्पज्ज विहरति. इदम्पि वुच्चति, ब्राह्मण…पे… सुप्पटिपन्नो भगवतो सावकसङ्घो’ति.

‘‘पुन चपरं, ब्राह्मण, भिक्खु पीतिया च विरागा उपेक्खको च विहरति सतो च सम्पजानो, सुखञ्च कायेन पटिसंवेदेति, यं तं अरिया आचिक्खन्ति ‘उपेक्खको सतिमा सुखविहारी’ति ततियं झानं उपसम्पज्ज विहरति. इदम्पि वुच्चति, ब्राह्मण…पे… सुप्पटिपन्नो भगवतो सावकसङ्घो’ति.

‘‘पुन चपरं, ब्राह्मण, भिक्खु सुखस्स च पहाना दुक्खस्स च पहाना, पुब्बेव सोमनस्सदोमनस्सानं अत्थङ्गमा, अदुक्खमसुखं उपेक्खासतिपारिसुद्धिं चतुत्थं झानं उपसम्पज्ज विहरति. इदम्पि वुच्चति, ब्राह्मण, तथागतपदं इतिपि, तथागतनिसेवितं इतिपि, तथागतारञ्जितं इतिपि. न त्वेव ताव अरियसावको निट्ठं गच्छति – ‘सम्मासम्बुद्धो भगवा, स्वाक्खातो भगवता धम्मो, सुप्पटिपन्नो भगवतो सावकसङ्घो’ति.

२९८. ‘‘सो एवं समाहिते चित्ते परिसुद्धे परियोदाते अनङ्गणे विगतूपक्किलेसे मुदुभूते कम्मनिये ठिते आनेञ्जप्पत्ते पुब्बेनिवासानुस्सतिञाणाय चित्तं अभिनिन्नामेति. सो अनेकविहितं पुब्बेनिवासं अनुस्सरति, सेय्यथिदं – एकम्पि जातिं, द्वेपि जातियो…पे… इति साकारं सउद्देसं अनेकविहितं पुब्बेनिवासं अनुस्सरति. इदम्पि वुच्चति, ब्राह्मण, तथागतपदं इतिपि, तथागतनिसेवितं इतिपि, तथागतारञ्जितं इतिपि. न त्वेव ताव अरियसावको निट्ठं गच्छति – ‘सम्मासम्बुद्धो भगवा, स्वाक्खातो भगवता धम्मो, सुप्पटिपन्नो भगवतो सावकसङ्घो’ति.

‘‘सो एवं समाहिते चित्ते परिसुद्धे परियोदाते अनङ्गणे विगतूपक्किलेसे मुदुभूते कम्मनिये ठिते आनेञ्जप्पत्ते सत्तानं चुतूपपातञाणाय चित्तं अभिनिन्नामेति. सो दिब्बेन चक्खुना विसुद्धेन अतिक्कन्तमानुसकेन…पे… यथाकम्मूपगे सत्ते पजानाति. इदम्पि वुच्चति, ब्राह्मण, तथागतपदं इतिपि, तथागतनिसेवितं इतिपि, तथागतारञ्जितं इतिपि. न त्वेव ताव अरियसावको निट्ठं गच्छति – ‘सम्मासम्बुद्धो भगवा, स्वाक्खातो भगवता धम्मो, सुप्पटिपन्नो भगवतो सावकसङ्घो’ति.

२९९. ‘‘सो एवं समाहिते चित्ते परिसुद्धे परियोदाते अनङ्गणे विगतूपक्किलेसे मुदुभूते कम्मनिये ठिते आनेञ्जप्पत्ते आसवानं खयञाणाय चित्तं अभिनिन्नामेति. सो ‘इदं दुक्ख’न्ति यथाभूतं पजानाति, ‘अयं दुक्खसमुदयो’ति यथाभूतं पजानाति, ‘अयं दुक्खनिरोधो’ति यथाभूतं पजानाति, ‘अयं दुक्खनिरोधगामिनी पटिपदा’ति यथाभूतं पजानाति. ‘इमे आसवा’ति यथाभूतं पजानाति, ‘अयं आसवसमुदयो’ति यथाभूतं पजानाति, ‘अयं आसवनिरोधो’ति यथाभूतं पजानाति, ‘अयं आसवनिरोधगामिनी पटिपदा’ति यथाभूतं पजानाति. इदम्पि वुच्चति, ब्राह्मण, तथागतपदं इतिपि, तथागतनिसेवितं इतिपि, तथागतारञ्जितं इतिपि. न त्वेव ताव अरियसावको निट्ठं गतो होति, अपि च खो निट्ठं गच्छति – ‘सम्मासम्बुद्धो भगवा, स्वाक्खातो भगवता धम्मो, सुप्पटिपन्नो भगवतो सावकसङ्घो’ति.

‘‘तस्स एवं जानतो एवं पस्सतो कामासवापि चित्तं विमुच्चति , भवासवापि चित्तं विमुच्चति, अविज्जासवापि चित्तं विमुच्चति. विमुत्तस्मिं विमुत्तमिति ञाणं होति. ‘खीणा जाति, वुसितं ब्रह्मचरियं, कतं करणीयं, नापरं इत्थत्ताया’ति पजानाति. इदम्पि वुच्चति, ब्राह्मण, तथागतपदं इतिपि, तथागतनिसेवितं इतिपि, तथागतारञ्जितं इतिपि. एत्तावता खो, ब्राह्मण, अरियसावको निट्ठं गतो होति – ‘सम्मासम्बुद्धो भगवा, स्वाक्खातो भगवता धम्मो, सुप्पटिपन्नो भगवतो सावकसङ्घो’ति. एत्तावता खो, ब्राह्मण, हत्थिपदोपमो वित्थारेन परिपूरो होती’’ति.

एवं वुत्ते, जाणुस्सोणि ब्राह्मणो भगवन्तं एतदवोच – ‘‘अभिक्कन्तं, भो गोतम, अभिक्कन्तं, भो गोतम! सेय्यथापि, भो गोतम, निक्कुज्जितं वा उक्कुज्जेय्य, पटिच्छन्नं वा विवरेय्य, मूळ्हस्स वा मग्गं आचिक्खेय्य, अन्धकारे वा तेलपज्जोतं धारेय्य – चक्खुमन्तो रूपानि दक्खन्तीति; एवमेवं भोता गोतमेन अनेकपरियायेन धम्मो पकासितो. एसाहं भवन्तं गोतमं सरणं गच्छामि, धम्मञ्च, भिक्खुसङ्घञ्च. उपासकं मं भवं गोतमो धारेतु अज्जतग्गे पाणुपेतं सरणं गत’’न्ति.

चूळहत्थिपदोपमसुत्तं निट्ठितं सत्तमं.