ऐसा मैंने सुना — एक समय भगवान श्रावस्ती में अनाथपिण्डक के जेतवन उद्यान में विहार कर रहे थे। वहाँ आयुष्मान सारिपुत्त ने भिक्षुओं को संबोधित किया, “मित्र, भिक्षुओं!”
“मित्र!” भिक्षुओं ने आयुष्मान सारिपुत्त को उत्तर दिया।
आयुष्मान सारिपुत्त ने कहा, “मित्रों, जैसे जंगल के सभी प्राणियों के पदचिन्ह हाथी के पदचिन्ह में समाहित होते हैं, और उनमें हाथी के पदचिन्ह को अग्र कहते हैं, क्योंकि वह सबसे बड़ा होता है।
उसी तरह, मित्रों, जितने भी कुशल धर्म हैं, सभी चार आर्य सत्यों में संग्रहीत हो जाते हैं। कौन-से चार?
• मित्रों, यह दुःख आर्यसत्य क्या है?
— जन्म कष्टपूर्ण [=दुःख] है, बुढ़ापा कष्टपूर्ण है, मौत कष्टपूर्ण है। शोक, विलाप, दर्द, व्यथा, और निराशा कष्टपूर्ण है। अप्रिय से जुड़ाव कष्टपूर्ण है। प्रिय से अलगाव कष्टपूर्ण है। इच्छापूर्ति न होना कष्टपूर्ण है। संक्षिप्त में, पाँच आसक्ति संग्रह कष्टपूर्ण है।
• मित्रों, पाँच आसक्ति संग्रह क्या है?
— बस, यही — रूप आसक्ति संग्रह, संवेदना आसक्ति संग्रह, संज्ञा आसक्ति संग्रह, रचना आसक्ति संग्रह, चैतन्य आसक्ति संग्रह।
• मित्रों, यह रूप आसक्ति संग्रह क्या है?
— चार महाभूत, और चार महाभूत के आधार पर उत्पन्न हुआ रूप।
• मित्रों, यह चार महाभूत क्या है?
— पृथ्वी धातु, जल धातु, अग्नि धातु, वायु धातु।
• मित्रों, यह पृथ्वी धातु क्या है?
— पृथ्वी धातु भीतरी हो सकती है, या बाहरी।
• मित्रों, यह भीतरी पृथ्वीधातु क्या है?
— जो कुछ भीतर कठोर, ठोस, और [तृष्णा पर] आधारित है, जैसे — केश, लोम, नाख़ून, दाँत, त्वचा, मांस, नसें, हड्डी, हड्डीमज्जा, तिल्ली, हृदय, कलेजा, झिल्ली, गुर्दा, फेफड़ा, क्लोमक, आँत, छोटी-आँत, उदर, टट्टी — या [अन्य] जो कुछ भीतर कठोर, ठोस और आधारित है, उसे भीतरी पृथ्वी धातु कहते है।
अब, भीतरी पृथ्वी धातु हो, या बाहरी पृथ्वी धातु हो, वह केवल ‘पृथ्वी धातु’ ही है। उसे यथास्वरूप सम्यक प्रज्ञा से देखना है कि यह — ‘मेरी नहीं, मेरा आत्म नहीं, मैं यह नहीं!’
जब कोई इस तरह यथास्वरूप सम्यक प्रज्ञा से देखता है, तब उसका पृथ्वी धातु से मोहभंग होता है। वह अपने चित्त को पृथ्वी धातु से विरक्त करता है।
एक समय आता है, मित्रों, जब बाहरी जल धातु कुपित हो जाती है (=बाढ़, सुनामी, प्रलय)। तब उस समय बाहरी पृथ्वी धातु विलुप्त हो जाती है। मित्रों, इतनी पुरातन बाहरी पृथ्वी धातु की भी अनित्यता समझ आती है, खत्म होने का स्वभाव समझ आता है, व्यय स्वभाव समझ आता है, परिवर्तन स्वभाव समझ आता है। तब क्या भला इस अल्पकालिक, तृष्णा पर आधारित काया को — ‘मै’, ‘मेरा’, ‘मैं यह’ कहें? उसका तो यहाँ कुछ नहीं है!
मित्रों, यदि कोई पराया गाली-गलौज करे, निंदा करे, क्रोध करे, या पीड़ित करे — तब आप समझें, ‘मुझे कान के संपर्क से जन्मी एक दुखद अनुभूति उत्पन्न हुई। वह निर्भर होकर उत्पन्न हुई, अकारण नहीं। किस पर निर्भर? संपर्क पर निर्भर।’
तब वह संपर्क को अनित्य देखता है। अनुभूति को अनित्य देखता है। संज्ञा को अनित्य देखता है। संस्कार को अनित्य देखता है। चैतन्य को अनित्य देखता है। उसका चित्त मात्र धातु को आधार बनाकर कूदता है, आश्वस्त होता है, स्थिर होता है, विमुक्त होता है। 1
मित्रों, यदि कोई पराया अनचाहे तरीके से, अप्रिय तरीके से, नापसंद तरीके से बर्ताव करे — जैसे मुक्का मारे, पत्थर मारे, डंडा मारे, या चाकू मारे — तब आप समझें, ‘यह काया ऐसी ही होती है कि जिस पर मुक्के पड़ते हैं, पत्थर पड़ते हैं, डंडे पड़ते हैं, चाकू पड़ते हैं। भगवान ने आरी की उपमा वाले निर्देश (“ककचूपम ओवाद”) 2 में कहा हैं कि ‘भले ही, भिक्षुओं, कोई क्रूर लुटेरा, दो मूँठ वाली आरी लेकर तुम्हारे अंग-प्रत्यंग को काटते रहे, तब भी जो मन दूषित करेगा — वह मेरा आज्ञाधारक नहीं है।’ तो मेरी ऊर्जा जागृत और अथक हो। मेरी स्मृति उपस्थित और स्पष्ट हो। मेरी काया प्रशान्त और अनुत्तेजित हो। मेरा चित्त समाहित और एकाग्र हो। और तब, भले ही इस काया पर मुक्के पड़ते रहें, पत्थर पड़ते रहें, डंडे पड़ते रहें, या चाकू पड़ते रहें। क्योंकि इसी तरह बुद्ध निर्देश का पालन होगा।’
यदि, मित्रों, इस तरह बुद्ध का अनुस्मरण करते हुए, धर्म का अनुस्मरण करते हुए, संघ का अनुस्मरण करते हुए भिक्षु में कुशलता पर आधारित तटस्थता स्थिर नहीं होती 3, तब उसमें संवेग जागृत होकर विद्यमान होना चाहिए — ‘यह मेरी हानि है! यह मेरा लाभ नहीं है! यह मेरा दुर्लाभ है! यह मेरा सुलाभ नहीं है! कि इस तरह बुद्ध का अनुस्मरण करते हुए, धर्म का अनुस्मरण करते हुए, संघ का अनुस्मरण करते हुए भी मुझमें कुशलता पर आधारित तटस्थता स्थिर नहीं होती!’
जैसे, मित्रों, किसी बहू में अपने ससुर को देख कर संवेग जागृत होकर विद्यमान होता है। उसी तरह, मित्रों, इस तरह बुद्ध का अनुस्मरण करते हुए, धर्म का अनुस्मरण करते हुए, संघ का अनुस्मरण करते हुए भिक्षु में कुशलता पर आधारित तटस्थता स्थिर नहीं होती, तब उसमें संवेग जागृत होकर विद्यमान होना चाहिए — ‘यह मेरी हानि है! यह मेरा लाभ नहीं है! यह मेरा दुर्लाभ है! यह मेरा सुलाभ नहीं है! कि इस तरह बुद्ध का अनुस्मरण करते हुए, धर्म का अनुस्मरण करते हुए, संघ का अनुस्मरण करते हुए भी मुझमें कुशलता पर आधारित तटस्थता स्थिर नहीं होती!’
किन्तु, मित्रों, यदि इस तरह बुद्ध का अनुस्मरण करते हुए, धर्म का अनुस्मरण करते हुए, संघ का अनुस्मरण करते हुए भिक्षु में कुशलता पर आधारित तटस्थता स्थिर हो जाती है, तब वह हर्षित हो जाता है। इतना कर लिया, मित्रों, तो भिक्षु ने बहुत कर लिया। 4
• और, मित्रों, यह जल धातु क्या है?
— जल धातु भीतरी हो सकती है, या बाहरी।
• मित्रों, यह भीतरी जल धातु क्या है?
— जो कुछ भीतर जल, तरल, और [तृष्णा पर] आधारित है, जैसे — पित्त, कफ, पीब, रक्त, पसीना, चर्बी, आँसू, तेल, थूक, बलगम, जोड़ों में तरल, मूत्र — या [अन्य] जो कुछ भीतर जल, तरल और आधारित है, उसे भीतरी जल धातु कहते हैं।
अब, भीतरी जल धातु हो, या बाहरी जल धातु हो, वह केवल ‘जल धातु’ ही है। उसे यथास्वरूप सम्यक प्रज्ञा से देखना है कि यह — ‘मेरी नहीं, मेरा आत्म नहीं, मैं यह नहीं!’
जब कोई इस तरह यथास्वरूप सम्यक प्रज्ञा से देखता है, तब उसका जल धातु से मोहभंग होता है। वह अपने चित्त को जल धातु से विरक्त करता है।
एक समय आता है, मित्रों, जब बाहरी जल धातु कुपित हो जाती है। तब वह गाँव बहा ले जाती है, नगर बहा ले जाती है, शहर बहा ले जाती है, राज्य बहा ले जाती है, और देश बहा ले जाती है।
और, मित्रों, एक समय ऐसा भी आता है, जब महासागरों का जल सौ योजन नीचे चला जाता है… दो सौ योजन नीचे चला जाता है… तीन सौ योजन नीचे चला जाता है… चार सौ योजन नीचे चला जाता है… पाँच सौ योजन नीचे चला जाता है… छह सौ योजन नीचे चला जाता है… सात सौ योजन नीचे चला जाता है।
एक समय, मित्रों, ऐसा भी आता है, जब महासागरों का जल केवल सात ताड़ वृक्षों तक गहरा रह जाता है… छह ताड़ वृक्षों तक… पाँच ताड़ वृक्षों तक… चार ताड़ वृक्षों तक… तीन ताड़ वृक्षों तक… दो ताड़ वृक्षों तक… एक ताड़-वृक्ष तक ही गहरा रह जाता है।
एक समय, मित्रों, ऐसा भी आता है, जब महासागरों का जल केवल सात पुरुष की लंबाई तक गहरा… छह पुरुष की लंबाई तक गहरा… पाँच पुरुष की लंबाई तक गहरा… चार पुरुष की लंबाई तक गहरा… तीन पुरुष की लंबाई तक गहरा… दो पुरुष की लंबाई तक गहरा… केवल एक पुरुष की लंबाई तक गहरा ही रह जाता है।
एक समय, मित्रों, ऐसा भी आता है, जब महासागरों का जल आधे पुरुष की लंबाई तक गहरा… कमर तक गहरा… घुटने तक गहरा… मात्र टखने तक ही गहरा रह जाता है।
और, एक समय, मित्रों, ऐसा भी आता है, जब महासागरों का जल इतना भी गहरा नहीं रह जाता कि पैर की उँगलियों के जोड़ को भिगो सके। मित्रों, इतनी पुरातन बाहरी जल धातु की भी अनित्यता समझ आती है, खत्म होने का स्वभाव समझ आता है, व्यय स्वभाव समझ आता है, परिवर्तन स्वभाव समझ आता है। तब क्या भला इस अल्पकालिक, तृष्णा पर आधारित काया को — ‘मै’, ‘मेरा’, ‘मैं यह’ कहें? उसका तो यहाँ कुछ नहीं है!
मित्रों, यदि कोई पराया गाली-गलौज करे… किन्तु, मित्रों, यदि इस तरह बुद्ध का अनुस्मरण करते हुए, धर्म का अनुस्मरण करते हुए, संघ का अनुस्मरण करते हुए भिक्षु में कुशलता पर आधारित तटस्थता स्थिर हो जाती है, तब वह हर्षित हो जाता है। इतना कर लिया, मित्रों, तो भिक्षु ने बहुत कर लिया।
• और, मित्रों, यह अग्नि धातु क्या है?
— अग्नि धातु भीतरी हो सकती है, या बाहरी।
• मित्रों, यह भीतरी अग्नि धातु क्या है?
— जो कुछ भीतर ज्वलनशील, गर्म, और [तृष्णा पर] आधारित है, जिससे शरीर गर्म रहता है, जीर्ण होता है, तपता है, और जिसके द्वारा खाए, पीए, चबाए, और निगले का पाचन होता है — या [अन्य] जो कुछ भीतर ज्वलनशील, गर्म, और आधारित है, उसे भीतरी अग्नि धातु कहते हैं ।
अब, भीतरी अग्नि धातु हो, या बाहरी अग्नि धातु हो, वह केवल ‘अग्नि धातु’ ही है। उसे यथास्वरूप सम्यक प्रज्ञा से देखना है कि यह — ‘मेरी नहीं, मेरा आत्म नहीं, मैं यह नहीं!’
जब कोई इस तरह यथास्वरूप सम्यक प्रज्ञा से देखता है, तब उसका अग्नि धातु से मोहभंग होता है। वह अपने चित्त को अग्नि धातु से विरक्त करता है।
एक समय आता है, मित्रों, जब बाहरी अग्निधातु कुपित हो जाती है। तब वह गाँव को जला देती है, नगर को जला देती है, शहर को जला देती है, राज्य को जला देती है, पूरे देश को जला देती है। अंततः वह किसी हरियाली के छोर, या पथरीले छोर, या पर्वत के छोर, या जलाशय के छोर, या रमणीय छोर, या मैदानी छोर पर आकर, आहार न पाकर बुझ जाती है।
और एक समय, मित्रों, ऐसा भी आता है, जब लोग मुर्गे के पंख और चमड़े के छिलके से अग्नि जलाने की तलाश करते हैं। मित्रों, इतनी पुरातन बाहरी अग्नि धातु की भी अनित्यता समझ आती है, खत्म होने का स्वभाव समझ आता है, व्यय स्वभाव समझ आता है, परिवर्तन स्वभाव समझ आता है। तब क्या भला इस अल्पकालिक, तृष्णा पर आधारित काया को — ‘मै’, ‘मेरा’, ‘मैं यह’ कहें? उसका तो यहाँ कुछ नहीं है!
मित्रों, यदि कोई पराया गाली-गलौज करे… किन्तु, मित्रों, यदि इस तरह बुद्ध का अनुस्मरण करते हुए, धर्म का अनुस्मरण करते हुए, संघ का अनुस्मरण करते हुए भिक्षु में कुशलता पर आधारित तटस्थता स्थिर हो जाती है, तब वह हर्षित हो जाता है। इतना कर लिया, मित्रों, तो भिक्षु ने बहुत कर लिया।
• और, मित्रों, यह वायु धातु क्या है?
— वायु धातु भीतरी हो सकती है, या बाहरी।
• मित्रों, यह भीतरी वायु धातु क्या है?
— जो कुछ भीतर वायु, पवन और [तृष्णा पर] आधारित है, जैसे — ऊपर उठती वायु, नीचे गिरती वायु, पेट में वायु, आँत में वायु, शरीर में सर्वत्र घूमती वायु, आती जाती साँस — या जो कुछ भी भीतर वायु, पवन और आधारित है, उसे भीतरी वायु धातु कहते हैं।
अब, भीतरी वायु धातु हो, या बाहरी वायु धातु हो, वह केवल ‘वायु धातु’ ही है। उसे यथास्वरूप सम्यक प्रज्ञा से देखना है कि यह — ‘मेरी नहीं, मेरा आत्म नहीं, मैं यह नहीं!’
जब कोई इस तरह यथास्वरूप सम्यक प्रज्ञा से देखता है, तब उसका वायु धातु से मोहभंग होता है। वह अपने चित्त को वायु धातु से विरक्त करता है।
एक समय आता है, मित्रों, जब बाहरी वायु धातु कुपित हो जाती है। तब वह गाँव उड़ा ले जाती है, नगर उड़ा ले जाती है, शहर उड़ा ले जाती है, राज्य उड़ा ले जाती है, पूरा देश उड़ा ले जाती है।
और एक समय, मित्रों, ऐसा भी आता है, जब लोग ग्रीष्मकाल के अंतिम महीने में पंखे या धौंकनी से हवा झलते हैं। तब छत की खरपतवार तक नहीं हिलती। मित्रों, इतनी पुरातन बाहरी वायु धातु की भी अनित्यता समझ आती है, खत्म होने का स्वभाव समझ आता है, व्यय स्वभाव समझ आता है, परिवर्तन स्वभाव समझ आता है। तब क्या भला इस अल्पकालिक, तृष्णा पर आधारित काया को — ‘मै’, ‘मेरा’, ‘मैं यह’ कहें? उसका तो यहाँ कुछ नहीं है!
मित्रों, यदि कोई पराया गाली-गलौज करे, निंदा करे, क्रोध करे, या पीड़ित करे — तब आप समझें, ‘मुझे कान के संपर्क से जन्मी एक दुखद अनुभूति उत्पन्न हुई। वह निर्भर होकर उत्पन्न हुई, अकारण नहीं। किस पर निर्भर? संपर्क पर निर्भर।’
तब वह संपर्क को अनित्य देखता है। अनुभूति को अनित्य देखता है। संज्ञा को अनित्य देखता है। संस्कार को अनित्य देखता है। चैतन्य को अनित्य देखता है। उसका चित्त मात्र धातु को आधार बनाकर कूदता है, आश्वस्त होता है, स्थिर होता है, विमुक्त होता है।
मित्रों, यदि कोई पराया अनचाहे तरीके से, अप्रिय तरीके से, नापसंद तरीके से बर्ताव करे — जैसे मुक्का मारे, पत्थर मारे, डंडा मारे, या चाकू मारे — तब आप समझें, ‘यह काया ऐसी ही होती है कि जिस पर मुक्के पड़ते हैं, पत्थर पड़ते हैं, डंडे पड़ते हैं, चाकू पड़ते हैं। भगवान ने आरी की उपमा वाले निर्देश में कहा हैं कि ‘भले ही, भिक्षुओं, कोई क्रूर लुटेरा, दो मूँठ वाली आरी लेकर तुम्हारे अंग-प्रत्यंग को काटते रहे, तब भी जो मन दूषित करेगा — वह मेरा आज्ञाधारक नहीं है।’ तो मेरी ऊर्जा जागृत और अथक हो। मेरी स्मृति उपस्थित और स्पष्ट हो। मेरी काया प्रशान्त और अनुत्तेजित हो। मेरा चित्त समाहित और एकाग्र हो। और तब, भले ही इस काया पर मुक्के पड़ते रहें, पत्थर पड़ते रहें, डंडे पड़ते रहें, या चाकू पड़ते रहें। क्योंकि इसी तरह बुद्ध निर्देश का पालन होगा।’
यदि, मित्रों, इस तरह बुद्ध का अनुस्मरण करते हुए, धर्म का अनुस्मरण करते हुए, संघ का अनुस्मरण करते हुए भिक्षु में कुशलता पर आधारित तटस्थता स्थिर नहीं होती, तब उसमें संवेग जागृत होकर विद्यमान होना चाहिए — ‘यह मेरी हानि है! यह मेरा लाभ नहीं है! यह मेरा दुर्लाभ है! यह मेरा सुलाभ नहीं है! कि इस तरह बुद्ध का अनुस्मरण करते हुए, धर्म का अनुस्मरण करते हुए, संघ का अनुस्मरण करते हुए भी मुझमें कुशलता पर आधारित तटस्थता स्थिर नहीं होती!’
जैसे, मित्रों, किसी बहू में अपने ससुर को देख कर संवेग जागृत होकर विद्यमान होता है। उसी तरह, मित्रों, इस तरह बुद्ध का अनुस्मरण करते हुए, धर्म का अनुस्मरण करते हुए, संघ का अनुस्मरण करते हुए भिक्षु में कुशलता पर आधारित तटस्थता स्थिर नहीं होती, तब उसमें संवेग जागृत होकर विद्यमान होना चाहिए — ‘यह मेरी हानि है! यह मेरा लाभ नहीं है! यह मेरा दुर्लाभ है! यह मेरा सुलाभ नहीं है! कि इस तरह बुद्ध का अनुस्मरण करते हुए, धर्म का अनुस्मरण करते हुए, संघ का अनुस्मरण करते हुए भी मुझमें कुशलता पर आधारित तटस्थता स्थिर नहीं होती!’
किन्तु, मित्रों, यदि इस तरह बुद्ध का अनुस्मरण करते हुए, धर्म का अनुस्मरण करते हुए, संघ का अनुस्मरण करते हुए भिक्षु में कुशलता पर आधारित तटस्थता स्थिर हो जाती है, तब वह हर्षित हो जाता है। इतना कर लिया, मित्रों, तो भिक्षु ने बहुत कर लिया।
जैसे, मित्रों, जब काष्ठ (=मजबूत लकड़ी) के आधार पर, बल्ली के आधार पर, घास के आधार पर, मिट्टी के आधार पर आकाश (खाली जगह) को घेर लिया जाए, तो वह ‘घर’ के तौर पर पहचाना जाता है। उसी तरह, मित्रों, जब हड्डियों के आधार पर, नसों के आधार पर, मांस के आधार पर, चमड़े के आधार पर आकाश को घेर लिया जाए, तो वह ‘रूप’ के तौर पर पहचाना जाता है।
(१) मित्रों, हालांकि भीतर से आँख टूटी न हो, किन्तु उसके गोचर क्षेत्र में बाह्य रूप न आए, तब उससे उपजने वाला समन्वय नहीं हो पाता, और उससे उपजने वाले चैतन्य का प्रादुर्भाव नहीं हो पाता। हालांकि भीतर से आँख टूटी न हो, और उसके गोचर क्षेत्र में बाह्य रूप भी आए, किन्तु जब उससे उपजने वाला समन्वय नहीं हो पाता, तब उससे उपजने वाले चैतन्य का प्रादुर्भाव नहीं हो पाता।
किन्तु, मित्रों, हालांकि भीतर से आँख टूटी न हो, उसके गोचर क्षेत्र में बाह्य रूप भी आए, और जब उससे उपजने वाला समन्वय भी हो, तब उससे उपजने वाले चैतन्य का प्रादुर्भाव होता है। इस तरह उपजने वाले रूप, रूप आसक्ति संग्रह में शामिल होते हैं। इस तरह उपजने वाली अनुभूति (“वेदना”), अनुभूति आसक्ति संग्रह में शामिल होते हैं। इस तरह उपजने वाले संज्ञा, संज्ञा आसक्ति संग्रह में शामिल होते हैं। इस तरह उपजने वाले रचना, रचना आसक्ति संग्रह में शामिल होते हैं। इस तरह उपजने वाले चैतन्य, चैतन्य आसक्ति संग्रह में शामिल होते हैं।
तब पता चलता है, ‘तो, इस तरह पाँच आसक्ति संग्रह संग्रहीत होते हैं, इकट्ठा होते हैं, जुडते हैं।’ किन्तु, भगवान ने कहा हैं कि “जो प्रतित्य समुत्पाद देखता है, वह धर्म देखता है। जो धर्म देखता है, वह प्रतित्य समुत्पाद देखता है।” 5 वाकई, परस्पर आधार लेकर ही ये पाँच आसक्ति संग्रह उत्पन्न होते हैं। इन पाँच आसक्ति संग्रहों के प्रति चाहत, चिपकाव, जुड़ाव, और पकड़ ही दुःख की उत्पत्ति (=दूसरा आर्य सत्य) है। इन पाँच आसक्ति संग्रहों के प्रति चाहत और दिलचस्पी (“छन्दराग”) को हटा देना, चाहत और दिलचस्पी को त्याग देना ही दुःख का निरोध (=तीसरा आर्य सत्य) है। इतना कर लिया, मित्रों, तो भिक्षु ने बहुत कर लिया।
उसी तरह, मित्रों, हालांकि भीतर से —
(२) कान टूटे न हो, किन्तु उसके गोचर क्षेत्र में बाह्य ध्वनि न आए…
(३) नाक टूटी न हो, किन्तु उसके गोचर क्षेत्र में बाह्य गंध न आए…
(४) जीभ टूटी न हो, किन्तु उसके गोचर क्षेत्र में बाह्य स्वाद न आए…
(५) काया टूटी न हो, किन्तु उसके गोचर क्षेत्र में बाह्य संस्पर्श न आए…
(६) मन टूटा न हो, किन्तु उसके गोचर क्षेत्र में बाह्य स्वभाव (“धम्म”) न आए, तब उससे उपजने वाला समन्वय नहीं हो पाता, और उससे उपजने वाले चैतन्य का प्रादुर्भाव नहीं हो पाता। हालांकि भीतर से मन टूटा न हो, और उसके गोचर क्षेत्र में बाह्य स्वभाव भी आए, किन्तु जब उससे उपजने वाला समन्वय नहीं हो पाता, तब उससे उपजने वाले चैतन्य का प्रादुर्भाव नहीं हो पाता।
किन्तु, मित्रों, हालांकि भीतर से मन टूटा न हो, उसके गोचर क्षेत्र में बाह्य स्वभाव भी आए, और जब उससे उपजने वाला समन्वय भी हो, तब उससे उपजने वाले चैतन्य का प्रादुर्भाव होता है। इस तरह उपजने वाले रूप, रूप आसक्ति संग्रह में शामिल होते हैं। इस तरह उपजने वाली अनुभूति, अनुभूति आसक्ति संग्रह में शामिल होते हैं। इस तरह उपजने वाले संज्ञा, संज्ञा आसक्ति संग्रह में शामिल होते हैं। इस तरह उपजने वाले रचना, रचना आसक्ति संग्रह में शामिल होते हैं। इस तरह उपजने वाले चैतन्य, चैतन्य आसक्ति संग्रह में शामिल होते हैं।
तब पता चलता है, ‘तो, इस तरह पाँच आसक्ति संग्रह संग्रहीत होते हैं, इकट्ठा होते हैं, जुडते हैं।’ किन्तु, भगवान ने कहा हैं कि “जो प्रतित्य समुत्पाद देखता है, वह धर्म देखता है। जो धर्म देखता है, वह प्रतित्य समुत्पाद देखता है।” वाकई, परस्पर आधार लेकर ही ये पाँच आसक्ति संग्रह उत्पन्न होते हैं। इन पाँच आसक्ति संग्रहों के प्रति चाहत, चिपकाव, जुड़ाव, और पकड़ ही दुःख की उत्पत्ति है। इन पाँच आसक्ति संग्रहों के प्रति चाहत और दिलचस्पी को हटा देना, चाहत और दिलचस्पी को त्याग देना ही दुःख का निरोध है। इतना कर लिया, मित्रों, तो भिक्षु ने बहुत कर लिया।
आयुष्मान सारिपुत्त ने ऐसा कहा। हर्षित होकर भिक्षुओं ने आयुष्मान सारिपुत्त की बात का अभिनंदन किया।
यहाँ ध्यान दें: धातु को आधार बनाने का उपयोग पहले “विपस्सना” (=अनित्य, दुःख, अनात्म की अंतर्दृष्टि) जगाने के लिए हो रहा था। लेकिन अब वही धातु आलंबन का उपयोग “समथ” (=चित्त की स्थिर निश्चलता) जगाने के लिए हो रहा है। ↩︎
यहाँ मज्झिमनिकाय २१ का उल्लेख हो रहा है। ↩︎
सारिपुत्त भंते की सीख सैद्धांतिक या काल्पनिक नहीं, बल्कि व्यावहारिक और अनुभवजन्य है। यहाँ वे युवा भिक्षुओं को हर परिस्थिति के लिए तैयार रखते हैं। क्योंकि अभ्यास के दौरान अक्सर ऐसा अनुभव होता है कि उचित कदम उठाने पर भी वैसा परिणाम नहीं मिलता, जिसकी आशा थी। जब ऐसा हो, तो अगले कदम के लिए तैयार रहें। ↩︎
यहाँ सारिपुत्त भंते नए भिक्षुओं को सकारात्मक प्रोत्साहन देते हैं। अपने क्रोध पर काबू पाने की छोटी-से-छोटी जीत भी, दरअसल, एक बहुत बड़ी जीत होती है। ↩︎
यह वाक्य धर्म के अनुरूप प्रतीत तो होता है, लेकिन आश्चर्य की बात यह है कि संपूर्ण पाली साहित्य में ऐसा कोई सूत्र नहीं मिलता जिसमें स्वयं भगवान बुद्ध ने यह बात कही हो। संभव है कि वह सूत्र कालांतर में लुप्त हो गया हो, या फिर उसे कभी सूत्र के रूप में संकलित ही नहीं किया गया।
सारिपुत्त भंते ने यहाँ एक ही उपदेश में आर्य ज्ञान की लगभग सभी प्रमुख सिद्धांतों — चार आर्य सत्य, पाँच उपादान स्कन्ध, छह इंद्रिय आयाम, धातु, प्रतीत्यसमुत्पाद इत्यादि को समाहित कर दिया। यह विशेष रूप से नए साधकों के लिए उपयोगी है। उन्होंने ये शिक्षाएँ अलग-अलग रूप में कई बार सुनी होंगी, लेकिन यहाँ उनके आपसी संबंधों को समझने का एक मार्ग प्रशस्त हुआ है। ↩︎
३००. एवं मे सुतं – एकं समयं भगवा सावत्थियं विहरति जेतवने अनाथपिण्डिकस्स आरामे. तत्र खो आयस्मा सारिपुत्तो भिक्खू आमन्तेसि – ‘‘आवुसो भिक्खवे’’ति. ‘‘आवुसो’’ति खो ते भिक्खू आयस्मतो सारिपुत्तस्स पच्चस्सोसुं. आयस्मा सारिपुत्तो एतदवोच – ‘‘सेय्यथापि, आवुसो, यानि कानिचि जङ्गलानं पाणानं पदजातानि सब्बानि तानि हत्थिपदे समोधानं गच्छन्ति, हत्थिपदं तेसं अग्गमक्खायति यदिदं महन्तत्तेन; एवमेव खो, आवुसो, ये केचि कुसला धम्मा सब्बेते चतूसु अरियसच्चेसु सङ्गहं गच्छन्ति. कतमेसु चतूसु? दुक्खे अरियसच्चे , दुक्खसमुदये अरियसच्चे, दुक्खनिरोधे अरियसच्चे, दुक्खनिरोधगामिनिया पटिपदाय अरियसच्चे’’.
३०१. ‘‘कतमञ्चावुसो, दुक्खं अरियसच्चं? जातिपि दुक्खा, जरापि दुक्खा, मरणम्पि दुक्खं, सोकपरिदेवदुक्खदोमनस्सुपायासापि दुक्खा, यम्पिच्छं न लभति तम्पि दुक्खं; संखित्तेन, पञ्चुपादानक्खन्धा दुक्खा. कतमे चावुसो, पञ्चुपादानक्खन्धा? सेय्यथिदं – रूपुपादानक्खन्धो, वेदनुपादानक्खन्धो, सञ्ञुपादानक्खन्धो, सङ्खारुपादानक्खन्धो, विञ्ञाणुपादानक्खन्धो.
‘‘कतमो चावुसो, रूपुपादानक्खन्धो? चत्तारि च महाभूतानि, चतुन्नञ्च महाभूतानं उपादाय रूपं.
‘‘कतमा चावुसो, चत्तारो महाभूता? पथवीधातु, आपोधातु , तेजोधातु, वायोधातु.
३०२. ‘‘कतमा चावुसो, पथवीधातु? पथवीधातु सिया अज्झत्तिका, सिया बाहिरा. कतमा चावुसो, अज्झत्तिका पथवीधातु? यं अज्झत्तं पच्चत्तं कक्खळं खरिगतं उपादिन्नं, सेय्यथिदं – केसा लोमा नखा दन्ता तचो मंसं न्हारु अट्ठि अट्ठिमिञ्जं वक्कं हदयं यकनं किलोमकं पिहकं पप्फासं अन्तं अन्तगुणं उदरियं करीसं, यं वा पनञ्ञम्पि किञ्चि अज्झत्तं पच्चत्तं कक्खळं खरिगतं उपादिन्नं. अयं वुच्चतावुसो, अज्झत्तिका पथवीधातु. या चेव खो पन अज्झत्तिका पथवीधातु, या च बाहिरा पथवीधातु, पथवीधातुरेवेसा. ‘तं नेतं मम, नेसोहमस्मि, न मेसो अत्ता’ति – एवमेतं यथाभूतं सम्मप्पञ्ञाय दट्ठब्बं. एवमेतं यथाभूतं सम्मप्पञ्ञाय दिस्वा पथवीधातुया निब्बिन्दति, पथवीधातुया चित्तं विराजेति.
‘‘होति खो सो, आवुसो, समयो यं बाहिरा आपोधातु पकुप्पति [पथवीधातु पकुप्पति (क.)]. अन्तरहिता तस्मिं समये बाहिरा पथवीधातु होति. तस्सा हि नाम, आवुसो, बाहिराय पथवीधातुया ताव महल्लिकाय अनिच्चता पञ्ञायिस्सति, खयधम्मता पञ्ञायिस्सति, वयधम्मता पञ्ञायिस्सति, विपरिणामधम्मता पञ्ञायिस्सति. किं पनिमस्स मत्तट्ठकस्स कायस्स तण्हुपादिन्नस्स ‘अहन्ति वा ममन्ति वा अस्मी’ति वा? अथ ख्वास्स नोतेवेत्थ होति.
‘‘तञ्चे, आवुसो, भिक्खुं परे अक्कोसन्ति परिभासन्ति रोसेन्ति विहेसेन्ति, सो एवं पजानाति – ‘उप्पन्ना खो मे अयं सोतसम्फस्सजा दुक्खवेदना . सा च खो पटिच्च, नो अपटिच्च. किं पटिच्च? फस्सं पटिच्च’. सो [सोपिखो (स्या.), सोपि (क.)] फस्सो अनिच्चोति पस्सति, वेदना अनिच्चाति पस्सति, सञ्ञा अनिच्चाति पस्सति, सङ्खारा अनिच्चाति पस्सति, विञ्ञाणं अनिच्चन्ति पस्सति. तस्स धातारम्मणमेव चित्तं पक्खन्दति पसीदति सन्तिट्ठति अधिमुच्चति.
‘‘तञ्चे, आवुसो, भिक्खुं परे अनिट्ठेहि अकन्तेहि अमनापेहि समुदाचरन्ति – पाणिसम्फस्सेनपि लेड्डुसम्फस्सेनपि दण्डसम्फस्सेनपि सत्थसम्फस्सेनपि. सो एवं पजानाति – ‘तथाभूतो खो अयं कायो यथाभूतस्मिं काये पाणिसम्फस्सापि कमन्ति, लेड्डुसम्फस्सापि कमन्ति, दण्डसम्फस्सापि कमन्ति, सत्थसम्फस्सापि कमन्ति. वुत्तं खो पनेतं भगवता ककचूपमोवादे – ‘‘उभतोदण्डकेन चेपि, भिक्खवे, ककचेन चोरा ओचरका अङ्गमङ्गानि ओकन्तेय्युं, तत्रापि यो मनो पदूसेय्य न मे सो तेन सासनकरो’’ति. आरद्धं खो पन मे वीरियं भविस्सति असल्लीनं, उपट्ठिता सति असम्मुट्ठा, पस्सद्धो कायो असारद्धो, समाहितं चित्तं एकग्गं. कामं दानि इमस्मिं काये पाणिसम्फस्सापि कमन्तु, लेड्डुसम्फस्सापि कमन्तु, दण्डसम्फस्सापि कमन्तु, सत्थसम्फस्सापि कमन्तु, करीयति हिदं बुद्धानं सासन’न्ति.
‘‘तस्स चे, आवुसो, भिक्खुनो एवं बुद्धं अनुस्सरतो एवं धम्मं अनुस्सरतो एवं सङ्घं अनुस्सरतो उपेक्खा कुसलनिस्सिता न सण्ठाति. सो तेन संविज्जति संवेगं आपज्जति – ‘अलाभा वत मे, न वत मे लाभा, दुल्लद्धं वत मे, न वत मे सुलद्धं, यस्स मे एवं बुद्धं अनुस्सरतो, एवं धम्मं अनुस्सरतो, एवं सङ्घं अनुस्सरतो, उपेक्खा कुसलनिस्सिता न सण्ठाती’ति. सेय्यथापि, आवुसो, सुणिसा ससुरं दिस्वा संविज्जति संवेगं आपज्जति; एवमेव खो, आवुसो, तस्स चे भिक्खुनो एवं बुद्धं अनुस्सरतो, एवं धम्मं अनुस्सरतो, एवं सङ्घं अनुस्सरतो, उपेक्खा कुसलनिस्सिता न सण्ठाति, सो तेन संविज्जति संवेगं आपज्जति – ‘अलाभा वत मे न वत मे लाभा, दुल्लद्धं वत मे, न वत मे सुलद्धं, यस्स मे एवं बुद्धं अनुस्सरतो एवं धम्मं अनुस्सरतो, एवं सङ्घं अनुस्सरतो, उपेक्खा कुसलनिस्सिता न सण्ठाती’ति. तस्स चे, आवुसो, भिक्खुनो एवं बुद्धं अनुस्सरतो, एवं धम्मं अनुस्सरतो, एवं सङ्घं अनुस्सरतो उपेक्खा कुसलनिस्सिता सण्ठाति, सो तेन अत्तमनो होति. एत्तावतापि खो, आवुसो, भिक्खुनो बहुकतं होति.
३०३. ‘‘कतमा चावुसो, आपोधातु? आपोधातु सिया अज्झत्तिका, सिया बाहिरा. कतमा चावुसो अज्झत्तिका आपोधातु? यं अज्झत्तं पच्चत्तं आपो आपोगतं उपादिन्नं, सेय्यथिदं – पित्तं सेम्हं पुब्बो लोहितं सेदो मेदो अस्सु वसा खेळो सिङ्घाणिका लसिका मुत्तं, यं वा पनञ्ञम्पि किञ्चि अज्झत्तं पच्चत्तं आपो आपोगतं उपादिन्नं – अयं वुच्चतावुसो, अज्झत्तिका आपोधातु. या चेव खो पन अज्झत्तिका आपोधातु या च बाहिरा आपोधातु, आपोधातुरेवेसा. ‘तं नेतं मम, नेसोहमस्मि, न मेसो अत्ता’ति एवमेतं यथाभूतं सम्मप्पञ्ञाय दट्ठब्बं. एवमेतं यथाभूतं सम्मप्पञ्ञाय दिस्वा आपोधातुया निब्बिन्दति, आपोधातुया चित्तं विराजेति.
‘‘होति खो सो, आवुसो, समयो यं बाहिरा आपोधातु पकुप्पति. सा गामम्पि वहति, निगमम्पि वहति, नगरम्पि वहति, जनपदम्पि वहति, जनपदपदेसम्पि वहति. होति खो सो, आवुसो, समयो यं महासमुद्दे योजनसतिकानिपि उदकानि ओगच्छन्ति, द्वियोजनसतिकानिपि उदकानि ओगच्छन्ति, तियोजनसतिकानिपि उदकानि ओगच्छन्ति, चतुयोजनसतिकानिपि उदकानि ओगच्छन्ति, पञ्चयोजनसतिकानिपि उदकानि ओगच्छन्ति, छयोजनसतिकानिपि उदकानि ओगच्छन्ति, सत्तयोजनसतिकानिपि उदकानि ओगच्छन्ति. होति खो सो, आवुसो, समयो यं महासमुद्दे सत्ततालम्पि उदकं सण्ठाति, छत्तालम्पि उदकं सण्ठाति, पञ्चतालम्पि उदकं सण्ठाति, चतुत्तालम्पि उदकं सण्ठाति, तितालम्पि उदकं सण्ठाति, द्वितालम्पि उदकं सण्ठाति, तालमत्तम्पि [तालंपि (सी.)] उदकं सण्ठाति. होति खो सो, आवुसो, समयो यं महासमुद्दे सत्तपोरिसम्पि उदकं सण्ठाति, छप्पोरिसम्पि उदकं सण्ठाति, पञ्चपोरिसम्पि उदकं सण्ठाति, चतुप्पोरिसम्पि उदकं सण्ठाति, तिपोरिसम्पि उदकं सण्ठाति, द्विपोरिसम्पि उदकं सण्ठाति, पोरिसमत्तम्पि [पोरिसंपि (सी.)] उदकं सण्ठाति. होति खो सो, आवुसो, समयो यं महासमुद्दे अड्ढपोरिसम्पि उदकं सण्ठाति, कटिमत्तम्पि उदकं सण्ठाति, जाणुकमत्तम्पि उदकं सण्ठाति, गोप्फकमत्तम्पि उदकं सण्ठाति. होति खो सो, आवुसो, समयो, यं महासमुद्दे अङ्गुलिपब्बतेमनमत्तम्पि उदकं न होति. तस्सा हि नाम, आवुसो, बाहिराय आपोधातुया ताव महल्लिकाय अनिच्चता पञ्ञायिस्सति, खयधम्मता पञ्ञायिस्सति, वयधम्मता पञ्ञायिस्सति, विपरिणामधम्मता पञ्ञायिस्सति. किं पनिमस्स मत्तट्ठकस्स कायस्स तण्हुपादिन्नस्स ‘अहन्ति वा ममन्ति वा अस्मीति’ वा? अथ ख्वास्स नोतेवेत्थ होति…पे… तस्स चे, आवुसो, भिक्खुनो एवं बुद्धं अनुस्सरतो, एवं धम्मं अनुस्सरतो, एवं सङ्घं अनुस्सरतो उपेक्खा कुसलनिस्सिता सण्ठाति. सो तेन अत्तमनो होति. एत्तावतापि खो, आवुसो, भिक्खुनो बहुकतं होति.
३०४. ‘‘कतमा चावुसो, तेजोधातु? तेजोधातु सिया अज्झत्तिका, सिया बाहिरा. कतमा चावुसो, अज्झत्तिका तेजोधातु? यं अज्झत्तं पच्चत्तं तेजो तेजोगतं उपादिन्नं, सेय्यथिदं – येन च सन्तप्पति, येन च जीरीयति, येन च परिडय्हति, येन च असितपीतखायितसायितं सम्मा परिणामं गच्छति, यं वा पनञ्ञम्पि किञ्चि अज्झत्तं पच्चत्तं तेजो तेजोगतं उपादिन्नं – अयं वुच्चतावुसो, अज्झत्तिका तेजोधातु. या चेव खो पन अज्झत्तिका तेजोधातु या च बाहिरा तेजोधातु, तेजोधातुरेवेसा. ‘तं नेतं मम , नेसोहमस्मि, न मेसो अत्ता’ति एवमेतं यथाभूतं सम्मप्पञ्ञाय दट्ठब्बं. एवमेतं यथाभूतं सम्मप्पञ्ञाय दिस्वा तेजोधातुया निब्बिन्दति, तेजोधातुया चित्तं विराजेति.
‘‘होति खो सो, आवुसो, समयो यं बाहिरा तेजोधातु पकुप्पति. सा गामम्पि दहति, निगमम्पि दहति, नगरम्पि दहति, जनपदम्पि दहति, जनपदपदेसम्पि दहति. सा हरितन्तं वा पन्थन्तं वा सेलन्तं वा उदकन्तं वा रमणीयं वा भूमिभागं आगम्म अनाहारा निब्बायति. होति खो सो, आवुसो, समयो यं कुक्कुटपत्तेनपि न्हारुदद्दुलेनपि अग्गिं गवेसन्ति . तस्सा हि नाम, आवुसो, बाहिराय तेजोधातुया ताव महल्लिकाय अनिच्चता पञ्ञायिस्सति, खयधम्मता पञ्ञायिस्सति, वयधम्मता पञ्ञायिस्सति, विपरिणामधम्मता पञ्ञायिस्सति. किं पनिमस्स मत्तट्ठकस्स कायस्स तण्हुपादिन्नस्स ‘अहन्ति वा ममन्ति वा अस्मी’ति वा? अथ ख्वास्स नोतेवेत्थ होति…पे… तस्स चे, आवुसो, भिक्खुनो एवं बुद्धं अनुस्सरतो एवं धम्मं अनुस्सरतो एवं सङ्घं अनुस्सरतो उपेक्खा कुसलनिस्सिता सण्ठाति, सो तेन अत्तमनो होति. एत्तावतापि खो, आवुसो, भिक्खुनो बहुकतं होति.
३०५. ‘‘कतमा चावुसो, वायोधातु? वायोधातु सिया अज्झत्तिका, सिया बाहिरा. कतमा चावुसो, अज्झत्तिका वायोधातु? यं अज्झत्तं पच्चत्तं वायो वायोगतं उपादिन्नं, सेय्यथिदं – उद्धङ्गमा वाता, अधोगमा वाता, कुच्छिसया वाता, कोट्ठासया [कोट्ठसया (सी. पी.)] वाता, अङ्गमङ्गानुसारिनो वाता, अस्सासो पस्सासो इति, यं वा पनञ्ञम्पि किञ्चि अज्झत्तं पच्चत्तं वायो वायोगतं उपादिन्नं – अयं वुच्चतावुसो, अज्झत्तिका वायोधातु. या चेव खो पन अज्झत्तिका वायोधातु, या च बाहिरा वायोधातु, वायोधातुरेवेसा. ‘तं नेतं मम नेसोहमस्मि न मेसो अत्ता’ति एवमेतं यथाभूतं सम्मप्पञ्ञाय दट्ठब्बं. एवमेतं यथाभूतं सम्मप्पञ्ञाय दिस्वा वायोधातुया निब्बिन्दति वायोधातुया चित्तं विराजेति.
‘‘होति खो सो, आवुसो, समयो यं बाहिरा वायोधातु पकुप्पति. सा गामम्पि वहति, निगमम्पि वहति, नगरम्पि वहति, जनपदम्पि वहति, जनपदपदेसम्पि वहति. होति खो सो, आवुसो, समयो यं गिम्हानं पच्छिमे मासे तालवण्टेनपि विधूपनेनपि वातं परियेसन्ति, ओस्सवनेपि तिणानि न इच्छन्ति. तस्सा हि नाम, आवुसो, बाहिराय वायोधातुया ताव महल्लिकाय अनिच्चता पञ्ञायिस्सति, खयधम्मता पञ्ञायिस्सति, वयधम्मता पञ्ञायिस्सति, विपरिणामधम्मता पञ्ञायिस्सति. किं पनिमस्स मत्तट्ठकस्स कायस्स तण्हुपादिन्नस्स ‘अहन्ति वा ममन्ति वा अस्मी’ति वा? अथ ख्वास्स नोतेवेत्थ होति.
‘‘तञ्चे, आवुसो, भिक्खुं परे अक्कोसन्ति परिभासन्ति रोसेन्ति विहेसेन्ति. सो एवं पजानाति, उप्पन्ना खो मे अयं सोतसम्फस्सजा दुक्खा वेदना. सा च खो पटिच्च, नो अपटिच्च. किं पटिच्च? फस्सं पटिच्च. सोपि फस्सो अनिच्चोति पस्सति, वेदना अनिच्चाति पस्सति , सञ्ञा अनिच्चाति पस्सति, सङ्खारा अनिच्चाति पस्सति, विञ्ञाणं अनिच्चन्ति पस्सति. तस्स धातारम्मणमेव चित्तं पक्खन्दति पसीदति सन्तिट्ठति अधिमुच्चति.
‘‘तञ्चे, आवुसो, भिक्खुं परे अनिट्ठेहि अकन्तेहि अमनापेहि समुदाचरन्ति, पाणिसम्फस्सेनपि लेड्डुसम्फस्सेनपि दण्डसम्फस्सेनपि सत्थसम्फस्सेनपि. सो एवं पजानाति ‘तथाभूतो खो अयं कायो यथाभूतस्मिं काये पाणिसम्फस्सापि कमन्ति, लेड्डुसम्फस्सापि कमन्ति, दण्डसम्फस्सापि कमन्ति, सत्थसम्फस्सापि कमन्ति. वुत्तं खो पनेतं भगवता ककचूपमोवादे ‘‘उभतोदण्डकेन चेपि, भिक्खवे, ककचेन चोरा ओचरका अङ्गमङ्गानि ओकन्तेय्युं. तत्रापि यो मनो पदूसेय्य, न मे सो तेन सासनकरो’’ति. आरद्धं खो पन मे वीरियं भविस्सति असल्लीनं, उपट्ठिता सति असम्मुट्ठा, पस्सद्धो कायो असारद्धो, समाहितं चित्तं एकग्गं. कामं दानि इमस्मिं काये पाणिसम्फस्सापि कमन्तु, लेड्डुसम्फस्सापि कमन्तु, दण्डसम्फस्सापि कमन्तु, सत्थसम्फस्सापि कमन्तु. करीयति हिदं बुद्धानं सासन’न्ति.
‘‘तस्स चे, आवुसो, भिक्खुनो एवं बुद्धं अनुस्सरतो, एवं धम्मं अनुस्सरतो, एवं सङ्घं अनुस्सरतो उपेक्खा कुसलनिस्सिता न सण्ठाति. सो तेन संविज्जति संवेगं आपज्जति – ‘अलाभा वत मे, न वत मे लाभा, दुल्लद्धं वत मे, न वत मे सुलद्धं. यस्स मे एवं बुद्धं अनुस्सरतो, एवं धम्मं अनुस्सरतो, एवं सङ्घं अनुस्सरतो उपेक्खा कुसलनिस्सिता न सण्ठाती’ति. सेय्यथापि, आवुसो, सुणिसा ससुरं दिस्वा संविज्जति संवेगं आपज्जति; एवमेव खो, आवुसो, तस्स चे भिक्खुनो एवं बुद्धं अनुस्सरतो, एवं धम्मं अनुस्सरतो, एवं सङ्घं अनुस्सरतो, उपेक्खा कुसलनिस्सिता न सण्ठाति. सो तेन संविज्जति संवेगं आपज्जति – ‘अलाभा वत मे, न वत मे लाभा, दुल्लद्धं वत मे, न वत मे सुलद्धं. यस्स मे एवं बुद्धं अनुस्सरतो, एवं धम्मं अनुस्सरतो, एवं सङ्घं अनुस्सरतो, उपेक्खा कुसलनिस्सिता न सण्ठाती’ति. तस्स चे, आवुसो, भिक्खुनो एवं बुद्धं अनुस्सरतो, एवं धम्मं अनुस्सरतो, एवं सङ्घं अनुस्सरतो, उपेक्खा कुसलनिस्सिता सण्ठाति, सो तेन अत्तमनो होति. एत्तावतापि खो, आवुसो, भिक्खुनो बहुकतं होति.
३०६. ‘‘सेय्यथापि, आवुसो, कट्ठञ्च पटिच्च वल्लिञ्च पटिच्च तिणञ्च पटिच्च मत्तिकञ्च पटिच्च आकासो परिवारितो अगारं त्वेव सङ्खं गच्छति; एवमेव खो, आवुसो, अट्ठिञ्च पटिच्च न्हारुञ्च पटिच्च मंसञ्च पटिच्च चम्मञ्च पटिच्च आकासो परिवारितो रूपं त्वेव सङ्खं गच्छति. अज्झत्तिकञ्चेव, आवुसो, चक्खुं अपरिभिन्नं होति, बाहिरा च रूपा न आपाथं आगच्छन्ति, नो च तज्जो समन्नाहारो होति, नेव ताव तज्जस्स विञ्ञाणभागस्स पातुभावो होति. अज्झत्तिकञ्चेव [अज्झत्तिकञ्चे (सी. स्या. पी.), अज्झत्तिकञ्चेपि (?)], आवुसो, चक्खुं अपरिभिन्नं होति बाहिरा च रूपा आपाथं आगच्छन्ति, नो च तज्जो समन्नाहारो होति, नेव ताव तज्जस्स विञ्ञाणभागस्स पातुभावो होति. यतो च खो, आवुसो, अज्झत्तिकञ्चेव चक्खुं अपरिभिन्नं होति, बाहिरा च रूपा आपाथं आगच्छन्ति, तज्जो च समन्नाहारो होति. एवं तज्जस्स विञ्ञाणभागस्स पातुभावो होति. यं तथाभूतस्स रूपं तं रूपुपादानक्खन्धे सङ्गहं गच्छति, या तथाभूतस्स वेदना सा वेदनुपादानक्खन्धे सङ्गहं गच्छति, या तथाभूतस्स सञ्ञा सा सञ्ञुपादानक्खन्धे सङ्गहं गच्छति, ये तथाभूतस्स सङ्खारा ते सङ्खारुपादानक्खन्धे सङ्गहं गच्छन्ति, यं तथाभूतस्स विञ्ञाणं तं विञ्ञाणुपादानक्खन्धे सङ्गहं गच्छति.
‘‘सो एवं पजानाति – ‘एवञ्हि किर इमेसं पञ्चन्नं उपादानक्खन्धानं सङ्गहो सन्निपातो समवायो होति. वुत्तं खो पनेतं भगवता – ‘यो पटिच्चसमुप्पादं पस्सति सो धम्मं पस्सति; यो धम्मं पस्सति सो पटिच्चसमुप्पादं पस्सतीति. पटिच्चसमुप्पन्ना खो पनिमे यदिदं पञ्चुपादानक्खन्धा. यो इमेसु पञ्चसु उपादानक्खन्धेसु छन्दो आलयो अनुनयो अज्झोसानं सो दुक्खसमुदयो. यो इमेसु पञ्चसु उपादानक्खन्धेसु छन्दरागविनयो छन्दरागप्पहानं, सो दुक्खनिरोधो’ति. एत्तावतापि खो, आवुसो, भिक्खुनो बहुकतं होति.
‘‘अज्झत्तिकञ्चेव, आवुसो, सोतं अपरिभिन्नं होति…पे… घानं अपरिभिन्नं होति… जिव्हा अपरिभिन्ना होति… कायो अपरिभिन्नो होति… मनो अपरिभिन्नो होति, बाहिरा च धम्मा न आपाथं आगच्छन्ति नो च तज्जो समन्नाहारो होति, नेव ताव तज्जस्स विञ्ञाणभागस्स पातुभावो होति. अज्झत्तिको चेव, आवुसो, मनो अपरिभिन्नो होति, बाहिरा च धम्मा आपाथं आगच्छन्ति, नो च तज्जो समन्नाहारो होति, नेव ताव तज्जस्स विञ्ञाणभागस्स पातुभावो होति. यतो च खो, आवुसो, अज्झत्तिको चेव मनो अपरिभिन्नो होति, बाहिरा च धम्मा आपाथं आगच्छन्ति, तज्जो च समन्नाहारो होति, एवं तज्जस्स विञ्ञाणभागस्स पातुभावो होति. यं तथाभूतस्स रूपं तं रूपुपादानक्खन्धे सङ्गहं गच्छति, या तथाभूतस्स वेदना सा वेदनुपादानक्खन्धे सङ्गहं गच्छति, या तथाभूतस्स सञ्ञा सा सञ्ञुपादानक्खन्धे सङ्गहं गच्छति, ये तथाभूतस्स सङ्खारा ते सङ्खारुपादानक्खन्धे सङ्गहं गच्छन्ति, यं तथाभूतस्स विञ्ञाणं तं विञ्ञाणुपादानक्खन्धे सङ्गहं गच्छति. सो एवं पजानाति – ‘एवञ्हि किर इमेसं पञ्चन्नं उपादानक्खन्धानं सङ्गहो सन्निपातो समवायो होति. वुत्तं खो पनेतं भगवता – ‘‘यो पटिच्चसमुप्पादं पस्सति सो धम्मं पस्सति; यो धम्मं पस्सति सो पटिच्चसमुप्पादं पस्सती’’ति. पटिच्चसमुप्पन्ना खो पनिमे यदिदं पञ्चुपादानक्खन्धा. यो इमेसु पञ्चसु उपादानक्खन्धेसु छन्दो आलयो अनुनयो अज्झोसानं सो दुक्खसमुदयो. यो इमेसु पञ्चसु उपादानक्खन्धेसु छन्दरागविनयो छन्दरागप्पहानं सो दुक्खनिरोधो’ति. एत्तावतापि खो, आवुसो, भिक्खुनो बहुकतं होती’’ति.
इदमवोच आयस्मा सारिपुत्तो. अत्तमना ते भिक्खू आयस्मतो सारिपुत्तस्स भासितं अभिनन्दुन्ति.
महाहत्थिपदोपमसुत्तं निट्ठितं अट्ठमं.