नमो तस्स भगवतो अरहतो सम्मा-सम्बुद्धस्स

📜 ब्रह्मचर्य का सार

✦ ॥ नमो तस्स भगवतो अरहतो सम्मासम्बुद्धस्स ॥ ✦

Hindi

ऐसा मैंने सुना — एक समय भगवान राजगृह में गिद्धकूट पर्वत पर विहार कर रहे थे, देवदत्त को जाकर अधिक समय नहीं हुआ था। तब भगवान ने देवदत्त 1 के बारे में भिक्षुओं को संबोधित किया —

“भिक्षुओं, कोई कुलपुत्र होता है जो श्रद्धा से घर से बेघर होकर प्रवज्ज्यित होता है, (सोचते हुए,) “मैं जन्म, बुढ़ापा और मौत से घिरा हूँ; शोक, विलाप, दर्द, व्यथा, और निराशा से घिरा हूँ; दुःख से घिरा, दुःख में फँसा हूँ। काश, मुझे इस दुःख संग्रह के अंत का पता चले!”

टहनी और पत्ती

इस तरह प्रवज्ज्यित होने पर, वह लाभ, सत्कार और किर्ति उत्पन्न करता है। उस लाभ, सत्कार और किर्ति से वह हर्षित हो जाता है, मानो उसकी मन्नत पूरी हुई। उस लाभ, सत्कार और किर्ति से वह आत्म प्रशंसा करता है, और दूसरों को तुच्छ मानता है, ‘मुझे लाभ, सत्कार और किर्ति प्राप्त है। इन दूसरे भिक्षुओं को कम लोग जानते हैं, ये कम प्रभावशाली है।’ तब वह उसी लाभ, सत्कार और किर्ति में डूब जाता है, मदहोश हो जाता है, लापरवाह हो जाता है। और लापरवाह होकर दुःख में विहार करता है।

जैसे, भिक्षुओं, कोई पुरुष सारकाष्ठ चाहता हो, वह सारकाष्ठ को ढूँढते हुए, सारकाष्ठ की खोज में उसे एक विशाल वृक्ष खड़ा मिले। किन्तु वह उसका सार छोड़कर आगे बढ़े, उसका अंतःकाष्ठ छोड़कर आगे बढ़े, उसकी छाल छोड़कर आगे बढ़े, उसकी पपड़ी छोड़कर आगे बढ़े। वह उसकी टहनियों और पत्तियों को ‘सारकाष्ठ’ मानते हुए, उन्हें काट कर चल पड़ता है। 2

तब, कोई चक्षुमान पुरुष देख कर कहता है — “इस पुरुष श्रीमान को ‘सार’ नहीं पता, ‘अन्तरकाष्ठ’ नहीं पता, ‘छाल’ नहीं पता, ‘पपड़ी’ नहीं पता, ‘टहनी और पत्ती’ भी नहीं पता। इसलिए यह पुरुष श्रीमान सारकाष्ठ चाहते हुए, सारकाष्ठ को ढूँढते हुए, सारकाष्ठ की खोज में उसे एक विशाल वृक्ष खड़ा मिला। किन्तु वह उसका सार छोड़कर आगे बढ़ गया, उसका अंतःकाष्ठ छोड़कर आगे बढ़ गया, उसकी छाल छोड़कर आगे बढ़ गया, उसकी पपड़ी छोड़कर आगे बढ़ गया। वह उसकी टहनियों और पत्तियों को ‘सारकाष्ठ’ मानते हुए, उन्हें काट कर चल पड़ा। उसे सारकाष्ठ से जो भी काम था, वह ध्येय पूरा नहीं होगा।”

उसी तरह, भिक्षुओं, कोई कुलपुत्र होता है जो श्रद्धा से घर से बेघर होकर प्रवज्ज्यित होता है, (सोचते हुए,) “मैं जन्म, बुढ़ापा और मौत से घिरा हूँ; शोक, विलाप, दर्द, व्यथा, और निराशा से घिरा हूँ; दुःख से घिरा, दुःख में फँसा हूँ। काश, मुझे इस दुःख संग्रह के अंत का पता चले!”

इस तरह प्रवज्ज्यित होने पर, वह लाभ, सत्कार और किर्ति उत्पन्न करता है। उस लाभ, सत्कार और किर्ति से वह हर्षित हो जाता है, मानो उसकी मन्नत पूरी हुई। उस लाभ, सत्कार और किर्ति से वह आत्म प्रशंसा करता है, और दूसरों को तुच्छ मानता है, ‘मुझे लाभ, सत्कार और किर्ति प्राप्त है। इन दूसरे भिक्षुओं को कम लोग जानते हैं, ये कम प्रभावशाली है।’ तब वह उसी लाभ, सत्कार और किर्ति में डूब जाता है, मदहोश हो जाता है, लापरवाह हो जाता है। और लापरवाह होकर दुःख में विहार करता है।

भिक्षुओं, ऐसे भिक्षु को कहते हैं कि उसने ब्रह्मचर्य की टहनियों और पत्तियों को ग्रहण किया, और उसी पर रुक गया।

पपड़ी

आगे, भिक्षुओं, कोई कुलपुत्र होता है जो श्रद्धा से घर से बेघर होकर प्रवज्ज्यित होता है, (सोचते हुए,) “मैं जन्म, बुढ़ापा और मौत से घिरा हूँ; शोक, विलाप, दर्द, व्यथा, और निराशा से घिरा हूँ; दुःख से घिरा, दुःख में फँसा हूँ। काश, मुझे इस दुःख संग्रह के अंत का पता चले!”

इस तरह प्रवज्ज्यित होने पर, वह लाभ, सत्कार और किर्ति उत्पन्न करता है। किन्तु, वह उस लाभ, सत्कार और किर्ति से हर्षित नहीं होता, मानो उसकी मन्नत पूरी नहीं हुई। वह उस लाभ, सत्कार और किर्ति से आत्म प्रशंसा नहीं करता, न ही दूसरों को तुच्छ मानता है। तब वह उस लाभ, सत्कार और किर्ति में डूबता नहीं, मदहोश नहीं होता, लापरवाह नहीं होता।

बिना लापरवाह रहे वह शील संपदा प्राप्त करता है। वह उस शील संपदा को प्राप्त कर हर्षित हो जाता है, मानो उसकी मन्नत पूरी हुई। उस शील संपदा से वह आत्म प्रशंसा करता है, और दूसरों को तुच्छ मानता है, ‘मैं तो शीलवान, भले स्वभाव का हूँ। ये दूसरे भिक्षु दुष्शील, बुरे स्वभाव के हैं।’ तब वह उसी शील संपदा में डूब जाता है, मदहोश हो जाता है, लापरवाह हो जाता है। और लापरवाह होकर दुःख में विहार करता है।

जैसे, भिक्षुओं, कोई पुरुष सारकाष्ठ चाहता हो, वह सारकाष्ठ को ढूँढते हुए, सारकाष्ठ की खोज में उसे एक विशाल वृक्ष खड़ा मिले। किन्तु वह उसका सार छोड़कर आगे बढ़े, उसका अंतःकाष्ठ छोड़कर आगे बढ़े, उसकी छाल छोड़कर आगे बढ़े। वह उसकी पपड़ी को ‘सारकाष्ठ’ मानते हुए, उसे काट कर चल पड़ता है।

तब, कोई चक्षुमान पुरुष देख कर कहता है — “इस पुरुष श्रीमान को ‘सार’ नहीं पता, ‘अन्तरकाष्ठ’ नहीं पता, ‘छाल’ नहीं पता, ‘पपड़ी’ नहीं पता, ‘टहनी और पत्ती’ भी नहीं पता। इसलिए यह पुरुष श्रीमान सारकाष्ठ चाहते हुए, सारकाष्ठ को ढूँढते हुए, सारकाष्ठ की खोज में उसे एक विशाल वृक्ष खड़ा मिला। किन्तु वह उसका सार छोड़कर आगे बढ़ गया, उसका अंतःकाष्ठ छोड़कर आगे बढ़ गया, उसकी छाल छोड़कर आगे बढ़ गया। वह उसकी पपड़ी को ‘सारकाष्ठ’ मानते हुए, उसे काट कर चल पड़ा। उसे सारकाष्ठ से जो भी काम था, वह ध्येय पूरा नहीं होगा।”

उसी तरह, भिक्षुओं, कोई कुलपुत्र होता है… तब वह उसी शील संपदा में डूब जाता है, मदहोश हो जाता है, लापरवाह हो जाता है। और लापरवाह होकर दुःख में विहार करता है।

भिक्षुओं, ऐसे भिक्षु को कहते हैं कि उसने ब्रह्मचर्य की पपड़ी को ग्रहण किया, और उसी पर रुक गया।

छाल

आगे, भिक्षुओं, कोई कुलपुत्र होता है जो श्रद्धा से घर से बेघर होकर प्रवज्ज्यित होता है, (सोचते हुए,) “मैं जन्म, बुढ़ापा और मौत से घिरा हूँ; शोक, विलाप, दर्द, व्यथा, और निराशा से घिरा हूँ; दुःख से घिरा, दुःख में फँसा हूँ। काश, मुझे इस दुःख संग्रह के अंत का पता चले!”

इस तरह प्रवज्ज्यित होने पर, वह लाभ, सत्कार और किर्ति उत्पन्न करता है। किन्तु, वह उस लाभ, सत्कार और किर्ति से हर्षित नहीं होता, मानो उसकी मन्नत पूरी नहीं हुई। वह उस लाभ, सत्कार और किर्ति से आत्म प्रशंसा नहीं करता, न ही दूसरों को तुच्छ मानता है। तब वह उस लाभ, सत्कार और किर्ति में डूबता नहीं, मदहोश नहीं होता, लापरवाह नहीं होता।

बिना लापरवाह रहे वह शील संपदा प्राप्त करता है। वह उस शील संपदा से हर्षित नहीं होता, मानो उसकी मन्नत पूरी नहीं हुई। वह उस शील संपदा से आत्म प्रशंसा नहीं करता, न ही दूसरों को तुच्छ मानता है। तब वह उस शील संपदा में डूबता नहीं, मदहोश नहीं होता, लापरवाह नहीं होता।

बिना लापरवाह रहे वह समाधि संपदा प्राप्त करता है। वह उस समाधि संपदा को प्राप्त कर हर्षित हो जाता है, मानो उसकी मन्नत पूरी हुई। उस समाधि संपदा से वह आत्म प्रशंसा करता है, और दूसरों को तुच्छ मानता है, ‘मेरा तो समाहित, एकाग्र चित्त है। इन दूसरे भिक्षुओं का असमाहित, भटकने वाला चित्त हैं।’ तब वह उसी समाधि संपदा में डूब जाता है, मदहोश हो जाता है, लापरवाह हो जाता है। और लापरवाह होकर दुःख में विहार करता है।

जैसे, भिक्षुओं, कोई पुरुष सारकाष्ठ चाहता हो, वह सारकाष्ठ को ढूँढते हुए, सारकाष्ठ की खोज में उसे एक विशाल वृक्ष खड़ा मिले। किन्तु वह उसका सार छोड़कर आगे बढ़े, उसका अंतःकाष्ठ छोड़कर आगे बढ़े। वह उसकी छाल को ‘सारकाष्ठ’ मानते हुए, उसे काट कर चल पड़ता है।

तब, कोई चक्षुमान पुरुष देख कर कहता है — “इस पुरुष श्रीमान को ‘सार’ नहीं पता, ‘अन्तरकाष्ठ’ नहीं पता, ‘छाल’ नहीं पता, ‘पपड़ी’ नहीं पता, ‘टहनी और पत्ती’ भी नहीं पता। इसलिए यह पुरुष श्रीमान सारकाष्ठ चाहते हुए, सारकाष्ठ को ढूँढते हुए, सारकाष्ठ की खोज में उसे एक विशाल वृक्ष खड़ा मिला। किन्तु वह उसका सार छोड़कर आगे बढ़ गया, उसका अंतःकाष्ठ छोड़कर आगे बढ़ गया। वह उसकी छाल को ‘सारकाष्ठ’ मानते हुए, उसे काट कर चल पड़ा। उसे सारकाष्ठ से जो भी काम था, वह ध्येय पूरा नहीं होगा।”

उसी तरह, भिक्षुओं, कोई कुलपुत्र होता है… तब वह उसी समाधि संपदा में डूब जाता है, मदहोश हो जाता है, लापरवाह हो जाता है। और लापरवाह होकर दुःख में विहार करता है।

भिक्षुओं, ऐसे भिक्षु को कहते हैं कि उसने ब्रह्मचर्य की छाल को ग्रहण किया, और उसी पर रुक गया।

अंतःकाष्ठ

आगे, भिक्षुओं, कोई कुलपुत्र होता है जो श्रद्धा से घर से बेघर होकर प्रवज्ज्यित होता है, (सोचते हुए,) “मैं जन्म, बुढ़ापा और मौत से घिरा हूँ; शोक, विलाप, दर्द, व्यथा, और निराशा से घिरा हूँ; दुःख से घिरा, दुःख में फँसा हूँ। काश, मुझे इस दुःख संग्रह के अंत का पता चले!”

इस तरह प्रवज्ज्यित होने पर, वह लाभ, सत्कार और किर्ति उत्पन्न करता है। किन्तु, वह उस लाभ, सत्कार और किर्ति से हर्षित नहीं होता, मानो उसकी मन्नत पूरी नहीं हुई। वह उस लाभ, सत्कार और किर्ति से आत्म प्रशंसा नहीं करता, न ही दूसरों को तुच्छ मानता है। तब वह उस लाभ, सत्कार और किर्ति में डूबता नहीं, मदहोश नहीं होता, लापरवाह नहीं होता।

बिना लापरवाह रहे वह शील संपदा प्राप्त करता है। वह उस शील संपदा से हर्षित नहीं होता, मानो उसकी मन्नत पूरी नहीं हुई। वह उस शील संपदा से आत्म प्रशंसा नहीं करता, न ही दूसरों को तुच्छ मानता है। तब वह उस शील संपदा में डूबता नहीं, मदहोश नहीं होता, लापरवाह नहीं होता।

बिना लापरवाह रहे वह समाधि संपदा प्राप्त करता है। वह उस समाधि संपदा से हर्षित नहीं होता, मानो उसकी मन्नत पूरी नहीं हुई। वह उस समाधि संपदा से आत्म प्रशंसा नहीं करता, न ही दूसरों को तुच्छ मानता है। तब वह उस समाधि संपदा में डूबता नहीं, मदहोश नहीं होता, लापरवाह नहीं होता।

बिना लापरवाह रहे वह ज्ञान-दर्शन 3 प्राप्त करता है। वह उस ज्ञान-दर्शन को प्राप्त कर हर्षित हो जाता है, मानो उसकी मन्नत पूरी हुई। उस ज्ञान-दर्शन से वह आत्म प्रशंसा करता है, और दूसरों को तुच्छ मानता है, ‘मैं तो जानते हुए, देखते हुए विहार करता हूँ। ये दूसरे भिक्षु बिना जानते हुए, बिना देखते हुए विहार करते हैं।’ तब वह उसी ज्ञान-दर्शन में डूब जाता है, मदहोश हो जाता है, लापरवाह हो जाता है। और लापरवाह होकर दुःख में विहार करता है।

जैसे, भिक्षुओं, कोई पुरुष सारकाष्ठ चाहता हो, वह सारकाष्ठ को ढूँढते हुए, सारकाष्ठ की खोज में उसे एक विशाल वृक्ष खड़ा मिले। किन्तु वह उसका सार छोड़कर आगे बढ़े, और उसके अंतःकाष्ठ को ‘सारकाष्ठ’ मानते हुए, उसे काट कर चल पड़ता है।

तब, कोई चक्षुमान पुरुष देख कर कहता है — “इस पुरुष श्रीमान को ‘सार’ नहीं पता, ‘अन्तरकाष्ठ’ नहीं पता, ‘छाल’ नहीं पता, ‘पपड़ी’ नहीं पता, ‘टहनी और पत्ती’ भी नहीं पता। इसलिए यह पुरुष श्रीमान सारकाष्ठ चाहते हुए, सारकाष्ठ को ढूँढते हुए, सारकाष्ठ की खोज में उसे एक विशाल वृक्ष खड़ा मिला। किन्तु वह उसका सार छोड़कर आगे बढ़ गया, और उसके अंतःकाष्ठ को ‘सारकाष्ठ’ मानते हुए, उसे काट कर चल पड़ा। उसे सारकाष्ठ से जो भी काम था, वह ध्येय पूरा नहीं होगा।”

उसी तरह, भिक्षुओं, कोई कुलपुत्र होता है… तब वह उसी ज्ञान-दर्शन में डूब जाता है, मदहोश हो जाता है, लापरवाह हो जाता है। और लापरवाह होकर दुःख में विहार करता है।

भिक्षुओं, ऐसे भिक्षु को कहते हैं कि उसने ब्रह्मचर्य के अंतःकाष्ठ को ग्रहण किया, और उसी पर रुक गया।

सारकाष्ठ

आगे, भिक्षुओं, कोई कुलपुत्र होता है जो श्रद्धा से घर से बेघर होकर प्रवज्ज्यित होता है, (सोचते हुए,) “मैं जन्म, बुढ़ापा और मौत से घिरा हूँ; शोक, विलाप, दर्द, व्यथा, और निराशा से घिरा हूँ; दुःख से घिरा, दुःख में फँसा हूँ। काश, मुझे इस दुःख संग्रह के अंत का पता चले!”

इस तरह प्रवज्ज्यित होने पर, वह लाभ, सत्कार और किर्ति उत्पन्न करता है। किन्तु, वह उस लाभ, सत्कार और किर्ति से हर्षित नहीं होता, मानो उसकी मन्नत पूरी नहीं हुई। वह उस लाभ, सत्कार और किर्ति से आत्म प्रशंसा नहीं करता, न ही दूसरों को तुच्छ मानता है। तब वह उस लाभ, सत्कार और किर्ति में डूबता नहीं, मदहोश नहीं होता, लापरवाह नहीं होता।

बिना लापरवाह रहे वह शील संपदा प्राप्त करता है। वह उस शील संपदा से हर्षित नहीं होता, मानो उसकी मन्नत पूरी नहीं हुई। वह उस शील संपदा से आत्म प्रशंसा नहीं करता, न ही दूसरों को तुच्छ मानता है। तब वह उस शील संपदा में डूबता नहीं, मदहोश नहीं होता, लापरवाह नहीं होता।

बिना लापरवाह रहे वह समाधि संपदा प्राप्त करता है। वह उस समाधि संपदा से हर्षित नहीं होता, मानो उसकी मन्नत पूरी नहीं हुई। वह उस समाधि संपदा से आत्म प्रशंसा नहीं करता, न ही दूसरों को तुच्छ मानता है। तब वह उस समाधि संपदा में डूबता नहीं, मदहोश नहीं होता, लापरवाह नहीं होता।

बिना लापरवाह रहे वह ज्ञान-दर्शन प्राप्त करता है। वह उस ज्ञान-दर्शन से हर्षित नहीं होता, मानो उसकी मन्नत पूरी नहीं हुई। वह उस ज्ञान-दर्शन से आत्म प्रशंसा नहीं करता, न ही दूसरों को तुच्छ मानता है। तब वह उस ज्ञान-दर्शन में डूबता नहीं, मदहोश नहीं होता, लापरवाह नहीं होता।

बिना लापरवाह रहे वह “असमय विमोक्ष” 4 प्राप्त करता है। और यह असंभव है, भिक्षुओं, कि उस भिक्षु का असमय विमोक्ष से पतन हो।

जैसे, भिक्षुओं, कोई पुरुष सारकाष्ठ चाहता हो, वह सारकाष्ठ को ढूँढते हुए, सारकाष्ठ की खोज में उसे एक विशाल वृक्ष खड़ा मिले। वह उसके सार को ‘सारकाष्ठ’ मानते हुए, उसे काट कर चल पड़ता है।

तब, कोई चक्षुमान पुरुष देख कर कहता है — “इस पुरुष श्रीमान को ‘सार’ पता है, ‘अन्तरकाष्ठ’ भी पता है, ‘छाल’ भी पता है, ‘पपड़ी’ भी पता है, ‘टहनी और पत्ती’ भी पता है। इसलिए यह पुरुष श्रीमान सारकाष्ठ चाहते हुए, सारकाष्ठ को ढूँढते हुए, सारकाष्ठ की खोज में उसे एक विशाल वृक्ष खड़ा मिला। वह उसके सार को ‘सारकाष्ठ’ मानते हुए, उसे काट कर चल पड़ा। उसे सारकाष्ठ से जो भी काम था, वह ध्येय अब पूरा होगा।”

उसी तरह, भिक्षुओं, कोई कुलपुत्र होता है जो श्रद्धा से घर से बेघर होकर प्रवज्ज्यित होता है, (सोचते हुए,) “मैं जन्म, बुढ़ापा और मौत से घिरा हूँ; शोक, विलाप, दर्द, व्यथा, और निराशा से घिरा हूँ; दुःख से घिरा, दुःख में फँसा हूँ। काश, मुझे इस दुःख संग्रह के अंत का पता चले!”

इस तरह प्रवज्ज्यित होने पर, वह लाभ, सत्कार और किर्ति उत्पन्न करता है। किन्तु, वह उस लाभ, सत्कार और किर्ति से हर्षित नहीं होता, मानो उसकी मन्नत पूरी नहीं हुई। वह उस लाभ, सत्कार और किर्ति से आत्म प्रशंसा नहीं करता, न ही दूसरों को तुच्छ मानता है। तब वह उस लाभ, सत्कार और किर्ति में डूबता नहीं, मदहोश नहीं होता, लापरवाह नहीं होता।

बिना लापरवाह रहे वह शील संपदा प्राप्त करता है। वह उस शील संपदा से हर्षित नहीं होता, मानो उसकी मन्नत पूरी नहीं हुई। वह उस शील संपदा से आत्म प्रशंसा नहीं करता, न ही दूसरों को तुच्छ मानता है। तब वह उस शील संपदा में डूबता नहीं, मदहोश नहीं होता, लापरवाह नहीं होता।

बिना लापरवाह रहे वह समाधि संपदा प्राप्त करता है। वह उस समाधि संपदा से हर्षित नहीं होता, मानो उसकी मन्नत पूरी नहीं हुई। वह उस समाधि संपदा से आत्म प्रशंसा नहीं करता, न ही दूसरों को तुच्छ मानता है। तब वह उस समाधि संपदा में डूबता नहीं, मदहोश नहीं होता, लापरवाह नहीं होता।

बिना लापरवाह रहे वह ज्ञान-दर्शन प्राप्त करता है। वह उस ज्ञान-दर्शन से हर्षित नहीं होता, मानो उसकी मन्नत पूरी नहीं हुई। वह उस ज्ञान-दर्शन से आत्म प्रशंसा नहीं करता, न ही दूसरों को तुच्छ मानता है। तब वह उस ज्ञान-दर्शन में डूबता नहीं, मदहोश नहीं होता, लापरवाह नहीं होता।

बिना लापरवाह रहे वह असमय विमोक्ष प्राप्त करता है। और यह असंभव है, भिक्षुओं, कि उस भिक्षु का असमय विमोक्ष से पतन हो।

इस तरह, भिक्षुओं, ब्रह्मचर्य —

  • लाभ, सत्कार और किर्ति के पुरस्कार के लिए नहीं होता,
  • शील संपदा के पुरस्कार के लिए नहीं होता,
  • समाधि संपदा के पुरस्कार के लिए नहीं होता,
  • ज्ञान-दर्शन संपदा के पुरस्कार के लिए भी नहीं होता।

बल्कि, भिक्षुओं, ब्रह्मचर्य का ध्येय, उसका सार, उसका गंतव्य (=मंजिल) —

  • अविचल (“अकुप्पा”) विमुक्ति 5 है।

भगवान ने ऐसा कहा। हर्षित होकर भिक्षुओं ने भगवान की बात का अभिनंदन किया।

सुत्र समाप्त।


  1. देवदत्त — गौतम बुद्ध के चचरे भाई थे, जो दूसरे भाइयों के साथ भगवान के प्रति श्रद्धा रखते हुए भिक्षु बने। संयुक्तनिकाय १७.३५ के अनुसार, भिक्षु जीवन के प्रारंभ में ही उसने ध्यान के माध्यम से ऋद्धियाँ प्राप्त कीं, लेकिन यह सफलता उसके अहंकार और लालसा का कारण बनी। वह जल्द ही लाभ, सत्कार और किर्ति की इच्छा में फंस गया। उसने भिक्षुसंघ को कुछ समय के लिए विभाजित भी किया। लेकिन उसकी यह योजना अंततः असफल हो गई। उसका प्रयास सत्ता और नियंत्रण प्राप्त करने का था, लेकिन उसे अंततः अपमान के साथ दुर्गति का सामना करना पड़ा। ↩︎

  2. सारकाष्ठ — यह पेड़ के मुख्य स्कन्ध या तने का सबसे भीतरी, ठोस, मजबूत और गाढ़ा भाग होता है। यही पेड़ को मजबूती देता है। यह अक्सर गहरे रंग का होता है। इसे पेड़ का “सार” भी कहते हैं, “मज्जा” भी कहते हैं। अँग्रेजी में ‘हार्टवूड’। इसी से फ़र्निचर बनाया जाता है।

    अंतःकाष्ठ — यह सारकाष्ठ और छाल के बीच का अपेक्षाकृत मृदु हिस्सा होता है। इसमें जीवित कोशिकाएँ होती है, जिनसे जल और पोषण ऊपर पत्तियों तक पहुँचता है। यह रंग में अपेक्षाकृत हल्का होता है। इसे “अन्तरकाष्ठ” भी कहते हैं। अँग्रेजी में ‘सैपवूड’। ↩︎

  3. ज्ञान-दर्शन को विपश्यना ज्ञान, या अंतर्दृष्टि ज्ञान भी कहा जाता है। “अनुपुब्बिसिक्खा”, यानी क्रमिक प्रशिक्षण से संबंधित सभी सूत्रों में इसका वर्णन इस प्रकार किया गया है —

    “जब उसका चित्त इस तरह समाहित, परिशुद्ध, उज्ज्वल, बेदाग, निर्मल, मृदुल, काम करने-योग्य, स्थिर और अविचल हो जाता है, तब वह उस चित्त को ज्ञानदर्शन की ओर झुकाता है। तब उसे पता चलता है, ‘मेरी रूपयुक्त काया — जो चार महाभूत से बनी है, माता-पिता द्वारा जन्मी है, दाल-चावल द्वारा पोषित है — वह अनित्य, रगड़न, छेदन, विघटन और विध्वंस स्वभाव की है। और मेरा यह चैतन्य इसका आधार लेकर इसी में बँध गया है।’”

    फिर भी, मुझे व्यक्तिगत रूप से यह लगता है कि “ज्ञान-दर्शन” का वास्तविक अर्थ सभी प्रकार की अभिज्ञाओं से जुड़ा है — जैसे विपश्यना ज्ञान, मनोमय-ऋद्धि ज्ञान, विविध ऋद्धियाँ ज्ञान, दिव्यश्रोत ज्ञान, परचित्त ज्ञान, पूर्वजन्म अनुस्मरण ज्ञान, और दिव्यचक्षु ज्ञान। क्योंकि ये सभी अभिज्ञाएँ समाधि संपदा की प्राप्ति के बाद प्राप्त होती हैं। हालांकि, इसमें केवल आस्रवक्षय ज्ञान का समावेश नहीं होना चाहिए। अधिक जानकारी के लिए, हमारी मार्गदर्शिका में अनुपूर्वीशिक्षा के तहत प्रज्ञा का भाग पढ़ें। ↩︎

  4. मोक्ष का सरल अर्थ है, “छुटकारा”। जब किसी के चित्त को कुछ समय/अवधि के लिए अकुशल स्वभावों से छुटकारा मिलता है, तो उस अस्थायी छुटकारे को समयविमोक्ख कहा जाता है। उदाहरण के लिए, जब कोई ब्रह्मविहार का अभ्यास करता है, तो वह कुछ समय के लिए क्रोध, दुश्मनी, प्रतिशोध, हिंसा, ईर्ष्या आदि पापी गुणों से छुट जाता है। इसी तरह, जब कोई ध्यान अवस्था प्राप्त करता है, तो वह कुछ समय के लिए सभी पाप अकुशल धर्मों से छुट जाता है।

    इसके विपरीत, असमयविमोक्ख वह छुटकारा है, जो कुछ समय के लिए नहीं, बल्कि हमेशा के लिए स्थायी होती है। यह मोक्ष समय से परे है, और इसलिए इसे “असमय” या “अनवधिक” कहा जाता है, क्योंकि आर्य मार्ग के घटकों का विलय होने पर भी यह छुटकारा समाप्त नहीं होता।

    हालांकि, अट्ठकथा के अनुसार, असमयविमोक्ख सभी आर्य अवस्थाओं को शामिल करती है, जैसे श्रोतापति, सकृदागामी, अनागामी, अरहंत, और निर्वाण, साथ ही उनके पथ और फल भी। यदि यह बात सच हो, तो असमय विमोक्ष का अर्थ “अविचल विमुक्ति” से अधिक व्यापक है, क्योंकि फिर वह केवल अरहन्तत्व और परिनिर्वाण के फल तक सीमित नहीं है। ↩︎

  5. अकुप्पा शब्द का एक अर्थ “अडिग” या “अविचल” लिया जाता है, परंतु “अकुप्पा” का एक गहरा अर्थ भी है — कुछ ऐसा जिसे छेड़ा न जा सके, हिलाया न जा सके, जगाया न जा सके, जो किसी बाहरी उत्तेजना या उद्दीपन से उत्पन्न न हुआ हो — एक ऐसा अप्रवर्तित या अप्रेरित भाव, जो स्वयं ही स्वयं के प्रकट होने के लिए कारणीभूत हो।

    उदाहरण के लिए, जैसे एक व्यक्ति किसी दूसरे के भीतर छिपे हुए बुरे स्वभाव — जैसे क्रोध या कामुकता — को छेड़ देता है, जगा देता है, और उस स्वभाव को “कुपित” कर देता है, तो वह वृत्ति पूरे स्वरूप में प्रकट हो सकती है। लेकिन “अकुप्पा” कुछ ऐसा है, जिसे कोई दूसरा छेड़ नहीं सकता, जगा नहीं सकता, “कुपित” नहीं कर सकता। जब वह स्वभाव जागेगा, तो स्वयं से जागेगा — क्योंकि वह किसी दूसरी बात पर निर्भर नहीं है। ↩︎

Pali

३०७. एवं मे सुतं – एकं समयं भगवा राजगहे विहरति गिज्झकूटे पब्बते अचिरपक्कन्ते देवदत्ते. तत्र खो भगवा देवदत्तं आरब्भ भिक्खू आमन्तेसि –

‘‘इध, भिक्खवे, एकच्चो कुलपुत्तो सद्धा अगारस्मा अनगारियं पब्बजितो होति – ‘ओतिण्णोम्हि जातिया जराय मरणेन सोकेहि परिदेवेहि दुक्खेहि दोमनस्सेहि उपायासेहि, दुक्खोतिण्णो दुक्खपरेतो, अप्पेव नाम इमस्स केवलस्स दुक्खक्खन्धस्स अन्तकिरिया पञ्ञायेथा’ति. सो एवं पब्बजितो समानो लाभसक्कारसिलोकं अभिनिब्बत्तेति. सो तेन लाभसक्कारसिलोकेन अत्तमनो होति परिपुण्णसङ्कप्पो. सो तेन लाभसक्कारसिलोकेन अत्तानुक्कंसेति परं वम्भेति – ‘अहमस्मि लाभसक्कारसिलोकवा [लाभी सिलोकवा (सी. पी.), लाभी सक्कार सिलोकवा (स्या.)], इमे पनञ्ञे भिक्खू अप्पञ्ञाता अप्पेसक्खा’ति. सो तेन लाभसक्कारसिलोकेन मज्जति पमज्जति पमादं आपज्जति, पमत्तो समानो दुक्खं विहरति.

‘‘सेय्यथापि, भिक्खवे, पुरिसो सारत्थिको सारगवेसी सारपरियेसनं चरमानो महतो रुक्खस्स तिट्ठतो सारवतो अतिक्कम्मेव सारं अतिक्कम्म फेग्गुं अतिक्कम्म तचं अतिक्कम्म पपटिकं, साखापलासं छेत्वा आदाय पक्कमेय्य ‘सार’न्ति मञ्ञमानो. तमेनं चक्खुमा पुरिसो दिस्वा एवं वदेय्य – ‘न वतायं भवं पुरिसो अञ्ञासि सारं, न अञ्ञासि फेग्गुं, न अञ्ञासि तचं, न अञ्ञासि पपटिकं, न अञ्ञासि साखापलासं. तथा हयं [तथापायं (क.)] भवं पुरिसो सारत्थिको सारगवेसी सारपरियेसनं चरमानो महतो रुक्खस्स तिट्ठतो सारवतो अतिक्कम्मेव सारं अतिक्कम्म फेग्गुं अतिक्कम्म तचं अतिक्कम्म पपटिकं, साखापलासं छेत्वा आदाय पक्कन्तो ‘सार’न्ति मञ्ञमानो. यञ्चस्स सारेन सारकरणीयं तञ्चस्स अत्थं नानुभविस्सती’ति. एवमेव खो, भिक्खवे, इधेकच्चो कुलपुत्तो सद्धा अगारस्मा अनगारियं पब्बजितो होति – ओतिण्णोम्हि जातिया जराय मरणेन सोकेहि परिदेवेहि दुक्खेहि दोमनस्सेहि उपायासेहि, दुक्खोतिण्णो दुक्खपरेतो , अप्पेव नाम इमस्स केवलस्स अन्तकिरिया पञ्ञायेथा’ति. सो एवं पब्बजितो समानो लाभसक्कारसिलोकं अभिनिब्बत्तेति. सो तेन लाभसक्कारसिलोकेन अत्तमनो होति परिपुण्णसङ्कप्पो. सो तेन लाभसक्कारसिलोकेन अत्तानुक्कंसेति, परं वम्भेति ‘अहमस्मि लाभसक्कारसिलोकवा, इमे पनञ्ञे भिक्खू अप्पञ्ञाता अप्पेसक्खा’ति. सो तेन लाभसक्कारसिलोकेन मज्जति पमज्जति पमादं आपज्जति, पमत्तो समानो दुक्खं विहरति. अयं वुच्चति, भिक्खवे, भिक्खु साखापलासं अग्गहेसि ब्रह्मचरियस्स; तेन च वोसानं आपादि.

३०८. ‘‘इध पन, भिक्खवे, एकच्चो कुलपुत्तो सद्धा अगारस्मा अनगारियं पब्बजितो होति – ‘ओतिण्णोम्हि जातिया जराय मरणेन सोकेहि परिदेवेहि दुक्खेहि दोमनस्सेहि उपायासेहि, दुक्खोतिण्णो दुक्खपरेतो, अप्पेव नाम इमस्स केवलस्स दुक्खक्खन्धस्स अन्तकिरिया पञ्ञायेथा’ति. सो एवं पब्बजितो समानो लाभसक्कारसिलोकं अभिनिब्बत्तेति. सो तेन लाभसक्कारसिलोकेन न अत्तमनो होति न परिपुण्णसङ्कप्पो. सो तेन लाभसक्कारसिलोकेन न अत्तानुक्कंसेति, न परं वम्भेति. सो तेन लाभसक्कारसिलोकेन न मज्जति नप्पमज्जति न पमादं आपज्जति. अप्पमत्तो समानो सीलसम्पदं आराधेति. सो ताय सीलसम्पदाय अत्तमनो होति परिपुण्णसङ्कप्पो. सो ताय सीलसम्पदाय अत्तानुक्कंसेति, परं वम्भेति – ‘अहमस्मि सीलवा कल्याणधम्मो, इमे पनञ्ञे भिक्खू दुस्सीला पापधम्मा’ति. सो ताय सीलसम्पदाय मज्जति पमज्जति पमादं आपज्जति, पमत्तो समानो दुक्खं विहरति.

‘‘सेय्यथापि, भिक्खवे, पुरिसो सारत्थिको सारगवेसी सारपरियेसनं चरमानो महतो रुक्खस्स तिट्ठतो सारवतो अतिक्कम्मेव सारं अतिक्कम्म फेग्गुं अतिक्कम्म तचं, पपटिकं छेत्वा आदाय पक्कमेय्य ‘सार’न्ति मञ्ञमानो. तमेनं चक्खुमा पुरिसो दिस्वा एवं वदेय्य – ‘न वतायं भवं पुरिसो अञ्ञासि सारं, न अञ्ञासि फेग्गुं, न अञ्ञासि तचं, न अञ्ञासि पपटिकं, न अञ्ञासि साखापलासं. तथा हयं भवं पुरिसो सारत्थिको सारगवेसी सारपरियेसनं चरमानो महतो रुक्खस्स तिट्ठतो सारवतो अतिक्कम्मेव सारं अतिक्कम्म फेग्गुं अतिक्कम्म तचं, पपटिकं छेत्वा आदाय पक्कन्तो ‘सार’न्ति मञ्ञमानो; यञ्चस्स सारेन सारकरणीयं तञ्चस्स अत्थं नानुभविस्सती’ति.

‘‘एवमेव खो, भिक्खवे, इधेकच्चो कुलपुत्तो सद्धा अगारस्मा अनगारियं पब्बजितो होति – ‘ओतिण्णोम्हि जातिया जराय मरणेन सोकेहि परिदेवेहि दुक्खेहि दोमनस्सेहि उपायासेहि, दुक्खोतिण्णो दुक्खपरेतो, अप्पेव नाम इमस्स केवलस्स दुक्खक्खन्धस्स अन्तकिरिया पञ्ञायेथा’’ति. सो एवं पब्बजितो समानो लाभसक्कारसिलोकं अभिनिब्बत्तेति. सो तेन लाभसक्कारसिलोकेन न अत्तमनो होति न परिपुण्णसङ्कप्पो. सो तेन लाभसक्कारसिलोकेन न अत्तानुक्कंसेति, न परं वम्भेति. सो तेन लाभसक्कारसिलोकेन न मज्जति नप्पमज्जति न पमादं आपज्जति. अप्पमत्तो समानो सीलसम्पदं आराधेति. सो ताय सीलसम्पदाय अत्तमनो होति परिपुण्णसङ्कप्पो. सो ताय सीलसम्पदाय अत्तानुक्कंसेति, परं वम्भेति – ‘अहमस्मि सीलवा कल्याणधम्मो, इमे पनञ्ञे भिक्खू दुस्सीला पापधम्मा’ति. सो ताय सीलसम्पदाय मज्जति पमज्जति पमादं आपज्जति, पमत्तो समानो दुक्खं विहरति. अयं वुच्चति, भिक्खवे, भिक्खु पपटिकं अग्गहेसि ब्रह्मचरियस्स; तेन च वोसानं आपादि.

३०९. ‘‘इध पन, भिक्खवे, एकच्चो कुलपुत्तो सद्धा अगारस्मा अनगारियं पब्बजितो होति – ‘ओतिण्णोम्हि जातिया जराय मरणेन सोकेहि परिदेवेहि दुक्खेहि दोमनस्सेहि उपायासेहि, दुक्खोतिण्णो दुक्खपरेतो, अप्पेव नाम इमस्स केवलस्स दुक्खक्खन्धस्स अन्तकिरिया पञ्ञायेथा’ति. सो एवं पब्बजितो समानो लाभसक्कारसिलोकं अभिनिब्बत्तेति. सो तेन लाभसक्कारसिलोकेन न अत्तमनो होति न परिपुण्णसङ्कप्पो. सो तेन लाभसक्कारसिलोकेन न अत्तानुक्कंसेति, न परं वम्भेति. सो तेन लाभसक्कारसिलोकेन न मज्जति नप्पमज्जति न पमादं आपज्जति, अप्पमत्तो समानो सीलसम्पदं आराधेति. सो ताय सीलसम्पदाय अत्तमनो होति नो च खो परिपुण्णसङ्कप्पो. सो ताय सीलसम्पदाय न अत्तानुक्कंसेति, न परं वम्भेति. सो ताय सीलसम्पदाय न मज्जति नप्पमज्जति न पमादं आपज्जति. अप्पमत्तो समानो समाधिसम्पदं आराधेति . सो ताय समाधिसम्पदाय अत्तमनो होति परिपुण्णसङ्कप्पो. सो ताय समाधिसम्पदाय अत्तानुक्कंसेति, परं वम्भेति – ‘अहमस्मि समाहितो एकग्गचित्तो, इमे पनञ्ञे भिक्खू असमाहिता विब्भन्तचित्ता’ति. सो ताय समाधिसम्पदाय मज्जति पमज्जति पमादं आपज्जति, पमत्तो समानो दुक्खं विहरति.

‘‘सेय्यथापि , भिक्खवे, पुरिसो सारत्थिको सारगवेसी सारपरियेसनं चरमानो महतो रुक्खस्स तिट्ठतो सारवतो अतिक्कम्मेव सारं अतिक्कम्म फेग्गुं तचं छेत्वा आदाय पक्कमेय्य ‘सार’न्ति मञ्ञमानो. तमेनं चक्खुमा पुरिसो दिस्वा एवं वदेय्य ‘न वतायं भवं पुरिसो अञ्ञासि सारं , न अञ्ञासि फेग्गुं, न अञ्ञासि तचं, न अञ्ञासि पपटिकं, न अञ्ञासि साखापलासं. तथा हयं भवं पुरिसो सारत्थिको सारगवेसी सारपरियेसनं चरमानो महतो रुक्खस्स तिट्ठतो सारवतो अतिक्कम्मेव सारं अतिक्कम्म फेग्गुं तचं छेत्वा आदाय पक्कन्तो ‘सार’न्ति मञ्ञमानो. यञ्चस्स सारेन सारकरणीयं तञ्चस्स अत्थं नानुभविस्सती’ति.

‘‘एवमेव खो, भिक्खवे, इधेकच्चो कुलपुत्तो सद्धा अगारस्मा अनगारियं पब्बजितो होति – ‘ओतिण्णोम्हि जातिया जराय मरणेन सोकेहि परिदेवेहि दुक्खेहि दोमनस्सेहि उपायासेहि, दुक्खोतिण्णो दुक्खपरेतो, अप्पेव नाम इमस्स केवलस्स दुक्खक्खन्धस्स अन्तकिरिया पञ्ञायेथा’’ति. सो एवं पब्बजितो समानो लाभसक्कारसिलोकं अभिनिब्बत्तेति. सो तेन लाभसक्कारसिलोकेन न अत्तमनो होति न परिपुण्णसङ्कप्पो. सो तेन लाभसक्कारसिलोकेन न अत्तानुक्कंसेति, न परं वम्भेति. सो तेन लाभसक्कारसिलोकेन न मज्जति नप्पमज्जति न पमादं आपज्जति, अप्पमत्तो समानो सीलसम्पदं आराधेति. सो ताय सीलसम्पदाय अत्तमनो होति नो च खो परिपुण्णसङ्कप्पो. सो ताय सीलसम्पदाय न अत्तानुक्कंसेति, न परं वम्भेति. सो ताय सीलसम्पदाय न मज्जति नप्पमज्जति न पमादं आपज्जति, अप्पमत्तो समानो समाधिसम्पदं आराधेति. सो ताय समाधिसम्पदाय अत्तमनो होति परिपुण्णसङ्कप्पो. सो ताय समाधिसम्पदाय अत्तानुक्कंसेति, परं वम्भेति – ‘अहमस्मि समाहितो एकग्गचित्तो, इमे पनञ्ञे भिक्खू असमाहिता विब्भन्तचित्ता’ति. सो ताय समाधिसम्पदाय मज्जति पमज्जति पमादं आपज्जति, पमत्तो समानो दुक्खं विहरति. अयं वुच्चति , भिक्खवे, भिक्खु तचं अग्गहेसि ब्रह्मचरियस्स; तेन च वोसानं आपादि.

३१०. ‘‘इध पन, भिक्खवे, एकच्चो कुलपुत्तो सद्धा अगारस्मा अनगारियं पब्बजितो होति – ‘ओतिण्णोम्हि जातिया जराय मरणेन सोकेहि परिदेवेहि दुक्खेहि दोमनस्सेहि उपायासेहि, दुक्खोतिण्णो दुक्खपरेतो, अप्पेव नाम इमस्स केवलस्स दुक्खक्खन्धस्स अन्तकिरिया पञ्ञायेथा’ति. सो एवं पब्बजितो समानो लाभसक्कारसिलोकं अभिनिब्बत्तेति. सो तेन लाभसक्कारसिलोकेन न अत्तमनो होति न परिपुण्णसङ्कप्पो. सो तेन लाभसक्कारसिलोकेन न अत्तानुक्कंसेति, न परं वम्भेति. सो तेन लाभसक्कारसिलोकेन न मज्जति नप्पमज्जति न पमादं आपज्जति. अप्पमत्तो समानो सीलसम्पदं आराधेति. सो ताय सीलसम्पदाय अत्तमनो होति, नो च खो परिपुण्णसङ्कप्पो. सो ताय सीलसम्पदाय न अत्तानुक्कंसेति, न परं वम्भेति. सो ताय सीलसम्पदाय न मज्जति नप्पमज्जति न पमादं आपज्जति, अप्पमत्तो समानो समाधिसम्पदं आराधेति. सो ताय समाधिसम्पदाय अत्तमनो होति, नो च खो परिपुण्णसङ्कप्पो. सो ताय समाधिसम्पदाय न अत्तानुक्कंसेति, न परं वम्भेति. सो ताय समाधिसम्पदाय न मज्जति नप्पमज्जति न पमादं आपज्जति अप्पमत्तो समानो ञाणदस्सनं आराधेति. सो तेन ञाणदस्सनेन अत्तमनो होति परिपुण्णसङ्कप्पो. सो तेन ञाणदस्सनेन अत्तानुक्कंसेति, परं वम्भेति – ‘अहमस्मि जानं पस्सं विहरामि. इमे पनञ्ञे भिक्खू अजानं अपस्सं विहरन्ती’ति. सो तेन ञाणदस्सनेन मज्जति पमज्जति पमादं आपज्जति, पमत्तो समानो दुक्खं विहरति.

‘‘सेय्यथापि, भिक्खवे, पुरिसो सारत्थिको सारगवेसी सारपरियेसनं चरमानो महतो रुक्खस्स तिट्ठतो सारवतो अतिक्कम्मेव सारं फेग्गुं छेत्वा आदाय पक्कमेय्य ‘सार’न्ति मञ्ञमानो. तमेनं चक्खुमा पुरिसो दिस्वा एवं वदेय्य – ‘न वतायं भवं पुरिसो अञ्ञासि सारं न अञ्ञासि फेग्गुं न अञ्ञासि तचं न अञ्ञासि पपटिकं न अञ्ञासि साखापलासं. तथा हयं भवं पुरिसो सारत्थिको सारगवेसी सारपरियेसनं चरमानो महतो रुक्खस्स तिट्ठतो सारवतो अतिक्कम्मेव सारं फेग्गुं छेत्वा आदाय पक्कन्तो ‘सार’न्ति मञ्ञमानो. यञ्चस्स सारेन सारकरणीयं तञ्चस्स अत्थं नानुभविस्सती’ति. एवमेव खो, भिक्खवे, इधेकच्चो कुलपुत्तो सद्धा अगारस्मा अनगारियं पब्बजितो होति – ‘ओतिण्णोम्हि जातिया जराय मरणेन सोकेहि परिदेवेहि दुक्खेहि दोमनस्सेहि उपायासेहि, दुक्खोतिण्णो दुक्खपरेतो, अप्पेव नाम इमस्स केवलस्स दुक्खक्खन्धस्स अन्तकिरिया पञ्ञायेथा’ति. सो एवं पब्बजितो समानो लाभसक्कारसिलोकं अभिनिब्बत्तेति. सो तेन लाभसक्कारसिलोकेन न अत्तमनो होति न परिपुण्णसङ्कप्पो. सो तेन लाभसक्कारसिलोकेन न अत्तानुक्कंसेति, न परं वम्भेति. सो तेन लाभसक्कारसिलोकेन न मज्जति नप्पमज्जति न पमादं आपज्जति, अप्पमत्तो समानो सीलसम्पदं आराधेति. सो ताय सीलसम्पदाय अत्तमनो होति, नो च खो परिपुण्णसङ्कप्पो. सो ताय सीलसम्पदाय न अत्तानुक्कंसेति, न परं वम्भेति. सो ताय सीलसम्पदाय न मज्जति नप्पमज्जति न पमादं आपज्जति, अप्पमत्तो समानो समाधिसम्पदं आराधेति. सो ताय समाधिसम्पदाय अत्तमनो होति, नो च खो परिपुण्णसङ्कप्पो. सो ताय समाधिसम्पदाय न अत्तानुक्कंसेति, न परं वम्भेति. सो ताय समाधिसम्पदाय न मज्जति नप्पमज्जति न पमादं आपज्जति, अप्पमत्तो समानो ञाणदस्सनं आराधेति. सो तेन ञाणदस्सनेन अत्तमनो होति परिपुण्णसङ्कप्पो. सो तेन ञाणदस्सनेन अत्तानुक्कंसेति, परं वम्भेति – ‘अहमस्मि जानं पस्सं विहरामि, इमे पनञ्ञे भिक्खू अजानं अपस्सं विहरन्ती’ति. सो तेन ञाणदस्सनेन मज्जति पमज्जति पमादं आपज्जति, पमत्तो समानो दुक्खं विहरति. अयं वुच्चति, भिक्खवे, भिक्खु फेग्गुं अग्गहेसि ब्रह्मचरियस्स; तेन च वोसानं आपादि.

३११. ‘‘इध पन, भिक्खवे, एकच्चो कुलपुत्तो सद्धा अगारस्मा अनगारियं पब्बजितो होति – ‘ओतिण्णोम्हि जातिया जराय मरणेन सोकेहि परिदेवेहि दुक्खेहि दोमनस्सेहि उपायासेहि, दुक्खोतिण्णो दुक्खपरेतो, अप्पेव नाम इमस्स केवलस्स दुक्खक्खन्धस्स अन्तकिरिया पञ्ञायेथा’ति. सो एवं पब्बजितो समानो लाभसक्कारसिलोकं अभिनिब्बत्तेति. सो तेन लाभसक्कारसिलोकेन न अत्तमनो होति , न परिपुण्णसङ्कप्पो. सो तेन लाभसक्कारसिलोकेन न अत्तानुक्कंसेति, न परं वम्भेति. सो तेन लाभसक्कारसिलोकेन न मज्जति नप्पमज्जति न पमादं आपज्जति, अप्पमत्तो समानो सीलसम्पदं आराधेति. सो ताय सीलसम्पदाय अत्तमनो होति, नो च खो परिपुण्णसङ्कप्पो. सो ताय सीलसम्पदाय न अत्तानुक्कंसेति, न परं वम्भेति. सो ताय सीलसम्पदाय न मज्जति नप्पमज्जति न पमादं आपज्जति, अप्पमत्तो समानो समाधिसम्पदं आराधेति. सो ताय समाधिसम्पदाय अत्तमनो होति, नो च खो परिपुण्णसङ्कप्पो. सो ताय समाधिसम्पदाय न अत्तानुक्कंसेति, न परं वम्भेति. सो ताय समाधिसम्पदाय न मज्जति नप्पमज्जति न पमादं आपज्जति, अप्पमत्तो समानो ञाणदस्सनं आराधेति. सो तेन ञाणदस्सनेन अत्तमनो होति, नो च खो परिपुण्णसङ्कप्पो. सो तेन ञाणदस्सनेन न अत्तानुक्कंसेति, न परं वम्भेति. सो तेन ञाणदस्सनेन न मज्जति नप्पमज्जति न पमादं आपज्जति, अप्पमत्तो समानो असमयविमोक्खं आराधेति. अट्ठानमेतं [अट्ठानं खो पनेतं (क.)], भिक्खवे, अनवकासो यं सो भिक्खु ताय असमयविमुत्तिया परिहायेथ.

‘‘सेय्यथापि , भिक्खवे, पुरिसो सारत्थिको सारगवेसी सारपरियेसनं चरमानो महतो रुक्खस्स तिट्ठतो सारवतो सारञ्ञेव छेत्वा आदाय पक्कमेय्य ‘सार’न्ति जानमानो. तमेनं चक्खुमा पुरिसो दिस्वा एवं वदेय्य – ‘अञ्ञासि वतायं भवं पुरिसो सारं, अञ्ञासि फेग्गुं, अञ्ञासि तचं, अञ्ञासि पपटिकं, अञ्ञासि साखापलासं. तथा हयं भवं पुरिसो सारत्थिको सारगवेसी सारपरियेसनं चरमानो महतो रुक्खस्स तिट्ठतो सारवतो सारञ्ञेव छेत्वा आदाय पक्कन्तो ‘सार’न्ति जानमानो. यञ्चस्स सारेन सारकरणीयं तञ्चस्स अत्थं अनुभविस्सती’ति.

‘‘एवमेव खो, भिक्खवे, इधेकच्चो कुलपुत्तो सद्धा अगारस्मा अनगारियं पब्बजितो होति – ‘ओतिण्णोम्हि जातिया जराय मरणेन सोकेहि परिदेवेहि दुक्खेहि दोमनस्सेहि उपायासेहि, दुक्खोतिण्णो दुक्खपरेतो, अप्पेव नाम इमस्स केवलस्स दुक्खक्खन्धस्स अन्तकिरिया पञ्ञायेथा’ति. सो एवं पब्बजितो समानो लाभसक्कारसिलोकं अभिनिब्बत्तेति. सो तेन लाभसक्कारसिलोकेन न अत्तमनो होति, न परिपुण्णसङ्कप्पो. सो तेन लाभसक्कारसिलोकेन न अत्तानुक्कंसेति, न परं वम्भेति. सो तेन लाभसक्कारसिलोकेन न मज्जति नप्पमज्जति न पमादं आपज्जति, अप्पमत्तो समानो सीलसम्पदं आराधेति. सो ताय सीलसम्पदाय अत्तमनो होति, नो च खो परिपुण्णसङ्कप्पो. सो ताय सीलसम्पदाय न अत्तानुक्कंसेति, न परं वम्भेति. सो ताय सीलसम्पदाय न मज्जति नप्पमज्जति न पमादं आपज्जति, अप्पमत्तो समानो समाधिसम्पदं आराधेति. सो ताय समाधिसम्पदाय अत्तमनो होति, नो च खो परिपुण्णसङ्कप्पो. सो ताय समाधिसम्पदाय न अत्तानुक्कंसेति, न परं वम्भेति. सो ताय समाधिसम्पदाय न मज्जति नप्पमज्जति न पमादं आपज्जति, अप्पमत्तो समानो ञाणदस्सनं आराधेति. सो तेन ञाणदस्सनेन अत्तमनो होति, नो च खो परिपुण्णसङ्कप्पो. सो तेन ञाणदस्सनेन न अत्तानुक्कंसेति, न परं वम्भेति. सो तेन ञाणदस्सनेन न मज्जति नप्पमज्जति न पमादं आपज्जति, अप्पमत्तो समानो असमयविमोक्खं आराधेति. अट्ठानमेतं, भिक्खवे, अनवकासो यं सो भिक्खु ताय असमयविमुत्तिया परिहायेथ.

‘‘इति खो, भिक्खवे, नयिदं ब्रह्मचरियं लाभसक्कारसिलोकानिसंसं, न सीलसम्पदानिसंसं, न समाधिसम्पदानिसंसं, न ञाणदस्सनानिसंसं. या च खो अयं, भिक्खवे, अकुप्पा चेतोविमुत्ति – एतदत्थमिदं, भिक्खवे, ब्रह्मचरियं, एतं सारं एतं परियोसान’’न्ति.

इदमवोच भगवा. अत्तमना ते भिक्खू भगवतो भासितं अभिनन्दुन्ति.

महासारोपमसुत्तं निट्ठितं नवमं.