नमो तस्स भगवतो अरहतो सम्मा-सम्बुद्धस्स

📜 धर्म के वारिस

✦ ॥ नमो तस्स भगवतो अरहतो सम्मासम्बुद्धस्स ॥ ✦

Hindi

ऐसा मैंने सुना — एक समय भगवान श्रावस्ती में अनाथपिण्डक के जेतवन उद्यान में विहार कर रहे थे। वहाँ भगवान ने भिक्षुओं से कहा, “भिक्षुओं!"

“भदंत”, भिक्षुओं ने भगवान को उत्तर दिया। भगवान ने कहा —

“धर्म में मेरा वारिस बनों, भिक्षुओं, भोगवस्तुओं (“आमिस”) में नहीं। मुझे तुम पर दया आती है, ‘कैसे मेरे श्रावक धर्म में वारिस बनें, भोगवस्तुओं में नहीं।’

यदि, भिक्षुओं, तुम भोगवस्तुओं में मेरे वारिस बने, धर्म में नहीं, तो तुम पर आरोप लगेगा, ‘इस शास्ता (=शास्ता) के श्रावक भोगवस्तुओं में वारिस बन कर रहते हैं, धर्म में नहीं’। और (साथ ही) मुझ पर भी आरोप लगेगा, ‘इस शास्ता के श्रावक भोगवस्तुओं में वारिस बन कर रहते हैं, धर्म में नहीं’।

(लेकिन) यदि, भिक्षुओं, तुम धर्म में मेरे वारिस बने, भोगवस्तुओं में नहीं, तो तुम पर आरोप नहीं लगेगा, ‘इस शास्ता के श्रावक धर्म में वारिस बन कर रहते हैं, भोगवस्तुओं में नहीं’। और, मुझ पर भी आरोप नहीं लगेगा, ‘इस शास्ता के श्रावक धर्म में वारिस बन कर रहते हैं, भोगवस्तुओं में नहीं’।

इसलिए, भिक्षुओं, धर्म में मेरा वारिस बनों, भोगवस्तुओं में नहीं। मुझे तुम पर दया आती है, ‘कैसे मेरे श्रावक धर्म में वारिस बनें, भोगवस्तुओं में नहीं।’

कल्पना करो, भिक्षुओं, मैंने (भोजन) खा लिया हो और जितना आवश्यक हो उतना पेट भरने पर (अधिक भोजन को) मना कर दिया हो; और बचे हुए भिक्षान्न को फेंकना हो। तब भूख से दुर्बल हो चुके दो भिक्षु आएं। उनसे मैं कहूँ, ‘भिक्षुओं, मैंने खा लिया है, और जितना आवश्यक है उतना पेट भरने पर मना कर दिया है; और बचे हुए भिक्षान्न को फेंकना है। यदि तुम्हें खाना हो तो खाओ, वरना मैं इसे हरियालीरहित जगह पर फेंक दूँगा, या जीवरहित जल में गिरा दूँगा’।

तब एक भिक्षु सोचता है, “भगवान ने खा लिया है, और जितना आवश्यक हो उतना पेट भरने पर मना कर दिया है; और बचे हुए भिक्षान्न को फेंकना है। यदि मैं न खाया तो भगवान इसे हरियालीरहित जगह पर फेंक देंगे, या जीवरहित जल में गिरा देंगे। किन्तु भगवान ने ऐसा भी कहा है, “भिक्षुओं, धर्म में मेरा वारिस बनों, भोगवस्तुओं में नहीं।” और भिक्षान्न एक तरह की भोगवस्तु ही है। क्यों न मैं इस भिक्षान्न को खाने के बजाय भूख से दुर्बलता में दिन-रात बिताऊं!" और, फिर उसने वाकई भिक्षान्न को खाने के बजाय भूख से दुर्बलता में दिन-रात बितायी।

किंतु दूसरा भिक्षु सोचता है, “भगवान ने खा लिया है, और जितना आवश्यक हो उतना पेट भरने पर मना कर दिया है; और बचे हुए भिक्षान्न को फेंकना है। यदि मैं न खाया तो भगवान इसे हरियालीरहित जगह पर फेंक देंगे, या जीवरहित जल में गिरा देंगे। क्यों न मैं इस भिक्षान्न को खाकर भूख से आयी दुर्बलता को दूर हटाकर दिन-रात बिताऊं!” और, फिर उसने भिक्षान्न को खाकर भूख से आयी दुर्बलता को दूर हटाकर दिन-रात बितायी।

भले ही दूसरे भिक्षु ने भिक्षान्न को खाकर भूख से आयी दुर्बलता को दूर हटाकर दिन-रात बितायी, किन्तु पहला भिक्षु अधिक आदर और प्रशंसा का पात्र है। ऐसा क्यों? क्योंकि, भिक्षुओं, ऐसा भिक्षु दीर्घकाल तक अल्पेच्छता, संतुष्टि, सादगी, बोझरहितता, और ऊर्जा की जागृति से युक्त होगा।

इसलिए, भिक्षुओं, धर्म में मेरा वारिस बनों, भोगवस्तुओं में नहीं। मुझे तुम पर दया आती है, ‘कैसे मेरे श्रावक धर्म में वारिस बनें, भोगवस्तुओं में नहीं।’”

भगवान ने ऐसा कहा। ऐसा कहकर सुगत अपने आसन से उठकर अपने आवास चले गये।

सारिपुत्त भंते की देशना

तब भगवान को जाकर अधिक समय नहीं हुआ था, जब आयुष्मान सारिपुत्त ने भिक्षुओं को संबोधित किया, “मित्र भिक्षुओं!”

“मित्र”, भिक्षुओं ने आयुष्मान सारिपुत्त को उत्तर दिया। आयुष्मान सारिपुत्त ने कहा —

“मित्रों, जो शास्ता एकांतवासी हों, उनके श्रावक कैसे एकांतवास का अभ्यास नहीं करते हैं? और जो शास्ता एकांतवासी हों, उनके श्रावक कैसे एकांतवास का अभ्यास करते हैं?”

“मित्र, हम आयुष्मान सारिपुत्त के पास इस कहे का अर्थ सुनने के लिए दूर-दूर से आते हैं। अच्छा होगा, जो आयुष्मान सारिपुत्त स्वयं इस कहे का अर्थ स्पष्ट करें। आयुष्मान सारिपुत्त से सुनकर भिक्षु वैसा धारण करेंगे।”

“ठीक है, मित्रों, तब ध्यान देकर गौर से सुनों, मैं बताता हूँ।”

“हाँ, मित्र”, भिक्षुओं ने आयुष्मान सारिपुत्त को उत्तर दिया। आयुष्मान सारिपुत्त ने कहा —

अभ्यास न करने वाले

“मित्रों, जो शास्ता एकांतवासी हों, उनके श्रावक कैसे एकांतवास का अभ्यास नहीं करते हैं?

ऐसा होता है, मित्रों, एकांतवासी शास्ता के श्रावक एकांतवास का अभ्यास नहीं करते हैं। शास्ता ने जिन धर्मों (=स्वभावों, बातों) को त्यागने के लिए कहा हैं, वे उन्हें नहीं त्यागते हैं। वे भोगी, शिथिल (=ढीले-ढाले चरित्र के), पतन में आगे, एकांतवास को नजरंदाज करने वाले होते हैं।

तब ऐसी स्थिति में वरिष्ठ (=“थेर”, १०+ वर्षों से भिक्षुत्व) भिक्षुगण तीन मुद्दों पर आलोचना के पात्र होते हैं —

  • ‘एकांतवासी शास्ता के श्रावक एकांतवास का अभ्यास नहीं करते हैं’ — यह पहला मुद्दा है।
  • ‘शास्ता ने जिन धर्मों को त्यागने के लिए कहा हैं, वे उन्हें नहीं त्यागते हैं’ — यह दूसरा मुद्दा है।
  • ‘ वे भोगी, शिथिल, पतन में आगे, एकांतवास को नजरंदाज करने वाले होते हैं’ — यह तीसरा मुद्दा है।

— इन तीन मुद्दों पर वरिष्ठ भिक्षुगण आलोचना के पात्र होते हैं।

ऐसी स्थिति में मध्यम (=५-१० वर्षों से भिक्षुत्व) भिक्षुगण तीन मुद्दों पर आलोचना के पात्र होते हैं —

  • ‘एकांतवासी शास्ता के श्रावक एकांतवास का अभ्यास नहीं करते हैं’ — यह पहला मुद्दा है।
  • ‘शास्ता ने जिन धर्मों को त्यागने के लिए कहा हैं, वे उन्हें नहीं त्यागते हैं’ — यह दूसरा मुद्दा है।
  • ‘ वे भोगी, शिथिल, पतन में आगे, एकांतवास को नजरंदाज करने वाले होते हैं’ — यह तीसरा मुद्दा है।

— इन तीन मुद्दों पर मध्यम भिक्षुगण आलोचना के पात्र होते हैं।

ऐसी स्थिति में नए (=५ से कम वर्षों से भिक्षुत्व) भिक्षुगण तीन मुद्दों पर आलोचना के पात्र होते हैं —

  • ‘एकांतवासी शास्ता के श्रावक एकांतवास का अभ्यास नहीं करते हैं’ — यह पहला मुद्दा है।
  • ‘शास्ता ने जिन धर्मों को त्यागने के लिए कहा हैं, वे उन्हें नहीं त्यागते हैं’ — यह दूसरा मुद्दा है।
  • ‘ वे भोगी, शिथिल, पतन में आगे, एकांतवास को नजरंदाज करने वाले होते हैं’ — यह तीसरा मुद्दा है।

— इन तीन मुद्दों पर नए भिक्षुगण आलोचना के पात्र होते हैं।

इस तरह, मित्रों, एकांतवासी शास्ता के श्रावक एकांतवास का अभ्यास नहीं करते हैं।

अभ्यास करने वाले

“और, मित्रों, जो शास्ता एकांतवासी हों, उनके श्रावक कैसे एकांतवास का अभ्यास करते हैं?

ऐसा होता है, मित्रों, एकांतवासी शास्ता के श्रावक एकांतवास का अभ्यास करते हैं। शास्ता ने जिन धर्मों को त्यागने के लिए कहा हैं, वे उन्हें त्याग देते हैं। वे न भोगी, न शिथिल, न पतन में आगे, न ही एकांतवास को नजरंदाज करने वाले होते हैं।

तब ऐसी स्थिति में वरिष्ठ भिक्षुगण तीन मुद्दों पर प्रशंसा के पात्र हैं —

  • ‘एकांतवासी शास्ता के श्रावक एकांतवास का अभ्यास करते हैं’ — यह पहला मुद्दा है।
  • ‘शास्ता ने जिन धर्मों को त्यागने के लिए कहा हैं, वे उन्हें त्याग देते हैं’ — यह दूसरा मुद्दा है।
  • ‘ वे न भोगी, न शिथिल, न पतन में आगे, न ही एकांतवास को नजरंदाज करने वाले होते हैं’ — यह तीसरा मुद्दा है।

— इन तीन मुद्दों पर वरिष्ठ भिक्षुगण प्रशंसा के पात्र हैं।

ऐसी स्थिति में मध्यम भिक्षुगण तीन मुद्दों पर प्रशंसा के पात्र हैं —

  • ‘एकांतवासी शास्ता के श्रावक एकांतवास का अभ्यास करते हैं’ — यह पहला मुद्दा है।
  • ‘शास्ता ने जिन धर्मों को त्यागने के लिए कहा हैं, वे उन्हें त्याग देते हैं’ — यह दूसरा मुद्दा है।
  • ‘ वे न भोगी, न शिथिल, न पतन में आगे, न ही एकांतवास को नजरंदाज करने वाले होते हैं’ — यह तीसरा मुद्दा है।

— इन तीन मुद्दों पर मध्यम भिक्षुगण प्रशंसा के पात्र हैं।

ऐसी स्थिति में नए भिक्षुगण तीन मुद्दों पर प्रशंसा के पात्र हैं —

  • ‘एकांतवासी शास्ता के श्रावक एकांतवास का अभ्यास करते हैं’ — यह पहला मुद्दा है।
  • ‘शास्ता ने जिन धर्मों को त्यागने के लिए कहा हैं, वे उन्हें त्याग देते हैं’ — यह दूसरा मुद्दा है।
  • ‘ वे न भोगी, न शिथिल, न पतन में आगे, न ही एकांतवास को नजरंदाज करने वाले होते हैं’ — यह तीसरा मुद्दा है।

— इन तीन मुद्दों पर नए भिक्षुगण प्रशंसा के पात्र हैं।

इस तरह, मित्रों, एकांतवासी शास्ता के श्रावक एकांतवास का अभ्यास करते हैं।


क्लेश

यहाँ, मित्रों, लोभ पाप होता है, और द्वेष पाप होता है। लोभ को त्यागने के लिए और द्वेष को त्यागने के लिए मध्यम मार्ग है, जो चक्षु देता है, ज्ञान देता है, जो प्रशान्ति, प्रत्यक्ष ज्ञान, संबोधि, और निर्वाण की ओर बढ़ता है। और, मित्रों, मध्यम मार्ग क्या है, जो चक्षु देता है, ज्ञान देता है, जो प्रशान्ति, प्रत्यक्ष ज्ञान, संबोधि, और निर्वाण की ओर बढ़ता है?

बस, यही आर्य अष्टांगिक मार्ग। अर्थात, सम्यक-दृष्टि, सम्यक-संकल्प, सम्यक-वचन, सम्यक-कार्य, सम्यक-जीविका, सम्यक-व्यायाम, सम्यक-स्मृति, और सम्यक-समाधि। ये ही मध्यम मार्ग है, जो चक्षु देता है, ज्ञान देता है, जो प्रशान्ति, प्रत्यक्ष ज्ञान, संबोधि, और निर्वाण की ओर बढ़ता है।

यहाँ, मित्रों, क्रोध पाप होता है, और बदले की भावना पाप होता है… तिरस्कार पाप होता है, और अकड़ूपन पाप होता है… ईर्ष्या पाप होता है, और कंजूसी पाप होता है… धोखेबाज़ी पाप होता है, और डींग हांकना पाप होता है… अहंभाव पाप होता है, और घमंड पाप होता है… नशा पाप होता है, और लापरवाही पाप होता है। 1 नशे को त्यागने के लिए और लापरवाही को त्यागने के लिए मध्यम मार्ग है, जो चक्षु देता है, ज्ञान देता है, जो प्रशान्ति, प्रत्यक्ष ज्ञान, संबोधि, और निर्वाण की ओर बढ़ता है। और, मित्रों, मध्यम मार्ग क्या है, जो चक्षु देता है, ज्ञान देता है, जो प्रशान्ति, प्रत्यक्ष ज्ञान, संबोधि, और निर्वाण की ओर बढ़ता है?

बस, यही आर्य अष्टांगिक मार्ग। अर्थात, सम्यक-दृष्टि, सम्यक-संकल्प, सम्यक-वचन, सम्यक-कार्य, सम्यक-जीविका, सम्यक-व्यायाम, सम्यक-स्मृति, और सम्यक-समाधि। ये ही मध्यम मार्ग है, जो चक्षु देता है, ज्ञान देता है, जो प्रशान्ति, प्रत्यक्ष ज्ञान, संबोधि, और निर्वाण की ओर बढ़ता है।

आयुष्मान सारिपुत्त ने ऐसा कहा। हर्षित होकर भिक्षुओं ने आयुष्मान सारिपुत्त की बात का अभिनंदन किया।

सुत्र समाप्त।


  1. ये सभी क्लेशों की मानक सूची हैं, जिसमें कुल १६ प्रकार के क्लेश गिने जाते हैं। हालांकि यहाँ अंतिम दो क्लेशों को नहीं गिना गया हैं — दूसरों को नीचा दिखाना, और अविद्या। ↩︎

Pali

२९. एवं मे सुतं – एकं समयं भगवा सावत्थियं विहरति जेतवने अनाथपिण्डिकस्स आरामे। तत्र खो भगवा भिक्खू आमन्तेसि – ‘‘भिक्खवो’’ति। ‘‘भदन्ते’’ति ते भिक्खू भगवतो पच्‍चस्सोसुं। भगवा एतदवोच –

‘‘धम्मदायादा मे, भिक्खवे, भवथ, मा आमिसदायादा। अत्थि मे तुम्हेसु अनुकम्पा – ‘किन्ति मे सावका धम्मदायादा भवेय्युं, नो आमिसदायादा’ति। तुम्हे च मे, भिक्खवे, आमिसदायादा भवेय्याथ नो धम्मदायादा, तुम्हेपि तेन आदिया आदिस्सा (सी॰ स्या॰ पी॰) भवेय्याथ – ‘आमिसदायादा सत्थुसावका विहरन्ति, नो धम्मदायादा’ति; अहम्पि तेन आदियो भवेय्यं – ‘आमिसदायादा सत्थुसावका विहरन्ति, नो धम्मदायादा’ति। तुम्हे च मे, भिक्खवे, धम्मदायादा भवेय्याथ, नो आमिसदायादा, तुम्हेपि तेन न आदिया भवेय्याथ – ‘धम्मदायादा सत्थुसावका विहरन्ति, नो आमिसदायादा’ति; अहम्पि तेन न आदियो भवेय्यं – ‘धम्मदायादा सत्थुसावका विहरन्ति, नो आमिसदायादा’ति। तस्मातिह मे, भिक्खवे, धम्मदायादा भवथ, मा आमिसदायादा। अत्थि मे तुम्हेसु अनुकम्पा – ‘किन्ति मे सावका धम्मदायादा भवेय्युं, नो आमिसदायादा’ति।

३०. ‘‘इधाहं, भिक्खवे, भुत्तावी अस्सं पवारितो परिपुण्णो परियोसितो सुहितो यावदत्थो; सिया च मे पिण्डपातो अतिरेकधम्मो छड्डनीयधम्मो छड्डियधम्मो (सी॰ स्या॰ पी॰)। अथ द्वे भिक्खू आगच्छेय्युं जिघच्छादुब्बल्य- जिघच्छादुब्बल्‍ल (सी॰ पी॰) परेता । त्याहं एवं वदेय्यं – ‘अहं खोम्हि, भिक्खवे, भुत्तावी पवारितो परिपुण्णो परियोसितो सुहितो यावदत्थो; अत्थि च मे अयं पिण्डपातो अतिरेकधम्मो छड्डनीयधम्मो। सचे आकङ्खथ, भुञ्‍जथ, नो चे तुम्हे भुञ्‍जिस्सथ सचे तुम्हे न भुञ्‍जिस्सथ (सी॰ स्या॰ पी॰), इदानाहं अप्पहरिते वा छड्डेस्सामि, अप्पाणके वा उदके ओपिलापेस्सामी’ति। तत्रेकस्स भिक्खुनो एवमस्स – ‘भगवा खो भुत्तावी पवारितो परिपुण्णो परियोसितो सुहितो यावदत्थो; अत्थि चायं भगवतो पिण्डपातो अतिरेकधम्मो छड्डनीयधम्मो। सचे मयं न भुञ्‍जिस्साम, इदानि भगवा अप्पहरिते वा छड्डेस्सति, अप्पाणके वा उदके ओपिलापेस्सति’ । वुत्तं खो पनेतं भगवता – ‘धम्मदायादा मे, भिक्खवे, भवथ, मा आमिसदायादा’ति। आमिसञ्‍ञतरं खो पनेतं, यदिदं पिण्डपातो। यंनूनाहं इमं पिण्डपातं अभुञ्‍जित्वा इमिनाव जिघच्छादुब्बल्येन एवं इमं रत्तिन्दिवं रत्तिदिवं (क॰) वीतिनामेय्य’’न्ति। सो तं पिण्डपातं अभुञ्‍जित्वा तेनेव जिघच्छादुब्बल्येन एवं तं रत्तिन्दिवं वीतिनामेय्य। अथ दुतियस्स भिक्खुनो एवमस्स – ‘भगवा खो भुत्तावी पवारितो परिपुण्णो परियोसितो सुहितो यावदत्थो; अत्थि चायं भगवतो पिण्डपातो अतिरेकधम्मो छड्डनीयधम्मो। सचे मयं न भुञ्‍जिस्साम, इदानि भगवा अप्पहरिते वा छड्डेस्सति, अप्पाणके वा उदके ओपिलापेस्सति। यंनूनाहं इमं पिण्डपातं भुञ्‍जित्वा जिघच्छादुब्बल्यं पटिविनोदेत्वा पटिविनेत्वा (सी॰ स्या॰ पी॰) एवं इमं रत्तिन्दिवं वीतिनामेय्य’न्ति। सो तं पिण्डपातं भुञ्‍जित्वा जिघच्छादुब्बल्यं पटिविनोदेत्वा एवं तं रत्तिन्दिवं वीतिनामेय्य। किञ्‍चापि सो, भिक्खवे, भिक्खु तं पिण्डपातं भुञ्‍जित्वा जिघच्छादुब्बल्यं पटिविनोदेत्वा एवं तं रत्तिन्दिवं वीतिनामेय्य, अथ खो असुयेव मे पुरिमो भिक्खु पुज्‍जतरो च पासंसतरो च। तं किस्स हेतु? तञ्हि तस्स, भिक्खवे, भिक्खुनो दीघरत्तं अप्पिच्छताय सन्तुट्ठिया सल्‍लेखाय सुभरताय वीरियारम्भाय संवत्तिस्सति। तस्मातिह मे, भिक्खवे, धम्मदायादा भवथ, मा आमिसदायादा। अत्थि मे तुम्हेसु अनुकम्पा – ‘किन्ति मे सावका धम्मदायादा भवेय्युं, नो आमिसदायादा’’’ति।

इदमवोच भगवा। इदं वत्वान वत्वा (सी॰ पी॰) एवमीदिसेसु ठानेसु सुगतो उट्ठायासना विहारं पाविसि।

३१. तत्र खो आयस्मा सारिपुत्तो अचिरपक्‍कन्तस्स भगवतो भिक्खू आमन्तेसि – ‘‘आवुसो भिक्खवे’’ति। ‘‘आवुसो’’ति खो ते भिक्खू आयस्मतो सारिपुत्तस्स पच्‍चस्सोसुं। आयस्मा सारिपुत्तो एतदवोच –

‘‘कित्तावता नु खो, आवुसो, सत्थु पविवित्तस्स विहरतो सावका विवेकं नानुसिक्खन्ति, कित्तावता च पन सत्थु पविवित्तस्स विहरतो सावका विवेकमनुसिक्खन्ती’’ति? ‘‘दूरतोपि खो मयं, आवुसो, आगच्छाम आयस्मतो सारिपुत्तस्स सन्तिके एतस्स भासितस्स अत्थमञ्‍ञातुं। साधु वतायस्मन्तंयेव सारिपुत्तं पटिभातु एतस्स भासितस्स अत्थो; आयस्मतो सारिपुत्तस्स सुत्वा भिक्खू धारेस्सन्ती’’ति। ‘‘तेन हावुसो, सुणाथ, साधुकं मनसि करोथ, भासिस्सामी’’ति। ‘‘एवमावुसो’’ति खो ते भिक्खू आयस्मतो सारिपुत्तस्स पच्‍चस्सोसुं। आयस्मा सारिपुत्तो एतदवोच –

‘‘कित्तावता नु खो, आवुसो, सत्थु पविवित्तस्स विहरतो सावका विवेकं नानुसिक्खन्ति? इधावुसो, सत्थु पविवित्तस्स विहरतो सावका विवेकं नानुसिक्खन्ति, येसञ्‍च धम्मानं सत्था पहानमाह, ते च धम्मे नप्पजहन्ति, बाहुलिका बाहुल्‍लिका (स्या॰) च होन्ति, साथलिका, ओक्‍कमने पुब्बङ्गमा, पविवेके निक्खित्तधुरा। तत्रावुसो, थेरा भिक्खू तीहि ठानेहि गारय्हा भवन्ति। ‘सत्थु पविवित्तस्स विहरतो सावका विवेकं नानुसिक्खन्ती’ति – इमिना पठमेन ठानेन थेरा भिक्खू गारय्हा भवन्ति। ‘येसञ्‍च धम्मानं सत्था पहानमाह ते च धम्मे नप्पजहन्ती’ति – इमिना दुतियेन ठानेन थेरा भिक्खू गारय्हा भवन्ति। ‘बाहुलिका च, साथलिका, ओक्‍कमने पुब्बङ्गमा, पविवेके निक्खित्तधुरा’ति – इमिना ततियेन ठानेन थेरा भिक्खू गारय्हा भवन्ति। थेरा, आवुसो, भिक्खू इमेहि तीहि ठानेहि गारय्हा भवन्ति। तत्रावुसो, मज्झिमा भिक्खू…पे॰… नवा भिक्खू तीहि ठानेहि गारय्हा भवन्ति। ‘सत्थु पविवित्तस्स विहरतो सावका विवेकं नानुसिक्खन्ती’ति – इमिना पठमेन ठानेन नवा भिक्खू गारय्हा भवन्ति। ‘येसञ्‍च धम्मानं सत्था पहानमाह ते च धम्मे नप्पजहन्ती’ति – इमिना दुतियेन ठानेन नवा भिक्खू गारय्हा भवन्ति। ‘बाहुलिका च होन्ति, साथलिका, ओक्‍कमने पुब्बङ्गमा, पविवेके निक्खित्तधुरा’ति – इमिना ततियेन ठानेन नवा भिक्खू गारय्हा भवन्ति। नवा, आवुसो, भिक्खू इमेहि तीहि ठानेहि गारय्हा भवन्ति। एत्तावता खो, आवुसो, सत्थु पविवित्तस्स विहरतो सावका विवेकं नानुसिक्खन्ति।

३२. ‘‘कित्तावता च, पनावुसो, सत्थु पविवित्तस्स विहरतो सावका विवेकमनुसिक्खन्ति ? इधावुसो, सत्थु पविवित्तस्स विहरतो सावका विवेकमनुसिक्खन्ति – येसञ्‍च धम्मानं सत्था पहानमाह ते च धम्मे पजहन्ति; न च बाहुलिका होन्ति, न साथलिका ओक्‍कमने निक्खित्तधुरा पविवेके पुब्बङ्गमा। तत्रावुसो, थेरा भिक्खू तीहि ठानेहि पासंसा भवन्ति। ‘सत्थु पविवित्तस्स विहरतो सावका विवेकमनुसिक्खन्ती’ति – इमिना पठमेन ठानेन थेरा भिक्खू पासंसा भवन्ति। ‘येसञ्‍च धम्मानं सत्था पहानमाह ते च धम्मे पजहन्ती’ति – इमिना दुतियेन ठानेन थेरा भिक्खू पासंसा भवन्ति। ‘न च बाहुलिका, न साथलिका ओक्‍कमने निक्खित्तधुरा पविवेके पुब्बङ्गमा’ति – इमिना ततियेन ठानेन थेरा भिक्खू पासंसा भवन्ति। थेरा, आवुसो, भिक्खू इमेहि तीहि ठानेहि पासंसा भवन्ति । तत्रावुसो, मज्झिमा भिक्खू…पे॰… नवा भिक्खू तीहि ठानेहि पासंसा भवन्ति। ‘सत्थु पविवित्तस्स विहरतो सावका विवेकमनुसिक्खन्ती’ति – इमिना पठमेन ठानेन नवा भिक्खू पासंसा भवन्ति। ‘येसञ्‍च धम्मानं सत्था पहानमाह ते च धम्मे पजहन्ती’ति – इमिना दुतियेन ठानेन नवा भिक्खू पासंसा भवन्ति। ‘न च बाहुलिका, न साथलिका ओक्‍कमने निक्खित्तधुरा पविवेके पुब्बङ्गमा’ति – इमिना ततियेन ठानेन नवा भिक्खू पासंसा भवन्ति। नवा, आवुसो, भिक्खू इमेहि तीहि ठानेहि पासंसा भवन्ति। एत्तावता खो, आवुसो, सत्थु पविवित्तस्स विहरतो सावका विवेकमनुसिक्खन्ति।

३३. ‘‘तत्रावुसो, लोभो च पापको दोसो च पापको। लोभस्स च पहानाय दोसस्स च पहानाय अत्थि मज्झिमा पटिपदा चक्खुकरणी ञाणकरणी उपसमाय अभिञ्‍ञाय सम्बोधाय निब्बानाय संवत्तति। कतमा च सा, आवुसो, मज्झिमा पटिपदा चक्खुकरणी ञाणकरणी उपसमाय अभिञ्‍ञाय सम्बोधाय निब्बानाय संवत्तति? अयमेव अरियो अट्ठङ्गिको मग्गो, सेय्यथिदं सेय्यथीदं (सी॰ स्या॰ पी॰) – सम्मादिट्ठि सम्मासङ्कप्पो सम्मावाचा सम्माकम्मन्तो सम्माआजीवो सम्मावायामो सम्मासति सम्मासमाधि। अयं खो सा, आवुसो, मज्झिमा पटिपदा चक्खुकरणी ञाणकरणी उपसमाय अभिञ्‍ञाय सम्बोधाय निब्बानाय संवत्तति।

‘‘तत्रावुसो, कोधो च पापको उपनाहो च पापको…पे॰… मक्खो च पापको पळासो च पापको, इस्सा च पापिका मच्छेरञ्‍च पापकं, माया च पापिका साठेय्यञ्‍च पापकं, थम्भो च पापको सारम्भो च पापको, मानो च पापको अतिमानो च पापको, मदो च पापको पमादो च पापको। मदस्स च पहानाय पमादस्स च पहानाय अत्थि मज्झिमा पटिपदा चक्खुकरणी ञाणकरणी उपसमाय अभिञ्‍ञाय सम्बोधाय निब्बानाय संवत्तति। कतमा च सा, आवुसो, मज्झिमा पटिपदा चक्खुकरणी ञाणकरणी उपसमाय अभिञ्‍ञाय सम्बोधाय निब्बानाय संवत्तति? अयमेव अरियो अट्ठङ्गिको मग्गो, सेय्यथिदं – सम्मादिट्ठि सम्मासङ्कप्पो सम्मावाचा सम्माकम्मन्तो सम्माआजीवो सम्मावायामो सम्मासति सम्मासमाधि। अयं खो सा, आवुसो, मज्झिमा पटिपदा चक्खुकरणी ञाणकरणी उपसमाय अभिञ्‍ञाय सम्बोधाय निब्बानाय संवत्तती’’ति।

इदमवोचायस्मा सारिपुत्तो। अत्तमना ते भिक्खू आयस्मतो सारिपुत्तस्स भासितं अभिनन्दुन्ति।

धम्मदायादसुत्तं निट्ठितं ततियं।