नमो तस्स भगवतो अरहतो सम्मा-सम्बुद्धस्स

📜 सार की खोज

✦ ॥ नमो तस्स भगवतो अरहतो सम्मासम्बुद्धस्स ॥ ✦

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ऐसा मैंने सुना — एक समय भगवान श्रावस्ती में अनाथपिण्डक के जेतवन उद्यान में विहार कर रहे थे। तब पिङ्गलकोच्छ ब्राह्मण भगवान के पास गया, और जाकर भगवान से हालचाल पूछा। मैत्रीपूर्ण वार्तालाप कर एक ओर बैठ गया। एक ओर बैठकर पिङ्गलकोच्छ ब्राह्मण ने भगवान से कहा —

“गौतम महाशय, ऐसे श्रमण और ब्राह्मण हैं जो संघ के स्वामी हैं, समुदाय के नेता, समुदाय का आचार्य हैं। वे प्रसिद्ध और यशस्वी धर्म-संस्थापक हैं, जो बहुत लोगों से सम्मानित हैं। जैसे — पूरण कश्यप, मक्खलि गोषाल, अजित केशकम्बल, पकुध कच्चायन, सञ्जय बेलट्ठपुत्र, और निगण्ठ नाटपुत्र। क्या उनके दावे के अनुसार उन सभी को प्रत्यक्ष-ज्ञान प्राप्त हुआ हैं? अथवा किसी को भी प्रत्यक्ष-ज्ञान प्राप्त नहीं हुआ? अथवा किसी को हुआ हैं और किसी को नहीं?”

“बहुत हुआ, ब्राह्मण, छोड़ो इसे कि ‘क्या उनके दावे के अनुसार उन सभी को प्रत्यक्ष-ज्ञान प्राप्त हुआ हैं? अथवा किसी को भी प्रत्यक्ष-ज्ञान प्राप्त नहीं हुआ? अथवा किसी को हुआ हैं और किसी को नहीं?’ ब्राह्मण, मैं तुम्हें धर्म देशना देता हूँ। ध्यान देकर गौर से सुनो, मैं बताता हूँ।”

“ठीक है, भंते।” पिङ्गलकोच्छ ब्राह्मण ने भगवान को उत्तर दिया। तब भगवान ने कहा:

जैसे, ब्राह्मण, कोई पुरुष सारकाष्ठ चाहता हो, वह सारकाष्ठ को ढूँढते हुए, सारकाष्ठ की खोज में उसे एक विशाल वृक्ष खड़ा मिले। किन्तु वह उसका सार छोड़कर आगे बढ़े, उसका अंतःकाष्ठ छोड़कर आगे बढ़े, उसकी छाल छोड़कर आगे बढ़े, उसकी पपड़ी छोड़कर आगे बढ़े। वह उसकी टहनियों और पत्तियों को ‘सारकाष्ठ’ मानते हुए, उन्हें काट कर चल पड़ता है।

तब, कोई चक्षुमान पुरुष देख कर कहता है — “इस पुरुष श्रीमान को ‘सार’ नहीं पता, ‘अन्तरकाष्ठ’ नहीं पता, ‘छाल’ नहीं पता, ‘पपड़ी’ नहीं पता, ‘टहनी और पत्ती’ भी नहीं पता। इसलिए यह पुरुष श्रीमान सारकाष्ठ चाहते हुए, सारकाष्ठ को ढूँढते हुए, सारकाष्ठ की खोज में उसे एक विशाल वृक्ष खड़ा मिला। किन्तु वह उसका सार छोड़कर आगे बढ़ गया, उसका अंतःकाष्ठ छोड़कर आगे बढ़ गया, उसकी छाल छोड़कर आगे बढ़ गया, उसकी पपड़ी छोड़कर आगे बढ़ गया। वह उसकी टहनियों और पत्तियों को ‘सारकाष्ठ’ मानते हुए, उन्हें काट कर चल पड़ा। उसे सारकाष्ठ से जो भी काम था, वह ध्येय पूरा नहीं होगा।”

जैसे, ब्राह्मण, कोई पुरुष सारकाष्ठ चाहता हो, वह सारकाष्ठ को ढूँढते हुए, सारकाष्ठ की खोज में उसे एक विशाल वृक्ष खड़ा मिले। किन्तु वह उसका सार छोड़कर आगे बढ़े, उसका अंतःकाष्ठ छोड़कर आगे बढ़े, उसकी छाल छोड़कर आगे बढ़े। वह उसकी पपड़ी को ‘सारकाष्ठ’ मानते हुए, उसे काट कर चल पड़ता है।

तब, कोई चक्षुमान पुरुष देख कर कहता है — “इस पुरुष श्रीमान को ‘सार’ नहीं पता, ‘अन्तरकाष्ठ’ नहीं पता, ‘छाल’ नहीं पता, ‘पपड़ी’ नहीं पता, ‘टहनी और पत्ती’ भी नहीं पता। इसलिए यह पुरुष श्रीमान सारकाष्ठ चाहते हुए, सारकाष्ठ को ढूँढते हुए, सारकाष्ठ की खोज में उसे एक विशाल वृक्ष खड़ा मिला। किन्तु वह उसका सार छोड़कर आगे बढ़ गया, उसका अंतःकाष्ठ छोड़कर आगे बढ़ गया, उसकी छाल छोड़कर आगे बढ़ गया। वह उसकी पपड़ी को ‘सारकाष्ठ’ मानते हुए, उसे काट कर चल पड़ा। उसे सारकाष्ठ से जो भी काम था, वह ध्येय पूरा नहीं होगा।”

जैसे, ब्राह्मण, कोई पुरुष सारकाष्ठ चाहता हो, वह सारकाष्ठ को ढूँढते हुए, सारकाष्ठ की खोज में उसे एक विशाल वृक्ष खड़ा मिले। किन्तु वह उसका सार छोड़कर आगे बढ़े, उसका अंतःकाष्ठ छोड़कर आगे बढ़े। वह उसकी छाल को ‘सारकाष्ठ’ मानते हुए, उसे काट कर चल पड़ता है।

तब, कोई चक्षुमान पुरुष देख कर कहता है — “इस पुरुष श्रीमान को ‘सार’ नहीं पता, ‘अन्तरकाष्ठ’ नहीं पता, ‘छाल’ नहीं पता, ‘पपड़ी’ नहीं पता, ‘टहनी और पत्ती’ भी नहीं पता। इसलिए यह पुरुष श्रीमान सारकाष्ठ चाहते हुए, सारकाष्ठ को ढूँढते हुए, सारकाष्ठ की खोज में उसे एक विशाल वृक्ष खड़ा मिला। किन्तु वह उसका सार छोड़कर आगे बढ़ गया, उसका अंतःकाष्ठ छोड़कर आगे बढ़ गया। वह उसकी छाल को ‘सारकाष्ठ’ मानते हुए, उसे काट कर चल पड़ा। उसे सारकाष्ठ से जो भी काम था, वह ध्येय पूरा नहीं होगा।”

जैसे, ब्राह्मण, कोई पुरुष सारकाष्ठ चाहता हो, वह सारकाष्ठ को ढूँढते हुए, सारकाष्ठ की खोज में उसे एक विशाल वृक्ष खड़ा मिले। किन्तु वह उसका सार छोड़कर आगे बढ़े, और उसके अंतःकाष्ठ को ‘सारकाष्ठ’ मानते हुए, उसे काट कर चल पड़ता है।

तब, कोई चक्षुमान पुरुष देख कर कहता है — “इस पुरुष श्रीमान को ‘सार’ नहीं पता, ‘अन्तरकाष्ठ’ नहीं पता, ‘छाल’ नहीं पता, ‘पपड़ी’ नहीं पता, ‘टहनी और पत्ती’ भी नहीं पता। इसलिए यह पुरुष श्रीमान सारकाष्ठ चाहते हुए, सारकाष्ठ को ढूँढते हुए, सारकाष्ठ की खोज में उसे एक विशाल वृक्ष खड़ा मिला। किन्तु वह उसका सार छोड़कर आगे बढ़ गया, और उसके अंतःकाष्ठ को ‘सारकाष्ठ’ मानते हुए, उसे काट कर चल पड़ा। उसे सारकाष्ठ से जो भी काम था, वह ध्येय पूरा नहीं होगा।”

जैसे, ब्राह्मण, कोई पुरुष सारकाष्ठ चाहता हो, वह सारकाष्ठ को ढूँढते हुए, सारकाष्ठ की खोज में उसे एक विशाल वृक्ष खड़ा मिले। वह उसके सार को ‘सारकाष्ठ’ मानते हुए, उसे काट कर चल पड़ता है।

तब, कोई चक्षुमान पुरुष देख कर कहता है — “इस पुरुष श्रीमान को ‘सार’ पता है, ‘अन्तरकाष्ठ’ भी पता है, ‘छाल’ भी पता है, ‘पपड़ी’ भी पता है, ‘टहनी और पत्ती’ भी पता है। इसलिए यह पुरुष श्रीमान सारकाष्ठ चाहते हुए, सारकाष्ठ को ढूँढते हुए, सारकाष्ठ की खोज में उसे एक विशाल वृक्ष खड़ा मिला। वह उसके सार को ‘सारकाष्ठ’ मानते हुए, उसे काट कर चल पड़ा। उसे सारकाष्ठ से जो भी काम था, वह ध्येय अब पूरा होगा।”

लाभ सत्कार किर्ति

उसी तरह, ब्राह्मण, कोई कुलपुत्र होता है जो श्रद्धा से घर से बेघर होकर प्रवज्ज्यित होता है, (सोचते हुए,) “मैं जन्म, बुढ़ापा और मौत से घिरा हूँ; शोक, विलाप, दर्द, व्यथा, और निराशा से घिरा हूँ; दुःख से घिरा, दुःख में फँसा हूँ। काश, मुझे इस दुःख संग्रह के अंत का पता चले!”

इस तरह प्रवज्ज्यित होने पर, वह लाभ, सत्कार और किर्ति उत्पन्न करता है। उस लाभ, सत्कार और किर्ति से वह हर्षित हो जाता है, मानो उसकी मन्नत पूरी हुई। उस लाभ, सत्कार और किर्ति से वह आत्म प्रशंसा करता है, और दूसरों को तुच्छ मानता है, ‘मुझे लाभ, सत्कार और किर्ति प्राप्त है। इन दूसरे ब्राह्मण को कम लोग जानते हैं, ये कम प्रभावशाली है।’

लाभ, सत्कार और किर्ति के बजाय, जो दूसरे बेहतर और सूक्ष्मतर धर्म (=स्वभाव) हैं, वह उन धर्मों का साक्षात्कार करने के लिए न चाहत उत्पन्न करता है, न ही ज़ोर लगाता है; बल्कि निष्क्रिय होकर ढ़ीला पड़ता है।

जैसे, ब्राह्मण, कोई पुरुष सारकाष्ठ चाहता हो, वह सारकाष्ठ को ढूँढते हुए, सारकाष्ठ की खोज में उसे एक विशाल वृक्ष खड़ा मिले। किन्तु वह उसका सार छोड़कर आगे बढ़े, उसका अंतःकाष्ठ छोड़कर आगे बढ़े, उसकी छाल छोड़कर आगे बढ़े, उसकी पपड़ी छोड़कर आगे बढ़े। वह उसकी टहनियों और पत्तियों को ‘सारकाष्ठ’ मानते हुए, उन्हें काट कर चल पड़ता है। उसे सारकाष्ठ से जो भी काम था, वह ध्येय पूरा नहीं होगा। मैं कहता हूँ, ब्राह्मण, वह इसी पुरुष की तरह है।

शील संपदा

आगे, ब्राह्मण, कोई कुलपुत्र होता है जो श्रद्धा से घर से बेघर होकर प्रवज्ज्यित होता है, (सोचते हुए,) “मैं जन्म, बुढ़ापा और मौत से घिरा हूँ; शोक, विलाप, दर्द, व्यथा, और निराशा से घिरा हूँ; दुःख से घिरा, दुःख में फँसा हूँ। काश, मुझे इस दुःख संग्रह के अंत का पता चले!”

इस तरह प्रवज्ज्यित होने पर, वह लाभ, सत्कार और किर्ति उत्पन्न करता है। किन्तु, वह उस लाभ, सत्कार और किर्ति से हर्षित नहीं होता, मानो उसकी मन्नत पूरी नहीं हुई। वह उस लाभ, सत्कार और किर्ति से आत्म प्रशंसा नहीं करता, न ही दूसरों को तुच्छ मानता है। लाभ, सत्कार और किर्ति के बजाय, जो दूसरे बेहतर और सूक्ष्मतर धर्म हैं, वह उन धर्मों का साक्षात्कार करने के लिए चाहत उत्पन्न करता है, ज़ोर लगाता है; न निष्क्रिय होता है, न ही ढ़ीला पड़ता है।

तब, वह शील संपदा प्राप्त करता है। वह उस शील संपदा को प्राप्त कर हर्षित हो जाता है, मानो उसकी मन्नत पूरी हुई। उस शील संपदा से वह आत्म प्रशंसा करता है, और दूसरों को तुच्छ मानता है, ‘मैं तो शीलवान, भले स्वभाव का हूँ। ये दूसरे भिक्षु दुष्शील, बुरे स्वभाव के हैं।’ शील संपदा के बजाय, जो दूसरे बेहतर और सूक्ष्मतर धर्म हैं, वह उन धर्मों का साक्षात्कार करने के लिए न चाहत उत्पन्न करता है, न ही ज़ोर लगाता है; बल्कि निष्क्रिय होकर ढ़ीला पड़ता है।

जैसे, ब्राह्मण, कोई पुरुष सारकाष्ठ चाहता हो, वह सारकाष्ठ को ढूँढते हुए, सारकाष्ठ की खोज में उसे एक विशाल वृक्ष खड़ा मिले। किन्तु वह उसका सार छोड़कर आगे बढ़े, उसका अंतःकाष्ठ छोड़कर आगे बढ़े, उसकी छाल छोड़कर आगे बढ़े। वह उसकी पपड़ी को ‘सारकाष्ठ’ मानते हुए, उसे काट कर चल पड़ता है। उसे सारकाष्ठ से जो भी काम था, वह ध्येय पूरा नहीं होगा। मैं कहता हूँ, ब्राह्मण, वह इसी पुरुष की तरह है।

समाधि संपदा

आगे, ब्राह्मण, कोई कुलपुत्र होता है जो श्रद्धा से घर से बेघर होकर प्रवज्ज्यित होता है, (सोचते हुए,) “मैं जन्म, बुढ़ापा और मौत से घिरा हूँ; शोक, विलाप, दर्द, व्यथा, और निराशा से घिरा हूँ; दुःख से घिरा, दुःख में फँसा हूँ। काश, मुझे इस दुःख संग्रह के अंत का पता चले!”

इस तरह प्रवज्ज्यित होने पर, वह लाभ, सत्कार और किर्ति उत्पन्न करता है। वह उस लाभ, सत्कार और किर्ति से हर्षित नहीं होता, मानो उसकी मन्नत पूरी नहीं हुई। वह उस लाभ, सत्कार और किर्ति से आत्म प्रशंसा नहीं करता, न ही दूसरों को तुच्छ मानता है। लाभ, सत्कार और किर्ति के बजाय, जो दूसरे बेहतर और सूक्ष्मतर धर्म हैं, वह उन धर्मों का साक्षात्कार करने के लिए चाहत उत्पन्न करता है, ज़ोर लगाता है; न निष्क्रिय होता है, न ही ढ़ीला पड़ता है।

तब, वह शील संपदा प्राप्त करता है। वह उस शील संपदा से हर्षित नहीं होता, मानो उसकी मन्नत पूरी नहीं हुई। वह उस शील संपदा से आत्म प्रशंसा नहीं करता, न ही दूसरों को तुच्छ मानता है। शील संपदा के बजाय, जो दूसरे बेहतर और सूक्ष्मतर धर्म हैं, वह उन धर्मों का साक्षात्कार करने के लिए चाहत उत्पन्न करता है, ज़ोर लगाता है; न निष्क्रिय होता है, न ही ढ़ीला पड़ता है।

तब, वह समाधि संपदा प्राप्त करता है। वह उस समाधि संपदा को प्राप्त कर हर्षित हो जाता है, मानो उसकी मन्नत पूरी हुई। उस समाधि संपदा से वह आत्म प्रशंसा करता है, और दूसरों को तुच्छ मानता है, ‘मेरा तो समाहित, एकाग्र चित्त है। इन दूसरे ब्राह्मण का असमाहित, भटकने वाला चित्त हैं।’ समाधि संपदा के बजाय, जो दूसरे बेहतर और सूक्ष्मतर धर्म हैं, वह उन धर्मों का साक्षात्कार करने के लिए न चाहत उत्पन्न करता है, न ही ज़ोर लगाता है; बल्कि निष्क्रिय होकर ढ़ीला पड़ता है।

जैसे, ब्राह्मण, कोई पुरुष सारकाष्ठ चाहता हो, वह सारकाष्ठ को ढूँढते हुए, सारकाष्ठ की खोज में उसे एक विशाल वृक्ष खड़ा मिले। किन्तु वह उसका सार छोड़कर आगे बढ़े, उसका अंतःकाष्ठ छोड़कर आगे बढ़े। वह उसकी छाल को ‘सारकाष्ठ’ मानते हुए, उसे काट कर चल पड़ता है। उसे सारकाष्ठ से जो भी काम था, वह ध्येय पूरा नहीं होगा। मैं कहता हूँ, ब्राह्मण, वह इसी पुरुष की तरह है।

ज्ञान दर्शन

आगे, ब्राह्मण, कोई कुलपुत्र होता है जो श्रद्धा से घर से बेघर होकर प्रवज्ज्यित होता है, (सोचते हुए,) “मैं जन्म, बुढ़ापा और मौत से घिरा हूँ; शोक, विलाप, दर्द, व्यथा, और निराशा से घिरा हूँ; दुःख से घिरा, दुःख में फँसा हूँ। काश, मुझे इस दुःख संग्रह के अंत का पता चले!”

इस तरह प्रवज्ज्यित होने पर, वह लाभ, सत्कार और किर्ति उत्पन्न करता है। वह उस लाभ, सत्कार और किर्ति से हर्षित नहीं होता, मानो उसकी मन्नत पूरी नहीं हुई। वह उस लाभ, सत्कार और किर्ति से आत्म प्रशंसा नहीं करता, न ही दूसरों को तुच्छ मानता है। लाभ, सत्कार और किर्ति के बजाय, जो दूसरे बेहतर और सूक्ष्मतर धर्म हैं, वह उन धर्मों का साक्षात्कार करने के लिए चाहत उत्पन्न करता है, ज़ोर लगाता है; न निष्क्रिय होता है, न ही ढ़ीला पड़ता है।

तब, वह शील संपदा प्राप्त करता है। वह उस शील संपदा से हर्षित नहीं होता, मानो उसकी मन्नत पूरी नहीं हुई। वह उस शील संपदा से आत्म प्रशंसा नहीं करता, न ही दूसरों को तुच्छ मानता है। शील संपदा के बजाय, जो दूसरे बेहतर और सूक्ष्मतर धर्म हैं, वह उन धर्मों का साक्षात्कार करने के लिए चाहत उत्पन्न करता है, ज़ोर लगाता है; न निष्क्रिय होता है, न ही ढ़ीला पड़ता है।

तब, वह समाधि संपदा प्राप्त करता है। वह उस समाधि संपदा से हर्षित नहीं होता, मानो उसकी मन्नत पूरी नहीं हुई। वह उस समाधि संपदा से आत्म प्रशंसा नहीं करता, न ही दूसरों को तुच्छ मानता है। समाधि संपदा के बजाय, जो दूसरे बेहतर और सूक्ष्मतर धर्म हैं, वह उन धर्मों का साक्षात्कार करने के लिए चाहत उत्पन्न करता है, ज़ोर लगाता है; न निष्क्रिय होता है, न ही ढ़ीला पड़ता है।

तब, वह ज्ञान-दर्शन प्राप्त करता है। वह उस ज्ञान-दर्शन को प्राप्त कर हर्षित हो जाता है, मानो उसकी मन्नत पूरी हुई। उस ज्ञान-दर्शन से वह आत्म प्रशंसा करता है, और दूसरों को तुच्छ मानता है, ‘मैं तो जानते हुए, देखते हुए विहार करता हूँ। ये दूसरे भिक्षु बिना जानते हुए, बिना देखते हुए विहार करते हैं।’ ज्ञान-दर्शन के बजाय, जो दूसरे बेहतर और सूक्ष्मतर धर्म हैं, वह उन धर्मों का साक्षात्कार करने के लिए न चाहत उत्पन्न करता है, न ही ज़ोर लगाता है; बल्कि निष्क्रिय होकर ढ़ीला पड़ता है।

जैसे, ब्राह्मण, कोई पुरुष सारकाष्ठ चाहता हो, वह सारकाष्ठ को ढूँढते हुए, सारकाष्ठ की खोज में उसे एक विशाल वृक्ष खड़ा मिले। किन्तु वह उसका सार छोड़कर आगे बढ़े, और उसके अंतःकाष्ठ को ‘सारकाष्ठ’ मानते हुए, उसे काट कर चल पड़ता है। उसे सारकाष्ठ से जो भी काम था, वह ध्येय पूरा नहीं होगा। मैं कहता हूँ, ब्राह्मण, वह इसी पुरुष की तरह है।

विमुक्ति

आगे, ब्राह्मण, कोई कुलपुत्र होता है जो श्रद्धा से घर से बेघर होकर प्रवज्ज्यित होता है, (सोचते हुए,) “मैं जन्म, बुढ़ापा और मौत से घिरा हूँ; शोक, विलाप, दर्द, व्यथा, और निराशा से घिरा हूँ; दुःख से घिरा, दुःख में फँसा हूँ। काश, मुझे इस दुःख संग्रह के अंत का पता चले!”

इस तरह प्रवज्ज्यित होने पर, वह लाभ, सत्कार और किर्ति उत्पन्न करता है। वह उस लाभ, सत्कार और किर्ति से हर्षित नहीं होता, मानो उसकी मन्नत पूरी नहीं हुई। वह उस लाभ, सत्कार और किर्ति से आत्म प्रशंसा नहीं करता, न ही दूसरों को तुच्छ मानता है। लाभ, सत्कार और किर्ति के बजाय, जो दूसरे बेहतर और सूक्ष्मतर धर्म हैं, वह उन धर्मों का साक्षात्कार करने के लिए चाहत उत्पन्न करता है, ज़ोर लगाता है; न निष्क्रिय होता है, न ही ढ़ीला पड़ता है।

तब, वह शील संपदा प्राप्त करता है। वह उस शील संपदा से हर्षित नहीं होता, मानो उसकी मन्नत पूरी नहीं हुई। वह उस शील संपदा से आत्म प्रशंसा नहीं करता, न ही दूसरों को तुच्छ मानता है। शील संपदा के बजाय, जो दूसरे बेहतर और सूक्ष्मतर धर्म हैं, वह उन धर्मों का साक्षात्कार करने के लिए चाहत उत्पन्न करता है, ज़ोर लगाता है; न निष्क्रिय होता है, न ही ढ़ीला पड़ता है।

तब, वह समाधि संपदा प्राप्त करता है। वह उस समाधि संपदा से हर्षित नहीं होता, मानो उसकी मन्नत पूरी नहीं हुई। वह उस समाधि संपदा से आत्म प्रशंसा नहीं करता, न ही दूसरों को तुच्छ मानता है। समाधि संपदा के बजाय, जो दूसरे बेहतर और सूक्ष्मतर धर्म हैं, वह उन धर्मों का साक्षात्कार करने के लिए चाहत उत्पन्न करता है, ज़ोर लगाता है; न निष्क्रिय होता है, न ही ढ़ीला पड़ता है।

तब, वह ज्ञान-दर्शन प्राप्त करता है। वह उस ज्ञान-दर्शन से हर्षित नहीं होता, मानो उसकी मन्नत पूरी नहीं हुई। वह उस ज्ञान-दर्शन से आत्म प्रशंसा नहीं करता, न ही दूसरों को तुच्छ मानता है। ज्ञान-दर्शन के बजाय, जो दूसरे बेहतर और सूक्ष्मतर धर्म हैं, वह उन धर्मों का साक्षात्कार करने के लिए चाहत उत्पन्न करता है, ज़ोर लगाता है; न निष्क्रिय होता है, न ही ढ़ीला पड़ता है।

ब्राह्मण, ज्ञान-दर्शन से बेहतर और सूक्ष्मतर धर्म कौन से हैं?

(१) ऐसा होता है, ब्राह्मण, कोई भिक्षु कामुकता से निर्लिप्त, अकुशल-स्वभाव से निर्लिप्त, सोच एवं विचार के साथ निर्लिप्तता से उपजे प्रफुल्लता और सुखपूर्ण प्रथम-ध्यान में प्रवेश पाकर रहता है। यह धर्म, ब्राह्मण, ज्ञान-दर्शन से बेहतर और सूक्ष्मतर है। 1

(२) आगे, ब्राह्मण, वह भिक्षु सोच एवं विचार के रुक जाने पर, भीतर आश्वस्त हुआ मानस एकरस होकर, बिना-सोच, बिना-विचार, समाधि से उपजे प्रफुल्लता और सुखपूर्ण द्वितीय-ध्यान में प्रवेश पाकर रहता है। यह धर्म, ब्राह्मण, ज्ञान-दर्शन से बेहतर और सूक्ष्मतर है।

(३) आगे, ब्राह्मण, वह भिक्षु प्रफुल्लता से विरक्त हो, स्मरणशील एवं सचेतता के साथ-साथ तटस्थता धारण कर शरीर से सुख महसूस करता है। जिसे आर्यजन ‘तटस्थ, स्मरणशील, सुखविहारी’ कहते हैं, वह ऐसे तृतीय-ध्यान में प्रवेश पाकर रहता है। यह धर्म, ब्राह्मण, ज्ञान-दर्शन से बेहतर और सूक्ष्मतर है।

(४) आगे, ब्राह्मण, वह भिक्षु सुख एवं दर्द दोनों हटाकर, खुशी एवं परेशानी पूर्व ही विलुप्त होने पर, तटस्थता और स्मरणशीलता की परिशुद्धता के साथ, अब न-सुख-न-दर्द पूर्ण चतुर्थ-ध्यान में प्रवेश पाकर रहता है। यह धर्म, ब्राह्मण, ज्ञान-दर्शन से बेहतर और सूक्ष्मतर है।

(५) आगे, ब्राह्मण, वह भिक्षु रूप नजरिए पूर्णतः लाँघकर, विरोधी नजरिए ओझल होने पर, विविध नजरियों पर ध्यान न देकर — ‘आकाश अनन्त है’ (देखते हुए) ‘अनन्त आकाश-आयाम’ में प्रवेश कर रहता है। यह धर्म, ब्राह्मण, ज्ञान-दर्शन से बेहतर और सूक्ष्मतर है।

(६) आगे, ब्राह्मण, वह भिक्षु अनन्त आकाश-आयाम पूर्णतः लाँघकर, ‘चैतन्य अनन्त है’ (देखते हुए) ‘अनन्त चैतन्य-आयाम’ में प्रवेश कर रहता है। यह धर्म, ब्राह्मण, ज्ञान-दर्शन से बेहतर और सूक्ष्मतर है।

(७) आगे, ब्राह्मण, वह भिक्षु अनन्त चैतन्य-आयाम पूर्णतः लाँघकर, ‘कुछ नहीं है’ (देखते हुए) ‘सूने-आयाम’ में प्रवेश कर रहता है। यह धर्म, ब्राह्मण, ज्ञान-दर्शन से बेहतर और सूक्ष्मतर है।

(८) आगे, ब्राह्मण, वह भिक्षु सूने-आयाम को पूर्णतः लाँघकर, न-संज्ञा-न-असंज्ञा आयाम में प्रवेश कर रहता है। यह धर्म, ब्राह्मण, ज्ञान-दर्शन से बेहतर और सूक्ष्मतर है।

(९) आगे, ब्राह्मण, वह भिक्षु न-संज्ञा-न-असंज्ञा आयाम को पूर्णतः लाँघकर, संज्ञा और अनुभूति के निरोध में प्रवेश कर रहता है। और प्रज्ञा से देखने पर उसके आस्रव पूरी तरह खत्म हो जाते हैं। यह धर्म, ब्राह्मण, ज्ञान-दर्शन से बेहतर और सूक्ष्मतर है।

— ये धर्म, ब्राह्मण, ज्ञान-दर्शन से बेहतर और सूक्ष्मतर हैं।

जैसे, भिक्षुओं, कोई पुरुष सारकाष्ठ चाहता हो, वह सारकाष्ठ को ढूँढते हुए, सारकाष्ठ की खोज में उसे एक विशाल वृक्ष खड़ा मिले। वह उसके सार को ‘सारकाष्ठ’ मानते हुए, उसे काट कर चल पड़ता है। उसे सारकाष्ठ से जो भी काम था, अब वह ध्येय पूरा होगा। मैं कहता हूँ, ब्राह्मण, वह इसी पुरुष की तरह है।

इस तरह, ब्राह्मण, ब्रह्मचर्य —

  • लाभ, सत्कार और किर्ति के पुरस्कार के लिए नहीं होता,
  • शील संपदा के पुरस्कार के लिए नहीं होता,
  • समाधि संपदा के पुरस्कार के लिए नहीं होता,
  • ज्ञान-दर्शन संपदा के पुरस्कार के लिए भी नहीं होता।

बल्कि, ब्राह्मण, ब्रह्मचर्य का ध्येय, उसका सार, उसका गंतव्य (=मंजिल) —

  • अविचल (“अकुप्पा”) विमुक्ति है।”

जब ऐसा कहा गया, तब पिङ्गलकोच्छ ब्राह्मण ने भगवान से कहा, “अतिउत्तम, गुरु गौतम! अतिउत्तम, गुरु गौतम! जैसे कोई पलटे को सीधा करे, छिपे को खोल दे, भटके को मार्ग दिखाए, या अँधेरे में दीप जलाकर दिखाए, ताकि तेज आँखों वाला स्पष्ट देख पाए — उसी तरह भगवान ने धर्म को अनेक तरह से स्पष्ट कर दिया। मैं बुद्ध की शरण जाता हूँ! धर्म की और संघ की भी! भगवान मुझे आज से लेकर प्राण रहने तक शरणागत उपासक धारण करें!”

सुत्र समाप्त।


  1. पिछला सूत्र (मज्झिमनिकाय २९) बताता है कि ज्ञान-दर्शन के आगे, सीधे “असमय विमोक्ष” या “अविचल विमुक्ति” तक पहुँचा जाता है। लेकिन आश्चर्य है कि यह सूत्र पुनः ध्यान अवस्थाओं का वर्णन करता है। हालांकि, अट्ठकथा स्पष्टीकरण देती है कि ध्यान अवस्थाओं को यहाँ ज्ञान-दर्शन से ऊपर इसलिए रखा गया है, क्योंकि इसे “निरोध समापत्ति” की ओर एक चरणबद्ध रूप में प्रस्तुत किया जा रहा है।

    लेकिन कई बातें यह संकेत देती हैं कि यह पूरा अंश बाद में जोड़ा गया है। जैसे, पहली बात — ध्यान अवस्था का उल्लेख पहले ही “समाधि संपदा” के अंतर्गत आता है। यदि समाधि संपदा में चार ध्यान-अवस्था और अरूप-आयाम नहीं आते, तो भला उसमें क्या शामिल हैं? फिर, समाधि संपदा के पश्चात ही तो ज्ञान-दर्शन उत्पन्न होता है। (जैसे अनुपूब्बिसिक्खा के सामान्य प्रवाह, जैसे दीघनिकाय २ आदि, में भी दिखता है)। यहाँ ध्यान-अवस्थाओं को ज्ञान-दर्शन से ऊपर बताना, सामान्य परंपरा के विपरीत है।

    दूसरी बात — इस सूत्र को पिछले सूत्र के मुकाबले “चूळ” या छोटा कहा गया है। जबकि, दरअसल, यह पिछले “महा” या बड़े सूत्र से भी अधिक लंबा हो गया है। संभवतः इसलिए ही कि यह अतिरिक्त भाग बाद में जोड़ा गया, भले ही सूत्र का “चूळ” नाम पहले ही तय हो चुका था।

    और, तीसरी बात — चीनी भाषा में उपलब्ध इन दोनों उपदेशों के एकमात्र समानान्तर रूप (एकोत्तरिक आगम ४३.४) में यह अतिरिक्त अंश नहीं मिलता। ↩︎

Pali

३१२. एवं मे सुतं – एकं समयं भगवा सावत्थियं विहरति जेतवने अनाथपिण्डिकस्स आरामे. अथ खो पिङ्गलकोच्छो ब्राह्मणो येन भगवा तेनुपसङ्कमि; उपसङ्कमित्वा भगवता सद्धिं सम्मोदि. सम्मोदनीयं कथं सारणीयं वीतिसारेत्वा एकमन्तं निसीदि. एकमन्तं निसिन्नो खो पिङ्गलकोच्छो ब्राह्मणो भगवन्तं एतदवोच – ‘‘येमे, भो गोतम, समणब्राह्मणा सङ्घिनो गणिनो गणाचरिया ञाता यसस्सिनो तित्थकरा साधुसम्मता, बहुजनस्स, सेय्यथिदं – पूरणो कस्सपो, मक्खलि गोसालो, अजितो केसकम्बलो, पकुधो कच्चायनो, सञ्चयो [सञ्जयो (सी. स्या. पी. क.)] बेलट्ठपुत्तो, निगण्ठो नाटपुत्तो, सब्बेते सकाय पटिञ्ञाय अब्भञ्ञंसु सब्बेव नाब्भञ्ञंसु, उदाहु एकच्चे अब्भञ्ञंसु एकच्चे नाब्भञ्ञंसू’’ति? ‘‘अलं, ब्राह्मण, तिट्ठतेतं – सब्बेते सकाय पटिञ्ञाय अब्भञ्ञंसु सब्बेव नाब्भञ्ञंसु, उदाहु एकच्चे अब्भञ्ञंसु एकच्चे नाब्भञ्ञंसूति. धम्मं ते, ब्राह्मण, देसेस्सामि, तं सुणाहि, साधुकं मनसि करोहि, भासिस्सामी’’ति. ‘‘एवं, भो’’ति खो पिङ्गलकोच्छो ब्राह्मणो भगवतो पच्चस्सोसि. भगवा एतदवोच –

३१३. ‘‘सेय्यथापि, ब्राह्मण, पुरिसो सारत्थिको सारगवेसी सारपरियेसनं चरमानो महतो रुक्खस्स तिट्ठतो सारवतो अतिक्कम्मेव सारं अतिक्कम्म फेग्गुं अतिक्कम्म तचं अतिक्कम्म पपटिकं, साखापलासं छेत्वा आदाय पक्कमेय्य ‘सार’न्ति मञ्ञमानो. तमेनं चक्खुमा पुरिसो दिस्वा एवं वदेय्य – ‘न वतायं भवं पुरिसो अञ्ञासि सारं, न अञ्ञासि फेग्गुं, न अञ्ञासि तचं, न अञ्ञासि पपटिकं, न अञ्ञासि साखापलासं. तथा हयं भवं पुरिसो सारत्थिको सारगवेसी सारपरियेसनं चरमानो महतो रुक्खस्स तिट्ठतो सारवतो अतिक्कम्मेव सारं अतिक्कम्म फेग्गुं अतिक्कम्म तचं अतिक्कम्म पपटिकं, साखापलासं छेत्वा आदाय पक्कन्तो ‘सार’न्ति मञ्ञमानो. यञ्चस्स सारेन सारकरणीयं तञ्चस्स अत्थं नानुभविस्सती’ति.

३१४. ‘‘सेय्यथापि वा पन, ब्राह्मण, पुरिसो सारत्थिको सारगवेसी सारपरियेसनं चरमानो महतो रुक्खस्स तिट्ठतो सारवतो अतिक्कम्मेव सारं अतिक्कम्म फेग्गुं अतिक्कम्म तचं , पपटिकं छेत्वा आदाय पक्कमेय्य ‘सार’न्ति मञ्ञमानो. तमेनं चक्खुमा पुरिसो दिस्वा एवं वदेय्य – ‘न वतायं भवं पुरिसो अञ्ञासि सारं, न अञ्ञासि फेग्गुं, न अञ्ञासि तचं, न अञ्ञासि पपटिकं, न अञ्ञासि साखापलासं. तथा हयं भवं पुरिसो सारत्थिको सारगवेसी सारपरियेसनं चरमानो महतो रुक्खस्स तिट्ठतो सारवतो अतिक्कम्मेव सारं अतिक्कम्म फेग्गुं अतिक्कम्म तचं पपटिकं छेत्वा आदाय पक्कन्तो ‘सार’न्ति मञ्ञमानो. यञ्चस्स सारेन सारकरणीयं तञ्चस्स अत्थं नानुभविस्सती’ति.

३१५. ‘‘सेय्यथापि वा पन, ब्राह्मण, पुरिसो सारत्थिको सारगवेसी सारपरियेसनं चरमानो महतो रुक्खस्स तिट्ठतो सारवतो अतिक्कम्मेव सारं अतिक्कम्म फेग्गुं, तचं छेत्वा आदाय पक्कमेय्य ‘सार’न्ति मञ्ञमानो. तमेनं चक्खुमा पुरिसो दिस्वा एवं वदेय्य – ‘न वतायं भवं पुरिसो अञ्ञासि सारं, न अञ्ञासि फेग्गुं, न अञ्ञासि तचं, न अञ्ञासि पपटिकं, न अञ्ञासि साखापलासं. तथा हयं भवं पुरिसो सारत्थिको सारगवेसी सारपरियेसनं चरमानो महतो रुक्खस्स तिट्ठतो सारवतो अतिक्कम्मेव सारं अतिक्कम्म फेग्गुं, तचं छेत्वा आदाय पक्कन्तो ‘सार’न्ति मञ्ञमानो. यञ्चस्स सारेन सारकरणीयं तञ्चस्स अत्थं नानुभविस्सती’ति.

३१६. ‘‘सेय्यथापि वा पन, ब्राह्मण, पुरिसो सारत्थिको सारगवेसी सारपरियेसनं चरमानो महतो रुक्खस्स तिट्ठतो सारवतो अतिक्कम्मेव सारं, फेग्गुं छेत्वा आदाय पक्कमेय्य ‘सार’न्ति मञ्ञमानो. तमेनं चक्खुमा पुरिसो दिस्वा एवं वदेय्य – ‘न वतायं भवं पुरिसो अञ्ञासि सारं, न अञ्ञासि फेग्गुं, न अञ्ञासि तचं, न अञ्ञासि पपटिकं, न अञ्ञासि साखापलासं. तथा हयं भवं पुरिसो सारत्थिको सारगवेसी सारपरियेसनं चरमानो महतो रुक्खस्स तिट्ठतो सारवतो अतिक्कम्मेव सारं, फेग्गुं छेत्वा आदाय पक्कन्तो ‘सार’न्ति मञ्ञमानो. यञ्चस्स सारेन सारकरणीयं तञ्चस्स अत्थं नानुभविस्सती’ति.

३१७. ‘‘सेय्यथापि वा पन, ब्राह्मण, पुरिसो सारत्थिको सारगवेसी सारपरियेसनं चरमानो महतो रुक्खस्स तिट्ठतो सारवतो सारञ्ञेव छेत्वा आदाय पक्कमेय्य ‘सार’न्ति जानमानो. तमेनं चक्खुमा पुरिसो दिस्वा एवं वदेय्य – ‘अञ्ञासि वतायं भवं पुरिसो सारं, अञ्ञासि फेग्गुं, अञ्ञासि तचं, अञ्ञासि पपटिकं, अञ्ञासि साखापलासं. तथा हयं भवं पुरिसो सारत्थिको सारगवेसी सारपरियेसनं चरमानो महतो रुक्खस्स तिट्ठतो सारवतो सारञ्ञेव छेत्वा आदाय पक्कन्तो ‘सार’न्ति जानमानो. यञ्चस्स सारेन सारकरणीयं तञ्चस्स अत्थं अनुभविस्सती’ति.

३१८. ‘‘एवमेव खो, ब्राह्मण, इधेकच्चो पुग्गलो सद्धा अगारस्मा अनगारियं पब्बजितो होति – ‘ओतिण्णोम्हि जातिया जराय मरणेन सोकेहि परिदेवेहि दुक्खेहि दोमनस्सेहि उपायासेहि, दुक्खोतिण्णो दुक्खपरेतो, अप्पेव नाम इमस्स केवलस्स दुक्खक्खन्धस्स अन्तकिरिया पञ्ञायेथा’ति. सो एवं पब्बजितो समानो लाभसक्कारसिलोकं अभिनिब्बत्तेति. सो तेन लाभसक्कारसिलोकेन अत्तमनो होति परिपुण्णसङ्कप्पो. सो तेन लाभसक्कारसिलोकेन अत्तानुक्कंसेति, परं वम्भेति – ‘अहमस्मि लाभसक्कारसिलोकवा, इमे पनञ्ञे भिक्खू अप्पञ्ञाता अप्पेसक्खा’ति. लाभसक्कारसिलोकेन च ये अञ्ञे धम्मा उत्तरितरा च पणीततरा च तेसं धम्मानं सच्छिकिरियाय न छन्दं जनेति, न वायमति, ओलीनवुत्तिको च होति साथलिको. सेय्यथापि सो, ब्राह्मण, पुरिसो सारत्थिको सारगवेसी सारपरियेसनं चरमानो महतो रुक्खस्स तिट्ठतो सारवतो अतिक्कम्मेव सारं अतिक्कम्म फेग्गुं अतिक्कम्म तचं अतिक्कम्म पपटिकं, साखापलासं छेत्वा आदाय पक्कन्तो ‘सार’न्ति मञ्ञमानो. यञ्चस्स सारेन सारकरणीयं तञ्चस्स अत्थं नानुभविस्सति. तथूपमाहं, ब्राह्मण, इमं पुग्गलं वदामि.

३१९. ‘‘इध पन, ब्राह्मण, एकच्चो पुग्गलो सद्धा अगारस्मा अनगारियं पब्बजितो होति – ‘ओतिण्णोम्हि जातिया जराय मरणेन सोकेहि परिदेवेहि दुक्खेहि दोमनस्सेहि उपायासेहि, दुक्खोतिण्णो दुक्खपरेतो, अप्पेव नाम इमस्स केवलस्स दुक्खक्खन्धस्स अन्तकिरिया पञ्ञायेथा’ति. सो एवं पब्बजितो समानो लाभसक्कारसिलोकं अभिनिब्बत्तेति. सो तेन लाभसक्कारसिलोकेन न अत्तमनो होति न परिपुण्णसङ्कप्पो. सो तेन लाभसक्कारसिलोकेन न अत्तानुक्कंसेति, न परं वम्भेति. लाभसक्कारसिलोकेन च ये अञ्ञे धम्मा उत्तरितरा च पणीततरा च तेसं धम्मानं सच्छिकिरियाय छन्दं जनेति, वायमति , अनोलीनवुत्तिको च होति असाथलिको. सो सीलसम्पदं आराधेति. सो ताय सीलसम्पदाय अत्तमनो होति, परिपुण्णसङ्कप्पो. सो ताय सीलसम्पदाय अत्तानुक्कंसेति, परं वम्भेति – ‘अहमस्मि सीलवा कल्याणधम्मो, इमे पनञ्ञे भिक्खू दुस्सीला पापधम्मा’ति. सीलसम्पदाय च ये अञ्ञे धम्मा उत्तरितरा च पणीततरा च तेसं धम्मानं सच्छिकिरियाय न छन्दं जनेति, न वायमति, ओलीनवुत्तिको च होति साथलिको. सेय्यथापि सो, ब्राह्मण, पुरिसो सारत्थिको सारगवेसी सारपरियेसनं चरमानो महतो रुक्खस्स तिट्ठतो सारवतो अतिक्कम्मेव सारं अतिक्कम्म फेग्गुं अतिक्कम्म तचं, पपटिकं छेत्वा आदाय पक्कन्तो ‘सार’न्ति मञ्ञमानो. यञ्चस्स सारेन सारकरणीयं, तञ्चस्स अत्थं नानुभविस्सति. तथूपमाहं, ब्राह्मण, इमं पुग्गलं वदामि.

३२०. ‘‘इध पन, ब्राह्मण, एकच्चो पुग्गलो सद्धा अगारस्मा अनगारियं पब्बजितो होति – ‘ओतिण्णोम्हि जातिया जराय मरणेन सोकेहि परिदेवेहि दुक्खेहि दोमनस्सेहि उपायासेहि, दुक्खोतिण्णो दुक्खपरेतो, अप्पेव नाम इमस्स केवलस्स दुक्खक्खन्धस्स अन्तकिरिया पञ्ञायेथा’ति. सो एवं पब्बजितो समानो लाभसक्कारसिलोकं अभिनिब्बत्तेति. सो तेन लाभसक्कारसिलोकेन न अत्तमनो होति, न परिपुण्णसङ्कप्पो. सो तेन लाभसक्कारसिलोकेन न अत्तानुक्कंसेति, न परं वम्भेति. लाभसक्कारसिलोकेन च ये अञ्ञे धम्मा उत्तरितरा च पणीततरा च तेसं धम्मानं सच्छिकिरियाय छन्दं जनेति, वायमति, अनोलीनवुत्तिको च होति असाथलिको. सो सीलसम्पदं आराधेति. सो ताय सीलसम्पदाय अत्तमनो होति नो च खो परिपुण्णसङ्कप्पो. सो ताय सीलसम्पदाय न अत्तानुक्कंसेति, न परं वम्भेति. सीलसम्पदाय च ये अञ्ञे धम्मा उत्तरितरा च पणीततरा च तेसं धम्मानं सच्छिकिरियाय छन्दं जनेति, वायमति, अनोलीनवुत्तिको च होति असाथलिको . सो समाधिसम्पदं आराधेति. सो ताय समाधिसम्पदाय अत्तमनो होति, परिपुण्णसङ्कप्पो. सो ताय समाधिसम्पदाय अत्तानुक्कंसेति, परं वम्भेति – ‘अहमस्मि समाहितो एकग्गचित्तो, इमे पनञ्ञे भिक्खू असमाहिता विब्भन्तचित्ता’ति. समाधिसम्पदाय च ये अञ्ञे धम्मा उत्तरितरा च पणीततरा च, तेसं धम्मानं सच्छिकिरियाय न छन्दं जनेति, न वायमति, ओलीनवुत्तिको च होति साथलिको. सेय्यथापि सो, ब्राह्मण, पुरिसो सारत्थिको सारगवेसी सारपरियेसनं चरमानो महतो रुक्खस्स तिट्ठतो सारवतो अतिक्कम्मेव सारं अतिक्कम्म फेग्गुं, तचं छेत्वा आदाय पक्कन्तो ‘सार’न्ति मञ्ञमानो. यञ्चस्स सारेन सारकरणीयं तञ्चस्स अत्थं नानुभविस्सति. तथूपमाहं, ब्राह्मण, इमं पुग्गलं वदामि.

३२१. ‘‘इध पन, ब्राह्मण, एकच्चो पुग्गलो सद्धा अगारस्मा अनगारियं पब्बजितो होति – ‘ओतिण्णोम्हि जातिया जराय मरणेन…पे… अन्तकिरिया पञ्ञायेथा’ति. सो एवं पब्बजितो समानो लाभसक्कारसिलोकं अभिनिब्बत्तेति. सो तेन लाभसक्कारसिलोकेन न अत्तमनो होति न परिपुण्णसङ्कप्पो. सो तेन लाभसक्कारसिलोकेन न अत्तानुक्कंसेति, न परं वम्भेति. लाभसक्कारसिलोकेन च ये अञ्ञे धम्मा उत्तरितरा च पणीततरा च तेसं धम्मानं सच्छिकिरियाय छन्दं जनेति, वायमति, अनोलीनवुत्तिको च होति असाथलिको. सो सीलसम्पदं आराधेति. सो ताय सीलसम्पदाय अत्तमनो होति, नो च खो परिपुण्णसङ्कप्पो. सो ताय सीलसम्पदाय न अत्तानुक्कंसेति, न परं वम्भेति. सीलसम्पदाय च ये अञ्ञे धम्मा उत्तरितरा च पणीततरा च तेसं धम्मानं सच्छिकिरियाय छन्दं जनेति, वायमति, अनोलीनवुत्तिको च होति असाथलिको. सो समाधिसम्पदं आराधेति. सो ताय समाधिसम्पदाय अत्तमनो होति, नो च खो परिपुण्णसङ्कप्पो. सो ताय समाधिसम्पदाय न अत्तानुक्कंसेति, न परं वम्भेति. समाधिसम्पदाय च ये अञ्ञे धम्मा उत्तरितरा च पणीततरा च तेसं धम्मानं सच्छिकिरियाय छन्दं जनेति, वायमति, अनोलीनवुत्तिको च होति असाथलिको. सो ञाणदस्सनं आराधेति. सो तेन ञाणदस्सनेन अत्तमनो होति, परिपुण्णसङ्कप्पो . सो तेन ञाणदस्सनेन अत्तानुक्कंसेति, परं वम्भेति – ‘अहमस्मि जानं पस्सं विहरामि, इमे पनञ्ञे भिक्खू अजानं अपस्सं विहरन्ती’ति. ञाणदस्सनेन च ये अञ्ञे धम्मा उत्तरितरा च पणीततरा च तेसं धम्मानं सच्छिकिरियाय न छन्दं जनेति, न वायमति, ओलीनवुत्तिको च होति साथलिको. सेय्यथापि सो, ब्राह्मण, पुरिसो सारत्थिको सारगवेसी सारपरियेसनं चरमानो महतो रुक्खस्स तिट्ठतो सारवतो अतिक्कम्मेव सारं, फेग्गुं छेत्वा आदाय पक्कन्तो ‘सार’न्ति मञ्ञमानो. यञ्चस्स सारेन सारकरणीयं तञ्चस्स अत्थं नानुभविस्सति. तथूपमाहं, ब्राह्मण, इमं पुग्गलं वदामि.

३२२. ‘‘इध पन, ब्राह्मण, एकच्चो पुग्गलो सद्धा अगारस्मा अनगारियं पब्बजितो होति – ‘ओतिण्णोम्हि जातिया जराय मरणेन सोकेहि परिदेवेहि दुक्खेहि दोमनस्सेहि उपायासेहि , दुक्खोतिण्णो दुक्खपरेतो , अप्पेव नाम इमस्स केवलस्स दुक्खक्खन्धस्स अन्तकिरिया पञ्ञायेथा’ति. सो एवं पब्बजितो समानो लाभसक्कारसिलोकं अभिनिब्बत्तेति. सो तेन लाभसक्कारसिलोकेन न अत्तमनो होति, न परिपुण्णसङ्कप्पो. सो तेन लाभसक्कारसिलोकेन न अत्तानुक्कंसेति, न परं वम्भेति. लाभसक्कारसिलोकेन च ये अञ्ञे धम्मा उत्तरितरा च पणीततरा च तेसं धम्मानं सच्छिकिरियाय छन्दं जनेति, वायमति, अनोलीनवुत्तिको च होति असाथलिको. सो सीलसम्पदं आराधेति. सो ताय सीलसम्पदाय अत्तमनो होति, नो च खो परिपुण्णसङ्कप्पो. सो ताय सीलसम्पदाय न अत्तानुक्कंसेति, न परं वम्भेति. सीलसम्पदाय च ये अञ्ञे धम्मा उत्तरितरा च पणीततरा च तेसं धम्मानं सच्छिकिरियाय छन्दं जनेति, वायमति, अनोलीनवुत्तिको च होति असाथलिको. सो समाधिसम्पदं आराधेति. सो ताय समाधिसम्पदाय अत्तमनो होति, नो च खो परिपुण्णसङ्कप्पो. सो ताय समाधिसम्पदाय न अत्तानुक्कंसेति, न परं वम्भेति. समाधिसम्पदाय च ये अञ्ञे धम्मा उत्तरितरा च पणीततरा च तेसं धम्मानं सच्छिकिरियाय छन्दं जनेति, वायमति, अनोलीनवुत्तिको च होति असाथलिको. सो ञाणदस्सनं आराधेति. सो तेन ञाणदस्सनेन अत्तमनो होति, नो च खो परिपुण्णसङ्कप्पो. सो तेन ञाणदस्सनेन न अत्तानुक्कंसेति, न परं वम्भेति. ञाणदस्सनेन च ये अञ्ञे धम्मा उत्तरितरा च पणीततरा च तेसं धम्मानं सच्छिकिरियाय छन्दं जनेति, वायमति, अनोलीनवुत्तिको च होति असाथलिको.

३२३. ‘‘कतमे च, ब्राह्मण, धम्मा ञाणदस्सनेन उत्तरितरा च पणीततरा च? इध, ब्राह्मण, भिक्खु विविच्चेव कामेहि विविच्च अकुसलेहि धम्मेहि सवितक्कं सविचारं विवेकजं पीतिसुखं पठमं झानं उपसम्पज्ज विहरति. अयम्पि खो, ब्राह्मण, धम्मो ञाणदस्सनेन उत्तरितरो च पणीततरो च.

‘‘पुन चपरं, ब्राह्मण, भिक्खु वितक्कविचारानं वूपसमा अज्झत्तं सम्पसादनं चेतसो एकोदिभावं अवितक्कं अविचारं समाधिजं पीतिसुखं दुतियं झानं उपसम्पज्ज विहरति. अयम्पि खो, ब्राह्मण, धम्मो ञाणदस्सनेन उत्तरितरो च पणीततरो च.

‘‘पुन चपरं, ब्राह्मण, भिक्खु पीतिया च विरागा उपेक्खको च विहरति, सतो च सम्पजानो सुखञ्च कायेन पटिसंवेदेति, यं तं अरिया आचिक्खन्ति – ‘उपेक्खको सतिमा सुखविहारी’ति ततियं झानं उपसम्पज्ज विहरति. अयम्पि खो , ब्राह्मण, धम्मो ञाणदस्सनेन उत्तरितरो च पणीततरो च.

‘‘पुन चपरं, ब्राह्मण, भिक्खु सुखस्स च पहाना दुक्खस्स च पहाना पुब्बेव सोमनस्सदोमनस्सानं अत्थङ्गमा अदुक्खमसुखं उपेक्खासतिपारिसुद्धिं चतुत्थं झानं उपसम्पज्ज विहरति. अयम्पि खो, ब्राह्मण, धम्मो ञाणदस्सनेन उत्तरितरो च पणीततरो च.

‘‘पुन चपरं, ब्राह्मण, भिक्खु सब्बसो रूपसञ्ञानं समतिक्कमा पटिघसञ्ञानं अत्थङ्गमा नानत्तसञ्ञानं अमनसिकारा ‘अनन्तो आकासो’ति आकासानञ्चायतनं उपसम्पज्ज विहरति. अयम्पि खो, ब्राह्मण, धम्मो ञाणदस्सनेन उत्तरितरो च पणीततरो च.

‘‘पुन चपरं, ब्राह्मण, भिक्खु सब्बसो आकासानञ्चायतनं समतिक्कम्म ‘अनन्तं विञ्ञाण’न्ति विञ्ञाणञ्चायतनं उपसम्पज्ज विहरति. अयम्पि खो, ब्राह्मण, धम्मो ञाणदस्सनेन उत्तरितरो च पणीततरो च.

‘‘पुन चपरं, ब्राह्मण, भिक्खु सब्बसो विञ्ञाणञ्चायतनं समतिक्कम्म ‘नत्थि किञ्ची’ति आकिञ्चञ्ञायतनं उपसम्पज्ज विहरति. अयम्पि खो, ब्राह्मण, धम्मो ञाणदस्सनेन उत्तरितरो च पणीततरो च.

‘‘पुन चपरं, ब्राह्मण, भिक्खु सब्बसो आकिञ्चञ्ञायतनं समतिक्कम्म नेवसञ्ञानासञ्ञायतनं उपसम्पज्ज विहरति. अयम्पि खो, ब्राह्मण, धम्मो ञाणदस्सनेन उत्तरितरो च पणीततरो च.

‘‘पुन चपरं, ब्राह्मण, भिक्खु सब्बसो नेवसञ्ञानासञ्ञायतनं समतिक्कम्म सञ्ञावेदयितनिरोधं उपसम्पज्ज विहरति, पञ्ञाय चस्स दिस्वा आसवा परिक्खीणा होन्ति. अयम्पि खो, ब्राह्मण, धम्मो ञाणदस्सनेन उत्तरितरो च पणीततरो च. इमे खो, ब्राह्मण, धम्मा ञाणदस्सनेन उत्तरितरा च पणीततरा च.

३२४. ‘‘सेय्यथापि सो, ब्राह्मण, पुरिसो सारत्थिको सारगवेसी सारपरियेसनं चरमानो महतो रुक्खस्स तिट्ठतो सारवतो सारंयेव छेत्वा आदाय पक्कन्तो ‘सार’न्ति जानमानो. यञ्चस्स सारेन सारकरणीयं तञ्चस्स अत्थं अनुभविस्सति. तथूपमाहं, ब्राह्मण, इमं पुग्गलं वदामि.

‘‘इति खो, ब्राह्मण, नयिदं ब्रह्मचरियं लाभसक्कारसिलोकानिसंसं, न सीलसम्पदानिसंसं, न समाधिसम्पदानिसंसं, न ञाणदस्सनानिसंसं. या च खो अयं , ब्राह्मण, अकुप्पा चेतोविमुत्ति – एतदत्थमिदं, ब्राह्मण, ब्रह्मचरियं, एतं सारं एतं परियोसान’’न्ति.

एवं वुत्ते, पिङ्गलकोच्छो ब्राह्मणो भगवन्तं एतदवोच – ‘‘अभिक्कन्तं, भो गोतम, अभिक्कन्तं, भो गोतम…पे… उपासकं मं भवं गोतमो धारेतु अज्जतग्गे पाणुपेतं सरणं गत’’न्ति.

चूळसारोपमसुत्तं निट्ठितं दसमं.

ओपम्मवग्गो निट्ठितो ततियो.