यह सूत्र भिक्षुओं के बीच अत्यंत प्रिय है। यह ब्रह्मचर्य जीवन का ऐसा आदर्श प्रस्तुत करता है, जो पारस्परिक स्नेह, मैत्रीभाव और ध्यानपूर्ण सहजीवन पर आधारित है।
इस सूत्र में तीन भिक्षु आदर्श पात्र के रूप में प्रस्तुत हैं, जिनमें प्रमुख हैं अनुरुद्ध भंते। विनयपिटक (चुल्लवग्ग १७:१.१.३) के अनुसार, वे आनंद और महानाम के भाई थे — अर्थात, भगवान बुद्ध के चचेरे भाई। अनुरुद्ध न केवल चार स्मृतिप्रस्थान के कुशल उपदेशक थे, बल्कि उन्हें दिव्यदृष्टि में सर्वश्रेष्ठ भिक्षु के रूप में भी प्रतिष्ठा प्राप्त थी।
नन्दिय भी शाक्य कुल के ही एक सदस्य थे। किमिल (या किंबिल) उन सात प्रमुख शाक्य युवकों में से एक थे जिन्होंने एक साथ घर-बार त्याग कर प्रवज्जा ग्रहण की थीं। इस समूह में आनंद, देवदत्त, अनुरुद्ध आदि भी सम्मिलित थे।
यह सूत्र मज्झिमनिकाय १२८ से मेल खाता है। मुख्य अंतर यह है कि वहाँ वे तीनों भिक्षु अभी अरहत्व की साधना में लीन हैं, जबकि इस सूत्र में वे अरहत्व प्राप्त कर सुखपूर्वक विहार कर रहे हैं। दोनों प्रसंगों की पृष्ठभूमि एक जैसी है — जब भगवान बुद्ध कौशांबी के झगड़ालू भिक्षुओं को छोड़कर अकेले चले गए थे। ऐसे आंतरिक कलह के माहौल में इन तीन भिक्षुओं का एकांत जंगल में मिल-जुलकर साधना करते रहना, वाकई सुकून देने वाला है।
ऐसा मैंने सुना — एक समय भगवान नातिका में ईंट से बने गृह में 1 विहार करते थे। उस समय आयुष्मान अनुरुद्ध, आयुष्मान नन्दिय, और आयुष्मान किमिल गोसिङ्ग (=गाय के सींग) सालवन में विहार कर रहे थे।
सायंकाल होने पर, भगवान एकांतवास से निकले और गोसिङ्ग सालवन में गए। तब वनरक्षक ने भगवान को दूर से आते हुए देखा। देखकर उसने भगवान से कहा, “श्रमण, यहाँ प्रवेश मत करो। यहाँ तीन कुलपुत्र अपना काम (=साधना) करते हुए विहार करते हैं। उन्हें परेशान मत करो।”
तब आयुष्मान अनुरुद्ध ने वनरक्षक को भगवान के साथ वार्तालाप करते हुए सुना। सुनकर वनरक्षक से कहा, “मित्र वनरक्षक, भगवान को बाहर मत करो। हमारे शास्ता, भगवान आ पहुँचे हैं।”
तब आयुष्मान अनुरुद्ध, आयुष्मान नन्दिय और आयुष्मान किमिल के पास गए। जाकर आयुष्मान नन्दिय और आयुष्मान किमिल से कहा, “बाहर आओ, आयुष्मानों! बाहर आओ, आयुष्मानों! हमारे शास्ता, भगवान आ पहुँचे हैं।”
तब, आयुष्मान अनुरुद्ध, आयुष्मान नन्दिय और आयुष्मान किमिल ने भगवान का स्वागत किया। एक ने भगवान का पात्र और चीवर ग्रहण किया। एक ने आसन बिछाया। एक ने पैर धोने के लिए जल रखा। भगवान बिछे आसन पर बैठ गए, और बैठकर भगवान ने अपने पैर धोएँ। तब उन आयुष्मानों ने भगवान को अभिवादन किया और एक ओर बैठ गए।
एक ओर बैठे आयुष्मान अनुरुद्ध से भगवान से कहा, “कैसे हो, अनुरूद्धों? 2 ठीक हो? कैसे चल रहा है? भिक्षाटन में कोई दिक्कत तो नहीं आती?”
“हम ठीक हैं, भगवान! अच्छा चल रहा है, भगवान! भिक्षाटन में, भंते, कोई दिक्कत नहीं आती!”
“आशा है, अनुरूद्धों, तुम सभी मिल-जुलकर, स्नेहभाव से, बिना विवाद करे, दूध और पानी जैसे घुल-मिलकर, एक दूसरे को स्नेहभरी नजरों से देखते हुए विहार करते होंगे?”
“वाकई, भंते, हम सभी मिल-जुलकर, स्नेहभाव से, बिना विवाद करे, दूध और पानी जैसे घुल-मिलकर, एक दूसरे को स्नेहभरी नजरों से देखते हुए विहार करते हैं।”
“किन्तु, कैसे, अनुरूद्धों, तुम सभी मिल-जुलकर, स्नेहभाव से, बिना विवाद करे, दूध और पानी जैसे घुल-मिलकर, एक दूसरे को स्नेहभरी नजरों से देखते हुए विहार करते हो?”
“ऐसा है, भंते, कि मुझे लगता है — ‘मैं लाभी हूँ, भाग्यशाली हूँ, जो ऐसे सब्रह्मचारी के साथ विहार करता हूँ।’ भंते, मैं हमेशा आयुष्मानों के प्रति, उनके सामने और पीछे, सद्भावपूर्ण (“मेत्ता”) कायिक (=शारीरिक) कर्म में स्थित रहता हूँ; सद्भावपूर्ण वाचिक (=वाणी) कर्म में स्थित रहता हूँ; सद्भावपूर्ण मनो (=मानसिक) कर्म में स्थित रहता हूँ।
आगे, भंते, मुझे लगता है — ‘क्यों न मैं अपने चित्त को बाजू रख, इन आयुष्मानों के चित्त के अनुसार वर्तन करूँ?’ तब, भंते, मैं अपने चित्त को बाजू रख, इन आयुष्मानों के चित्त के अनुसार ही वर्तन करता हूँ। भले ही, भंते, हमारी काया अलग-अलग हो, किन्तु मैं मानता हूँ कि हमारा चित्त एक है।”
तब, आयुष्मान नन्दिय ने भगवान से कहा, “भंते, मुझे भी लगता है — ‘मैं लाभी हूँ, भाग्यशाली हूँ, जो ऐसे सब्रह्मचारी के साथ विहार करता हूँ।’ भंते, मैं हमेशा आयुष्मानों के प्रति, उनके सामने और पीछे, सद्भावपूर्ण कायिक कर्म में स्थित रहता हूँ; सद्भावपूर्ण वाचिक कर्म में स्थित रहता हूँ; सद्भावपूर्ण मनो कर्म में स्थित रहता हूँ।
और, भंते, मुझे भी लगता है — ‘क्यों न मैं अपने चित्त को बाजू रख, इन आयुष्मानों के चित्त के अनुसार वर्तन करूँ?’ तब, भंते, मैं अपने चित्त को बाजू रख, इन आयुष्मानों के चित्त के अनुसार ही वर्तन करता हूँ। भले ही, भंते, हमारी काया अलग-अलग हो, किन्तु मैं भी मानता हूँ कि हमारा चित्त एक है।”
तब, आयुष्मान किमिल ने भगवान से कहा, “भंते, मुझे भी लगता है — ‘मैं लाभी हूँ, भाग्यशाली हूँ, जो ऐसे सब्रह्मचारी के साथ विहार करता हूँ।’ भंते, मैं हमेशा आयुष्मानों के प्रति, उनके सामने और पीछे, सद्भावपूर्ण कायिक कर्म में स्थित रहता हूँ; सद्भावपूर्ण वाचिक कर्म में स्थित रहता हूँ; सद्भावपूर्ण मनो कर्म में स्थित रहता हूँ।
और, भंते, मुझे भी लगता है — ‘क्यों न मैं अपने चित्त को बाजू रख, इन आयुष्मानों के चित्त के अनुसार वर्तन करूँ?’ तब, भंते, मैं अपने चित्त को बाजू रख, इन आयुष्मानों के चित्त के अनुसार ही वर्तन करता हूँ। भले ही, भंते, हमारी काया अलग-अलग हो, किन्तु मैं भी मानता हूँ कि हमारा चित्त एक है।”
“इसी तरह, भंते, हम सभी मिल-जुलकर, स्नेहभाव से, बिना विवाद करे, दूध और पानी जैसे घुल-मिलकर, एक दूसरे को स्नेहभरी नजरों से देखते हुए विहार करते हैं।”
“साधु, साधु, अनुरूद्धों। किन्तु, अनुरूद्धों, क्या तुम अप्रमत्त (बिना मदहोश हुए), तत्पर और संकल्पबद्ध होकर विहार करते हो?”
“वाकई, भंते, हम अप्रमत्त, तत्पर और संकल्पबद्ध होकर विहार करते हैं।”
“किन्तु, कैसे, अनुरूद्धों, तुम अप्रमत्त, तत्पर और संकल्पबद्ध होकर विहार करते हो?”
“ऐसा है, भंते, हम में से जो पहले गाँव से भिक्षाटन कर लौटता है, वह आसन बिछाता है, पीने-धोने का जल रखता है, और (अतिरिक्त) बचा भिक्षान्न रख देता है। और, भंते, जो गाँव से भिक्षाटन कर बाद में लौटता है, वह चाहे तो उस बचे भिक्षान्न को खा लेता है, वरना बंजर या निर्जीव जल में जाकर डाल आता है। वह आसन समेटता है, पीने-धोने का जल समेटता है, कचरा समेटता है, और भोजनस्थान को झाड़ देता है।
जिसे दिखता है कि पीने का घड़ा, या धोने का घड़ा, या शौचालय का घड़ा खाली हो गया है, तो वह उन्हें भर देता है। यदि वह स्वयं अकेला न कर सके, तो वह हाथ के इशारे से दूसरे को बुलाता है, और दोनों हाथ देकर उठाते हैं। और, भंते, हम उस कारण बातचीत में नहीं लग जाते। प्रत्येक पाँच दिन के अंतराल में, भंते, हम साथ बैठकर पूरी रात धर्मचर्चा करते हैं। इस तरह, भंते, हम अप्रमत्त, तत्पर और संकल्पबद्ध होकर विहार करते हैं।”
“साधु, साधु, अनुरूद्धों। किन्तु, अनुरूद्धों, क्या इस तरह अप्रमत्त, तत्पर और संकल्पबद्ध होकर विहार करते हुए, तुम कोई अलौकिक अवस्था, कोई विशेष आर्य ज्ञान-दर्शन प्राप्त कर, राहत से रहते हो?”
(१) “कैसे नहीं रहेंगे, भंते? ऐसा होता है, भंते, हम जब चाहे, कामुकता से निर्लिप्त, अकुशल-स्वभाव से निर्लिप्त, सोच एवं विचार के साथ निर्लिप्तता से उपजे प्रफुल्लता और सुखपूर्ण प्रथम-ध्यान में प्रवेश पाकर रहते हैं। इस तरह, भंते, हम अप्रमत्त, तत्पर और संकल्पबद्ध होकर विहार करते हुए, यह अलौकिक अवस्था, इस विशेष आर्य ज्ञान-दर्शन को प्राप्त कर, राहत से विहार करते हैं।”
“साधु, साधु, अनुरूद्धों। किन्तु, अनुरूद्धों, क्या इस साधना के परे, तुम कोई अन्य अलौकिक अवस्था, कोई विशेष आर्य ज्ञान-दर्शन प्राप्त कर, राहत से रहते हो?”
(२) “कैसे नहीं रहेंगे, भंते? ऐसा होता है, भंते, हम जब चाहे, सोच एवं विचार के रुक जाने पर, भीतर आश्वस्त हुआ मानस एकरस होकर, बिना-सोच, बिना-विचार, समाधि से उपजे प्रफुल्लता और सुखपूर्ण द्वितीय-ध्यान में प्रवेश पाकर रहते हैं। इस तरह, भंते, हम अप्रमत्त, तत्पर और संकल्पबद्ध होकर विहार करते हुए, यह अलौकिक अवस्था, इस विशेष आर्य ज्ञान-दर्शन को प्राप्त कर, राहत से विहार करते हैं।”
“साधु, साधु, अनुरूद्धों। किन्तु, अनुरूद्धों, क्या इस साधना के परे, तुम कोई अन्य अलौकिक अवस्था, कोई विशेष आर्य ज्ञान-दर्शन प्राप्त कर, राहत से रहते हो?”
(३) “कैसे नहीं रहेंगे, भंते? ऐसा होता है, भंते, हम जब चाहे, प्रफुल्लता से विरक्त हो, स्मरणशील एवं सचेतता के साथ-साथ तटस्थता धारण कर शरीर से सुख महसूस करता है। जिसे आर्यजन ‘तटस्थ, स्मरणशील, सुखविहारी’ कहते हैं, वह ऐसे तृतीय-ध्यान में प्रवेश पाकर रहते हैं। इस तरह, भंते, हम अप्रमत्त, तत्पर और संकल्पबद्ध होकर विहार करते हुए, यह अलौकिक अवस्था, इस विशेष आर्य ज्ञान-दर्शन को प्राप्त कर, राहत से विहार करते हैं।”
“साधु, साधु, अनुरूद्धों। किन्तु, अनुरूद्धों, क्या इस साधना के परे, तुम कोई अन्य अलौकिक अवस्था, कोई विशेष आर्य ज्ञान-दर्शन प्राप्त कर, राहत से रहते हो?”
(४) “कैसे नहीं रहेंगे, भंते? ऐसा होता है, भंते, हम जब चाहे, सुख एवं दर्द दोनों हटाकर, खुशी एवं परेशानी पूर्व ही विलुप्त होने पर, तटस्थता और स्मरणशीलता की परिशुद्धता के साथ, अब न-सुख-न-दर्द पूर्ण चतुर्थ-ध्यान में प्रवेश पाकर रहते हैं। इस तरह, भंते, हम अप्रमत्त, तत्पर और संकल्पबद्ध होकर विहार करते हुए, यह अलौकिक अवस्था, इस विशेष आर्य ज्ञान-दर्शन को प्राप्त कर, राहत से विहार करते हैं।”
“साधु, साधु, अनुरूद्धों। किन्तु, अनुरूद्धों, क्या इस साधना के परे, तुम कोई अन्य अलौकिक अवस्था, कोई विशेष आर्य ज्ञान-दर्शन प्राप्त कर, राहत से रहते हो?”
(५) “कैसे नहीं रहेंगे, भंते? ऐसा होता है, भंते, हम जब चाहे, रूप नजरिए पूर्णतः लाँघकर, विरोधी नजरिए ओझल होने पर, विविध नजरियों पर ध्यान न देकर — ‘आकाश अनन्त है’ (देखते हुए) ‘अनन्त आकाश-आयाम’ में प्रवेश कर रहते हैं। इस तरह, भंते, हम अप्रमत्त, तत्पर और संकल्पबद्ध होकर विहार करते हुए, यह अलौकिक अवस्था, इस विशेष आर्य ज्ञान-दर्शन को प्राप्त कर, राहत से विहार करते हैं।”
“साधु, साधु, अनुरूद्धों। किन्तु, अनुरूद्धों, क्या इस साधना के परे, तुम कोई अन्य अलौकिक अवस्था, कोई विशेष आर्य ज्ञान-दर्शन प्राप्त कर, राहत से रहते हो?”
(६) “कैसे नहीं रहेंगे, भंते? ऐसा होता है, भंते, हम जब चाहे, अनन्त आकाश-आयाम पूर्णतः लाँघकर, ‘चैतन्य अनन्त है’ (देखते हुए) ‘अनन्त चैतन्य-आयाम’ में प्रवेश कर रहते हैं। इस तरह, भंते, हम अप्रमत्त, तत्पर और संकल्पबद्ध होकर विहार करते हुए, यह अलौकिक अवस्था, इस विशेष आर्य ज्ञान-दर्शन को प्राप्त कर, राहत से विहार करते हैं।”
“साधु, साधु, अनुरूद्धों। किन्तु, अनुरूद्धों, क्या इस साधना के परे, तुम कोई अन्य अलौकिक अवस्था, कोई विशेष आर्य ज्ञान-दर्शन प्राप्त कर, राहत से रहते हो?”
(७) “कैसे नहीं रहेंगे, भंते? ऐसा होता है, भंते, हम जब चाहे, अनन्त चैतन्य-आयाम पूर्णतः लाँघकर, ‘कुछ नहीं है’ (देखते हुए) ‘सूने-आयाम’ में प्रवेश कर रहते हैं। इस तरह, भंते, हम अप्रमत्त, तत्पर और संकल्पबद्ध होकर विहार करते हुए, यह अलौकिक अवस्था, इस विशेष आर्य ज्ञान-दर्शन को प्राप्त कर, राहत से विहार करते हैं।”
“साधु, साधु, अनुरूद्धों। किन्तु, अनुरूद्धों, क्या इस साधना के परे, तुम कोई अन्य अलौकिक अवस्था, कोई विशेष आर्य ज्ञान-दर्शन प्राप्त कर, राहत से रहते हो?”
(८) “कैसे नहीं रहेंगे, भंते? ऐसा होता है, भंते, हम जब चाहे, सूने-आयाम को पूर्णतः लाँघकर, न-संज्ञा-न-असंज्ञा आयाम में प्रवेश कर रहते हैं। इस तरह, भंते, हम अप्रमत्त, तत्पर और संकल्पबद्ध होकर विहार करते हुए, यह अलौकिक अवस्था, इस विशेष आर्य ज्ञान-दर्शन को प्राप्त कर, राहत से विहार करते हैं।”
“साधु, साधु, अनुरूद्धों। किन्तु, अनुरूद्धों, क्या इस साधना के परे, तुम कोई अन्य अलौकिक अवस्था, कोई विशेष आर्य ज्ञान-दर्शन प्राप्त कर, राहत से रहते हो?”
(९) “कैसे नहीं रहेंगे, भंते? ऐसा होता है, भंते, हम जब चाहे, न-संज्ञा-न-असंज्ञा आयाम को पूर्णतः लाँघकर, संज्ञा और अनुभूति के निरोध में प्रवेश कर रहते हैं। और प्रज्ञा से देखने पर हमारे आस्रव पूरी तरह खत्म हो चुके हैं। इस तरह, भंते, हम अप्रमत्त, तत्पर और संकल्पबद्ध होकर विहार करते हुए, यह अलौकिक अवस्था, इस विशेष आर्य ज्ञान-दर्शन को प्राप्त कर, राहत से विहार करते हैं। और, भंते, हमें इस राहतपूर्ण विहार से बेहतर और सूक्ष्मतर राहतपूर्ण विहार कोई अन्य दिखायी नहीं देता।”
“साधु, साधु, अनुरूद्धों। इस राहतपूर्ण विहार से बेहतर और सूक्ष्मतर राहतपूर्ण विहार कुछ नहीं है।”
तब भगवान ने आयुष्मान अनुरुद्ध, आयुष्मान नन्दिय, और आयुष्मान किमिल को धर्म-कथन से निर्देशित किया, उत्प्रेरित किया, उत्साहित किया, हर्षित किया, और आसन से उठकर चले गए।
आयुष्मान अनुरुद्ध, आयुष्मान नन्दिय, और आयुष्मान किमिल भगवान के पीछे साथ-साथ कुछ देर चलते रहें, फिर पलट गए। तब आयुष्मान नन्दिय और आयुष्मान किमिल ने आयुष्मान अनुरुद्ध से कहा, “क्या हमने कभी आयुष्मान अनुरुद्ध से ऐसा कहा हैं कि ‘हम इस-इस साधना और अवस्था-प्राप्ति (“समापत्ति”) के लाभी हैं?’ तब भला आयुष्मान अनुरुद्ध ने कैसे भगवान के सम्मुख हमारे आस्रव खत्म होने का खुलासा किया?” 3
“नहीं, आयुष्मानों ने कभी मुझे ऐसा नहीं कहा कि ‘हम इस-इस साधना और अवस्था-प्राप्ति के लाभी हैं।’ किन्तु मैंने आयुष्मानों के चित्त को अपना मानस फैलाकर जान लिया कि ‘ये आयुष्मान इस-इस साधना और अवस्था-प्राप्ति के लाभी हैं।’ और देवताओं ने भी मुझे सूचित किया, ‘ये आयुष्मान इस-इस साधना और अवस्था-प्राप्ति के लाभी हैं।’ तब भगवान के पूछने पर मैंने सीधा उत्तर दिया।”
तब, दीघ परजन यक्ष 4 भगवान के पास गया, और जाकर भगवान को अभिवादन कर एक ओर खड़ा हुआ। एक ओर खड़े होकर दीघ परजन यक्ष ने भगवान से कहा, “वज्जी लाभी है, भंते! वज्जी भाग्यशाली है, 5 जो तथागत अरहंत सम्मासम्बुद्ध यहाँ विहार करते हैं। और साथ ही, तीन कुलपुत्र — आयुष्मान अनुरुद्ध, आयुष्मान नन्दिय, और आयुष्मान किमिल भी!”
उसी क्षण, उसी पल, उसी मुहूर्त में वे आयुष्मानों की ख़बर ब्रह्मलोक तक फैल गयी।
(तब, भगवान ने कहा,) “ऐसा ही है, दीघ! ऐसा ही है! दीघ, —
देखो, दीघ, कैसे ये तीन कुलपुत्र बहुजनों के हित के लिए, बहुजनों के सुख के लिए, इस दुनिया पर उपकार करते हुए, देव और मानव के कल्याण, हित और सुख के लिए साधना कर रहे हैं!”
भगवान ने ऐसा कहा। हर्षित होकर दीघ परजन यक्ष ने भगवान की बात का अभिनंदन किया।
नातिका वज्जी देश का एक नगर था। भगवान बुद्ध के समय के पहले सिंधु घाटी सभ्यता में लगभग सभी घर, नालियाँ, रास्ते, और सम्पूर्ण नगर ईंटों से बने होते थे, जिसके अवशेष पुरातत्व खोज करते हुए प्राप्त हुए हैं। किन्तु, उसके पश्चात भगवान बुद्ध के समय लगभग सभी घर लकड़ी से ही बनने के उल्लेख मिलते हैं। हालाँकि विनयपिटक में एक जगह ईंट बनाने की चर्चा हुई, लेकिन यही एकमात्र सूत्र है, जिसमें ईंट से बने घर का उल्लेख हुआ है। ↩︎
पहले ऐसा प्रचलित था कि किसी समूह को उसके वरिष्ठ या अग्रिम नेता के नाम से पुकारा जाता है। इसलिए यहाँ भगवान इन तीनों को बहुवचनी अनुरूद्धों कहकर पुकारते हैं। ↩︎
इतने घनिष्ठ भिक्षु भी एक-दूसरे से अपनी प्राप्तियों का खुलासा नहीं करते थे, जो उनके चरित्र की गवाही देता है। यह एक महत्वपूर्ण संकेत है कि ऐसे सूक्ष्म विषयों के बारे में बात करते समय विवेक और गोपनीयता का पालन करना चाहिए। यह वे बातें नहीं हैं जिन्हें सामान्य बातचीत में उछाला जाए। ↩︎
परजन का सीधा अर्थ है — परायी दुनिया का। यानी दूसरे चक्रवाल से आया हुआ, एक तरह से एलियन। यह कोई अनोखी बात नहीं, क्योंकि महासमय सूत्र आदि सूत्रों में ऐसे अनेक देवताओं का उल्लेख आता हैं, जो दूसरी दुनियाओं से थे। कहीं-कहीं परजन का अर्थ “अपरिचित” बताया जाता है। लेकिन, यह अर्थ उपयुक्त नहीं लगता। क्योंकि दीघ परजन यक्ष ‘अपरिचित’ या गुमनाम नहीं, बल्कि एक प्रसिद्ध महायक्ष और महासेनापति था, जिसका उल्लेख दीघनिकाय ३२.१०.१८ में भी आता है, जहाँ भूतबाधा होने पर उसे भी पुकारा जाना चाहिए। इसलिए, दीघ परजन यक्ष का अर्थ है, ऐसा लंबा यक्ष, जो यहाँ का नहीं, बल्कि दूसरी दुनिया से है। यथार्थ चाहे जो भी हो, इतना स्पष्ट है कि उसकी एक घोषणा ने दुनिया के समस्त देवलोकों में खलबली मचा दी। ↩︎
वज्जी प्राचीन भारत के सोलह महाजनपदों में से एक गणतांत्रिक देश था, जिसकी राजधानी “वैशाली” होती थी। वैशाली ही महावीर जैन (“निगण्ठ नाटपुत्त”) का भी जन्मस्थल था। वज्जी में मुख्य रूप से लिच्छवि, विदेहा आदि क्षत्रिय कुलों का वर्चस्व था। लिच्छवि, विशेष रूप से, सबसे शक्तिशाली, सौंदर्यशाली, और सम्मानित कुल माने जाते थे। भगवान बुद्ध ने (महापरिनिर्वाण सूत्र में) वज्जी देश के लोगों की प्रशंसा की। वज्जी देश में कुछ परंपराओं को स्थापित करने का सुझाव, स्वयं भगवान बुद्ध ने ही दिया था। और उस कारण से उन्हें पराजित करना असंभव था। ↩︎
३२५. एवं मे सुतं – एकं समयं भगवा नातिके [नादिके (सी. स्या. पी.), ञातिके (क.)] विहरति गिञ्जकावसथे. तेन खो पन समयेन आयस्मा च अनुरुद्धो आयस्मा च नन्दियो आयस्मा च किमिलो [किम्बिलो (सी. पी. क.)] गोसिङ्गसालवनदाये विहरन्ति. अथ खो भगवा सायन्हसमयं पटिसल्लाना वुट्ठितो येन गोसिङ्गसालवनदायो तेनुपसङ्कमि. अद्दसा खो दायपालो भगवन्तं दूरतोव आगच्छन्तं. दिस्वान भगवन्तं एतदवोच – ‘‘मा, समण, एतं दायं पाविसि. सन्तेत्थ तयो कुलपुत्ता अत्तकामरूपा विहरन्ति. मा तेसं अफासुमकासी’’ति.
अस्सोसि खो आयस्मा अनुरुद्धो दायपालस्स भगवता सद्धिं मन्तयमानस्स. सुत्वान दायपालं एतदवोच – ‘‘मा, आवुसो दायपाल, भगवन्तं वारेसि. सत्था नो भगवा अनुप्पत्तो’’ति. अथ खो आयस्मा अनुरुद्धो येनायस्मा च नन्दियो आयस्मा च किमिलो तेनुपसङ्कमि; उपसङ्कमित्वा आयस्मन्तञ्च नन्दियं आयस्मन्तञ्च किमिलं एतदवोच – ‘‘अभिक्कमथायस्मन्तो, अभिक्कमथायस्मन्तो, सत्था नो भगवा अनुप्पत्तो’’ति. अथ खो आयस्मा च अनुरुद्धो आयस्मा च नन्दियो आयस्मा च किमिलो भगवन्तं पच्चुग्गन्त्वा – एको भगवतो पत्तचीवरं पटिग्गहेसि, एको आसनं पञ्ञपेसि, एको पादोदकं उपट्ठापेसि. निसीदि भगवा पञ्ञत्ते आसने. निसज्ज खो भगवा पादे पक्खालेसि. तेपि खो आयस्मन्तो भगवन्तं अभिवादेत्वा एकमन्तं निसीदिंसु. एकमन्तं निसिन्नं खो आयस्मन्तं अनुरुद्धं भगवा एतदवोच –
३२६. ‘‘कच्चि वो, अनुरुद्धा, खमनीयं, कच्चि यापनीयं, कच्चि पिण्डकेन न किलमथा’’ति ? ‘‘खमनीयं, भगवा, यापनीयं, भगवा; न च मयं, भन्ते, पिण्डकेन किलमामा’’ति. ‘‘कच्चि पन वो, अनुरुद्धा, समग्गा सम्मोदमाना अविवदमाना खीरोदकीभूता अञ्ञमञ्ञं पियचक्खूहि सम्पस्सन्ता विहरथा’’ति? ‘‘तग्घ मयं , भन्ते, समग्गा सम्मोदमाना अविवदमाना खीरोदकीभूता अञ्ञमञ्ञं पियचक्खूहि सम्पस्सन्ता विहरामा’’ति. ‘‘यथा कथं पन तुम्हे, अनुरुद्धा, समग्गा सम्मोदमाना अविवदमाना खीरोदकीभूता अञ्ञमञ्ञं पियचक्खूहि सम्पस्सन्ता विहरथा’’ति? ‘‘इध मय्हं, भन्ते, एवं होति – ‘लाभा वत मे, सुलद्धं वत मे, योहं एवरूपेहि सब्रह्मचारीहि सद्धिं विहरामी’ति. तस्स मय्हं, भन्ते, इमेसु आयस्मन्तेसु मेत्तं कायकम्मं पच्चुपट्ठितं आवि चेव रहो च; मेत्तं वचीकम्मं पच्चुपट्ठितं आवि चेव रहो च; मेत्तं मनोकम्मं पच्चुपट्ठितं आवि चेव रहो च. तस्स मय्हं, भन्ते, एवं होति – ‘यंनूनाहं सकं चित्तं निक्खिपित्वा इमेसंयेव आयस्मन्तानं चित्तस्स वसेन वत्तेय्य’न्ति. सो खो अहं, भन्ते, सकं चित्तं निक्खिपित्वा इमेसंयेव आयस्मन्तानं चित्तस्स वसेन वत्तामि. नाना हि खो नो, भन्ते, काया एकञ्च पन मञ्ञे चित्त’’न्ति.
आयस्मापि खो नन्दियो…पे… आयस्मापि खो किमिलो भगवन्तं एतदवोच – ‘‘मय्हम्पि, भन्ते, एवं होति – ‘लाभा वत मे, सुलद्धं वत मे, योहं एवरूपेहि सब्रह्मचारीहि सद्धिं विहरामी’ति. तस्स मय्हं, भन्ते, इमेसु आयस्मन्तेसु मेत्तं कायकम्मं पच्चुपट्ठितं आवि चेव रहो च, मेत्तं वचीकम्मं पच्चुपट्ठितं आवि चेव रहो च, मेत्तं मनोकम्मं पच्चुपट्ठितं आवि चेव रहो च. तस्स मय्हं, भन्ते, एवं होति – ‘यंनूनाहं सकं चित्तं निक्खिपित्वा इमेसंयेव आयस्मन्तानं चित्तस्स वसेन वत्तेय्य’न्ति. सो खो अहं, भन्ते, सकं चित्तं निक्खिपित्वा इमेसंयेव आयस्मन्तानं चित्तस्स वसेन वत्तामि. नाना हि खो नो, भन्ते, काया एकञ्च पन मञ्ञे चित्तन्ति.
‘‘एवं खो मयं, भन्ते, समग्गा सम्मोदमाना अविवदमाना खीरोदकीभूता अञ्ञमञ्ञं पियचक्खूहि सम्पस्सन्ता विहरामा’’ति.
३२७. ‘‘साधु साधु, अनुरुद्धा! कच्चि पन वो, अनुरुद्धा, अप्पमत्ता आतापिनो पहितत्ता विहरथा’’ति? ‘‘तग्घ मयं, भन्ते, अप्पमत्ता आतापिनो पहितत्ता विहरामा’’ति. ‘‘यथा कथं पन तुम्हे, अनुरुद्धा, अप्पमत्ता आतापिनो पहितत्ता विहरथा’’ति? ‘‘इध, भन्ते, अम्हाकं यो पठमं गामतो पिण्डाय पटिक्कमति सो आसनानि पञ्ञपेति, पानीयं परिभोजनीयं उपट्ठापेति, अवक्कारपातिं उपट्ठापेति. यो पच्छा गामतो पिण्डाय पटिक्कमति, सचे होति भुत्तावसेसो सचे आकङ्खति भुञ्जति, नो चे आकङ्खति अप्पहरिते वा छड्डेति, अप्पाणके वा उदके ओपिलापेति. सो आसनानि पटिसामेति, पानीयं परिभोजनीयं पटिसामेति, अवक्कारपातिं पटिसामेति, भत्तग्गं सम्मज्जति. यो पस्सति पानीयघटं वा परिभोजनीयघटं वा वच्चघटं वा रित्तं तुच्छं सो उपट्ठापेति. सचस्स होति अविसय्हं, हत्थविकारेन दुतियं आमन्तेत्वा हत्थविलङ्घकेन उपट्ठापेम, न त्वेव मयं, भन्ते, तप्पच्चया वाचं भिन्दाम. पञ्चाहिकं खो पन मयं, भन्ते, सब्बरत्तिकं धम्मिया कथाय सन्निसीदाम. एवं खो मयं, भन्ते, अप्पमत्ता आतापिनो पहितत्ता विहरामा’’ति.
३२८. ‘‘साधु साधु, अनुरुद्धा! अत्थि पन वो, अनुरुद्धा, एवं अप्पमत्तानं आतापीनं पहितत्तानं विहरन्तानं उत्तरिमनुस्सधम्मा अलमरियञाणदस्सनविसेसो अधिगतो फासुविहारो’’ति? ‘‘किञ्हि नो सिया, भन्ते! इध मयं, भन्ते, यावदेव आकङ्खाम विविच्चेव कामेहि विविच्च अकुसलेहि धम्मेहि सवितक्कं सविचारं विवेकजं पीतिसुखं पठमं झानं उपसम्पज्ज विहराम. अयं खो नो, भन्ते, अम्हाकं अप्पमत्तानं आतापीनं पहितत्तानं विहरन्तानं उत्तरिमनुस्सधम्मा अलमरियञाणदस्सनविसेसो अधिगतो फासुविहारो’’ति.
‘‘साधु साधु, अनुरुद्धा! एतस्स पन वो, अनुरुद्धा, विहारस्स समतिक्कमाय एतस्स विहारस्स पटिप्पस्सद्धिया अत्थञ्ञो उत्तरिमनुस्सधम्मा अलमरियञाणदस्सनविसेसो अधिगतो फासुविहारो’’ति? ‘‘किञ्हि नो सिया, भन्ते! इध मयं, भन्ते, यावदेव आकङ्खाम वितक्कविचारानं वूपसमा अज्झत्तं सम्पसादनं चेतसो एकोदिभावं अवितक्कं अविचारं समाधिजं पीतिसुखं दुतियं झानं उपसम्पज्ज विहराम. एतस्स, भन्ते, विहारस्स समतिक्कमाय एतस्स विहारस्स पटिप्पस्सद्धिया अयमञ्ञो उत्तरिमनुस्सधम्मा अलमरियञाणदस्सनविसेसो अधिगतो फासुविहारो’’ति.
‘‘साधु साधु, अनुरुद्धा! एतस्स पन वो, अनुरुद्धा, विहारस्स समतिक्कमाय एतस्स विहारस्स पटिप्पस्सद्धिया अत्थञ्ञो उत्तरिमनुस्सधम्मा अलमरियञाणदस्सनविसेसो अधिगतो फासुविहारो’’ति? ‘‘किञ्हि नो सिया, भन्ते! इध मयं, भन्ते, यावदेव आकङ्खाम पीतिया च विरागा उपेक्खका च विहराम, सता च सम्पजाना, सुखञ्च कायेन पटिसंवेदेम, यं तं अरिया आचिक्खन्ति – ‘उपेक्खको सतिमा सुखविहारी’ति ततियं झानं उपसम्पज्ज विहराम. एतस्स, भन्ते, विहारस्स समतिक्कमाय एतस्स विहारस्स पटिप्पस्सद्धिया अयमञ्ञो उत्तरिमनुस्सधम्मा अलमरियञाणदस्सनविसेसो अधिगतो फासुविहारो’’ति.
‘‘साधु साधु, अनुरुद्धा! एतस्स पन वो, अनुरुद्धा, विहारस्स समतिक्कमाय एतस्स विहारस्स पटिप्पस्सद्धिया अत्थञ्ञो उत्तरिमनुस्सधम्मा अलमरियञाणदस्सनविसेसो अधिगतो फासुविहारो’’ति ? ‘‘किञ्हि नो सिया, भन्ते! इध मयं, भन्ते, यावदेव आकङ्खाम सुखस्स च पहाना दुक्खस्स च पहाना, पुब्बेव सोमनस्सदोमनस्सानं अत्थङ्गमा, अदुक्खमसुखं उपेक्खासतिपारिसुद्धिं चतुत्थं झानं उपसम्पज्ज विहराम. एतस्स, भन्ते, विहारस्स समतिक्कमाय एतस्स विहारस्स पटिप्पस्सद्धिया अयमञ्ञो उत्तरि मनुस्सधम्मा अलमरियञाणदस्सनविसेसो अधिगतो फासुविहारो’’ति.
‘‘साधु साधु, अनुरुद्धा! एतस्स पन वो, अनुरुद्धा, विहारस्स समतिक्कमाय एतस्स विहारस्स पटिप्पस्सद्धिया अत्थञ्ञो उत्तरिमनुस्सधम्मा अलमरियञाणदस्सनविसेसो अधिगतो फासुविहारो’’ति? ‘‘किञ्हि नो सिया, भन्ते! इध मयं, भन्ते, यावदेव आकङ्खाम सब्बसो रूपसञ्ञानं समतिक्कमा पटिघसञ्ञानं अत्थङ्गमा नानत्तसञ्ञानं अमनसिकारा ‘अनन्तो आकासो’ति आकासानञ्चायतनं उपसम्पज्ज विहराम. एतस्स, भन्ते, विहारस्स समतिक्कमाय एतस्स विहारस्स पटिप्पस्सद्धिया अयमञ्ञो उत्तरिमनुस्सधम्मा अलमरियञाणदस्सनविसेसो अधिगतो फासुविहारो’’ति.
‘‘साधु साधु, अनुरुद्धा! एतस्स पन वो, अनुरुद्धा, विहारस्स समतिक्कमाय एतस्स विहारस्स पटिप्पस्सद्धिया अत्थञ्ञो उत्तरिमनुस्सधम्मा अलमरियञाणदस्सनविसेसो अधिगतो फासुविहारो’’ति? ‘‘किञ्हि नो सिया, भन्ते! इध मयं, भन्ते, यावदेव आकङ्खाम सब्बसो आकासानञ्चायतनं समतिक्कम्म ‘अनन्तं विञ्ञाण’न्ति विञ्ञाणञ्चायतनं उपसम्पज्ज विहराम…पे… सब्बसो विञ्ञाणञ्चायतनं समतिक्कम्म ‘नत्थि किञ्ची’ति आकिञ्चञ्ञायतनं उपसम्पज्ज विहराम…पे… सब्बसो आकिञ्चञ्ञायतनं समतिक्कम्म नेवसञ्ञानासञ्ञायतनं उपसम्पज्ज विहराम. एतस्स, भन्ते, विहारस्स समतिक्कमाय एतस्स विहारस्स पटिप्पस्सद्धिया अयमञ्ञो उत्तरिमनुस्सधम्मा अलमरियञाणदस्सनविसेसो अधिगतो फासुविहारो’’ति.
३२९. ‘‘साधु साधु, अनुरुद्धा! एतस्स पन वो, अनुरुद्धा, विहारस्स समतिक्कमाय एतस्स विहारस्स पटिप्पस्सद्धिया अत्थञ्ञो उत्तरिमनुस्सधम्मा अलमरियञाणदस्सनविसेसो अधिगतो फासुविहारो’’ति? ‘‘किञ्हि नो सिया, भन्ते! इध मयं, भन्ते, यावदेव आकङ्खाम सब्बसो नेवसञ्ञानासञ्ञायतनं समतिक्कम्म सञ्ञावेदयितनिरोधं उपसम्पज्ज विहराम, पञ्ञाय च नो दिस्वा आसवा परिक्खीणा. एतस्स, भन्ते, विहारस्स समतिक्कमाय एतस्स विहारस्स पटिप्पस्सद्धिया अयमञ्ञो उत्तरिमनुस्सधम्मा अलमरियञाणदस्सनविसेसो अधिगतो फासुविहारो. इमम्हा च मयं, भन्ते, फासुविहारा अञ्ञं फासुविहारं उत्तरितरं वा पणीततरं वा न समनुपस्सामा’’ति. ‘‘साधु साधु, अनुरुद्धा! इमम्हा फासुविहारा उत्तरितरो वा पणीततरो वा फासुविहारो नत्थी’’ति.
३३०. अथ खो भगवा आयस्मन्तञ्च अनुरुद्धं आयस्मन्तञ्च नन्दियं आयस्मन्तञ्च किमिलं धम्मिया कथाय सन्दस्सेत्वा समादपेत्वा समुत्तेजेत्वा सम्पहंसेत्वा उट्ठायासना पक्कामि. अथ खो आयस्मा च अनुरुद्धो आयस्मा च नन्दियो आयस्मा च किमिलो भगवन्तं अनुसंयायित्वा [अनुसंसावेत्वा (सी.), अनुसावेत्वा (टीका)] ततो पटिनिवत्तित्वा आयस्मा च नन्दियो आयस्मा च किमिलो आयस्मन्तं अनुरुद्धं एतदवोचुं – ‘‘किं नु खो मयं आयस्मतो अनुरुद्धस्स एवमारोचिम्ह – ‘इमासञ्च इमासञ्च विहारसमापत्तीनं मयं लाभिनो’ति, यं नो आयस्मा अनुरुद्धो भगवतो सम्मुखा याव आसवानं खया पकासेती’’ति? ‘‘न खो मे आयस्मन्तो एवमारोचेसुं – ‘इमासञ्च इमासञ्च विहारसमापत्तीनं मयं लाभिनो’ति, अपि च मे आयस्मन्तानं चेतसा चेतो परिच्च विदितो – ‘इमासञ्च इमासञ्च विहारसमापत्तीनं इमे आयस्मन्तो लाभिनो’ति. देवतापि मे एतमत्थं आरोचेसुं – ‘इमासञ्च इमासञ्च विहारसमापत्तीनं इमे आयस्मन्तो लाभिनो’ति. तमेनं भगवता पञ्हाभिपुट्ठेन ब्याकत’’न्ति.
३३१. अथ खो दीघो परजनो यक्खो येन भगवा तेनुपसङ्कमि; उपसङ्कमित्वा भगवन्तं अभिवादेत्वा एकमन्तं अट्ठासि. एकमन्तं ठितो खो दीघो परजनो यक्खो भगवन्तं एतदवोच – ‘‘लाभा वत, भन्ते, वज्जीनं, सुलद्धलाभा वज्जिपजाय, यत्थ तथागतो विहरति अरहं सम्मासम्बुद्धो, इमे च तयो कुलपुत्ता – आयस्मा च अनुरुद्धो, आयस्मा च नन्दियो, आयस्मा च किमिलो’’ति. दीघस्स परजनस्स यक्खस्स सद्दं सुत्वा भुम्मा देवा सद्दमनुस्सावेसुं – ‘लाभा वत, भो, वज्जीनं, सुलद्धलाभा वज्जिपजाय, यत्थ तथागतो विहरति अरहं सम्मासम्बुद्धो, इमे च तयो कुलपुत्ता – आयस्मा च अनुरुद्धो, आयस्मा च नन्दियो, आयस्मा च किमिलो’ति. भुम्मानं देवानं सद्दं सुत्वा चातुमहाराजिका देवा…पे… तावतिंसा देवा…पे… यामा देवा…पे… तुसिता देवा…पे… निम्मानरती देवा…पे… परनिम्मितवसवत्ती देवा…पे… ब्रह्मकायिका देवा सद्दमनुस्सावेसुं – ‘‘लाभा वत, भो, वज्जीनं, सुलद्धलाभा वज्जिपजाय, यत्थ तथागतो विहरति अरहं सम्मासम्बुद्धो, इमे च तयो कुलपुत्ता – आयस्मा च अनुरुद्धो, आयस्मा च नन्दियो, आयस्मा च किमिलो’’ति. इतिह ते आयस्मन्तो तेन खणेन (तेन लयेन) [( ) सी. स्या. पी. पोत्थकेसु नत्थि] तेन मुहुत्तेन यावब्रह्मलोका विदिता [संविदिता (क.)] अहेसुं.
‘‘एवमेतं, दीघ, एवमेतं, दीघ! यस्मापि, दीघ, कुला एते तयो कुलपुत्ता अगारस्मा अनगारियं पब्बजिता, तञ्चेपि कुलं एते तयो कुलपुत्ते पसन्नचित्तं अनुस्सरेय्य, तस्सपास्स कुलस्स दीघरत्तं हिताय सुखाय. यस्मापि, दीघ, कुलपरिवट्टा एते तयो कुलपुत्ता अगारस्मा अनगारियं पब्बजिता, सो चेपि कुलपरिवट्टो एते तयो कुलपुत्ते पसन्नचित्तो अनुस्सरेय्य, तस्सपास्स कुलपरिवट्टस्स दीघरत्तं हिताय सुखाय. यस्मापि, दीघ, गामा एते तयो कुलपुत्ता अगारस्मा अनगारियं पब्बजिता, सो चेपि गामो एते तयो कुलपुत्ते पसन्नचित्तो अनुस्सरेय्य, तस्सपास्स गामस्स दीघरत्तं हिताय सुखाय. यस्मापि, दीघ, निगमा एते तयो कुलपुत्ता अगारस्मा अनगारियं पब्बजिता, सो चेपि निगमो एते तयो कुलपुत्ते पसन्नचित्तो अनुस्सरेय्य, तस्सपास्स निगमस्स दीघरत्तं हिताय सुखाय. यस्मापि, दीघ, नगरा एते तयो कुलपुत्ता अगारस्मा अनगारियं पब्बजिता, तञ्चेपि नगरं एते तयो कुलपुत्ते पसन्नचित्तं अनुस्सरेय्य, तस्सपास्स नगरस्स दीघरत्तं हिताय सुखाय. यस्मापि, दीघ, जनपदा एते तयो कुलपुत्ता अगारस्मा अनगारियं पब्बजिता, सो चेपि जनपदो एते तयो कुलपुत्ते पसन्नचित्तो अनुस्सरेय्य, तस्सपास्स जनपदस्स दीघरत्तं हिताय सुखाय. सब्बे चेपि, दीघ, खत्तिया एते तयो कुलपुत्ते पसन्नचित्ता अनुस्सरेय्युं, सब्बेसानंपास्स खत्तियानं दीघरत्तं हिताय सुखाय. सब्बे चेपि, दीघ, ब्राह्मणा…पे… सब्बे चेपि, दीघ, वेस्सा…पे… सब्बे चेपि, दीघ, सुद्दा एते तयो कुलपुत्ते पसन्नचित्ता अनुस्सरेय्युं, सब्बेसानंपास्स सुद्दानं दीघरत्तं हिताय सुखाय. सदेवको चेपि, दीघ, लोको समारको सब्रह्मको सस्समणब्राह्मणी पजा सदेवमनुस्सा एते तयो कुलपुत्ते पसन्नचित्ता अनुस्सरेय्य, सदेवकस्सपास्स लोकस्स समारकस्स सब्रह्मकस्स सस्समणब्राह्मणिया पजाय सदेवमनुस्साय दीघरत्तं हिताय सुखाय. पस्स, दीघ, याव एते तयो कुलपुत्ता बहुजनहिताय पटिपन्ना बहुजनसुखाय लोकानुकम्पाय, अत्थाय हिताय सुखाय देवमनुस्सान’’न्ति.
इदमवोच भगवा. अत्तमनो दीघो परजनो यक्खो भगवतो भासितं अभिनन्दीति.
चूळगोसिङ्गसुत्तं निट्ठितं पठमं.