नमो तस्स भगवतो अरहतो सम्मा-सम्बुद्धस्स

📜 शोभायमान भिक्षु

✦ ॥ नमो तस्स भगवतो अरहतो सम्मासम्बुद्धस्स ॥ ✦

Hindi

ऐसा मैंने सुना — एक समय गोसिङ्ग शालवन में बहुत से प्रसिद्ध प्रसिद्ध वरिष्ठ श्रावकों के साथ विहार कर रहे थे — जैसे, आयुष्मान सारिपुत्त, आयुष्मान महामोग्गल्लान, आयुष्मान महाकश्यप, आयुष्मान अनुरुद्ध, आयुष्मान रेवत, आयुष्मान आनन्द, और अन्य बहुत से प्रसिद्ध प्रसिद्ध वरिष्ठ श्रावक।

तब सायंकाल होने पर, आयुष्मान महामोग्गल्लान एकांतवास से निकल कर आयुष्मान महाकश्यप के पास गए। जाकर आयुष्मान महाकश्यप से कहा, “आओ, मित्र, आयुष्मान सारिपुत्त के पास धर्म सुनने के लिए चलें।”

“ठीक है, मित्र।” आयुष्मान महाकश्यप ने आयुष्मान महामोग्गल्लान को उत्तर दिया। तब आयुष्मान महामोग्गल्लान, आयुष्मान महाकश्यप और आयुष्मान अनुरुद्ध, आयुष्मान सारिपुत्त के पास धर्म सुनने के लिए गए।

तब आयुष्मान आनन्द ने आयुष्मान महामोग्गल्लान, आयुष्मान महाकश्यप और आयुष्मान अनुरुद्ध को आयुष्मान सारिपुत्त के पास धर्म सुनने के लिए जाते हुए देखा। देखकर वे आयुष्मान रेवत के पास गए। जाकर आयुष्मान रेवत से कहा, “अमुक-अमुक सत्पुरुष, मित्र रेवत, आयुष्मान सारिपुत्त के पास धर्म सुनने के लिए जा रहे हैं। आओ, मित्र, हम भी आयुष्मान सारिपुत्त के पास धर्म सुनने के लिए चलें।”

“ठीक है, मित्र।” आयुष्मान रेवत ने आयुष्मान आनन्द को उत्तर दिया। तब आयुष्मान रेवत और आयुष्मान आनन्द भी आयुष्मान सारिपुत्त के पास धर्म सुनने के लिए गए।

आनन्द भंते

तब, आयुष्मान सारिपुत्त ने आयुष्मान रेवत और आयुष्मान आनन्द को दूर से आते हुए देखा। देखकर आयुष्मान आनन्द से कहा, “आईयें, मित्र आनन्द। स्वागत है, आयुष्मान आनन्द, भगवान के सेवक, जो भगवान के पास रहते हैं। मित्र आनन्द, गोसिङ्ग शालवन रमणीय है, उजली रात है, सभी शाल वृक्ष फल-फूल रहे हैं, मानो दिव्य गंध फैली हुई है। ऐसे में, मित्र आनन्द, किस तरह का भिक्षु इस गोसिङ्ग शालवन को शोभित करेगा?”

“मित्र सारिपुत्त, कोई भिक्षु बहुत धर्म सुनता है, सुना हुआ धारण करता है, सुना हुआ संचय करता है। ऐसा धर्म, जो प्रारंभ में कल्याणकारी, मध्य में कल्याणकारी, और अन्त में कल्याणकारी हो, ऐसे सर्वपरिपूर्ण, परिशुद्ध ‘ब्रह्मचर्य’ को वह अर्थ और विवरण के साथ बार-बार सुनता है, याद रखता है, चर्चा करता है, संचित करता है, मन से जाँच-पड़ताल करता है, और गहराई से समझकर सम्यकदृष्टि धारण करता है।

और तब, वह चार परिषदों 1 में धर्म देशना देता है — सटीक शब्द व अलंकारों से सुसज्जित, सुसंगत, अनुशय को उखाड़ने वाला। इस तरह का भिक्षु, मित्र सारिपुत्त, गोसिङ्ग शालवन को शोभित करेगा।”

रेवत भंते

जब ऐसा कहा गया, तब आयुष्मान सारिपुत्त ने आयुष्मान रेवत से कहा, “मित्र रेवत, आयुष्मान आनन्द ने अपनी बौद्धिक क्षमता के अनुसार उत्तर दिया। अब मैं आयुष्मान रेवत से पूछता हूँ — ‘गोसिङ्ग शालवन रमणीय है, उजली रात है, सभी शाल वृक्ष फल-फूल रहे हैं, मानो दिव्य गंध फैली हुई है। ऐसे में, मित्र रेवत, किस तरह का भिक्षु इस गोसिङ्ग शालवन को शोभित करेगा?’”

“मित्र सारिपुत्त, कोई भिक्षु एकांतप्रेमी होता है, एकांतवास में रमता है। वह ध्यान-अवस्था को नजरंदाज न कर, भीतर चित्त की स्थिर निश्चलता (“चेतोसमथ”) के प्रति संकल्पबद्ध, अंतर्दृष्टि (“विपस्सना”) से संपन्न होकर, शून्यागार (=निर्जन स्थल) जाते रहता है। इस तरह का भिक्षु, मित्र सारिपुत्त, गोसिङ्ग शालवन को शोभित करेगा।”

अनुरुद्ध भंते

जब ऐसा कहा गया, तब आयुष्मान सारिपुत्त ने आयुष्मान अनुरुद्ध से कहा, “मित्र अनुरुद्ध, आयुष्मान रेवत ने अपनी बौद्धिक क्षमता के अनुसार उत्तर दिया। अब मैं आयुष्मान अनुरुद्ध से पूछता हूँ — ‘गोसिङ्ग शालवन रमणीय है, उजली रात है, सभी शाल वृक्ष फल-फूल रहे हैं, मानो दिव्य गंध फैली हुई है। ऐसे में, मित्र अनुरुद्ध, किस तरह का भिक्षु इस गोसिङ्ग शालवन को शोभित करेगा?’”

“मित्र सारिपुत्त, कोई भिक्षु अपने विशुद्ध हुए दिव्यचक्षु से मनुष्यों से परे हजारों दुनियाओं का अवलोकन करता है। जैसे, मित्र सारिपुत्त, कोई अच्छी आँखों वाला पुरुष, महल के ऊपर हजार नेमि वाले मण्डल (=पहिया या चक्र) का अवलोकन करता है।

उसी तरह, मित्र सारिपुत्त, कोई भिक्षु अपने विशुद्ध हुए दिव्यचक्षु से, मनुष्यों से परे, हजारों दुनियाओं का अवलोकन करता है। इस तरह का भिक्षु, मित्र सारिपुत्त, गोसिङ्ग शालवन को शोभित करेगा।”

महाकश्यप भंते

जब ऐसा कहा गया, तब आयुष्मान सारिपुत्त ने आयुष्मान महाकश्यप से कहा, “मित्र महाकश्यप, आयुष्मान अनुरुद्ध ने अपनी बौद्धिक क्षमता के अनुसार उत्तर दिया। अब मैं आयुष्मान महाकश्यप से पूछता हूँ — ‘गोसिङ्ग शालवन रमणीय है, उजली रात है, सभी शाल वृक्ष फल-फूल रहे हैं, मानो दिव्य गंध फैली हुई है। ऐसे में, मित्र महाकश्यप, किस तरह का भिक्षु इस गोसिङ्ग शालवन को शोभित करेगा?’”

“मित्र सारिपुत्त, कोई भिक्षु —

  • स्वयं अरण्यवासी होता है, और अरण्यवास की प्रशंसा करता है 2,
  • स्वयं पिण्डपातिक (=केवल भिक्षाटन पर निर्भर, आमंत्रण न लेना) होता है, और पिण्डपातिक होने की प्रशंसा करता है,
  • स्वयं पंसुकूलिक (=केवल फेंके वस्त्रों से सिला चीवर पहनना) होता है, और पंसुकूलिक होने की प्रशंसा करता है,
  • स्वयं तेचीवरिक (=केवल तीन वस्त्र एक संघाटि, एक उत्तरासङ्ग, और एक अंतर्वासक रखने वाला) होता है, और तेचीवरिक होने की प्रशंसा करता है,
  • स्वयं अल्पेच्छुक (=कम इच्छाओं वाला) होता है, और अल्पेच्छुक होने की प्रशंसा करता है,
  • स्वयं संतुष्ट (=जो मिला उसमें खुश) होता है, और संतुष्ट होने की प्रशंसा करता है,
  • स्वयं निर्लिप्त होता है, और निर्लिप्त-एकांतवास होने की प्रशंसा करता है,
  • स्वयं एकाचारी होता है, और लोगों से न जुड़ने की प्रशंसा करता है,
  • स्वयं ऊर्जावान होता है, और ऊर्जा जागृत करने की प्रशंसा करता है,
  • स्वयं शील संपन्न होता है, और शील संपदा की प्रशंसा करता है,
  • स्वयं समाधि संपन्न होता है, और समाधि संपदा की प्रशंसा करता है,
  • स्वयं प्रज्ञा संपन्न होता है, और प्रज्ञा संपदा की प्रशंसा करता है,
  • स्वयं विमुक्ति संपन्न होता है, और विमुक्ति संपदा की प्रशंसा करता है,
  • स्वयं विमुक्ति ज्ञान-दर्शन संपन्न होता है, और विमुक्ति ज्ञान-दर्शन संपदा की प्रशंसा करता है।

— इस तरह का भिक्षु, मित्र सारिपुत्त, गोसिङ्ग शालवन को शोभित करेगा।”

महामोग्गल्लान भंते

जब ऐसा कहा गया, तब आयुष्मान सारिपुत्त ने आयुष्मान महामोग्गल्लान से कहा, “मित्र महामोग्गल्लान, आयुष्मान महाकश्यप ने अपनी बौद्धिक क्षमता के अनुसार उत्तर दिया। अब मैं आयुष्मान महामोग्गल्लान से पूछता हूँ — ‘गोसिङ्ग शालवन रमणीय है, उजली रात है, सभी शाल वृक्ष फल-फूल रहे हैं, मानो दिव्य गंध फैली हुई है। ऐसे में, मित्र महामोग्गल्लान, किस तरह का भिक्षु इस गोसिङ्ग शालवन को शोभित करेगा?’”

“मित्र सारिपुत्त, जब दो भिक्षु गहरे धर्म पर चर्चा करते हैं, एक दूसरे से प्रश्न पूछते हैं, एक दूसरे के प्रश्नों पर जवाब देते हैं, हड़बड़ाते नहीं है, और धर्मचर्चा यूँ बहती रहती है। 3 इस तरह के भिक्षु, मित्र सारिपुत्त, गोसिङ्ग शालवन को शोभित करेंगे।”

सारिपुत्त भंते

तब आयुष्मान महामोग्गल्लान ने आयुष्मान सारिपुत्त से कहा, “मित्र सारिपुत्त, हम सभी ने अपनी बौद्धिक क्षमता के अनुसार उत्तर दे दिया। अब हम आयुष्मान सारिपुत्त से पूछते हैं — ‘गोसिङ्ग शालवन रमणीय है, उजली रात है, सभी शाल वृक्ष फल-फूल रहे हैं, मानो दिव्य गंध फैली हुई है। ऐसे में, मित्र सारिपुत्त, किस तरह का भिक्षु इस गोसिङ्ग शालवन को शोभित करेगा?’”

“मित्र मोग्गल्लान, कोई भिक्षु चित्त को वश करता है, चित्त के वश नहीं चला जाता। सुबह के समय, वह (साधना के माध्यम से) जिस अवस्था प्राप्ति (“विहारसमापत्ति”) में रहना चाहे, उस अवस्था प्राप्ति में विहार करता है। दोपहर के समय, वह जिस अवस्था प्राप्ति में रहना चाहे, उस अवस्था प्राप्ति में विहार करता है। सायंकाल के समय, वह जिस अवस्था प्राप्ति में रहना चाहे, उस अवस्था प्राप्ति में विहार करता है। 4

जैसे, मित्र मोग्गल्लान, किसी राजा या राज महामंत्री के पास अलमारी भर कर रंग-बिरंगी वस्त्र हो। सुबह होने पर, वह जिस वस्त्र को चाहे, उस वस्त्र को परिधान करता है। दोपहर होने पर, वह जिस वस्त्र को चाहे, उस वस्त्र को परिधान करता है। सायंकाल होने पर, वह जिस वस्त्र को चाहे, उस वस्त्र को परिधान करता है।

उसी तरह, मित्र मोग्गल्लान, कोई भिक्षु चित्त को वश करता है, चित्त के वश नहीं चला जाता। सुबह के समय, वह जिस अवस्था प्राप्ति में रहना चाहे, उस अवस्था प्राप्ति में विहार करता है। दोपहर के समय, वह जिस अवस्था प्राप्ति में रहना चाहे, उस अवस्था प्राप्ति में विहार करता है। सायंकाल के समय, वह जिस अवस्था प्राप्ति में रहना चाहे, उस अवस्था प्राप्ति में विहार करता है।

— इस तरह का भिक्षु, मित्र सारिपुत्त, गोसिङ्ग शालवन को शोभित करेगा।”

भगवान से पूछना

तब, आयुष्मान सारिपुत्त ने आयुष्मानों से कहा, “मित्रों, हम सभी ने अपनी बौद्धिक क्षमता के अनुसार उत्तर दिया। आओ, मित्रों, अब भगवान के पास जाए। और जाकर भगवान को यह बताए। भगवान जैसा उत्तर देंगे, उसी तरह हम धारण करेंगे।”

“ठीक है, मित्र।” आयुष्मानों ने आयुष्मान सारिपुत्त को उत्तर दिया। तब सभी आयुष्मान भगवान के पास गए। जाकर भगवान को अभिवादन कर एक ओर बैठ गए। एक ओर बैठकर आयुष्मान सारिपुत्त ने भगवान से कहा —

आनन्द

“भंते, आयुष्मान रेवत और आयुष्मान आनन्द मेरे पास धर्म सुनने के लिए आ रहे थे। मैंने आयुष्मान रेवत और आयुष्मान आनन्द को दूर से आते हुए देखा। देखकर आयुष्मान आनन्द से कहा, “आईयें, मित्र आनन्द। स्वागत है, आयुष्मान आनन्द, भगवान के सेवक, जो भगवान के पास रहते हैं। मित्र आनन्द, गोसिङ्ग शालवन रमणीय है, उजली रात है, सभी शाल वृक्ष फल-फूल रहे हैं, मानो दिव्य गंध फैली हुई है। ऐसे में, मित्र आनन्द, किस तरह का भिक्षु इस गोसिङ्ग शालवन को शोभित करेगा?”

ऐसा कहे जाने पर, भंते, आयुष्मान आनन्द ने कहा, “मित्र सारिपुत्त, कोई भिक्षु बहुत धर्म सुनता है, सुना हुआ धारण करता है, सुना हुआ संचय करता है। ऐसा धर्म, जो प्रारंभ में कल्याणकारी, मध्य में कल्याणकारी, और अन्त में कल्याणकारी हो, ऐसे सर्वपरिपूर्ण, परिशुद्ध ‘ब्रह्मचर्य’ को वह अर्थ और विवरण के साथ बार-बार सुनता है, याद रखता है, चर्चा करता है, संचित करता है, मन से जाँच-पड़ताल करता है, और गहराई से समझकर सम्यकदृष्टि धारण करता है। और तब, वह चार परिषदों में धर्म देशना देता है — सटीक शब्द व अलंकारों से सुसज्जित, सुसंगत, अनुशय को उखाड़ने वाला। इस तरह का भिक्षु, मित्र सारिपुत्त, गोसिङ्ग शालवन को शोभित करेगा।””

भगवान ने कहा, “साधु, साधु, सारिपुत्त। आनन्द को जैसे सम्यक उत्तर देना चाहिए, उसी तरह उत्तर दिया है। क्योंकि, सारिपुत्त, आनन्द बहुत धर्म सुनता है, सुना हुआ धारण करता है, सुना हुआ संचय करता है। ऐसा धर्म, जो प्रारंभ में कल्याणकारी, मध्य में कल्याणकारी, और अन्त में कल्याणकारी हो, ऐसे सर्वपरिपूर्ण, परिशुद्ध ‘ब्रह्मचर्य’ को वह अर्थ और विवरण के साथ बार-बार सुनता है, याद रखता है, चर्चा करता है, संचित करता है, मन से जाँच-पड़ताल करता है, और गहराई से समझकर सम्यकदृष्टि धारण करता है। और तब, वह चार परिषदों में धर्म देशना देता है — सटीक शब्द व अलंकारों से सुसज्जित, सुसंगत, अनुशय को उखाड़ने वाला।”

रेवत

तब, आयुष्मान सारिपुत्त ने भगवान से कहा, “भंते, जब ऐसा कहा गया, तब मैंने आयुष्मान रेवत से कहा, “मित्र रेवत, आयुष्मान आनन्द ने अपनी बौद्धिक क्षमता के अनुसार उत्तर दिया। अब मैं आयुष्मान रेवत से पूछता हूँ — ‘गोसिङ्ग शालवन रमणीय है, उजली रात है, सभी शाल वृक्ष फल-फूल रहे हैं, मानो दिव्य गंध फैली हुई है। ऐसे में, मित्र रेवत, किस तरह का भिक्षु इस गोसिङ्ग शालवन को शोभित करेगा?’”

ऐसा कहे जाने पर, भंते, आयुष्मान रेवत ने कहा, “मित्र सारिपुत्त, कोई भिक्षु एकांतप्रेमी होता है, एकांतवास में रमता है। वह ध्यान-अवस्था को नजरंदाज न कर, भीतर चित्त की स्थिर निश्चलता के प्रति संकल्पबद्ध, अंतर्दृष्टि से संपन्न होकर, शून्यागार जाते रहता है। इस तरह का भिक्षु, मित्र सारिपुत्त, गोसिङ्ग शालवन को शोभित करेगा।””

भगवान ने कहा, “साधु, साधु, सारिपुत्त। रेवत को जैसे सम्यक उत्तर देना चाहिए, उसी तरह उत्तर दिया है। क्योंकि, सारिपुत्त, रेवत एकांतप्रेमी है, एकांतवास में रमता है। वह ध्यान-अवस्था को नजरंदाज न कर, भीतर चित्त की स्थिर निश्चलता के प्रति संकल्पबद्ध, अंतर्दृष्टि से संपन्न होकर, शून्यागार जाते रहता है।”

अनुरुद्ध

तब, आयुष्मान सारिपुत्त ने भगवान से कहा, “भंते, जब ऐसा कहा गया, तब मैंने आयुष्मान अनुरुद्ध से कहा, “मित्र अनुरुद्ध, आयुष्मान रेवत ने अपनी बौद्धिक क्षमता के अनुसार उत्तर दिया। अब मैं आयुष्मान अनुरुद्ध से पूछता हूँ — ‘गोसिङ्ग शालवन रमणीय है, उजली रात है, सभी शाल वृक्ष फल-फूल रहे हैं, मानो दिव्य गंध फैली हुई है। ऐसे में, मित्र अनुरुद्ध, किस तरह का भिक्षु इस गोसिङ्ग शालवन को शोभित करेगा?’”

ऐसा कहे जाने पर, भंते, आयुष्मान अनुरुद्ध ने कहा, “मित्र सारिपुत्त, कोई भिक्षु अपने विशुद्ध हुए दिव्यचक्षु से मनुष्यों से परे हजारों दुनियाओं का अवलोकन करता है। जैसे, मित्र सारिपुत्त, कोई अच्छी आँखों वाला पुरुष, महल के ऊपर हजार नेमि वाले मण्डल का अवलोकन करता है। उसी तरह, मित्र सारिपुत्त, कोई भिक्षु अपने विशुद्ध हुए दिव्यचक्षु से, मनुष्यों से परे, हजारों दुनियाओं का अवलोकन करता है।””

भगवान ने कहा, “साधु, साधु, सारिपुत्त। अनुरुद्ध को जैसे सम्यक उत्तर देना चाहिए, उसी तरह उत्तर दिया है। क्योंकि, सारिपुत्त, अनुरुद्ध अपने विशुद्ध हुए दिव्यचक्षु से मनुष्यों से परे हजारों दुनियाओं का अवलोकन करता है।”

महाकश्यप

तब, आयुष्मान सारिपुत्त ने भगवान से कहा, “भंते, जब ऐसा कहा गया, तब मैंने आयुष्मान महाकश्यप से कहा, “मित्र महाकश्यप, आयुष्मान अनुरुद्ध ने अपनी बौद्धिक क्षमता के अनुसार उत्तर दिया। अब मैं आयुष्मान महाकश्यप से पूछता हूँ — ‘गोसिङ्ग शालवन रमणीय है, उजली रात है, सभी शाल वृक्ष फल-फूल रहे हैं, मानो दिव्य गंध फैली हुई है। ऐसे में, मित्र महाकश्यप, किस तरह का भिक्षु इस गोसिङ्ग शालवन को शोभित करेगा?’”

ऐसा कहे जाने पर, भंते, आयुष्मान महाकश्यप ने कहा, “मित्र सारिपुत्त, कोई भिक्षु —

  • स्वयं अरण्यवासी होता है, और अरण्यवास की प्रशंसा करता है,
  • स्वयं पिण्डपातिक होता है, और पिण्डपातिक होने की प्रशंसा करता है,
  • स्वयं पंसुकूलिक होता है, और पंसुकूलिक होने की प्रशंसा करता है,
  • स्वयं तेचीवरिक होता है, और तेचीवरिक होने की प्रशंसा करता है,
  • स्वयं अल्पेच्छुक होता है, और अल्पेच्छुक होने की प्रशंसा करता है,
  • स्वयं संतुष्ट होता है, और संतुष्ट होने की प्रशंसा करता है,
  • स्वयं निर्लिप्त होता है, और निर्लिप्त-एकांतवास होने की प्रशंसा करता है,
  • स्वयं एकाचारी होता है, और लोगों से न जुड़ने की प्रशंसा करता है,
  • स्वयं ऊर्जावान होता है, और ऊर्जा जागृत करने की प्रशंसा करता है,
  • स्वयं शील संपन्न होता है, और शील संपदा की प्रशंसा करता है,
  • स्वयं समाधि संपन्न होता है, और समाधि संपदा की प्रशंसा करता है,
  • स्वयं प्रज्ञा संपन्न होता है, और प्रज्ञा संपदा की प्रशंसा करता है,
  • स्वयं विमुक्ति संपन्न होता है, और विमुक्ति संपदा की प्रशंसा करता है,
  • स्वयं विमुक्ति ज्ञान-दर्शन संपन्न होता है, और विमुक्ति ज्ञान-दर्शन संपदा की प्रशंसा करता है।

— इस तरह का भिक्षु, मित्र सारिपुत्त, गोसिङ्ग शालवन को शोभित करेगा।””

भगवान ने कहा, “साधु, साधु, सारिपुत्त। कश्यप को जैसे सम्यक उत्तर देना चाहिए, उसी तरह उत्तर दिया है। क्योंकि, सारिपुत्त, कश्यप —

  • स्वयं अरण्यवासी है, और अरण्यवास की प्रशंसा करता है,
  • स्वयं पिण्डपातिक है, और पिण्डपातिक होने की प्रशंसा करता है,
  • स्वयं विमुक्ति ज्ञान-दर्शन संपन्न है, और विमुक्ति ज्ञान-दर्शन संपदा की प्रशंसा करता है।”

महामोग्गल्लान

तब, आयुष्मान सारिपुत्त ने भगवान से कहा, “भंते, जब ऐसा कहा गया, तब मैंने आयुष्मान महामोग्गल्लान से कहा, “मित्र महामोग्गल्लान, आयुष्मान महाकश्यप ने अपनी बौद्धिक क्षमता के अनुसार उत्तर दिया। अब मैं आयुष्मान महामोग्गल्लान से पूछता हूँ — ‘गोसिङ्ग शालवन रमणीय है, उजली रात है, सभी शाल वृक्ष फल-फूल रहे हैं, मानो दिव्य गंध फैली हुई है। ऐसे में, मित्र महामोग्गल्लान, किस तरह का भिक्षु इस गोसिङ्ग शालवन को शोभित करेगा?’”

ऐसा कहे जाने पर, भंते, आयुष्मान महामोग्गल्लान ने कहा, “मित्र सारिपुत्त, जब दो भिक्षु गहरे धर्म पर चर्चा करते हैं, एक दूसरे से प्रश्न पूछते हैं, एक दूसरे के प्रश्नों पर जवाब देते हैं, हड़बड़ाते नहीं है, और धर्मचर्चा यूँ बहती रहती है। इस तरह के भिक्षु, मित्र सारिपुत्त, गोसिङ्ग शालवन को शोभित करेंगे।””

भगवान ने कहा, “साधु, साधु, सारिपुत्त। मोग्गल्लान को जैसे सम्यक उत्तर देना चाहिए, उसी तरह उत्तर दिया है। क्योंकि, सारिपुत्त, मोग्गल्लान गहरे धर्म पर चर्चा करता है।”

सारिपुत्त

तब, आयुष्मान महामोग्गल्लान ने भगवान से कहा, “भंते, जब ऐसा कहा गया, तब मैंने आयुष्मान सारिपुत्त से कहा, “मित्र सारिपुत्त, हम सभी ने अपनी बौद्धिक क्षमता के अनुसार उत्तर दे दिया। अब हम आयुष्मान सारिपुत्त से पूछते हैं — ‘गोसिङ्ग शालवन रमणीय है, उजली रात है, सभी शाल वृक्ष फल-फूल रहे हैं, मानो दिव्य गंध फैली हुई है। ऐसे में, मित्र सारिपुत्त, किस तरह का भिक्षु इस गोसिङ्ग शालवन को शोभित करेगा?’”

ऐसा कहे जाने पर, भंते, आयुष्मान सारिपुत्त ने कहा, “मित्र मोग्गल्लान, कोई भिक्षु चित्त को वश करता है, चित्त के वश नहीं चला जाता। सुबह के समय, वह जिस अवस्था प्राप्ति में रहना चाहे, उस अवस्था प्राप्ति में विहार करता है। दोपहर के समय, वह जिस अवस्था प्राप्ति में रहना चाहे, उस अवस्था प्राप्ति में विहार करता है। सायंकाल के समय, वह जिस अवस्था प्राप्ति में रहना चाहे, उस अवस्था प्राप्ति में विहार करता है।

जैसे, मित्र मोग्गल्लान, किसी राजा या राज महामंत्री के पास अलमारी भर कर रंग-बिरंगी वस्त्र हो। सुबह होने पर, वह जिस वस्त्र को चाहे, उस वस्त्र को परिधान करता है। दोपहर होने पर, वह जिस वस्त्र को चाहे, उस वस्त्र को परिधान करता है। सायंकाल होने पर, वह जिस वस्त्र को चाहे, उस वस्त्र को परिधान करता है।

उसी तरह, मित्र मोग्गल्लान, कोई भिक्षु चित्त को वश करता है, चित्त के वश नहीं चला जाता। सुबह के समय, वह जिस अवस्था प्राप्ति में रहना चाहे, उस अवस्था प्राप्ति में विहार करता है। दोपहर के समय, वह जिस अवस्था प्राप्ति में रहना चाहे, उस अवस्था प्राप्ति में विहार करता है। सायंकाल के समय, वह जिस अवस्था प्राप्ति में रहना चाहे, उस अवस्था प्राप्ति में विहार करता है। इस तरह का भिक्षु, मित्र सारिपुत्त, गोसिङ्ग शालवन को शोभित करेगा।””

भगवान ने कहा, “साधु, साधु, मोग्गल्लान। सारिपुत्त को जैसे सम्यक उत्तर देना चाहिए, उसी तरह उत्तर दिया है। क्योंकि, मोग्गल्लान, सारिपुत्त चित्त को वश करता है, चित्त के वश नहीं चला जाता। सुबह के समय, वह जिस अवस्था प्राप्ति में रहना चाहे, उस अवस्था प्राप्ति में विहार करता है। दोपहर के समय, वह जिस अवस्था प्राप्ति में रहना चाहे, उस अवस्था प्राप्ति में विहार करता है। सायंकाल के समय, वह जिस अवस्था प्राप्ति में रहना चाहे, उस अवस्था प्राप्ति में विहार करता है।”

अंतिम प्रश्न

जब ऐसा कहा गया, तब आयुष्मान सारिपुत्त ने भगवान से कहा, “भंते, किसने अच्छा कहा?”

“सारिपुत्त, तुम सभी ने (अपने-अपने) तरह से अच्छा ही कहा। हालांकि मुझसे भी सुनो कि ‘किस तरह का भिक्षु इस गोसिङ्ग शालवन को शोभित करेगा?’

सारिपुत्त, कोई भिक्षु, भिक्षाटन कर भोजन करने के पश्चात, पालथी मारकर शरीर को सीधा रख स्मरणशील होकर बैठता है, (सोचते हुए,) “मैं इस पालथी को तब तक नहीं खोलूँगा, जब तक अनासक्त होकर चित्त को आस्रव से विमुक्त नहीं कर देता!” इस तरह का भिक्षु, सारिपुत्त, गोसिङ्ग शालवन को शोभित करेगा।”

भगवान ने ऐसा कहा। हर्षित होकर आयुष्मानों ने भगवान की बात का अभिनंदन किया।

सुत्र समाप्त।


  1. चार परिषद का अर्थ इस संदर्भ में है — भिक्षु संघ, भिक्षुणी संघ, उपासक वर्ग, और उपासिका वर्ग। ↩︎

  2. महाकश्यप भंते धुतांग में अग्र थे। धुतांग के बारे जानने के लिए, हमारी इस शब्दावली को पढ़ें। ↩︎

  3. यह उत्तर महामोग्गल्लान भंते के मुख से असंगत और विचित्र प्रतीत होता है। इस सूत्र के तीन चीनी समानान्तर और कुछ संस्कृत अंश बताते हैं कि यहाँ वे “स्वयं ऋद्धिमान होने और ऋद्धियों की प्रशंसा” कहकर उत्तर देते हैं। चूँकि महामोग्गल्लान भंते ऋद्धियों में अग्र भी थे, इससे लगता है कि पालि सूत्र में दोष आया है। चीनी मध्यम आगम १८५ में यह उत्तर वास्तव में महाकच्चान भंते का है, जहाँ प्रसंग “दो भिक्षुओं की गहन धर्मचर्चा” का है। ↩︎

  4. यहाँ अपेक्षा थी कि सारिपुत्त भंते, जो स्वयं “प्रज्ञा” में अग्र थे, उसकी प्रशंसा करते। किंतु उनका उत्तर भले असामान्य लगे, फिर भी वह पूर्णतः सटीक और प्रामाणिक है। सभी चीनी समानान्तर सूत्रों में यही उत्तर मिलता है। इसी प्रकार चित्त पर वश करने की बात वे पालि संयुक्तनिकाय ४६.४ में भी करते हैं। ↩︎

Pali

३३२. एवं मे सुतं – एकं समयं भगवा गोसिङ्गसालवनदाये विहरति सम्बहुलेहि अभिञ्ञातेहि अभिञ्ञातेहि थेरेहि सावकेहि सद्धिं – आयस्मता च सारिपुत्तेन आयस्मता च महामोग्गल्लानेन आयस्मता च महाकस्सपेन आयस्मता च अनुरुद्धेन आयस्मता च रेवतेन आयस्मता च आनन्देन, अञ्ञेहि च अभिञ्ञातेहि अभिञ्ञातेहि थेरेहि सावकेहि सद्धिं. अथ खो आयस्मा महामोग्गल्लानो सायन्हसमयं पटिसल्लाना वुट्ठितो येनायस्मा महाकस्सपो तेनुपसङ्कमि; उपसङ्कमित्वा आयस्मन्तं महाकस्सपं एतदवोच – ‘‘आयामावुसो, कस्सप, येनायस्मा सारिपुत्तो तेनुपसङ्कमिस्साम धम्मस्सवनाया’’ति. ‘‘एवमावुसो’’ति खो आयस्मा महाकस्सपो आयस्मतो महामोग्गल्लानस्स पच्चस्सोसि. अथ खो आयस्मा च महामोग्गल्लानो आयस्मा च महाकस्सपो आयस्मा च अनुरुद्धो येनायस्मा सारिपुत्तो तेनुपसङ्कमिंसु धम्मस्सवनाय. अद्दसा खो आयस्मा आनन्दो आयस्मन्तञ्च महामोग्गल्लानं आयस्मन्तञ्च महाकस्सपं आयस्मन्तञ्च अनुरुद्धं येनायस्मा सारिपुत्तो तेनुपसङ्कमन्ते धम्मस्सवनाय. दिस्वान येनायस्मा रेवतो तेनुपसङ्कमि; उपसङ्कमित्वा आयस्मन्तं रेवतं एतदवोच – ‘‘उपसङ्कमन्ता खो अमू, आवुसो [आयस्मन्तावुसो (क.)] रेवत, सप्पुरिसा येनायस्मा सारिपुत्तो तेन धम्मस्सवनाय. आयामावुसो रेवत, येनायस्मा सारिपुत्तो तेनुपसङ्कमिस्साम धम्मस्सवनाया’’ति. ‘‘एवमावुसो’’ति खो आयस्मा रेवतो आयस्मतो आनन्दस्स पच्चस्सोसि. अथ खो आयस्मा च रेवतो आयस्मा च आनन्दो येनायस्मा सारिपुत्तो तेनुपसङ्कमिंसु धम्मस्सवनाय.

३३३. अद्दसा खो आयस्मा सारिपुत्तो आयस्मन्तञ्च रेवतं आयस्मन्तञ्च आनन्दं दूरतोव आगच्छन्ते. दिस्वान आयस्मन्तं आनन्दं एतदवोच – ‘‘एतु खो आयस्मा आनन्दो! स्वागतं आयस्मतो आनन्दस्स भगवतो उपट्ठाकस्स भगवतो सन्तिकावचरस्स! रमणीयं, आवुसो आनन्द, गोसिङ्गसालवनं, दोसिना रत्ति, सब्बफालिफुल्ला [सब्बपालिफुल्ला (सी.)] साला, दिब्बा, मञ्ञे, गन्धा सम्पवन्ति; कथंरूपेन, आवुसो आनन्द, भिक्खुना गोसिङ्गसालवनं सोभेय्या’’ति? ‘‘इधावुसो सारिपुत्त , भिक्खु बहुस्सुतो होति सुतधरो सुतसन्निचयो. ये ते धम्मा आदिकल्याणा मज्झेकल्याणा परियोसानकल्याणा सात्था सब्यञ्जना; केवलपरिपुण्णं परिसुद्धं ब्रह्मचरियं अभिवदन्ति, तथारूपास्स धम्मा बहुस्सुता होन्ति, धाता [धता (सी. स्या. कं. पी.)], वचसा परिचिता, मनसानुपेक्खिता, दिट्ठिया सुप्पटिविद्धा. सो चतस्सन्नं परिसानं धम्मं देसेति परिमण्डलेहि पदब्यञ्जनेहि अनुप्पबन्धेहि [अप्पबद्धेहि (सी. पी.)] अनुसयसमुग्घाताय. एवरूपेन खो, आवुसो सारिपुत्त, भिक्खुना गोसिङ्गसालवनं सोभेय्या’’ति.

३३४. एवं वुत्ते, आयस्मा सारिपुत्तो आयस्मन्तं रेवतं एतदवोच – ‘‘ब्याकतं खो, आवुसो रेवत, आयस्मता आनन्देन यथासकं पटिभानं. तत्थ दानि मयं आयस्मन्तं रेवतं पुच्छाम – ‘रमणीयं, आवुसो रेवत, गोसिङ्गसालवनं, दोसिना रत्ति, सब्बफालिफुल्ला साला, दिब्बा, मञ्ञे, गन्धा सम्पवन्ति; कथंरूपेन, आवुसो रेवत, भिक्खुना गोसिङ्गसालवनं सोभेय्या’’’ति? ‘‘इधावुसो सारिपुत्त, भिक्खु पटिसल्लानारामो होति पटिसल्लानरतो, अज्झत्तं चेतोसमथमनुयुत्तो अनिराकतज्झानो, विपस्सनाय समन्नागतो, ब्रूहेता सुञ्ञागारानं. एवरूपेन खो, आवुसो सारिपुत्त, भिक्खुना गोसिङ्गसालवनं सोभेय्या’’ति.

३३५. एवं वुत्ते, आयस्मा सारिपुत्तो आयस्मन्तं अनुरुद्धं एतदवोच – ‘‘ब्याकतं खो, आवुसो अनुरुद्ध, आयस्मता रेवतेन यथासकं पटिभानं. तत्थ दानि मयं आयस्मन्तं अनुरुद्धं पुच्छाम – ‘रमणीयं, आवुसो अनुरुद्ध, गोसिङ्गसालवनं, दोसिना रत्ति, सब्बफालिफुल्ला साला, दिब्बा, मञ्ञे, गन्धा सम्पवन्ति; कथंरूपेन, आवुसो अनुरुद्ध, भिक्खुना गोसिङ्गसालवनं सोभेय्या’’’ति? ‘‘इधावुसो सारिपुत्त, भिक्खु दिब्बेन चक्खुना विसुद्धेन अतिक्कन्तमानुसकेन सहस्सं लोकानं वोलोकेति. सेय्यथापि, आवुसो सारिपुत्त, चक्खुमा पुरिसो उपरिपासादवरगतो सहस्सं नेमिमण्डलानं वोलोकेय्य; एवमेव खो, आवुसो सारिपुत्त, भिक्खु दिब्बेन चक्खुना विसुद्धेन अतिक्कन्तमानुसकेन सहस्सं लोकानं वोलोकेति. एवरूपेन खो, आवुसो सारिपुत्त, भिक्खुना गोसिङ्गसालवनं सोभेय्या’’ति.

३३६. एवं वुत्ते, आयस्मा सारिपुत्तो आयस्मन्तं महाकस्सपं एतदवोच – ‘‘ब्याकतं खो, आवुसो कस्सप, आयस्मता अनुरुद्धेन यथासकं पटिभानं. तत्थ दानि मयं आयस्मन्तं महाकस्सपं पुच्छाम – ‘रमणीयं, आवुसो कस्सप, गोसिङ्गसालवनं, दोसिना रत्ति, सब्बफालिफुल्ला साला, दिब्बा, मञ्ञे, गन्धा सम्पवन्ति; कथंरूपेन, आवुसो कस्सप, भिक्खुना गोसिङ्गसालवनं सोभेय्या’’’ति? ‘‘इधावुसो सारिपुत्त, भिक्खु अत्तना च आरञ्ञिको होति आरञ्ञिकत्तस्स च वण्णवादी, अत्तना च पिण्डपातिको होति पिण्डपातिकत्तस्स च वण्णवादी, अत्तना च पंसुकूलिको होति पंसुकूलिकत्तस्स च वण्णवादी, अत्तना च तेचीवरिको होति तेचीवरिकत्तस्स च वण्णवादी, अत्तना च अप्पिच्छो होति अप्पिच्छताय च वण्णवादी, अत्तना च सन्तुट्ठो होति सन्तुट्ठिया च वण्णवादी, अत्तना च पविवित्तो होति पविवेकस्स च वण्णवादी, अत्तना च असंसट्ठो होति असंसग्गस्स च वण्णवादी, अत्तना च आरद्धवीरियो होति वीरियारम्भस्स च वण्णवादी, अत्तना च सीलसम्पन्नो होति सीलसम्पदाय च वण्णवादी, अत्तना च समाधिसम्पन्नो होति समाधिसम्पदाय च वण्णवादी, अत्तना च पञ्ञासम्पन्नो होति पञ्ञासम्पदाय च वण्णवादी, अत्तना च विमुत्तिसम्पन्नो होति विमुत्तिसम्पदाय च वण्णवादी, अत्तना च विमुत्तिञाणदस्सनसम्पन्नो होति विमुत्तिञाणदस्सनसम्पदाय च वण्णवादी. एवरूपेन खो, आवुसो सारिपुत्त , भिक्खुना गोसिङ्गसालवनं सोभेय्या’’ति.

३३७. एवं वुत्ते, आयस्मा सारिपुत्तो आयस्मन्तं महामोग्गल्लानं एतदवोच – ‘‘ब्याकतं खो, आवुसो मोग्गल्लान, आयस्मता महाकस्सपेन यथासकं पटिभानं. तत्थ दानि मयं आयस्मन्तं महामोग्गल्लानं पुच्छाम – ‘रमणीयं, आवुसो मोग्गल्लान, गोसिङ्गसालवनं, दोसिना रत्ति, सब्बफालिफुल्ला साला, दिब्बा, मञ्ञे, गन्धा सम्पवन्ति; कथंरूपेन, आवुसो मोग्गल्लान, भिक्खुना गोसिङ्गसालवनं सोभेय्या’’’ति? ‘‘इधावुसो सारिपुत्त, द्वे भिक्खू अभिधम्मकथं कथेन्ति, ते अञ्ञमञ्ञं पञ्हं पुच्छन्ति, अञ्ञमञ्ञस्स पञ्हं पुट्ठा विस्सज्जेन्ति, नो च संसादेन्ति [संसारेन्ति (क.)], धम्मी च नेसं कथा पवत्तिनी होति. एवरूपेन खो, आवुसो सारिपुत्त, भिक्खुना गोसिङ्गसालवनं सोभेय्या’’ति.

३३८. अथ खो आयस्मा महामोग्गल्लानो आयस्मन्तं सारिपुत्तं एतदवोच – ‘‘ब्याकतं खो, आवुसो सारिपुत्त, अम्हेहि सब्बेहेव यथासकं पटिभानं. तत्थ दानि मयं आयस्मन्तं सारिपुत्तं पुच्छाम – ‘रमणीयं, आवुसो सारिपुत्त, गोसिङ्गसालवनं, दोसिना रत्ति, सब्बफालिफुल्ला साला, दिब्बा, मञ्ञे, गन्धा सम्पवन्ति; कथंरूपेन, आवुसो सारिपुत्त, भिक्खुना गोसिङ्गसालवनं सोभेय्या’’’ति? ‘‘इधावुसो मोग्गल्लान, भिक्खु चित्तं वसं वत्तेति, नो च भिक्खु चित्तस्स वसेन वत्तति. सो याय विहारसमापत्तिया आकङ्खति पुब्बण्हसमयं विहरितुं, ताय विहारसमापत्तिया पुब्बण्हसमयं विहरति; याय विहारसमापत्तिया आकङ्खति मज्झन्हिकसमयं [मज्झन्तिकसमयं (सी. स्या. कं. पी. क.)] विहरितुं, ताय विहारसमापत्तिया मज्झन्हिकसमयं विहरति; याय विहारसमापत्तिया आकङ्खति सायन्हसमयं विहरितुं, ताय विहारसमापत्तिया सायन्हसमयं विहरति. सेय्यथापि, आवुसो मोग्गल्लान, रञ्ञो वा राजमहामत्तस्स वा नानारत्तानं दुस्सानं दुस्सकरण्डको पूरो अस्स. सो यञ्ञदेव दुस्सयुगं आकङ्खेय्य पुब्बण्हसमयं पारुपितुं, तं तदेव दुस्सयुगं पुब्बण्हसमयं पारुपेय्य; यञ्ञदेव दुस्सयुगं आकङ्खेय्य मज्झन्हिकसमयं पारुपितुं, तं तदेव दुस्सयुगं मज्झन्हिकसमयं पारुपेय्य; यञ्ञदेव दुस्सयुगं आकङ्खेय्य सायन्हसमयं पारुपितुं, तं तदेव दुस्सयुगं सायन्हसमयं पारुपेय्य. एवमेव खो, आवुसो मोग्गल्लान, भिक्खु चित्तं वसं वत्तेति, नो च भिक्खु चित्तस्स वसेन वत्तति. सो याय विहारसमापत्तिया आकङ्खति पुब्बण्हसमयं विहरितुं, ताय विहारसमापत्तिया पुब्बण्हसमयं विहरति; याय विहारसमापत्तिया आकङ्खति मज्झन्हिकसमयं विहरितुं, ताय विहारसमापत्तिया मज्झन्हिकसमयं विहरति; याय विहारसमापत्तिया आकङ्खति सायन्हसमयं विहरितुं, ताय विहारसमापत्तिया सायन्हसमयं विहरति. एवरूपेन खो, आवुसो मोग्गल्लान, भिक्खुना गोसिङ्गसालवनं सोभेय्या’’ति.

३३९. अथ खो आयस्मा सारिपुत्तो ते आयस्मन्ते एतदवोच – ‘‘ब्याकतं खो, आवुसो, अम्हेहि सब्बेहेव यथासकं पटिभानं. आयामावुसो, येन भगवा तेनुपसङ्कमिस्साम; उपसङ्कमित्वा एतमत्थं भगवतो आरोचेस्साम. यथा नो भगवा ब्याकरिस्सति तथा नं धारेस्सामा’’ति. ‘‘एवमावुसो’’ति खो ते आयस्मन्तो आयस्मतो सारिपुत्तस्स पच्चस्सोसुं. अथ खो ते आयस्मन्तो येन भगवा तेनुपसङ्कमिंसु; उपसङ्कमित्वा भगवन्तं अभिवादेत्वा एकमन्तं निसीदिंसु. एकमन्तं निसिन्नो खो आयस्मा सारिपुत्तो भगवन्तं एतदवोच – ‘‘अद्दसं खो अहं, भन्ते, आयस्मन्तञ्च रेवतं आयस्मन्तञ्च आनन्दं दूरतोव आगच्छन्ते. दिस्वान आयस्मन्तं आनन्दं एतदवोचं – ‘एतु खो आयस्मा आनन्दो! स्वागतं आयस्मतो आनन्दस्स भगवतो उपट्ठाकस्स भगवतो सन्तिकावचरस्स! रमणीयं, आवुसो आनन्द, गोसिङ्गसालवनं, दोसिना रत्ति, सब्बफालिफुल्ला साला, दिब्बा, मञ्ञे, गन्धा सम्पवन्ति; कथंरूपेन, आवुसो आनन्द, भिक्खुना गोसिङ्गसालवनं सोभेय्या’ति? एवं वुत्ते, भन्ते, आयस्मा आनन्दो मं एतदवोच – ‘इधावुसो, सारिपुत्त, भिक्खु बहुस्सुतो होति सुतधरो…पे… अनुसयसमुग्घाताय. एवरूपेन खो, आवुसो सारिपुत्त, भिक्खुना गोसिङ्गसालवनं सोभेय्या’’’ति. ‘‘साधु साधु, सारिपुत्त! यथा तं आनन्दोव सम्मा ब्याकरमानो ब्याकरेय्य. आनन्दो हि, सारिपुत्त, बहुस्सुतो सुतधरो सुतसन्निचयो. ये ते धम्मा आदिकल्याणा मज्झेकल्याणा परियोसानकल्याणा सात्था सब्यञ्जना; केवलपरिपुण्णं परिसुद्धं ब्रह्मचरियं अभिवदन्ति, तथारूपास्स धम्मा बहुस्सुता होन्ति, धाता, वचसा परिचिता, मनसानुपेक्खिता, दिट्ठिया सुप्पटिविद्धा. सो चतस्सन्नं परिसानं धम्मं देसेति परिमण्डलेहि पदब्यञ्जनेहि अनुप्पबन्धेहि अनुसयसमुग्घाताया’’ति.

३४०. ‘‘एवं वुत्ते, अहं, भन्ते, आयस्मन्तं रेवतं एतदवोचं – ‘ब्याकतं खो, आवुसो रेवत आयस्मता आनन्देन यथासकं पटिभानं. तत्थ दानि मयं आयस्मन्तं रेवतं पुच्छाम – रमणीयं, आवुसो रेवत, गोसिङ्गसालवनं, दोसिना रत्ति, सब्बफालिफुल्ला साला, दिब्बा मञ्ञे गन्धा सम्पवन्ति. कथंरूपेन, आवुसो रेवत, भिक्खुना गोसिङ्गसालवनं सोभेय्या’ति? एवं वुत्ते, भन्ते, आयस्मा रेवतो मं एतदवोच – ‘इधावुसो सारिपुत्त भिक्खु पटिसल्लानारामो होति पटिसल्लानरतो , अज्झत्तं चेतोसमथमनुयुत्तो, अनिराकतज्झानो, विपस्सनाय समन्नागतो, ब्रूहेता सुञ्ञागारानं. एवरूपेन खो, आवुसो सारिपुत्त, भिक्खुना गोसिङ्गसालवनं सोभेय्या’’’ति. ‘‘साधु साधु, सारिपुत्त! यथा तं रेवतोव सम्मा ब्याकरमानो ब्याकरेय्य. रेवतो हि, सारिपुत्त, पटिसल्लानारामो पटिसल्लानरतो, अज्झत्तं चेतोसमथमनुयुत्तो अनिराकतज्झानो, विपस्सनाय समन्नागतो ब्रूहेता सुञ्ञागारान’’न्ति.

३४१. ‘‘एवं वुत्ते, अहं, भन्ते, आयस्मन्तं अनुरुद्धं एतदवोचं – ‘ब्याकतं खो आवुसो अनुरुद्ध आयस्मता रेवतेन…पे… कथंरूपेन, आवुसो अनुरुद्ध, भिक्खुना गोसिङ्गसालवनं सोभेय्या’ति. एवं वुत्ते, भन्ते, आयस्मा अनुरुद्धो मं एतदवोच – ‘इधावुसो सारिपुत्त, भिक्खु दिब्बेन चक्खुना विसुद्धेन अतिक्कन्तमानुसकेन सहस्सं लोकानं वोलोकेति. सेय्यथापि, आवुसो सारिपुत्त, चक्खुमा पुरिसो…पे… एवरूपेन खो आवुसो सारिपुत्त भिक्खुना गोसिङ्गसालवनं सोभेय्या’’’ति. ‘‘साधु साधु, सारिपुत्त, यथा तं अनुरुद्धोव सम्मा ब्याकरमानो ब्याकरेय्य. अनुरुद्धो हि, सारिपुत्त, दिब्बेन चक्खुना विसुद्धेन अतिक्कन्तमानुसकेन सहस्सं लोकानं वोलोकेती’’ति.

३४२. ‘‘एवं वुत्ते, अहं, भन्ते, आयस्मन्तं महाकस्सपं एतदवोचं – ‘ब्याकतं खो, आवुसो कस्सप आयस्मता अनुरुद्धेन यथासकं पटिभानं. तत्थ दानि मयं आयस्मन्तं महाकस्सपं पुच्छाम…पे… कथं रूपेन खो, आवुसो कस्सप, भिक्खुना गोसिङ्गसालवनं सोभेय्या’ति? एवं वुत्ते भन्ते, आयस्मा महाकस्सपो मं एतदवोच – ‘इधावुसो सारिपुत्त, भिक्खु अत्तना च आरञ्ञिको होति आरञ्ञिकत्तस्स च वण्णवादी, अत्तना च पिण्डपातिको होति…पे… अत्तना च पंसुकूलिको होति…पे… अत्तना च तेचीवरिको होति…पे… अत्तना च अप्पिच्छो होति…पे… अत्तना च सन्तुट्ठो होति…पे… अत्तना च पविवित्तो होति…पे… अत्तना च असंसट्ठो होति…पे… अत्तना च आरद्धवीरियो होति…पे… अत्तना च सीलसम्पन्नो होति…पे… अत्तना च समाधिसम्पन्नो होति…पे… अत्तना च पञ्ञासम्पन्नो होति… अत्तना च विमुत्तिसम्पन्नो होति… अत्तना च विमुत्तिञाणदस्सनसम्पन्नो होति विमुत्तिञाणदस्सनसम्पदाय च वण्णवादी. एवरूपेन खो, आवुसो सारिपुत्त, भिक्खुना गोसिङ्गसालवनं सोभेय्या’’’ति . ‘‘साधु साधु, सारिपुत्त! यथा तं कस्सपोव सम्मा ब्याकरमानो ब्याकरेय्य. कस्सपो हि, सारिपुत्त, अत्तना च आरञ्ञिको आरञ्ञिकत्तस्स च वण्णवादी, अत्तना च पिण्डपातिको पिण्डपातिकत्तस्स च वण्णवादी, अत्तना च पंसुकूलिको पंसुकूलिकत्तस्स च वण्णवादी, अत्तना च तेचीवरिको तेचीवरिकत्तस्स च वण्णवादी, अत्तना च अप्पिच्छो अप्पिच्छताय च वण्णवादी, अत्तना च सन्तुट्ठो सन्तुट्ठिया च वण्णवादी, अत्तना च पविवित्तो पविवेकस्स च वण्णवादी, अत्तना च असंसट्ठो असंसग्गस्स च वण्णवादी, अत्तना च आरद्धवीरियो वीरियारम्भस्स च वण्णवादी, अत्तना च सीलसम्पन्नो सीलसम्पदाय च वण्णवादी, अत्तना च समाधिसम्पन्नो समाधिसम्पदाय च वण्णवादी, अत्तना च पञ्ञासम्पन्नो पञ्ञासम्पदाय च वण्णवादी, अत्तना च विमुत्तिसम्पन्नो विमुत्तिसम्पदाय च वण्णवादी, अत्तना च विमुत्तिञाणदस्सनसम्पन्नो विमुत्तिञाणदस्सनसम्पदाय च वण्णवादी’’ति.

३४३. ‘‘एवं वुत्ते, अहं भन्ते आयस्मन्तं महामोग्गल्लानं एतदवोचं – ‘ब्याकतं खो, आवुसो मोग्गल्लान, आयस्मता महाकस्सपेन यथासकं पटिभानं. तत्थ दानि मयं आयस्मन्तं महामोग्गल्लानं पुच्छाम…पे… कथंरूपेन, आवुसो मोग्गल्लान, भिक्खुना गोसिङ्गसालवनं सोभेय्या’ति? एवं वुत्ते, भन्ते, आयस्मा महामोग्गल्लानो मं एतदवोच – ‘इधावुसो सारिपुत्त, द्वे भिक्खू अभिधम्मकथं कथेन्ति. ते अञ्ञमञ्ञं पञ्हं पुच्छन्ति, अञ्ञमञ्ञस्स पञ्हं पुट्ठा विस्सज्जेन्ति, नो च संसादेन्ति, धम्मी च नेसं कथा पवत्तिनी होति. एवरूपेन खो, आवुसो सारिपुत्त, भिक्खुना गोसिङ्गसालवनं सोभेय्या’’’ति. ‘‘साधु साधु, सारिपुत्त, यथा तं मोग्गल्लानोव सम्मा ब्याकरमानो ब्याकरेय्य. मोग्गल्लानो हि, सारिपुत्त, धम्मकथिको’’ति.

३४४. एवं वुत्ते, आयस्मा महामोग्गल्लानो भगवन्तं एतदवोच – ‘‘अथ ख्वाहं, भन्ते, आयस्मन्तं सारिपुत्तं एतदवोचं – ‘ब्याकतं खो, आवुसो सारिपुत्त, अम्हेहि सब्बेहेव यथासकं पटिभानं. तत्थ दानि मयं आयस्मन्तं सारिपुत्तं पुच्छाम – रमणीयं, आवुसो सारिपुत्त, गोसिङ्गसालवनं, दोसिना रत्ति, सब्बफालिफुल्ला साला, दिब्बा, मञ्ञे, गन्धा सम्पवन्ति. कथंरूपेन, आवुसो सारिपुत्त, भिक्खुना गोसिङ्गसालवनं सोभेय्या’ति? एवं वुत्ते, भन्ते, आयस्मा सारिपुत्तो मं एतदवोच – ‘इधावुसो, मोग्गल्लान, भिक्खु चित्तं वसं वत्तेति नो च भिक्खु चित्तस्स वसेन वत्तति. सो याय विहारसमापत्तिया आकङ्खति पुब्बण्हसमयं विहरितुं, ताय विहारसमापत्तिया पुब्बण्हसमयं विहरति; याय विहारसमापत्तिया आकङ्खति मज्झन्हिकसमयं विहरितुं, ताय विहारसमापत्तिया मज्झन्हिकसमयं विहरति; याय विहारसमापत्तिया आकङ्खति सायन्हसमयं विहरितुं, ताय विहारसमापत्तिया सायन्हसमयं विहरति. सेय्यथापि, आवुसो मोग्गल्लान, रञ्ञो वा राजमहामत्तस्स वा नानारत्तानं दुस्सानं दुस्सकरण्डको पूरो अस्स. सो यञ्ञदेव दुस्सयुगं आकङ्खेय्य पुब्बण्हसमयं पारुपितुं , तं तदेव दुस्सयुगं पुब्बण्हसमयं पारुपेय्य; यञ्ञदेव दुस्सयुगं आकङ्खेय्य मज्झन्हिकसमयं पारुपितुं, तं तदेव दुस्सयुगं मज्झन्हिकसमयं पारुपेय्य; यञ्ञदेव दुस्सयुगं आकङ्खेय्य सायन्हसमयं पारुपितुं, तं तदेव दुस्सयुगं सायन्हसमयं पारुपेय्य. एवमेव खो, आवुसो मोग्गल्लान, भिक्खु चित्तं वसं वत्तेति, नो च भिक्खु चित्तस्स वसेन वत्तति. सो याय विहारसमापत्तिया आकङ्खति पुब्बण्हसमयं विहरितुं, ताय विहारसमापत्तिया पुब्बण्हसमयं विहरति; याय विहारसमापत्तिया आकङ्खति मज्झन्हिकसमयं विहरितुं, ताय विहारसमापत्तिया मज्झन्हिकसमयं विहरति; याय विहारसमापत्तिया आकङ्खति सायन्हसमयं विहरितुं, ताय विहारसमापत्तिया सायन्हसमयं विहरति. एवरूपेन खो, आवुसो मोग्गल्लान, भिक्खुना गोसिङ्गसालवनं सोभेय्या’’’ति. ‘‘साधु साधु, मोग्गल्लान! यथा तं सारिपुत्तोव सम्मा ब्याकरमानो ब्याकरेय्य. सारिपुत्तो हि, मोग्गल्लान, चित्तं वसं वत्तेति नो च सारिपुत्तो चित्तस्स वसेन वत्तति. सो याय विहारसमापत्तिया आकङ्खति पुब्बण्हसमयं विहरितुं, ताय विहारसमापत्तिया पुब्बण्हसमयं विहरति; याय विहारसमापत्तिया आकङ्खति मज्झन्हिकसमयं विहरितुं, ताय विहारसमापत्तिया मज्झन्हिकसमयं विहरति; याय विहारसमापत्तिया आकङ्खति सायन्हसमयं विहरितुं, ताय विहारसमापत्तिया सायन्हसमयं विहरती’’ति.

३४५. एवं वुत्ते, आयस्मा सारिपुत्तो भगवन्तं एतदवोच – ‘‘कस्स नु खो, भन्ते, सुभासित’’न्ति? ‘‘सब्बेसं वो, सारिपुत्त, सुभासितं परियायेन. अपि च ममपि सुणाथ यथारूपेन भिक्खुना गोसिङ्गसालवनं सोभेय्य. इध, सारिपुत्त, भिक्खु पच्छाभत्तं पिण्डपातपटिक्कन्तो निसीदति पल्लङ्कं आभुजित्वा उजुं कायं पणिधाय परिमुखं सतिं उपट्ठपेत्वा – ‘न तावाहं इमं पल्लङ्कं भिन्दिस्सामि याव मे नानुपादाय आसवेहि चित्तं विमुच्चिस्सती’ति. एवरूपेन खो, सारिपुत्त, भिक्खुना गोसिङ्गसालवनं सोभेय्या’’ति.

इदमवोच भगवा. अत्तमना ते आयस्मन्तो [ते भिक्खू (क.)] भगवतो भासितं अभिनन्दुन्ति.

महागोसिङ्गसुत्तं निट्ठितं दुतियं.