नमो तस्स भगवतो अरहतो सम्मा-सम्बुद्धस्स

📜 चरवाहा

✦ ॥ नमो तस्स भगवतो अरहतो सम्मासम्बुद्धस्स ॥ ✦

Hindi

ऐसा मैंने सुना — एक समय भगवान श्रावस्ती में अनाथपिण्डक के जेतवन उद्यान में विहार कर रहे थे। वहाँ भगवान ने भिक्षुओं से कहा, “भिक्षुओं!"

“भदंत”, भिक्षुओं ने भगवान को उत्तर दिया। भगवान ने कहा —

बुरा चरवाहा

“यदि, भिक्षुओं, कोई चरवाहा (“गोपालक”), ग्यारह अंगों से संपन्न 1 हो, तो गाय के झुंड को न पाल पाता है, न बढ़ा पाता है। कौन से ग्यारह?

भिक्षुओं, कोई चरवाहा (गायों के) —

  • न (रंग-) रूप में जानकार होता है,
  • न लक्षण देखने में कुशल होता है,
  • न मक्खियों के अंडे झाड़ता है,
  • न फोड़ों को ढँकता है,
  • न (मक्खी-मच्छर भगाने के लिए) धुआँ करता है,
  • न (नदी का उचित) किनारा जानता है,
  • न पीना हो चुका जानता है,
  • न पगडंडी जानता है,
  • न चरने का परिसर जानता है,
  • बिना शेष रखे दूध दुहता है,
  • जो बैल पिता है, अग्रिम है, उन्हें अतिरिक्त सम्मान नहीं देता है।

इन ग्यारह अंगों से संपन्न चरवाहा, भिक्षुओं, गाय के झुंड को न पाल पाता है, न ही बढ़ा पाता है।

उसी तरह, भिक्षुओं, यदि कोई भिक्षु ग्यारह अंगों से संपन्न हो, तो उसकी इस धर्म-विनय में वृद्धि, प्रगति, बढ़त नहीं होती। कौन-से ग्यारह?

भिक्षुओं, कोई भिक्षु —

  • न रूप में जानकार होता है,
  • न लक्षण देखने में कुशल होता है,
  • न मक्खियों के अंडे झाड़ता है,
  • न फोड़ों को ढँकता है,
  • न धुआँ करता है,
  • न किनारा जानता है,
  • न पीना हो चुका जानता है,
  • न पगडंडी जानता है,
  • न चरने का परिसर जानता है,
  • बिना शेष रखे दूध दुहता है,
  • ऐसे भिक्षु, जो वरिष्ठ (“थेर”) है, अनुभवी है, दीर्घकाल से प्रवज्ज्यित है, संघ के पिता है, संघ में अग्र है, वह उन्हें अतिरिक्त सम्मान नहीं देता है।

ग्यारह अंगों का अर्थ

(१) भिक्षुओं, कैसे कोई भिक्षु रूप में जानकार नहीं होता?

भिक्षुओं, कोई भिक्षु यथास्वरूप नहीं समझता है कि जो भी रूप हैं, वे सभी ‘चार महाभूत’ हैं, चार महाभूत के आधार पर उपजे रूप हैं। इस तरह, भिक्षुओं, कोई भिक्षु रूप में जानकार नहीं होता है।


(२) आगे, भिक्षुओं, कैसे कोई भिक्षु लक्षण देखने में कुशल नहीं होता?

भिक्षुओं, कोई भिक्षु यथास्वरूप नहीं समझता है कि मूर्ख अपने (अकुशल) कर्मों के लक्षण से मूर्ख होता हैं, और पंडित अपने (कुशल) कर्मों के लक्षण से पंडित होता हैं। इस तरह, भिक्षुओं, कोई भिक्षु लक्षण देखने में कुशल नहीं होता है।


(३) आगे, भिक्षुओं, कैसे कोई भिक्षु मक्खियों के अंडे झाड़ता नहीं है?

भिक्षुओं, कोई भिक्षु —

  • उत्पन्न हुए “कामुक” विषयों को बर्दाश्त कर लेता है, उन्हें न त्यागता है, न हटाता है, न दूर करता है, न ही अस्तित्व से मिटाता है।
  • उत्पन्न हुए “दुर्भावनापूर्ण” विषयों को…
  • उत्पन्न हुए " हिंसक" विषयों को…
  • उत्पन्न हुए “पाप अकुशल” स्वभावों को बर्दाश्त कर लेता है, उन्हें न त्यागता है, न हटाता है, न दूर करता है, न ही अस्तित्व से मिटाता है।

— इस तरह, भिक्षुओं, कोई भिक्षु मक्खियों के अंडे झाड़ता नहीं है।


(४) आगे, भिक्षुओं, कैसे कोई भिक्षु फोड़ों को ढँकता नहीं है?

भिक्षुओं, जब कोई भिक्षु —

  • आँखों से रूप देखता है, तो वह उसकी छाप (या छवि) पकड़ता है, आकर्षक विशेषताओं को ग्रहण करता है। चक्षु-इंद्रिय पर संयम न रखने पर, उसे लालसा या निराशा जैसे पाप-अकुशल स्वभाव घेरते हैं। तब भी वह न कोई सँवर का मार्ग अपनाता है, न अपने चक्षु-इंद्रिय की रक्षा करता है, न ही संयम बरतता है।
  • कान से ध्वनि सुनता है…
  • नाक से गंध सूँघता है…
  • जीभ से स्वाद चखता है…
  • शरीर से संस्पर्श अनुभव करता है…
  • मन से विचार करता है, तो वह उसकी छाप पकड़ता है, आकर्षक विशेषताओं को ग्रहण करता है। मन-इंद्रिय पर संयम न रखने पर, उसे लालसा या निराशा जैसे पाप-अकुशल स्वभाव घेरते हैं। तब भी वह न कोई सँवर का मार्ग अपनाता है, न अपने मन-इंद्रिय की रक्षा करता है, न ही संयम बरतता है।

— इस तरह, भिक्षुओं, कोई भिक्षु फोड़ों को ढँकता नहीं है।


(५) आगे, भिक्षुओं, कैसे कोई भिक्षु धुआँ नहीं करता?

भिक्षुओं, कोई भिक्षु धर्म को जिस तरह सुना हो, जिस तरह याद रखा हो, उसे विस्तार से दूसरों को नहीं बताता है। इस तरह, भिक्षुओं, कोई भिक्षु धुआँ नहीं करता है।


(६) आगे, भिक्षुओं, कैसे कोई भिक्षु किनारा नहीं जानता है?

भिक्षुओं, कोई भिक्षु ऐसे भिक्षुओं से — जो बहुत धर्म सुने हो, सूत्र-निकायों के वारिस हो, धर्म धारण किए, विनय धारण किए, मातिका धारण किए हो 2 — उनसे समय-समय पर जाकर न पूछता है, न ही प्रतिप्रश्न करता है कि “भंते, यह (सूत्र) क्या कहता है, इसका क्या अर्थ है?” तब वे आयुष्मान छिपे को खोलते नहीं, पलटे को सीधा नहीं करते, और ऐसे धर्म जो अनेक प्रकार से शंकास्पद हो, उन धर्मों के प्रति शंका मिटाते नहीं हैं।

— इस तरह, भिक्षुओं, कोई भिक्षु (पीने का) किनारा नहीं जानता है?


(७) आगे, भिक्षुओं, कैसे कोई भिक्षु पीना हो चुका नहीं जानता है?

भिक्षुओं, जब किसी भिक्षु को तथागत के द्वारा घोषित धर्म-विनय बताया जाता है, तब उसे उसका न अर्थ समझता है, न धर्म समझता है, न उसे धर्म से जुड़ी प्रसन्नता होती है। इस तरह, भिक्षुओं, कोई भिक्षु पीना हो चुका नहीं जानता है।


(८) आगे, भिक्षुओं, कैसे कोई भिक्षु पगडंडी नहीं जानता है?

भिक्षुओं, कोई भिक्षु यथास्वरूप आर्य अष्टांगिक मार्ग नहीं समझता है। इस तरह, भिक्षुओं, कोई भिक्षु पगडंडी नहीं जानता है।


(९) आगे, भिक्षुओं, कैसे कोई भिक्षु चरने का परिसर नहीं जानता है?

भिक्षुओं, कोई भिक्षु यथास्वरूप चार स्मृतिप्रस्थान नहीं समझता है। इस तरह, भिक्षुओं, कोई भिक्षु चरने का परिसर नहीं जानता है।


(१०) आगे, भिक्षुओं, कैसे कोई भिक्षु बिना शेष रखे दूध दुहता है?

भिक्षुओं, जब किसी भिक्षु को कोई गृहस्थ चीवर, भिक्षान्न, आवास, रोगावश्यक औषधि भैषज्य माँगने के लिए आमंत्रित (“पवारणा”) करता है, तो वह भिक्षु ग्रहण करने की मर्यादा नहीं जानता है। इस तरह, भिक्षुओं, कोई भिक्षु बिना शेष रखे दूध दुहता है।


(११) आगे, भिक्षुओं, कैसे कोई भिक्षु ऐसे भिक्षुओं को सम्मान नहीं देता है, जो वरिष्ठ है, अनुभवी है, दीर्घकाल से प्रवज्ज्यित है, संघ के पिता है, संघ में अग्र है?

भिक्षुओं, कोई भिक्षु, ऐसे वरिष्ठ, अनुभवी, दीर्घकाल से प्रवज्ज्यित, संघ के पिता, संघ में अग्र भिक्षुओं के प्रति, उनके सामने और पीछे, हमेशा सद्भावपूर्ण (“मेत्ता”) कायिक कर्म में स्थित नहीं रहता है; सद्भावपूर्ण वाचिक कर्म में स्थित नहीं रहता है; सद्भावपूर्ण मनो कर्म में स्थित नहीं रहता है। इस तरह, भिक्षुओं, कोई भिक्षु ऐसे भिक्षुओं को सम्मान नहीं देता है, जो वरिष्ठ है, अनुभवी है, दीर्घकाल से प्रवज्ज्यित है, संघ के पिता है, संघ में अग्र है।

— इन ग्यारह अंगों से संपन्न भिक्षु, भिक्षुओं, इस धर्म-विनय में वृद्धि, प्रगति, बढ़त नहीं पाता है।

अच्छा चरवाहा / भिक्षु

“यदि, भिक्षुओं, कोई चरवाहा इन ग्यारह अंगों से संपन्न हो, तो वह गाय के झुंड को पाल पाता है, बढ़ा पाता है। कौन से ग्यारह?

भिक्षुओं, कोई चरवाहा (गायों के) —

  • (रंग-) रूप में जानकार होता है,
  • लक्षण देखने में कुशल होता है,
  • मक्खियों के अंडे झाड़ता है,
  • फोड़ों को ढँकता है,
  • (मक्खी-मच्छर भगाने के लिए) धुआँ करता है,
  • (नदी का उचित) किनारा जानता है,
  • पीना हो चुका जानता है,
  • पगडंडी जानता है,
  • चरने का परिसर जानता है,
  • शेष रखे दूध दुहता है,
  • जो बैल पिता है, अग्रिम है, उन्हें अतिरिक्त सम्मान देता है।

इन ग्यारह अंगों से संपन्न चरवाहा, भिक्षुओं, गाय के झुंड को पाल पाता है, बढ़ा पाता है।

उसी तरह, भिक्षुओं, यदि कोई भिक्षु इन ग्यारह अंगों से संपन्न हो, तो उसकी इस धर्म-विनय में वृद्धि, प्रगति, बढ़त होती है। कौन-से ग्यारह?

भिक्षुओं, कोई भिक्षु —

  • रूप में जानकार होता है,
  • लक्षण देखने में कुशल होता है,
  • मक्खियों के अंडे झाड़ता है,
  • फोड़ों को ढँकता है,
  • धुआँ करता है,
  • किनारा जानता है,
  • पीना हो चुका जानता है,
  • पगडंडी जानता है,
  • चरने का परिसर जानता है,
  • शेष रखे दूध दुहता है,
  • ऐसे भिक्षु, जो वरिष्ठ है, अनुभवी है, दीर्घकाल से प्रवज्ज्यित है, संघ के पिता है, संघ में अग्र है, वह उन्हें अतिरिक्त सम्मान देता है।

ग्यारह अंगों का अर्थ

(१) भिक्षुओं, कैसे कोई भिक्षु रूप में जानकार होता है?

भिक्षुओं, कोई भिक्षु यथास्वरूप समझता है कि जो भी रूप हैं, वे सभी ‘चार महाभूत’ हैं, चार महाभूत के आधार पर उपजे रूप हैं। इस तरह, भिक्षुओं, कोई भिक्षु रूप में जानकार होता है।


(२) आगे, भिक्षुओं, कैसे कोई भिक्षु लक्षण देखने में कुशल होता है?

भिक्षुओं, कोई भिक्षु यथास्वरूप समझता है कि मूर्ख अपने कर्मों के लक्षण से मूर्ख होता हैं, और पंडित अपने कर्मों के लक्षण से पंडित होता हैं। इस तरह, भिक्षुओं, कोई भिक्षु लक्षण देखने में कुशल होता है।


(३) आगे, भिक्षुओं, कैसे कोई भिक्षु मक्खियों के अंडे झाड़ता है?

भिक्षुओं, कोई भिक्षु —

  • उत्पन्न हुए “कामुक” विषयों को बर्दाश्त नहीं करता है, बल्कि वह उन्हें त्यागता है, हटाता है, दूर करता है, अस्तित्व से मिटा देता है।
  • उत्पन्न हुए “दुर्भावनापूर्ण” विषयों को…
  • उत्पन्न हुए " हिंसक" विषयों को…
  • उत्पन्न हुए “पाप अकुशल” स्वभावों को बर्दाश्त नहीं करता है, बल्कि वह उन्हें त्यागता है, हटाता है, दूर करता है, अस्तित्व से मिटा देता है।

— इस तरह, भिक्षुओं, कोई भिक्षु मक्खियों के अंडे झाड़ता है।


(४) आगे, भिक्षुओं, कैसे कोई भिक्षु फोड़ों को ढँकता है?

भिक्षुओं, जब कोई भिक्षु —

  • आँखों से कोई रूप देखता है, तो न वह उसकी छाप पकड़ता है, न ही उसकी आकर्षक विशेषताओं को ग्रहण करता है। यदि वह चक्षु-इंद्रिय पर संयम न रखे, तो लालसा या निराशा जैसे पाप-अकुशल स्वभाव उसे घेर सकते हैं। इसलिए वह संयम का मार्ग अपनाता है, चक्षु-इंद्रिय की रक्षा करता है, और उस पर संयम बरतता है।
  • कान से ध्वनि सुनता है…
  • नाक से गंध सूँघता है…
  • जीभ से स्वाद चखता है…
  • शरीर से संस्पर्श अनुभव करता है…
  • मन से विचार करता है, तो न वह उसकी छाप पकड़ता है, न ही उसकी आकर्षक विशेषताओं को ग्रहण करता है। यदि वह मन-इंद्रिय पर संयम न रखे, तो लालसा या निराशा जैसे पाप-अकुशल स्वभाव उसे घेर सकते हैं। इसलिए वह संयम का मार्ग अपनाता है, मन-इंद्रिय की रक्षा करता है, और उस पर संयम बरतता है।

— इस तरह, भिक्षुओं, कोई भिक्षु फोड़ों को ढँकता है।


(५) आगे, भिक्षुओं, कैसे कोई भिक्षु धुआँ करता है?

भिक्षुओं, कोई भिक्षु धर्म को जिस तरह सुना हो, जिस तरह याद रखा हो, उसे विस्तार से दूसरों को बताता है। इस तरह, भिक्षुओं, कोई भिक्षु धुआँ करता है। 3


(६) आगे, भिक्षुओं, कैसे कोई भिक्षु किनारा जानता है?

भिक्षुओं, कोई भिक्षु ऐसे भिक्षुओं से — जो बहुत धर्म सुने हो, सूत्र-निकायों के वारिस हो, धर्म धारण किए, विनय धारण किए, मातिका धारण किए हो — उनसे समय-समय पर जाकर पूछता है, प्रतिप्रश्न करता है कि “भंते, यह (सूत्र) क्या कहता है, इसका क्या अर्थ है?” तब वे आयुष्मान छिपे को खोलते हैं, पलटे को सीधा करते हैं, और ऐसे धर्म जो अनेक प्रकार से शंकास्पद हो, उन धर्मों के प्रति शंका को मिटाते हैं।

— इस तरह, भिक्षुओं, कोई भिक्षु (पीने का) किनारा जानता है?


(७) आगे, भिक्षुओं, कैसे कोई भिक्षु पीना हो चुका जानता है?

भिक्षुओं, जब किसी भिक्षु को तथागत के द्वारा घोषित धर्म-विनय बताया जाता है, तब उसे उसका अर्थ समझता है, उसका धर्म समझता है, और उसे धर्म से जुड़ी प्रसन्नता होती है। इस तरह, भिक्षुओं, कोई भिक्षु पीना हो चुका जानता है।


(८) आगे, भिक्षुओं, कैसे कोई भिक्षु पगडंडी जानता है?

भिक्षुओं, कोई भिक्षु यथास्वरूप आर्य अष्टांगिक मार्ग समझता है। इस तरह, भिक्षुओं, कोई भिक्षु पगडंडी जानता है।


(९) आगे, भिक्षुओं, कैसे कोई भिक्षु चरने का परिसर जानता है?

भिक्षुओं, कोई भिक्षु यथास्वरूप चार स्मृतिप्रस्थान समझता है। इस तरह, भिक्षुओं, कोई भिक्षु चरने का परिसर जानता है।


(१०) आगे, भिक्षुओं, कैसे कोई भिक्षु शेष रखे दूध दुहता है?

भिक्षुओं, जब किसी भिक्षु को कोई गृहस्थ चीवर, भिक्षान्न, आवास, रोगावश्यक औषधि भैषज्य माँगने के लिए आमंत्रित करता है, तो वह भिक्षु ग्रहण करने की मर्यादा जानता है। इस तरह, भिक्षुओं, कोई भिक्षु शेष रखे दूध दुहता है।


(११) आगे, भिक्षुओं, कैसे कोई भिक्षु ऐसे भिक्षुओं को सम्मान देता है, जो वरिष्ठ है, अनुभवी है, दीर्घकाल से प्रवज्ज्यित है, संघ के पिता है, संघ में अग्र है?

भिक्षुओं, कोई भिक्षु, ऐसे वरिष्ठ, अनुभवी, दीर्घकाल से प्रवज्ज्यित, संघ के पिता, संघ में अग्र भिक्षुओं के प्रति, उनके सामने और पीछे, हमेशा सद्भावपूर्ण कायिक कर्म में स्थित रहता है; सद्भावपूर्ण वाचिक कर्म में स्थित रहता है; सद्भावपूर्ण मनो कर्म में स्थित रहता है। इस तरह, भिक्षुओं, कोई भिक्षु ऐसे भिक्षुओं को सम्मान देता है, जो वरिष्ठ है, अनुभवी है, दीर्घकाल से प्रवज्ज्यित है, संघ के पिता है, संघ में अग्र है।

— इन ग्यारह अंगों से संपन्न भिक्षु, भिक्षुओं, इस धर्म-विनय में वृद्धि, प्रगति, बढ़त पाता है।

भगवान ने ऐसा कहा। हर्षित होकर भिक्षुओं ने भगवान की बात का अभिनंदन किया।

सुत्र समाप्त।


  1. चूँकि इस सूत्र में “ग्यारह” अंगों का वर्णन है, तो भला यह अंगुत्तरनिकाय ग्यारह-निपात से कैसे छूट सकता था? अवश्य, इस सूत्र को वहाँ कई बार दोहराया गया है — अंगुत्तरनिकाय ११.१७, ११.२२-२९, ११.५०२-९८१। ↩︎

  2. मातिका वास्तव में क्या है — इस पर विद्वानों की आम सहमति नहीं बन पायी है। सामान्यतः यह भिक्षु और भिक्षुणियों के दो पातिमोक्ख (विनय नियमावली) का नाम है। किन्तु, कुछ विद्वान इसे केवल नियमों की सूची न मानकर धर्म-विनय का गहरा सार समझते हैं, जिसे धारण किए भिक्षु धर्म-विनय के परम उद्देश्य को जानने हैं। वहीं कुछ विद्वान “मातिका” को धर्म की ‘विषय’ के अनुसार एक सुव्यवस्थित सूची या रूपरेखा मानते हैं। कुछ विद्वान कहते हैं कि यही विशिष्ठ सूची, आगे चलकर “अभिधम्म” के रूप में विकसित हुई होगी। एक अन्य दृष्टिकोण यह है कि “मातिका” वस्तुतः एक विशेष दृष्टिकोण है, जिसमें धर्मसूत्रों को ‘विनय’ की दृष्टि से, और विनयनियमों को ‘धर्म’ की दृष्टि से देखने का प्रयास किया गया है। ↩︎

  3. भिक्षु के धुआँ करने की उपमा, अत्यंत रोचक और रहस्यमयी सूत्र मज्झिमनिकाय २३ : वर्मिक सूत्र में भी मिलती है। वहाँ इसका अर्थ अपने कर्मों का लगातार चिंतन-मनन करने से है। ↩︎

Pali

३४६. एवं मे सुतं – एकं समयं भगवा सावत्थियं विहरति जेतवने अनाथपिण्डिकस्स आरामे. तत्र खो भगवा भिक्खू आमन्तेसि – ‘‘भिक्खवो’’ति. ‘‘भदन्ते’’ति ते भिक्खू भगवतो पच्चस्सोसुं. भगवा एतदवोच –

‘‘एकादसहि, भिक्खवे, अङ्गेहि समन्नागतो चरवाहाो अभब्बो गोगणं परिहरितुं फातिं कातुं [फातिकत्तुं (सी. पी.), फातिकातुं (स्या. कं.)]. कतमेहि एकादसहि? इध, भिक्खवे, चरवाहाो न रूपञ्ञू होति, न लक्खणकुसलो होति, न आसाटिकं हारेता [साटेता (सी. स्या. कं. पी.)] होति, न वणं पटिच्छादेता होति, न धूमं कत्ता होति, न तित्थं जानाति, न पीतं जानाति, न वीथिं जानाति, न गोचरकुसलो होति अनवसेसदोही च होति. ये ते उसभा गोपितरो गोपरिणायका ते न अतिरेकपूजाय पूजेता होति. इमेहि खो, भिक्खवे, एकादसहि अङ्गेहि समन्नागतो चरवाहाो अभब्बो गोगणं परिहरितुं फातिं कातुं. एवमेव खो, भिक्खवे, एकादसहि धम्मेहि समन्नागतो भिक्खु अभब्बो इमस्मिं धम्मविनये वुद्धिं विरूळ्हिं वेपुल्लं आपज्जितुं. कतमेहि एकादसहि? इध, भिक्खवे, भिक्खु न रूपञ्ञू होति, न लक्खणकुसलो होति, न आसाटिकं हारेता होति, न वणं पटिच्छादेता होति, न धूमं कत्ता होति, न तित्थं जानाति, न पीतं जानाति, न वीथिं जानाति, न गोचरकुसलो होति, अनवसेसदोही च होति. ये ते भिक्खू थेरा रत्तञ्ञू चिरपब्बजिता सङ्घपितरो सङ्घपरिणायका ते न अतिरेकपूजाय पूजेता होति.

३४७. ‘‘कथञ्च, भिक्खवे, भिक्खु न रूपञ्ञू होति? इध, भिक्खवे, भिक्खु यं किञ्चि रूपं सब्बं रूपं ‘चत्तारि महाभूतानि, चतुन्नञ्च महाभूतानं उपादायरूप’न्ति यथाभूतं नप्पजानाति. एवं खो, भिक्खवे, भिक्खु न रूपञ्ञू होति.

‘‘कथञ्च, भिक्खवे, भिक्खु न लक्खणकुसलो होति? इध, भिक्खवे, भिक्खु ‘कम्मलक्खणो बालो, कम्मलक्खणो पण्डितो’ति यथाभूतं नप्पजानाति. एवं खो, भिक्खवे, भिक्खु न लक्खणकुसलो होति.

‘‘कथञ्च, भिक्खवे, भिक्खु न आसाटिकं हारेता होति? इध, भिक्खवे, भिक्खु उप्पन्नं कामवितक्कं अधिवासेति, नप्पजहति न विनोदेति न ब्यन्ती करोति न अनभावं गमेति. उप्पन्नं ब्यापादवितक्कं…पे… उप्पन्नं विहिंसावितक्कं…पे… उप्पन्नुप्पन्ने पापके अकुसले धम्मे अधिवासेति, नप्पजहति न विनोदेति न ब्यन्ती करोति न अनभावं गमेति. एवं खो, भिक्खवे, भिक्खु न आसाटिकं हारेता होति.

‘‘कथञ्च, भिक्खवे, भिक्खु न वणं पटिच्छादेता होति? इध, भिक्खवे, भिक्खु चक्खुना रूपं दिस्वा निमित्तग्गाही होति अनुब्यञ्जनग्गाही. यत्वाधिकरणमेनं चक्खुन्द्रियं असंवुतं विहरन्तं अभिज्झादोमनस्सा पापका अकुसला धम्मा अन्वास्सवेय्युं, तस्स संवराय न पटिपज्जति, न रक्खति चक्खुन्द्रियं, चक्खुन्द्रिये न संवरं आपज्जति. सोतेन सद्दं सुत्वा…पे… घानेन गन्धं घायित्वा…पे… जिव्हाय रसं सायित्वा…पे… कायेन फोट्ठब्बं फुसित्वा…पे… मनसा धम्मं विञ्ञाय निमित्तग्गाही होति अनुब्यञ्जनग्गाही. यत्वाधिकरणमेनं मनिन्द्रियं असंवुतं विहरन्तं अभिज्झादोमनस्सा पापका अकुसला धम्मा अन्वास्सवेय्युं, तस्स संवराय न पटिपज्जति, न रक्खति मनिन्द्रियं, मनिन्द्रिये न संवरं आपज्जति. एवं खो, भिक्खवे, भिक्खु न वणं पटिच्छादेता होति.

‘‘कथञ्च, भिक्खवे, भिक्खु न धूमं कत्ता होति? इध, भिक्खवे, भिक्खु यथासुतं यथापरियत्तं धम्मं न वित्थारेन परेसं देसेता होति. एवं खो, भिक्खवे, भिक्खु न धूमं कत्ता होति.

‘‘कथञ्च, भिक्खवे, भिक्खु न तित्थं जानाति? इध, भिक्खवे, भिक्खु ये ते भिक्खू बहुस्सुता आगतागमा धम्मधरा विनयधरा मातिकाधरा, ते कालेन कालं उपसङ्कमित्वा न परिपुच्छति, न परिपञ्हति – ‘इदं, भन्ते, कथं? इमस्स को अत्थो’ति? तस्स ते आयस्मन्तो अविवटञ्चेव न विवरन्ति, अनुत्तानीकतञ्च न उत्तानी करोन्ति, अनेकविहितेसु च कङ्खाठानीयेसु धम्मेसु कङ्खं न पटिविनोदेन्ति. एवं खो, भिक्खवे, भिक्खु न तित्थं जानाति.

‘‘कथञ्च, भिक्खवे, भिक्खु न पीतं जानाति? इध, भिक्खवे, भिक्खु तथागतप्पवेदिते धम्मविनये देसियमाने न लभति अत्थवेदं, न लभति धम्मवेदं, न लभति धम्मूपसंहितं पामोज्जं. एवं खो, भिक्खवे, भिक्खु न पीतं जानाति.

‘‘कथञ्च, भिक्खवे, भिक्खु न वीथिं जानाति? इध, भिक्खवे, भिक्खु अरियं अट्ठङ्गिकं मग्गं यथाभूतं नप्पजानाति. एवं खो, भिक्खवे, भिक्खु न वीथिं जानाति.

‘‘कथञ्च, भिक्खवे, भिक्खु न गोचरकुसलो होति? इध, भिक्खवे, भिक्खु चत्तारो सतिपट्ठाने यथाभूतं नप्पजानाति. एवं खो, भिक्खवे , भिक्खु न गोचरकुसलो होति.

‘‘कथञ्च, भिक्खवे, भिक्खु अनवसेसदोही होति? इध, भिक्खवे, भिक्खुं सद्धा गहपतिका अभिहट्ठुं पवारेन्ति चीवरपिण्डपातसेनासनगिलानप्पच्चयभेसज्जपरिक्खारेहि, तत्र भिक्खु मत्तं न जानाति पटिग्गहणाय. एवं खो, भिक्खवे, भिक्खु अनवसेसदोही होति.

‘‘कथञ्च, भिक्खवे, भिक्खु ये ते भिक्खू थेरा रत्तञ्ञू चिरपब्बजिता सङ्घपितरो सङ्घपरिणायका ते न अतिरेकपूजाय पूजेता होति ? इध, भिक्खवे, भिक्खु ये ते भिक्खू थेरा रत्तञ्ञू चिरपब्बजिता सङ्घपितरो सङ्घपरिणायका, तेसु न मेत्तं कायकम्मं पच्चुपट्ठापेति आवि चेव रहो च; न मेत्तं वचीकम्मं पच्चुपट्ठापेति आवि चेव रहो च; न मेत्तं मनोकम्मं पच्चुपट्ठापेति आवि चेव रहो च. एवं खो, भिक्खवे, भिक्खु ये ते भिक्खू थेरा रत्तञ्ञू चिरपब्बजिता सङ्घपितरो सङ्घपरिणायका ते न अतिरेकपूजाय पूजेता होति.

‘‘इमेहि खो भिक्खवे एकादसहि धम्मेहि समन्नागतो भिक्खु अभब्बो इमस्मिं धम्मविनये वुद्धिं विरूळ्हिं वेपुल्लं आपज्जितुं.

३४८. ‘‘एकादसहि , भिक्खवे, अङ्गेहि समन्नागतो चरवाहाो भब्बो गोगणं परिहरितुं फातिं कातुं. कतमेहि एकादसहि? इध, भिक्खवे , चरवाहाो रूपञ्ञू होति, लक्खणकुसलो होति, आसाटिकं हारेता होति, वणं पटिच्छादेता होति, धूमं कत्ता होति, तित्थं जानाति, पीतं जानाति, वीथिं जानाति, गोचरकुसलो होति, सावसेसदोही च होति. ये ते उसभा गोपितरो गोपरिणायका ते अतिरेकपूजाय पूजेता होति. इमेहि खो, भिक्खवे, एकादसहि अङ्गेहि समन्नागतो चरवाहाो भब्बो गोगणं परिहरितुं फातिं कातुं. एवमेव खो, भिक्खवे, एकादसहि धम्मेहि समन्नागतो भिक्खु भब्बो इमस्मिं धम्मविनये वुद्धिं विरूळ्हिं वेपुल्लं आपज्जितुं. कतमेहि एकादसहि? इध, भिक्खवे, भिक्खु रूपञ्ञू होति, लक्खणकुसलो होति, आसाटिकं हारेता होति, वणं पटिच्छादेता होति, धूमं कत्ता होति, तित्थं जानाति, पीतं जानाति, वीथिं जानाति, गोचरकुसलो होति, सावसेसदोही च होति. ये ते भिक्खू थेरा रत्तञ्ञू चिरपब्बजिता सङ्घपितरो सङ्घपरिणायका ते अतिरेकपूजाय पूजेता होति.

३४९. ‘‘कथञ्च, भिक्खवे, भिक्खु रूपञ्ञू होति? इध, भिक्खवे, भिक्खु यं किञ्चि रूपं सब्बं रूपं ‘चत्तारि महाभूतानि , चतुन्नञ्च महाभूतानं उपादायरूप’न्ति यथाभूतं पजानाति. एवं खो, भिक्खवे, भिक्खु रूपञ्ञू होति.

‘‘कथञ्च, भिक्खवे, भिक्खु लक्खणकुसलो होति? इध, भिक्खवे, भिक्खु कम्मलक्खणो बालो, कम्मलक्खणो पण्डितोति यथाभूतं पजानाति. एवं खो, भिक्खवे, भिक्खु लक्खणकुसलो होति.

‘‘कथञ्च , भिक्खवे, भिक्खु आसाटिकं हारेता होति? इध, भिक्खवे, भिक्खु उप्पन्नं कामवितक्कं नाधिवासेति, पजहति विनोदेति ब्यन्ती करोति अनभावं गमेति. उप्पन्नं ब्यापादवितक्कं…पे… उप्पन्नं विहिंसावितक्कं…पे… उप्पन्नुप्पन्ने पापके अकुसले धम्मे नाधिवासेति, पजहति विनोदेति ब्यन्ती करोति अनभावं गमेति. एवं खो, भिक्खवे, भिक्खु आसाटिकं हारेता होति.

‘‘कथञ्च, भिक्खवे, भिक्खु वणं पटिच्छादेता होति? इध, भिक्खवे, भिक्खु चक्खुना रूपं दिस्वा न निमित्तग्गाही होति नानुब्यञ्जनग्गाही. यत्वाधिकरणमेनं चक्खुन्द्रियं असंवुतं विहरन्तं अभिज्झादोमनस्सा पापका अकुसला धम्मा अन्वास्सवेय्युं तस्स संवराय पटिपज्जति, रक्खति चक्खुन्द्रियं, चक्खुन्द्रिये संवरं आपज्जति. सोतेन सद्दं सुत्वा…पे… घानेन गन्धं घायित्वा…पे… जिव्हाय रसं सायित्वा…पे… कायेन फोट्ठब्बं फुसित्वा…पे… मनसा धम्मं विञ्ञाय न निमित्तग्गाही होति नानुब्यञ्जनग्गाही. यत्वाधिकरणमेनं मनिन्द्रियं असंवुतं विहरन्तं अभिज्झादोमनस्सा पापका अकुसला धम्मा अन्वास्सवेय्युं तस्स संवराय पटिपज्जति, रक्खति मनिन्द्रियं, मनिन्द्रिये संवरं आपज्जति. एवं खो, भिक्खवे, भिक्खु वणं पटिच्छादेता होति.

‘‘कथञ्च, भिक्खवे, भिक्खु धूमं कत्ता होति? इध, भिक्खवे, भिक्खु यथासुतं यथापरियत्तं धम्मं वित्थारेन परेसं देसेता होति. एवं खो, भिक्खवे, भिक्खु धूमं कत्ता होति.

‘‘कथञ्च, भिक्खवे, भिक्खु तित्थं जानाति? इध, भिक्खवे, भिक्खु ये ते भिक्खू बहुस्सुता आगतागमा धम्मधरा विनयधरा मातिकाधरा ते कालेन कालं उपसङ्कमित्वा परिपुच्छति, परिपञ्हति – ‘इदं, भन्ते, कथं? इमस्स को अत्थो’ति? तस्स ते आयस्मन्तो अविवटञ्चेव विवरन्ति, अनुत्तानीकतञ्च उत्तानी करोन्ति, अनेकविहितेसु च कङ्खाठानीयेसु धम्मेसु कङ्खं पटिविनोदेन्ति. एवं खो, भिक्खवे, भिक्खु तित्थं जानाति.

‘‘कथञ्च भिक्खवे, भिक्खु पीतं जानाति? इध, भिक्खवे, भिक्खु तथागतप्पवेदिते धम्मविनये देसियमाने लभति अत्थवेदं, लभति धम्मवेदं, लभति धम्मूपसंहितं पामोज्जं. एवं खो, भिक्खवे, भिक्खु पीतं जानाति.

‘‘कथञ्च , भिक्खवे, भिक्खु वीथिं जानाति? इध, भिक्खवे, भिक्खु अरियं अट्ठङ्गिकं मग्गं यथाभूतं पजानाति. एवं खो, भिक्खवे, भिक्खु वीथिं जानाति.

‘‘कथञ्च, भिक्खवे, भिक्खु गोचरकुसलो होति? इध, भिक्खवे, भिक्खु चत्तारो सतिपट्ठाने यथाभूतं पजानाति. एवं खो, भिक्खवे, भिक्खु गोचरकुसलो होति.

‘‘कथञ्च भिक्खवे, भिक्खु सावसेसदोही होति? इध, भिक्खवे, भिक्खुं सद्धा गहपतिका अभिहट्ठुं पवारेन्ति चीवरपिण्डपातसेनासनगिलानप्पच्चयभेसज्जपरिक्खारेहि. तत्र भिक्खु मत्तं जानाति पटिग्गहणाय. एवं खो, भिक्खवे, भिक्खु सावसेसदोही होति.

‘‘कथञ्च, भिक्खवे, भिक्खु ये ते भिक्खू थेरा रत्तञ्ञू चिरपब्बजिता सङ्घपितरो सङ्घपरिणायका, ते अतिरेकपूजाय पूजेता होति? इध, भिक्खवे, भिक्खु ये ते भिक्खू थेरा रत्तञ्ञू चिरपब्बजिता सङ्घपितरो सङ्घपरिणायका तेसु मेत्तं कायकम्मं पच्चुपट्ठापेति आवि चेव रहो च; मेत्तं वचीकम्मं पच्चुपट्ठापेति आवि चेव रहो च; मेत्तं मनोकम्मं पच्चुपट्ठापेति आवि चेव रहो च. एवं खो, भिक्खवे, भिक्खु ये ते भिक्खू थेरा रत्तञ्ञू चिरपब्बजिता सङ्घपितरो सङ्घपरिणायका ते अतिरेकपूजाय पूजेता होति.

‘‘इमेहि खो, भिक्खवे, एकादसहि धम्मेहि समन्नागतो भिक्खु भब्बो इमस्मिं धम्मविनये वुद्धिं विरूळ्हिं वेपुल्लं आपज्जितु’’न्ति.

इदमवोच भगवा. अत्तमना ते भिक्खू भगवतो भासितं अभिनन्दुन्ति.

महाचरवाहासुत्तं निट्ठितं ततियं.