नमो तस्स भगवतो अरहतो सम्मा-सम्बुद्धस्स

📜 सच्चक से बहस

✦ ॥ नमो तस्स भगवतो अरहतो सम्मासम्बुद्धस्स ॥ ✦

Hindi

ऐसा मैंने सुना — एक समय भगवान वैशाली के महावन में स्थित कूटागार मंडप में विहार कर रहे थे। उस समय सच्चक निगण्ठपुत्त वैशाली में रहता था, 1 जो वाद-विवादी, बहसकर्ता (=शास्त्रार्थ करने वाला), बहुत से लोगों द्वारा अच्छा माना जाता था।

वह वैशाली की सभाओं में ऐसा बोलता था, “मैं किसी श्रमण-ब्राह्मण को नहीं देखता — फिर चाहे वह किसी संघ का स्वामी हो, किसी समुदाय का नेता हो, किसी परंपरा का आचार्य हो, या भले ही जो अरहंत सम्यक-सम्बुद्ध होने का दावा करता हो — जिससे वाद-विवाद करूँ तो उसे हिला न दूँ, डुला न दूँ, उसमें कपकपी न पैदा करूँ, थरथराहट न पैदा करूँ, उसके बगल से पसीने न छुड़ा दूँ। अरे मनुष्यों के बारे क्या कहूँ? यदि मैं किसी अचेत खंभे से वाद-विवाद करूँ, तो उस वाद-विवाद से अचेत खंभा भी हिलने लगे, डुलने लगे, कपकपाने लगे, थरथराने लगे।”

तब सुबह होने पर, आयुष्मान अस्सजि 2 ने चीवर ओढ़, पात्र लेकर, वैशाली में भिक्षाटन के लिए प्रवेश किया। तब सच्चक निगण्ठपुत्त ने चहलकदमी कर घूमते हुए, टहलते हुए, आयुष्मान अस्सजि को दूर से आते हुए देखा। देख कर वह आयुष्मान अस्सजि के पास गया। जाकर आयुष्मान अस्सजि से हालचाल पूछा। मैत्रीपूर्ण वार्तालाप कर वह एक ओर खड़ा हुआ। एक ओर खड़े होकर सच्चक निगण्ठपुत्त ने आयुष्मान अस्सजि से कहा, “श्रीमान अस्सजि, श्रमण गौतम अपने श्रावकों को कैसे सिखाते हैं? किस तरह की सीख को श्रमण गौतम अपने श्रावकों को ज्यादातर बताते हैं?”

“अग्गिवेस्सन (=सच्चक के कुल का नाम), भगवान हम श्रावकों को इस तरह सिखाते हैं, इस तरह की सीख को भगवान हम श्रावकों को ज्यादातर बताते हैं — ‘भिक्षुओं, रूप अनित्य हैं। अनुभूतियाँ अनित्य हैं। संज्ञाएं अनित्य है। रचनाएं अनित्य हैं। चैतन्य अनित्य हैं।

भिक्षुओं, रूप अनात्म हैं। अनुभूतियाँ अनात्म हैं। संज्ञाएं अनात्म है। रचनाएं अनात्म हैं। चैतन्य अनात्म हैं। सभी रचनाएँ अनित्य हैं। सभी धर्म अनात्म हैं।’

इस तरह, अग्गिवेस्सन, भगवान हम श्रावकों को सिखाते हैं। इस तरह की सीख को भगवान हम श्रावकों को ज्यादातर बताते हैं।”

“ऊफ़, कितना बुरा सुना! श्रीमान अस्सजि, सुनकर बुरा लगा कि श्रमण गौतम की ऐसी धारणा है। काश, मैं कभी, किसी समय श्रीमान गौतम के साथ भेट करूँ। काश, हमारा कभी वार्तालाप हो। काश मैं उनकी पापी धारणा हटा पाऊँ।”

वाद-विवाद की तैयारी

तब उस समय, पाँच सौ लिच्छवि 3 किसी काम से अपने सभागृह में बैठक कर रहे थे। तब सच्चक निगण्ठपुत्त उन लिच्छवियों के पास गया, और जाकर लिच्छवियों से कहा —

“आओ, आओ लिच्छवि श्रीमानों। चलो, चलो लिच्छवि श्रीमानों। आज मैं श्रमण गौतम के साथ वार्तालाप करूँगा। यदि श्रमण गौतम उस बात पर टिकते हैं जिस बात पर उनके प्रसिद्ध शिष्य अस्सजि नामक भिक्षु टिके हुए हैं, तब जैसे कोई बलवान पुरुष, किसी ऊनी मुलायम भेड़ को बाल से पकड़कर ऐसा खींचता है, वैसा खींचता है, गोल-गोल घुमाता है — उसी तरह मैं भी वाद-विवाद कर श्रमण गौतम को ऐसा खिचूँगा, वैसा खिचूँगा, गोल-गोल घुमाऊँगा।

जैसे कोई शराब बनाने वाला बलवान कामगार, बड़े से छलने को गहरी टंकी में डालकर, उसके कोनों से पकड़कर ऐसा खींचता है, वैसा खींचता है, गोल-गोल घुमाता है — उसी तरह मैं भी श्रमण गौतम से वाद-विवाद कर ऐसा खिचूँगा, वैसा खिचूँगा, गोल-गोल घुमाऊँगा। 4

जैसे कोई शराबख़ाने का पहलवान गुंडा, घोड़े के बाल से बने छलने को कोनों से पकड़कर ऐसा झाड़ता है, वैसा झकझोरता है, पटक-पटककर मारता है — उसी तरह मैं भी श्रमण गौतम से वाद-विवाद से ऐसा झाड़ूँगा, वैसा झकझोरूँगा, पटक-पटककर मारूँगा। 5

जैसे कोई साठ बरस का हाथी, गहरे सरोवर में उतरकर सन धोने का खेल खेलता है — उसी तरह मैं भी श्रमण गौतम को सन धोने का खेल समझकर खेलूँगा। 6

आओ, आओ लिच्छवि श्रीमानों। चलो, चलो लिच्छवि श्रीमानों। आज मैं श्रमण गौतम के साथ वार्तालाप करूँगा।”

कुछ लिच्छवियों को लगा, “श्रमण गौतम भला कौन होते हैं जो सच्चक निगण्ठपुत्त की धारणा का खण्डन कर पाए? सच्चक निगण्ठपुत्त ही श्रमण गौतम की धारणा का खण्डन करेगा!”

कुछ (श्रद्धालु) लिच्छवियों को लगा, “सच्चक निगण्ठपुत्त भला कौन होता है जो भगवान की धारणा का खण्डन कर पाए? भगवान ही सच्चक निगण्ठपुत्त की धारणा का खण्डन करेंगे!”

भगवान से भेट

तब सच्चक निगण्ठपुत्त, पाँच सौ लिच्छवियों से घिरा हुआ, महावन में स्थित कूटागार मंडप में गया। उस समय बहुत से भिक्षु आकाश के नीचे चक्रमण ध्यान कर रहे थे।

तब सच्चक निगण्ठपुत्त उन भिक्षुओं के पास गया, और जाकर उन भिक्षुओं से कहा, “कहाँ हैं श्रीमान गौतम, श्रीमानों? हम श्रीमान गौतम का दर्शन करना चाहते हैं।”

“अग्गिवेस्सन, भगवान गहरे महावन में जाकर किसी पेड़ के तले बैठकर दिन का विहार कर रहे हैं।”

तब सच्चक निगण्ठपुत्त, बहुत बड़ी लिच्छवियों की परिषद के साथ, महावन में जाकर भगवान के पास गया। जाकर भगवान से हालचाल पूछा। मैत्रीपूर्ण वार्तालाप कर वह एक ओर बैठ गया। कुछ लिच्छवियों ने भगवान को अभिवादन किया, और एक ओर बैठ गए। कुछ ने भगवान से नम्रतापूर्ण वार्तालाप किया, और एक ओर बैठ गए। कुछ ने हाथ जोड़कर अंजलिबद्ध वंदन किया, और एक ओर बैठ गए। किसी ने भगवान को अपना नाम और गोत्र बताया, और एक ओर बैठ गए। और कोई चुपचाप ही एक ओर बैठ गए।

एक ओर बैठकर सच्चक निगण्ठपुत्त ने भगवान से कहा, “मुझे श्रीमान गौतम से कुछ पूछना है। श्रीमान गौतम मुझे अवसर देकर प्रश्नों का उत्तर दें।”

“पुछो, अग्गिवेस्सन, जो शंका हो।”

वाद विवाद शुरू

“श्रमण गौतम अपने श्रावकों को कैसे सिखाते हैं? किस तरह की सीख को श्रमण गौतम अपने श्रावकों को ज्यादातर बताते हैं?”

“मैं अपने श्रावकों को, अग्गिवेस्सन, इस तरह सिखाता हूँ, इस तरह की सीख को मैं अपने श्रावकों को ज्यादातर बताता हूँ — ‘भिक्षुओं, रूप अनित्य हैं। अनुभूतियाँ अनित्य हैं। संज्ञाएं अनित्य है। रचनाएं अनित्य हैं। चैतन्य अनित्य हैं।

भिक्षुओं, रूप अनात्म हैं। अनुभूतियाँ अनात्म हैं। संज्ञाएं अनात्म है। रचनाएं अनात्म हैं। चैतन्य अनात्म हैं। सभी रचनाएँ अनित्य हैं। सभी धर्म अनात्म हैं।’

इस तरह, अग्गिवेस्सन, मैं अपने श्रावकों को सिखाता हूँ। इस तरह की सीख को मैं अपने श्रावकों को ज्यादातर बताता हूँ।”

“मुझे एक उपमा सूझ रही है, श्रीमान गौतम।”

“सूझें तुम्हें, अग्गिवेस्सन।” भगवान ने कहा।

“जैसे, श्रीमान गौतम, जितने भी बीज और पौधे बढ़ते हैं, वृद्धि पाते हैं, विपुल होते हैं, वे सभी पृथ्वी पर निश्रित होकर, पृथ्वी पर स्थित होकर बढ़ते हैं, वृद्धि पाते हैं, विपुल होते हैं। जैसे, श्रीमान गौतम, बल लगाने वाले जो भी कार्य किए जाते हैं, वे सभी पृथ्वी पर निश्रित होकर, पृथ्वी पर स्थित होकर ही किए जाते हैं।

उसी तरह, श्रीमान गौतम, रूप ही किसी व्यक्ति का आत्म (=स्व) होता है। वह रूप पर स्थित होकर ही पुण्य या अपुण्य करता है। अनुभूति ही किसी व्यक्ति का आत्म होती है। वह अनुभूति पर स्थित होकर ही पुण्य या अपुण्य करता है। संज्ञा ही किसी व्यक्ति का आत्म होती है। वह अनुभूति पर स्थित होकर ही पुण्य या अपुण्य करता है। रचना ही किसी व्यक्ति का आत्म होती है। वह अनुभूति पर स्थित होकर ही पुण्य या अपुण्य करता है। चैतन्य ही किसी व्यक्ति का आत्म होती है। वह अनुभूति पर स्थित होकर ही पुण्य या अपुण्य करता है।”

“तब, अग्गिवेस्सन, क्या तुम यह कह रहे हो कि — ‘रूप मेरा आत्म है, अनुभूति मेरा आत्म है, संज्ञा मेरा आत्म है, रचना मेरा आत्म है, चैतन्य मेरा आत्म है’?”

“हाँ, श्रीमान गौतम, मैं वाकई यही कह रहा हूँ कि — ‘रूप मेरा आत्म है। अनुभूति मेरा आत्म है। संज्ञा मेरा आत्म है। रचना मेरा आत्म है। चैतन्य मेरा आत्म है।’ और, यह विशाल जनता भी (यही कहती है)।”

“अग्गिवेस्सन, तुम्हें इस विशाल जनता का क्या करना है? तुम अपनी धारणा की बात करो।” 7

“ठीक है, श्रीमान गौतम, मैं यह कह रहा हूँ कि — ‘रूप मेरा आत्म है। अनुभूति मेरा आत्म है। संज्ञा मेरा आत्म है। रचना मेरा आत्म है। चैतन्य मेरा आत्म है।’”

“ठीक है, अग्गिवेस्सन, अब मैं तुमसे प्रतिप्रश्न करता हूँ। तुम्हें जैसे अच्छा लगे, वैसा उत्तर दो। क्या मानते हो, अग्गिवेस्सन? जैसे कोई राजतिलक हुआ क्षत्रिय राजा हो, जैसे कोसल देश का राजा प्रसेनजित, या मागध देश का राजा अजातशत्रु वैदेहीपुत्र — जिसका अपने राज्य में प्रभुत्व हो। क्या वह जिसे फाँसी देना चाहे, दे सकता है? जिसे दंडित करना चाहे, कर सकता है? जिसे तड़ीपार करना चाहे, कर सकता है?”

“हाँ, श्रीमान गौतम, कोई राजतिलक हुआ क्षत्रिय राजा… जिसका अपने राज्य में प्रभुत्व हो, वह जिसे फाँसी देना चाहे, दे सकता है। जिसे दंडित करना चाहे, कर सकता है। जिसे तड़ीपार करना चाहे, कर सकता है।

वे ही नहीं, श्रीमान गौतम, कुछ गणतांत्रिक समुदाय जैसे वज्जि और मल्ल भी अपने राज्य में प्रभुत्व चलाते हैं। वे जिसे फाँसी देना चाहे, दे सकते हैं; जिसे दंडित करना चाहे, कर सकते हैं; जिसे तड़ीपार करना चाहे, कर सकते हैं। तब भला कोई राजतिलक हुआ क्षत्रिय राजा, जैसे कोसल देश का राजा प्रसेनजित, या मागध देश का राजा अजातशत्रु वैदेहीपुत्र — क्यों अपने राज्य में प्रभुत्व नहीं चलाएगा? अवश्य ही, श्रीमान गौतम, वह अपना प्रभुत्व चलाएगा। वह उनका अधिकार है।”

“तब क्या मानते हो, अग्गिवेस्सन? जब तुम कहते हो कि ‘रूप मेरा आत्म है।’ तब क्या तुम्हारा उस रूप पर प्रभुत्व चलता है — ‘मेरा रूप ऐसा हो, वैसा न हो’?”

जब ऐसा कहा गया, तब सच्चक निगण्ठपुत्त चुप हो गया।

तब भगवान ने सच्चक निगण्ठपुत्त से दुबारा पूछा, “तब क्या मानते हो, अग्गिवेस्सन? जब तुम कहते हो कि ‘रूप मेरा आत्म है।’ तब क्या तुम्हारा उस रूप पर प्रभुत्व चलता है — ‘मेरा रूप ऐसा हो, वैसा न हो’?”

दूसरी बार भी सच्चक निगण्ठपुत्त चुप रहा ।

तब भगवान ने सच्चक निगण्ठपुत्त से कहा, “उत्तर दो, अग्गिवेस्सन। यह चुप रहने का समय नहीं है। जो कोई तथागत से तीन बार धार्मिक प्रश्न पूछे जाने पर भी उत्तर नहीं देता, उसका सिर यही सात टुकड़ों में फट जाता है।”

तब उसी समय वज्रपाणी यक्ष — अत्यंत भारी और जलती-दहकती-धधकती लोहे की गदा उठाए — सच्चक निगण्ठपुत्त के सिर के ऊपर आकाश में खड़ा हुआ, [सोचते हुए:] ‘अब यदि इस सच्चक निगण्ठपुत्त ने तथागत से तीसरी बार धार्मिक पूछे जाने पर भी उत्तर नहीं दिया, तो मैं उसके सिर को यही सात टुकड़े कर दूँगा!’

उस वज्रपाणी यक्ष को भगवान देख रहे थे, और सच्चक निगण्ठपुत्त भी देख पा रहा था। तब उसे देखकर सच्चक निगण्ठपुत्त भयभीत हुआ, आतंकित हुआ, उसके रोंगटे खड़े हुए। तब वह भगवान से सुरक्षा चाहते हुए, भगवान से बचाव चाहते हुए, भगवान की शरण चाहते हुए, उसने कहा, “पूछिए, श्रीमान गौतम। मैं उत्तर दूँगा।”

“तब क्या मानते हो, अग्गिवेस्सन? जब तुम कहते हो कि ‘रूप मेरा आत्म है।’ तब क्या तुम्हारा उस रूप पर प्रभुत्व चलता है — ‘मेरा रूप ऐसा हो, वैसा न हो’?”

“नहीं, श्रीमान गौतम।”

“ध्यान दो, अग्गिवेस्सन, सोच-विचार कर उत्तर दो। जिस बात को तुमने पहले कहा और जिस बात को बाद में कहा — वे दोनों आपस में जुड़ नहीं रही है। और, क्या मानते हो, अग्गिवेस्सन? जब तुम कहते हो कि ‘अनुभूति मेरा आत्म है।’ तब क्या तुम्हारा उस अनुभूति पर प्रभुत्व चलता है — ‘मेरी अनुभूति ऐसी हो, वैसी न हो’?”

“नहीं, श्रीमान गौतम।”

“ध्यान दो, अग्गिवेस्सन, सोच-विचार कर उत्तर दो। जिस बात को तुमने पहले कहा और जिस बात को बाद में कहा — वे दोनों आपस में जुड़ नहीं रही है। और, क्या मानते हो, अग्गिवेस्सन? जब तुम कहते हो कि ‘संज्ञा मेरा आत्म है।’ तब क्या तुम्हारा उस संज्ञा पर प्रभुत्व चलता है — ‘मेरी संज्ञा ऐसी हो, वैसी न हो’?”

“नहीं, श्रीमान गौतम।”

“ध्यान दो, अग्गिवेस्सन, सोच-विचार कर उत्तर दो। जिस बात को तुमने पहले कहा और जिस बात को बाद में कहा — वे दोनों आपस में जुड़ नहीं रही है। और, क्या मानते हो, अग्गिवेस्सन? जब तुम कहते हो कि ‘रचना मेरा आत्म है।’ तब क्या तुम्हारा उस रचना पर प्रभुत्व चलता है — ‘मेरी रचना ऐसी हो, वैसी न हो’?”

“नहीं, श्रीमान गौतम।”

“ध्यान दो, अग्गिवेस्सन, सोच-विचार कर उत्तर दो। जिस बात को तुमने पहले कहा और जिस बात को बाद में कहा — वे दोनों आपस में जुड़ नहीं रही है। और, क्या मानते हो, अग्गिवेस्सन? जब तुम कहते हो कि ‘चैतन्य मेरा आत्म है।’ तब क्या तुम्हारा उस चैतन्य पर प्रभुत्व चलता है — ‘मेरा चैतन्य ऐसा हो, वैसा न हो’?”

“नहीं, श्रीमान गौतम।”

“ध्यान दो, अग्गिवेस्सन, सोच-विचार कर उत्तर दो। जिस बात को तुमने पहले कहा और जिस बात को बाद में कहा — वे दोनों आपस में जुड़ नहीं रही है। और, क्या मानते हो, अग्गिवेस्सन? रूप नित्य है या अनित्य?”

“अनित्य, श्रीमान गौतम।”

“जो नित्य नहीं, वह कष्टदायी है या सुखदायी?”

“कष्टदायी, श्रीमान गौतम।”

“जो नित्य नहीं, कष्टदायी है, परिवर्तनशील है, क्या उसे इस तरह देखना योग्य है कि ‘यह मेरा है, यह मेरा आत्म है, यही तो मैं हूँ’?”

“नहीं, श्रीमान गौतम।”

“संवेदना नित्य है या अनित्य?… नजरिया नित्य है या अनित्य?… रचना नित्य है या अनित्य?… चैतन्य नित्य है या अनित्य?”

“अनित्य, श्रीमान गौतम।”

“जो नित्य नहीं, वह कष्टदायी है या सुखदायी?”

“कष्टदायी, श्रीमान गौतम।”

“जो नित्य नहीं, कष्टदायी है, परिवर्तनशील है, क्या उसे इस तरह देखना योग्य है कि ‘यह मेरा है, यह मेरा आत्म है, यही तो मैं हूँ’?”

“नहीं, श्रीमान गौतम।”

“क्या मानते हो, अग्गिवेस्सन? यदि कोई व्यक्ति दुःख से चिपकता है, दुःख को पकड़ता है, दुःख से आसक्त होता है, और दुःख को ‘यह मैं हूँ, यह मेरा है, यह मेरी आत्मा है’, के तौर पर देखता है, तो क्या वह स्वयं दुःख को पूरी तरह समझ पाएगा? या दुःख को पूरी तरह मिटा कर विहार कर पाएगा?”

“कैसे कर पाएगा, श्रीमान गौतम? नहीं कर पाएगा, श्रीमान गौतम।”

“तब क्या मानते हो, अग्गिवेस्सन? यदि ऐसा हो तो कि जब तुम दुःख को ‘यह मैं हूँ, यह मेरा है, यह मेरी आत्मा है’, के तौर पर देखते हो, तब क्या तुम दुःख से चिपकते नहीं हो, दुःख को पकड़ते नहीं हो, दुःख से आसक्त होते नहीं हो?”

“कैसे नहीं होता, श्रीमान गौतम? होता ही हूँ, श्रीमान गौतम।””

जैसे, अग्गिवेस्सन, कोई पुरुष सारकाष्ठ चाहता हो, वह सारकाष्ठ को ढूँढते हुए, सारकाष्ठ की खोज में एक तेज कुल्हाड़ी लेकर जंगल में प्रवेश करता है। वहाँ उसे एक बड़े केले का तना देखता है — सीधा, कोमल, और अपरिपक्व। वह उसे मूल से काटता है। मूल से काटकर, फिर उसका सिरा छांटता है। सिरा छांटकर, फिर उसके पत्तों की आवरण परतों को खोलकर फैलाता है। किन्तु उसे मृदुकाष्ठ भी नहीं मिलेगी, तो सारकाष्ठ की बात ही क्या?

उसी तरह, अग्गिवेस्सन, जब मैंने तुम्हें तुम्हारी स्वयं की बातों से जाँचा, परखा, और पूछताछ किया, तब तुम खोखले, तुच्छ और फालतू लगे।

किन्तु वह तुम ही थे, अग्गिवेस्सन, जो वैशाली की सभाओं में बोलते थे — ‘मैं किसी श्रमण-ब्राह्मण को नहीं देखता — फिर चाहे वह किसी संघ का स्वामी हो, किसी समुदाय का नेता हो, किसी परंपरा का आचार्य हो, या भले ही जो अरहंत सम्यक-सम्बुद्ध होने का दावा करता हो — जिससे वाद-विवाद करूँ तो उसे हिला न दूँ, डुला न दूँ, उसमें कपकपी न पैदा करूँ, थरथराहट न पैदा करूँ, उसके बगल से पसीने न छुड़ा दूँ। अरे मनुष्यों के बारे क्या कहूँ? यदि मैं किसी अचेत खंभे से वाद-विवाद करूँ, तो उस वाद-विवाद से अचेत खंभा भी हिलने लगे, डुलने लगे, कपकपाने लगे, थरथराने लगे।’

किन्तु, यहाँ तो पसीना, अग्गिवेस्सन, तुम्हारे माथे से फूट रहा है। तुम्हारा ऊपरी वस्त्र गीला होकर भूमि पर टपका रहा है। जबकि मेरी काया पर कोई पसीना नहीं है।” और भगवान ने परिषद के सामने उनकी स्वर्णिम काया को खोला।

जब ऐसा कहा गया, तब सच्चक निगण्ठपुत्त चुप हो गया। और लज्जित होकर, कंधे झुकाए, सिर नीचे कर, उदास मन से, निशब्द होकर बैठा रहा।

तब दुम्मुख लिच्छविपुत्त 8 ने सच्चक निगण्ठपुत्त को चुप होकर, लज्जित होकर, कंधे झुकाए, सिर नीचे किए, उदास मन से, निशब्द होकर बैठा जान कर, भगवान से कहा, “भगवान, मुझे उपमा सूझ रही है।”

“सूझें तुम्हें, दुम्मुख।”

“भंते, जैसे किसी गाँव या नगर के पास एक तालाब हो। वहाँ एक केकड़ा रहता हो। एक दिन बहुत से लड़के-लड़कियाँ उस गाँव या नगर से निकलकर उस तालाब के पास जाते हैं। वहाँ जाकर वे तालाब में नहाने के लिए उतरते हैं। तब वे केकड़े को जल से बाहर निकाल कर थल पर रखते हैं। और जब भी केकड़ा अपना पंजा बढ़ाता है, कोई लड़का या लड़की वहीं उसे लकड़ी या पत्थर से तोड़ देते हैं, फोड़ देते हैं, कुचल देते हैं। तब केकड़े के सारे पैर और पंजे टूटे-फूटे-कुचले हुए होने पर, बेचारा पहले की तरह तालाब के पास नहीं जा पाता।

ठीक उसी तरह, भंते, भगवान ने सच्चक निगण्ठपुत्त की सारी मौज-मस्ती, उछल-कूद और हेकड़ी को तोड़ दिया हैं, फोड़ दिया हैं, कुचल दिया हैं। अब सच्चक निगण्ठपुत्त बेचारा कभी भगवान के पास वाद-विवाद करने के लिए नहीं आ पाएगा।”

ऐसा कहे जाने पर, सच्चक निगण्ठपुत्त ने दुम्मुख लिच्छविपुत्त से कहा, “तुम रुक जाओ, दुम्मुख। तुम रहने दो, दुम्मुख। बहुत बड़बोले हो, दुम्मुख। मैं तुम्हारे साथ बात नहीं कर रहा था। मैं श्रीमान गौतम के साथ बात कर रहा था। खैर, छोड़िए, श्रीमान गौतम, मेरी बातों को, और उन साधारण श्रमण-ब्राह्मणों की बातों को। मानो, बस बकवास करने के लिए ही बकवास थी।

किन्तु, श्रीमान गौतम का कोई अनुशासित श्रावक कैसा होता है, जो उनके निर्देश का पालन कर, संदेह को लाँघ, परे चला जाए, जिसे अब कोई प्रश्न न रहे, जिसे निडरता प्राप्त हो, जो शास्ता के शासन (=शिक्षा) में स्वावलंबी हो जाए?”

“अग्गिवेस्सन, जब मेरा श्रावक जो भी रूप हो — भूत, भविष्य या वर्तमान के, आंतरिक या बाहरी, स्थूल या सूक्ष्म, हीन या उत्तम, दूर या समीप का। सभी रूपों को यह ‘मेरे नहीं हैं, मेरा आत्म नहीं हैं, मैं यह नहीं हूँ’, इस तरह, सम्यक अन्तर्ज्ञान से यथास्वरूप देखता है।

जो भी अनुभूति हो… जो भी संज्ञा हो… जो भी रचना हो… जो भी चैतन्य हो — भूत, भविष्य या वर्तमान के, आंतरिक या बाहरी, स्थूल या सूक्ष्म, हीन या उत्तम, दूर या समीप का। सभी चैतन्य को यह ‘मेरे नहीं हैं, मेरा आत्म नहीं हैं, मैं यह नहीं हूँ’, इस तरह, सम्यक अन्तर्ज्ञान से यथास्वरूप देखता है।

इस तरह, अग्गिवेस्सन, मेरा अनुशासित श्रावक होता है, जो मेरे निर्देश का पालन कर, संदेह को लाँघ कर, परे चला जाए, जिसे अब कोई प्रश्न न रहे, जिसे निडरता प्राप्त हो, जो शास्ता के शासन में स्वावलंबी हो जाए।”

“किन्तु, श्रीमान गौतम, कोई भिक्षु अरहंत कैसा होते हैं, जो आस्रव खत्म करते हैं, ब्रह्मचर्य परिपूर्ण करते हैं, कर्तव्य समाप्त करते हैं, बोझ को नीचे रखते हैं, परम-ध्येय प्राप्त करते हैं, भव-बंधन को पूर्णतः तोड़ देते हैं, सम्यक-ज्ञान से विमुक्त होते हैं?”

“अग्गिवेस्सन, जब कोई भिक्षु जो भी रूप हो — भूत, भविष्य या वर्तमान के, आंतरिक या बाहरी, स्थूल या सूक्ष्म, हीन या उत्तम, दूर या समीप का — सभी रूपों को यह ‘मेरे नहीं हैं, मेरा आत्म नहीं हैं, मैं यह नहीं हूँ’, इस तरह, सम्यक अन्तर्ज्ञान से यथास्वरूप देखता है, तब वह अनासक्त होकर विमुक्त हो जाता है।

जो भी अनुभूति हो… जो भी संज्ञा हो… जो भी रचना हो… जो भी चैतन्य हो — भूत, भविष्य या वर्तमान के, आंतरिक या बाहरी, स्थूल या सूक्ष्म, हीन या उत्तम, दूर या समीप का — सभी चैतन्य को यह ‘मेरे नहीं हैं, मेरा आत्म नहीं हैं, मैं यह नहीं हूँ’, इस तरह, सम्यक अन्तर्ज्ञान से यथास्वरूप देखता है, तब वह अनासक्त होकर विमुक्त हो जाता है।

इसी तरह, अग्गिवेस्सन, भिक्षु अरहंत होते हैं, आस्रव खत्म करते हैं, ब्रह्मचर्य परिपूर्ण करते हैं, कर्तव्य समाप्त करते हैं, बोझ को नीचे रखते हैं, परम-ध्येय प्राप्त करते हैं, भव-बंधन को पूर्णतः तोड़ देते हैं, सम्यक-ज्ञान से विमुक्त होते हैं। इस तरह विमुक्त चित्त होकर, अग्गिवेस्सन, भिक्षु तीन अनुत्तर गुणों से युक्त होते हैं —

  • अनुत्तरीय दर्शन,
  • अनुत्तरीय साधना (“पटिपदा”),
  • अनुत्तरीय विमुक्ति।

तब, अग्गिवेस्सन, कोई भिक्षु इस तरह विमुक्त-चित्त होकर केवल तथागत का ही सत्कार करता है, सम्मान करता है, मानता है, पूजता है (कहते हुए,) — भगवान, बुद्ध है, बोधि धर्म का उपदेश देते हैं, वे ‘काबू प्राप्त’ भगवान, काबू पाने का धर्म सिखाते हैं; वे ‘स्थिर निश्चल’ भगवान, स्थिर निश्चलता का धर्म सिखाते हैं; वे ‘परिनिर्वृत’ भगवान, परिनिर्वाण का धर्म सिखाते हैं।”

जब ऐसा कहा गया, तब सच्चक निगण्ठपुत्त ने भगवान से कहा, “हम ही ढीठ थे, श्रीमान गौतम, हम ही दुस्साहसी थे, जो हमें लगा कि गुरु गौतम से वाद-विवाद में भिड़ा जा सकता है। किसी पागल हाथी से भिड़ने पर भी पुरुष सुरक्षित (=सलामत) बचा रह सकता है, किन्तु गुरु गौतम से भिड़ने वाले पुरुष की कोई सुरक्षा नहीं। किसी प्रज्वलित अग्नि के ढेर से भिड़ने पर भी पुरुष सुरक्षित बचा रह सकता है, किन्तु गुरु गौतम से भिड़ने वाले पुरुष की कोई सुरक्षा नहीं। किसी घोर विषैले साँप से भिड़ने पर भी पुरुष सुरक्षित बचा रह सकता है, किन्तु गुरु गौतम से भिड़ने वाले पुरुष की कोई सुरक्षा नहीं। हम ही ढीठ थे, श्रीमान गौतम, हम ही दुस्साहसी थे, जो हमें लगा कि गुरु गौतम से वाद-विवाद में भिड़ा जा सकता है। कृपा कर गुरु गौतम कल भिक्षुसंघ के साथ हमारा भोजन स्वीकार करें।”

भगवान ने मौन रहकर स्वीकृति दी। तब भगवान की स्वीकृति जान कर, सच्चक निगण्ठपुत्त ने लिच्छवियों को आमंत्रित किया, “सुनिए, श्रीमान लिच्छवियों! कल के भोजन के लिए गुरु गौतम को भिक्षुसंघ के साथ निमंत्रित किया गया है। आप को जो उनके लिए उचित लगे, मुझे लाकर दें।”

रात बीतने पर, उन लिच्छवियों ने सच्चक निगण्ठपुत्त को पाँच सौ थाली पका हुआ भोजन अर्पित किया। सच्चक निगण्ठपुत्त ने भी अपने आश्रम में उत्तम खाद्य और भोजन बनाया, और आकर भगवान से विनती की, “उचित समय है, गुरु गौतम! भोजन तैयार है।”

तब सुबह होने पर भगवान ने चीवर ओढ़, पात्र लेकर, भिक्षुसंघ के साथ सच्चक निगण्ठपुत्त के आश्रम गए, और जाकर बिछे आसन पर बैठ गये। तब सच्चक निगण्ठपुत्त ने भगवान और भिक्षुसंघ को अपने हाथों से उत्तम खाद्य और भोजन परोस कर संतृप्त किया, संतुष्ट किया। भगवान के भोजन कर पात्र से हाथ हटाने के पश्चात, सच्चक निगण्ठपुत्त ने स्वयं का आसन नीचे लगाया और एक ओर बैठ गया।

एक ओर बैठकर सच्चक निगण्ठपुत्त ने भगवान से कहा, “गुरु गौतम, इस दान का पुण्य और पुण्य से उन्नति, दायकों के सुख के लिए हों!”

“अग्गिवेस्सन, तुम जैसे अ-वीतरागी, अ-वीतद्वेषी, अ-वीतमोही को दक्षिणा देने से जो कुछ मिलता है, वह दायकों को मिलें। और मुझ जैसे वीतरागी, वीतद्वेषी, वीतमोही को दक्षिणा देने से जो कुछ मिलता है, वह तुम्हें मिलें।”

सुत्र समाप्त।


  1. वैशाली वज्जि गणराज्य की राजधानी थी और यह जैन महावीर (निगण्ठ नाटपुत्त) का जन्मस्थान भी था। चूँकि महावीर की माता के भाई गणतांत्रिक राजा थे, वैशाली में जैन धर्मावलंबियों की संख्या विशेष रूप से अधिक थी। लगता है, ऐसे में भगवान बुद्ध का वैशाली में रहना उनके लिए असहज करने वाला रहा हो। वहीं सच्चक एक प्रतिष्ठित संन्यासी थे, जिनके माता या पिता जैन धर्मावलंबी थे। सच्चक का अपना एक बड़ा आश्रम था। ↩︎

  2. अस्सजि भंते उन पञ्चवर्गीय भिक्षुओं में से एक थे, जिन्हें भगवान बुद्ध ने सबसे पहले धर्म का उपदेश दिया और अरहत्व फल की प्राप्ति दिलाई। कहा जाता है कि अस्सजि भंते में असाधारण शालीनता और सादगी थी, जो किसी भी सभ्य व्यक्ति को अपनी ओर खींच लेती थी। जब सारिपुत्त भंते परधार्मिक घुमक्कड़ का जीवन जी रहे थे, तब एक बार राजगृह में भिक्षाटन करते हुए, उन्होंने अस्सजि भंते को देखा। अस्सजि भंते के केवल एक वाक्य ने सारिपुत्त भंते को प्रथम आर्यफल का अनुभव कराया। तब से कहा जाता है कि रात को, कृतज्ञता के भाव से, सारिपुत्त भंते आजीवन अस्सजि भंते की दिशा में वंदन करते हुए सोते थे। संयुक्तनिकाय २२.८८ के अनुसार, अस्सजि भंते को जीवन के अंतिम समय में एक गंभीर बीमारी ने आ घेरा। ↩︎

  3. लिच्छवि क्षत्रिय एक शक्तिशाली, सौंदर्यशाली और अत्यंत सम्मानित कुल माने जाते थे। उनका वर्चस्व वज्जि देश में था, जिसमें मुख्यतः लिच्छवि, विदेह आदि क्षत्रिय कुलों का प्रभाव था। भगवान बुद्ध ने (महापरिनिब्बान सुत्त में) लिच्छवि राजकुमारों की रूप-शोभा की सराहना करते हुए उनकी सुंदरता की तुलना तावतिंस (तैतीस) देवताओं से की थी। ↩︎

  4. इस उपमा में यह दिखाया गया है कि जैसे बलवान कामगार अपनी मजबूत पकड़ के साथ उस छलने (=छानने का जाल) से टंकी में पड़ी अनावश्यक मिलावट को हिला-हिलाकर, घुमा-घुमाकर छानता है; वैसे ही सच्चक सोचता है कि वह भी अपनी तेज बुद्धि के छलने से भगवान की धारणाओं में घुसी हुई अनावश्यक मिलावट को हिला-हिलाकर, घुमा-घुमाकर छान देगा। ↩︎

  5. इस उपमा में संकेत यह है कि सच्चक कोई सौम्यता, शालीनता, या करुणा नहीं दिखाएगा, बल्कि वह किसी शराबखाने के गुंडे या बाउंसर की तरह बर्ताव करेगा। वह वाद-विवाद को अपनी पहलवानी पकड़ में रखकर — झाड़-झाड़कर, पटक-पटक कर अपनी कठोरता प्रदर्शित करेगा। ↩︎

  6. सन धोने के खेल में रस्सी या सन को पानी में भिगोकर मार-मारकर तोड़ा जाता है। हाथी इसे खेल की तरह खेलता है — पानी में कूदता है और मस्ती में सन को पीट-पीटकर तोड़ता है। इस उपमा में सच्चक कहना चाहता है कि वह भी मदमस्त हाथी की तरह श्रमण गौतम को खेल की वस्तु बनाएगा और मार-मारकर तोड़ डालेगा। ↩︎

  7. यहाँ सच्चक एक पुरानी वाद-विवाद की युक्ति अपनाता है। वह अपनी धारणा को सही सिद्ध करने के लिए जन-सहमति का सहारा लेता है। जब वह कहता है कि “मैं ही नहीं, यह विशाल जनता भी यही मानती है”, तो वह अपने तर्क का बल बढ़ाने के लिए, और बुद्ध पर अधिकतम दबाव बनाने के लिए, उसे बहुसंख्यक की राय बताता है। बुद्ध इस चाल को तुरंत भांप कर, जनमत को एक ओर रखकर सच्चक को उसकी व्यक्तिगत मान्यता के लिए सीधे उत्तरदायी बनाते हैं। दूसरी ओर, जन-सहमति की बात में सच्चाई नहीं होती। क्योंकि बुद्ध जानते हैं कि उन पाँच सौ लिच्छवियों में उनके भी श्रद्धालु उपासक मौजूद हैं। ↩︎

  8. दुम्मुख का अर्थ है, जिसका “मुँह खराब” है। अब ये खराब टूथपेस्ट वाला खराब नहीं, बल्कि ऐसा मुँह कि खुलते ही या तो बुरा बोलेगा, या फिर चेहरा देखकर लोग कहें — “ऊफ़, इतना बुरा कौन दिखता है?” शायद यही कारण रहा होगा कि लोगों ने उसे “दुम्मुख” कहना शुरू किया । लेकिन मजे की बात है कि उसी “दुम्मुख” का मुँह, बुद्ध को बुलाने में एकदम मीठा हो जाता है। जाहिर है वह उनके प्रति श्रद्धालु था। इसलिए उन्हें “भगवान” और “भंते” कहकर पुकारता है। शायद मामला कुछ वैसा ही हो, जैसे, पूरी दुनिया को बुरा-बुरा बोले, और बुद्ध से कहे, “भगवान, और कोई सेवा?” ↩︎

Pali

३५३. एवं मे सुतं – एकं समयं भगवा वेसालियं विहरति महावने कूटागारसालायं. तेन खो पन समयेन सच्चको निगण्ठपुत्तो वेसालियं पटिवसति भस्सप्पवादको पण्डितवादो साधुसम्मतो बहुजनस्स. सो वेसालियं परिसति एवं वाचं भासति – ‘‘नाहं तं पस्सामि समणं वा ब्राह्मणं वा, सङ्घिं गणिं गणाचरियं, अपि अरहन्तं सम्मासम्बुद्धं पटिजानमानं, यो मया वादेन वादं समारद्धो न सङ्कम्पेय्य न सम्पकम्पेय्य न सम्पवेधेय्य, यस्स न कच्छेहि सेदा मुच्चेय्युं. थूणं चेपाहं अचेतनं वादेन वादं समारभेय्यं, सापि मया वादेन वादं समारद्धा सङ्कम्पेय्य सम्पकम्पेय्य सम्पवेधेय्य. को पन वादो मनुस्सभूतस्सा’’ति?

अथ खो आयस्मा अस्सजि पुब्बण्हसमयं निवासेत्वा पत्तचीवरमादाय वेसालिं पिण्डाय पाविसि. अद्दसा खो सच्चको निगण्ठपुत्तो वेसालियं जङ्घाविहारं अनुचङ्कममानो अनुविचरमानो आयस्मन्तं अस्सजिं दूरतोव आगच्छन्तं. दिस्वान येनायस्मा अस्सजि तेनुपसङ्कमि; उपसङ्कमित्वा आयस्मता अस्सजिना सद्धिं सम्मोदि. सम्मोदनीयं कथं सारणीयं वीतिसारेत्वा एकमन्तं अट्ठासि. एकमन्तं ठितो खो सच्चको निगण्ठपुत्तो आयस्मन्तं अस्सजिं एतदवोच – ‘‘कथं पन, भो अस्सजि, समणो गोतमो सावके विनेति, कथंभागा च पन समणस्स गोतमस्स सावकेसु अनुसासनी बहुला पवत्तती’’ति? ‘‘एवं खो, अग्गिवेस्सन, भगवा सावके विनेति, एवंभागा च पन भगवतो सावकेसु अनुसासनी बहुला पवत्तति – ‘रूपं, भिक्खवे, अनिच्चं, वेदना अनिच्चा, सञ्ञा अनिच्चा, सङ्खारा अनिच्चा, विञ्ञाणं अनिच्चं. रूपं, भिक्खवे, अनत्ता, वेदना अनत्ता, सञ्ञा अनत्ता, सङ्खारा अनत्ता, विञ्ञाणं अनत्ता. सब्बे सङ्खारा अनिच्चा, सब्बे धम्मा अनत्ता’ति. एवं खो, अग्गिवेस्सन, भगवा सावके विनेति, एवंभागा च पन भगवतो सावकेसु अनुसासनी बहुला पवत्तती’’ति. ‘‘दुस्सुतं वत, भो अस्सजि, अस्सुम्ह ये मयं एवंवादिं समणं गोतमं अस्सुम्ह. अप्पेव नाम मयं कदाचि करहचि तेन भोता गोतमेन सद्धिं समागच्छेय्याम , अप्पेव नाम सिया कोचिदेव कथासल्लापो, अप्पेव नाम तस्मा पापका दिट्ठिगता विवेचेय्यामा’’ति.

३५४. तेन खो पन समयेन पञ्चमत्तानि लिच्छविसतानि सन्थागारे [सन्धागारे (क.)] सन्निपतितानि होन्ति केनचिदेव करणीयेन. अथ खो सच्चको निगण्ठपुत्तो येन ते लिच्छवी तेनुपसङ्कमि; उपसङ्कमित्वा ते लिच्छवी एतदवोच – ‘‘अभिक्कमन्तु भोन्तो लिच्छवी, अभिक्कमन्तु भोन्तो लिच्छवी, अज्ज मे समणेन गोतमेन सद्धिं कथासल्लापो भविस्सति. सचे मे समणो गोतमो तथा पतिट्ठिस्सति यथा च मे [यथास्स मे (सी. पी.)] ञातञ्ञतरेन सावकेन अस्सजिना नाम भिक्खुना पतिट्ठितं, सेय्यथापि नाम बलवा पुरिसो दीघलोमिकं एळकं लोमेसु गहेत्वा आकड्ढेय्य परिकड्ढेय्य सम्परिकड्ढेय्य , एवमेवाहं समणं गोतमं वादेन वादं आकड्ढिस्सामि परिकड्ढिस्सामि सम्परिकड्ढिस्सामि. सेय्यथापि नाम बलवा सोण्डिकाकम्मकारो महन्तं सोण्डिकाकिळञ्जं गम्भीरे उदकरहदे पक्खिपित्वा कण्णे गहेत्वा आकड्ढेय्य परिकड्ढेय्य सम्परिकड्ढेय्य, एवमेवाहं समणं गोतमं वादेन वादं आकड्ढिस्सामि परिकड्ढिस्सामि सम्परिकड्ढिस्सामि. सेय्यथापि नाम बलवा सोण्डिकाधुत्तो वालं [थालं (क.)] कण्णे गहेत्वा ओधुनेय्य निद्धुनेय्य निप्फोटेय्य [निच्छादेय्य (सी. पी. क.), निच्छोटेय्य (क.), निप्पोठेय्य (स्या. कं.)] एवमेवाहं समणं गोतमं वादेन वादं ओधुनिस्सामि निद्धुनिस्सामि निप्फोटेस्सामि. सेय्यथापि नाम कुञ्जरो सट्ठिहायनो गम्भीरं पोक्खरणिं ओगाहेत्वा साणधोविकं नाम कीळितजातं कीळति, एवमेवाहं समणं गोतमं साणधोविकं मञ्ञे कीळितजातं कीळिस्सामि. अभिक्कमन्तु भोन्तो लिच्छवी, अभिक्कमन्तु भोन्तो लिच्छवी, अज्ज मे समणेन गोतमेन सद्धिं कथासल्लापो भविस्सती’’ति. तत्रेकच्चे लिच्छवी एवमाहंसु – ‘‘किं समणो गोतमो सच्चकस्स निगण्ठपुत्तस्स वादं आरोपेस्सति, अथ खो सच्चको निगण्ठपुत्तो समणस्स गोतमस्स वादं आरोपेस्सती’’ति? एकच्चे लिच्छवी एवमाहंसु – ‘‘किं सो भवमानो सच्चको निगण्ठपुत्तो यो भगवतो वादं आरोपेस्सति, अथ खो भगवा सच्चकस्स निगण्ठपुत्तस्स वादं आरोपेस्सती’’ति? अथ खो सच्चको निगण्ठपुत्तो पञ्चमत्तेहि लिच्छविसतेहि परिवुतो येन महावनं कूटागारसाला तेनुपसङ्कमि.

३५५. तेन खो पन समयेन सम्बहुला भिक्खू अब्भोकासे चङ्कमन्ति. अथ खो सच्चको निगण्ठपुत्तो येन ते भिक्खू तेनुपसङ्कमि; उपसङ्कमित्वा ते भिक्खू एतदवोच – ‘‘कहं नु खो, भो, एतरहि सो भवं गोतमो विहरति? दस्सनकामा हि मयं तं भवन्तं गोतम’’न्ति . ‘‘एस, अग्गिवेस्सन, भगवा महावनं अज्झोगाहेत्वा अञ्ञतरस्मिं रुक्खमूले दिवाविहारं निसिन्नो’’ति. अथ खो सच्चको निगण्ठपुत्तो महतिया लिच्छविपरिसाय सद्धिं महावनं अज्झोगाहेत्वा येन भगवा तेनुपसङ्कमि; उपसङ्कमित्वा भगवता सद्धिं सम्मोदि. सम्मोदनीयं कथं सारणीयं वीतिसारेत्वा एकमन्तं निसीदि. तेपि खो लिच्छवी अप्पेकच्चे भगवन्तं अभिवादेत्वा एकमन्तं निसीदिंसु, अप्पेकच्चे भगवता सद्धिं सम्मोदिंसु, सम्मोदनीयं कथं सारणीयं वीतिसारेत्वा एकमन्तं निसीदिंसु. अप्पेकच्चे येन भगवा तेनञ्जलिं पणामेत्वा एकमन्तं निसीदिंसु, अप्पेकच्चे भगवतो सन्तिके नामगोत्तं सावेत्वा एकमन्तं निसीदिंसु, अप्पेकच्चे तुण्हीभूता एकमन्तं निसीदिंसु.

३५६. एकमन्तं निसिन्नो खो सच्चको निगण्ठपुत्तो भगवन्तं एतदवोच – ‘‘पुच्छेय्याहं भवन्तं गोतमं किञ्चिदेव देसं, सचे मे भवं गोतमो ओकासं करोति पञ्हस्स वेय्याकरणाया’’ति. ‘‘पुच्छ, अग्गिवेस्सन , यदाकङ्खसी’’ति . ‘‘कथं पन भवं गोतमो सावके विनेति, कथंभागा च पन भोतो गोतमस्स सावकेसु अनुसासनी बहुला पवत्तती’’ति? ‘‘एवं खो अहं, अग्गिवेस्सन, सावके विनेमि, एवंभागा च पन मे सावकेसु अनुसासनी बहुला पवत्तति – ‘रूपं, भिक्खवे, अनिच्चं, वेदना अनिच्चा, सञ्ञा अनिच्चा, सङ्खारा अनिच्चा, विञ्ञाणं अनिच्चं. रूपं, भिक्खवे, अनत्ता, वेदना अनत्ता, सञ्ञा अनत्ता, सङ्खारा अनत्ता, विञ्ञाणं अनत्ता. सब्बे सङ्खारा अनिच्चा, सब्बे धम्मा अनत्ता’ति. एवं खो अहं, अग्गिवेस्सन, सावके विनेमि, एवंभागा च पन मे सावकेसु अनुसासनी बहुला पवत्तती’’ति.

‘‘उपमा मं, भो गोतम, पटिभाती’’ति. ‘‘पटिभातु तं, अग्गिवेस्सना’’ति भगवा अवोच.

‘‘सेय्यथापि, भो गोतम, ये केचिमे बीजगामभूतगामा वुद्धिं विरूळ्हिं वेपुल्लं आपज्जन्ति, सब्बे ते पथविं निस्साय पथवियं पतिट्ठाय. एवमेते बीजगामभूतगामा वुद्धिं विरूळ्हिं वेपुल्लं आपज्जन्ति. सेय्यथापि वा पन, भो गोतम, ये केचिमे बलकरणीया कम्मन्ता करीयन्ति, सब्बे ते पथविं निस्साय पथवियं पतिट्ठाय. एवमेते बलकरणीया कम्मन्ता करीयन्ति. एवमेव खो, भो गोतम, रूपत्तायं पुरिसपुग्गलो रूपे पतिट्ठाय पुञ्ञं वा अपुञ्ञं वा पसवति, वेदनत्तायं पुरिसपुग्गलो वेदनायं पतिट्ठाय पुञ्ञं वा अपुञ्ञं वा पसवति, सञ्ञत्तायं पुरिसपुग्गलो सञ्ञायं पतिट्ठाय पुञ्ञं वा अपुञ्ञं वा पसवति, सङ्खारत्तायं पुरिसपुग्गलो सङ्खारेसु पतिट्ठाय पुञ्ञं वा अपुञ्ञं वा पसवति, विञ्ञाणत्तायं पुरिसपुग्गलो विञ्ञाणे पतिट्ठाय पुञ्ञं वा अपुञ्ञं वा पसवती’’ति.

‘‘ननु त्वं, अग्गिवेस्सन, एवं वदेसि – ‘रूपं मे अत्ता, वेदना मे अत्ता, सञ्ञा मे अत्ता, सङ्खारा मे अत्ता, विञ्ञाणं मे अत्ता’’’ति? ‘‘अहञ्हि, भो गोतम , एवं वदामि – ‘रूपं मे अत्ता, वेदना मे अत्ता, सञ्ञा मे अत्ता, सङ्खारा मे अत्ता, विञ्ञाणं मे अत्ता’ति, अयञ्च महती जनता’’ति.

‘‘किञ्हि ते, अग्गिवेस्सन, महती जनता करिस्सति? इङ्घ त्वं, अग्गिवेस्सन, सकञ्ञेव वादं निब्बेठेही’’ति. ‘‘अहञ्हि, भो गोतम, एवं वदामि – ‘रूपं मे अत्ता, वेदना मे अत्ता, सञ्ञा मे अत्ता, सङ्खारा मे अत्ता, विञ्ञाणं मे अत्ता’’’ति.

३५७. ‘‘तेन हि, अग्गिवेस्सन, तञ्ञेवेत्थ पटिपुच्छिस्सामि, यथा ते खमेय्य तथा नं [तथा तं (क.)] ब्याकरेय्यासि. तं किं मञ्ञसि , अग्गिवेस्सन, वत्तेय्य रञ्ञो खत्तियस्स मुद्धावसित्तस्स सकस्मिं विजिते वसो – घातेतायं वा घातेतुं, जापेतायं वा जापेतुं, पब्बाजेतायं वा पब्बाजेतुं, सेय्यथापि रञ्ञो पसेनदिस्स कोसलस्स, सेय्यथापि वा पन रञ्ञो मागधस्स अजातसत्तुस्स वेदेहिपुत्तस्सा’’ति? ‘‘वत्तेय्य, भो गोतम, रञ्ञो खत्तियस्स मुद्धावसित्तस्स सकस्मिं विजिते वसो – घातेतायं वा घातेतुं, जापेतायं वा जापेतुं, पब्बाजेतायं वा पब्बाजेतुं, सेय्यथापि रञ्ञो पसेनदिस्स कोसलस्स, सेय्यथापि वा पन रञ्ञो मागधस्स अजातसत्तुस्स वेदेहिपुत्तस्स. इमेसम्पि हि, भो गोतम, सङ्घानं गणानं – सेय्यथिदं, वज्जीनं मल्लानं – वत्तति सकस्मिं विजिते वसो – घातेतायं वा घातेतुं, जापेतायं वा जापेतुं, पब्बाजेतायं वा पब्बाजेतुं. किं पन रञ्ञो खत्तियस्स मुद्धावसित्तस्स, सेय्यथापि रञ्ञो पसेनदिस्स कोसलस्स , सेय्यथापि वा पन रञ्ञो मागधस्स अजातसत्तुस्स वेदेहिपुत्तस्स? वत्तेय्य, भो गोतम, वत्तितुञ्च मरहती’’ति.

‘‘तं किं मञ्ञसि, अग्गिवेस्सन, यं त्वं एवं वदेसि – ‘रूपं मे अत्ता’ति, वत्तति ते तस्मिं रूपे वसो – एवं मे रूपं होतु, एवं मे रूपं मा अहोसी’’ति? एवं वुत्ते, सच्चको निगण्ठपुत्तो तुण्ही अहोसि. दुतियम्पि खो भगवा सच्चकं निगण्ठपुत्तं एतदवोच – ‘‘तं किं मञ्ञसि, अग्गिवेस्सन, यं त्वं एवं वदेसि – ‘रूपं मे अत्ता’ति, वत्तति ते तस्मिं रूपे वसो – एवं मे रूपं होतु, एवं मे रूपं मा अहोसी’’ति? दुतियम्पि खो सच्चको निगण्ठपुत्तो तुण्ही अहोसि. अथ खो भगवा सच्चकं निगण्ठपुत्तं एतदवोच – ‘‘ब्याकरोहि दानि, अग्गिवेस्सन, न दानि ते तुण्हीभावस्स कालो. यो कोचि, अग्गिवेस्सन तथागतेन यावततियं सहधम्मिकं पञ्हं पुट्ठो न ब्याकरोति, एत्थेवस्स सत्तधा मुद्धा फलती’’ति.

तेन खो पन समयेन वजिरपाणि यक्खो आयसं वजिरं आदाय आदित्तं सम्पज्जलितं सजोतिभूतं सच्चकस्स निगण्ठपुत्तस्स उपरिवेहासं ठितो होति – ‘सचायं सच्चको निगण्ठपुत्तो भगवता यावततियं सहधम्मिकं पञ्हं पुट्ठो न ब्याकरिस्सति एत्थेवस्स सत्तधा मुद्धं फालेस्सामी’ति. तं खो पन वजिरपाणिं यक्खं भगवा चेव पस्सति सच्चको च निगण्ठपुत्तो. अथ खो सच्चको निगण्ठपुत्तो भीतो संविग्गो लोमहट्ठजातो भगवन्तंयेव ताणं गवेसी भगवन्तंयेव लेणं गवेसी भगवन्तंयेव सरणं गवेसी भगवन्तं एतदवोच – ‘‘पुच्छतु मं भवं गोतमो, ब्याकरिस्सामी’’ति.

३५८. ‘‘तं किं मञ्ञसि, अग्गिवेस्सन, यं त्वं एवं वदेसि – ‘रूपं मे अत्ता’ति, वत्तति ते तस्मिं रूपे वसो – एवं मे रूपं होतु, एवं मे रूपं मा अहोसी’’ति? ‘‘नो हिदं, भो गोतम’’.

‘‘मनसि करोहि, अग्गिवेस्सन; मनसि करित्वा खो, अग्गिवेस्सन, ब्याकरोहि. न खो ते सन्धियति पुरिमेन वा पच्छिमं पच्छिमेन वा पुरिमं. तं किं मञ्ञसि, अग्गिवेस्सन, यं त्वं एवं वदेसि – ‘वेदना मे अत्ता’ति, वत्तति ते तिस्सं वेदनायं [तायं वेदनायं (सी. स्या.)] वसो – एवं मे वेदना होतु, एवं मे वेदना मा अहोसी’’ति? ‘‘नो हिदं, भो गोतम’’.

‘‘मनसि करोहि, अग्गिवेस्सन; मनसि करित्वा खो, अग्गिवेस्सन, ब्याकरोहि. न खो ते सन्धियति पुरिमेन वा पच्छिमं, पच्छिमेन वा पुरिमं. तं किं मञ्ञसि, अग्गिवेस्सन , यं त्वं एवं वदेसि – ‘सञ्ञा मे अत्ता’ति, वत्तति ते तिस्सं सञ्ञायं वसो – एवं मे सञ्ञा होतु, एवं मे सञ्ञा मा अहोसी’’ति? ‘‘नो हिदं, भो गोतम’’.

‘‘मनसि करोहि, अग्गिवेस्सन ; मनसि करित्वा खो, अग्गिवेस्सन, ब्याकरोहि. न खो ते सन्धियति पुरिमेन वा पच्छिमं, पच्छिमेन वा पुरिमं. तं किं मञ्ञसि, अग्गिवेस्सन, यं त्वं एवं वदेसि – ‘सङ्खारा मे अत्ता’ति, वत्तति ते तेसु सङ्खारेसु वसो – एवं मे सङ्खारा होन्तु, एवं मे सङ्खारा मा अहेसु’’न्ति? ‘‘नो हिदं, भो गोतम’’.

‘‘मनसि करोहि, अग्गिवेस्सन; मनसि करित्वा खो, अग्गिवेस्सन, ब्याकरोहि. न खो ते सन्धियति पुरिमेन वा पच्छिमं, पच्छिमेन वा पुरिमं. तं किं मञ्ञसि, अग्गिवेस्सन, यं त्वं एवं वदेसि – ‘विञ्ञाणं मे अत्ता’ति, वत्तति ते तस्मिं विञ्ञाणे वसो – एवं मे विञ्ञाणं होतु, एवं मे विञ्ञाणं मा अहोसी’’ति? ‘‘नो हिदं, भो गोतम’’.

‘‘मनसि करोहि, अग्गिवेस्सन; मनसि करित्वा खो, अग्गिवेस्सन, ब्याकरोहि. न खो ते सन्धियति पुरिमेन वा पच्छिमं, पच्छिमेन वा पुरिमं. तं किं मञ्ञसि, अग्गिवेस्सन, रूपं निच्चं वा अनिच्चं वा’’ति? ‘‘अनिच्चं, भो गोतम’’. ‘‘यं पनानिच्चं दुक्खं वा तं सुखं वा’’ति? ‘‘दुक्खं, भो गोतम’’. ‘‘यं पनानिच्चं दुक्खं विपरिणामधम्मं, कल्लं नु तं समनुपस्सितुं – ‘एतं मम, एसोहमस्मि, एसो मे अत्ता’’’ति? ‘‘नो हिदं, भो गोतम’’.

‘‘तं किं मञ्ञसि, अग्गिवेस्सन, वेदना…पे… सञ्ञा…पे… सङ्खारा…पे… तं किं मञ्ञसि, अग्गिवेस्सन, विञ्ञाणं निच्चं वा अनिच्चं वा’’ति? ‘‘अनिच्चं, भो गोतम’’. ‘‘यं पनानिच्चं दुक्खं वा तं सुखं वा’’ति? ‘‘दुक्खं, भो गोतम’’. ‘‘यं पनानिच्चं दुक्खं विपरिणामधम्मं, कल्लं नु तं समनुपस्सितुं – ‘एतं मम, एसोहमस्मि, एसो मे अत्ता’’’ति? ‘‘नो हिदं, भो गोतम’’.

‘‘तं किं मञ्ञसि, अग्गिवेस्सन, यो नु खो दुक्खं अल्लीनो दुक्खं उपगतो दुक्खं अज्झोसितो , दुक्खं ‘एतं मम, एसोहमस्मि, एसो मे अत्ता’ति समनुपस्सति, अपि नु खो सो सामं वा दुक्खं परिजानेय्य, दुक्खं वा परिक्खेपेत्वा विहरेय्या’’ति? ‘‘किञ्हि सिया, भो गोतम? नो हिदं, भो गोतमा’’ति.

‘‘तं किं मञ्ञसि, अग्गिवेस्सन, ननु त्वं एवं सन्ते दुक्खं अल्लीनो दुक्खं उपगतो दुक्खं अज्झोसितो, दुक्खं – ‘एतं मम, एसोहमस्मि, एसो मे अत्ता’ति समनुपस्ससी’’ति? ‘‘किञ्हि नो सिया, भो गोतम? एवमेतं भो गोतमा’’ति.

३५९. ‘‘सेय्यथापि , अग्गिवेस्सन, पुरिसो सारत्थिको सारगवेसी सारपरियेसनं चरमानो तिण्हं कुठारिं [कुधारिं (स्या. कं. क.)] आदाय वनं पविसेय्य. सो तत्थ पस्सेय्य महन्तं कदलिक्खन्धं उजुं नवं अकुक्कुकजातं [अकुक्कुटजातं (स्या. कं.)]. तमेनं मूले छिन्देय्य, मूले छेत्वा अग्गे छिन्देय्य, अग्गे छेत्वा पत्तवट्टिं विनिब्भुजेय्य [विनिब्भुज्जेय्य (क.)]. सो तत्थ पत्तवट्टिं विनिब्भुजन्तो फेग्गुम्पि नाधिगच्छेय्य, कुतो सारं? एवमेव खो त्वं, अग्गिवेस्सन, मया सकस्मिं वादे समनुयुञ्जियमानो समनुगाहियमानो समनुभासियमानो रित्तो तुच्छो अपरद्धो. भासिता खो पन ते एसा, अग्गिवेस्सन, वेसालियं परिसति वाचा – ‘नाहं तं पस्सामि समणं वा ब्राह्मणं वा, सङ्घिं गणिं गणाचरियं, अपि अरहन्तं सम्मासम्बुद्धं पटिजानमानं, यो मया वादेन वादं समारद्धो न सङ्कम्पेय्य न सम्पकम्पेय्य न सम्पवेधेय्य, यस्स न कच्छेहि सेदा मुच्चेय्युं. थूणं चेपाहं अचेतनं वादेन वादं समारभेय्यं सापि मया वादेन वादं समारद्धा सङ्कम्पेय्य सम्पकम्पेय्य सम्पवेधेय्य. को पन वादो मनुस्सभूतस्सा’ति? तुय्हं खो पन, अग्गिवेस्सन, अप्पेकच्चानि सेदफुसितानि नलाटा मुत्तानि, उत्तरासङ्गं विनिभिन्दित्वा भूमियं पतिट्ठितानि. मय्हं खो पन, अग्गिवेस्सन, नत्थि एतरहि कायस्मिं सेदो’’ति. इति भगवा तस्मिं [तस्सं (?)] परिसति सुवण्णवण्णं कायं विवरि. एवं वुत्ते, सच्चको निगण्ठपुत्तो तुण्हीभूतो मङ्कुभूतो पत्तक्खन्धो अधोमुखो पज्झायन्तो अप्पटिभानो निसीदि.

३६०. अथ खो दुम्मुखो लिच्छविपुत्तो सच्चकं निगण्ठपुत्तं तुण्हीभूतं मङ्कुभूतं पत्तक्खन्धं अधोमुखं पज्झायन्तं अप्पटिभानं विदित्वा भगवन्तं एतदवोच – ‘‘उपमा मं, भगवा, पटिभाती’’ति. ‘‘पटिभातु तं, दुम्मुखा’’ति भगवा अवोच. ‘‘सेय्यथापि, भन्ते, गामस्स वा निगमस्स वा अविदूरे पोक्खरणी. तत्रास्स कक्कटको. अथ खो, भन्ते, सम्बहुला कुमारका वा कुमारिका वा तम्हा गामा वा निगमा वा निक्खमित्वा येन सा पोक्खरणी तेनुपसङ्कमेय्युं; उपसङ्कमित्वा तं पोक्खरणिं ओगाहेत्वा तं कक्कटकं उदका उद्धरित्वा थले पतिट्ठापेय्युं. यञ्ञदेव हि सो, भन्ते, कक्कटको अळं अभिनिन्नामेय्य तं तदेव ते कुमारका वा कुमारिका वा कट्ठेन वा कथलेन वा सञ्छिन्देय्युं सम्भञ्जेय्युं सम्पलिभञ्जेय्युं. एवञ्हि सो, भन्ते, कक्कटको सब्बेहि अळेहि सञ्छिन्नेहि सम्भग्गेहि सम्पलिभग्गेहि अभब्बो तं पोक्खरणिं पुन ओतरितुं, सेय्यथापि पुब्बे. एवमेव खो, भन्ते, यानि सच्चकस्स निगण्ठपुत्तस्स विसूकायितानि विसेवितानि विप्फन्दितानि तानिपि सब्बानि [विप्फन्दितानि कानिचि कानिचि तानि (सी. स्या. कं. पी.)] भगवता सञ्छिन्नानि सम्भग्गानि सम्पलिभग्गानि; अभब्बो च दानि, भन्ते, सच्चको निगण्ठपुत्तो पुन भगवन्तं उपसङ्कमितुं यदिदं वादाधिप्पायो’’ति. एवं वुत्ते, सच्चको निगण्ठपुत्तो दुम्मुखं लिच्छविपुत्तं एतदवोच – ‘‘आगमेहि त्वं, दुम्मुख, आगमेहि त्वं, दुम्मुख ( ) [(मुखरोसि त्वं दुम्मुख) (स्या. कं.)] न मयं तया सद्धिं मन्तेम, इध मयं भोता गोतमेन सद्धिं मन्तेम.

३६१. ‘‘तिट्ठतेसा, भो गोतम, अम्हाकञ्चेव अञ्ञेसञ्च पुथुसमणब्राह्मणानं वाचा. विलापं विलपितं मञ्ञे. कित्तावता च नु खो भोतो गोतमस्स सावको सासनकरो होति ओवादपतिकरो तिण्णविचिकिच्छो विगतकथंकथो वेसारज्जप्पत्तो अपरप्पच्चयो सत्थुसासने विहरती’’ति? ‘‘इध, अग्गिवेस्सन, मम सावको यं किञ्चि रूपं अतीतानागतपच्चुप्पन्नं अज्झत्तं वा बहिद्धा वा ओळारिकं वा सुखुमं वा हीनं वा पणीतं वा यं दूरे सन्तिके वा, सब्बं रूपं ‘नेतं मम, नेसोहमस्मि, न मेसो अत्ता’ति एवमेतं यथाभूतं सम्मप्पञ्ञाय पस्सति; या काचि वेदना…पे… या काचि सञ्ञा…पे… ये केचि सङ्खारा…पे… यं किञ्चि विञ्ञाणं अतीतानागतपच्चुप्पन्नं अज्झत्तं वा बहिद्धा वा ओळारिकं वा सुखुमं वा हीनं वा पणीतं वा, यं दूरे सन्तिके वा, सब्बं विञ्ञाणं ‘नेतं मम, नेसोहमस्मि, न मेसो अत्ता’ति एवमेतं यथाभूतं सम्मप्पञ्ञाय पस्सति. एत्तावता खो, अग्गिवेस्सन, मम सावको सासनकरो होति ओवादपतिकरो तिण्णविचिकिच्छो विगतकथंकथो वेसारज्जप्पत्तो अपरप्पच्चयो सत्थुसासने विहरती’’ति.

‘‘कित्तावता पन, भो गोतम, भिक्खु अरहं होति खीणासवो वुसितवा कतकरणीयो ओहितभारो अनुप्पत्तसदत्थो परिक्खीणभवसंयोजनो सम्मदञ्ञा विमुत्तो’’ति? ‘‘इध, अग्गिवेस्सन, भिक्खु यं किञ्चि रूपं अतीतानागतपच्चुप्पन्नं अज्झत्तं वा बहिद्धा वा ओळारिकं वा सुखुमं वा हीनं वा पणीतं वा यं दूरे सन्तिके वा सब्बं रूपं ‘नेतं मम, नेसोहमस्मि, न मेसो अत्ता’ति एवमेतं यथाभूतं सम्मप्पञ्ञाय दिस्वा अनुपादा विमुत्तो होति; या काचि वेदना…पे… या काचि सञ्ञा…पे… ये केचि सङ्खारा…पे… यं किञ्चि विञ्ञाणं अतीतानागतपच्चुप्पन्नं अज्झत्तं वा बहिद्धा वा ओळारिकं वा सुखुमं वा हीनं वा पणीतं वा यं दूरे सन्तिके वा सब्बं विञ्ञाणं ‘नेतं मम, नेसोहमस्मि, न मेसो अत्ता’ति एवमेतं यथाभूतं सम्मप्पञ्ञाय दिस्वा अनुपादा विमुत्तो होति. एत्तावता खो, अग्गिवेस्सन, भिक्खु अरहं होति खीणासवो वुसितवा कतकरणीयो ओहितभारो अनुप्पत्तसदत्थो परिक्खीणभवसंयोजनो सम्मदञ्ञा विमुत्तो. एवं विमुत्तचित्तो खो, अग्गिवेस्सन, भिक्खु तीहि अनुत्तरियेहि समन्नागतो होति – दस्सनानुत्तरियेन, पटिपदानुत्तरियेन, विमुत्तानुत्तरियेन. एवं विमुत्तचित्तो खो, अग्गिवेस्सन, भिक्खु तथागतञ्ञेव सक्करोति गरुं करोति मानेति पूजेति – बुद्धो सो भगवा बोधाय धम्मं देसेति, दन्तो सो भगवा दमथाय धम्मं देसेति, सन्तो सो भगवा समथाय धम्मं देसेति, तिण्णो सो भगवा तरणाय धम्मं देसेति, परिनिब्बुतो सो भगवा परिनिब्बानाय धम्मं देसेती’’ति.

३६२. एवं वुत्ते, सच्चको निगण्ठपुत्तो भगवन्तं एतदवोच – ‘‘मयमेव, भो गोतम, धंसी, मयं पगब्बा, ये मयं भवन्तं गोतमं वादेन वादं आसादेतब्बं अमञ्ञिम्ह. सिया हि, भो गोतम, हत्थिं पभिन्नं आसज्ज पुरिसस्स सोत्थिभावो, न त्वेव भवन्तं गोतमं आसज्ज सिया पुरिसस्स सोत्थिभावो. सिया हि, भो गोतम, पज्जलितं [जलन्तं (सी. पी.)] अग्गिक्खन्धं आसज्ज पुरिसस्स सोत्थिभावो , न त्वेव भवन्तं गोतमं आसज्ज सिया पुरिसस्स सोत्थिभावो. सिया हि, भो गोतम, आसीविसं घोरविसं आसज्ज पुरिसस्स सोत्थिभावो, न त्वेव भवन्तं गोतमं आसज्ज सिया पुरिसस्स सोत्थिभावो. मयमेव, भो गोतम, धंसी, मयं पगब्बा, ये मयं भवन्तं गोतमं वादेन वादं आसादेतब्बं अमञ्ञिम्ह. अधिवासेतु [अधिवासेतु च (पी. क.)] मे भवं गोतमो स्वातनाय भत्तं सद्धिं भिक्खुसङ्घेना’’ति. अधिवासेसि भगवा तुण्हीभावेन.

३६३. अथ खो सच्चको निगण्ठपुत्तो भगवतो अधिवासनं विदित्वा ते लिच्छवी आमन्तेसि – ‘‘सुणन्तु मे भोन्तो लिच्छवी, समणो मे गोतमो निमन्तितो स्वातनाय सद्धिं भिक्खुसङ्घेन. तेन मे अभिहरेय्याथ यमस्स पतिरूपं मञ्ञेय्याथा’’ति. अथ खो ते लिच्छवी तस्सा रत्तिया अच्चयेन सच्चकस्स निगण्ठपुत्तस्स पञ्चमत्तानि थालिपाकसतानि भत्ताभिहारं अभिहरिंसु. अथ खो निगण्ठपुत्तो सके आरामे पणीतं खादनीयं भोजनीयं पटियादापेत्वा भगवतो कालं आरोचापेसि – ‘‘कालो, भो गोतम, निट्ठितं भत्त’’न्ति. अथ खो भगवा पुब्बण्हसमयं निवासेत्वा पत्तचीवरमादाय येन सच्चकस्स निगण्ठपुत्तस्स आरामो तेनुपसङ्कमि; उपसङ्कमित्वा पञ्ञत्ते आसने निसीदि सद्धिं भिक्खुसङ्घेन. अथ खो सच्चको निगण्ठपुत्तो बुद्धप्पमुखं भिक्खुसङ्घं पणीतेन खादनीयेन भोजनीयेन सहत्था सन्तप्पेसि सम्पवारेसि. अथ खो सच्चको निगण्ठपुत्तो भगवन्तं भुत्ताविं ओनीतपत्तपाणिं अञ्ञतरं नीचं आसनं गहेत्वा एकमन्तं निसीदि. एकमन्तं निसिन्नो खो सच्चको निगण्ठपुत्तो भगवन्तं एतदवोच – ‘‘यमिदं, भो गोतम, दाने पुञ्ञञ्च पुञ्ञमही च तं दायकानं सुखाय होतू’’ति. ‘‘यं खो, अग्गिवेस्सन, तादिसं दक्खिणेय्यं आगम्म अवीतरागं अवीतदोसं अवीतमोहं, तं दायकानं भविस्सति. यं खो, अग्गिवेस्सन, मादिसं दक्खिणेय्यं आगम्म वीतरागं वीतदोसं वीतमोहं, तं तुय्हं भविस्सती’’ति.

चूळसच्चकसुत्तं निट्ठितं पञ्चमं.