नमो तस्स भगवतो अरहतो सम्मा-सम्बुद्धस्स

📜 सच्चक से दूसरी बहस

✦ ॥ नमो तस्स भगवतो अरहतो सम्मासम्बुद्धस्स ॥ ✦

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ऐसा मैंने सुना — एक समय भगवान वैशाली के महावन में स्थित कूटागार मंडप में विहार कर रहे थे। उस समय सुबह होने पर भगवान ने वैशाली में भिक्षाटन के लिए प्रवेश करने हेतु अच्छे से चीवर ओढ़ कर, पात्र और संघाटि धारण किया ही था, कि तभी सच्चक निगण्ठपुत्त 1 चहलकदमी कर घूमते हुए, टहलते हुए, महावन में स्थित कूटागार मंडप के पास आया।

आयुष्मान आनन्द ने सच्चक निगण्ठपुत्त को दूर से आते हुए देखा। देखकर भगवान से कहा, “भंते, सच्चक निगण्ठपुत्त आ रहा है, जो वाद-विवादी, बहसकर्ता (=शास्त्रार्थ करने वाला), बहुत से लोगों द्वारा अच्छा माना जाता है। भंते, उसे बुद्ध की बुराई करना है, धर्म की बुराई करना है, संघ की बुराई करना है। अच्छा होगा, भंते, जो भगवान कृपा कर एक मुहूर्त बैठ जाए।”

भगवान बिछे आसन पर बैठ गए। तब सच्चक निगण्ठपुत्त भगवान के पास गया। जाकर भगवान से हालचाल पूछा। मैत्रीपूर्ण वार्तालाप कर वह एक ओर बैठ गया। कुछ लिच्छवियों ने भगवान को अभिवादन किया, और एक ओर बैठ गए। कुछ ने भगवान से नम्रतापूर्ण वार्तालाप किया, और एक ओर बैठ गए। एक ओर बैठकर सच्चक निगण्ठपुत्त ने भगवान से कहा —

“श्रीमान गौतम, कुछ श्रमण-ब्राह्मण हैं जो काया विकसित करने के प्रति संकल्पबद्ध होकर विहार करते हैं, चित्त विकसित करने के प्रति नहीं। उन्हें शारीरिक दुःखद वेदना छूती है।

बहुत पहले, श्रीमान गौतम, किसी को ऐसी शारीरिक दुखद वेदना छुई कि उसकी जांघे स्तंभित हुई (=खंबे जैसी अकड़ गयी), हृदय फट गया, और मुँह से गर्म रक्त फूट पड़ा, और वह विक्षिप्त चित्त होकर उन्मादी (=पागल जैसा) हो गया। तब उनकी काया चित्त के अधीन हो, चित्त के ही वशीभूत चलती थी। ऐसा क्यों? क्योंकि उनकी काया विकसित नहीं थी।

श्रीमान गौतम, मुझे लगता है, ‘श्रीमान गौतम के श्रावक चित्त विकसित करने के प्रति संकल्पबद्ध होकर विहार करते हैं, काया विकसित करने के प्रति नहीं।’"

काया भावना

“किन्तु, अग्गिवेस्सन, तुमने काया विकसित (“काय-भावना”) करने के बारे में क्या सुना है?”

“जैसे, नन्द वच्छ, किसा सङ्किच्च, मक्खलि गोसाल हैं, जो निर्वस्त्र रहते हैं। (सामाजिक आचरण से) मुक्त रहते हैं। हाथ चाटते हैं। बुलाने पर नहीं जाते हैं। रोके जाने पर नहीं रुकते हैं। अपने लिए लायी भिक्षा को नहीं लेते हैं। अपने लिए पकाये भोज को नहीं लेते हैं। निमंत्रण भोज पर नहीं जाते हैं।

(भोजन पकाये) हाँडी से भिक्षा नहीं लेते हैं। (भोजन पकाये) बर्तन से भिक्षा नहीं लेते हैं। द्वार के अंतराल से भिक्षा नहीं लेते हैं। डंडे के अंतराल से भिक्षा नहीं लेते हैं। मूसल के अंतराल से भिक्षा नहीं लेते हैं। दो लोग भोजन साथ करने वालों से भिक्षा नहीं लेते हैं। गर्भिणी स्त्री से भिक्षा नहीं लेते हैं। दूध पिलाती स्त्री से भिक्षा नहीं लेते हैं। पुरुष के पास गयी स्त्री से भिक्षा नहीं लेते हैं। संग्रहीत किए भिक्षा को नहीं लेते हैं। कुत्ता खड़े स्थान से भिक्षा नहीं लेते हैं। भिनभिनाती मक्खियों के स्थान से भिक्षा नहीं लेते हैं। माँस नहीं लेते हैं। मछली नहीं लेते हैं। कच्ची शराब नहीं लेते हैं। पक्की शराब नहीं लेते हैं। चावल की शराब नहीं पीते हैं।

भिक्षाटन के लिए केवल एक घर जाकर एक निवाला लेते हैं। अथवा दो घर जाकर दो निवाले लेता… (या तीन… चार… पाँच… छह…) अथवा सात घर जाकर सात निवाले लेते हैं। केवल एक ही कलछी पर यापन करते हैं। अथवा दो कलछी पर यापन करता… (या तीन… चार… पाँच… छह…) अथवा सात कलछी पर यापन करते हैं। दिन में एक बार आहार लेते हैं। दो दिनों में एक बार आहार लेते… (या तीन… चार… पाँच… छह…) एक सप्ताह में एक बार आहार लेते हैं। और ऐसे ही आधे-आधे महीने के स्थिर अंतराल में एक ही बार आहार लेते हुए विहार करते हैं।”

“किन्तु, अग्गिवेस्सन, क्या वे मात्र उतने पर ही यापन करते हैं?”

“नहीं, श्रीमान गौतम। कई बार वे उत्तम से उत्तम खाद्य खाते हैं, उत्तम से उत्तम भोजन करते हैं, उत्तम से उत्तम रसपान चखते हैं, उत्तम से उत्तम पेय पीते हैं। वे अपनी काया और बल को बढ़ाते हैं, मजबूत बनाते हैं, चर्बीदार भी होते हैं।”

“तो पहले जिसे त्याग दिया, अग्गिवेस्सन, पश्चात उसे जमा किया। इस तरह, उनकी काया कम-ज्यादा होती रहती है। किन्तु, अग्गिवेस्सन, तुमने चित्त विकसित करने के बारे में क्या सुना है?”

चित्त विकसित करने के बारे में भगवान के द्वारा पुछे जाने पर, सच्चक निगण्ठपुत्त स्तब्ध हुआ।

तब भगवान ने सच्चक निगण्ठपुत्त से कहा, “अग्गिवेस्सन, पहले तुमने जो काया विकसित करने के बारे में बताया, वह आर्य विनय में धर्मानुसार काया विकसित करना नहीं है। और जब तुम्हें काया विकसित करने के बारे में ही नहीं पता, तब भला चित्त विकसित करने के बारे में कैसे जान पाओगे?

कोई अविकसित काया वाला कैसा होता है, अविकसित चित्त वाला कैसा होता है? और, अग्गिवेस्सन, कोई विकसित काया वाला कैसा होता है, विकसित चित्त कैसा होता है? ध्यान देकर गौर से सुनो, मैं बताता हूँ।”

“ठीक है, श्रीमान।” सच्चक निगण्ठपुत्त ने भगवान को उत्तर दिया।

अभावित और भावित

भगवान ने कहा —

“अग्गिवेस्सन, कोई अविकसित काया वाला कैसा होता है, और अविकसित चित्त वाला कैसा होता है?

ऐसा होता है, अग्गिवेस्सन, किसी धर्म न सुने आम-आदमी में सुखद अनुभूति उपजती है। सुखद अनुभूति के छूने पर, वे उस सुख में दिलचस्पी (“राग”) लेते हैं, सुख-राग में डूबने लगते हैं। तब वह सुखद अनुभूति खत्म होती है। सुखद अनुभूति के निरोध होने पर दुखद अनुभूति उपजती है। तब दुखद अनुभूति के छूने पर, वे उस दुख के मारे अफ़सोस करते हैं, ढीले पड़ते हैं, विलाप करते हैं, छाती पीटते हैं, बावले हो जाते हैं।

इस तरह, अग्गिवेस्सन, सुखद अनुभूति उत्पन्न होकर उनके चित्त में घर कर के बैठती है, क्योंकि काया अविकसित है। और, दुखद अनुभूति उत्पन्न होकर उनके चित्त में घर कर के बैठती है, क्योंकि चित्त अविकसित है।

इस तरह, अग्गिवेस्सन, कोई अविकसित काया वाला, और अविकसित चित्त वाला होता है।

और, अग्गिवेस्सन, कोई विकसित काया वाला कैसा होता है, और विकसित चित्त वाला कैसा होता है?

ऐसा होता है, अग्गिवेस्सन, किसी धर्म सुने आर्यश्रावक में सुखद अनुभूति उपजती है। सुखद अनुभूति के छूने पर, वे उस सुख में दिलचस्पी नहीं लेते हैं, सुख-राग में डूबने नहीं लगते हैं। तब वह सुखद अनुभूति खत्म होती है। सुखद अनुभूति के निरोध होने पर दुखद अनुभूति उपजती है। तब दुखद अनुभूति के छूने पर, वे उस दुख के मारे न अफ़सोस करते हैं, न ढीले पड़ते हैं, न विलाप करते हैं, न छाती पीटते हैं, न ही बावले हो जाते हैं।

इस तरह, अग्गिवेस्सन, सुखद अनुभूति उत्पन्न होकर उनके चित्त में घर कर के नहीं बैठती है, क्योंकि काया विकसित है। और, दुखद अनुभूति उत्पन्न होकर उनके चित्त में घर कर के नहीं बैठती है, क्योंकि चित्त विकसित है।”

“मुझे श्रीमान गौतम पर विश्वास है । अवश्य ही श्रीमान गौतम विकसित काया वाले और विकसित चित्त वाले हैं।”

“अग्गिवेस्सन, तुम्हारी बात निश्चित तौर पर आक्रामक और आपत्तिजनक है। 2 तब भी मैं उसका उत्तर देता हूँ।

अग्गिवेस्सन, जब से मैं सिरदाढ़ी मुंडवाकर, काषाय वस्त्र धारण कर, घर से बेघर होकर प्रव्रजित हुआ हूँ, कोई उत्पन्न सुखद अनुभूति मेरे चित्त में घर कर के नहीं बैठ पायी, और कोई उत्पन्न दुखद अनुभूति मेरे चित्त में घर कर के नहीं बैठ पायी।”

“शायद, श्रीमान गौतम को उस तरह की सुखद अनुभूति कभी उपजी ही न हो, जिस तरह की सुखद अनुभूति चित्त में घर कर के बैठती है। और, उस तरह की दुखद अनुभूति भी कभी उपजी ही न हो, जिस तरह की दुखद अनुभूति चित्त में घर कर के बैठती है।”

“कैसे नहीं होगा, अग्गिवेस्सन? जब मैं जब संबोधि से पहले केवल एक अजागृत बोधिसत्व था, मुझे लगा, “गृहस्थ जीवन बंधनकारी है, जैसे धूलभरा रास्ता हो! किंतु प्रवज्या, मानो खुला आकाश हो! घर रहते हुए ऐसा परिपूर्ण, परिशुद्ध ब्रह्मचर्य निभाना कठिन है, जो शुद्ध शंख जैसा उज्ज्वल हो! क्यों न मैं सिरदाढ़ी मुंडवाकर, काषाय वस्त्र धारण कर, घर से बेघर होकर प्रव्रजित हो जाऊँ?’

तब कुछ समय बीतने पर, अग्गिवेस्सन, जब मैं युवा ही था — घने काले केश वाला, यौवन वरदान से युक्त, जीवन के प्रथम चरण में — तब मैंने अपने माता-पिता के इच्छा विरुद्ध, उन्हें आँसू भरे चेहरे से रोते-बिलखते छोड़ कर, सिर और दाढ़ी मुंडवा कर, काषाय वस्त्र धारण कर, घर से बेघर होकर प्रवज्ज्यित हुआ।

प्रथम गुरु

इस तरह प्रवज्ज्यित होकर — कुशलता की खोज में, अनुत्तर शांति की अद्वितीय अवस्था की खोज में — मैं उदक रामपुत्त के पास गया। और जाकर, उदक रामपुत्त से कहा, ‘मित्र कालाम, मुझे इस धर्म-विनय में ब्रह्मचर्य पालन करने की इच्छा है।’

ऐसा कहे जाने पर, अग्गिवेस्सन, उदक रामपुत्त ने कहा, ‘यहीं रहिए, आयुष्मान। यह ऐसा धर्म है कि कोई समझदार पुरुष जल्द ही अपने आचार्य के ज्ञान का स्वयं प्रत्यक्ष साक्षात्कार कर विहार कर सकता है।’

तब, अग्गिवेस्सन, बहुत समय नहीं बीता, जल्द ही मैंने उस धर्म का अध्ययन कर लिया। जहाँ तक होठों से पठन और रटकर दोहराने की बात थी, मैं और दूसरे भी ऐसे ज्ञान के सिद्धान्त (ञाणवाद), और वरिष्ठों के सिद्धान्त (“थेरवाद”) को ‘जानता हूँ, देखता हूँ’ का दावा करते थे।

किन्तु, अग्गिवेस्सन, तब मुझे लगा, ‘यह उदक रामपुत्त इस धर्म के प्रति केवल श्रद्धा मात्र से ही प्रत्यक्ष ज्ञान से साक्षात्कार कर विहार करने की घोषणा नहीं करता। अवश्य ही उदक रामपुत्त वाकई इस धर्म को जानते हुए और देखते हुए विहार करता है।’

तब, अग्गिवेस्सन, मैं उदक रामपुत्त के पास गया, और जाकर उदक रामपुत्त से कहा, ‘मित्र कालाम, तुम इस धर्म में कहाँ तक प्रत्यक्ष ज्ञान से साक्षात्कार कर विहार कर घोषणा करते हो?’

ऐसा कहे जाने पर, अग्गिवेस्सन, उदक रामपुत्त ने ‘सूने आयाम’ की घोषणा की।

तब, अग्गिवेस्सन, मुझे लगा, ‘केवल उदक रामपुत्त में ही श्रद्धा नहीं, मुझमें भी श्रद्धा है। केवल उदक रामपुत्त में ही ऊर्जा नहीं, मुझमें भी ऊर्जा है। केवल उदक रामपुत्त में ही स्मृति नहीं, मुझमें भी स्मृति है। केवल उदक रामपुत्त में ही समाधि नहीं, मुझमें भी समाधि है। केवल उदक रामपुत्त में ही प्रज्ञा नहीं, मुझमें भी प्रज्ञा है। क्यों न मैं भी उस धर्म का साक्षात्कार करने का प्रयास करूँ, जिस धर्म को उदक रामपुत्त प्रत्यक्ष ज्ञान से साक्षात्कार कर विहार करने की घोषणा करता है।’

और, अग्गिवेस्सन, बहुत समय नहीं बीता, जल्द ही मैंने उस धर्म का प्रत्यक्ष ज्ञान से साक्षात्कार कर विहार करने लगा। तब, अग्गिवेस्सन, मैं उदक रामपुत्त के पास गया, और जाकर उदक रामपुत्त से कहा, ‘मित्र कालाम, क्या तुम इस धर्म में यहाँ-यहाँ तक प्रत्यक्ष ज्ञान से साक्षात्कार कर विहार करने की घोषणा करते हो? मैं भी, मित्र कालाम, इस धर्म में यहाँ-यहाँ तक प्रत्यक्ष ज्ञान से साक्षात्कार कर विहार करने की घोषणा करता हूँ।’

‘हम भाग्यशाली हैं, मित्र! हम सौभाग्यशाली हैं, मित्र! जो मैंने तुम जैसे आयुष्मान सब्रह्मचारी को देखा! जिस तरह मैं इस धर्म में प्रत्यक्ष ज्ञान से साक्षात्कार कर विहार करने की घोषणा करता हूँ, उसी तरह तुम भी इस धर्म में प्रत्यक्ष ज्ञान से साक्षात्कार कर विहार करने की घोषणा करते हो। मैं इस धर्म को जिस तरह जानता हूँ, तुम भी उस धर्म को उसी तरह जानते हो। तुम इस धर्म को जिस तरह जानते हो, मैं भी उस धर्म को उसी तरह जानता हूँ। जैसा मैं हूँ, वैसे ही तुम हो। और जैसे तुम हो, वैसा ही मैं हूँ। आओ, मेरे मित्र, हम दोनों अब इस समुदाय को चलाएँ।’

इस तरह, अग्गिवेस्सन, मेरे आचार्य उदक रामपुत्त ने मुझे, अपने शिष्य को, अपने स्वयं के स्तर पर रखा और अत्याधिक सम्मानित करते हुए पूजा।

किन्तु, अग्गिवेस्सन, मुझे लगा, ‘यह धर्म न मोहभंग, न विराग, न निरोध, न प्रशांति, न प्रत्यक्ष ज्ञान, न संबोधि, और न ही निर्वाण की ओर ले जाता है। बल्कि वह केवल ‘सूने आयाम में पुनरुत्पत्ति’ की ओर ले जाता है।’ इस तरह, अग्गिवेस्सन, उस धर्म को अनुपयुक्त पाकर, उस धर्म से मोहभंग होने पर, मैं चला गया।

द्वितीय गुरु

इस तरह, कुशलता की खोज में, अनुत्तर शांति की अद्वितीय अवस्था की खोज में — मैं उदक रामपुत्त के पास गया। और जाकर, उदक रामपुत्त से कहा, ‘मित्र राम, मुझे इस धर्म-विनय में ब्रह्मचर्य पालन करने की इच्छा है।’

ऐसा कहे जाने पर, अग्गिवेस्सन, उदक रामपुत्त ने कहा, ‘यहीं रहिए, आयुष्मान। यह ऐसा धर्म है कि कोई समझदार पुरुष जल्द ही अपने आचार्य के ज्ञान का स्वयं प्रत्यक्ष साक्षात्कार कर विहार कर सकता है।’

तब, अग्गिवेस्सन, बहुत समय नहीं बीता, जल्द ही मैंने उस धर्म का अध्ययन कर लिया। जहाँ तक होठों से पठन और रटकर दोहराने की बात थी, मैं और दूसरे भी ऐसे ज्ञान के सिद्धान्त, और वरिष्ठों के सिद्धान्त को ‘जानता हूँ, देखता हूँ’ का दावा करते थे।

किन्तु, अग्गिवेस्सन, तब मुझे लगा, ‘यह उदक रामपुत्त इस धर्म के प्रति केवल श्रद्धा मात्र से ही प्रत्यक्ष ज्ञान से साक्षात्कार कर विहार करने की घोषणा नहीं करता। अवश्य ही उदक रामपुत्त वाकई इस धर्म को जानते हुए और देखते हुए विहार करता है।’

तब, अग्गिवेस्सन, मैं उदक रामपुत्त के पास गया, और जाकर उदक रामपुत्त से कहा, ‘मित्र राम, तुम इस धर्म में कहाँ तक प्रत्यक्ष ज्ञान से साक्षात्कार कर विहार कर घोषणा करते हो?’

ऐसा कहे जाने पर, अग्गिवेस्सन, उदक रामपुत्त ने ‘न संज्ञा न ही असंज्ञा आयाम’ की घोषणा की।

तब, अग्गिवेस्सन, मुझे लगा, ‘केवल उदक रामपुत्त में ही श्रद्धा नहीं, मुझमें भी श्रद्धा है। केवल उदक रामपुत्त में ही ऊर्जा नहीं, मुझमें भी ऊर्जा है। केवल उदक रामपुत्त में ही स्मृति नहीं, मुझमें भी स्मृति है। केवल उदक रामपुत्त में ही समाधि नहीं, मुझमें भी समाधि है। केवल उदक रामपुत्त में ही प्रज्ञा नहीं, मुझमें भी प्रज्ञा है। क्यों न मैं भी उस धर्म का साक्षात्कार करने का प्रयास करूँ, जिस धर्म को उदक रामपुत्त प्रत्यक्ष ज्ञान से साक्षात्कार कर विहार करने की घोषणा करता है।’

और, अग्गिवेस्सन, बहुत समय नहीं बीता, जल्द ही मैंने उस धर्म का प्रत्यक्ष ज्ञान से साक्षात्कार कर विहार करने लगा। तब, अग्गिवेस्सन, मैं उदक रामपुत्त के पास गया, और जाकर उदक रामपुत्त से कहा, ‘मित्र राम, क्या तुम इस धर्म में यहाँ-यहाँ तक प्रत्यक्ष ज्ञान से साक्षात्कार कर विहार करने की घोषणा करते हो? मैं भी, मित्र राम, इस धर्म में यहाँ-यहाँ तक प्रत्यक्ष ज्ञान से साक्षात्कार कर विहार करने की घोषणा करता हूँ।’

‘हम भाग्यशाली हैं, मित्र! हम सौभाग्यशाली हैं, मित्र! जो मैंने तुम जैसे आयुष्मान सब्रह्मचारी को देखा! जिस तरह मैं इस धर्म में प्रत्यक्ष ज्ञान से साक्षात्कार कर विहार करने की घोषणा करता हूँ, उसी तरह तुम भी इस धर्म में प्रत्यक्ष ज्ञान से साक्षात्कार कर विहार करने की घोषणा करते हो। मैं इस धर्म को जिस तरह जानता हूँ, तुम भी उस धर्म को उसी तरह जानते हो। तुम इस धर्म को जिस तरह जानते हो, मैं भी उस धर्म को उसी तरह जानता हूँ। जैसा मैं हूँ, वैसे ही तुम हो। और जैसे तुम हो, वैसा ही मैं हूँ। आओ, मेरे मित्र, हम दोनों अब इस समुदाय को चलाएँ।’

इस तरह, अग्गिवेस्सन, मेरे आचार्य उदक रामपुत्त ने मुझे, अपने शिष्य को, अपने स्वयं के स्तर पर रखा और अत्याधिक सम्मानित करते हुए पूजा।

किन्तु, अग्गिवेस्सन, मुझे लगा, ‘यह धर्म न मोहभंग, न विराग, न निरोध, न प्रशांति, न प्रत्यक्ष ज्ञान, न संबोधि, और न ही निर्वाण की ओर ले जाता है। बल्कि वह केवल ‘न संज्ञा न ही असंज्ञा आयाम में पुनरुत्पत्ति’ की ओर ले जाता है।’ इस तरह, अग्गिवेस्सन, उस धर्म को अनुपयुक्त पाकर, उस धर्म से मोहभंग होने पर, मैं चला गया।

स्वयं खोजना

इस तरह, कुशलता की खोज में, अनुत्तर शांति की अद्वितीय अवस्था की खोज में, मगध देश में अनुक्रम से भ्रमण करते हुए — मैं उरुवेला सैन्य नगर में पहुँचा। वहाँ मुझे रमणीय क्षेत्र देखा, जहाँ एक प्रेरणादायी जंगली इलाका, रमणीय और स्वच्छ किनारों वाली (नेरञ्जरा) नदी बहती थी, और भिक्षाटन के लिए सभी ओर गाँव बसे थे।

तब, अग्गिवेस्सन, मुझे लगा, ‘यहाँ, श्रीमान, अच्छा रमणीय क्षेत्र है, एक प्रेरणादायी जंगली इलाका, रमणीय और स्वच्छ किनारों वाली नदी बहती है, और भिक्षाटन के लिए सभी ओर गाँव बसे हैं। किसी कुलपुत्र के उद्यम करने के ध्येय से यह बिलकुल ठीक है।’

तब, अग्गिवेस्सन, मैं बस वहीं बैठ गया — ‘यहीं उद्यम करने के लिए ठीक है।’

तब, अग्गिवेस्सन, ये तीन उपमाएँ मेरे आगे प्रकट हुई, जो पहले कभी न सुनी गयी, अनाश्चर्यकारी थी। 3

(१) जैसे, अग्गिवेस्सन, एक गीली रसदार लकड़ी जल में पड़ी हो। तब एक पुरुष माचिस की तीली 4 लेकर आए, ‘मैं इसे जला दूँगा, अग्नि प्रकट करूँगा।’ तुम्हें क्या लगता है, अग्गिवेस्सन? क्या वह पुरुष माचिस की तीली से जल में पड़ी उस गीली रसदार लकड़ी को जला देगा, अग्नि प्रकट करेगा?”

“नहीं, श्रीमान गौतम।"

“क्यों नहीं?”

“क्योंकि, श्रीमान गौतम, वह लकड़ी गीली रसदार है, और ऊपर से जल में पड़ी है। अंततः वह पुरुष थकान और परेशानी का भागी होगा।”

उसी तरह, अग्गिवेस्सन, कोई श्रमण-ब्राह्मण — काया और चित्त से — कामुकता से निर्लिप्त होकर नहीं रहते हैं। उनके भीतर कामुकता के प्रति चाहत, स्नेह, मोहकता, प्यास और ताप का अच्छे से परित्याग नहीं होता, अच्छे से शांत होकर नहीं रुकता। तब वे श्रमण-ब्राह्मण (संबोधि पाने के लिए) भले ही खूब प्रयास करते हुए दर्द और तीव्र, कटु, और भेदक पीड़ाओं की अनुभूति करे, किंतु वे ज्ञान-दर्शन और अनुत्तर सम्बोधि प्राप्त नहीं कर सकते।

— यह प्रथम उपमा, अग्गिवेस्सन, मेरे आगे प्रकट हुई, जो पहले कभी न सुनी गयी, अनाश्चर्यकारी थी।

(२) कुछ समय के पश्चात, अग्गिवेस्सन, मेरे आगे दूसरी उपमा प्रकट हुई, जो पहले कभी न सुनी गयी, अनाश्चर्यकारी थी।

जैसे, अग्गिवेस्सन, एक गीली रसदार लकड़ी, जल से दूर, थल पर पड़ी हो। तब एक पुरुष माचिस की तीली लेकर आए, ‘मैं इसे जला दूँगा, अग्नि प्रकट करूँगा।’ तुम्हें क्या लगता है, अग्गिवेस्सन? क्या वह पुरुष माचिस की तीली से जल से दूर थल पर पड़ी उस गीली रसदार लकड़ी को जला देगा, अग्नि प्रकट करेगा?”

“नहीं, श्रीमान गौतम।"

“क्यों नहीं?”

“क्योंकि, श्रीमान गौतम, वह लकड़ी गीली रसदार है, भले ही वह जल से दूर, थल पर पड़ी हो। अंततः वह पुरुष थकान और परेशानी का भागी होगा।”

उसी तरह, अग्गिवेस्सन, कोई श्रमण-ब्राह्मण — काया और चित्त से — कामुकता से निर्लिप्त होकर रहते हैं। किन्तु उनके भीतर कामुकता के प्रति चाहत, स्नेह, मोहकता, प्यास और ताप का अच्छे से परित्याग नहीं होता, अच्छे से शांत होकर नहीं रुकता। तब वे श्रमण-ब्राह्मण भले ही खूब प्रयास करते हुए दर्द और तीव्र, कटु, और भेदक पीड़ाओं की अनुभूति करे, किंतु वे ज्ञान-दर्शन और अनुत्तर सम्बोधि प्राप्त नहीं कर सकते।

— यह द्वितीय उपमा, अग्गिवेस्सन, मेरे आगे प्रकट हुई, जो पहले कभी न सुनी गयी, अनाश्चर्यकारी थी।

(३) कुछ समय के पश्चात, अग्गिवेस्सन, मेरे आगे तीसरी उपमा प्रकट हुई, जो पहले कभी न सुनी गयी, अनाश्चर्यकारी थी।

जैसे, अग्गिवेस्सन, एक सूखी निरस लकड़ी, जल से दूर, थल पर पड़ी हो। तब एक पुरुष माचिस की तीली लेकर आए, ‘मैं इसे जला दूँगा, अग्नि प्रकट करूँगा।’ तुम्हें क्या लगता है, अग्गिवेस्सन? क्या वह पुरुष माचिस की तीली से जल से दूर थल पर पड़ी उस सूखी निरस लकड़ी को जला देगा, अग्नि प्रकट करेगा?”

“हाँ, श्रीमान गौतम।"

“ऐसा क्यों?”

“क्योंकि, श्रीमान गौतम, वह लकड़ी सूखी और निरस है, और जल से दूर, थल पर भी पड़ी हो।”

उसी तरह, अग्गिवेस्सन, कोई श्रमण-ब्राह्मण — काया और चित्त से — कामुकता से निर्लिप्त होकर रहते हैं। और साथ ही, उनके भीतर कामुकता के प्रति चाहत, स्नेह, मोहकता, प्यास और ताप का अच्छे से परित्याग भी होता है, अच्छे से शांत होकर रुकता भी है। तब वे श्रमण-ब्राह्मण भले ही खूब प्रयास करते हुए, कोई दर्द और तीव्र, कटु, और भेदक पीड़ाओं की अनुभूति न भी करे, तब भी वे ज्ञान-दर्शन और अनुत्तर सम्बोधि प्राप्त कर सकते हैं।

— यह तृतीय उपमा, अग्गिवेस्सन, मेरे आगे प्रकट हुई, जो पहले कभी न सुनी गयी, अनाश्चर्यकारी थी।

बोधिसत्व का कठोर परिश्रम

तब, अग्गिवेस्सन, मुझे लगा, “क्यों न मैं दाँत भींचकर, जीभ को तालु पर लगाकर, अपने मानस से चित्त को खींच-पकड़ कर, दबा कर, कुचल दूँ?”

तब, मैंने दाँत भींचकर, जीभ को तालु पर लगाकर, अपने मानस से चित्त को खींच-पकड़ कर, इतना दबाया और कुचला कि मेरी बगल से पसीना बहने लगा।

जैसे कोई बलवान पुरुष किसी दुर्बल पुरुष को सिर से, गले से, या कंधे से खींच-पकड़ कर, दबा कर, कुचल देता है। उसी तरह, मैंने दाँत भींचकर, जीभ को तालु पर लगाकर, अपने मानस से चित्त को खींच-पकड़ कर, इतना दबाया और कुचला कि मेरी बगल से पसीना बहने लगा।

मेरी ऊर्जा जागृत और अथक थी, अग्गिवेस्सन, मेरी स्मृति उपस्थित और स्पष्ट थी। किन्तु उस दर्दभरे उद्यम के कारण मेरी काया प्रताड़ित होते हुए उत्तेजित और अशांत हुई। तब भी, अग्गिवेस्सन, उस तरह का उत्पन्न हुई दुखद अनुभूति मेरे चित्त पर न हावी हुई, न ही बनी रही।

तब, अग्गिवेस्सन, मुझे लगा, “क्यों न मैं साँस रोक कर ध्यान लगाऊँ?’

तब मैंने नाक और मुँह से आश्वास-प्रश्वास (=साँस लेना-छोड़ना) रोक दिया। किन्तु, अग्गिवेस्सन, जब मैंने नाक और मुँह से आश्वास-प्रश्वास रोक दिया, तो कान से वायु निकलकर गर्जना सी होने लगी। जैसे, लोहार की धौंकनी से वायु निकलते हुए गर्जना होती है। उसी तरह, जब मैंने नाक और मुँह से आश्वास-प्रश्वास रोक दिया, तो कान से वायु निकलकर गर्जना सी होने लगी।

मेरी ऊर्जा जागृत और अथक थी, अग्गिवेस्सन, मेरी स्मृति उपस्थित और स्पष्ट थी। किन्तु उस दर्दभरे उद्यम के कारण मेरी काया प्रताड़ित होते हुए उत्तेजित और अशांत हुई। तब भी, अग्गिवेस्सन, उस तरह उत्पन्न हुई दुखद अनुभूति मेरे चित्त पर न हावी हुई, न ही बनी रही।

तब, अग्गिवेस्सन, मुझे लगा, “क्यों न मैं साँस रोक कर ही ध्यान लगाते रहूँ?’

तब मैंने नाक और मुँह से आश्वास-प्रश्वास रोके रखा। किन्तु, अग्गिवेस्सन, जब मैंने नाक और मुँह से आश्वास-प्रश्वास रोके रखा, तो —

  • रुद्र ऊर्जाओं ने मेरा सिर चीरना शुरू किया। जैसे कोई बलवान पुरुष तीक्ष्ण तलवार से मेरा सिर चीर रहा हो…
  • मेरे सिर में तेज दर्द होने लगा। जैसे कोई बलवान पुरुष कड़े चमड़े की पट्टी से मेरे सिर को कस रहा हो…
  • रुद्र ऊर्जाओं ने मेरे पेट के उदर को चीरना शुरू किया। जैसे कोई कुशल कसाई तीक्ष्ण छुरी से गाय का पेट चीर रहा हो…
  • मेरे शरीर में बहुत जलन होने लगी। जैसे दो बलवान पुरुष किसी दुर्बल पुरुष को बाहों से पकड़कर घसीटते हुए, उसे अंगारों के गड्ढे में डालकर भूनने लगे…

— उसी तरह, जब मैंने नाक और मुँह से आश्वास-प्रश्वास रोक दिया, तो मेरे शरीर में बहुत जलन होने लगी।

मेरी ऊर्जा जागृत और अथक थी, अग्गिवेस्सन, मेरी स्मृति उपस्थित और स्पष्ट थी। किन्तु उस दर्दभरे उद्यम के कारण मेरी काया प्रताड़ित होते हुए उत्तेजित और अशांत हुई। तब भी, अग्गिवेस्सन, उस तरह उत्पन्न हुई दुखद अनुभूति मेरे चित्त पर न हावी हुई, न ही बनी रही।

तब मुझे देखकर, अग्गिवेस्सन, देवता कहने लगे, ‘श्रमण गौतम मर गया!’ दूसरे देवता कहने लगे, ‘श्रमण गौतम अभी मरा नहीं, किन्तु मर रहा है!’ तीसरे देवता कहने लगे, ‘श्रमण गौतम न मर गया, न ही मर रहा है, बल्कि श्रमण गौतम अरहंत हो गया! क्योंकि अरहंत इसी तरह जीते हैं!’

आहार त्यागना

तब, अग्गिवेस्सन, मुझे लगा, “क्यों न मैं आहार को पूरी तरह त्याग देने की साधना करूँ?’

किन्तु, अग्गिवेस्सन, तब देवतागण मेरे पास आकर कहने लगे, ‘महाशय, आहार को पूरी तरह न त्यागे। यदि आप आहार को पूरी तरह त्याग देंगे, तो हम आपके रोमछिद्रों से दिव्य ओज (=पोषण) को भीतर डालेंगे और उसी पर आप जीवित रहेंगे।’ 5

तब, अग्गिवेस्सन, मुझे लगा, ‘यदि मैं पूरी तरह उपवास करने का दावा करूँ, जबकि ये देवता मेरे रोमछिद्रों से दिव्य ओज को भीतर डाल रहे हो, तब मेरी ओर से झूठ होगा!’

तब, अग्गिवेस्सन, मैंने उन देवताओं को भेज दिया, कहते हुए, ‘रहने दीजिए!’

तब, अग्गिवेस्सन, मुझे लगा, ‘क्यों न मैं थोड़ा-थोड़ा आहार लेते रहूँ — एक बार में एक मुट्ठी दाल, या एक मुट्ठी दाल का पानी, या एक मुट्ठी मूँग दाल, या एक मुट्ठी मटर दाल?’

तब, अग्गिवेस्सन, मैं थोड़ा-थोड़ा आहार लेने लगा — एक बार में एक मुट्ठी दाल, या एक मुट्ठी दाल का पानी, या एक मुट्ठी मूँग दाल, या एक मुट्ठी मटर दाल? तब थोड़ा-थोड़ा ही आहार लेने से मेरी काया कुपोषित हो गयी।

  • जैसे बेल या बांस के जोड़ वाले खंड होते हैं, वैसे मेरे अंग-प्रत्यंग हो गए, मात्र अल्प आहार लेने से।
  • जैसे ऊँट की कूबड़ होती है, वैसी मेरी पीठ हो गई, मात्र अल्प आहार लेने से।
  • जैसे मोतियों की माला होती है, वैसे मेरी रीढ़ की हड्डी उभर कर आयी, मात्र अल्प आहार लेने से।
  • जैसे बहुत पुराना और जर्जर भण्डार का धरन होता है, वैसे मेरी पसलियाँ बाहर निकली, मात्र अल्प आहार लेने से।
  • जैसे कुएं में गहराई पर जाकर जल चमकता है, वैसे ही मेरी आंखों की चमक गड्ढों में गहराई तक धँस गयी, मात्र अल्प आहार लेने से।
  • जैसे सूखा सिकुड़ा हुआ करेला होता है, वैसा ही मेरा सिर सूखकर सिकुड़ गया, मात्र अल्प आहार लेने से।
  • और, अग्गिवेस्सन, मेरे पेट की त्वचा रीढ़ से इस तरह चिपक गई कि जब मैं अपने पेट को छूना चाहता, तो रीढ़ भी हाथ में आती। और जब रीढ़ को छूना चाहता, तो पेट की त्वचा हाथ में आती, मात्र अल्प आहार लेने से।
  • जब, अग्गिवेस्सन, मैं पेशाब या शौच करता, तो वहीं मुँह के बल गिर पड़ता, मात्र अल्प आहार लेने से।
  • यदि, अग्गिवेस्सन, मैं हाथों से अपने अंगों को मलता, तो मेरे रोम जड़ों से उखड़ कर गिरते, मात्र अल्प आहार लेने से।

तब मुझे देखकर, अग्गिवेस्सन, मनुष्य कहने लगे, ‘श्रमण गौतम काला है!’ दूसरे मनुष्य कहने लगे, ‘श्रमण गौतम काला नहीं, गेहूँआं है!’ तीसरे मनुष्य कहने लगे, ‘श्रमण गौतम न काला है, न ही गेहूँआं, बल्कि श्रमण गौतम की छवि पीली है!’ इस स्तर तक, अग्गिवेस्सन, मेरी परिशुद्ध त्वचा की चमक बर्बाद हो गयी थी, मात्र अल्प आहार लेने से।

आँख खुलना

तब, अग्गिवेस्सन, मुझे लगा, ‘अतीत में जितने भी श्रमण-ब्राह्मणों ने खूब प्रयास करते हुए, दर्द और तीव्र, कटु, भेदक पीड़ाओं की अनुभूति की हो, उसमें यह परम है, इससे बड़ी कोई पीड़ा नहीं है। भविष्य में जितने भी श्रमण-ब्राह्मण खूब प्रयास करते हुए, दर्द और तीव्र, कटु, भेदक पीड़ाओं की अनुभूति करेंगे, उसमें यह परम है, इससे बड़ी कोई पीड़ा नहीं है। वर्तमान में जितने भी श्रमण-ब्राह्मण खूब प्रयास करते हुए, दर्द और तीव्र, कटु, भेदक पीड़ाओं की अनुभूति कर रहे हो, उसमें यह परम है, इससे बड़ी कोई पीड़ा नहीं है। किन्तु, इतनी कड़ी दुष्करचर्या से भी मैंने कोई अलौकिक अवस्था, कोई विशेष आर्य ज्ञान-दर्शन प्राप्त नहीं किया। तब क्या बोधि का कोई अन्य मार्ग हो सकता है?’

तब, अग्गिवेस्सन, मुझे लगा, ‘मुझे याद है कि जब मेरे शाक्य पिता काम कर रहे थे, और मैं जामुन के पेड़ की शीतल छाया में बैठा हुआ था, तब मैं कामुकता से निर्लिप्त, अकुशल-स्वभाव से निर्लिप्त, सोच एवं विचार के साथ निर्लिप्तता से उपजे प्रफुल्लता और सुखपूर्ण प्रथम-ध्यान में प्रवेश पाकर विहार किया था। क्या वह बोधि का मार्ग हो सकता है?’

तब उसी स्मृति के पीछे-पीछे, अग्गिवेस्सन, चैतन्य हुआ — ‘यही बोधि का मार्ग है!’

तब, अग्गिवेस्सन, मुझे लगा, ‘मैं क्यों उस सुख से डरता हूँ, जब उसका कामुकता से कोई लेनदेन नहीं है, अकुशल-स्वभाव से कोई लेनदेन नहीं है?’

तब, अग्गिवेस्सन, मुझे लगा, ‘मैं उस सुख से नहीं डरूँगा, जब उसका कामुकता से कोई लेनदेन नहीं है, अकुशल-स्वभाव से कोई लेनदेन नहीं है।’

तब, अग्गिवेस्सन, मुझे लगा, ‘उस सुख को ऐसी कुपोषित काया से प्राप्त करना सरल नहीं है। क्यों न मैं कुछ ठोस आहार लूँ, कुछ दाल-भात?’

और तब, अग्गिवेस्सन, मैंने कुछ ठोस आहार लिया, कुछ दाल-भात।

तब उस समय, अग्गिवेस्सन, पाँच भिक्षु मेरी सेवा में थे, (सोचते हुए,) ‘श्रमण गौतम को धर्म प्राप्त हो जाए, तो वे हमें बताएँगे।’ जब मैंने कुछ ठोस आहार लिया, कुछ दाल-भात, तब वे निराश होकर चले गए, (सोचते हुए,) ‘श्रमण गौतम विलासी हो गए, तपस्या से भटक कर विलासी जीवन में लौट गए।’

और तब, अग्गिवेस्सन, मैंने ठोस आहार लेकर बल ग्रहण करने पर, कामुकता से निर्लिप्त, अकुशल-स्वभाव से निर्लिप्त, सोच एवं विचार के साथ निर्लिप्तता से उपजे प्रफुल्लता और सुखपूर्ण प्रथम-ध्यान में प्रवेश पाकर विहार किया। किन्तु, अग्गिवेस्सन, उस तरह की सुखद अनुभूति उत्पन्न होकर मेरे चित्त में घर कर के नहीं बैठी।

आगे सोच एवं विचार के रुक जाने पर, भीतर आश्वस्त हुआ मानस एकरस होकर, बिना-सोच, बिना-विचार, समाधि से उपजे प्रफुल्लता और सुखपूर्ण द्वितीय-ध्यान में प्रवेश पाकर रहा। किन्तु, अग्गिवेस्सन, उस तरह की सुखद अनुभूति उत्पन्न होकर मेरे चित्त में घर कर के नहीं बैठी।

आगे प्रफुल्लता से विरक्त हो, स्मरणशील एवं सचेतता के साथ-साथ तटस्थता धारण कर शरीर से सुख महसूस किया। जिसे आर्यजन ‘तटस्थ, स्मरणशील, सुखविहारी’ कहते हैं, ऐसे तृतीय-ध्यान में प्रवेश पाकर रहा। किन्तु, अग्गिवेस्सन, उस तरह की सुखद अनुभूति उत्पन्न होकर मेरे चित्त में घर कर के नहीं बैठी।

और आगे, सुख एवं दर्द दोनों हटाकर, खुशी एवं परेशानी पूर्व ही विलुप्त होने पर, तटस्थता और स्मरणशीलता की परिशुद्धता के साथ, अब न-सुख-न-दर्द पूर्ण चतुर्थ-ध्यान में प्रवेश पाकर रहा। किन्तु, अग्गिवेस्सन, उस तरह की सुखद अनुभूति उत्पन्न होकर मेरे चित्त में घर कर के नहीं बैठी।

मुक्ति

जब मेरा चित्त इस तरह समाहित, परिशुद्ध, उज्ज्वल, बेदाग, निर्मल, मृदुल, काम करने-योग्य, स्थिर और अविचल हो गया, तब मैंने उस चित्त को पूर्वजन्मों का अनुस्मरण करने की ओर झुकाया। तो मुझे विविध प्रकार के पूर्वजन्म स्मरण होने लगे — जैसे एक जन्म, दो जन्म, तीन जन्म, चार, पाँच, दस जन्म, बीस, तीस, चालीस, पचास जन्म, सौ जन्म, हज़ार जन्म, लाख जन्म, कई कल्पों का लोक-संवर्त (=ब्रह्मांडिय सिकुड़न), कई कल्पों का लोक-विवर्त (=ब्रह्मांडिय विस्तार), कई कल्पों का संवर्त-विवर्त — ‘वहाँ मेरा ऐसा नाम था, ऐसा गोत्र था, ऐसा दिखता था। ऐसा भोज था, ऐसा सुख-दुःख महसूस हुआ, ऐसा जीवन अंत हुआ। उस लोक से च्युत होकर मैं वहाँ उत्पन्न हुआ। वहाँ मेरा वैसा नाम था, वैसा गोत्र था, वैसा दिखता था। वैसा भोज था, वैसा सुख-दुःख महसूस हुआ, वैसे जीवन अंत हुआ। उस लोक से च्युत होकर मैं यहाँ उत्पन्न हुआ।’ इस तरह मैंने अपने विविध प्रकार के पूर्वजन्म शैली एवं विवरण के साथ स्मरण किए।

मुझे इस प्रथम-ज्ञान का साक्षात्कार रात के प्रथम-पहर में हुआ। अविद्या नष्ट हुई, ज्ञान उत्पन्न हुआ! अँधेरा नष्ट हुआ, उजाला उत्पन्न हुआ! जैसे किसी अप्रमत्त, तत्पर और दृढ़निश्चयी के साथ होता है। किन्तु, अग्गिवेस्सन, उस तरह की सुखद अनुभूति उत्पन्न होकर मेरे चित्त में घर कर के नहीं बैठी।

तब मैंने अपने समाहित, परिशुद्ध, उज्ज्वल, बेदाग, निर्मल, मृदुल, काम करने-योग्य, स्थिर और अविचल चित्त को सत्वों की गति जानने की ओर झुकाया। तब मुझे अपने विशुद्ध हुए अलौकिक दिव्यचक्षु से अन्य सत्वों की मौत और पुनर्जन्म होते हुए दिखा। और मुझे पता चला कि कर्मानुसार ही वे कैसे हीन अथवा उच्च हैं, सुंदर अथवा कुरूप हैं, सद्गति होते अथवा दुर्गति होते हैं। कैसे ये सत्व — काया दुराचार में संपन्न, वाणी दुराचार में संपन्न, एवं मन दुराचार में संपन्न, जिन्होंने आर्यजनों का अनादर किया, मिथ्यादृष्टि धारण की, और मिथ्यादृष्टि के प्रभाव में दुष्कृत्य किए — वे मरणोपरांत काया छूटने पर दुर्गति होकर यातनालोक नर्क में उपजे।’ किन्तु कैसे ये सत्व — काया सदाचार में संपन्न, वाणी सदाचार में संपन्न, एवं मन सदाचार में संपन्न, जिन्होंने आर्यजनों का अनादर नहीं किया, सम्यकदृष्टि धारण की, और सम्यकदृष्टि के प्रभाव में सुकृत्य किए — वे मरणोपरांत सद्गति होकर स्वर्ग में उपजे। इस तरह, मैंने अपने विशुद्ध हुए अलौकिक दिव्यचक्षु से अन्य सत्वों की मौत और पुनर्जन्म होते हुए देखा।

मुझे इस द्वितीय-ज्ञान का साक्षात्कार रात के मध्यम-पहर में हुआ। अविद्या नष्ट हुई, ज्ञान उत्पन्न हुआ! अँधेरा नष्ट हुआ, उजाला उत्पन्न हुआ! जैसे किसी अप्रमत्त, तत्पर और दृढ़निश्चयी के साथ होता है। किन्तु, अग्गिवेस्सन, उस तरह की सुखद अनुभूति उत्पन्न होकर मेरे चित्त में घर कर के नहीं बैठी।

जब मेरा चित्त इस तरह समाहित, परिशुद्ध, उज्ज्वल, बेदाग, निर्मल, मृदुल, काम करने-योग्य, स्थिर और अविचल हो गया, तब मैंने उस चित्त को आस्रव का क्षय जानने की ओर झुकाया। तब ‘यह दुःख है’, मुझे यथास्वरूप पता चला। ‘यह दुःख की उत्पत्ति है’, मुझे यथास्वरूप पता चला। ‘यह दुःख का निरोध है’, मुझे यथास्वरूप पता चला। ‘यह दुःख का निरोधकर्ता मार्ग है’, मुझे यथास्वरूप पता चला।

‘ये आस्रव हैं’, मुझे यथास्वरूप पता चला। ‘यह आस्रव की उत्पत्ति है’, मुझे यथास्वरूप पता चला। ‘यह आस्रव का निरोध है’, मुझे यथास्वरूप पता चला। ‘यह आस्रव का निरोधकर्ता मार्ग है’, मुझे यथास्वरूप पता चला। इस तरह जानने से, इस तरह देखने से, मेरा चित्त कामुक-आस्रव से विमुक्त हुआ, भव-आस्रव से विमुक्त हुआ, अविद्या-आस्रव से विमुक्त हुआ। विमुक्ति के साथ ज्ञान उत्पन्न हुआ, ‘विमुक्त हुआ!’ मुझे पता चला, ‘जन्म क्षीण हुए, ब्रह्मचर्य पूर्ण हुआ, काम समाप्त हुआ, आगे कोई काम बचा नहीं।’

मुझे इस तृतीय-ज्ञान का साक्षात्कार रात के अंतिम-पहर में हुआ। अविद्या नष्ट हुई, ज्ञान उत्पन्न हुआ! अँधेरा नष्ट हुआ, उजाला उत्पन्न हुआ! जैसे किसी अप्रमत्त, तत्पर और दृढ़निश्चयी के साथ होता है। किन्तु, अग्गिवेस्सन, उस तरह की सुखद अनुभूति उत्पन्न होकर मेरे चित्त में घर कर के नहीं बैठी।

अग्गिवेस्सन, मुझे कई सैकड़ों परिषदों में धर्म उपदेश करना याद है। उनमें हर किसी को यह लग रहा था कि ‘श्रमण गौतम विशेष रूप से मेरे लिए धर्म उपदेश कर रहे हैं।’ किन्तु, ऐसा नहीं देखना चाहिए। तथागत दूसरों को समझाने मात्र के लिए ही धर्म उपदेश करते हैं। और, अग्गिवेस्सन, जब वह कथन समाप्त हुआ, तब मैंने पहले की ही तरह उस समाधि निमित्त से चित्त को भीतर से स्थिर किया, स्थापित किया, एकाग्र किया, समाहित किया, जिससे मैं नित्य साधना करता हूँ।”

“इस बारे में श्रीमान गौतम विश्वसनीय लगते हैं, जैसा किसी अरहंत सम्यक-सम्बुद्ध के जैसा हो। किन्तु, क्या श्रीमान गौतम को कभी दिन में नींद लेना याद है?”

“मुझे याद आता है, अग्गिवेस्सन, ग्रीष्मकाल के अंतिम मास में भिक्षाटन कर भोजन करने के पश्चात, मैंने संघाटि (=ऊपरी वस्त्र) को चौपेती बिछा कर, दायी करवट लेकर, स्मरणशील और सचेत होकर नींद ली।”

“कुछ श्रमण-ब्राह्मण हैं, श्रीमान गौतम, जो इस मोहपूर्ण विहार करना कहते हैं।”

“इस तरह, अग्गिवेस्सन, कोई मोह-मुढ़ित या मोह-रहित नहीं होता है। कोई वाकई मोह-मुढ़ित या मोह-रहित कैसे होता है, ध्यान देकर गौर से सुनो, मैं बताता हूँ।”

“ठीक है, श्रीमान।” सच्चक निगण्ठपुत्त ने भगवान को उत्तर दिया।

भगवान ने कहा —

“जिस किसी में, अग्गिवेस्सन, आस्रव न त्यागे गए हो — जो मैला करते हैं, पुनरुत्पत्ति कराते हैं, परेशान करते हैं, दुःख परिणामी हैं, जन्म, बुढ़ापा और मौत लाते हैं — उसे मैं ‘मोह-मुढ़ित’ कहता हूँ। क्योंकि, अग्गिवेस्सन, आस्रवों को न त्यागने वाले मोह-मुढ़ित ही होते हैं।

और, अग्गिवेस्सन, जिस किसी में आस्रव त्यागे गए हो — जो मैला करते हैं, पुनरुत्पत्ति कराते हैं, परेशान करते हैं, दुःख परिणामी हैं, जन्म, बुढ़ापा और मौत लाते हैं — उसे मैं ‘मोह-रहित’ कहता हूँ। क्योंकि, अग्गिवेस्सन, आस्रवों को त्यागने वाले मोह-रहित ही होते हैं।

और, अग्गिवेस्सन, तथागत ऐसे आस्रव — जो मैला करते हैं, पुनरुत्पत्ति कराते हैं, परेशान करते हैं, दुःख परिणामी हैं, जन्म, बुढ़ापा और मौत लाते हैं — को त्याग देते हैं, जड़ से उखाड़ देते हैं, ताड़ के ठूँठ जैसे बना देते हैं, अस्तित्व से मिटा देते हैं, ताकि वे कभी पुनरुत्पन्न न हो।

जैसे, अग्गिवेस्सन, ताड़ का सिरा काट देने पर उसका दुबारा उगना असंभव है। उसी तरह, तथागत ऐसे आस्रव — जो मैला करते हैं, पुनरुत्पत्ति कराते हैं, परेशान करते हैं, दुःख परिणामी हैं, जन्म, बुढ़ापा और मौत लाते हैं — को त्याग देते हैं, जड़ से उखाड़ देते हैं, ताड़ के ठूँठ जैसे बना देते हैं, अस्तित्व से मिटा देते हैं, ताकि वे कभी पुनरुत्पन्न न हो।”

जब ऐसा कहा गया, तब सच्चक निगण्ठपुत्त ने भगवान से कहा, “आश्चर्य है, श्रीमान गौतम। अद्भुत है, श्रीमान गौतम। किस तरह श्रीमान गौतम पर आक्रामक और आपत्तिजनक बातों से हमले पर हमले किए गए, तब उनकी त्वचा का रंग चमकने लगता है, मुखवर्ण स्पष्ट (=या आश्वस्त) होने लगता है, जैसे किसी अरहंत सम्यक-सम्बुद्ध के साथ हो।

श्रीमान गौतम, मुझे पूरण कस्सप से वाद-विवाद करना याद है। वह मुझसे वाद-विवाद कर टालमटोल करते रहा, मुद्दा इधर-उधर की बातों में, बाहर की बातों में भटकाते रहा, और खीज, द्वेष और कड़वाहट प्रकट करते रहा। किन्तु, श्रीमान गौतम पर आक्रामक और आपत्तिजनक बातों से हमले पर हमले किए गए, तब उनकी त्वचा का रंग चमकने लगता है, मुखवर्ण स्पष्ट होने लगता है, जैसे किसी अरहंत सम्यक-सम्बुद्ध के साथ हो।

श्रीमान गौतम, मुझे मक्खलि गोसाल… अजित केसकम्बल… पकुध कच्चायन… सञ्जय बेलट्ठपुत्त… निगण्ठ नाटपुत्त 6 से वाद-विवाद करना याद है। वह मुझसे वाद-विवाद कर टालमटोल करते रहा, मुद्दा इधर-उधर की बातों में, बाहर की बातों में भटकाते रहा, और खीज, द्वेष और कड़वाहट प्रकट करते रहा। किन्तु, श्रीमान गौतम पर आक्रामक और आपत्तिजनक बातों से हमले पर हमले किए गए, तब उनकी त्वचा का रंग चमकने लगता है, मुखवर्ण स्पष्ट होने लगता है, जैसे किसी अरहंत सम्यक-सम्बुद्ध के साथ हो।

ठीक है, श्रीमान गौतम। तब आपकी अनुमति चाहता हूँ। बहुत से कर्तव्य हैं मेरे। बहुत जिम्मेदारियाँ हैं।”

“तब, अग्गिवेस्सन, जिसका उचित समय समझो!”

तब हर्षित होकर सच्चक निगण्ठपुत्त ने भगवान के कथन का अभिनंदन किया, और आसन से उठकर चला गया।

सुत्र समाप्त।


  1. वैशाली वज्जि गणराज्य की राजधानी थी और यह जैन महावीर (निगण्ठ नाटपुत्त) का जन्मस्थान भी था। चूँकि महावीर की माता के भाई गणतांत्रिक राजा थे, वैशाली में जैन धर्मावलंबियों की संख्या विशेष रूप से अधिक थी। लगता है, ऐसे में भगवान बुद्ध का वैशाली में रहना उनके लिए असहज करने वाला रहा हो। वहीं सच्चक एक प्रतिष्ठित संन्यासी थे, जिनके माता या पिता जैन थे। उसका अपना एक बड़ा आश्रम था। उसे भगवान से सरेआम बहस करना (पिछला सूत्र देखें) भारी पड़ा। कहा जाता है कि वह बुद्ध की साख गिराकर बदला लेने के लिए आतुर हुआ। ↩︎

  2. यह एक सामान्य प्रतिक्रिया है जब कोई व्यक्ति बिना कारण किसी के व्यक्तिगत आध्यात्मिक विकास के बारे में आपत्तिजनक अनुमान लगाता है। जब कोई व्यक्ति सामान्य धार्मिक सिद्धांतों को किसी के निजी जीवन से जोड़कर चुनौतीपूर्ण सवाल पूछता है, तो यह न केवल अशिष्टता होती है, बल्कि अपनी हद पार कर निजी जीवन में घुसने जैसा भी लगता है, भले ही वह बाहर से प्रशंसा जैसा दिखाई दे। शुरुआती सूत्रों में ऐसे कई उदाहरण मिलते हैं (मज्झिमनिकाय १२७, अंगुत्तरनिकाय ३.६०, अंगुत्तरनिकाय ४.३५) जहाँ प्रशंसा के नाम पर यह माना गया कि व्यक्ति अपनी सीमा से आगे बढ़ रहा है। ↩︎

  3. अनाश्चर्यकारक का यहाँ अर्थ है, जो किसी दिव्यशक्ति से प्राप्त न हो। विद्वानों का मानना है कि ऐसी गाथाएँ सूझ पड़ना, जो पहले सुनी न गयी हो, और जब उनका स्त्रोत या माध्यम दिव्य हो, तब उन्हें “आश्चर्यकारक गाथाएँ” कहते हैं। वैदिक परंपरा के अनुसार, ऐसी आश्चर्यकारक गाथाएँ, जिन्हें ‘श्रुति’ भी कहते हैं, वे ईश्वर या देवताओं के माध्यम से प्राप्त होती हैं। ठीक उसी तरह, जैसे पैगंबरों को कोई दिव्यशक्ति आकर गाथाओं में धर्म बताती है। लेकिन यहाँ भगवान कहते हैं कि उन्हें ये गाथाएँ, जो पहले सुनी न गयी थी, वे “अनाश्चर्यकारक” थी, जो उन्हें साधारण रूप से सूझ पड़ी। ↩︎

  4. मैंने आज की माचिस की तीली का उदाहरण दिया है, लेकिन असल में जो उपमा दी गई है, वह प्राचीन अग्नि-संयोग—अरणि मंथन—की प्रक्रिया से है। यानी वह प्रयास जिसमें कोई व्यक्ति दो लकड़ियों को रगड़कर अग्नि उत्पन्न करने की कोशिश करता है। यह स्पष्ट है कि यदि लकड़ी गीली और रसदार हो, तो चाहे जितनी कोशिश की जाए, उससे आग नहीं जलाई जा सकती।

    परंतु चूंकि आज के आधुनिक लोग शायद इस पारंपरिक प्रक्रिया को एक शब्द में नहीं समझ पाते, इसलिए मैंने उन्हें उनकी ‘आधुनिक भाषा’ में समझाने के लिए माचिस की तीली का उदाहरण दिया, और शायद जाने-अनजाने में उन्हें और भी अधिक आलसी बना दिया। ↩︎

  5. देवताओं के इस हस्तक्षेप का स्पष्ट विवरण कहीं नहीं मिलता। लेकिन मैं व्यक्तिगत दृष्टिकोण से दो संभावित (लेकिन अनिश्चित) व्याख्याएँ प्रस्तुत करता हूँ।

    1. संभवतः देवता बाध्य होते हैं कि कोई भी अपने पूर्व कर्मों के फल (पोषण) से वंचित न हो जाएँ।
    2. या संभव है कि केवल बोधिसत्व को साधना के दौरान देवताओं द्वारा ऐसी सुरक्षा प्राप्त होती हो।
     ↩︎
  6. यह बात स्पष्ट होती है कि यद्यपि सच्चक का जन्म जैन परिवार में हुआ था और उसने आजीवकों का उल्लेख भी किया था, फिर भी वह इन दर्शनों का वास्तविक अनुयायी नहीं था। ऐसा प्रतीत होता है कि वह स्वभाव से एक विरोधी प्रवृत्ति का व्यक्ति था — तर्क करना ही उसका असली उद्देश्य था, न कि किसी दर्शन में आस्था रखना।

    भगवान के समय के इन प्रसिद्ध छह गुरुओं की धारणाओं के बारे में जानने के लिए सामञ्ञफल सुत्त पढ़ें। ↩︎

Pali

३६४. एवं मे सुतं – एकं समयं भगवा वेसालियं विहरति महावने कूटागारसालायं. तेन खो पन समयेन भगवा पुब्बण्हसमयं सुनिवत्थो होति पत्तचीवरमादाय वेसालिं पिण्डाय पविसितुकामो [पुब्बण्हसमयं निवासेत्वा पत्तचीवरमादाय… पविसितुकामो होति (सी.)]. अथ खो सच्चको निगण्ठपुत्तो जङ्घाविहारं अनुचङ्कममानो अनुविचरमानो येन महावनं कूटागारसाला तेनुपसङ्कमि. अद्दसा खो आयस्मा आनन्दो सच्चकं निगण्ठपुत्तं दूरतोव आगच्छन्तं. दिस्वान भगवन्तं एतदवोच – ‘‘अयं, भन्ते, सच्चको निगण्ठपुत्तो आगच्छति भस्सप्पवादको पण्डितवादो साधुसम्मतो बहुजनस्स. एसो खो, भन्ते, अवण्णकामो बुद्धस्स, अवण्णकामो धम्मस्स, अवण्णकामो सङ्घस्स. साधु, भन्ते, भगवा मुहुत्तं निसीदतु अनुकम्पं उपादाया’’ति. निसीदि भगवा पञ्ञत्ते आसने. अथ खो सच्चको निगण्ठपुत्तो येन भगवा तेनुपसङ्कमि; उपसङ्कमित्वा भगवता सद्धिं सम्मोदि, सम्मोदनीयं कथं सारणीयं वीतिसारेत्वा एकमन्तं निसीदि. एकमन्तं निसिन्नो खो सच्चको निगण्ठपुत्तो भगवन्तं एतदवोच –

३६५. ‘‘सन्ति, भो गौतम, एके समणब्राह्मणा कायभावनानुयोगमनुयुत्ता विहरन्ति, नो चित्तभावनं. फुसन्ति हि ते, भो गौतम, सारीरिकं दुक्खं वेदनं. भूतपुब्बं, भो गौतम, सारीरिकाय दुक्खाय वेदनाय फुट्ठस्स सतो ऊरुक्खम्भोपि नाम भविस्सति, हदयम्पि नाम फलिस्सति, उण्हम्पि लोहितं मुखतो उग्गमिस्सति, उम्मादम्पि पापुणिस्सति [पापुणिस्सन्ति (स्या. कं.)] चित्तक्खेपं. तस्स खो एतं, भो गौतम, कायन्वयं चित्तं होति, कायस्स वसेन वत्तति. तं किस्स हेतु? अभावितत्ता चित्तस्स. सन्ति पन, भो गौतम, एके समणब्राह्मणा चित्तभावनानुयोगमनुयुत्ता विहरन्ति, नो कायभावनं. फुसन्ति हि ते, भो गौतम, चेतसिकं दुक्खं वेदनं. भूतपुब्बं, भो गौतम, चेतसिकाय दुक्खाय वेदनाय फुट्ठस्स सतो ऊरुक्खम्भोपि नाम भविस्सति, हदयम्पि नाम फलिस्सति, उण्हम्पि लोहितं मुखतो उग्गमिस्सति, उम्मादम्पि पापुणिस्सति चित्तक्खेपं. तस्स खो एसो, भो गौतम, चित्तन्वयो कायो होति, चित्तस्स वसेन वत्तति. तं किस्स हेतु? अभावितत्ता कायस्स . तस्स मय्हं, भो गौतम, एवं होति – ‘अद्धा भोतो गौतमस्स सावका चित्तभावनानुयोगमनुयुत्ता विहरन्ति, नो कायभावन’’’न्ति.

३६६. ‘‘किन्ति पन ते, अग्गिवेस्सन, कायभावना सुता’’ति? ‘‘सेय्यथिदं – नन्दो वच्छो, किसो संकिच्चो, मक्खलि गोसालो – एतेहि, भो गौतम, अचेलका मुत्ताचारा हत्थापलेखना नएहिभद्दन्तिका नतिट्ठभद्दन्तिका [नएहिभदन्तिका, नतिट्ठभदन्तिका (सी. स्या. कं. पी. क.)] न अभिहटं न उद्दिस्सकतं न निमन्तनं सादियन्ति, ते न कुम्भिमुखा पटिग्गण्हन्ति न कळोपिमुखा पटिग्गण्हन्ति न एळकमन्तरं न दण्डमन्तरं न मुसलमन्तरं न द्विन्नं भुञ्जमानानं न गब्भिनिया न पायमानाय न पुरिसन्तरगताय न सङ्कित्तीसु न यत्थ सा उपट्ठितो होति न यत्थ मक्खिका सण्डसण्डचारिनी , न मच्छं न मंसं न सुरं न मेरयं न थुसोदकं पिवन्ति. ते एकागारिका वा होन्ति एकालोपिका, द्वागारिका वा होन्ति द्वालोपिका…पे… सत्तागारिका वा होन्ति सत्तालोपिका. एकिस्सापि दत्तिया यापेन्ति, द्वीहिपि दत्तीहि यापेन्ति…पे… सत्तहिपि दत्तीहि यापेन्ति. एकाहिकम्पि आहारं आहारेन्ति, द्वीहिकम्पि आहारं आहारेन्ति…पे… सत्ताहिकम्पि आहारं आहारेन्ति. इति एवरूपं अद्धमासिकम्पि परियायभत्तभोजनानुयोगमनुयुत्ता विहरन्ती’’ति.

‘‘किं पन ते, अग्गिवेस्सन, तावतकेनेव यापेन्ती’’ति? ‘‘नो हिदं, भो गौतम. अप्पेकदा, भो गौतम, उळारानि उळारानि खादनीयानि खादन्ति, उळारानि उळारानि भोजनानि भुञ्जन्ति, उळारानि उळारानि सायनीयानि सायन्ति, उळारानि उळारानि पानानि पिवन्ति. ते इमं कायं बलं गाहेन्ति नाम, ब्रूहेन्ति नाम, मेदेन्ति नामा’’ति.

‘‘यं खो ते, अग्गिवेस्सन, पुरिमं पहाय पच्छा उपचिनन्ति, एवं इमस्स कायस्स आचयापचयो होति. किन्ति पन ते, अग्गिवेस्सन, चित्तभावना सुता’’ति? चित्तभावनाय खो सच्चको निगण्ठपुत्तो भगवता पुट्ठो समानो न सम्पायासि.

३६७. अथ खो भगवा सच्चकं निगण्ठपुत्तं एतदवोच – ‘‘यापि खो ते एसा, अग्गिवेस्सन, पुरिमा कायभावना भासिता सापि अरियस्स विनये नो धम्मिका कायभावना. कायभावनम्पि [कायभावनं हि (सी. पी. क.)] खो त्वं, अग्गिवेस्सन, न अञ्ञासि, कुतो पन त्वं चित्तभावनं जानिस्ससि ? अपि च, अग्गिवेस्सन, यथा अभावितकायो च होति अभावितचित्तो च, भावितकायो च होति भावितचित्तो च. तं सुणाहि, साधुकं मनसि करोहि, भासिस्सामी’’ति. ‘‘एवं, भो’’ति खो सच्चको निगण्ठपुत्तो भगवतो पच्चस्सोसि. भगवा एतदवोच –

३६८. ‘‘कथञ्च , अग्गिवेस्सन, अभावितकायो च होति अभावितचित्तो च? इध, अग्गिवेस्सन, अस्सुतवतो पुथुज्जनस्स उप्पज्जति सुखा वेदना. सो सुखाय वेदनाय फुट्ठो समानो सुखसारागी च होति सुखसारागितञ्च आपज्जति. तस्स सा सुखा वेदना निरुज्झति. सुखाय वेदनाय निरोधा उप्पज्जति दुक्खा वेदना. सो दुक्खाय वेदनाय फुट्ठो समानो सोचति किलमति परिदेवति उरत्ताळिं कन्दति सम्मोहं आपज्जति. तस्स खो एसा, अग्गिवेस्सन, उप्पन्नापि सुखा वेदना चित्तं परियादाय तिट्ठति अभावितत्ता कायस्स, उप्पन्नापि दुक्खा वेदना चित्तं परियादाय तिट्ठति अभावितत्ता चित्तस्स. यस्स कस्सचि, अग्गिवेस्सन, एवं उभतोपक्खं उप्पन्नापि सुखा वेदना चित्तं परियादाय तिट्ठति अभावितत्ता कायस्स, उप्पन्नापि दुक्खा वेदना चित्तं परियादाय तिट्ठति अभावितत्ता चित्तस्स, एवं खो, अग्गिवेस्सन, अभावितकायो च होति अभावितचित्तो च.

३६९. ‘‘कथञ्च, अग्गिवेस्सन, भावितकायो च होति भावितचित्तो च? इध, अग्गिवेस्सन, सुतवतो अरियसावकस्स उप्पज्जति सुखा वेदना. सो सुखाय वेदनाय फुट्ठो समानो न सुखसारागी च होति, न सुखसारागितञ्च आपज्जति. तस्स सा सुखा वेदना निरुज्झति. सुखाय वेदनाय निरोधा उप्पज्जति दुक्खा वेदना. सो दुक्खाय वेदनाय फुट्ठो समानो न सोचति न किलमति न परिदेवति न उरत्ताळिं कन्दति न सम्मोहं आपज्जति. तस्स खो एसा, अग्गिवेस्सन, उप्पन्नापि सुखा वेदना चित्तं न परियादाय तिट्ठति भावितत्ता कायस्स, उप्पन्नापि दुक्खा वेदना चित्तं न परियादाय तिट्ठति भावितत्ता चित्तस्स. यस्स कस्सचि, अग्गिवेस्सन, एवं उभतोपक्खं उप्पन्नापि सुखा वेदना चित्तं न परियादाय तिट्ठति भावितत्ता कायस्स, उप्पन्नापि दुक्खा वेदना चित्तं न परियादाय तिट्ठति भावितत्ता चित्तस्स. एवं खो, अग्गिवेस्सन, भावितकायो च होति भावितचित्तो चा’’ति.

३७०. ‘‘एवं पसन्नो अहं भोतो गौतमस्स! भवञ्हि गौतमो भावितकायो च होति भावितचित्तो चा’’ति . ‘‘अद्धा खो ते अयं, अग्गिवेस्सन, आसज्ज उपनीय वाचा भासिता, अपि च ते अहं ब्याकरिस्सामि . यतो खो अहं, अग्गिवेस्सन, केसमस्सुं ओहारेत्वा कासायानि वत्थानि अच्छादेत्वा अगारस्मा अनगारियं पब्बजितो, तं वत मे उप्पन्ना वा सुखा वेदना चित्तं परियादाय ठस्सति, उप्पन्ना वा दुक्खा वेदना चित्तं परियादाय ठस्सतीति नेतं ठानं [नेतं खोठानं (सी. पी.)] विज्जती’’ति.

‘‘न हि नून [न हनून (सी. स्या. कं. पी.)] भोतो गौतमस्स उप्पज्जति तथारूपा सुखा वेदना यथारूपा उप्पन्ना सुखा वेदना चित्तं परियादाय तिट्ठेय्य; न हि नून भोतो गौतमस्स उप्पज्जति तथारूपा दुक्खा वेदना यथारूपा उप्पन्ना दुक्खा वेदना चित्तं परियादाय तिट्ठेय्या’’ति.

३७१. ‘‘किञ्हि नो सिया, अग्गिवेस्सन? इध मे, अग्गिवेस्सन, पुब्बेव सम्बोधा अनभिसम्बुद्धस्स बोधिसत्तस्सेव सतो एतदहोसि – ‘सम्बाधो घरावासो रजापथो, अब्भोकासो पब्बज्जा. नयिदं सुकरं अगारं अज्झावसता एकन्तपरिपुण्णं एकन्तपरिसुद्धं सङ्खलिखितं ब्रह्मचरियं चरितुं. यंनूनाहं केसमस्सुं ओहारेत्वा कासायानि वत्थानि अच्छादेत्वा अगारस्मा अनगारियं पब्बजेय्य’न्ति. सो खो अहं, अग्गिवेस्सन, अपरेन समयेन दहरोव समानो, सुसुकाळकेसो भद्रेन योब्बनेन समन्नागतो पठमेन वयसा, अकामकानं मातापितूनं अस्सुमुखानं रुदन्तानं, केसमस्सुं ओहारेत्वा कासायानि वत्थानि अच्छादेत्वा अगारस्मा अनगारियं पब्बजिं. सो एवं पब्बजितो समानो किंकुसलगवेसी अनुत्तरं सन्तिवरपदं परियेसमानो येन आळारो कालामो तेनुपसङ्कमिं; उपसङ्कमित्वा आळारं कालामं एतदवोचं – ‘इच्छामहं, आवुसो कालाम, इमस्मिं धम्मविनये ब्रह्मचरियं चरितु’न्ति. एवं वुत्ते, अग्गिवेस्सन, आळारो कालामो मं एतदवोच – ‘विहरतायस्मा, तादिसो अयं धम्मो यत्थ विञ्ञू पुरिसो नचिरस्सेव सकं आचरियकं सयं अभिञ्ञा सच्छिकत्वा उपसम्पज्ज विहरेय्या’ति. सो खो अहं, अग्गिवेस्सन, नचिरस्सेव खिप्पमेव तं धम्मं परियापुणिं. सो खो अहं, अग्गिवेस्सन, तावतकेनेव ओट्ठपहतमत्तेन लपितलापनमत्तेन ञाणवादञ्च वदामि थेरवादञ्च, ‘जानामि पस्सामी’ति च पटिजानामि, अहञ्चेव अञ्ञे च. तस्स मय्हं, अग्गिवेस्सन, एतदहोसि – ‘न खो आळारो कालामो इमं धम्मं केवलं सद्धामत्तकेन सयं अभिञ्ञा सच्छिकत्वा उपसम्पज्ज विहरामीति पवेदेति, अद्धा आळारो कालामो इमं धम्मं जानं पस्सं विहरती’’’ति.

‘‘अथ ख्वाहं, अग्गिवेस्सन, येन आळारो कालामो तेनुपसङ्कमिं; उपसङ्कमित्वा आळारं कालामं एतदवोचं – ‘कित्तावता नो, आवुसो कालाम, इमं धम्मं सयं अभिञ्ञा सच्छिकत्वा उपसम्पज्ज विहरामीति पवेदेसी’ति? एवं वुत्ते, अग्गिवेस्सन, आळारो कालामो आकिञ्चञ्ञायतनं पवेदेसि. तस्स मय्हं, अग्गिवेस्सन, एतदहोसि – ‘न खो आळारस्सेव कालामस्स अत्थि सद्धा, मय्हंपत्थि सद्धा; न खो आळारस्सेव कालामस्स अत्थि वीरियं, मय्हंपत्थि वीरियं; न खो आळारस्सेव कालामस्स अत्थि सति, मय्हंपत्थि सति; न खो आळारस्सेव कालामस्स अत्थि समाधि, मय्हंपत्थि समाधि; न खो आळारस्सेव कालामस्स अत्थि पञ्ञा, मय्हंपत्थि पञ्ञा; यंनूनाहं यं धम्मं आळारो कालामो सयं अभिञ्ञा सच्छिकत्वा उपसम्पज्ज विहरामीति पवेदेति तस्स धम्मस्स सच्छिकिरियाय पदहेय्य’न्ति. सो खो अहं, अग्गिवेस्सन, नचिरस्सेव खिप्पमेव तं धम्मं सयं अभिञ्ञा सच्छिकत्वा उपसम्पज्ज विहासिं.

‘‘अथ ख्वाहं, अग्गिवेस्सन, येन आळारो कालामो तेनुपसङ्कमिं; उपसङ्कमित्वा आळारं कालामं एतदवोचं – ‘एत्तावता नो, आवुसो कालाम , इमं धम्मं सयं अभिञ्ञा सच्छिकत्वा उपसम्पज्ज पवेदेसी’ति? ‘एत्तावता खो अहं, आवुसो, इमं धम्मं सयं अभिञ्ञा सच्छिकत्वा उपसम्पज्ज पवेदेमी’ति. ‘अहम्पि खो, आवुसो, एत्तावता इमं धम्मं सयं अभिञ्ञा सच्छिकत्वा उपसम्पज्ज विहरामी’ति. ‘लाभा नो, आवुसो, सुलद्धं नो, आवुसो, ये मयं आयस्मन्तं तादिसं सब्रह्मचारिं पस्साम. इति याहं धम्मं सयं अभिञ्ञा सच्छिकत्वा उपसम्पज्ज पवेदेमि तं त्वं धम्मं सयं अभिञ्ञा सच्छिकत्वा उपसम्पज्ज विहरसि; यं त्वं धम्मं सयं अभिञ्ञा सच्छिकत्वा उपसम्पज्ज विहरसि तमहं धम्मं सयं अभिञ्ञा सच्छिकत्वा उपसम्पज्ज पवेदेमि. इति याहं धम्मं जानामि तं त्वं धम्मं जानासि; यं त्वं धम्मं जानासि तमहं धम्मं जानामि. इति यादिसो अहं तादिसो तुवं, यादिसो तुवं तादिसो अहं. एहि दानि, आवुसो, उभोव सन्ता इमं गणं परिहरामा’ति. इति खो, अग्गिवेस्सन, आळारो कालामो आचरियो मे समानो (अत्तनो) [( ) नत्थि (सी. पी.)] अन्तेवासिं मं समानं अत्तना समसमं ठपेसि, उळाराय च मं पूजाय पूजेसि. तस्स मय्हं, अग्गिवेस्सन, एतदहोसि – ‘नायं धम्मो निब्बिदाय न विरागाय न निरोधाय न उपसमाय न अभिञ्ञाय न सम्बोधाय न निब्बानाय संवत्तति, यावदेव आकिञ्चञ्ञायतनूपपत्तिया’ति. सो खो अहं, अग्गिवेस्सन, तं धम्मं अनलङ्करित्वा तस्मा धम्मा निब्बिज्ज अपक्कमिं.

३७२. ‘‘सो खो अहं, अग्गिवेस्सन, किंकुसलगवेसी अनुत्तरं सन्तिवरपदं परियेसमानो येन उदको रामपुत्तो तेनुपसङ्कमिं; उपसङ्कमित्वा उदकं रामपुत्तं एतदवोचं – ‘इच्छामहं, आवुसो [पस्स म. नि. १.२७८ पासरासिसुत्ते] इमस्मिं धम्मविनये ब्रह्मचरियं चरितु’न्ति. एवं वुत्ते, अग्गिवेस्सन, उदको रामपुत्तो मं एतदवोच – ‘विहरतायस्मा, तादिसो अयं धम्मो यत्थ विञ्ञू पुरिसो नचिरस्सेव सकं आचरियकं सयं अभिञ्ञा सच्छिकत्वा उपसम्पज्ज विहरेय्या’ति. सो खो अहं, अग्गिवेस्सन, नचिरस्सेव खिप्पमेव तं धम्मं परियापुणिं. सो खो अहं, अग्गिवेस्सन, तावतकेनेव ओट्ठपहतमत्तेन लपितलापनमत्तेन ञाणवादञ्च वदामि थेरवादञ्च, ‘जानामि पस्सामी’ति च पटिजानामि, अहञ्चेव अञ्ञे च. तस्स मय्हं, अग्गिवेस्सन, एतदहोसि – ‘न खो रामो इमं धम्मं केवलं सद्धामत्तकेन सयं अभिञ्ञा सच्छिकत्वा उपसम्पज्ज विहरामीति पवेदेसि. अद्धा रामो इमं धम्मं जानं पस्सं विहासी’ति. अथ ख्वाहं, अग्गिवेस्सन, येन उदको रामपुत्तो तेनुपसङ्कमिं; उपसङ्कमित्वा उदकं रामपुत्तं एतदवोचं – ‘कित्तावता नो, आवुसो रामो, इमं धम्मं सयं अभिञ्ञा सच्छिकत्वा उपसम्पज्ज विहरामीति पवेदेसी’ति? एवं वुत्ते, अग्गिवेस्सन, उदको रामपुत्तो नेवसञ्ञानासञ्ञायतनं पवेदेसि. तस्स मय्हं, अग्गिवेस्सन, एतदहोसि – ‘न खो रामस्सेव अहोसि सद्धा, मय्हंपत्थि सद्धा; न खो रामस्सेव अहोसि वीरियं, मय्हंपत्थि वीरियं; न खो रामस्सेव अहोसि सति, मय्हंपत्थि सति; न खो रामस्सेव अहोसि समाधि, मय्हंपत्थि समाधि; न खो रामस्सेव अहोसि पञ्ञा, मय्हंपत्थि पञ्ञा; यंनूनाहं यं धम्मं रामो सयं अभिञ्ञा सच्छिकत्वा उपसम्पज्ज विहरामीति पवेदेसि तस्स धम्मस्स सच्छिकिरियाय पदहेय्य’न्ति. सो खो अहं, अग्गिवेस्सन, नचिरस्सेव खिप्पमेव तं धम्मं सयं अभिञ्ञा सच्छिकत्वा उपसम्पज्ज विहासिं.

‘‘अथ ख्वाहं, अग्गिवेस्सन, येन उदको रामपुत्तो तेनुपसङ्कमिं; उपसङ्कमित्वा उदकं रामपुत्तं एतदवोचं – ‘एत्तावता नो, आवुसो, रामो इमं धम्मं सयं अभिञ्ञा सच्छिकत्वा उपसम्पज्ज पवेदेसी’ति? ‘एत्तावता खो, आवुसो, रामो इमं धम्मं सयं अभिञ्ञा सच्छिकत्वा उपसम्पज्ज पवेदेसी’ति. ‘अहम्पि खो, आवुसो, एत्तावता इमं धम्मं सयं अभिञ्ञा सच्छिकत्वा उपसम्पज्ज विहरामी’ति. ‘लाभा नो, आवुसो, सुलद्धं नो, आवुसो, ये मयं आयस्मन्तं तादिसं सब्रह्मचारिं पस्साम. इति यं धम्मं रामो सयं अभिञ्ञा सच्छिकत्वा उपसम्पज्ज पवेदेसि, तं त्वं धम्मं सयं अभिञ्ञा सच्छिकत्वा उपसम्पज्ज विहरसि; यं त्वं धम्मं सयं अभिञ्ञा सच्छिकत्वा उपसम्पज्ज विहरसि, तं धम्मं रामो सयं अभिञ्ञा सच्छिकत्वा उपसम्पज्ज पवेदेसि. इति यं धम्मं रामो अभिञ्ञासि तं त्वं धम्मं जानासि; यं त्वं धम्मं जानासि तं धम्मं रामो अभिञ्ञासि. इति यादिसो रामो अहोसि तादिसो तुवं; यादिसो तुवं तादिसो रामो अहोसि. एहि दानि, आवुसो, तुवं इमं गणं परिहरा’ति. इति खो, अग्गिवेस्सन, उदको रामपुत्तो सब्रह्मचारी मे समानो आचरियट्ठाने च मं ठपेसि, उळाराय च मं पूजाय पूजेसि. तस्स मय्हं, अग्गिवेस्सन, एतदहोसि – ‘नायं धम्मो निब्बिदाय न विरागाय न निरोधाय न उपसमाय न अभिञ्ञाय न सम्बोधाय न निब्बानाय संवत्तति, यावदेव नेवसञ्ञानासञ्ञायतनूपपत्तिया’ति. सो खो अहं, अग्गिवेस्सन, तं धम्मं अनलङ्करित्वा तस्मा धम्मा निब्बिज्ज अपक्कमिं.

३७३. ‘‘सो खो अहं, अग्गिवेस्सन, किंकुसलगवेसी अनुत्तरं सन्तिवरपदं परियेसमानो मगधेसु अनुपुब्बेन चारिकं चरमानो येन उरुवेला सेनानिगमो तदवसरिं. तत्थद्दसं रमणीयं भूमिभागं, पासादिकञ्च वनसण्डं, नदिञ्च सन्दन्तिं सेतकं सुपतित्थं रमणीयं, समन्ता च गोचरगामं. तस्स मय्हं, अग्गिवेस्सन, एतदहोसि – ‘रमणीयो वत, भो, भूमिभागो, पासादिको च वनसण्डो, नदी च सन्दति सेतका सुपतित्था रमणीया, समन्ता च गोचरगामो. अलं वतिदं कुलपुत्तस्स पधानत्थिकस्स पधानाया’ति. सो खो अहं, अग्गिवेस्सन, तत्थेव निसीदिं ‘अलमिदं पधानाया’ति.

३७४. ‘‘अपिस्सुमं, अग्गिवेस्सन, तिस्सो उपमा पटिभंसु अनच्छरिया पुब्बे अस्सुतपुब्बा. सेय्यथापि, अग्गिवेस्सन, अल्लं कट्ठं सस्नेहं उदके निक्खित्तं. अथ पुरिसो आगच्छेय्य उत्तरारणिं आदाय – ‘अग्गिं अभिनिब्बत्तेस्सामि, तेजो पातुकरिस्सामी’ति. तं किं मञ्ञसि, अग्गिवेस्सन, अपि नु सो पुरिसो अमुं अल्लं कट्ठं सस्नेहं, उदके निक्खित्तं , उत्तरारणिं आदाय अभिमन्थेन्तो अग्गिं अभिनिब्बत्तेय्य, तेजो पातुकरेय्या’’ति? ‘‘नो हिदं, भो गौतम’’. ‘‘तं किस्स हेतु’’? ‘‘अदुञ्हि, भो गौतम, अल्लं कट्ठं सस्नेहं, तञ्च पन उदके निक्खित्तं. यावदेव च पन सो पुरिसो किलमथस्स विघातस्स भागी अस्सा’’ति. ‘‘एवमेव खो, अग्गिवेस्सन, ये हि केचि समणा वा ब्राह्मणा वा कायेन चेव चित्तेन च कामेहि अवूपकट्ठा विहरन्ति, यो च नेसं कामेसु कामच्छन्दो कामस्नेहो काममुच्छा कामपिपासा कामपरिळाहो, सो च अज्झत्तं न सुप्पहीनो होति, न सुप्पटिप्पस्सद्धो, ओपक्कमिका चेपि ते भोन्तो समणब्राह्मणा दुक्खा तिब्बा खरा कटुका वेदना वेदयन्ति, अभब्बाव ते ञाणाय दस्सनाय अनुत्तराय सम्बोधाय. नो चेपि ते भोन्तो समणब्राह्मणा ओपक्कमिका दुक्खा तिब्बा खरा कटुका वेदना वेदयन्ति, अभब्बाव ते ञाणाय दस्सनाय अनुत्तराय सम्बोधाय. अयं खो मं, अग्गिवेस्सन, पठमा उपमा पटिभासि अनच्छरिया पुब्बे अस्सुतपुब्बा.

३७५. ‘‘अपरापि खो मं, अग्गिवेस्सन, दुतिया उपमा पटिभासि अनच्छरिया पुब्बे अस्सुतपुब्बा. सेय्यथापि, अग्गिवेस्सन, अल्लं कट्ठं सस्नेहं, आरका उदका थले निक्खित्तं. अथ पुरिसो आगच्छेय्य उत्तरारणिं आदाय – ‘अग्गिं अभिनिब्बत्तेस्सामि, तेजो पातुकरिस्सामी’ति. तं किं मञ्ञसि, अग्गिवेस्सन, अपि नु सो पुरिसो अमुं अल्लं कट्ठं सस्नेहं, आरका उदका थले निक्खित्तं, उत्तरारणिं आदाय अभिमन्थेन्तो अग्गिं अभिनिब्बत्तेय्य तेजो पातुकरेय्या’’ति? ‘‘नो हिदं, भो गौतम’’. ‘‘तं किस्स हेतु’’? ‘‘अदुञ्हि, भो गौतम, अल्लं कट्ठं सस्नेहं, किञ्चापि आरका उदका थले निक्खित्तं. यावदेव च पन सो पुरिसो किलमथस्स विघातस्स भागी अस्साति. एवमेव खो, अग्गिवेस्सन, ये हि केचि समणा वा ब्राह्मणा वा कायेन चेव चित्तेन च कामेहि वूपकट्ठा विहरन्ति, यो च नेसं कामेसु कामच्छन्दो कामस्नेहो काममुच्छा कामपिपासा कामपरिळाहो सो च अज्झत्तं न सुप्पहीनो होति, न सुप्पटिप्पस्सद्धो, ओपक्कमिका चेपि ते भोन्तो समणब्राह्मणा दुक्खा तिब्बा खरा कटुका वेदना वेदयन्ति, अभब्बाव ते ञाणाय दस्सनाय अनुत्तराय सम्बोधाय. नो चेपि ते भोन्तो समणब्राह्मणा ओपक्कमिका दुक्खा तिब्बा खरा कटुका वेदना वेदयन्ति, अभब्बाव ते ञाणाय दस्सनाय अनुत्तराय सम्बोधाय. अयं खो मं, अग्गिवेस्सन, दुतिया उपमा पटिभासि अनच्छरिया पुब्बे अस्सुतपुब्बा’’.

३७६. ‘‘अपरापि खो मं, अग्गिवेस्सन, ततिया उपमा पटिभासि अनच्छरिया पुब्बे अस्सुतपुब्बा. सेय्यथापि, अग्गिवेस्सन, सुक्खं कट्ठं कोळापं, आरका उदका थले निक्खित्तं. अथ पुरिसो आगच्छेय्य उत्तरारणिं आदाय – ‘अग्गिं अभिनिब्बत्तेस्सामि, तेजो पातुकरिस्सामी’ति. तं किं मञ्ञसि, अग्गिवेस्सन, अपि नु सो पुरिसो अमुं सुक्खं कट्ठं कोळापं, आरका उदका थले निक्खित्तं, उत्तरारणिं आदाय अभिमन्थेन्तो अग्गिं अभिनिब्बत्तेय्य, तेजो पातुकरेय्या’’ति? ‘‘एवं, भो गौतम’’. ‘‘तं किस्स हेतु’’? ‘‘अदुञ्हि, भो गौतम, सुक्खं कट्ठं कोळापं, तञ्च पन आरका उदका थले निक्खित्त’’न्ति . ‘‘एवमेव खो, अग्गिवेस्सन, ये हि केचि समणा वा ब्राह्मणा वा कायेन चेव चित्तेन च कामेहि वूपकट्ठा विहरन्ति, यो च नेसं कामेसु कामच्छन्दो कामस्नेहो काममुच्छा कामपिपासा कामपरिळाहो, सो च अज्झत्तं सुप्पहीनो होति सुप्पटिप्पस्सद्धो, ओपक्कमिका चेपि ते भोन्तो समणब्राह्मणा दुक्खा तिब्बा खरा कटुका वेदना वेदयन्ति, भब्बाव ते ञाणाय दस्सनाय अनुत्तराय सम्बोधाय. नो चेपि ते भोन्तो समणब्राह्मणा ओपक्कमिका दुक्खा तिब्बा खरा कटुका वेदना वेदयन्ति, भब्बाव ते ञाणाय दस्सनाय अनुत्तराय सम्बोधाय. अयं खो मं, अग्गिवेस्सन, ततिया उपमा पटिभासि अनच्छरिया पुब्बे अस्सुतपुब्बा. इमा खो मं, अग्गिवेस्सन, तिस्सो उपमा पटिभंसु अनच्छरिया पुब्बे अस्सुतपुब्बा.’’

३७७. ‘‘तस्स मय्हं, अग्गिवेस्सन, एतदहोसि – ‘यंनूनाहं दन्तेभि दन्तमाधाय [पस्स म. नि. १.२२१ वितक्कसण्ठानसुत्ते], जिव्हाय तालुं आहच्च, चेतसा चित्तं अभिनिग्गण्हेय्यं अभिनिप्पीळेय्यं अभिसन्तापेय्य’न्ति. सो खो अहं, अग्गिवेस्सन, दन्तेभि दन्तमाधाय, जिव्हाय तालुं आहच्च, चेतसा चित्तं अभिनिग्गण्हामि अभिनिप्पीळेमि अभिसन्तापेमि. तस्स मय्हं, अग्गिवेस्सन, दन्तेभि दन्तमाधाय जिव्हाय तालुं आहच्च चेतसा चित्तं अभिनिग्गण्हतो अभिनिप्पीळयतो अभिसन्तापयतो कच्छेहि सेदा मुच्चन्ति. सेय्यथापि, अग्गिवेस्सन, बलवा पुरिसो दुब्बलतरं पुरिसं सीसे वा गहेत्वा खन्धे वा गहेत्वा अभिनिग्गण्हेय्य अभिनिप्पीळेय्य अभिसन्तापेय्य, एवमेव खो मे, अग्गिवेस्सन, दन्तेभि दन्तमाधाय, जिव्हाय तालुं आहच्च, चेतसा चित्तं अभिनिग्गण्हतो अभिनिप्पीळयतो अभिसन्तापयतो कच्छेहि सेदा मुच्चन्ति. आरद्धं खो पन मे, अग्गिवेस्सन, वीरियं होति असल्लीनं, उपट्ठिता सति असम्मुट्ठा, सारद्धो च पन मे कायो होति अप्पटिप्पस्सद्धो तेनेव दुक्खप्पधानेन पधानाभितुन्नस्स सतो. एवरूपापि खो मे, अग्गिवेस्सन, उप्पन्ना दुक्खा वेदना चित्तं न परियादाय तिट्ठति.

३७८. ‘‘तस्स मय्हं, अग्गिवेस्सन, एतदहोसि – ‘यंनूनाहं अप्पाणकंयेव झानं झायेय्य’न्ति. सो खो अहं, अग्गिवेस्सन, मुखतो च नासतो च अस्सासपस्सासे उपरुन्धिं. तस्स मय्हं, अग्गिवेस्सन, मुखतो च नासतो च अस्सासपस्सासेसु उपरुद्धेसु कण्णसोतेहि वातानं निक्खमन्तानं अधिमत्तो सद्दो होति. सेय्यथापि नाम कम्मारगग्गरिया धममानाय अधिमत्तो सद्दो होति, एवमेव खो मे, अग्गिवेस्सन, मुखतो च नासतो च अस्सासपस्सासेसु उपरुद्धेसु कण्णसोतेहि वातानं निक्खमन्तानं अधिमत्तो सद्दो होति. आरद्धं खो पन मे, अग्गिवेस्सन, वीरियं होति असल्लीनं उपट्ठिता सति असम्मुट्ठा. सारद्धो च पन मे कायो होति अप्पटिप्पस्सद्धो तेनेव दुक्खप्पधानेन पधानाभितुन्नस्स सतो. एवरूपापि खो मे, अग्गिवेस्सन, उप्पन्ना दुक्खा वेदना चित्तं न परियादाय तिट्ठति.

‘‘तस्स मय्हं, अग्गिवेस्सन, एतदहोसि – ‘यंनूनाहं अप्पाणकंयेव झानं झायेय्य’न्ति. सो खो अहं, अग्गिवेस्सन, मुखतो च नासतो च कण्णतो च अस्सासपस्सासे उपरुन्धिं. तस्स मय्हं, अग्गिवेस्सन, मुखतो च नासतो च कण्णतो च अस्सासपस्सासेसु उपरुद्धेसु अधिमत्ता वाता मुद्धनि ऊहनन्ति [ऊहन्ति (सी.), ओहनन्ति (स्या. कं.), उहनन्ति (क.)]. सेय्यथापि, अग्गिवेस्सन, बलवा पुरिसो तिण्हेन सिखरेन मुद्धनि अभिमत्थेय्य [मुद्धानं अभिमन्थेय्य (सी. पी.), मुद्धानं अभिमत्थेय्य (स्या. कं.)], एवमेव खो मे, अग्गिवेस्सन, मुखतो च नासतो च कण्णतो च अस्सासपस्सासेसु उपरुद्धेसु अधिमत्ता वाता मुद्धनि ऊहनन्ति. आरद्धं खो पन मे, अग्गिवेस्सन, वीरियं होति असल्लीनं उपट्ठिता सति असम्मुट्ठा. सारद्धो च पन मे कायो होति अप्पटिप्पस्सद्धो तेनेव दुक्खप्पधानेन पधानाभितुन्नस्स सतो. एवरूपापि खो मे, अग्गिवेस्सन, उप्पन्ना दुक्खा वेदना चित्तं न परियादाय तिट्ठति.

‘‘तस्स मय्हं, अग्गिवेस्सन, एतदहोसि – ‘यंनूनाहं अप्पाणकंयेव झानं झायेय्य’न्ति. सो खो अहं, अग्गिवेस्सन, मुखतो च नासतो च कण्णतो च अस्सासपस्सासे उपरुन्धिं. तस्स मय्हं, अग्गिवेस्सन, मुखतो च नासतो च कण्णतो च अस्सासपस्सासेसु उपरुद्धेसु अधिमत्ता सीसे सीसवेदना होन्ति. सेय्यथापि, अग्गिवेस्सन, बलवा पुरिसो दळ्हेन वरत्तक्खण्डेन [वरत्तकबन्धनेन (सी.)] सीसे सीसवेठं ददेय्य, एवमेव खो मे, अग्गिवेस्सन, मुखतो च नासतो च कण्णतो च अस्सासपस्सासेसु उपरुद्धेसु अधिमत्ता सीसे सीसवेदना होन्ति. आरद्धं खो पन मे, अग्गिवेस्सन, वीरियं होति असल्लीनं उपट्ठिता सति असम्मुट्ठा. सारद्धो च पन मे कायो होति अप्पटिप्पस्सद्धो तेनेव दुक्खप्पधानेन पधानाभितुन्नस्स सतो. एवरूपापि खो मे, अग्गिवेस्सन, उप्पन्ना दुक्खा वेदना चित्तं न परियादाय तिट्ठति.

‘‘तस्स मय्हं, अग्गिवेस्सन, एतदहोसि – ‘यंनूनाहं अप्पाणकंयेव झानं झायेय्य’न्ति. सो खो अहं, अग्गिवेस्सन, मुखतो च नासतो च कण्णतो च अस्सासपस्सासे उपरुन्धिं. तस्स मय्हं, अग्गिवेस्सन, मुखतो च नासतो च कण्णतो च अस्सासपस्सासेसु उपरुद्धेसु अधिमत्ता वाता कुच्छिं परिकन्तन्ति. सेय्यथापि, अग्गिवेस्सन, दक्खो गोघातको वा गोघातकन्तेवासी वा तिण्हेन गोविकन्तनेन कुच्छिं परिकन्तेय्य, एवमेव खो मे, अग्गिवेस्सन, मुखतो च नासतो च कण्णतो च अस्सासपस्सासेसु उपरुद्धेसु अधिमत्ता वाता कुच्छिं परिकन्तन्ति. आरद्धं खो पन मे, अग्गिवेस्सन, वीरियं होति असल्लीनं उपट्ठिता सति असम्मुट्ठा. सारद्धो च पन मे कायो होति अप्पटिप्पस्सद्धो तेनेव दुक्खप्पधानेन पधानाभितुन्नस्स सतो. एवरूपापि खो मे, अग्गिवेस्सन, उप्पन्ना दुक्खा वेदना चित्तं न परियादाय तिट्ठति.

‘‘तस्स मय्हं, अग्गिवेस्सन, एतदहोसि – ‘यंनूनाहं अप्पाणकंयेव झानं झायेय्य’न्ति. सो खो अहं, अग्गिवेस्सन, मुखतो च नासतो च कण्णतो च अस्सासपस्सासे उपरुन्धिं. तस्स मय्हं, अग्गिवेस्सन, मुखतो च नासतो च कण्णतो च अस्सासपस्सासेसु उपरुद्धेसु अधिमत्तो कायस्मिं डाहो होति. सेय्यथापि, अग्गिवेस्सन, द्वे बलवन्तो पुरिसा दुब्बलतरं पुरिसं नानाबाहासु गहेत्वा अङ्गारकासुया सन्तापेय्युं सम्परितापेय्युं, एवमेव खो मे, अग्गिवेस्सन, मुखतो च नासतो च कण्णतो च अस्सासपस्सासेसु उपरुद्धेसु अधिमत्तो कायस्मिं डाहो होति. आरद्धं खो पन मे, अग्गिवेस्सन, वीरियं होति असल्लीनं उपट्ठिता सति असम्मुट्ठा. सारद्धो च पन मे कायो होति अप्पटिप्पस्सद्धो तेनेव दुक्खप्पधानेन पधानाभितुन्नस्स सतो. एवरूपापि खो मे, अग्गिवेस्सन, उप्पन्ना दुक्खा वेदना चित्तं न परियादाय तिट्ठति. अपिस्सु मं, अग्गिवेस्सन, देवता दिस्वा एवमाहंसु – ‘कालङ्कतो समणो गौतमो’ति. एकच्चा देवता एवमाहंसु – ‘न कालङ्कतो समणो गौतमो, अपि च कालङ्करोती’ति. एकच्चा देवता एवमाहंसु – ‘न कालङ्कतो समणो गौतमो, नपि कालङ्करोति, अरहं समणो गौतमो, विहारोत्वेव सो [विहारोत्वेवेसो (सी.)] अरहतो एवरूपो होती’ति [विहारोत्वेवेसो अरहतो’’ति (?)].

३७९. ‘‘तस्स मय्हं, अग्गिवेस्सन, एतदहोसि – ‘यंनूनाहं सब्बसो आहारुपच्छेदाय पटिपज्जेय्य’न्ति. अथ खो मं, अग्गिवेस्सन, देवता उपसङ्कमित्वा एतदवोचुं – ‘मा खो त्वं, मारिस, सब्बसो आहारुपच्छेदाय पटिपज्जि. सचे खो त्वं, मारिस, सब्बसो आहारुपच्छेदाय पटिपज्जिस्ससि, तस्स ते मयं दिब्बं ओजं लोमकूपेहि अज्झोहारेस्साम [अज्झोहरिस्साम (स्या. कं. पी. क.)], ताय त्वं यापेस्ससी’ति. तस्स मय्हं, अग्गिवेस्सन, एतदहोसि – ‘अहञ्चेव खो पन सब्बसो अजज्जितं [अजद्धुकं (सी. पी.), जद्धुकं (स्या. कं.)] पटिजानेय्यं, इमा च मे देवता दिब्बं ओजं लोमकूपेहि अज्झोहारेय्युं [अज्झोहरेय्युं (स्या. कं. पी. क.)], ताय चाहं यापेय्यं, तं ममस्स मुसा’ति. सो खो अहं, अग्गिवेस्सन, ता देवता पच्चाचिक्खामि, ‘हल’न्ति वदामि.

३८०. ‘‘तस्स मय्हं, अग्गिवेस्सन, एतदहोसि – ‘यंनूनाहं थोकं थोकं आहारं आहारेय्यं, पसतं पसतं, यदि वा मुग्गयूसं, यदि वा कुलत्थयूसं, यदि वा कळाययूसं, यदि वा हरेणुकयूस’न्ति. सो खो अहं, अग्गिवेस्सन, थोकं थोकं आहारं आहारेसिं, पसतं पसतं, यदि वा मुग्गयूसं, यदि वा कुलत्थयूसं, यदि वा कळाययूसं, यदि वा हरेणुकयूसं. तस्स मय्हं, अग्गिवेस्सन, थोकं थोकं आहारं आहारयतो, पसतं पसतं, यदि वा मुग्गयूसं, यदि वा कुलत्थयूसं, यदि वा कळाययूसं, यदि वा हरेणुकयूसं, अधिमत्तकसिमानं पत्तो कायो होति. सेय्यथापि नाम आसीतिकपब्बानि वा काळपब्बानि वा, एवमेवस्सु मे अङ्गपच्चङ्गानि भवन्ति तायेवप्पाहारताय. सेय्यथापि नाम ओट्ठपदं, एवमेवस्सु मे आनिसदं होति तायेवप्पाहारताय. सेय्यथापि नाम वट्टनावळी, एवमेवस्सु मे पिट्ठिकण्टको उण्णतावनतो होति तायेवप्पाहारताय. सेय्यथापि नाम जरसालाय गोपाणसियो ओलुग्गविलुग्गा भवन्ति, एवमेवस्सु मे फासुळियो ओलुग्गविलुग्गा भवन्ति तायेवप्पाहारताय. सेय्यथापि नाम गम्भीरे उदपाने उदकतारका गम्भीरगता ओक्खायिका दिस्सन्ति, एवमेवस्सु मे अक्खिकूपेसु अक्खितारका गम्भीरगता ओक्खायिका दिस्सन्ति तायेवप्पाहारताय. सेय्यथापि नाम तित्तकालाबु आमकच्छिन्नो वातातपेन संफुटितो होति सम्मिलातो, एवमेवस्सु मे सीसच्छवि संफुटिता होति सम्मिलाता तायेवप्पाहारताय.

‘‘सो खो अहं, अग्गिवेस्सन, उदरच्छविं परिमसिस्सामीति पिट्ठिकण्टकंयेव परिग्गण्हामि, पिट्ठिकण्टकं परिमसिस्सामीति उदरच्छविंयेव परिग्गण्हामि, यावस्सु मे, अग्गिवेस्सन, उदरच्छवि पिट्ठिकण्टकं अल्लीना होति तायेवप्पाहारताय. सो खो अहं, अग्गिवेस्सन, वच्चं वा मुत्तं वा करिस्सामीति तत्थेव अवकुज्जो पपतामि तायेवप्पाहारताय. सो खो अहं, अग्गिवेस्सन, इममेव कायं अस्सासेन्तो पाणिना गत्तानि अनुमज्जामि. तस्स मय्हं, अग्गिवेस्सन, पाणिना गत्तानि अनुमज्जतो पूतिमूलानि लोमानि कायस्मा पपतन्ति तायेवप्पाहारताय. अपिस्सु मं, अग्गिवेस्सन, मनुस्सा दिस्वा एवमाहंसु – ‘काळो समणो गौतमो’ति. एकच्चे मनुस्सा एवमाहंसु – ‘न काळो समणो गौतमो, सामो समणो गौतमो’ति. एकच्चे मनुस्सा एवमाहंसु – ‘न काळो समणो गौतमो , नपि सामो, मङ्गुरच्छवि समणो गौतमो’ति. यावस्सु मे, अग्गिवेस्सन, ताव परिसुद्धो छविवण्णो परियोदातो उपहतो होति तायेवप्पाहारताय.

३८१. ‘‘तस्स मय्हं, अग्गिवेस्सन, एतदहोसि – ‘ये खो केचि अतीतमद्धानं समणा वा ब्राह्मणा वा ओपक्कमिका दुक्खा तिब्बा खरा कटुका वेदना वेदयिंसु, एतावपरमं, नयितो भिय्यो. येपि हि केचि अनागतमद्धानं समणा वा ब्राह्मणा वा ओपक्कमिका दुक्खा तिब्बा खरा कटुका वेदना वेदयिस्सन्ति, एतावपरमं, नयितो भिय्यो. येपि हि केचि एतरहि समणा वा ब्राह्मणा वा ओपक्कमिका दुक्खा तिब्बा खरा कटुका वेदना वेदयन्ति, एतावपरमं, नयितो भिय्यो. न खो पनाहं इमाय कटुकाय दुक्करकारिकाय अधिगच्छामि उत्तरि मनुस्सधम्मा अलमरियञाणदस्सनविसेसं. सिया नु खो अञ्ञो मग्गो बोधाया’ति? तस्स मय्हं, अग्गिवेस्सन, एतदहोसि – ‘अभिजानामि खो पनाहं पितु सक्कस्स कम्मन्ते सीताय जम्बुच्छायाय निसिन्नो विविच्चेव कामेहि विविच्च अकुसलेहि धम्मेहि सवितक्कं सविचारं विवेकजं पीतिसुखं पठमं झानं उपसम्पज्ज विहरिता. सिया नु खो एसो मग्गो बोधाया’ति? तस्स मय्हं, अग्गिवेस्सन, सतानुसारि विञ्ञाणं अहोसि – ‘एसेव मग्गो बोधाया’ति. तस्स मय्हं, अग्गिवेस्सन, एतदहोसि – ‘किं नु खो अहं तस्स सुखस्स भायामि, यं तं सुखं अञ्ञत्रेव कामेहि अञ्ञत्र अकुसलेहि धम्मेही’ति? तस्स मय्हं, अग्गिवेस्सन, एतदहोसि – ‘न खो अहं तस्स सुखस्स भायामि, यं तं सुखं अञ्ञत्रेव कामेहि अञ्ञत्र अकुसलेहि धम्मेही’ति.

३८२. ‘‘तस्स मय्हं, अग्गिवेस्सन, एतदहोसि – ‘न खो तं सुकरं सुखं अधिगन्तुं एवं अधिमत्तकसिमानं पत्तकायेन, यंनूनाहं ओळारिकं आहारं आहारेय्यं ओदनकुम्मास’न्ति. सो खो अहं, अग्गिवेस्सन, ओळारिकं आहारं आहारेसिं ओदनकुम्मासं. तेन खो पन मं, अग्गिवेस्सन, समयेन पञ्च [पञ्चवग्गिया (अञ्ञसुत्तेसु)] भिक्खू पच्चुपट्ठिता होन्ति – ‘यं खो समणो गौतमो धम्मं अधिगमिस्सति, तं नो आरोचेस्सती’ति. यतो खो अहं, अग्गिवेस्सन, ओळारिकं आहारं आहारेसिं ओदनकुम्मासं, अथ मे ते पञ्च भिक्खू निब्बिज्ज पक्कमिंसु – ‘बाहुल्लिको [बाहुलिको (सी. पी.) संघभेदसिक्खापदटीकाय समेति] समणो गौतमो, पधानविब्भन्तो, आवत्तो बाहुल्लाया’ति.

३८३. ‘‘सो खो अहं, अग्गिवेस्सन, ओळारिकं आहारं आहारेत्वा, बलं गहेत्वा, विविच्चेव कामेहि विविच्च अकुसलेहि धम्मेहि सवितक्कं सविचारं विवेकजं पीतिसुखं पठमं झानं उपसम्पज्ज विहासिं. एवरूपापि खो मे, अग्गिवेस्सन, उप्पन्ना सुखा वेदना चित्तं न परियादाय तिट्ठति. वितक्कविचारानं वूपसमा अज्झत्तं सम्पसादनं चेतसो एकोदिभावं अवितक्कं अविचारं समाधिजं पीतिसुखं दुतियं झानं उपसम्पज्ज विहासिं. एवरूपापि खो मे, अग्गिवेस्सन, उप्पन्ना सुखा वेदना चित्तं न परियादाय तिट्ठति. पीतिया च विरागा उपेक्खको च विहासिं, सतो च सम्पजानो. सुखञ्च कायेन पटिसंवेदेसिं यं तं अरिया आचिक्खन्ति – ‘उपेक्खको सतिमा सुखविहारी’ति ततियं झानं उपसम्पज्ज विहासिं. एवरूपापि खो मे, अग्गिवेस्सन, उप्पन्ना सुखा वेदना चित्तं न परियादाय तिट्ठति. सुखस्स च पहाना दुक्खस्स च पहाना, पुब्बेव सोमनस्सदोमनस्सानं अत्थङ्गमा, अदुक्खमसुखं उपेक्खासतिपारिसुद्धिं चतुत्थं झानं उपसम्पज्ज विहासिं. एवरूपापि खो मे, अग्गिवेस्सन, उप्पन्ना सुखा वेदना चित्तं न परियादाय तिट्ठति.

३८४. ‘‘सो एवं समाहिते चित्ते परिसुद्धे परियोदाते अनङ्गणे विगतूपक्किलेसे मुदुभूते कम्मनिये ठिते आनेञ्जप्पत्ते पुब्बेनिवासानुस्सतिञाणाय चित्तं अभिनिन्नामेसिं. सो अनेकविहितं पुब्बेनिवासं अनुस्सरामि , सेय्यथिदं – एकम्पि जातिं…पे… इति साकारं सउद्देसं अनेकविहितं पुब्बेनिवासं अनुस्सरामि. अयं खो मे, अग्गिवेस्सन, रत्तिया पठमे यामे पठमा विज्जा अधिगता; अविज्जा विहता, विज्जा उप्पन्ना; तमो विहतो, आलोको उप्पन्नो; यथा तं अप्पमत्तस्स आतापिनो पहितत्तस्स विहरतो. एवरूपापि खो मे, अग्गिवेस्सन, उप्पन्ना सुखा वेदना चित्तं न परियादाय तिट्ठति.

३८५. ‘‘सो एवं समाहिते चित्ते परिसुद्धे परियोदाते अनङ्गणे विगतूपक्किलेसे मुदुभूते कम्मनिये ठिते आनेञ्जप्पत्ते सत्तानं चुतूपपातञाणाय चित्तं अभिनिन्नामेसिं. सो दिब्बेन चक्खुना विसुद्धेन अतिक्कन्तमानुसकेन सत्ते पस्सामि चवमाने उपपज्जमाने हीने पणीते सुवण्णे दुब्बण्णे सुगते दुग्गते यथाकम्मूपगे सत्ते पजानामि…पे… अयं खो मे, अग्गिवेस्सन, रत्तिया मज्झिमे यामे दुतिया विज्जा अधिगता; अविज्जा विहता, विज्जा उप्पन्ना; तमो विहतो, आलोको उप्पन्नो; यथा तं अप्पमत्तस्स आतापिनो पहितत्तस्स विहरतो . एवरूपापि खो मे, अग्गिवेस्सन , उप्पन्ना सुखा वेदना चित्तं न परियादाय तिट्ठति.

३८६. ‘‘सो एवं समाहिते चित्ते परिसुद्धे परियोदाते अनङ्गणे विगतूपक्किलेसे मुदुभूते कम्मनिये ठिते आनेञ्जप्पत्ते आसवानं खयञाणाय चित्तं अभिनिन्नामेसिं. सो ‘इदं दुक्ख’न्ति यथाभूतं अब्भञ्ञासिं, ‘अयं दुक्खसमुदयो’ति यथाभूतं अब्भञ्ञासिं, ‘अयं दुक्खनिरोधो’ति यथाभूतं अब्भञ्ञासिं, ‘अयं दुक्खनिरोधगामिनी पटिपदा’ति यथाभूतं अब्भञ्ञासिं. ‘इमे आसवा’ति यथाभूतं अब्भञ्ञासिं, ‘अयं आसवसमुदयो’ति यथाभूतं अब्भञ्ञासिं, ‘अयं आसवनिरोधो’ति यथाभूतं अब्भञ्ञासिं, ‘अयं आसवनिरोधगामिनी पटिपदा’ति यथाभूतं अब्भञ्ञासिं. तस्स मे एवं जानतो एवं पस्सतो कामासवापि चित्तं विमुच्चित्थ, भवासवापि चित्तं विमुच्चित्थ, अविज्जासवापि चित्तं विमुच्चित्थ. विमुत्तस्मिं विमुत्तमिति ञाणं अहोसि. ‘खीणा जाति, वुसितं ब्रह्मचरियं, कतं करणीयं, नापरं इत्थत्ताया’ति अब्भञ्ञासिं. अयं खो मे, अग्गिवेस्सन, रत्तिया पच्छिमे यामे ततिया विज्जा अधिगता; अविज्जा विहता, विज्जा उप्पन्ना; तमो विहतो, आलोको उप्पन्नो; यथा तं अप्पमत्तस्स आतापिनो पहितत्तस्स विहरतो. एवरूपापि खो मे, अग्गिवेस्सन, उप्पन्ना सुखा वेदना चित्तं न परियादाय तिट्ठति.

३८७. ‘‘अभिजानामि खो पनाहं, अग्गिवेस्सन, अनेकसताय परिसाय धम्मं देसेता. अपिस्सु मं एकमेको एवं मञ्ञति – ‘ममेवारब्भ समणो गौतमो धम्मं देसेती’ति. ‘न खो पनेतं, अग्गिवेस्सन, एवं दट्ठब्बं; यावदेव विञ्ञापनत्थाय तथागतो परेसं धम्मं देसेति. सो खो अहं, अग्गिवेस्सन, तस्सायेव कथाय परियोसाने, तस्मिंयेव पुरिमस्मिं समाधिनिमित्ते अज्झत्तमेव चित्तं सण्ठपेमि सन्निसादेमि एकोदिं करोमि समादहामि, येन सुदं निच्चकप्पं विहरामी’’’ति.

‘‘ओकप्पनियमेतं भोतो गौतमस्स यथा तं अरहतो सम्मासम्बुद्धस्स. अभिजानाति खो पन भवं गौतमो दिवा सुपिता’’ति? ‘‘अभिजानामहं, अग्गिवेस्सन, गिम्हानं पच्छिमे मासे पच्छाभत्तं पिण्डपातपटिक्कन्तो चतुग्गुणं सङ्घाटिं पञ्ञपेत्वा दक्खिणेन पस्सेन सतो सम्पजानो निद्दं ओक्कमिता’’ति. ‘‘एतं खो, भो गौतम, एके समणब्राह्मणा सम्मोहविहारस्मिं वदन्ती’’ति ? ‘‘न खो, अग्गिवेस्सन, एत्तावता सम्मूळ्हो वा होति असम्मूळ्हो वा. अपि च, अग्गिवेस्सन, यथा सम्मूळ्हो च होति असम्मूळ्हो च, तं सुणाहि, साधुकं मनसि करोहि, भासिस्सामी’’ति. ‘‘एवं, भो’’ति खो सच्चको निगण्ठपुत्तो भगवतो पच्चस्सोसि. भगवा एतदवोच –

३८८. ‘‘यस्स कस्सचि, अग्गिवेस्सन, ये आसवा संकिलेसिका पोनोब्भविका सदरा दुक्खविपाका आयतिं जातिजरामरणिया अप्पहीना, तमहं ‘सम्मूळ्हो’ति वदामि. आसवानञ्हि, अग्गिवेस्सन, अप्पहाना सम्मूळ्हो होति. यस्स कस्सचि, अग्गिवेस्सन, ये आसवा संकिलेसिका पोनोब्भविका सदरा दुक्खविपाका आयतिं जातिजरामरणिया पहीना, तमहं ‘असम्मूळ्हो’ति वदामि. आसवानञ्हि, अग्गिवेस्सन, पहाना असम्मूळ्हो होति.

‘‘तथागतस्स खो, अग्गिवेस्सन, ये आसवा संकिलेसिका पोनोब्भविका सदरा दुक्खविपाका आयतिं जातिजरामरणिया पहीना उच्छिन्नमूला तालावत्थुकता अनभावंकता आयतिं अनुप्पादधम्मा . सेय्यथापि, अग्गिवेस्सन, तालो मत्थकच्छिन्नो अभब्बो पुन विरूळ्हिया, एवमेव खो, अग्गिवेस्सन, तथागतस्स ये आसवा संकिलेसिका पोनोब्भविका सदरा दुक्खविपाका आयतिं जातिजरामरणिया पहीना उच्छिन्नमूला तालावत्थुकता अनभावंकता आयतिं अनुप्पादधम्मा’’ति.

३८९. एवं वुत्ते, सच्चको निगण्ठपुत्तो भगवन्तं एतदवोच – ‘‘अच्छरियं, भो गौतम, अब्भुतं, भो गौतम! यावञ्चिदं भोतो गौतमस्स एवं आसज्ज आसज्ज वुच्चमानस्स, उपनीतेहि वचनप्पथेहि समुदाचरियमानस्स, छविवण्णो चेव परियोदायति, मुखवण्णो च विप्पसीदति, यथा तं अरहतो सम्मासम्बुद्धस्स. अभिजानामहं, भो गौतम, पूरणं कस्सपं वादेन वादं समारभिता. सोपि मया वादेन वादं समारद्धो अञ्ञेनञ्ञं पटिचरि, बहिद्धा कथं अपनामेसि, कोपञ्च दोसञ्च अप्पच्चयञ्च पात्वाकासि. भोतो पन [भोतो खो पन (सी.)] गौतमस्स एवं आसज्ज आसज्ज वुच्चमानस्स, उपनीतेहि वचनप्पथेहि समुदाचरियमानस्स, छविवण्णो चेव परियोदायति, मुखवण्णो च विप्पसीदति, यथा तं अरहतो सम्मासम्बुद्धस्स. अभिजानामहं, भो गौतम, मक्खलिं गोसालं…पे… अजितं केसकम्बलं… पकुधं कच्चायनं… सञ्जयं बेलट्ठपुत्तं… निगण्ठं नाटपुत्तं वादेन वादं समारभिता . सोपि मया वादेन वादं समारद्धो अञ्ञेनञ्ञं पटिचरि, बहिद्धा कथं अपनामेसि, कोपञ्च दोसञ्च अप्पच्चयञ्च पात्वाकासि. भोतो पन गौतमस्स एवं आसज्ज आसज्ज वुच्चमानस्स, उपनीतेहि वचनप्पथेहि समुदाचरियमानस्स, छविवण्णो चेव परियोदायति, मुखवण्णो च विप्पसीदति, यथा तं अरहतो सम्मासम्बुद्धस्स. हन्द च दानि मयं, भो गौतम, गच्छाम. बहुकिच्चा मयं, बहुकरणीया’’ति. ‘‘यस्सदानि त्वं, अग्गिवेस्सन, कालं मञ्ञसी’’ति.

अथ खो सच्चको निगण्ठपुत्तो भगवतो भासितं अभिनन्दित्वा अनुमोदित्वा उट्ठायासना पक्कामीति.

महासच्चकसुत्तं निट्ठितं छट्ठं.