नमो तस्स भगवतो अरहतो सम्मा-सम्बुद्धस्स

📜 इन्द्र को होश दिलाना

✦ ॥ नमो तस्स भगवतो अरहतो सम्मासम्बुद्धस्स ॥ ✦

Hindi

ऐसा मैंने सुना — एक समय भगवान श्रावस्ती में मिगारमाता के विहार पूर्वाराम में रहते थे। तब देवराज इन्द्र सक्क भगवान के पास गया, और जाकर भगवान को अभिवादन कर एक ओर खड़ा हुआ। एक ओर खड़े होकर देवराज इन्द्र सक्क ने भगवान से कहा—

“संक्षेप में (बताएं), भंते, कैसे कोई भिक्षु तृष्णा का अन्त कर विमुक्त हो, अत्यंत परिपूर्ण, योगबंधन से अत्यंत सुरक्षित, अत्यंत ब्रह्मचारी, अत्यंत पहुँचा हुआ, देव-मानवों में सर्वश्रेष्ठ होता है?”

“देवराज इन्द्र, जब कोई भिक्षु सुनता है, ‘सभी धर्म (कोई बात) पकड़ने योग्य नहीं हैं!’ तब वे सभी स्वभावों को प्रत्यक्ष जानने लगते हैं। सभी स्वभावों को प्रत्यक्ष जानने पर सभी स्वभावों को पूरी तरह (परिज्ञा तक) समझते लगते हैं। सभी स्वभावों को पूरी तरह समझने पर जो भी अनुभूति होती हो — सुखद, दुखद, या अदुखद-असुखद, वे उन अनुभूतियों को अनित्य (की संज्ञा से) देखते हुए विहार करते हैं, विराग देखते हुए विहार करते हैं, निरोध देखते हुए विहार करते हैं, परित्याग करना देखते हुए विहार करते हैं।

जब वे उन अनुभूतियों को अनित्य देखते हुए विहार करते हैं, विराग देखते हुए विहार करते हैं, निरोध देखते हुए विहार करते हैं, परित्याग करना देखते हुए विहार करते हैं, तब वे इस दुनिया में कोई आधार नहीं लेते हैं। कोई आधार न लेकर वे व्याकुल नहीं होते हैं। व्याकुल न होकर वे भीतर से परिनिर्वृत हो जाते हैं। उन्हें पता चलता है, ‘जन्म समाप्त हुए! ब्रह्मचर्य परिपूर्ण हुआ! जो करना था, सो कर लिया! अभी यहाँ करने के लिए कुछ बचा नहीं!’

— इस तरह, देवराज इन्द्र, कोई भिक्षु तृष्णा का अन्त कर विमुक्त हो, अत्यंत परिपूर्ण, योगबंधन से अत्यंत सुरक्षित, अत्यंत ब्रह्मचारी, अत्यंत पहुँचा हुआ, देव-मानवों में सर्वश्रेष्ठ होता है।”

तब हर्षित होकर देवराज इन्द्र सक्क ने भगवान के कथन का अभिनंदन किया। और भगवान को अभिवादन कर प्रदक्षिणा करते हुए विलुप्त हो गया।

महामोग्गल्लान भंते के द्वारा पड़ताल

उस समय आयुष्मान महामोग्गल्लान भगवान से अधिक दूर नहीं बैठे थे। तब आयुष्मान महामोग्गल्लान को लगा, “क्या भगवान के कथन का अनुमोदन करने वाले उस यक्ष 1 को भगवान की बात समझ भी आयी, या नहीं? क्यों न मैं उस यक्ष के बारे में पता लगाऊँ कि उसे भगवान की बात समझ भी आयी, या नहीं।”

तब, जैसे कोई बलवान पुरुष अपनी समेटी हुई बाह को पसार दे, या पसारी हुई बाह को समेट ले, उसी तरह, आयुष्मान महामोग्गल्लान मिगारमाता के विहार पूर्वाराम से विलुप्त होकर तैतीस देवताओं के साथ प्रकट हुए।

तब उस समय देवराज इन्द्र सक्क, एक कमल-पुष्प के तालाब उद्यान में पाँच-सौ दिव्य वादक समूह (=दिव्य ऑर्केस्ट्रा) में पूरी तरह से लिप्त होकर (संगीत) सेवित हो रहा था। तब देवराज इन्द्र सक्क ने आयुष्मान महामोग्गल्लान को दूर से आते देखा। देखकर उसने पाँच-सौ दिव्य वादक समूह को बर्खास्त कर आयुष्मान महामोग्गल्लान के पास गया। जाकर आयुष्मान महामोग्गल्लान से कहा, “आईयें, मोग्गल्लान महाशय। स्वागत है मोग्गल्लान महाशय। बहुत समय के बाद मोग्गल्लान महाशय ने यहाँ आने का अवसर लिया। बैठिए, मोग्गल्लान महाशय, यहाँ आसन बिछा है।”

आयुष्मान महामोग्गल्लान बिछे आसन पर बैठ गए। तब देवराज इन्द्र सक्क ने अपना आसन नीचे लगाया, और एक ओर बैठ गया। एक ओर बैठे देवराज इन्द्र सक्क से आयुष्मान महामोग्गल्लान ने कहा, “कोसिय 2, भगवान ने संक्षिप्त में तृष्णा के अन्त से विमुक्त होना कैसे बताया? अच्छा होगा जो उस कथन को मेरे साथ भी बाँटो, ताकि मैं भी सुनूँ।”

“मोग्गल्लान महाशय, मेरे बहुत से कर्तव्य है, बहुत जिम्मेदारियाँ हैं, केवल मेरे लिए ही नहीं, बल्कि तैतीस देवताओं के लिए भी। ऊपर से जो अच्छे से सुना हो, अच्छे से धारण किया हो, अच्छे से चिंतन किया हो, अच्छे से याद रखा हो, वह भी तुरंत विलुप्त हो जाता है।

बहुत पहले, मोग्गल्लान महाशय, देवताओं और असुरों में संग्राम हुआ था। उस संग्राम में देवताओं का विजय हुआ था, असुर पराजित हुए थे। जब, मोग्गल्लान महाशय, मैं उस संग्राम से विजयी होकर लौटा, तब मैंने ‘वैजयंत’ नामक महल बनाया। मोग्गल्लान महाशय, उस वैजयंत महल में एक सौ मीनार (=शिखर) हैं। प्रत्येक मीनार पर सात-सात सौ सभागृह हैं। प्रत्येक सभागृह में सात-सात अप्सराएँ हैं। प्रत्येक अप्सरा के सात-सात सेविकाएँ हैं। क्या मोग्गल्लान महाशय को उस रमणीय वैजयंत महल को देखने की इच्छा है?” 3

आयुष्मान महामोग्गल्लान ने मौन रहकर सहमति दी।

तब, देवराज इन्द्र सक्क और महाराज वेस्सवण 4 ने आयुष्मान महामोग्गल्लान को आगे रखते हुए, वैजयंत महल के पास गए। तब देवराज इंद्र की सेविकाओं ने आयुष्मान महामोग्गल्लान को दूर से आते हुए देखा। देखकर वे शर्मिंदा होकर, लज्जित होकर अपने अपने कमरे में चली गयी।

जैसे कोई बहू अपने ससुर को देखकर शर्मिंदा होती है, लज्जित होती है, उसी तरह, देवराज इंद्र की सेविकाएँ भी आयुष्मान महामोग्गल्लान को देखकर शर्मिंदा हुई, लज्जित हुई, और अपने अपने कमरे में चली गयी। तब देवराज इन्द्र सक्क और महाराज वेस्सवण ने आयुष्मान महामोग्गल्लान को आगे बढ़कर घूमने और टहलने के लिए कहा, “यह देखिए, मोग्गल्लान महाशय, वैजयंत महल कितना रमणीय है! वह देखिए, मोग्गल्लान महाशय, वैजयंत महल कितना रमणीय है!”

“यह आयुष्मान कोसिय को शोभित होता है, जैसे उनके पूर्व किए कर्म हैं। मनुष्य जब भी कुछ रमणीय देखते हैं, तो उन्हें लगता है, ‘यह तैतीस देवताओं को शोभित होता है।’ यह आयुष्मान कोसिय को शोभित होता है, जैसे उनके पूर्व किए कर्म हैं।”

तब आयुष्मान महामोग्गल्लान को लगा, “यह यक्ष बहुत ही मदहोश (=प्रमत्त) होकर रहता है। क्यों न मैं इस यक्ष में संवेग जगाऊँ?”

तब आयुष्मान महामोग्गल्लान ने ऐसे ऋद्धिबल की रचना की, जिससे वैजयंत महल उनके पैर के अंगूठे से हिलने, कपकपाने और थरथराने लगा। तब देवराज इन्द्र सक्क, महाराज वेस्सवण, और तैतीस देवतागण का चकित हुए, हैरान हुए, “आश्चर्य है, श्रीमान! अद्भुत है, श्रीमान, श्रमण की महाऋद्धि और महाशक्ति! वे दिव्य-भवन को पैर के अंगूठे से हिलाते हैं, कपकपाते हैं, थरथराते हैं।”

तब, आयुष्मान महामोग्गल्लान ने देवराज इन्द्र सक्क को संवेग जागे हुए, रोंगटे खड़े हुए जान कर देवराज इन्द्र सक्क से कहा, “कोसिय, भगवान ने संक्षिप्त में तृष्णा के अन्त से विमुक्त होना कैसे बताया? अच्छा होगा जो उस कथन को मेरे साथ भी बाँटो, ताकि मैं भी सुनूँ।”

“मोग्गल्लान महाशय, मैं भगवान के पास गया, और जाकर भगवान को अभिवादन कर एक ओर खड़ा हुआ। एक ओर खड़े होकर मैंने भगवान से कहा, ‘संक्षेप में, भंते, कैसे कोई भिक्षु तृष्णा का अन्त कर विमुक्त हो, अत्यंत परिपूर्ण, योगबंधन से अत्यंत सुरक्षित, अत्यंत ब्रह्मचारी, अत्यंत पहुँचा हुआ, देव-मानवों में सर्वश्रेष्ठ होता है?’

जब ऐसा कहा गया, मोग्गल्लान महाशय, तब भगवान ने कहा, ‘देवराज इन्द्र, जब कोई भिक्षु सुनता है, ‘सभी धर्म पकड़ने योग्य नहीं हैं!’ तब वे सभी स्वभावों को प्रत्यक्ष जानने लगते हैं। सभी स्वभावों को प्रत्यक्ष जानने पर सभी स्वभावों को परिज्ञा तक समझते लगते हैं। सभी स्वभावों को पूरी तरह समझने पर जो भी अनुभूति होती हो — सुखद, दुखद, या अदुखद-असुखद, वे उन अनुभूतियों को अनित्य देखते हुए विहार करते हैं, विराग देखते हुए विहार करते हैं, निरोध देखते हुए विहार करते हैं, परित्याग करना देखते हुए विहार करते हैं।

जब वे उन अनुभूतियों को अनित्य देखते हुए विहार करते हैं, विराग देखते हुए विहार करते हैं, निरोध देखते हुए विहार करते हैं, परित्याग करना देखते हुए विहार करते हैं, तब वे इस दुनिया में कोई आधार नहीं लेते हैं। कोई आधार न लेकर वे व्याकुल नहीं होते हैं। व्याकुल न होकर वे भीतर से परिनिर्वृत हो जाते हैं। उन्हें पता चलता है, ‘जन्म समाप्त हुए! ब्रह्मचर्य परिपूर्ण हुआ! जो करना था, सो कर लिया! अभी यहाँ करने के लिए कुछ बचा नहीं!’

इस तरह, देवराज इन्द्र, कोई भिक्षु तृष्णा का अन्त कर विमुक्त हो, अत्यंत परिपूर्ण, योगबंधन से अत्यंत सुरक्षित, अत्यंत ब्रह्मचारी, अत्यंत पहुँचा हुआ, देव-मानवों में सर्वश्रेष्ठ होता है।’

इस तरह, मोग्गल्लान महाशय, भगवान ने संक्षिप्त में तृष्णा के अन्त से विमुक्त होना बताया।”

हर्षित होकर आयुष्मान महामोग्गल्लान ने देवराज इन्द्र सक्क के कथन का अभिनंदन किया, और, जैसे कोई बलवान पुरुष अपनी समेटी हुई बाह को पसार दे, या पसारी हुई बाह को समेट ले, उसी तरह, आयुष्मान महामोग्गल्लान तैतीस देवताओं के साथ से विलुप्त होकर मिगारमाता के विहार पूर्वाराम में प्रकट हुए।

आयुष्मान महामोग्गल्लान को जाकर अधिक समय नहीं हुआ, तब देवराज इन्द्र सक्क की सेविकाओं ने देवराज इन्द्र सक्क से कहा, “क्या वे महाशय भगवान थे, शास्ता थे?”

“नहीं, वे महाशय भगवान नहीं थे, शास्ता नहीं थे। वे मेरे सब्रह्मचारी आयुष्मान महामोग्गल्लान थे।” 5

“आप भाग्यशाली है, महाशय, आप सौभाग्यशाली है, जो आपके सब्रह्मचारी इतने ऋद्धिमानी है, इतने शक्तिशाली है। तब वे भगवान, शास्ता कैसे होंगे?”

तब आयुष्मान महामोग्गल्लान भगवान के पास गए, और जाकर भगवान को अभिवादन कर एक ओर बैठ गए। एक ओर बैठकर आयुष्मान महामोग्गल्लान ने भगवान से कहा, “भंते, क्या भगवान को किसी जाने-माने, बहुत प्रभावशाली यक्ष को संक्षिप्त में तृष्णा के अन्त से विमुक्त होना बताना याद है?” 6

“मुझे याद है, मोग्गल्लान, देवराज इन्द्र सक्क मेरे पास आया था, और आकर मुझे अभिवादन कर एक ओर खड़ा हुआ। एक ओर खड़े होकर देवराज इन्द्र सक्क ने मुझसे कहा, ‘संक्षेप में, भंते, कैसे कोई भिक्षु तृष्णा का अन्त कर विमुक्त हो, अत्यंत परिपूर्ण, योगबंधन से अत्यंत सुरक्षित, अत्यंत ब्रह्मचारी, अत्यंत पहुँचा हुआ, देव-मानवों में सर्वश्रेष्ठ होता है?’

ऐसा कहे जाने पर, मोग्गल्लान, मैंने देवराज इन्द्र सक्क से कहा, ‘देवराज इन्द्र, जब कोई भिक्षु सुनता है, ‘सभी धर्म पकड़ने योग्य नहीं हैं!’ तब वे सभी स्वभावों को प्रत्यक्ष जानने लगते हैं। सभी स्वभावों को प्रत्यक्ष जानने पर सभी स्वभावों को पूरी तरह समझते लगते हैं। सभी स्वभावों को पूरी तरह समझने पर जो भी अनुभूति होती हो — सुखद, दुखद, या अदुखद-असुखद, वे उन अनुभूतियों को अनित्य देखते हुए विहार करते हैं, विराग देखते हुए विहार करते हैं, निरोध देखते हुए विहार करते हैं, परित्याग करना देखते हुए विहार करते हैं।

जब वे उन अनुभूतियों को अनित्य देखते हुए विहार करते हैं, विराग देखते हुए विहार करते हैं, निरोध देखते हुए विहार करते हैं, परित्याग करना देखते हुए विहार करते हैं, तब वे इस दुनिया में कोई आधार नहीं लेते हैं। कोई आधार न लेकर वे व्याकुल नहीं होते हैं। व्याकुल न होकर वे भीतर से परिनिर्वृत हो जाते हैं। उन्हें पता चलता है, ‘जन्म समाप्त हुए! ब्रह्मचर्य परिपूर्ण हुआ! जो करना था, सो कर लिया! अभी यहाँ करने के लिए कुछ बचा नहीं!’

इस तरह, देवराज इन्द्र, कोई भिक्षु तृष्णा का अन्त कर विमुक्त हो, अत्यंत परिपूर्ण, योगबंधन से अत्यंत सुरक्षित, अत्यंत ब्रह्मचारी, अत्यंत पहुँचा हुआ, देव-मानवों में सर्वश्रेष्ठ होता है।’

— इस तरह, मोग्गल्लान, मुझे देवराज इन्द्र सक्क को संक्षिप्त में तृष्णा के अन्त से विमुक्त होना बताना याद है।”

भगवान ने ऐसा कहा। हर्षित होकर आयुष्मान महामोग्गल्लान ने भगवान के कथन का अभिनंदन किया।

सुत्र समाप्त।


  1. यहाँ ध्यान देने योग्य है कि भंते, प्रायः देवराज इन्द्र को भी मोटे तौर पर “यक्ष” कहकर संबोधित करते हैं। वास्तव में अनेक सुत्तों में उनका उल्लेख यक्ष रूप में ही मिलता है। इसी तरह कई स्थानों पर “मार” को भी यक्ष कहा गया है। हालांकि यक्ष अपने आप में एक अलग प्रजाति का सत्व होता है। उसके बारे में जानने के लिए हमारी शब्दावली पढ़ें। ↩︎

  2. “कोसिय” देवराज इन्द्र का वंशनाम है, जिसे संस्कृत में “कौशिक” कहा जाता है। ध्यान देने योग्य बात यह है कि स्वयं बुद्ध प्रायः इन्द्र को “देवानमिन्द” या “देवराज इन्द्र” कहकर संबोधित करते हैं, जबकि महामोग्गल्लान भंते उन्हें उनके वंशनाम से पुकारते हैं, मानो कोई पुराना परिचय हो। हालांकि ऐसा कोई उल्लेख किसी भी साहित्य में नहीं मिलता।

    इन्द्र के अनेक उपनाम प्रचलित हैं—जैसे सक्क (या सक्षम), मागव/माघव, वासव, पुरिंदद, सुजापति (उनकी असुर-पत्नी सुजा के कारण) इत्यादि। अट्ठकथा की व्याख्या के अनुसार, कोसिय का अर्थ “उल्लू” है। किंतु उल्लू की छवि प्राचीन काल से ही अधिकतर नकारात्मक रही है—मूर्खता, अंधकार, अहंकार, अविद्या, अशुभ और अपशकुन से उसका संबंध जोड़ा गया। केवल एक अपवाद भारतीय परंपरा में मिलता है, जहाँ उल्लू को लक्ष्मी का वाहन माना गया। इसके अतिरिक्त लगभग सभी संस्कृतियों में उल्लू का प्रतीकात्मक अर्थ अनिष्टकारी ही रहा है। इसलिए ऐसा प्रतीत होता है कि यहाँ अट्ठकथा की व्युत्पत्तिमूलक व्याख्या वास्तविकता से पूरी तरह चूक जाती है। ↩︎

  3. यहाँ यह स्पष्ट दिखाई देता है कि देवराज इन्द्र वार्तालाप में कभी टालमटोल करते हैं, कभी मूडीपन दिखाते हैं, और मोग्गल्लान भंते का ध्यान भटकाने की भी चेष्टा करते हैं। उनका आचरण कुछ ऐसा प्रतीत होता है, मानो वे किसी औपचारिक देवराज के बजाय किसी पुराने मित्र की भाँति व्यवहार कर रहे हों। ↩︎

  4. महाराज वेस्सवण यक्षों के अधिपति हैं, जिन्हें “कुबेर” भी कहा जाता है। वे चातुमहाराजिका देवा, अर्थात चार महाराज देवताओं में से एक हैं। अट्ठकथा बताती है कि वे पहले एक मानव थे, जिनका नाम कुबेर था। वे महान दानी और उदार व्यक्ति थे। अपने सत्कर्मों के फलस्वरूप वे मृत्यु के बाद यक्षराज वेस्सवण बने और उत्तर दिशा के अधिपति ठहराए गए। यही कारण है कि उन्हें कभी–कभी “महापुरिस” या महापुरुष भी कहा गया है।

    कहा जाता है कि महाराज वेस्सवण प्रायः देवराज इन्द्र से संवाद और बैठक करते रहते हैं। कई सुत्तों में उल्लेख है कि वे समय-समय पर स्वयं बुद्ध से भी मिलने आते थे, और कभी–कभी यक्षों को बुद्धोपदेश सुनने के लिए साथ लाते थे। उदाहरण के लिए, आटानाटिय सुत्त में वेस्सवण अपने सह-महाराजाओं के साथ बुद्ध के सम्मुख प्रकट होते हैं और उन्हें आटानाटिय सूत्र प्रदान करते हैं, जो बाद में साधकों के लिए एक महत्वपूर्ण रक्षा परित्राण बन गया। ↩︎

  5. सब्रह्मचारी, सामान्यतः एक भिक्षु अपने साथी भिक्षु को संबोधित करता है, जब दोनों एक सा ब्रह्मचर्य पालन कर रहे हो। लेकिन यहाँ देवराज इन्द्र, जो श्रोतापति फल प्राप्त था (दीघनिकाय २१ पढ़ें), एक अरहंत भिक्षु को अपना “सब्रह्मचारी” कहता है। पहली दृष्टि में यह अतिशयोक्ति-पूर्ण प्रतीत होता है, क्योंकि स्वयं इन्द्र तो कामभोगों में लिप्त होकर मदहोश जीवन बिताता है। किन्तु संभवतः इसीलिए कि महामोग्गल्लान भंते उसे किसी सच्चे मित्र की भाँति होश दिलाते हैं, देवराज इन्द्र आत्मीयता से उन्हें “सब्रह्मचारी” के रूप में संदर्भित करता है। और निजी तौर पर मुझे प्रतीत होता है कि दोनों के बीच पहले से किसी प्रकार की जान-पहचान अवश्य रही होगी। (ऊपरी फूटनोट्स २ और ३ पढ़ें।) ↩︎

  6. किसी को यह अपेक्षा हो सकती है कि महामोग्गल्लान भंते जाकर भगवान को तैतीस देवलोक में वैजयन्त महल हिलाने का प्रसंग सुनाएँ। परंतु यहाँ यह स्पष्ट नहीं होता कि उस प्रसंग को कहने के बजाय उन्होंने भगवान से वही बात दोबारा क्यों पूछी, जबकि वे पास ही बैठे थे और सब कुछ सुन भी चुके थे। इस तरह, भगवान के द्वारा संक्षेप में बताए धर्म उपदेश को इस सूत्र में दो बार फिर से दोहराया गया है। ↩︎

Pali

३९०. एवं मे सुतं – एकं समयं भगवा सावत्थियं विहरति पुब्बारामे मिगारमातुपासादे. अथ खो सक्को देवानमिन्दो येन भगवा तेनुपसङ्कमि; उपसङ्कमित्वा भगवन्तं अभिवादेत्वा एकमन्तं अट्ठासि. एकमन्तं ठितो खो सक्को देवानमिन्दो भगवन्तं एतदवोच – ‘‘कित्तावता नु खो, भन्ते, भिक्खु संखित्तेन तण्हासङ्खयविमुत्तो होति अच्चन्तनिट्ठो अच्चन्तयोगक्खेमी अच्चन्तब्रह्मचारी अच्चन्तपरियोसानो सेट्ठो देवमनुस्सान’’न्ति?

‘‘इध, देवानमिन्द, भिक्खुनो सुतं होति – ‘सब्बे धम्मा नालं अभिनिवेसाया’ति. एवञ्चेतं, देवानमिन्द, भिक्खुनो सुतं होति – ‘सब्बे धम्मा नालं अभिनिवेसाया’ति. सो सब्बं धम्मं अभिजानाति; सब्बं धम्मं अभिञ्ञाय सब्बं धम्मं परिजानाति; सब्बं धम्मं परिञ्ञाय यं किञ्चि वेदनं वेदेति – सुखं वा दुक्खं वा अदुक्खमसुखं वा, सो तासु वेदनासु अनिच्चानुपस्सी विहरति, विरागानुपस्सी विहरति, निरोधानुपस्सी विहरति, पटिनिस्सग्गानुपस्सी विहरति. सो तासु वेदनासु अनिच्चानुपस्सी विहरन्तो, विरागानुपस्सी विहरन्तो, निरोधानुपस्सी विहरन्तो, पटिनिस्सग्गानुपस्सी विहरन्तो न किञ्चि लोके उपादियति. अनुपादियं न परितस्सति, अपरितस्सं पच्चत्तञ्ञेव परिनिब्बायति – ‘खीणा जाति, वुसितं ब्रह्मचरियं, कतं करणीयं, नापरं इत्थत्ताया’ति पजानाति. एत्तावता खो, देवानमिन्द, भिक्खु संखित्तेन तण्हासङ्खयविमुत्तो होति अच्चन्तनिट्ठो अच्चन्तयोगक्खेमी अच्चन्तब्रह्मचारी अच्चन्तपरियोसानो सेट्ठो देवमनुस्सान’’न्ति.

अथ खो सक्को देवानमिन्दो भगवतो भासितं अभिनन्दित्वा अनुमोदित्वा भगवन्तं अभिवादेत्वा पदक्खिणं कत्वा तत्थेवन्तरधायि.

३९१. तेन खो पन समयेन आयस्मा महामोग्गल्लानो भगवतो अविदूरे निसिन्नो होति. अथ खो आयस्मतो महामोग्गल्लानस्स एतदहोसि – ‘‘किं नु खो सो यक्खो भगवतो भासितं अभिसमेच्च अनुमोदि उदाहु नो; यंनूनाहं तं यक्खं जानेय्यं – यदि वा सो यक्खो भगवतो भासितं अभिसमेच्च अनुमोदि यदि वा नो’’ति? अथ खो आयस्मा महामोग्गल्लानो – सेय्यथापि नाम बलवा पुरिसो समिञ्जितं वा बाहं पसारेय्य, पसारितं वा बाहं समिञ्जेय्य, एवमेव – पुब्बारामे मिगारमातुपासादे अन्तरहितो देवेसु तावतिंसेसु पातुरहोसि. तेन खो पन समयेन सक्को देवानमिन्दो एकपुण्डरीके उय्याने दिब्बेहि पञ्चहि तूरियसतेहि [तुरियसतेहि (सी. स्या. कं. पी.)] समप्पितो समङ्गीभूतो परिचारेति. अद्दसा खो सक्को देवानमिन्दो आयस्मन्तं महामोग्गल्लानं दूरतोव आगच्छन्तं. दिस्वान तानि दिब्बानि पञ्च तूरियसतानि पटिप्पणामेत्वा येनायस्मा महामोग्गल्लानो तेनुपसङ्कमि; उपसङ्कमित्वा आयस्मन्तं महामोग्गल्लानं एतदवोच – ‘‘एहि खो, मारिस मोग्गल्लान, स्वागतं, मारिस मोग्गल्लान! चिरस्सं खो, मारिस मोग्गल्लान, इमं परियायं अकासि यदिदं इधागमनाय. निसीद, मारिस मोग्गल्लान, इदमासनं पञ्ञत्त’’न्ति. निसीदि खो आयस्मा महामोग्गल्लानो पञ्ञत्ते आसने. सक्कोपि खो देवानमिन्दो अञ्ञतरं नीचं आसनं गहेत्वा एकमन्तं निसीदि. एकमन्तं निसिन्नं खो सक्कं देवानमिन्दं आयस्मा महामोग्गल्लानो एतदवोच – ‘‘यथा कथं पन खो, कोसिय, भगवा संखित्तेन तण्हासङ्खयविमुत्तिं अभासि? साधु मयम्पि एतिस्सा कथाय भागिनो अस्साम सवनाया’’ति.

३९२. ‘‘मयं खो, मारिस मोग्गल्लान, बहुकिच्चा बहुकरणीया – अप्पेव सकेन करणीयेन, अपि च देवानंयेव तावतिंसानं करणीयेन. अपि च, मारिस मोग्गल्लान, सुस्सुतंयेव होति सुग्गहितं सुमनसिकतं सूपधारितं, यं नो खिप्पमेव अन्तरधायति. भूतपुब्बं, मारिस मोग्गल्लान, देवासुरसङ्गामो समुपब्यूळ्हो [समूपब्युळ्हो (स्या. कं.), समूपब्बूळ्हो (सी.)] अहोसि. तस्मिं खो पन, मारिस मोग्गल्लान, सङ्गामे देवा जिनिंसु, असुरा पराजिनिंसु. सो खो अहं, मारिस मोग्गल्लान, तं सङ्गामं अभिविजिनित्वा विजितसङ्गामो ततो पटिनिवत्तित्वा वेजयन्तं नाम पासादं मापेसिं. वेजयन्तस्स खो, मारिस मोग्गल्लान, पासादस्स एकसतं निय्यूहं. एकेकस्मिं निय्यूहे सत्त सत्त कूटागारसतानि. एकमेकस्मिं कूटागारे सत्त सत्त अच्छरायो . एकमेकिस्सा अच्छराय सत्त सत्त परिचारिकायो. इच्छेय्यासि नो त्वं , मारिस मोग्गल्लान, वेजयन्तस्स पासादस्स रामणेय्यकं दट्ठु’’न्ति? अधिवासेसि खो आयस्मा महामोग्गल्लानो तुण्हीभावेन.

३९३. अथ खो सक्को च देवानमिन्दो वेस्सवणो च महाराजा आयस्मन्तं महामोग्गल्लानं पुरक्खत्वा येन वेजयन्तो पासादो तेनुपसङ्कमिंसु. अद्दसंसु खो सक्कस्स देवानमिन्दस्स परिचारिकायो आयस्मन्तं महामोग्गल्लानं दूरतोव आगच्छन्तं; दिस्वा ओत्तप्पमाना हिरीयमाना सकं सकं ओवरकं पविसिंसु. सेय्यथापि नाम सुणिसा ससुरं दिस्वा ओत्तप्पति हिरीयति, एवमेव सक्कस्स देवानमिन्दस्स परिचारिकायो आयस्मन्तं महामोग्गल्लानं दिस्वा ओत्तप्पमाना हिरीयमाना सकं सकं ओवरकं पविसिंसु. अथ खो सक्को च देवानमिन्दो वेस्सवणो च महाराजा आयस्मन्तं महामोग्गल्लानं वेजयन्ते पासादे अनुचङ्कमापेन्ति अनुविचरापेन्ति – ‘‘इदम्पि, मारिस मोग्गल्लान, पस्स वेजयन्तस्स पासादस्स रामणेय्यकं; इदम्पि, मारिस मोग्गल्लान, पस्स वेजयन्तस्स पासादस्स रामणेय्यक’’न्ति. ‘‘सोभति इदं आयस्मतो कोसियस्स, यथा तं पुब्बे कतपुञ्ञस्स. मनुस्सापि किञ्चिदेव रामणेय्यकं दिस्वा [दिट्ठा (सी. पी. क.)] एवमाहंसु – ‘सोभति वत भो यथा देवानं तावतिंसान’न्ति. तयिदं आयस्मतो कोसियस्स सोभति, यथा तं पुब्बे कतपुञ्ञस्सा’’ति. अथ खो आयस्मतो महामोग्गल्लानस्स एतदहोसि – ‘‘अतिबाळ्हं खो अयं यक्खो पमत्तो विहरति. यंनूनाहं इमं यक्खं संवेजेय्य’’न्ति. अथ खो आयस्मा महामोग्गल्लानो तथारूपं इद्धाभिसङ्खारं अभिसङ्खासि [अभिसङ्खारेसि (क.), अभिसङ्खारेति (स्या. कं.)] यथा वेजयन्तं पासादं पादङ्गुट्ठकेन सङ्कम्पेसि सम्पकम्पेसि सम्पवेधेसि . अथ खो सक्को च देवानमिन्दो, वेस्सवणो च महाराजा, देवा च तावतिंसा अच्छरियब्भुतचित्तजाता अहेसुं – ‘‘अच्छरियं वत, भो, अब्भुतं वत, भो, समणस्स महिद्धिकता महानुभावता, यत्र हि नाम दिब्बभवनं पादङ्गुट्ठकेन सङ्कम्पेस्सति सम्पकम्पेस्सति सम्पवेधेस्सती’’ति! अथ खो आयस्मा महामोग्गल्लानो सक्कं देवानमिन्दं संविग्गं लोमहट्ठजातं विदित्वा सक्कं देवानमिन्दं एतदवोच – ‘‘यथा कथं पन खो, कोसिय, भगवा संखित्तेन तण्हासङ्खयविमुत्तिं अभासि? साधु मयम्पि एतिस्सा कथाय भागिनो अस्साम सवनाया’’ति.

३९४. ‘‘इधाहं , मारिस मोग्गल्लान, येन भगवा तेनुपसङ्कमिं; उपसङ्कमित्वा भगवन्तं अभिवादेत्वा एकमन्तं अट्ठासिं. एकमन्तं ठितो खो अहं, मारिस मोग्गल्लान, भगवन्तं एतदवोचं – ‘कित्तावता नु खो, भन्ते, भिक्खु संखित्तेन तण्हासङ्खयविमुत्तो होति अच्चन्तनिट्ठो अच्चन्तयोगक्खेमी अच्चन्तब्रह्मचारी अच्चन्तपरियोसानो सेट्ठो देवमनुस्सान’’’न्ति?

‘‘एवं वुत्ते, मारिस मोग्गल्लान, भगवा मं एतदवोच – ‘इध, देवानमिन्द, भिक्खुनो सुतं होति – सब्बे धम्मा नालं अभिनिवेसाया’ति. एवं चेतं देवानमिन्द भिक्खुनो सुतं होति ‘सब्बे धम्मा नालं अभिनिवेसाया’ति. सो सब्बं धम्मं अभिजानाति, सब्बं धम्मं अभिञ्ञाय सब्बं धम्मं परिजानाति, सब्बं धम्मं परिञ्ञाय यं किञ्चि वेदनं वेदेति सुखं वा दुक्खं वा अदुक्खमसुखं वा. सो तासु वेदनासु अनिच्चानुपस्सी विहरति, विरागानुपस्सी विहरति, निरोधानुपस्सी विहरति, पटिनिस्सग्गानुपस्सी विहरति. सो तासु वेदनासु अनिच्चानुपस्सी विहरन्तो, विरागानुपस्सी विहरन्तो, निरोधानुपस्सी विहरन्तो, पटिनिस्सग्गानुपस्सी विहरन्तो न किञ्चि लोके उपादियति, अनुपादियं न परितस्सति, अपरितस्सं पच्चत्तञ्ञेव परिनिब्बायति – ‘खीणा जाति, वुसितं ब्रह्मचरियं, कतं करणीयं, नापरं इत्थत्ताया’ति पजानाति. एत्तावता खो, देवानमिन्द, भिक्खु संखित्तेन तण्हासङ्खयविमुत्तो होति अच्चन्तनिट्ठो अच्चन्तयोगक्खेमी अच्चन्तब्रह्मचारी अच्चन्तपरियोसानो सेट्ठो देवमनुस्सानन्ति. एवं खो मे, मारिस मोग्गल्लान, भगवा संखित्तेन तण्हासङ्खयविमुत्तिं अभासी’’ति.

अथ खो आयस्मा महामोग्गल्लानो सक्कस्स देवानमिन्दस्स भासितं अभिनन्दित्वा अनुमोदित्वा – सेय्यथापि नाम बलवा पुरिसो समिञ्जितं वा बाहं पसारेय्य, पसारितं वा बाहं समिञ्जेय्य एवमेव – देवेसु तावतिंसेसु अन्तरहितो पुब्बारामे मिगारमातुपासादे पातुरहोसि. अथ खो सक्कस्स देवानमिन्दस्स परिचारिकायो अचिरपक्कन्ते आयस्मन्ते महामोग्गल्लाने सक्कं देवानमिन्दं एतदवोचुं – ‘‘एसो नु ते, मारिस, सो भगवा सत्था’’ति? ‘‘न खो मे, मारिस, सो भगवा सत्था. सब्रह्मचारी मे एसो आयस्मा महामोग्गल्लानो’’ति. ‘‘लाभा ते, मारिस, (सुलद्धं ते, मारिस) [( ) नत्थि (सी. पी.)] यस्स ते सब्रह्मचारी एवंमहिद्धिको एवंमहानुभावो! अहो नून ते सो भगवा सत्था’’ति.

३९५. अथ खो आयस्मा महामोग्गल्लानो येन भगवा तेनुपसङ्कमि; उपसङ्कमित्वा भगवन्तं अभिवादेत्वा एकमन्तं निसीदि. एकमन्तं निसिन्नो खो आयस्मा महामोग्गल्लानो भगवन्तं एतदवोच – ‘‘अभिजानाति नो, भन्ते, भगवा अहु [अहुनञ्ञेव (सी. स्या. कं.)] ञातञ्ञतरस्स महेसक्खस्स यक्खस्स संखित्तेन तण्हासङ्खयविमुत्तिं भासिता’’ति [अभासित्थाति (क.)]? ‘‘अभिजानामहं, मोग्गल्लान, इध सक्को देवानमिन्दो येनाहं तेनुपसङ्कमि; उपसङ्कमित्वा मं अभिवादेत्वा एकमन्तं अट्ठासि. एकमन्तं ठितो खो, मोग्गल्लान, सक्को देवानमिन्दो मं एतदवोच – ‘कित्तावता नु खो, भन्ते , भिक्खु संखित्तेन तण्हासङ्खयविमुत्तो होति अच्चन्तनिट्ठो अच्चन्तयोगक्खेमी अच्चन्तब्रह्मचारी अच्चन्तपरियोसानो सेट्ठो देवमनुस्सान’’न्ति.

एवं वुत्ते अहं, मोग्गल्लान, सक्कं देवानमिन्दं एतदवोचं ‘‘इध देवानमिन्द भिक्खुनो सुतं होति ‘सब्बे धम्मा नालं अभिनिवेसाया’ति. एवं चेतं देवानमिन्द भिक्खुनो सुतं होति ‘सब्बे धम्मा नालं अभिनिवेसाया’ति. सो सब्बं धम्मं अभिजानाति, सब्बं धम्मं अभिञ्ञाय सब्बं धम्मं परिजानाति , सब्बं धम्मं परिञ्ञाय यं किञ्चि वेदनं वेदेति सुखं वा दुक्खं वा अदुक्खमसुखं वा. सो तासु वेदनासु अनिच्चानुपस्सी विहरति, विरागानुपस्सी विहरति, निरोधानुपस्सी विहरति, पटिनिस्सग्गानुपस्सी विहरति. सो तासु वेदनासु अनिच्चानुपस्सी विहरन्तो, विरागानुपस्सी विहरन्तो, निरोधानुपस्सी विहरन्तो, पटिनिस्सग्गानुपस्सी विहरन्तो न किञ्चि लोके उपादियति, अनुपादियं न परितस्सति, अपरितस्सं पच्चत्तञ्ञेव परिनिब्बायति – ‘खीणा जाति, वुसितं ब्रह्मचरियं , कतं करणीयं, नापरं इत्थत्ताया’ति पजानाति. एत्तावता खो, देवानमिन्द, भिक्खु संखित्तेन तण्हासङ्खयविमुत्तो होति अच्चन्तनिट्ठो अच्चन्तयोगक्खेमी अच्चन्तब्रह्मचारी अच्चन्तपरियोसानो सेट्ठो देवमनुस्सानन्ति. एवं खो अहं, मोग्गल्लान, अभिजानामि सक्कस्स देवानमिन्दस्स संखित्तेन तण्हासङ्खयविमुत्तिं भासिता’’ति.

इदमवोच भगवा. अत्तमनो आयस्मा महामोग्गल्लानो भगवतो भासितं अभिनन्दीति.

चूळतण्हासङ्खयसुत्तं निट्ठितं सत्तमं.