नमो तस्स भगवतो अरहतो सम्मा-सम्बुद्धस्स

📜 तृष्णाओं की गुत्थी

✦ ॥ नमो तस्स भगवतो अरहतो सम्मासम्बुद्धस्स ॥ ✦

Hindi

ऐसा मैंने सुना — एक समय भगवान श्रावस्ती में अनाथपिण्डक के जेतवन उद्यान में विहार कर रहे थे। उस समय साति नामक भिक्षु, जो मछुआरे का पुत्र (“केवट्टपुत्त”) था, उसे ऐसी पापी धारणा उत्पन्न हुई — “जिस तरह मैं भगवान की धर्म शिक्षा को जानता हूँ, ये चैतन्य ही है जो यहाँ वहाँ (जन्म-जन्मांतरण में) भटकते हुए संसरण करता है, कुछ अन्य नहीं।"

तब बहुत से भिक्षुओं ने सुना — “साति नामक भिक्षु, मछुआरे का पुत्र, उसे ऐसी पापी धारणा उत्पन्न हुई — “जिस तरह मैं भगवान की धर्म शिक्षा को जानता हूँ, ये चैतन्य ही है जो यहाँ वहाँ भटकते हुए संसरण करता है, कुछ अन्य नहीं।"

तब वे भिक्षुगण साति भिक्षु के पास गए। जाकर भिक्षुओं ने साति भिक्षु से कहा, “क्या यह सच है, मित्र साति, कि तुम्हें ऐसी पापी धारणा उत्पन्न हुई है — ‘जिस तरह मैं भगवान की धर्म शिक्षा को जानता हूँ, ये चैतन्य ही है जो यहाँ वहाँ भटकते हुए संसरण करता है, कुछ अन्य नहीं।'"

“ऐसा ही (सच) है, मित्रों। जिस तरह मैं भगवान की धर्म शिक्षा को जानता हूँ, ये चैतन्य ही है जो यहाँ वहाँ भटकते हुए संसरण करता है, कुछ अन्य नहीं।"

तब वे भिक्षुगण, साति भिक्षु को उस पापी धारणा से दूर हटाने के लिए, उसे मनाने लगे, दबाव डालने लगे, पूछताछ करने लगे — “ऐसा मत कहो, मित्र साति। भगवान का मिथ्यावर्णन मत करो। भगवान का मिथ्यावर्णन करना अच्छा नहीं है। भगवान ऐसा नहीं कहते हैं। भगवान अनेक प्रकार से चैतन्य को आधार के साथ उत्पन्न (“पटिच्चसमुप्पन्न”) कहते हैं। बिना किसी आधार के चैतन्य हो नहीं सकता।"

हालांकि वे भिक्षुगण, साति भिक्षु को इस तरह मनाने लगे, दबाव डालने लगे, पूछताछ करने लगे, तब भी वह अपने पापी धारणा को जिद के साथ पकड़े रहा और दुराग्रह करते रहा — “जिस तरह मैं भगवान की धर्म शिक्षा को जानता हूँ, ये चैतन्य ही है जो यहाँ वहाँ भटकते हुए संसरण करता है, कुछ अन्य नहीं।"

जब वे भिक्षुगण साति भिक्षु को उसकी पापी धारणा से दूर हटाने में असफल हुए, तब वे भिक्षु भगवान के पास गए। जाकर भगवान को अभिवादन कर वे एक ओर बैठ गए। एक ओर बैठकर उन भिक्षुओं ने भगवान से (सब कुछ) कह दिया, “भंते, साति नामक भिक्षु, जो मछुआरे का पुत्र था, उसे ऐसी पापी धारणा उत्पन्न हुई… हम साति भिक्षु को इस तरह मनाने लगे, दबाव डालने लगे, पूछताछ करने लगे, तब भी वह अपने पापी धारणा को जिद के साथ पकड़े रहा और दुराग्रह करते रहा — ‘जिस तरह मैं भगवान की धर्म शिक्षा को जानता हूँ, ये चैतन्य ही है जो यहाँ वहाँ भटकते हुए संसरण करता है, कुछ अन्य नहीं।"

भगवान से फटकार

तब भगवान ने (पास खड़े) किसी भिक्षु को संबोधित किया, “जाओ, भिक्षु, मेरे नाम पर साति भिक्षु, मछुआरे के पुत्र, को सूचना दो, ‘मित्र साति, शास्ता तुम्हें आमंत्रित करते हैं।’”

“ठीक है, भंते!” उस भिक्षु ने भगवान को उत्तर दिया, साति भिक्षु के पास गया, और जाकर साति भिक्षु से कहा, “मित्र साति, शास्ता तुम्हें आमंत्रित करते हैं।”

“ठीक है, मित्र!” साति भिक्षु ने उस भिक्षु को उत्तर दिया, और भगवान के पास गए। भगवान के पास जाकर, अभिवादन कर, वे एक ओर बैठ गए। एक ओर बैठे साति भिक्षु से भगवान ने कहा:

“क्या यह सच है, साति, कि तुम्हें ऐसी पापी धारणा उत्पन्न हुई है — ‘जिस तरह मैं भगवान की धर्म शिक्षा को जानता हूँ, ये चैतन्य ही है जो यहाँ वहाँ भटकते हुए संसरण करता है, कुछ अन्य नहीं।"

“बिलकुल ऐसा ही है, भंते। जिस तरह मैं भगवान की धर्म शिक्षा को जानता हूँ, ये चैतन्य ही है जो यहाँ वहाँ भटकते हुए संसरण करता है, कुछ अन्य नहीं।”

“कौन सा चैतन्य, साति?”

“यहीं, भंते, जो बोलता है, जो अनुभूति करता है, जो यहाँ वहाँ भले-बुरे कर्मों के फ़ल-परिणाम भोगता है।”

“निकम्मे पुरुष, मैंने इस तरह धर्म किसे बताया, जिसे जानते हो? निकम्मे पुरुष, क्या मैंने अनेक प्रकार से चैतन्य को आधार के साथ उत्पन्न नहीं कहा? क्या बिना किसी आधार के चैतन्य संभव है?

किन्तु तब भी, निकम्मे पुरुष, तुम स्वयं की गलत धारणा से मेरा मिथ्यावर्णन कर स्वयं को घायल करते हो, और बहुत अपुण्य (=बुरा कर्म) कमाते हो। निकम्मे पुरुष, यह तुम्हारे लिए दीर्घकाल तक अहितकारी और दुःखदायी होगा।”

और तब, भगवान ने भिक्षुओं को संबोधित किया —

“तुम्हें क्या लगता है, भिक्षुओं? क्या इस साति भिक्षु ने इस धर्म-विनय में थोड़ी भी गर्मी पैदा की है?” 1

“कैसे हो सकता है, भंते? नहीं, भंते!”

जब ऐसा कहा गया, तो साति भिक्षु, जो मछुआरे का पुत्र था, चुप हो गया, और लज्जित हो, कंधे झुकाए, सिर नीचे कर, उदास मन से, निशब्द होकर बैठा रहा।

तब भगवान ने साति भिक्षु को चुप होकर, लज्जित होकर, कंधे झुकाए, सिर नीचे किए, उदास मन से, निशब्द होकर बैठा जान कर, साति भिक्षु से कहा, “निकम्मे पुरुष, तुम्हें स्वयं की पापी धारणा से ही पहचाना जाएगा। अब मैं इस मुद्दे पर भिक्षुओं से प्रतिप्रश्न करूँगा।”

आधार के साथ उत्पत्ति

और, भगवान ने भिक्षुओं को संबोधित किया —

“क्या तुम भी, भिक्षुओं, इस साति भिक्षु की तरह मेरी शिक्षा को समझते हो, जो स्वयं की गलत धारणा से मेरा मिथ्यावर्णन कर स्वयं को घायल करता है, और बहुत अपुण्य कमाता है?”

“नहीं, भंते। भगवान अनेक प्रकार से चैतन्य को आधार के साथ उत्पन्न कहते हैं। बिना किसी आधार के चैतन्य हो नहीं सकता।"

“साधु साधु, भिक्षुओं। बहुत अच्छा हैं जो तुम मेरी शिक्षा को इस तरह समझते हो। मैंने अनेक प्रकार से चैतन्य को आधार के साथ उत्पन्न कहा है। बिना किसी आधार के चैतन्य हो नहीं सकता। किन्तु तब भी, यह साति भिक्षु स्वयं की गलत धारणा से मेरा मिथ्यावर्णन कर स्वयं को घायल करता है, और बहुत अपुण्य कमाता है। यह इस निकम्मे पुरुष के लिए दीर्घकाल तक अहितकारी और दुःखदायी होगा।

भिक्षुओं, चैतन्य जिस-जिस आधार के साथ उत्पन्न होता है, उसे उस-उस तरह के चैतन्य के तौर पर पहचाना जाता है —

  • आँख और रूप के आधार पर उपजे चैतन्य को ‘आँख का चैतन्य’ के तौर पर पहचाना जाता है,
  • कान और ध्वनि के आधार पर उपजे चैतन्य को ‘कान का चैतन्य’ के तौर पर पहचाना जाता है,
  • नाक और गंध के आधार पर उपजे चैतन्य को ‘नाक का चैतन्य’ के तौर पर पहचाना जाता है,
  • जीभ और स्वाद के आधार पर उपजे चैतन्य को ‘जीभ का चैतन्य’ के तौर पर पहचाना जाता है,
  • काया और संस्पर्श के आधार पर उपजे चैतन्य को ‘काया का चैतन्य’ के तौर पर पहचाना जाता है,
  • मन और स्वभाव के आधार पर उपजे चैतन्य को ‘मन का चैतन्य’ के तौर पर पहचाना जाता है।

जैसे, भिक्षुओं, अग्नि जिस-जिस आधार के साथ जलती है, उसे उस-उस तरह के अग्नि के तौर पर पहचाना जाता है। जैसे —

  • जो काष्ठ के आधार पर अग्नि जलती है, उसे ‘काष्ठ की अग्नि’ के तौर पर पहचाना जाता है,
  • जो टहनी के आधार पर अग्नि जलती है, उसे ‘टहनी की अग्नि’ के तौर पर पहचाना जाता है,
  • जो घास के आधार पर अग्नि जलती है, उसे ‘घास की अग्नि’ के तौर पर पहचाना जाता है,
  • जो गोबर के आधार पर अग्नि जलती है, उसे ‘गोबर की अग्नि’ के तौर पर पहचाना जाता है,
  • जो भूसे के आधार पर अग्नि जलती है, उसे ‘भूसे की अग्नि’ के तौर पर पहचाना जाता है,
  • जो कचरे के आधार पर अग्नि जलती है, वह ‘कचरे की अग्नि’ के तौर पर पहचाना जाता है।

ठीक उसी तरह, भिक्षुओं, चैतन्य जिस-जिस आधार के साथ उत्पन्न होता है, उसे उस-उस तरह के चैतन्य के तौर पर पहचाना जाता है —

  • आँख और रूप के आधार पर उपजे चैतन्य को ‘आँख का चैतन्य’ के तौर पर पहचाना जाता है,
  • कान और ध्वनि के आधार पर उपजे चैतन्य को ‘कान का चैतन्य’ के तौर पर पहचाना जाता है,
  • नाक और गंध के आधार पर उपजे चैतन्य को ‘नाक का चैतन्य’ के तौर पर पहचाना जाता है,
  • जीभ और स्वाद के आधार पर उपजे चैतन्य को ‘जीभ का चैतन्य’ के तौर पर पहचाना जाता है,
  • काया और संस्पर्श के आधार पर उपजे चैतन्य को ‘काया का चैतन्य’ के तौर पर पहचाना जाता है,
  • मन और स्वभाव के आधार पर उपजे चैतन्य को ‘मन का चैतन्य’ के तौर पर पहचाना जाता है।

आहार के साथ भव

भिक्षुओं, क्या तुम्हें दिखता हैं — यह अस्तित्व में आता 2 है?"

“हाँ, भंते।”

“और, भिक्षुओं, क्या तुम्हें दिखता हैं — उसकी उत्पत्ति किसी आहार के कारण होती है?”

“हाँ, भंते।”

“और, भिक्षुओं, क्या तुम्हें दिखता हैं — जब उस आहार का निरोध हो, तब जो (उसके कारण) अस्तित्व में आया हो, उसका भी निरोध होता है?”

“हाँ, भंते।”

“और, भिक्षुओं, जब उलझन हो कि — ‘यह अस्तित्व में आता है या नहीं’ — क्या तब शंका उपजती है?”

“हाँ, भंते।”

“और, भिक्षुओं, जब उलझन हो कि — ‘उसकी उत्पत्ति किसी आहार के कारण होती है या नहीं’ — क्या तब शंका उपजती है?”

“हाँ, भंते।”

“और, भिक्षुओं, जब उलझन हो कि — ‘जब उस आहार का निरोध हो, तब जो (उसके कारण) अस्तित्व में आया हो, उसका भी निरोध होता है या नहीं’ — क्या तब शंका उपजती है?”

“हाँ, भंते।”

“भिक्षुओं, जो यथास्वरूप सम्यक प्रज्ञा से देखता है कि — ‘यह अस्तित्व में आता है’ — क्या उसकी उलझन छूट जाती है?”

“हाँ, भंते।”

“भिक्षुओं, जो यथास्वरूप सम्यक प्रज्ञा से देखता है कि — ‘उसकी उत्पत्ति किसी आहार के कारण होती है’ — क्या उसकी उलझन छूट जाती है?”

“हाँ, भंते।”

“भिक्षुओं, जो यथास्वरूप सम्यक प्रज्ञा से देखता है कि — ‘जब उस आहार का निरोध हो, तब जो (उसके कारण) अस्तित्व में आया हो, उसका भी निरोध होता है’ — क्या उसकी उलझन छूट जाती है?”

“हाँ, भंते।”

“भिक्षुओं, क्या तुम इस उलझन से छूट चुके हो कि — ‘यह अस्तित्व में आता है’?

“हाँ, भंते।”

“भिक्षुओं, क्या तुम इस उलझन से छूट चुके हो कि — ‘उसकी उत्पत्ति किसी आहार के कारण होती है’?

“हाँ, भंते।”

“भिक्षुओं, क्या तुम इस उलझन से छूट चुके हो कि — ‘जब उस आहार का निरोध हो, तब जो (उसके कारण) अस्तित्व में आया हो, उसका भी निरोध होता है’?

“हाँ, भंते।”

“भिक्षुओं, क्या तुमने सम्यक प्रज्ञा से यथास्वरूप अच्छे से देखा कि — ‘यह अस्तित्व में आता है’?

“हाँ, भंते।”

“भिक्षुओं, क्या तुमने सम्यक प्रज्ञा से यथास्वरूप अच्छे से देखा कि — ‘उसकी उत्पत्ति किसी आहार के कारण होती है’?

“हाँ, भंते।”

“भिक्षुओं, क्या तुमने सम्यक प्रज्ञा से यथास्वरूप अच्छे से देखा कि — ‘जब उस आहार का निरोध हो, तब जो (उसके कारण) अस्तित्व में आया हो, उसका भी निरोध होता है’?

“हाँ, भंते।”

“भिक्षुओं, यदि तुम इतनी परिशुद्ध, इतनी चमकती दृष्टि से चिपकते हो, सँजोते हो, संचित करते हो, अपना मानते हो — तब, भिक्षुओं, क्या तुम मेरा ‘बेड़े की उपमा’ वाला धर्म जान पाओगे, जो लाँघने के ध्येय से है, पकड़ने के धेय से नहीं?”

“नहीं, भंते।”

“किन्तु, भिक्षुओं, यदि तुम इतनी परिशुद्ध, इतनी चमकती दृष्टि से भी चिपकते नहीं हो, सँजोते नहीं हो, संचित नहीं करते हो, अपना नहीं मानते हो — क्या तब तुम मेरा ‘बेड़े की उपमा’ वाला धर्म जान पाओगे, जो लाँघने के ध्येय से है, पकड़ने के धेय से नहीं?”

“हाँ, भंते।”

आहार और आधारपूर्ण सहउत्पत्ति

“भिक्षुओं, चार आहार होते हैं — अस्तित्व पाए सत्वों को पालने के लिए, अथवा जन्म ढूँढते सत्वों को आधार देने के लिए। कौन-से चार?

  • स्थूल या सूक्ष्म भौतिक आहार,
  • दूसरा संपर्क,
  • तीसरा मनोसंचेतना,
  • चौथा चैतन्य।

भिक्षुओं, चार आहार का स्त्रोत क्या है, उत्पत्ति कैसे होती है, जन्म कैसे होता है, उद्भव (अस्तित्व में आना) कैसे होता है? चार आहार का स्त्रोत तृष्णा है, उसकी उत्पत्ति तृष्णा से होती है, उसका जन्म तृष्णा से होता है, उसका उद्भव तृष्णा से होता है।

आगे, भिक्षुओं, तृष्णा का स्त्रोत क्या है, उत्पत्ति कैसे होती है, जन्म कैसे होता है, उद्भव कैसे होता है? तृष्णा का स्त्रोत अनुभूति (“वेदना”) है, उत्पत्ति अनुभूति से होती है, उसका जन्म अनुभूति से होता है, उसका उद्भव अनुभूति से होता है।

आगे, भिक्षुओं, अनुभूति का स्त्रोत क्या है, उत्पत्ति कैसे होती है, जन्म कैसे होता है, उद्भव कैसे होता है? अनुभूति का स्त्रोत संपर्क है, उत्पत्ति संपर्क से होती है, उसका जन्म संपर्क से होता है, उसका उद्भव संपर्क से होता है।

आगे, भिक्षुओं, संपर्क का स्त्रोत क्या है, उत्पत्ति कैसे होती है, जन्म कैसे होता है, उद्भव कैसे होता है? संपर्क का स्त्रोत छह आयाम है, उत्पत्ति छह आयाम से होती है, उसका जन्म छह आयाम से होता है, उसका उद्भव छह आयाम से होता है।

आगे, भिक्षुओं, छह आयाम का स्त्रोत क्या है, उत्पत्ति कैसे होती है, जन्म कैसे होता है, उद्भव कैसे होता है? छह आयाम का स्त्रोत नाम और रूप है, उत्पत्ति नाम और रूप से होती है, उसका जन्म नाम और रूप से होता है, उसका उद्भव नाम और रूप से होता है।

आगे, भिक्षुओं, नाम और रूप का स्त्रोत क्या है, उत्पत्ति कैसे होती है, जन्म कैसे होता है, उद्भव कैसे होता है? नाम और रूप का स्त्रोत चैतन्य है, उत्पत्ति चैतन्य से होती है, उसका जन्म चैतन्य से होता है, उसका उद्भव चैतन्य से होता है।

आगे, भिक्षुओं, चैतन्य का स्त्रोत क्या है, उत्पत्ति कैसे होती है, जन्म कैसे होता है, उद्भव कैसे होता है? चैतन्य का स्त्रोत रचना (“सङ्खार”) है, उत्पत्ति रचना से होती है, उसका जन्म रचना से होता है, उसका उद्भव रचना से होता है।

आगे, भिक्षुओं, रचना का स्त्रोत क्या है, उत्पत्ति कैसे होती है, जन्म कैसे होता है, उद्भव कैसे होता है? रचना का स्त्रोत अविद्या है, उत्पत्ति अविद्या से होती है, उसका जन्म अविद्या से होता है, उसका उद्भव अविद्या से होता है।

इस तरह, भिक्षुओं —

  • अविद्या के आधार पर रचना होती है,
  • रचना के आधार पर चैतन्य होता है,
  • चैतन्य के आधार पर नाम और रूप होता है,
  • नाम और रूप के आधार पर छह आयाम होते हैं,
  • छह आयाम के आधार पर संपर्क होता है,
  • संपर्क के आधार पर अनुभूति होती है,
  • अनुभूति के आधार पर तृष्णा होती है,
  • तृष्णा के आधार पर आसक्ति होती है,
  • आसक्ति के आधार पर भव होता है,
  • भव के आधार पर जन्म होता है,
  • जन्म के आधार पर बुढ़ापा, मौत, शोक, विलाप, दर्द, व्यथा और निराशा प्रकट होते हैं।

— इस तरह, इस पूरे दुःख के ढ़ेर की उत्पत्ति होती है।

• ‘जन्म के आधार पर बुढ़ापा और मौत होती है’, ऐसा कहा गया। भिक्षुओं, क्या जन्म के आधार पर ही बुढ़ापा और मौत होती है, या नहीं होती? अथवा, क्या लगता है तुम्हें?” : 3

“जन्म के आधार पर, भंते, बुढ़ापा और मौत होती है। और हमें भी ऐसा ही लगता हैं, भंते, कि जन्म के आधार पर बुढ़ापा और मौत होती है।”

• ‘भव के आधार पर जन्म होता है’, ऐसा कहा गया। भिक्षुओं, क्या भव के आधार पर ही जन्म होता है, या नहीं होता? अथवा, क्या लगता है तुम्हें?”

“भव के आधार पर, भंते, जन्म होता है। और हमें भी ऐसा ही लगता हैं, भंते, कि भव के आधार पर जन्म होता है।”

• ‘अविद्या के आधार पर रचना होती है’, ऐसा कहा गया। भिक्षुओं, क्या अविद्या के आधार पर ही रचना होती है, या नहीं होती? अथवा, क्या लगता है तुम्हें?”

“अविद्या के आधार पर, भंते, रचना होती है। और हमें भी ऐसा ही लगता हैं, भंते, कि अविद्या के आधार पर रचना होती है।”

“साधु, भिक्षुओं। तब भिक्षुओं, तुम भी वही कहते हो, मैं भी वही कहता हूँ — जब यह है, तब वह है। इसके उत्पन्न होने से, वह उत्पन्न होने लगता है। अर्थात —

  • अविद्या के आधार पर रचना होती है,
  • रचना के आधार पर चैतन्य होता है,
  • चैतन्य के आधार पर नाम और रूप होता है,
  • नाम और रूप के आधार पर छह आयाम होते हैं,
  • छह आयाम के आधार पर संपर्क होता है,
  • संपर्क के आधार पर अनुभूति होती है,
  • अनुभूति के आधार पर तृष्णा होती है,
  • तृष्णा के आधार पर आसक्ति होती है,
  • आसक्ति के आधार पर भव होता है,
  • भव के आधार पर जन्म होता है,
  • जन्म के आधार पर बुढ़ापा, मौत, शोक, विलाप, दर्द, व्यथा और निराशा प्रकट होते हैं।

— इस तरह, इस पूरे दुःख के ढ़ेर की उत्पत्ति होती है।

  • जब अविद्या का, बिना शेष बचे, विराग और निरोध होता है, तब रचना का निरोध होता है,
  • रचना के निरोध से चैतन्य का निरोध होता है,
  • चैतन्य के निरोध से नाम और रूप का निरोध होता है,
  • नाम और रूप के निरोध से छह आयाम का निरोध होता है,
  • छह आयाम के निरोध से संपर्क का निरोध होता है,
  • संपर्क के निरोध से अनुभूति का निरोध होता है,
  • अनुभूति के निरोध से तृष्णा का निरोध होता है,
  • तृष्णा के निरोध से आसक्ति का निरोध होता है,
  • आसक्ति के निरोध से भव का निरोध होता है,
  • भव के निरोध से जन्म का निरोध होता है,
  • जन्म के निरोध से बुढ़ापा, मौत, शोक, विलाप, दर्द, व्यथा और निराशा निरुद्ध होते हैं।

— इस तरह, इस पूरे दुःख के ढ़ेर का निरोध होता है।

• ‘जन्म के निरोध से बुढ़ापा और मौत निरुद्ध होते हैं’, ऐसा कहा गया। भिक्षुओं, क्या जन्म के निरोध से बुढ़ापा और मौत निरुद्ध होते हैं, या नहीं होते? अथवा, क्या लगता है तुम्हें?”

“जन्म के निरोध से, भंते, बुढ़ापा और मौत निरुद्ध होते हैं। और हमें भी ऐसा ही लगता हैं, भंते, कि जन्म के निरोध से बुढ़ापा और मौत निरुद्ध होते है।”

• ‘भव के निरोध से जन्म का निरोध होता है’, ऐसा कहा गया। भिक्षुओं, क्या भव के निरोध से ही जन्म का निरोध होता है, या नहीं होता? अथवा, क्या लगता है तुम्हें?”

“भव के निरोध से, भंते, जन्म का निरोध होता है। और हमें भी ऐसा ही लगता हैं, भंते, कि भव के निरोध से जन्म का निरोध होता है।”

• ‘अविद्या के निरोध से रचना का निरोध होता है’, ऐसा कहा गया। भिक्षुओं, क्या अविद्या के निरोध से ही रचना का निरोध होता है, या नहीं होती? अथवा, क्या लगता है तुम्हें?”

“अविद्या के निरोध से, भंते, रचना का निरोध होता है। और हमें भी ऐसा ही लगता हैं, भंते, कि अविद्या के निरोध से रचना का निरोध होता है।”

“साधु, भिक्षुओं। तब भिक्षुओं, तुम भी वही कहते हो, मैं भी वही कहता हूँ — जब यह नहीं है, तब वह भी नहीं है। इसके अन्त होने से, उसका भी अन्त होने लगता है। अर्थात —

  • जब अविद्या का, बिना शेष बचे, विराग और निरोध होता है, तब रचना का निरोध होता है,
  • रचना के निरोध से चैतन्य का निरोध होता है,
  • चैतन्य के निरोध से नाम और रूप का निरोध होता है,
  • नाम और रूप के निरोध से छह आयाम का निरोध होता है,
  • छह आयाम के निरोध से संपर्क का निरोध होता है,
  • संपर्क के निरोध से अनुभूति का निरोध होता है,
  • अनुभूति के निरोध से तृष्णा का निरोध होता है,
  • तृष्णा के निरोध से आसक्ति का निरोध होता है,
  • आसक्ति के निरोध से भव का निरोध होता है,
  • भव के निरोध से जन्म का निरोध होता है,
  • जन्म के निरोध से बुढ़ापा, मौत, शोक, विलाप, दर्द, व्यथा और निराशा निरुद्ध होते हैं।

— इस तरह, इस पूरे दुःख के ढ़ेर का निरोध होता है।

अनुचित चिंतन को टालना

तब इस तरह जानने से, इस तरह देखने से, भिक्षुओं, क्या तुम अतीत की तरह भागोगे —

  • ‘क्या मैं अतीतकाल में था?’
  • ‘क्या मैं अतीतकाल में नहीं था?’
  • ‘मैं अतीतकाल में क्या था?’
  • ‘मैं अतीतकाल में कैसा था?’
  • ‘मैं अतीतकाल में क्या होकर फिर क्या बना था?’”

“नहीं, भंते।”

“तब इस तरह जानने से, इस तरह देखने से, भिक्षुओं, क्या तुम भविष्य की तरह भागोगे —

  • ‘क्या मैं भविष्यकाल में रहूँगा?’
  • ‘क्या मैं भविष्यकाल में नहीं रहूँगा?’
  • ‘मैं भविष्यकाल में क्या रहूँगा?’
  • ‘मैं भविष्यकाल में कैसा रहूँगा?’
  • ‘मैं भविष्यकाल में क्या होकर फ़िर क्या बनूँगा?’”

“नहीं, भंते।”

“तब इस तरह जानने से, इस तरह देखने से, भिक्षुओं, क्या तुम वर्तमान के बारे में भ्रमित रहोगे —

  • ‘क्या मैं हूँ?’
  • ‘क्या मैं नहीं हूँ?’
  • ‘मैं क्या हूँ?’
  • ‘मैं कैसा हूँ?’
  • ‘यह सत्व कहाँ से आया है?’
  • ‘वह कहाँ जाने वाला है?’”

“नहीं, भंते।”

“तब इस तरह जानने से, इस तरह देखने से, भिक्षुओं, क्या तुम ऐसा कहोगे, ‘हमारे शास्ता आदरणीय है। इसलिए हम अपने शास्ता के आदर मात्र में ऐसा कहते हैं’?”

“नहीं, भंते।”

“तब इस तरह जानने से, इस तरह देखने से, भिक्षुओं, क्या तुम ऐसा कहोगे, ‘हमारे श्रमण ऐसा कहते हैं। इसलिए हम उस श्रमण की तरह ही ऐसा कहते हैं’?”

“नहीं, भंते।”

“तब इस तरह जानने से, इस तरह देखने से, भिक्षुओं, क्या तुम किसी अन्य शास्ता के लिए समर्पित हो जाओगे?”

“नहीं, भंते।”

“तब इस तरह जानने से, इस तरह देखने से, भिक्षुओं, क्या तुम साधारण श्रमण-ब्राह्मणों के व्रत (=कर्तव्य, रीति-रिवाज), कोलाहलपूर्ण समारोह, शुभमङ्गल संस्कार इत्यादि में सार ढूँढोगे?”

“नहीं, भंते।”

“भिक्षुओं, क्या तुम केवल वहीं नहीं कह रहे हो, जो तुमने स्वयं ज्ञात किया, स्वयं देखा, स्वयं अनुभव किया?”

“हाँ, भंते।”

“साधु, भिक्षुओं! तुम मेरे द्वारा ऐसे धर्म में मार्गदर्शित हो, जो तुरंत दिखता है, कालातीत है, आजमाने योग्य, परे ले जाने वाला, समझदार द्वारा अनुभव योग्य! क्योंकि, भिक्षुओं, जब मैं कहता था कि ‘यह धर्म तुरंत दिखता है, कालातीत है, आजमाने योग्य, परे ले जाने वाला, समझदार द्वारा अनुभव योग्य’ — तो मैं वह इसी बारे में कहता था।

गर्भ धारण और जन्म

भिक्षुओं, जब तीन बातों का मिलन होता है, तब गर्भ धारण होता है।

जब माता-पिता का मिलन हो, किन्तु माता ऋतुमती न हो, और गन्धब्ब उपस्थित न हो 4 — तब गर्भ धारण नहीं होता है।

जब माता-पिता का मिलन हो, माता ऋतुमती हो, किन्तु गन्धब्ब उपस्थित न हो — तब भी गर्भ धारण नहीं होता है।

हालांकि जब माता-पिता का मिलन भी हो, माता ऋतुमती भी हो, और गन्धब्ब भी उपस्थित हो — इन तीनों बातों का मिलन होने से गर्भ धारण होता है।

तब, भिक्षुओं, माता नौ या दस महीने तक अपने गर्भ में भ्रूण का पालन-पोषण करती है, बड़े संशय के साथ, भारी बोझ के साथ। आगे, भिक्षुओं, माता नौ या दस महीने बीतने पर जन्म देती है, बड़े संशय के साथ, भारी बोझ के साथ। आगे, वह नवजात को अपने रक्त से पालन-पोषण करती है। क्योंकि आर्यविनय में, भिक्षुओं, माता के दूध को रक्त कहा जाता है।

इस तरह, भिक्षुओं, कुमार बड़ा होता है, उसकी इंद्रियाँ परिपक्व होती है। तब कुमार ऐसे-वैसे खेलते हुए क्रीडा करता है, जैसे हल के खिलौने से, गिल्ली-डंडे से, कलाबाजी से, चक्की के खिलौने से, तराजू के खिलौने से, रथ के खिलौने से, धनुषबाण के खिलौने से।

सीमित चित्त

आगे, भिक्षुओं, वह कुमार और बड़ा होता है, उसकी इंद्रियाँ परिपक्व होती है। तब कुमार पाँच कामभोग में लिप्त होकर, समर्पित होकर, पूरी तरह डूब कर, उनका सेवन करता है —

  • आँख से दिखायी देते रूप, जो अच्छे, सुंदर, मनपसंद, आकर्षक, कामुक, ललचाते हो।
  • कान से सुनायी देती आवाज़े, जो अच्छी, मोहक, मनपसंद, आकर्षक, कामुक, ललचाती हो।
  • नाक से सुँघाई देती गन्ध, जो अच्छी, मोहक, मनपसंद, आकर्षक, कामुक, ललचाती हो।
  • जीभ से पता चलते स्वाद, जो अच्छे, मोहक, मनपसंद, आकर्षक, कामुक, ललचाते हो।
  • काया से पता चलते संस्पर्श, जो अच्छे, मोहक, मनपसंद, आकर्षक, कामुक, ललचाते हो।

• आँखों से रूप देखकर वह प्रिय रूप से मोहित होता है, अप्रिय रूप से घृणित होता है, काया की स्मृति को अनुपस्थित रख, सीमित चित्त से विहार करता है। वह चेतो-विमुक्ति और प्रज्ञा-विमुक्ति को यथास्वरूप नहीं जानता है, कहाँ पाप अकुशल स्वभाव बिना शेष बचे निरुद्ध होते हैं। अनुरोध-विरोध में लीन होकर, वह जो भी अनुभूति को महसूस करता है—सुखद, दुखद, या अदुखद-असुखद—उन अनुभूतियों का मजा लेता है, उनका स्वागत करता है, उन्हें पकड़े हुए रहता है।

तब उन अनुभूतियों का मजा लेने से, उनका स्वागत करने से, उन्हें पकड़े हुए रहने से आनंद उपजता है। अनुभूतियों का आनंद लेने से आसक्ति होती है। उस आसक्ति के आधार से भव होता है। भव के आधार से जन्म होता है। जन्म के आधार से बुढ़ापा और मौत; शोक, विलाप, दर्द, व्यथा, और निराशा प्रकट होते हैं। इस तरह, इस पूरे दुःख के ढ़ेर की उत्पत्ति होती है।

  • कान से ध्वनि सुनकर…
  • नाक से गंध सूँघकर…
  • जीभ से स्वाद चखकर…
  • काया से संस्पर्श महसूस कर…

• मन से स्वभाव जानकर वह प्रिय से मोहित होता है, अप्रिय से घृणित होता है, काया की स्मृति को अनुपस्थित रख, सीमित चित्त से विहार करता है। वह चेतो-विमुक्ति और प्रज्ञा-विमुक्ति को यथास्वरूप नहीं जानता है, कहाँ पाप अकुशल स्वभाव बिना शेष बचे निरुद्ध होते हैं। अनुरोध-विरोध में लीन होकर, वह जो भी अनुभूति को महसूस करता है—सुखद, दुखद, या अदुखद-असुखद—उन अनुभूतियों का मजा लेता है, उनका स्वागत करता है, उन्हें पकड़े हुए रहता है।

तब उन अनुभूतियों का मजा लेने से, उनका स्वागत करने से, उन्हें पकड़े हुए रहने से आनंद उपजता है। अनुभूतियों का आनंद लेने से आसक्ति होती है। उस आसक्ति के आधार से भव होता है। भव के आधार से जन्म होता है। जन्म के आधार से बुढ़ापा और मौत; शोक, विलाप, दर्द, व्यथा, और निराशा प्रकट होते हैं। इस तरह, इस पूरे दुःख के ढ़ेर की उत्पत्ति होती है।

असीम चित्त का मार्ग

भिक्षुओं, यहाँ कभी इस लोक में ‘तथागत अरहंत सम्यकसम्बुद्ध’ प्रकट होते हैं — जो विद्या और आचरण से संपन्न होते हैं, परम लक्ष्य पा चुके, दुनिया के ज्ञाता, दमनशील पुरुषों के अनुत्तर सारथी, देवों और मनुष्यों के गुरु, बुद्ध भगवान!’ वे प्रत्यक्ष-ज्ञान का साक्षात्कार कर, उसे — देव, मार, ब्रह्मा, श्रमण, ब्राह्मण, राजा और जनता से भरे इस लोक में — प्रकट करते हैं। वे ऐसा सार्थक और शब्दशः धर्म बताते हैं, जो आरंभ में कल्याणकारी, मध्य में कल्याणकारी, अन्त में कल्याणकारी हो; और सर्वपरिपूर्ण, परिशुद्ध ‘ब्रह्मचर्य’ प्रकाशित हो।

ऐसा धर्म सुनकर किसी गृहस्थ या कुलपुत्र को तथागत के प्रति श्रद्धा जागती है। उसे लगता है, “गृहस्थ जीवन बंधनकारी है, जैसे धूलभरा रास्ता हो! किंतु प्रवज्या, मानो खुला आकाश हो! घर रहते हुए ऐसा परिपूर्ण, परिशुद्ध ब्रह्मचर्य निभाना कठिन है, जो शुद्ध शंख जैसा उज्ज्वल हो! क्यों न मैं सिरदाढ़ी मुंडवाकर, काषाय वस्त्र धारण कर, घर से बेघर होकर प्रव्रजित हो जाऊँ?’

फिर वह समय पाकर, थोड़ी या अधिक धन-संपत्ति त्यागकर, छोटा या बड़ा परिवार त्यागकर, सिरदाढ़ी मुंडवाकर, काषाय वस्त्र धारण कर, घर से बेघर हो प्रव्रजित होता है।

शील

• प्रव्रजित होकर ऐसा भिक्षु शिक्षा और आजीविका से संपन्न होकर हिंसा त्यागकर जीवहत्या से विरत रहता है — डंडा और शस्त्र फेंक चुका, शर्मिला और दयावान, समस्त जीवहित के प्रति करुणामयी।

• वह ‘न सौपी चीज़ें’ त्यागकर चोरी से विरत रहता है — मात्र सौपी चीज़ें ही उठाता, स्वीकारता है। पावन जीवन जीता है, चोरी-चुपके नहीं।

• वह ब्रह्मचर्य धारणकर अब्रह्मचर्य से विरत रहता है — ‘देहाती’ मैथुनधर्म से विरत!

• वह झूठ बोलना त्यागकर असत्यवचन से विरत रहता है। वह सत्यवादी, सत्य का पक्षधर, दृढ़ और भरोसेमंद बनता है; दुनिया को ठगता नहीं।

• वह विभाजित करनेवाली बातें त्यागकर फूट डालनेवाले वचन से विरत रहता है। यहाँ सुनकर वहाँ नहीं बताता, ताकि वहाँ दरार पड़े। वहाँ सुनकर यहाँ नहीं बताता, ताकि यहाँ दरार पड़े। बल्कि वह बटे हुए लोगों का मेल कराता है, साथ रहते लोगों को जोड़ता है, एकता चाहता है, आपसी भाईचारे में प्रसन्न और ख़ुश होता है; ‘सामंजस्यता बढ़े’ ऐसे बोल बोलता है।

• वह तीखा बोलना त्यागकर कटु वचन से विरत रहता है। वह ऐसे मीठे बोल बोलता है — जो राहत दे, कर्णमधुर लगे, हृदय छू ले, स्नेहपूर्ण हो, सौम्य हो, अधिकांश लोगों को अनुकूल और स्वीकार्य लगे।

• वह बक़वास त्यागकर व्यर्थ वचन से विरत रहता है। वह समयानुकूल बोलता है, तथ्यात्मक बोलता है, अर्थपूर्ण बोलता है, धर्मानुकूल बोलता है, विनयानुकूल बोलता है; ‘बहुमूल्य लगे’ ऐसे सटीक वचन वह बोलता है — तर्क के साथ, नपे-तुले शब्दों में, सही समय पर, सही दिशा में, ध्येय के साथ।

• वह बीज और पौधों का जीवनाश करना त्यागता है।…

• वह दिन में एक-बार भोजन करता है — रात्रिभोज व विकालभोज से विरत।…

• वह नृत्य, गीत, वाद्यसंगीत तथा मनोरंजन से विरत रहता है।…

• वह मालाएँ, गन्ध, लेप, सुडौलता-लानेवाले तथा अन्य सौंदर्य-प्रसाधन से विरत रहता है।…

• वह बड़े विलासी आसन और पलंग का उपयोग करने से विरत रहता है।…

• वह स्वर्ण व रुपये स्वीकारने से विरत रहते है।…

• वह कच्चा अनाज… कच्चा माँस… स्त्री व कुमारी… दासी व दास… भेड़ व बकरी… मुर्गी व सूवर… हाथी, गाय, घोड़ा, खच्चर… ख़ेत व संपत्ति स्वीकारने से विरत रहता है।…

• वह दूत [=संदेशवाहक] का काम… ख़रीद-बिक्री… भ्रामक तराज़ू, नाप, मानदंडों द्वारा ठगना… घूसख़ोरी, ठगना, ज़ाली काम, छलकपट… हाथपैर काटने, पीटने बाँधने, लूट डाका व हिंसा करने से विरत रहता है।

संतुष्टि

वह शरीर ढकने के लिए चीवर और पेट भरने के लिए भिक्षा पर संतुष्ट रहता है। वह जहाँ भी जाता है, अपनी सभी मूल आवश्यकताओं को साथ लेकर जाता है। जैसे पक्षी जहाँ भी जाता है, मात्र अपने पंखों को लेकर उड़ता है। उसी तरह, कोई भिक्षु शरीर ढकने के लिए चीवर और पेट भरने के लिए भिक्षा पर संतुष्ट रहता है। वह ऐसे आर्य शीलस्कन्ध से संपन्न होकर भीतर निष्पाप सुख का अनुभव करता है।

इंद्रिय सँवर

  • वह आँखों से कोई रूप देखता है, तो न वह उसकी छाप [“निमित्त”] पकड़ता है, न ही उसकी आकर्षक विशेषताओं [“अनुव्यंजन”] को ग्रहण करता है। यदि वह चक्षु-इंद्रिय पर संयम न रखे, तो लालसा या निराशा जैसे पाप-अकुशल स्वभाव उसे घेर सकते हैं। इसलिए वह संयम का मार्ग अपनाता है, चक्षु-इंद्रिय की रक्षा करता है, और उस पर संयम करता है।
  • कान से कोई ध्वनि सुनता है…
  • नाक से कोई गंध सूँघता है…
  • जीभ से कोई स्वाद चखता है…
  • शरीर से कोई संस्पर्श अनुभव करता है…
  • मन से कोई विचार करता है, तो न वह उसकी छाप पकड़ता है, न ही उसकी आकर्षक विशेषताओं को ग्रहण करता है। यदि वह मन-इंद्रिय पर संयम न रखे, तो लालसा या निराशा जैसे पाप-अकुशल स्वभाव उसे घेर सकते हैं। इसलिए वह संयम का मार्ग अपनाता है, मन-इंद्रिय की रक्षा करता है, और उस पर संयम करता है।

वह ऐसे आर्यसँवर से संपन्न होकर भीतर निष्पाप सुख का अनुभव करता है।

स्मृति सचेतता

वह आगे बढ़ते और लौट आते सचेत होता है। वह नज़र टिकाते और नज़र हटाते सचेत होता है। वह [अंग] सिकोड़ते और पसारते हुए सचेत होता है। वह संघाटी, पात्र और चीवर धारण करते हुए सचेत होता है। वह खाते, पीते, चबाते, स्वाद लेते हुए सचेत होता है। वह पेशाब और शौच करते हुए सचेत होता है। वह चलते, खड़े रहते, बैठते, सोते, जागते, बोलते, मौन होते हुए सचेत होता है।

इस तरह वह आर्य शीलस्कन्ध से संपन्न होकर, आर्य संतुष्टि से संपन्न होकर, इंद्रियों पर आर्य सँवर से संपन्न होकर, आर्य स्मरणशीलता और सचेतता से संपन्न होकर एकांतवास ढूँढता है — जैसे जंगल, पेड़ के तले, पहाड़, सँकरी घाटी, गुफ़ा, श्मशानभूमि, उपवन, खुली-जगह या पुआल का ढ़ेर। भिक्षाटन से लौटकर भोजन के पश्चात, वह पालथी मार, काया सीधी रखकर बैठता है और स्मरणशीलता आगे लाता है।

नीवरण त्याग

  • वह दुनिया के प्रति लालसा [“अभिज्झा”] हटाकर लालसाविहीन चित्त से रहता है। अपने चित्त से लालसा को साफ़ करता है।
  • वह भीतर से दुर्भावना और द्वेष [“ब्यापादपदोस”] हटाकर दुर्भावनाविहीन चित्त से रहता है — समस्त जीवहित के लिए करुणामयी। अपने चित्त से दुर्भावना और द्वेष को साफ़ करता है।
  • वह भीतर से सुस्ती और तंद्रा [“थिनमिद्धा”] हटाकर सुस्ती और तंद्राविहीन चित्त से रहता है — उजाला देखने वाला, स्मरणशील और सचेत। अपने चित्त से सुस्ती और तंद्रा को साफ़ करता है।
  • वह भीतर से बेचैनी और पश्चाताप [“उद्धच्चकुक्कुच्च”] हटाकर बिना व्याकुलता के रहता है; भीतर से शान्त चित्त। अपने चित्त से बेचैनी और पश्चाताप को साफ़ करता है।
  • वह अनिश्चितता [“विचिकिच्छा”] हटाकर उलझन को लाँघता है; कुशल स्वभावों के प्रति संभ्रमता के बिना। अपने चित्त से अनिश्चितता को साफ़ करता है।

वह इन पाँच व्यवधानों (“नीवरण”) को हटाता है, ऐसे चित्त के उपक्लेश जो प्रज्ञा को दुर्बल बनाते हैं।

समाधि

(१) तब, भिक्षुओं, वह कामुकता से निर्लिप्त, अकुशल-स्वभाव से निर्लिप्त, सोच एवं विचार के साथ निर्लिप्तता से उपजे प्रफुल्लता और सुखपूर्ण प्रथम-ध्यान में प्रवेश पाकर रहता है।

(२) आगे, भिक्षुओं, वह सोच एवं विचार के रुक जाने पर, भीतर आश्वस्त हुआ मानस एकरस होकर, बिना-सोच, बिना-विचार, समाधि से उपजे प्रफुल्लता और सुखपूर्ण द्वितीय-ध्यान में प्रवेश पाकर रहता है।

(३) आगे, भिक्षुओं, वह प्रफुल्लता से विरक्त हो, स्मरणशील एवं सचेतता के साथ-साथ तटस्थता धारण कर शरीर से सुख महसूस करता है। जिसे आर्यजन ‘तटस्थ, स्मरणशील, सुखविहारी’ कहते हैं, वह ऐसे तृतीय-ध्यान में प्रवेश पाकर रहता है।

(४) आगे, भिक्षुओं, वह सुख एवं दर्द दोनों हटाकर, खुशी एवं परेशानी पूर्व ही विलुप्त होने पर, तटस्थता और स्मरणशीलता की परिशुद्धता के साथ, अब न-सुख-न-दर्द पूर्ण चतुर्थ-ध्यान में प्रवेश पाकर रहता है।

असीम चित्त

• तब आँखों से रूप देखकर वह प्रिय रूप से मोहित नहीं होता है, अप्रिय रूप से घृणित नहीं होता है, काया की स्मृति को उपस्थित रख, असीम चित्त से विहार करता है। वह उस चेतो-विमुक्ति और प्रज्ञा-विमुक्ति को यथास्वरूप जानता है, जहाँ पाप अकुशल स्वभाव बिना शेष बचे निरुद्ध होते हैं। अनुरोध-विरोध को त्याग कर, वह जो भी अनुभूति को महसूस करता है—सुखद, दुखद, या अदुखद-असुखद—उन अनुभूतियों का न मजा लेता है, न उनका स्वागत करता है, न ही उन्हें पकड़े हुए रहता है।

तब उन अनुभूतियों का मजा न लेने से, उनका स्वागत न करने से, उन्हें पकड़े हुए न रहने से आनंद निरुद्ध होता है। उस आनंद के निरोध से आसक्ति का निरोध होता है। उस आसक्ति के निरोध से भव का निरोध होता है। भव के निरोध से जन्म का निरोध होता है। जन्म के निरोध से बुढ़ापा और मौत; शोक, विलाप, दर्द, व्यथा, और निराशा निरुद्ध होते हैं। इस तरह, इस पूरे दुःख के ढ़ेर का निरोध होता है।

  • कान से ध्वनि सुनकर…
  • नाक से गंध सूँघकर…
  • जीभ से स्वाद चखकर…
  • काया से संस्पर्श महसूस कर…

• मन से स्वभाव जानकर वह प्रिय से मोहित नहीं होता है, अप्रिय से घृणित नहीं होता है, काया की स्मृति को उपस्थित रख, असीम चित्त से विहार करता है। वह उस चेतो-विमुक्ति और प्रज्ञा-विमुक्ति को यथास्वरूप जानता है, जहाँ पाप अकुशल स्वभाव बिना शेष बचे निरुद्ध होते हैं। अनुरोध-विरोध को त्याग कर, वह जो भी अनुभूति को महसूस करता है—सुखद, दुखद, या अदुखद-असुखद—उन अनुभूतियों का न मजा लेता है, न उनका स्वागत करता है, न ही उन्हें पकड़े हुए रहता है।

तब उन अनुभूतियों का मजा न लेने से, उनका स्वागत न करने से, उन्हें पकड़े हुए न रहने से आनंद निरुद्ध होता है। उस आनंद के निरोध से आसक्ति का निरोध होता है। उस आसक्ति के निरोध से भव का निरोध होता है। भव के निरोध से जन्म का निरोध होता है। जन्म के निरोध से बुढ़ापा और मौत; शोक, विलाप, दर्द, व्यथा, और निराशा निरुद्ध होते हैं। इस तरह, इस पूरे दुःख के ढ़ेर का निरोध होता है।

भिक्षुओं, तुम इस संक्षिप्त 5 तृष्णा के अन्त से विमुक्ति को धारण करो। किन्तु यह भिक्षु साति, मछुआरे का पुत्र, तृष्णा के इस महाजाल और गुत्थी में उलझा हुआ है।”

भगवान ने ऐसा कहा। हर्षित होकर भिक्षुओं ने भगवान के कथन का अभिनंदन किया।

सुत्र समाप्त।


  1. यहाँ जो उपमा दी गई है, वह अग्नि-संयोग (अरणि-मंथन) द्वारा आग जलाने की है। जैसे कोई व्यक्ति लकड़ी से लकड़ी रगड़कर आग जलाने की कोशिश करता है, लेकिन न तो गर्मी पैदा कर पाता है, और न ही चिंगारी। उसी तरह साति ने भी कोई ऐसा प्रयास नहीं किया जिससे भीतर बोध की गर्मी पैदा हो, या चिंगारी जले, या प्रकाश उत्पन्न हो। अर्थात, साति ने न तो प्रयास किया, न ही कोई समझ विकसित की। केवल बाहरी रूप में ही भिक्षु बने रहे, लेकिन भीतर मुक्ति के लिए कोई सच्चा प्रयास नहीं था। ↩︎

  2. भूतमिदं का अर्थ है—कुछ ऐसा जो पहले अस्तित्व में नहीं था, लेकिन बाद में उत्पन्न हुआ। इस प्रकार, यह वाक्यांश भी आधारपूर्ण सह-उत्पत्ति (पटिच्च समुप्पाद) की ही व्याख्या के संदर्भ में प्रयुक्त होता है। ↩︎

  3. भगवान इस पूरे सूत्र के दौरान संवादात्मक शैली अपनाते हैं। वे शिक्षा के बारे में अपने श्रावकों से व्यक्तिगत तौर पर पूछते हैं, जिससे यह सुनिश्चित हो सके कि वे प्रत्येक सिद्धांत को सही रूप से समझ रहे हैं, न कि केवल श्रद्धा से स्वीकार कर रहे हैं। मुझे यह शैली सबसे अधिक प्रभावशाली लगती है। ↩︎

  4. गन्धब्ब के बारे में अधिक जानने के लिए हमारी यह शब्दावली पढ़ें। ↩︎

  5. इतने लंबे सूत्र के अंत में ‘संक्षिप्त’ शब्द का इस्तेमाल थोड़ा उलझन में डालता है। इसी तरह का एक उदाहरण हमें मज्झिमनिकाय १४० में मिलता है, जहाँ ‘संक्षिप्त’ अंश को याद करने के लिए कहा गया है। यदि हम इसे पिछले सूत्र से जोड़कर देखें, तो वह एक छोटे से अंश के इर्द-गिर्द घूमता है, जिसे कुल तीन बार दोहराया जाता है। वहाँ भगवान उस ‘संक्षिप्त’ अंश की शुरुआत इस वाक्य से करते हैं: “सभी धर्म पकड़ने योग्य नहीं हैं।” यह स्पष्ट है कि उस संक्षिप्त उपदेश को साति भिक्षु ने पूरी तरह से नजरअंदाज किया, और अपने गलत दृष्टिकोण पर अड़ा रहा, और ‘चैतन्य’ को पकड़े रहा। ↩︎

Pali

३९६. एवं मे सुतं – एकं समयं भगवा सावत्थियं विहरति जेतवने अनाथपिण्डिकस्स आरामे. तेन खो पन समयेन सातिस्स नाम भिक्खुनो केवट्टपुत्तस्स एवरूपं पापकं दिट्ठिगतं उप्पन्नं होति – ‘‘तथाहं भगवता धम्मं देसितं आजानामि यथा तदेविदं विञ्ञाणं सन्धावति संसरति अनञ्ञ’’न्ति. अस्सोसुं खो सम्बहुला भिक्खू – ‘‘सातिस्स किर नाम भिक्खुनो केवट्टपुत्तस्स एवरूपं पापकं दिट्ठिगतं उप्पन्नं – ‘तथाहं भगवता धम्मं देसितं आजानामि यथा तदेविदं विञ्ञाणं सन्धावति संसरति, अनञ्ञ’’’न्ति. अथ खो ते भिक्खू येन साति भिक्खु केवट्टपुत्तो तेनुपसङ्कमिंसु; उपसङ्कमित्वा सातिं भिक्खुं केवट्टपुत्तं एतदवोचुं – ‘‘सच्चं किर ते, आवुसो साति, एवरूपं पापकं दिट्ठिगतं उप्पन्नं – ‘तथाहं भगवता धम्मं देसितं आजानामि यथा तदेविदं विञ्ञाणं सन्धावति संसरति, अनञ्ञ’’’न्ति? ‘‘एवं ब्या खो अहं, आवुसो, भगवता धम्मं देसितं आजानामि यथा तदेविदं विञ्ञाणं सन्धावति संसरति, अनञ्ञ’’न्ति. अथ खो ते भिक्खू सातिं भिक्खुं केवट्टपुत्तं एतस्मा पापका दिट्ठिगता विवेचेतुकामा समनुयुञ्जन्ति समनुगाहन्ति समनुभासन्ति – ‘‘मा एवं, आवुसो साति, अवच, मा भगवन्तं अब्भाचिक्खि, न हि साधु भगवतो अब्भक्खानं, न हि भगवा एवं वदेय्य. अनेकपरियायेनावुसो साति, पटिच्चसमुप्पन्नं विञ्ञाणं वुत्तं भगवता, अञ्ञत्र पच्चया नत्थि विञ्ञाणस्स सम्भवो’’ति. एवम्पि खो साति भिक्खु केवट्टपुत्तो तेहि भिक्खूहि समनुयुञ्जियमानो समनुगाहियमानो समनुभासियमानो तदेव पापकं दिट्ठिगतं थामसा परामासा अभिनिविस्स वोहरति – ‘‘एवं ब्या खो अहं, आवुसो, भगवता धम्मं देसितं आजानामि यथा तदेविदं विञ्ञाणं सन्धावति संसरति अनञ्ञ’’न्ति.

३९७. यतो खो ते भिक्खू नासक्खिंसु सातिं भिक्खुं केवट्टपुत्तं एतस्मा पापका दिट्ठिगता विवेचेतुं, अथ खो ते भिक्खू येन भगवा तेनुपसङ्कमिंसु; उपसङ्कमित्वा भगवन्तं अभिवादेत्वा एकमन्तं निसीदिंसु. एकमन्तं निसिन्ना खो ते भिक्खू भगवन्तं एतदवोचुं – ‘‘सातिस्स नाम, भन्ते, भिक्खुनो केवट्टपुत्तस्स एवरूपं पापकं दिट्ठिगतं उप्पन्नं – ‘तथाहं भगवता धम्मं देसितं आजानामि यथा तदेविदं विञ्ञाणं सन्धावति संसरति, अनञ्ञ’न्ति. अस्सुम्ह खो मयं, भन्ते, सातिस्स किर नाम भिक्खुनो केवट्टपुत्तस्स एवरूपं पापकं दिट्ठिगतं उप्पन्नं – ‘तथाहं भगवता धम्मं देसितं आजानामि यथा तदेविदं विञ्ञाणं सन्धावति संसरति, अनञ्ञ’न्ति. अथ खो मयं, भन्ते, येन साति भिक्खु केवट्टपुत्तो तेनुपसङ्कमिम्ह; उपसङ्कमित्वा सातिं भिक्खुं केवट्टपुत्तं एतदवोचुम्ह – ‘सच्चं किर ते, आवुसो साति, एवरूपं पापकं दिट्ठिगतं उप्पन्नं – ‘‘तथाहं भगवता धम्मं देसितं आजानामि यथा तदेविदं विञ्ञाणं सन्धावति संसरति, अनञ्ञ’’न्ति? एवं वुत्ते, भन्ते, साति भिक्खु केवट्टपुत्तो अम्हे एतदवोच – ‘एवं ब्या खो अहं, आवुसो, भगवता धम्मं देसितं आजानामि यथा तदेविदं विञ्ञाणं सन्धावति संसरति, अनञ्ञ’न्ति. अथ खो मयं, भन्ते, सातिं भिक्खुं केवट्टपुत्तं एतस्मा पापका दिट्ठिगता विवेचेतुकामा समनुयुञ्जिम्ह समनुगाहिम्ह समनुभासिम्ह – ‘मा एवं, आवुसो साति, अवच, मा भगवन्तं अब्भाचिक्खि, न हि साधु भगवतो अब्भक्खानं, न हि भगवा एवं वदेय्य. अनेकपरियायेनावुसो साति, पटिच्चसमुप्पन्नं विञ्ञाणं वुत्तं भगवता, अञ्ञत्र पच्चया नत्थि विञ्ञाणस्स सम्भवो’ति. एवम्पि खो, भन्ते, साति भिक्खु केवट्टपुत्तो अम्हेहि समनुयुञ्जियमानो समनुगाहियमानो समनुभासियमानो तदेव पापकं दिट्ठिगतं थामसा परामसा अभिनिविस्स वोहरति – ‘एवं ब्या खो अहं, आवुसो, भगवता धम्मं देसितं आजानामि यथा तदेविदं विञ्ञाणं सन्धावति संसरति, अनञ्ञ’न्ति. यतो खो मयं, भन्ते, नासक्खिम्ह सातिं भिक्खुं केवट्टपुत्तं एतस्मा पापका दिट्ठिगता विवेचेतुं, अथ मयं एतमत्थं भगवतो आरोचेमा’’ति.

३९८. अथ खो भगवा अञ्ञतरं भिक्खुं आमन्तेसि – ‘‘एहि त्वं भिक्खु, मम वचनेन सातिं भिक्खुं केवट्टपुत्तं आमन्तेहि – ‘सत्था तं, आवुसो साति, आमन्तेती’’’ति. ‘‘एवं, भन्ते’’ति खो सो भिक्खु भगवतो पटिस्सुत्वा येन साति भिक्खु केवट्टपुत्तो तेनुपसङ्कमि; उपसङ्कमित्वा सातिं भिक्खुं केवट्टपुत्तं एतदवोच – ‘‘सत्था तं, आवुसो साति, आमन्तेती’’ति. ‘‘एवमावुसो’’ति खो साति भिक्खु केवट्टपुत्तो तस्स भिक्खुनो पटिस्सुत्वा येन भगवा तेनुपसङ्कमि; उपसङ्कमित्वा भगवन्तं अभिवादेत्वा एकमन्तं निसीदि. एकमन्तं निसिन्नं खो सातिं भिक्खुं केवट्टपुत्तं भगवा एतदवोच – ‘‘सच्चं किर, ते, साति, एवरूपं पापकं दिट्ठिगतं उप्पन्नं – ‘तथाहं भगवता धम्मं देसितं आजानामि यथा तदेविदं विञ्ञाणं सन्धावति संसरति, अनञ्ञ’’’न्ति? ‘‘एवं ब्या खो अहं, भन्ते, भगवता धम्मं देसितं आजानामि यथा तदेविदं विञ्ञाणं सन्धावति संसरति, अनञ्ञ’’न्ति. ‘‘कतमं तं, साति, विञ्ञाण’’न्ति? ‘‘य्वायं, भन्ते, वदो वेदेय्यो तत्र तत्र कल्याणपापकानं कम्मानं विपाकं पटिसंवेदेती’’ति. ‘‘कस्स नु खो नाम त्वं, मोघपुरिस, मया एवं धम्मं देसितं आजानासि? ननु मया, मोघपुरिस, अनेकपरियायेन पटिच्चसमुप्पन्नं विञ्ञाणं वुत्तं, अञ्ञत्र पच्चया नत्थि विञ्ञाणस्स सम्भवोति? अथ च पन त्वं, मोघपुरिस, अत्तना दुग्गहितेन अम्हे चेव अब्भाचिक्खसि, अत्तानञ्च खणसि, बहुञ्च अपुञ्ञं पसवसि. तञ्हि ते, मोघपुरिस, भविस्सति दीघरत्तं अहिताय दुक्खाया’’ति.

३९९. अथ खो भगवा भिक्खू आमन्तेसि – ‘‘तं किं मञ्ञथ, भिक्खवे, अपि नायं साति भिक्खु केवट्टपुत्तो उस्मीकतोपि इमस्मिं धम्मविनये’’ति? ‘‘किञ्हि सिया भन्ते? नो हेतं, भन्ते’’ति. एवं वुत्ते, साति भिक्खु केवट्टपुत्तो तुण्हीभूतो मङ्कुभूतो पत्तक्खन्धो अधोमुखो पज्झायन्तो अप्पटिभानो निसीदि. अथ खो भगवा सातिं भिक्खुं केवट्टपुत्तं तुण्हीभूतं मङ्कुभूतं पत्तक्खन्धं अधोमुखं पज्झायन्तं अप्पटिभानं विदित्वा सातिं भिक्खुं केवट्टपुत्तं एतदवोच – ‘‘पञ्ञायिस्ससि खो त्वं, मोघपुरिस, एतेन सकेन पापकेन दिट्ठिगतेन. इधाहं भिक्खू पटिपुच्छिस्सामी’’ति. अथ खो भगवा भिक्खू आमन्तेसि – ‘‘तुम्हेपि मे, भिक्खवे, एवं धम्मं देसितं आजानाथ यथायं साति भिक्खु केवट्टपुत्तो अत्तना दुग्गहितेन अम्हे चेव अब्भाचिक्खति, अत्तानञ्च खणति, बहुञ्च अपुञ्ञं पसवती’’ति? ‘‘नो हेतं, भन्ते! अनेकपरियायेन हि नो, भन्ते, पटिच्चसमुप्पन्नं विञ्ञाणं वुत्तं भगवता, अञ्ञत्र पच्चया नत्थि विञ्ञाणस्स सम्भवो’’ति. ‘‘साधु साधु, भिक्खवे! साधु खो मे तुम्हे, भिक्खवे, एवं धम्मं देसितं आजानाथ. अनेकपरियायेन हि वो, भिक्खवे, पटिच्चसमुप्पन्नं विञ्ञाणं वुत्तं मया, अञ्ञत्र पच्चया नत्थि विञ्ञाणस्स सम्भवोति. अथ च पनायं साति भिक्खु केवट्टपुत्तो अत्तना दुग्गहितेन अम्हे चेव अब्भाचिक्खति, अत्तानञ्च खणति, बहुञ्च अपुञ्ञं पसवति पसवति. तञ्हि तस्स मोघपुरिसस्स भविस्सति दीघरत्तं अहिताय दुक्खाय.

४००. ‘‘यं यदेव, भिक्खवे, पच्चयं पटिच्च उप्पज्जति विञ्ञाणं, तेन तेनेव विञ्ञाणंत्वेव सङ्ख्यं गच्छति [सङ्खं गच्छति (सी. पी.)]. चक्खुञ्च पटिच्च रूपे च उप्पज्जति विञ्ञाणं, चक्खुविञ्ञाणंत्वेव सङ्ख्यं गच्छति; सोतञ्च पटिच्च सद्दे च उप्पज्जति विञ्ञाणं, सोतविञ्ञाणंत्वेव सङ्ख्यं गच्छति; घानञ्च पटिच्च गन्धे च उप्पज्जति विञ्ञाणं, घानविञ्ञाणंत्वेव सङ्ख्यं गच्छति; जिव्हञ्च पटिच्च रसे च उप्पज्जति विञ्ञाणं, जिव्हाविञ्ञाणंत्वेव सङ्ख्यं गच्छति; कायञ्च पटिच्च फोट्ठब्बे च उप्पज्जति विञ्ञाणं, कायविञ्ञाणंत्वेव सङ्ख्यं गच्छति; मनञ्च पटिच्च धम्मे च उप्पज्जति विञ्ञाणं, मनोविञ्ञाणंत्वेव सङ्ख्यं गच्छति.

‘‘सेय्यथापि, भिक्खवे, यं यदेव पच्चयं पटिच्च अग्गि जलति तेन तेनेव सङ्ख्यं गच्छति. कट्ठञ्च पटिच्च अग्गि जलति, कट्ठग्गित्वेव सङ्ख्यं गच्छति; सकलिकञ्च पटिच्च अग्गि जलति, सकलिकग्गित्वेव सङ्ख्यं गच्छति; तिणञ्च पटिच्च अग्गि जलति, तिणग्गित्वेव सङ्ख्यं गच्छति; गोमयञ्च पटिच्च अग्गि जलति, गोमयग्गित्वेव सङ्ख्यं गच्छति; थुसञ्च पटिच्च अग्गि जलति, थुसग्गित्वेव सङ्ख्यं गच्छति; सङ्कारञ्च पटिच्च अग्गि जलति, सङ्कारग्गित्वेव सङ्ख्यं गच्छति. एवमेव खो, भिक्खवे, यं यदेव पच्चयं पटिच्च उप्पज्जति विञ्ञाणं, तेन तेनेव सङ्ख्यं गच्छति. चक्खुञ्च पटिच्च रूपे च उप्पज्जति विञ्ञाणं, चक्खुविञ्ञाणंत्वेव सङ्ख्यं गच्छति; सोतञ्च पटिच्च सद्दे च उप्पज्जति विञ्ञाणं, सोतविञ्ञाणंत्वेव सङ्ख्यं गच्छति, घानञ्च पटिच्च गन्धे च उप्पज्जति विञ्ञाणं , घाणविञ्ञाणंत्वेव सङ्ख्यं गच्छति, जिव्हञ्च पटिच्च रसे च उप्पज्जति विञ्ञाणं, जिव्हाविञ्ञाणंत्वेव सङ्ख्यं गच्छति. कायञ्च पटिच्च फोट्ठब्बे च उप्पज्जति विञ्ञाणं, कायविञ्ञाणंत्वेव सङ्ख्यं गच्छति. मनञ्च पटिच्च धम्मे च उप्पज्जति विञ्ञाणं, मनोविञ्ञाणंत्वेव सङ्ख्यं गच्छति.

४०१. ‘‘भूतमिदन्ति , भिक्खवे, पस्सथा’’ति?

‘‘एवं, भन्ते’’.

‘‘तदाहारसम्भवन्ति, भिक्खवे, पस्सथा’’ति?

‘‘एवं, भन्ते’’.

‘‘तदाहारनिरोधा यं भूतं, तं निरोधधम्मन्ति, भिक्खवे, पस्सथा’’ति?

‘‘एवं, भन्ते’’.

‘‘भूतमिदं नोस्सूति, भिक्खवे, कङ्खतो उप्पज्जति विचिकिच्छा’’ति?

‘‘एवं, भन्ते’’.

‘‘तदाहारसम्भवं नोस्सूति, भिक्खवे , कङ्खतो उप्पज्जति विचिकिच्छा’’ति?

‘‘एवं, भन्ते’’.

‘‘तदाहारनिरोधा यं भूतं, तं निरोधधम्मं नोस्सूति, भिक्खवे, कङ्खतो उप्पज्जति विचिकिच्छा’’ति?

‘‘एवं, भन्ते’’.

‘‘भूतमिदन्ति, भिक्खवे, यथाभूतं सम्मप्पञ्ञाय पस्सतो या विचिकिच्छा सा पहीयती’’ति?

‘‘एवं, भन्ते’’.

‘‘तदाहारसम्भवन्ति, भिक्खवे, यथाभूतं सम्मप्पञ्ञाय पस्सतो या विचिकिच्छा सा पहीयती’’ति?

‘‘एवं, भन्ते’’.

‘‘तदाहारनिरोधा यं भूतं, तं निरोधधम्मन्ति, भिक्खवे, यथाभूतं सम्मप्पञ्ञाय पस्सतो या विचिकिच्छा सा पहीयती’’ति?

‘‘एवं , भन्ते’’.

‘‘भूतमिदन्ति, भिक्खवे, इतिपि वो एत्थ निब्बिचिकिच्छा’’ति?

‘‘एवं, भन्ते’’.

‘‘तदाहारसम्भवन्ति, भिक्खवे, इतिपि वो एत्थ निब्बिचिकिच्छा’’ति?

‘‘एवं, भन्ते’’.

‘‘तदाहारनिरोधा यं भूतं तं निरोधधम्मन्ति, भिक्खवे, इतिपि वो एत्थ निब्बिचिकिच्छा’’ति?

‘‘एवं, भन्ते’’.

‘‘भूतमिदन्ति, भिक्खवे, यथाभूतं सम्मप्पञ्ञाय सुदिट्ठ’’न्ति?

‘‘एवं, भन्ते’’.

‘‘तदाहारसम्भवन्ति, भिक्खवे, यथाभूतं सम्मप्पञ्ञाय सुदिट्ठ’’न्ति?

‘‘एवं, भन्ते’’.

‘‘तदाहारनिरोधा यं भूतं तं निरोधधम्मन्ति, भिक्खवे, यथाभूतं सम्मप्पञ्ञाय सुदिट्ठ’’न्ति?

‘‘एवं, भन्ते’’.

‘‘इमं चे तुम्हे, भिक्खवे, दिट्ठिं एवं परिसुद्धं एवं परियोदातं अल्लीयेथ केलायेथ धनायेथ ममायेथ, अपि नु मे तुम्हे, भिक्खवे, कुल्लूपमं धम्मं देसितं आजानेय्याथ नित्थरणत्थाय नो गहणत्थाया’’ति?

‘‘नो हेतं, भन्ते’’.

‘‘इमं चे तुम्हे, भिक्खवे, दिट्ठिं एवं परिसुद्धं एवं परियोदातं न अल्लीयेथ न केलायेथ न धनायेथ न ममायेथ, अपि नु मे तुम्हे, भिक्खवे, कुल्लूपमं धम्मं देसितं आजानेय्याथ नित्थरणत्थाय नो गहणत्थाया’’ति?

‘‘एवं, भन्ते’’.

४०२. ‘‘चत्तारोमे, भिक्खवे, आहारा भूतानं वा सत्तानं ठितिया, सम्भवेसीनं वा अनुग्गहाय. कतमे चत्तारो? कबळीकारो आहारो ओळारिको वा सुखुमो वा, फस्सो दुतियो, मनोसञ्चेतना ततिया, विञ्ञाणं चतुत्थं.

‘‘इमे च, भिक्खवे, चत्तारो आहारा किंनिदाना किंसमुदया किंजातिका किंपभवा?

‘‘इमे चत्तारो आहारा तण्हानिदाना तण्हासमुदया तण्हाजातिका तण्हापभवा.

‘‘तण्हा चायं, भिक्खवे, किंनिदाना किंसमुदया किंजातिका किंपभवा?

‘‘तण्हा वेदनानिदाना वेदनासमुदया वेदनाजातिका वेदनापभवा.

‘‘वेदना चायं, भिक्खवे, किंनिदाना किंसमुदया किंजातिका किंपभवा?

‘‘वेदना फस्सनिदाना फस्ससमुदया फस्सजातिका फस्सपभवा .

‘‘फस्सो चायं, भिक्खवे, किंनिदानो किंसमुदयो किंजातिको किंपभवो?

‘‘फस्सो सळायतननिदानो सळायतनसमुदयो सळायतनजातिको सळायतनपभवो.

‘‘सळायतनं चिदं, भिक्खवे, किंनिदानं किंसमुदयं किंजातिकं किंपभवं?

‘‘सळायतनं नामरूपनिदानं नामरूपसमुदयं नामरूपजातिकं नामरूपपभवं.

‘‘नामरूपं चिदं, भिक्खवे, किंनिदानं किंसमुदयं किंजातिकं किंपभवं?

‘‘नामरूपं विञ्ञाणनिदानं विञ्ञाणसमुदयं विञ्ञाणजातिकं विञ्ञाणपभवं.

‘‘विञ्ञाणं चिदं, भिक्खवे, किंनिदानं किंसमुदयं किंजातिकं किंपभवं?

‘‘विञ्ञाणं सङ्खारनिदानं सङ्खारसमुदयं सङ्खारजातिकं सङ्खारपभवं.

‘‘सङ्खारा चिमे, भिक्खवे, किंनिदाना किंसमुदया किंजातिका किंपभवा?

‘‘सङ्खारा अविज्जानिदाना अविज्जासमुदया अविज्जाजातिका अविज्जापभवा.

‘‘इति खो, भिक्खवे, अविज्जापच्चया सङ्खारा, सङ्खारपच्चया विञ्ञाणं, विञ्ञाणपच्चया नामरूपं, नामरूपपच्चया सळायतनं, सळायतनपच्चया फस्सो, फस्सपच्चया वेदना, वेदनापच्चया तण्हा, तण्हापच्चया उपादानं, उपादानपच्चया भवो, भवपच्चया जाति, जातिपच्चया जरामरणं सोकपरिदेवदुक्खदोमनस्सुपायासा सम्भवन्ति. एवमेतस्स केवलस्स दुक्खक्खन्धस्स समुदयो होति.’’’

४०३. ‘‘जातिपच्चया जरामरणन्ति इति खो पनेतं वुत्तं; जातिपच्चया नु खो, भिक्खवे, जरामरणं, नो वा, कथं वा एत्थ [कथं वा वो एत्थ (?)] होती’’ति? ‘‘जातिपच्चया, भन्ते, जरामरणं; एवं नो एत्थ होति [एवं नो एत्थ होतीति (क.)] – जातिपच्चया जरामरण’’न्ति. ‘‘भवपच्चया जातीति इति खो पनेतं वुत्तं; भवपच्चया नु खो, भिक्खवे, जाति, नो वा, कथं वा एत्थ होती’’ति? ‘‘भवपच्चया, भन्ते , जाति; एवं नो एत्थ होति – भवपच्चया जाती’’ति . ‘‘उपादानपच्चया भवोति इति खो पनेतं वुत्तं; उपादानपच्चया नु खो, भिक्खवे, भवो, नो वा, कथं वा एत्थ होती’’ति? ‘‘उपादानपच्चया, भन्ते, भवो; एवं नो एत्थ होति – उपादानपच्चया भवो’’ति. ‘‘तण्हापच्चया उपादानन्ति इति खो पनेतं वुत्तं, तण्हापच्चया नु खो, भिक्खवे, उपादानं, नो वा, कथं वा एत्थ होती’’ति? ‘‘तण्हापच्चया, भन्ते, उपादानं; एवं नो एत्थ होति – तण्हापच्चया उपादान’’न्ति. ‘‘वेदनापच्चया तण्हाति इति खो पनेतं वुत्तं; वेदनापच्चया नु खो, भिक्खवे, तण्हा, नो वा, कथं वा एत्थ होती’’ति? ‘‘वेदनापच्चया, भन्ते, तण्हा; एवं नो एत्थ होति – वेदनापच्चया तण्हा’’ति. ‘‘फस्सपच्चया वेदनाति इति खो पनेतं वुत्तं; फस्सपच्चया नु खो, भिक्खवे, वेदना, नो वा, कथं वा एत्थ होती’’ति? ‘‘फस्सपच्चया, भन्ते, वेदना; एवं नो एत्थ होति – फस्सपच्चया वेदना’’ति. ‘‘सळायतनपच्चया फस्सोति इति खो पनेतं वुत्तं; सळायतनपच्चया नु खो, भिक्खवे, फस्सो, नो वा, कथं वा एत्थ होती’’ति? ‘‘सळायतनपच्चया, भन्ते, फस्सो; एवं नो एत्थ होति – सळायतनपच्चया फस्सो’’ति. ‘‘नामरूपपच्चया सळायतनन्ति इति खो पनेतं वुत्तं; नामरूपपच्चया नु खो, भिक्खवे, सळायतनं, नो वा, कथं वा एत्थ होती’’ति? ‘‘नामरूपपच्चया, भन्ते, सळायतनं; एवं नो एत्थ होति – नामरूपपच्चया सळायतन’’न्ति. ‘‘विञ्ञाणपच्चया नामरूपन्ति इति खो पनेतं वुत्तं; विञ्ञाणपच्चया नु खो, भिक्खवे, नामरूपं, नो वा, कथं वा एत्थ होती’’ति? ‘‘विञ्ञाणपच्चया, भन्ते, नामरूपं; एवं नो एत्थ होति – विञ्ञाणपच्चया नामरूप’’न्ति. ‘‘सङ्खारपच्चया विञ्ञाणन्ति इति खो पनेतं वुत्तं; सङ्खारपच्चया नु खो, भिक्खवे, विञ्ञाणं, नो वा, कथं वा एत्थ होती’’ति? ‘‘सङ्खारपच्चया, भन्ते, विञ्ञाणं; एवं नो एत्थ होति – सङ्खारपच्चया विञ्ञाण’’न्ति. ‘‘अविज्जापच्चया सङ्खाराति इति खो पनेतं वुत्तं; अविज्जापच्चया नु खो, भिक्खवे, सङ्खारा, नो वा, कथं वा एत्थ होती’’ति? ‘‘अविज्जापच्चया, भन्ते, सङ्खारा; एवं नो एत्थ होति – अविज्जापच्चया सङ्खारा’’ति.

४०४. ‘‘साधु, भिक्खवे. इति खो, भिक्खवे, तुम्हेपि एवं वदेथ, अहम्पि एवं वदामि – इमस्मिं सति इदं होति, इमस्सुप्पादा इदं उप्पज्जति, यदिदं – अविज्जापच्चया सङ्खारा, सङ्खारपच्चया विञ्ञाणं, विञ्ञाणपच्चया नामरूपं, नामरूपपच्चया सळायतनं, सळायतनपच्चया फस्सो, फस्सपच्चया वेदना, वेदनापच्चया तण्हा, तण्हापच्चया उपादानं, उपादानपच्चया भवो, भवपच्चया जाति, जातिपच्चया जरामरणं सोकपरिदेवदुक्खदोमनस्सुपायासा सम्भवन्ति. एवमेतस्स केवलस्स दुक्खक्खन्धस्स समुदयो होति.

‘‘अविज्जायत्वेव असेसविरागनिरोधा सङ्खारनिरोधो, सङ्खारनिरोधा विञ्ञाणनिरोधो, विञ्ञाणनिरोधा नामरूपनिरोधो, नामरूपनिरोधा सळायतननिरोधो , सळायतननिरोधा फस्सनिरोधो, फस्सनिरोधा वेदनानिरोधो, वेदनानिरोधा तण्हानिरोधो, तण्हानिरोधा उपादाननिरोधो, उपादाननिरोधा भवनिरोधो, भवनिरोधा जातिनिरोधो, जातिनिरोधा जरामरणं सोकपरिदेवदुक्खदोमनस्सुपायासा निरुज्झन्ति. एवमेतस्स केवलस्स दुक्खक्खन्धस्स निरोधो होति.

४०५. ‘‘जातिनिरोधा जरामरणनिरोधोति इति खो पनेतं वुत्तं; जातिनिरोधा नु खो, भिक्खवे, जरामरणनिरोधो, नो वा, कथं वा एत्थ होती’’ति? ‘‘जातिनिरोधा, भन्ते, जरामरणनिरोधो; एवं नो एत्थ होति – जातिनिरोधा जरामरणनिरोधो’’ति. ‘‘भवनिरोधा जातिनिरोधोति इति खो पनेतं वुत्तं; भवनिरोधा नु खो, भिक्खवे, जातिनिरोधो, नो वा, कथं वा एत्थ होती’’ति? ‘‘भवनिरोधा, भन्ते, जातिनिरोधो; एवं नो एत्थ होति – भवनिरोधा जातिनिरोधो’’ति. ‘‘उपादाननिरोधा भवनिरोधोति इति खो पनेतं वुत्तं; उपादाननिरोधा नु खो, भिक्खवे, भवनिरोधो, नो वा, कथं वा एत्थ होती’’ति? ‘‘उपादाननिरोधा, भन्ते, भवनिरोधो; एवं नो एत्थ होति – उपादाननिरोधा भवनिरोधो’’ति. ‘‘तण्हानिरोधा उपादाननिरोधोति इति खो पनेतं वुत्तं; तण्हानिरोधा नु खो, भिक्खवे, उपादाननिरोधो, नो वा, कथं वा एत्थ होती’’ति? ‘‘तण्हानिरोधा, भन्ते, उपादाननिरोधो; एवं नो एत्थ होति – तण्हानिरोधा उपादाननिरोधो’’ति. ‘‘वेदनानिरोधा तण्हानिरोधोति इति खो पनेतं वुत्तं; वेदनानिरोधा नु खो, भिक्खवे, तण्हानिरोधो, नो वा, कथं वा एत्थ होती’’ति? ‘‘वेदनानिरोधा, भन्ते, तण्हानिरोधो; एवं नो एत्थ होति – वेदनानिरोधा तण्हानिरोधो’’ति. ‘‘फस्सनिरोधा वेदनानिरोधोति इति खो पनेतं वुत्तं; फस्सनिरोधा नु खो, भिक्खवे, वेदनानिरोधो, नो वा, कथं वा एत्थ होती’’ति? ‘‘फस्सनिरोधा, भन्ते, वेदनानिरोधो; एवं नो एत्थ होति – फस्सनिरोधा वेदनानिरोधो’’ति. ‘‘सळायतननिरोधा फस्सनिरोधोति इति खो पनेतं वुत्तं; सळायतननिरोधा नु खो, भिक्खवे, फस्सनिरोधो, नो वा , कथं वा एत्थ होतीति? सळायतननिरोधा, भन्ते, फस्सनिरोधो; एवं नो एत्थ होति – सळायतननिरोधा फस्सनिरोधो’’ति. ‘‘नामरूपनिरोधा सळायतननिरोधोति इति खो पनेतं वुत्तं; नामरूपनिरोधा नु खो, भिक्खवे, सळायतननिरोधो, नो वा, कथं वा एत्थ होती’’ति? ‘‘नामरूपनिरोधा, भन्ते, सळायतननिरोधो; एवं नो एत्थ होति – नामरूपनिरोधा सळायतननिरोधो’’ति. ‘‘विञ्ञाणनिरोधा नामरूपनिरोधोति इति खो पनेतं वुत्तं; विञ्ञाणनिरोधा नु खो, भिक्खवे, नामरूपनिरोधो, नो वा, कथं वा एत्थ होती’’ति? ‘‘विञ्ञाणनिरोधा, भन्ते, नामरूपनिरोधो; एवं नो एत्थ होति – विञ्ञाणनिरोधा नामरूपनिरोधो’’ति. ‘‘सङ्खारनिरोधा विञ्ञाणनिरोधोति इति खो पनेतं वुत्तं; सङ्खारनिरोधा नु खो, भिक्खवे, विञ्ञाणनिरोधो, नो वा, कथं वा एत्थ होती’’ति? ‘‘सङ्खारनिरोधा, भन्ते , विञ्ञाणनिरोधो; एवं नो एत्थ होति – सङ्खारनिरोधा विञ्ञाणनिरोधो’’ति. ‘‘अविज्जानिरोधा सङ्खारनिरोधोति इति खो पनेतं वुत्तं; अविज्जानिरोधा नु खो, भिक्खवे, सङ्खारनिरोधो, नो वा, कथं वा एत्थ होती’’ति? ‘‘अविज्जानिरोधा, भन्ते, सङ्खारनिरोधो; एवं नो एत्थ होति – अविज्जानिरोधा सङ्खारनिरोधो’’ति.

४०६. ‘‘साधु, भिक्खवे. इति खो, भिक्खवे, तुम्हेपि एवं वदेथ, अहम्पि एवं वदामि – इमस्मिं असति इदं न होति, इमस्स निरोधा इदं निरुज्झति, यदिदं – अविज्जानिरोधा सङ्खारनिरोधो, सङ्खारनिरोधा विञ्ञाणनिरोधो, विञ्ञाणनिरोधा नामरूपनिरोधो, नामरूपनिरोधा सळायतननिरोधो, सळायतननिरोधा फस्सनिरोधो, फस्सनिरोधा वेदनानिरोधो, वेदनानिरोधा तण्हानिरोधो, तण्हानिरोधा उपादाननिरोधो, उपादाननिरोधा भवनिरोधो, भवनिरोधा जातिनिरोधो, जातिनिरोधा जरामरणं सोकपरिदेवदुक्खदोमनस्सुपायासा निरुज्झन्ति. एवमेतस्स केवलस्स दुक्खक्खन्धस्स निरोधो होति.

४०७. ‘‘अपि नु तुम्हे, भिक्खवे, एवं जानन्ता एवं पस्सन्ता पुब्बन्तं वा पटिधावेय्याथ – ‘अहेसुम्ह नु खो मयं अतीतमद्धानं, ननु खो अहेसुम्ह अतीतमद्धानं, किं नु खो अहेसुम्ह अतीतमद्धानं, कथं नु खो अहेसुम्ह अतीतमद्धानं, किं हुत्वा किं अहेसुम्ह नु खो मयं अतीतमद्धान’’’न्ति?

‘‘नो हेतं, भन्ते’’.

‘‘अपि नु तुम्हे, भिक्खवे, एवं जानन्ता एवं पस्सन्ता अपरन्तं वा पटिधावेय्याथ – भविस्साम नु खो मयं अनागतमद्धानं, ननु खो भविस्साम अनागतमद्धानं, किं नु खो भविस्साम अनागतमद्धानं, कथं नु खो भविस्साम अनागतमद्धानं, किं हुत्वा किं भविस्साम नु खो मयं अनागतमद्धान’’न्ति?

‘‘नो हेतं, भन्ते’’.

‘‘अपि नु तुम्हे, भिक्खवे, एवं जानन्ता एवं पस्सन्ता एतरहि वा पच्चुप्पन्नमद्धानं अज्झत्तं कथंकथी अस्सथ – अहं नु खोस्मि, नो नु खोस्मि, किं नु खोस्मि, कथं नु खोस्मि, अयं नु खो सत्तो कुतो आगतो, सो कुहिंगामी भविस्सती’’ति?

‘‘नो हेतं, भन्ते’’.

‘‘अपि नु तुम्हे, भिक्खवे, एवं जानन्ता एवं पस्सन्ता एवं वदेय्याथ – सत्था नो गरु, सत्थुगारवेन च मयं एवं वदेमा’’ति?

‘‘नो हेतं, भन्ते’’.

‘‘अपि नु तुम्हे, भिक्खवे, एवं जानन्ता एवं पस्सन्ता एवं वदेय्याथ – समणो एवमाह, समणा च नाम मयं एवं वदेमा’’ति?

‘‘नो हेतं, भन्ते’’.

‘‘अपि नु तुम्हे, भिक्खवे, एवं जानन्ता एवं पस्सन्ता अञ्ञं सत्थारं उद्दिसेय्याथा’’ति?

‘‘नो हेतं, भन्ते’’.

‘‘अपि नु तुम्हे, भिक्खवे, एवं जानन्ता एवं पस्सन्ता यानि तानि पुथुसमणब्राह्मणानं वत कोतूहलमङ्गलानि तानि सारतो पच्चागच्छेय्याथा’’ति?

‘‘नो हेतं, भन्ते’’.

‘‘ननु, भिक्खवे, यदेव तुम्हाकं सामं ञातं सामं दिट्ठं सामं विदितं, तदेव तुम्हे वदेथा’’ति.

‘‘एवं, भन्ते’’.

‘‘साधु, भिक्खवे, उपनीता खो मे तुम्हे, भिक्खवे, इमिना सन्दिट्ठिकेन धम्मेन अकालिकेन एहिपस्सिकेन ओपनेय्यिकेन पच्चत्तं वेदितब्बेन विञ्ञूहि. सन्दिट्ठिको अयं, भिक्खवे, धम्मो अकालिको एहिपस्सिको ओपनेय्यिको पच्चत्तं वेदितब्बो विञ्ञूहि – इति यन्तं वुत्तं, इदमेतं पटिच्च वुत्त’’न्ति.

४०८. ‘‘तिण्णं खो पन, भिक्खवे, सन्निपाता गब्भस्सावक्कन्ति होति. इध मातापितरो च सन्निपतिता होन्ति, माता च न उतुनी होति, गन्धब्बो च न पच्चुपट्ठितो होति, नेव ताव गब्भस्सावक्कन्ति होति. इध मातापितरो च सन्निपतिता होन्ति, माता च उतुनी होति, गन्धब्बो च न पच्चुपट्ठितो होति, नेव ताव गब्भस्सावक्कन्ति होति. यतो च खो, भिक्खवे, मातापितरो च सन्निपतिता होन्ति, माता च उतुनी होति, गन्धब्बो च पच्चुपट्ठितो होति – एवं तिण्णं सन्निपाता गब्भस्सावक्कन्ति होति. तमेनं, भिक्खवे, माता नव वा दस वा मासे गब्भं कुच्छिना परिहरति महता संसयेन गरुभारं [गरुम्भारं (सी. पी.)]. तमेनं, भिक्खवे, माता नवन्नं वा दसन्नं वा मासानं अच्चयेन विजायति महता संसयेन गरुभारं. तमेनं जातं समानं सकेन लोहितेन पोसेति. लोहितञ्हेतं, भिक्खवे, अरियस्स विनये यदिदं मातुथञ्ञं. स खो सो, भिक्खवे, कुमारो वुद्धिमन्वाय इन्द्रियानं परिपाकमन्वाय यानि तानि कुमारकानं कीळापनकानि तेहि कीळति, सेय्यथिदं – वङ्ककं घटिकं मोक्खचिकं चिङ्गुलकं पत्ताळ्हकं रथकं धनुकं. स खो सो, भिक्खवे, कुमारो वुद्धिमन्वाय इन्द्रियानं परिपाकमन्वाय पञ्चहि कामगुणेहि समप्पितो समङ्गीभूतो परिचारेति – चक्खुविञ्ञेय्येहि रूपेहि इट्ठेहि कन्तेहि मनापेहि पियरूपेहि कामूपसंहितेहि रजनीयेहि, सोतविञ्ञेय्येहि सद्देहि… घानविञ्ञेय्येहि गन्धेहि… जिव्हाविञ्ञेय्येहि रसेहि… कायविञ्ञेय्येहि फोट्ठब्बेहि इट्ठेहि कन्तेहि मनापेहि पियरूपेहि कामूपसंहितेहि रजनीयेहि.

४०९. ‘‘सो चक्खुना रूपं दिस्वा पियरूपे रूपे सारज्जति, अप्पियरूपे रूपे ब्यापज्जति, अनुपट्ठितकायसति च विहरति परित्तचेतसो. तञ्च चेतोविमुत्तिं पञ्ञाविमुत्तिं यथाभूतं नप्पजानाति – यत्थस्स ते पापका अकुसला धम्मा अपरिसेसा निरुज्झन्ति. सो एवं अनुरोधविरोधं समापन्नो यं किञ्चि वेदनं वेदेति सुखं वा दुक्खं वा अदुक्खमसुखं वा, सो तं वेदनं अभिनन्दति अभिवदति अज्झोसाय तिट्ठति. तस्स तं वेदनं अभिनन्दतो अभिवदतो अज्झोसाय तिट्ठतो उप्पज्जति नन्दी . या वेदनासु नन्दी तदुपादानं, तस्सुपादानपच्चया भवो, भवपच्चया जाति, जातिपच्चया जरामरणं सोकपरिदेवदुक्खदोमनस्सुपायासा सम्भवन्ति. एवमेतस्स केवलस्स दुक्खक्खन्धस्स समुदयो होति. सोतेन सद्दं सुत्वा…पे… घानेन गन्धं घायित्वा…पे… जिव्हाय रसं सायित्वा…पे… कायेन फोट्ठब्बं फुसित्वा…पे… मनसा धम्मं विञ्ञाय पियरूपे धम्मे सारज्जति, अप्पियरूपे धम्मे ब्यापज्जति, अनुपट्ठितकायसति च विहरति परित्तचेतसो. तञ्च चेतोविमुत्तिं पञ्ञाविमुत्तिं यथाभूतं नप्पजानाति – यत्थस्स ते पापका अकुसला धम्मा अपरिसेसा निरुज्झन्ति. सो एवं अनुरोधविरोधं समापन्नो यं किञ्चि वेदनं वेदेति सुखं वा दुक्खं वा अदुक्खमसुखं वा, सो तं वेदनं अभिनन्दति अभिवदति अज्झोसाय तिट्ठति. तस्स तं वेदनं अभिनन्दतो अभिवदतो अज्झोसाय तिट्ठतो उप्पज्जति नन्दी. या वेदनासु नन्दी तदुपादानं, तस्सुपादानपच्चया भवो, भवपच्चया जाति, जातिपच्चया जरामरणं सोकपरिदेवदुक्खदोमनस्सुपायासा सम्भवन्ति. एवमेतस्स केवलस्स दुक्खक्खन्धस्स समुदयो होति.

४१०. ‘‘इध, भिक्खवे, तथागतो लोके उप्पज्जति अरहं सम्मासम्बुद्धो विज्जाचरणसम्पन्नो सुगतो लोकविदू अनुत्तरो पुरिसदम्मसारथि सत्था देवमनुस्सानं बुद्धो भगवा. सो इमं लोकं सदेवकं समारकं सब्रह्मकं सस्समणब्राह्मणिं पजं सदेवमनुस्सं सयं अभिञ्ञा सच्छिकत्वा पवेदेति. सो धम्मं देसेति आदिकल्याणं मज्झेकल्याणं परियोसानकल्याणं सात्थं सब्यञ्जनं; केवलपरिपुण्णं परिसुद्धं ब्रह्मचरियं पकासेति. तं धम्मं सुणाति गहपति वा गहपतिपुत्तो वा अञ्ञतरस्मिं वा कुले पच्चाजातो. सो तं धम्मं सुत्वा तथागते सद्धं पटिलभति. सो तेन सद्धापटिलाभेन समन्नागतो इति पटिसञ्चिक्खति – ‘सम्बाधो घरावासो रजापथो, अब्भोकासो पब्बज्जा. नयिदं सुकरं अगारं अज्झावसता एकन्तपरिपुण्णं एकन्तपरिसुद्धं सङ्खलिखितं ब्रह्मचरियं चरितुं. यंनूनाहं केसमस्सुं ओहारेत्वा, कासायानि वत्थानि अच्छादेत्वा, अगारस्मा अनगारियं पब्बजेय्य’’’न्ति. सो अपरेन समयेन अप्पं वा भोगक्खन्धं पहाय, महन्तं वा भोगक्खन्धं पहाय, अप्पं वा ञातिपरिवट्टं पहाय, महन्तं वा ञातिपरिवट्टं पहाय, केसमस्सुं ओहारेत्वा, कासायानि वत्थानि अच्छादेत्वा, अगारस्मा अनगारियं पब्बजति.

४११. ‘‘सो एवं पब्बजितो समानो भिक्खूनं सिक्खासाजीवसमापन्नो पाणातिपातं पहाय पाणातिपाता पटिविरतो होति, निहितदण्डो निहितसत्थो लज्जी दयापन्नो सब्बपाणभूतहितानुकम्पी विहरति.

‘‘अदिन्नादानं पहाय अदिन्नादाना पटिविरतो होति, दिन्नादायी दिन्नपाटिकङ्खी अथेनेन सुचिभूतेन अत्तना विहरति.

‘‘अब्रह्मचरियं पहाय ब्रह्मचारी होति, आराचारी विरतो मेथुना गामधम्मा.

‘‘मुसावादं पहाय मुसावादा पटिविरतो होति, सच्चवादी सच्चसन्धो थेतो पच्चयिको अविसंवादको लोकस्स.

‘‘पिसुणं वाचं पहाय पिसुणाय वाचाय पटिविरतो होति – इतो सुत्वा न अमुत्र अक्खाता इमेसं भेदाय, अमुत्र वा सुत्वा न इमेसं अक्खाता अमूसं भेदाय. इति भिन्नानं वा सन्धाता, सहितानं वा अनुप्पदाता समग्गारामो समग्गरतो समग्गनन्दी, समग्गकरणिं वाचं भासिता होति.

‘‘फरुसं वाचं पहाय फरुसाय वाचाय पटिविरतो होति – या सा वाचा नेला कण्णसुखा पेमनीया हदयङ्गमा पोरी बहुजनकन्ता बहुजनमनापा तथारूपिं वाचं भासिता होति.

‘‘सम्फप्पलापं पहाय सम्फप्पलापा पटिविरतो होति, कालवादी भूतवादी अत्थवादी धम्मवादी विनयवादी, निधानवतिं वाचं भासिता कालेन, सापदेसं परियन्तवतिं अत्थसंहितं.

‘‘सो बीजगामभूतगामसमारम्भा पटिविरतो होति, एकभत्तिको होति रत्तूपरतो, विरतो विकालभोजना. नच्चगीतवादितविसूकदस्सना पटिविरतो होति, मालागन्धविलेपनधारणमण्डनविभूसनट्ठाना पटिविरतो होति, उच्चासयनमहासयना पटिविरतो होति, जातरूपरजतपटिग्गहणा पटिविरतो होति, आमकधञ्ञपटिग्गहणा पटिविरतो होति, आमकमंसपटिग्गहणा पटिविरतो होति, इत्थिकुमारिकपटिग्गहणा पटिविरतो होति, दासिदासपटिग्गहणा पटिविरतो होति, अजेळकपटिग्गहणा पटिविरतो होति, कुक्कुटसूकरपटिग्गहणा पटिविरतो होति, हत्थिगवास्सवळवपटिग्गहणा पटिविरतो होति, खेत्तवत्थुपटिग्गहणा पटिविरतो होति, दूतेय्यपहिणगमनानुयोगा पटिविरतो होति, कयविक्कया पटिविरतो होति, तुलाकूटकंसकूटमानकूटा पटिविरतो होति, उक्कोटनवञ्चन-निकति-साचियोगा पटिविरतो होति, छेदन-वधबन्धनविपरामोस-आलोप-सहसाकारा पटिविरतो होति [पस्स म. नि. १.२९३ चूळहत्थिपदोपमे].

‘‘सो सन्तुट्ठो होति कायपरिहारिकेन चीवरेन कुच्छिपरिहारिकेन पिण्डपातेन. सो येन येनेव पक्कमति समादायेव पक्कमति . सेय्यथापि नाम पक्खी सकुणो येन येनेव डेति सपत्तभारोव डेति, एवमेव भिक्खु सन्तुट्ठो होति कायपरिहारिकेन चीवरेन, कुच्छिपरिहारिकेन पिण्डपातेन. सो येन येनेव पक्कमति समादायेव पक्कमति. सो इमिना अरियेन सीलक्खन्धेन समन्नागतो अज्झत्तं अनवज्जसुखं पटिसंवेदेति.

‘‘सो चक्खुना रूपं दिस्वा न निमित्तग्गाही होति नानुब्यञ्जनग्गाही. यत्वाधिकरणमेनं चक्खुन्द्रियं असंवुतं विहरन्तं अभिज्झादोमनस्सा पापका अकुसला धम्मा अन्वास्सवेय्युं तस्स संवराय पटिपज्जति, रक्खति चक्खुन्द्रियं, चक्खुन्द्रिये संवरं आपज्जति. सोतेन सद्दं सुत्वा…पे… घानेन गन्धं घायित्वा…पे… जिव्हाय रसं सायित्वा…पे… कायेन फोट्ठब्बं फुसित्वा…पे… मनसा धम्मं विञ्ञाय न निमित्तग्गाही होति नानुब्यञ्जनग्गाही. यत्वाधिकरणमेनं मनिन्द्रियं असंवुतं विहरन्तं अभिज्झादोमनस्सा पापका अकुसला धम्मा अन्वास्सवेय्युं तस्स संवराय पटिपज्जति, रक्खति मनिन्द्रियं मनिन्द्रिये संवरं आपज्जति. सो इमिना अरियेन इन्द्रियसंवरेन समन्नागतो अज्झत्तं अब्यासेकसुखं पटिसंवेदेति.

‘‘सो अभिक्कन्ते पटिक्कन्ते सम्पजानकारी होति, आलोकिते विलोकिते सम्पजानकारी होति , समिञ्जिते पसारिते सम्पजानकारी होति, सङ्घाटिपत्तचीवरधारणे सम्पजानकारी होति, असिते पीते खायिते सायिते सम्पजानकारी होति, उच्चारपस्सावकम्मे सम्पजानकारी होति, गते ठिते निसिन्ने सुत्ते जागरिते भासिते तुण्हीभावे सम्पजानकारी होति.

४१२. ‘‘सो इमिना च अरियेन सीलक्खन्धेन समन्नागतो, (इमाय च अरियाय सन्तुट्ठिया समन्नागतो) [पस्स म. नि. १.२९६ चूळहत्थिपदोपमे], इमिना च अरियेन इन्द्रियसंवरेन समन्नागतो, इमिना च अरियेन सतिसम्पजञ्ञेन समन्नागतो, विवित्तं सेनासनं भजति – अरञ्ञं रुक्खमूलं पब्बतं कन्दरं गिरिगुहं सुसानं वनपत्थं अब्भोकासं पलालपुञ्जं. सो पच्छाभत्तं पिण्डपातपटिक्कन्तो निसीदति पल्लङ्कं आभुजित्वा, उजुं कायं पणिधाय, परिमुखं सतिं उपट्ठपेत्वा. सो अभिज्झं लोके पहाय विगताभिज्झेन चेतसा विहरति, अभिज्झाय चित्तं परिसोधेति; ब्यापादपदोसं पहाय अब्यापन्नचित्तो विहरति, सब्बपाणभूतहितानुकम्पी, ब्यापादपदोसा चित्तं परिसोधेति; थीनमिद्धं पहाय विगतथीनमिद्धो विहरति आलोकसञ्ञी, सतो सम्पजानो, थीनमिद्धा चित्तं परिसोधेति; उद्धच्चकुक्कुच्चं पहाय अनुद्धतो विहरति अज्झत्तं वूपसन्तचित्तो, उद्धच्चकुक्कुच्चा चित्तं परिसोधेति; विचिकिच्छं पहाय तिण्णविचिकिच्छो विहरति अकथंकथी कुसलेसु धम्मेसु, विचिकिच्छाय चित्तं परिसोधेति.

४१३. ‘‘सो इमे पञ्च नीवरणे पहाय चेतसो उपक्किलेसे पञ्ञाय दुब्बलीकरणे, विविच्चेव कामेहि विविच्च अकुसलेहि धम्मेहि सवितक्कं सविचारं विवेकजं पीतिसुखं पठमं झानं उपसम्पज्ज विहरति. पुन चपरं, भिक्खवे, भिक्खु वितक्कविचारानं वूपसमा अज्झत्तं सम्पसादनं चेतसो एकोदिभावं अवितक्कं अविचारं समाधिजं पीतिसुखं दुतियं झानं…पे… ततियं झानं…पे… चतुत्थं झानं उपसम्पज्ज विहरति.

४१४. ‘‘सो चक्खुना रूपं दिस्वा पियरूपे रूपे न सारज्जति, अप्पियरूपे रूपे न ब्यापज्जति, उपट्ठितकायसति च विहरति अप्पमाणचेतसो. तञ्च चेतोविमुत्तिं पञ्ञाविमुत्तिं यथाभूतं पजानाति – यत्थस्स ते पापका अकुसला धम्मा अपरिसेसा निरुज्झन्ति. सो एवं अनुरोधविरोधविप्पहीनो यं किञ्चि वेदनं वेदेति, सुखं वा दुक्खं वा अदुक्खमसुखं वा, सो तं वेदनं नाभिनन्दति नाभिवदति नाज्झोसाय तिट्ठति. तस्स तं वेदनं अनभिनन्दतो अनभिवदतो अनज्झोसाय तिट्ठतो या वेदनासु नन्दी सा निरुज्झति. तस्स नन्दीनिरोधा उपादाननिरोधो, उपादाननिरोधा भवनिरोधो, भवनिरोधा जातिनिरोधो, जातिनिरोधा जरामरणं सोकपरिदेवदुक्खदोमनस्सुपायासा निरुज्झन्ति. एवमेतस्स केवलस्स दुक्खक्खन्धस्स निरोधो होति. सोतेन सद्दं सुत्वा…पे… घानेन गन्धं घायित्वा…पे… जिव्हाय रसं सायित्वा…पे… कायेन फोट्ठब्बं फुसित्वा…पे… मनसा धम्मं विञ्ञाय पियरूपे धम्मे न सारज्जति, अप्पियरूपे धम्मे न ब्यापज्जति, उपट्ठितकायसति च विहरति अप्पमाणचेतसो, तञ्च चेतोविमुत्तिं पञ्ञाविमुत्तिं यथाभूतं पजानाति – यत्थस्स ते पापका अकुसला धम्मा अपरिसेसा निरुज्झन्ति. सो एवं अनुरोधविरोधविप्पहीनो यं किञ्चि वेदनं वेदेति, सुखं वा दुक्खं वा अदुक्खमसुखं वा, सो तं वेदनं नाभिनन्दति नाभिवदति नाज्झोसाय तिट्ठति. तस्स तं वेदनं अनभिनन्दतो अनभिवदतो अनज्झोसाय तिट्ठतो या वेदनासु नन्दी सा निरुज्झति. तस्स नन्दीनिरोधा उपादाननिरोधो, उपादाननिरोधा भवनिरोधो, भवनिरोधा जातिनिरोधो, जातिनिरोधा जरामरणं सोकपरिदेवदुक्खदोमनस्सुपायासा निरुज्झन्ति. एवमेतस्स केवलस्स दुक्खक्खन्धस्स निरोधो होति. इमं खो मे तुम्हे, भिक्खवे, संखित्तेन तण्हासङ्खयविमुत्तिं धारेथ, सातिं पन भिक्खुं केवट्टपुत्तं महातण्हाजालतण्हासङ्घाटप्पटिमुक्क’’न्ति.

इदमवोच भगवा. अत्तमना ते भिक्खू भगवतो भासितं अभिनन्दुन्ति.

महातण्हासङ्खयसुत्तं निट्ठितं अट्ठमं.