यह सूत्र बाहरी धारणा और अंदर की सच्चाई के बीच के अंतर को समझाता है। आजकल जिसे “इम्पोस्टर सिंड्रोम” कहा जाता है, यह उस भावना को भी दर्शाता है। यानी जब कोई व्यक्ति खुद को अपनी उपलब्धियों के लायक नहीं समझता। भगवान बुद्ध ने अपने शिष्यों को क्रमिक साधना के माध्यम से ऊँचे आदर्शों की ओर बढ़ने के लिए प्रेरित किया। ताकि वे अपने नाम और दावों के अनुरूप जीवन जी सकें।
ऐसा मैंने सुना — एक समय भगवान अङ्ग (देश) के अस्सपुर नामक अङ्ग 1 नगर में विहार कर रहे थे। वहाँ भगवान ने भिक्षुओं को संबोधित किया, “भिक्षुओं।”
“भदंत!” भिक्षुओं ने भगवान को उत्तर दिया। भगवान ने कहा—
“‘श्रमण… श्रमण’ कहते हुए, भिक्षुओं, जनता तुम्हें पहचानती है। जब तुम्हें भी पूछा जाता है कि ‘तुम कौन हो’, तो ‘हम श्रमण हैं’, ऐसा दावा करते हो। 2
जब तुम्हारी पहचान इस तरह की हो, तुम्हारा दावा इस तरह का हो, तब, भिक्षुओं, तुम्हें इस तरह सीखना चाहिए कि — ‘जो धर्म श्रमण (को श्रमण) बनाते हैं, ब्राह्मण (को ब्राह्मण), बनाते हैं 3, हम उन धर्मों को आत्मसात कर उनका पालन करेंगे। तब हमारी पहचान और हमारा दावा सच्चाई के अनुरूप होगा। और हम जो चीवर, भिक्षान्न, आवास, और रोगावश्यक औषधि और भैषज्य का उपभोग करेंगे, वह दायकों के लिए महाफलदायी और महापुरस्कारी साबित होगा। और हमारी प्रवज्जा सार्थक, सफल, और उपजाऊ होगी।’ तो, भिक्षुओं, कौन से धर्म श्रमण (को श्रमण) बनाते हैं, और ब्राह्मण (को ब्राह्मण)?
‘हम संकोच और भयभीरुता से युक्त रहेंगे’ 4 — इस तरह, भिक्षुओं, तुम्हें सीखना चाहिए।
अब हो सकता है, भिक्षुओं, तुम्हें लगे, “हम संकोच और भयभीरुता से संपन्न हैं। तो बस पर्याप्त हुआ। बहुत कर लिया। श्रमण्यता सार्थक हुई। अब आगे कुछ नहीं करना है।” और तुम उतने से तुष्ट होकर रह जाओ। किन्तु मैं सूचित करता हूँ, भिक्षुओं, मैं घोषित करता हूँ कि “तुम में से जिसे श्रमण्यता पाना हो, वह श्रमण्य ध्येय को छोड़ न दें जब आगे करना बचा हो।” आगे क्या करना बचा है, भिक्षुओं?
‘हमारा शारीरिक आचरण परिशुद्ध हो, सीधे, स्पष्ट और खुला हुआ हो, छिपा हुआ या छिदा हुआ न हो। और परिशुद्ध शारीरिक आचरण के कारण, हम न स्वयं को श्रेष्ठ माने, न दूसरों को हीन’ — इस तरह, भिक्षुओं, तुम्हें सीखना चाहिए।
अब हो सकता है, भिक्षुओं, तुम्हें लगे, “हम संकोच और भयभीरुता से संपन्न हैं। हमारा शारीरिक आचरण परिशुद्ध हैं। तो बस पर्याप्त हुआ। बहुत कर लिया। श्रमण्यता सार्थक हुई। अब आगे कुछ नहीं करना है।” और तुम उतने से तुष्ट होकर रह जाओ। किन्तु मैं सूचित करता हूँ, भिक्षुओं, मैं घोषित करता हूँ कि “तुम में से जिसे श्रमण्यता पाना हो, वह श्रमण्य ध्येय को छोड़ न दें जब आगे करना बचा हो।” आगे क्या करना बचा है, भिक्षुओं?
‘हमारा वाचिक आचरण परिशुद्ध हो, सीधे, स्पष्ट और खुला हुआ हो, छिपा हुआ या छिदा हुआ न हो। और परिशुद्ध वाचिक आचरण के कारण, हम न स्वयं को श्रेष्ठ माने, न दूसरों को हीन’ — इस तरह, भिक्षुओं, तुम्हें सीखना चाहिए।
अब हो सकता है, भिक्षुओं, तुम्हें लगे, “हम संकोच और भयभीरुता से संपन्न हैं। हमारा शारीरिक आचरण परिशुद्ध हैं। हमारा वाचिक आचरण परिशुद्ध हैं। तो बस पर्याप्त हुआ। बहुत कर लिया। श्रमण्यता सार्थक हुई। अब आगे कुछ नहीं करना है।” और तुम उतने से तुष्ट होकर रह जाओ। किन्तु मैं सूचित करता हूँ, भिक्षुओं, मैं घोषित करता हूँ कि “तुम में से जिसे श्रमण्यता पाना हो, वह श्रमण्य ध्येय को छोड़ न दें जब आगे करना बचा हो।” आगे क्या करना बचा है, भिक्षुओं?
‘हमारा मानसिक आचरण परिशुद्ध हो, सीधे, स्पष्ट और खुला हुआ हो, छिपा हुआ या छिदा हुआ न हो। और परिशुद्ध मानसिक आचरण के कारण, हम न स्वयं को श्रेष्ठ माने, न दूसरों को हीन’ — इस तरह, भिक्षुओं, तुम्हें सीखना चाहिए।
अब हो सकता है, भिक्षुओं, तुम्हें लगे, “हम संकोच और भयभीरुता से संपन्न हैं। हमारा शारीरिक आचरण परिशुद्ध हैं। हमारा वाचिक आचरण परिशुद्ध हैं। हमारा मानसिक आचरण परिशुद्ध हैं। तो बस पर्याप्त हुआ। बहुत कर लिया। श्रमण्यता सार्थक हुई। अब आगे कुछ नहीं करना है।” और तुम उतने से तुष्ट होकर रह जाओ। किन्तु मैं सूचित करता हूँ, भिक्षुओं, मैं घोषित करता हूँ कि “तुम में से जिसे श्रमण्यता पाना हो, वह श्रमण्य ध्येय को छोड़ न दें जब आगे करना बचा हो।” आगे क्या करना बचा है, भिक्षुओं?
‘हमारी आजीविका परिशुद्ध हो, सीधे, स्पष्ट और खुला हुआ हो, छिपा हुआ या छिदा हुआ न हो। और परिशुद्ध मानसिक आचरण के कारण, हम न स्वयं को श्रेष्ठ माने, न दूसरों को हीन’ — इस तरह, भिक्षुओं, तुम्हें सीखना चाहिए।
अब हो सकता है, भिक्षुओं, तुम्हें लगे, “हम संकोच और भयभीरुता से संपन्न हैं। हमारा शारीरिक आचरण परिशुद्ध हैं। हमारा वाचिक आचरण परिशुद्ध हैं। हमारा मानसिक आचरण परिशुद्ध हैं। हमारी आजीविका परिशुद्ध हैं। तो बस पर्याप्त हुआ। बहुत कर लिया। श्रमण्यता सार्थक हुई। अब आगे कुछ नहीं करना है।” और तुम उतने से तुष्ट होकर रह जाओ। किन्तु मैं सूचित करता हूँ, भिक्षुओं, मैं घोषित करता हूँ कि “तुम में से जिसे श्रमण्यता पाना हो, वह श्रमण्य ध्येय को छोड़ न दें जब आगे करना बचा हो।” आगे क्या करना बचा है, भिक्षुओं?
‘हम इंद्रिय-द्वारों की रक्षा करेंगे।
अब हो सकता है, भिक्षुओं, तुम्हें लगे, “हम संकोच और भयभीरुता से संपन्न हैं। हमारा शारीरिक आचरण परिशुद्ध हैं। हमारा वाचिक आचरण परिशुद्ध हैं। हमारा मानसिक आचरण परिशुद्ध हैं। हमारी आजीविका परिशुद्ध हैं। हमारे इंद्रिय-द्वार रक्षित हैं। तो बस पर्याप्त हुआ। बहुत कर लिया। श्रमण्यता सार्थक हुई। अब आगे कुछ नहीं करना है।” और तुम उतने से तुष्ट होकर रह जाओ। किन्तु मैं सूचित करता हूँ, भिक्षुओं, मैं घोषित करता हूँ कि “तुम में से जिसे श्रमण्यता पाना हो, वह श्रमण्य ध्येय को छोड़ न दें जब आगे करना बचा हो।” आगे क्या करना बचा है, भिक्षुओं?
‘हम भोजन में मात्रा (=मर्यादा) का ज्ञान रखेंगे। हम उचित चिंतन करते हुए भिक्षान्न का उपभोग करेंगे — न मज़े के लिए, न मदहोशी के लिए, न सुडौलता के लिए, न ही सौंदर्य के लिए। बल्कि काया को मात्र टिकाने के लिए। उसकी [भूख] पीड़ाएँ समाप्त करने के लिए, और ब्रह्मचर्य के लिए। [सोचते हुए,] ‘पुरानी पीड़ा ख़त्म करूँगा! [अधिक खाकर] नई पीड़ा नहीं उत्पन्न करूँगा! मेरी जीवनयात्रा निर्दोष रहेगी, और राहत से रहूँगा’ — इस तरह, भिक्षुओं, तुम्हें सीखना चाहिए।
अब हो सकता है, भिक्षुओं, तुम्हें लगे, “हम संकोच और भयभीरुता से संपन्न हैं। हमारा शारीरिक आचरण परिशुद्ध हैं। हमारा वाचिक आचरण परिशुद्ध हैं। हमारा मानसिक आचरण परिशुद्ध हैं। हमारी आजीविका परिशुद्ध हैं। हमारे इंद्रिय-द्वार रक्षित हैं। हमें भोजन में मात्रा का ज्ञान हैं। तो बस पर्याप्त हुआ। बहुत कर लिया। श्रमण्यता सार्थक हुई। अब आगे कुछ नहीं करना है।” और तुम उतने से तुष्ट होकर रह जाओ। किन्तु मैं सूचित करता हूँ, भिक्षुओं, मैं घोषित करता हूँ कि “तुम में से जिसे श्रमण्यता पाना हो, वह श्रमण्य ध्येय को छोड़ न दें जब आगे करना बचा हो।” आगे क्या करना बचा है, भिक्षुओं?
‘हम जागरण के प्रति संकल्पबद्ध होकर रहेंगे।
अब हो सकता है, भिक्षुओं, तुम्हें लगे, “हम संकोच और भयभीरुता से संपन्न हैं। हमारा शारीरिक आचरण परिशुद्ध हैं। हमारा वाचिक आचरण परिशुद्ध हैं। हमारा मानसिक आचरण परिशुद्ध हैं। हमारी आजीविका परिशुद्ध हैं। हमारे इंद्रिय-द्वार रक्षित हैं। हमें भोजन में मात्रा का ज्ञान हैं। हम जागरण के प्रति संकल्पबद्ध है। तो बस पर्याप्त हुआ। बहुत कर लिया। श्रमण्यता सार्थक हुई। अब आगे कुछ नहीं करना है।” और तुम उतने से तुष्ट होकर रह जाओ। किन्तु मैं सूचित करता हूँ, भिक्षुओं, मैं घोषित करता हूँ कि “तुम में से जिसे श्रमण्यता पाना हो, वह श्रमण्य ध्येय को छोड़ न दें जब आगे करना बचा हो।” आगे क्या करना बचा है, भिक्षुओं?
‘हम स्मरणशीलता और सचेतता से युक्त होकर रहेंगे।
— इस तरह, भिक्षुओं, तुम्हें सीखना चाहिए।
अब हो सकता है, भिक्षुओं, तुम्हें लगे, “हम संकोच और भयभीरुता से संपन्न हैं। हमारा शारीरिक आचरण परिशुद्ध हैं। हमारा वाचिक आचरण परिशुद्ध हैं। हमारा मानसिक आचरण परिशुद्ध हैं। हमारी आजीविका परिशुद्ध हैं। हमारे इंद्रिय-द्वार रक्षित हैं। हमें भोजन में मात्रा का ज्ञान हैं। हम जागरण के प्रति संकल्पबद्ध है। हम स्मरणशीलता और सचेतता से संपन्न हैं। तो बस पर्याप्त हुआ। बहुत कर लिया। श्रमण्यता सार्थक हुई। अब आगे कुछ नहीं करना है।” और तुम उतने से तुष्ट होकर रह जाओ। किन्तु मैं सूचित करता हूँ, भिक्षुओं, मैं घोषित करता हूँ कि “तुम में से जिसे श्रमण्यता पाना हो, वह श्रमण्य ध्येय को छोड़ न दें जब आगे करना बचा हो।” आगे क्या करना बचा है, भिक्षुओं?
जैसे, भिक्षुओं, कोई भिक्षु निर्लिप्त एकांतवास ढूँढता है — कोई जंगल, पेड़ के तले, पहाड़, सँकरी घाटी, गुफ़ा, श्मशानभूमि, उपवन, खुली-जगह या पुआल का ढ़ेर। भिक्षाटन से लौटकर भोजन के पश्चात, वह पालथी मार, काया सीधी रखकर बैठता है और स्मरणशीलता आगे लाता है।
जैसे, कल्पना करें कि कोई पुरुष ऋण लेकर उसे व्यवसाय में लगाए, और उसका व्यवसाय यशस्वी हो जाए। तब वह पुराना ऋण चुका पाए और पत्नी के लिए भी अतिरिक्त बचाए। तब उसे लगेगा, “मैंने ऋण लेकर उसे व्यवसाय में लगाया और मेरा व्यवसाय यशस्वी हो गया। अब मैंने पुराना ऋण चुका दिया है और पत्नी के लिए भी अतिरिक्त बचाया है।” उस कारणवश उसे प्रसन्नता होगी, आनंदित हो उठेगा।
अब कल्पना करें, कि कोई पुरुष बीमार पड़े — पीड़ादायक गंभीर रोग में। वह अपने भोजन का लुत्फ़ उठा न पाए और उसकी काया में बल न रहे। समय बीतने के साथ, वह अंततः रोग से मुक्त हो जाए। तब वह अपने भोजन का लुत्फ़ उठा पाए और उसकी काया में भी बल रहे। तब उसे लगेगा, “पहले मैं बीमार पड़ा था — पीड़ादायक गंभीर रोग में। न मैं अपने भोजन का लुत्फ़ उठा पाता था, न ही मेरी काया में बल रहता था। समय बीतने के साथ, मैं अंततः रोग से मुक्त हो गया। अब मैं अपने भोजन का लुत्फ़ उठा पाता हूँ और मेरी काया में बल भी रहता है।” उस कारणवश उसे प्रसन्नता होगी, आनंदित हो उठेगा।
अब कल्पना करें, कि कोई पुरुष कारावास में कैद हो। समय बीतने के साथ, वह अंततः कारावास से छूट जाए — सुरक्षित और सही-सलामत, बिना संपत्ति की हानि हुए। तब उसे लगेगा, “पहले मैं कारावास में कैद था। समय बीतने के साथ, मैं अंततः कारावास से छूट गया — सुरक्षित और सही-सलामत, बिना संपत्ति की हानि हुए।” उस कारणवश उसे प्रसन्नता होगी, आनंदित हो उठेगा।
अब कल्पना करें, कि कोई पुरुष गुलाम हो — पराए के अधीन हो, स्वयं के नहीं। वह जहाँ जाना चाहे, नहीं जा सके। समय बीतने के साथ, वह अंततः गुलामी से छूट जाए — स्वयं के अधीन हो, पराए के नहीं। तब वह जहाँ जाना चाहे, जा सके। तब उसे लगेगा, “पहले मैं गुलाम था — पराए के अधीन, स्वयं के नहीं। मैं जहाँ जाना चाहता था, नहीं जा सकता था। समय बीतने के साथ, मैं अंततः गुलामी से छूट गया — स्वयं के अधीन, पराए के नहीं। अब मैं जहाँ जाना चाहता हूँ, जा सकता हूँ।” उस कारणवश उसे प्रसन्नता होगी, आनंदित हो उठेगा।
अब कल्पना करें, कि कोई पुरुष धन और माल लेकर रेगिस्तान से यात्रा कर रहा हो, जहाँ भोजन अल्प हो, और खतरे अधिक। समय बीतने के साथ, वह अंततः उस रेगिस्तान से निकल कर गाँव पहुँच जाए — सुरक्षित, सही-सलामत, बिना संपत्ति की हानि हुए। तब उसे लगेगा, “पहले मैं धन और माल लेकर रेगिस्तान से यात्रा कर रहा था, जहाँ भोजन अल्प था, और खतरे अधिक। समय बीतने के साथ, मैं अंततः उस रेगिस्तान से निकल कर गाँव पहुँच गया — सुरक्षित, सही-सलामत, बिना संपत्ति की हानि हुए।” उस कारणवश उसे प्रसन्नता होगी, आनंदित हो उठेगा।
उसी तरह, जब तक ये पाँच अवरोध भीतर से छूटते नहीं हैं, तब तक भिक्षु उन्हें ऋण, रोग, कारावास, गुलामी और रेगिस्तान की तरह देखता है।
किंतु जब ये पाँच अवरोध भीतर से छूट जाते हैं, तब भिक्षु उन्हें ऋणमुक्ति, आरोग्य, बन्धनमुक्ति, स्वतंत्रता और राहतस्थल की तरह देखता है।
ये पाँच अवरोध [“पञ्चनीवरण”], जो मानस के उपक्लेश (=मैल) हैं, जो प्रज्ञा को दुर्बल बनाते हैं, वह उनको त्याग कर कामुकता से निर्लिप्त, अकुशल-स्वभाव से निर्लिप्त, सोच एवं विचार के साथ निर्लिप्तता से उपजे प्रफुल्लता और सुखपूर्ण प्रथम-ध्यान में प्रवेश पाकर रहता है।
तब वह उस निर्लिप्तता से उपजे प्रफुल्लता और सुख से काया को सींचता है, भिगोता है, फैलाता है, पूर्णतः व्याप्त करता है। ताकि उसके शरीर का कोई भी हिस्सा उस निर्लिप्तता से उपजे प्रफुल्लता और सुख से अव्याप्त न रह जाए।
जैसे, कोई निपुण स्नान करानेवाला [या आटा गूँथनेवाला] हो, जो काँस की थाली में स्नानचूर्ण [या आटा] रखे, और उसमें पानी छिड़क-छिड़ककर उसे इस तरह गूँथे कि चूर्णपिंड पूर्णतः जलव्याप्त हो जाए, किंतु चुए न।
उसी तरह वह उस निर्लिप्तता से उपजे प्रफुल्लता और सुख से काया को सींचता है, भिगोता है, फैलाता है, पूर्णतः व्याप्त करता है। ताकि उसके शरीर का कोई भी हिस्सा उस निर्लिप्तता से उपजे प्रफुल्लता और सुख से अव्याप्त न रह जाए।
तब आगे, भिक्षु सोच एवं विचार के रुक जाने पर, भीतर आश्वस्त हुआ मानस एकरस होकर, बिना-सोच, बिना-विचार, समाधि से उपजे प्रफुल्लता और सुखपूर्ण द्वितीय-ध्यान में प्रवेश पाकर रहता है।
तब वह उस समाधि से उपजे प्रफुल्लता और सुख से काया को सींचता है, भिगोता है, फैलाता है, पूर्णतः व्याप्त करता है। ताकि उसके शरीर का कोई भी हिस्सा उस समाधि से उपजे प्रफुल्लता और सुख से अव्याप्त न रह जाए।
जैसे, किसी गहरी झील में भीतर से जलस्त्रोत निकलता हो। जिसके पूर्व, पश्चिम, उत्तर, दक्षिण दिशा से कोई [भीतर आता] अंतप्रवाह न हो, और समय-समय पर देवता वर्षा न कराए। तब उस झील को केवल भीतर गहराई से निकलता शीतल जलस्त्रोत फूटकर उसे शीतल जल से सींच देगा, भिगो देगा, फैल जाएगा, पूर्णतः व्याप्त करेगा। और उस संपूर्ण झील को कोई भी हिस्सा उस शीतल जलस्त्रोत के जल से अव्याप्त नहीं रह जाएगा।
उसी तरह वह उस समाधि से उपजे प्रफुल्लता और सुख से काया को सींचता है, भिगोता है, फैलाता है, पूर्णतः व्याप्त करता है। ताकि उसके शरीर का कोई भी हिस्सा उस समाधि से उपजे प्रफुल्लता और सुख से अव्याप्त न रह जाए।
तब आगे, भिक्षु प्रफुल्लता से विरक्त हो, स्मरणशील एवं सचेतता के साथ-साथ तटस्थता धारण कर शरीर से सुख महसूस करता है। जिसे आर्यजन ‘तटस्थ, स्मरणशील, सुखविहारी’ कहते हैं, वह ऐसे तृतीय-ध्यान में प्रवेश पाकर रहता है।
तब वह उस प्रफुल्लता-रहित सुख से काया को सींचता है, भिगोता है, फैलाता है, पूर्णतः व्याप्त करता है। ताकि उसके शरीर का कोई भी हिस्सा उस प्रफुल्लता-रहित सुख से अव्याप्त न रह जाए।
जैसे, किसी पुष्करणी [=कमलपुष्प के तालाब] में कोई कोई नीलकमल, रक्तकमल या श्वेतकमल होते हैं, जो बिना बाहर निकले, जल के भीतर ही जन्म लेते हैं, जल के भीतर ही बढ़ते हैं, जल के भीतर ही डूबे रहते हैं, जल के भीतर ही पनपते रहते हैं। वे सिरे से जड़ तक शीतल जल से ही सींचे जाते हैं, भिगोए जाते हैं, फैलाए जाते हैं, पूर्णतः व्याप्त किए जाते हैं। और उन कमलपुष्पों का कोई भी हिस्सा उस शीतल जल से अव्याप्त नहीं रह जाता।
उसी तरह वह उस प्रफुल्लता-रहित सुख से काया को सींचता है, भिगोता है, फैलाता है, पूर्णतः व्याप्त करता है। ताकि उसके शरीर का कोई भी हिस्सा उस प्रफुल्लता-रहित सुख से अव्याप्त न रह जाए।
तब आगे, भिक्षु सुख एवं दर्द दोनों हटाकर, खुशी एवं परेशानी पूर्व ही विलुप्त होने पर, तटस्थता और स्मरणशीलता की परिशुद्धता के साथ, अब न-सुख-न-दर्द पूर्ण चतुर्थ-ध्यान में प्रवेश पाकर रहता है। तब वह काया में उस परिशुद्ध उजालेदार चित्त को फैलाकर बैठता है, ताकि उसके शरीर का कोई भी हिस्सा उस परिशुद्ध उजालेदार चित्त से अव्याप्त न रह जाए।
जैसे, कोई पुरुष सिर से पैर तक शुभ्र उज्ज्वल वस्त्र ओढ़कर बैठ जाए, ताकि उसके शरीर का कोई भी हिस्सा उस शुभ्र उज्ज्वल वस्त्र से अव्याप्त न रह जाए।
उसी तरह वह काया में उस परिशुद्ध उजालेदार चित्त को फैलाकर बैठता है, ताकि उसके शरीर का कोई भी हिस्सा उस परिशुद्ध उजालेदार चित्त से अव्याप्त न रह जाए।
जब उसका चित्त इस तरह समाहित, परिशुद्ध, उज्ज्वल, बेदाग, निर्मल, मृदुल, काम करने-योग्य, स्थिर और अविचल हो जाता है, तब वह उस चित्त को पूर्वजन्मों का अनुस्मरण करने की ओर झुकाता है। तो उसे विविध प्रकार के पूर्वजन्म स्मरण होने लगते है — जैसे एक जन्म, दो जन्म, तीन जन्म, चार, पाँच, दस जन्म, बीस, तीस, चालीस, पचास जन्म, सौ जन्म, हज़ार जन्म, लाख जन्म, कई कल्पों का लोक-संवर्त [=ब्रह्मांडिय सिकुड़न], कई कल्पों का लोक-विवर्त [=ब्रह्मांडिय विस्तार], कई कल्पों का संवर्त-विवर्त — ‘वहाँ मेरा ऐसा नाम था, ऐसा गोत्र था, ऐसा दिखता था। ऐसा भोज था, ऐसा सुख-दुःख महसूस हुआ, ऐसा जीवन अंत हुआ। उस लोक से च्युत होकर मैं वहाँ उत्पन्न हुआ। वहाँ मेरा वैसा नाम था, वैसा गोत्र था, वैसा दिखता था। वैसा भोज था, वैसा सुख-दुःख महसूस हुआ, वैसे जीवन अंत हुआ। उस लोक से च्युत होकर मैं यहाँ उत्पन्न हुआ।’ इस तरह वह अपने विविध प्रकार के पूर्वजन्म शैली एवं विवरण के साथ स्मरण करता है।
जैसे, कोई पुरुष अपने गाँव से किसी दूसरे गाँव में जाए। फिर दूसरे गाँव से किसी तीसरे गाँव में। और फिर तीसरे गाँव से वह अपने गाँव लौट आए। तब उसे लगेगा, “मैं अपने गाँव से इस दूसरे गाँव गया। वहाँ मैं ऐसे खड़ा हुआ, ऐसे बैठा, ऐसे बात किया, ऐसे चुप रहा। फ़िर उस दूसरे गाँव से मैं उस तीसरे गाँव गया। वहाँ वैसे खड़ा हुआ, वैसे बैठा, वैसे बात किया, वैसे चुप रहा। तब उस तीसरे गाँव से मैं अपने गाँव लौट आया।”
उसी तरह जब उसका चित्त इस तरह समाहित, परिशुद्ध, उज्ज्वल, बेदाग, निर्मल, मृदुल, काम करने-योग्य, स्थिर और अविचल हो जाता है, तब वह उस चित्त को पूर्वजन्मों का अनुस्मरण करने की ओर झुकाता है। तो उसे विविध प्रकार के पूर्वजन्म स्मरण होने लगते है — जैसे एक जन्म, दो जन्म, तीन जन्म, चार, पाँच, दस जन्म, बीस, तीस, चालीस, पचास जन्म, सौ जन्म, हज़ार जन्म, लाख जन्म, कई कल्पों का लोक-संवर्त, कई कल्पों का लोक-विवर्त, कई कल्पों का संवर्त-विवर्त — ‘वहाँ मेरा ऐसा नाम था, ऐसा गोत्र था, ऐसा दिखता था। ऐसा भोज था, ऐसा सुख-दुःख महसूस हुआ, ऐसा जीवन अंत हुआ। उस लोक से च्युत होकर मैं वहाँ उत्पन्न हुआ। वहाँ मेरा वैसा नाम था, वैसा गोत्र था, वैसा दिखता था। वैसा भोज था, वैसा सुख-दुःख महसूस हुआ, वैसे जीवन अंत हुआ। उस लोक से च्युत होकर मैं यहाँ उत्पन्न हुआ।’ इस तरह वह अपने विविध प्रकार के पूर्वजन्म शैली एवं विवरण के साथ स्मरण करता है।
जब उसका चित्त इस तरह समाहित, परिशुद्ध, उज्ज्वल, बेदाग, निर्मल, मृदुल, काम करने-योग्य, स्थिर और अविचल हो जाता है, तब वह उस चित्त को सत्वों की गति जानने [“चुतूपपात ञाण”] की ओर झुकाता है। तब विशुद्ध हुए अलौकिक दिव्यचक्षु से उसे अन्य सत्वों की मौत और पुनर्जन्म होते हुए दिखता है। और उसे पता चलता है कि कर्मानुसार ही वे कैसे हीन अथवा उच्च हैं, सुंदर अथवा कुरूप हैं, सद्गति होते अथवा दुर्गति होते हैं। कैसे ये सत्व — काया दुराचार में संपन्न, वाणी दुराचार में संपन्न, एवं मन दुराचार में संपन्न, जिन्होंने आर्यजनों का अनादर किया, मिथ्यादृष्टि धारण की, और मिथ्यादृष्टि के प्रभाव में दुष्कृत्य किए — वे मरणोपरांत काया छूटने पर दुर्गति होकर यातनालोक नर्क में उपजे।’ किन्तु कैसे ये सत्व — काया सदाचार में संपन्न, वाणी सदाचार में संपन्न, एवं मन सदाचार में संपन्न, जिन्होंने आर्यजनों का अनादर नहीं किया, सम्यकदृष्टि धारण की, और सम्यकदृष्टि के प्रभाव में सुकृत्य किए — वे मरणोपरांत सद्गति होकर स्वर्ग में उपजे। इस तरह विशुद्ध हुए अलौकिक दिव्यचक्षु से उसे अन्य सत्वों की मौत और पुनर्जन्म होते हुए दिखता है। और उसे पता चलता है कि कर्मानुसार ही वे कैसे हीन अथवा उच्च हैं, सुंदर अथवा कुरूप हैं, सद्गति होते अथवा दुर्गति होते हैं।
जैसे, किसी चौराहे के मध्य एक इमारत हो। उसके ऊपर खड़ा कोई तेज आँखों वाला पुरुष नीचे देखें, तो उसे लोग घर में घुसते, घर से निकलते, रास्ते पर चलते, चौराहे पर बैठे हुए दिखेंगे। तब उसे लगेगा, “वहाँ कुछ लोग घर में घुस रहे हैं। वहाँ कुछ लोग निकल रहे हैं। वहाँ कुछ लोग रास्ते पर चल रहे हैं। यहाँ कुछ लोग चौराहे पर बैठे हुए हैं।”
उसी तरह जब उसका चित्त इस तरह समाहित, परिशुद्ध, उज्ज्वल, बेदाग, निर्मल, मृदुल, काम करने-योग्य, स्थिर और अविचल हो जाता है, तब वह उस चित्त को सत्वों की गति जानने की ओर झुकाता है। तब विशुद्ध हुए अलौकिक दिव्यचक्षु से उसे अन्य सत्वों की मौत और पुनर्जन्म होते हुए दिखता है। और उसे पता चलता है कि कर्मानुसार ही वे कैसे हीन अथवा उच्च हैं, सुंदर अथवा कुरूप हैं, सद्गति होते अथवा दुर्गति होते हैं।
जब उसका चित्त इस तरह समाहित, परिशुद्ध, उज्ज्वल, बेदाग, निर्मल, मृदुल, काम करने-योग्य, स्थिर और अविचल हो जाता है, तब वह उस चित्त को आस्रव का क्षय जानने की ओर झुकाता है। तब —
इस तरह जानने से, देखने से, उसका चित्त काम-आस्रव से विमुक्त हो जाता है, भव-आस्रव से विमुक्त हो जाता है,अविद्या-आस्रव से विमुक्त हो जाता है। विमुक्ति के साथ ज्ञान उत्पन्न होता है, ‘विमुक्त हुआ!’ उसे पता चलता है, ‘जन्म क्षीण हुए, ब्रह्मचर्य पूर्ण हुआ, काम समाप्त हुआ, आगे कोई काम बचा नहीं।’
जैसे, किसी पहाड़ के ऊपर स्वच्छ, पारदर्शी और निर्मल सरोवर [=झील] हो। उसके तट पर खड़ा, कोई तेज आँखों वाला पुरुष, उसमें देखें तो उसे सीप, घोघा और बजरी दिखेंगे, जलजंतु और मछलियों का झुंड तैरता हुआ या खड़ा दिखेगा। तब उसे लगेगा, ‘यह सरोवर स्वच्छ, पारदर्शी और निर्मल है। यहाँ सीप, घोघा और बजरी हैं। जलजंतु और मछलियों का झुंड तैर रहा या खड़ा है।’
उसी तरह जब उसका चित्त इस तरह समाहित, परिशुद्ध, उज्ज्वल, बेदाग, निर्मल, मृदुल, काम करने-योग्य, स्थिर और अविचल हो जाता है, तब वह उस चित्त को आस्रव का क्षय जानने की ओर झुकाता है।
तब ‘दुःख ऐसा है’, उसे यथास्वरूप पता चलता है। ‘दुःख की उत्पत्ति… आस्रव का निरोध-मार्ग ऐसा है’, उसे यथास्वरूप पता चलता है। इस तरह जानने से, देखने से, उसका चित्त कामुक-आस्रव से विमुक्त हो जाता है, अस्तित्व-आस्रव से विमुक्त हो जाता है, अविद्या-बहाव से विमुक्त हो जाता है। विमुक्ति के साथ ज्ञान उत्पन्न होता है, ‘विमुक्त हुआ!’ उसे पता चलता है, ‘जन्म क्षीण हुए, ब्रह्मचर्य पूर्ण हुआ, काम समाप्त हुआ, आगे कोई काम बचा नहीं।’
ऐसे भिक्षु को, भिक्षुओं, ‘श्रमण’ कहते हैं, ‘ब्राह्मण’ कहते हैं, ‘नहा चुका’ कहते हैं, ‘विशारद’ कहते हैं, ‘शास्त्रज्ञ’ कहते हैं, ‘आर्य’ कहते हैं, ‘अरहंत’ कहते हैं।
• भिक्षुओं, कोई भिक्षु श्रमण (“समण”) कैसे होता है?
वह ऐसे पाप अकुशल स्वभाव को शान्त करता (=बुझाता) है — जो दूषित करते हैं, पुनरुत्पत्ति कराते हैं, आहत करते हैं, दुःख परिणामी हैं, तथा जन्म, बुढ़ापा और मौत लाते हैं। इस तरह, भिक्षुओं, कोई भिक्षु श्रमण होता है।
• और, भिक्षुओं, कोई भिक्षु ब्राह्मण कैसे होता है?
वह ऐसे पाप अकुशल स्वभाव को निष्कासित (=बाहर) करता है — जो दूषित करते हैं, पुनरुत्पत्ति कराते हैं, आहत करते हैं, दुःख परिणामी हैं, तथा जन्म, बुढ़ापा और मौत लाते हैं। इस तरह, भिक्षुओं, कोई भिक्षु श्रमण होता है।
• और, भिक्षुओं, कोई भिक्षु नहा चुका (“न्हातक”) कैसे होता है?
वह ऐसे पाप अकुशल स्वभाव को नहला देता है — जो दूषित करते हैं, पुनरुत्पत्ति कराते हैं, आहत करते हैं, दुःख परिणामी हैं, तथा जन्म, बुढ़ापा और मौत लाते हैं। इस तरह, भिक्षुओं, कोई भिक्षु नहा चुका होता है।
• और, भिक्षुओं, कोई भिक्षु विशारद (“वेदगू”) कैसे होता है?
वह ऐसे पाप अकुशल स्वभाव को (गहराई से) जान लेता है — जो दूषित करते हैं, पुनरुत्पत्ति कराते हैं, आहत करते हैं, दुःख परिणामी हैं, तथा जन्म, बुढ़ापा और मौत लाते हैं। इस तरह, भिक्षुओं, कोई भिक्षु विशारद होता है।
• और, भिक्षुओं, कोई भिक्षु शास्त्रज्ञ (“सोत्तिय”) कैसे होता है?
वह ऐसे पाप अकुशल स्वभाव को (श्रोत में) बहा देता है — जो दूषित करते हैं, पुनरुत्पत्ति कराते हैं, आहत करते हैं, दुःख परिणामी हैं, तथा जन्म, बुढ़ापा और मौत लाते हैं। इस तरह, भिक्षुओं, कोई भिक्षु शास्त्रज्ञ होता है।
• और, भिक्षुओं, कोई भिक्षु आर्य 5 कैसे होता है?
वह ऐसे पाप अकुशल स्वभाव से दूर होता है — जो दूषित करते हैं, पुनरुत्पत्ति कराते हैं, आहत करते हैं, दुःख परिणामी हैं, तथा जन्म, बुढ़ापा और मौत लाते हैं। इस तरह, भिक्षुओं, कोई भिक्षु आर्य होता है।
• और, भिक्षुओं, कोई भिक्षु अरहंत 6 कैसे होता है?
वह ऐसे पाप अकुशल स्वभाव से दूर होता 7 है — जो दूषित करते हैं, पुनरुत्पत्ति कराते हैं, आहत करते हैं, दुःख परिणामी हैं, तथा जन्म, बुढ़ापा और मौत लाते हैं। इस तरह, भिक्षुओं, कोई भिक्षु अरहंत होता है।”
भगवान ने ऐसा कहा। हर्षित होकर भिक्षुओं ने भगवान के कथन का अभिनंदन किया।
अंग मगध के पूर्व में गंगा नदी के किनारे स्थित था, जो आज के आधुनिक बंगाल की दिशा में आता है। अस्सपुर, जिसका अर्थ है “अश्वों या घोड़ों का नगर या किला”, इसके और अगले सूत्र के उल्लेख के अलावा कहीं और ज्ञात नहीं होता है। ↩︎
श्रमण शब्द के बारे में अधिक जानने के लिए हमारी शब्दावली पढ़ें। ↩︎
ब्राह्मण शब्द के बारे में अधिक जानने के लिए हमारी शब्दावली पढ़ें। ↩︎
हिरी और ओतप्प के बारे में अधिक जानने के लिए हमारी शब्दावली पढ़ें। ↩︎
आर्य शब्द के बारे में अधिक जानने के लिए हमारी शब्दावली पढ़ें। ↩︎
अरहंत शब्द के बारे में अधिक जानने के लिए हमारी शब्दावली पढ़ें। ↩︎
यहाँ ‘आर्य’ और ‘अरहंत’ दोनों के ही परिभाषा के लिए एक ही शब्द “आरका” का प्रयोग हुआ है, जिसका अर्थ है ‘दूरी’ या ‘दूर होना’। ↩︎
४१५. एवं मे सुतं – एकं समयं भगवा अङ्गेसु विहरति अस्सपुरं नाम अङ्गानं निगमो. तत्र खो भगवा भिक्खू आमन्तेसि – ‘‘भिक्खवो’’ति. ‘‘भदन्ते’’ति ते भिक्खू भगवतो पच्चस्सोसुं. भगवा एतदवोच –
‘‘समणा समणाति वो, भिक्खवे, जनो सञ्जानाति. तुम्हे च पन ‘के तुम्हे’ति पुट्ठा समाना ‘समणाम्हा’ति पटिजानाथ; तेसं वो, भिक्खवे, एवंसमञ्ञानं सतं एवंपटिञ्ञानं सतं ‘ये धम्मा समणकरणा च ब्राह्मणकरणा च ते धम्मे समादाय वत्तिस्साम, एवं नो अयं अम्हाकं समञ्ञा च सच्चा भविस्सति पटिञ्ञा च भूता. येसञ्च मयं चीवरपिण्डपातसेनासनगिलानप्पच्चयभेसज्जपरिक्खारं परिभुञ्जाम, तेसं ते कारा अम्हेसु महप्फला भविस्सन्ति महानिसंसा, अम्हाकञ्चेवायं पब्बज्जा अवञ्झा भविस्सति सफला सउद्रया’ति. एवञ्हि वो, भिक्खवे, सिक्खितब्बं.
४१६. ‘‘कतमे च, भिक्खवे, धम्मा समणकरणा च ब्राह्मणकरणा च? ‘हिरोत्तप्पेन समन्नागता भविस्सामा’ति एवञ्हि वो, भिक्खवे, सिक्खितब्बं. सिया खो पन, भिक्खवे, तुम्हाकं एवमस्स – ‘हिरोत्तप्पेनम्ह समन्नागता , अलमेत्तावता कतमेत्तावता, अनुप्पत्तो नो सामञ्ञत्थो, नत्थि नो किञ्चि उत्तरिं करणीय’न्ति तावतकेनेव तुट्ठिं आपज्जेय्याथ. आरोचयामि वो, भिक्खवे , पटिवेदयामि वो, भिक्खवे – ‘मा वो सामञ्ञत्थिकानं सतं सामञ्ञत्थो परिहायि, सति उत्तरिं करणीये’.
४१७. ‘‘किञ्च, भिक्खवे, उत्तरिं करणीयं? ‘परिसुद्धो नो कायसमाचारो भविस्सति उत्तानो विवटो न च छिद्दवा संवुतो च. ताय च पन परिसुद्धकायसमाचारताय नेवत्तानुक्कंसेस्साम न परं वम्भेस्सामा’ति [नेवत्तानुक्कंसिस्साम न परं वम्भिस्सामाति (सब्बत्थ)] एवञ्हि वो, भिक्खवे, सिक्खितब्बं. सिया खो पन, भिक्खवे, तुम्हाकं एवमस्स – ‘हिरोत्तप्पेनम्ह समन्नागता, परिसुद्धो नो कायसमाचारो; अलमेत्तावता कतमेत्तावता, अनुप्पत्तो नो सामञ्ञत्थो, नत्थि नो किञ्चि उत्तरिं करणीय’न्ति तावतकेनेव तुट्ठिं आपज्जेय्याथ. आरोचयामि वो, भिक्खवे, पटिवेदयामि वो, भिक्खवे – ‘मा वो सामञ्ञत्थिकानं सतं सामञ्ञत्थो परिहायि, सति उत्तरिं करणीये’.
४१८. ‘‘किञ्च, भिक्खवे, उत्तरिं करणीयं? ‘परिसुद्धो नो वचीसमाचारो भविस्सति उत्तानो विवटो न च छिद्दवा संवुतो च. ताय च पन परिसुद्धवचीसमाचारताय नेवत्तानुक्कंसेस्साम न परं वम्भेस्सामा’ति एवञ्हि वो, भिक्खवे, सिक्खितब्बं. सिया खो पन, भिक्खवे, तुम्हाकं एवमस्स – ‘हिरोत्तप्पेनम्ह समन्नागता, परिसुद्धो नो कायसमाचारो, परिसुद्धो वचीसमाचारो; अलमेत्तावता कतमेत्तावता, अनुप्पत्तो नो सामञ्ञत्थो, नत्थि नो किञ्चि उत्तरिं करणीय’न्ति तावतकेनेव तुट्ठिं आपज्जेय्याथ. आरोचयामि वो , भिक्खवे, पटिवेदयामि वो, भिक्खवे – ‘मा वो सामञ्ञत्थिकानं सतं सामञ्ञत्थो परिहायि, सति उत्तरिं करणीये’.
४१९. ‘‘किञ्च, भिक्खवे, उत्तरिं करणीयं? ‘परिसुद्धो नो मनोसमाचारो भविस्सति उत्तानो विवटो न च छिद्दवा संवुतो च. ताय च पन परिसुद्धमनोसमाचारताय नेवत्तानुक्कंसेस्साम न परं वम्भेस्सामा’ति एवञ्हि वो, भिक्खवे, सिक्खितब्बं. सिया खो पन, भिक्खवे, तुम्हाकं एवमस्स – ‘हिरोत्तप्पेनम्ह समन्नागता, परिसुद्धो नो कायसमाचारो, परिसुद्धो वचीसमाचारो, परिसुद्धो मनोसमाचारो; अलमेत्तावता कतमेत्तावता, अनुप्पत्तो नो सामञ्ञत्थो, नत्थि नो किञ्चि उत्तरिं करणीय’न्ति तावतकेनेव तुट्ठिं आपज्जेय्याथ. आरोचयामि वो, भिक्खवे, पटिवेदयामि वो, भिक्खवे – ‘मा वो सामञ्ञत्थिकानं सतं सामञ्ञत्थो परिहायि, सति उत्तरिं करणीये’.
४२०. ‘‘किञ्च, भिक्खवे, उत्तरिं करणीयं? ‘परिसुद्धो नो आजीवो भविस्सति उत्तानो विवटो न च छिद्दवा संवुतो च. ताय च पन परिसुद्धाजीवताय नेवत्तानुक्कंसेस्साम न परं वम्भेस्सामा’ति एवञ्हि वो, भिक्खवे, सिक्खितब्बं. सिया खो पन, भिक्खवे, तुम्हाकं एवमस्स – ‘हिरोत्तप्पेनम्ह समन्नागता, परिसुद्धो नो कायसमाचारो, परिसुद्धो वचीसमाचारो, परिसुद्धो मनोसमाचारो, परिसुद्धो आजीवो; अलमेत्तावता कतमेत्तावता, अनुप्पत्तो नो सामञ्ञत्थो , नत्थि नो किञ्चि उत्तरिं करणीय’न्ति तावतकेनेव तुट्ठिं आपज्जेय्याथ. आरोचयामि वो, भिक्खवे, पटिवेदयामि वो, भिक्खवे – ‘मा वो सामञ्ञत्थिकानं सतं सामञ्ञत्थो परिहायि, सति उत्तरिं करणीये’.
४२१. ‘‘किञ्च, भिक्खवे, उत्तरिं करणीयं? ‘इन्द्रियेसु गुत्तद्वारा भविस्साम; चक्खुना रूपं दिस्वा न निमित्तग्गाही नानुब्यञ्जनग्गाही. यत्वाधिकरणमेनं चक्खुन्द्रियं असंवुतं विहरन्तं अभिज्झादोमनस्सा पापका अकुसला धम्मा अन्वास्सवेय्युं, तस्स संवराय पटिपज्जिस्साम, रक्खिस्साम चक्खुन्द्रियं, चक्खुन्द्रिये संवरं आपज्जिस्साम. सोतेन सद्दं सुत्वा…पे… घानेन गन्धं घायित्वा…पे… जिव्हाय रसं सायित्वा…पे… कायेन फोट्ठब्बं फुसित्वा…पे… मनसा धम्मं विञ्ञाय न निमित्तग्गाही नानुब्यञ्जनग्गाही. यत्वाधिकरणमेनं मनिन्द्रियं असंवुतं विहरन्तं अभिज्झादोमनस्सा पापका अकुसला धम्मा अन्वास्सवेय्युं, तस्स संवराय पटिपज्जिस्साम, रक्खिस्साम मनिन्द्रियं, मनिन्द्रिये संवरं आपज्जिस्सामा’ति एवञ्हि वो, भिक्खवे, सिक्खितब्बं. सिया खो पन, भिक्खवे, तुम्हाकं एवमस्स – ‘हिरोत्तप्पेनम्ह समन्नागता, परिसुद्धो नो कायसमाचारो, परिसुद्धो वचीसमाचारो, परिसुद्धो मनोसमाचारो, परिसुद्धो आजीवो, इन्द्रियेसुम्ह गुत्तद्वारा; अलमेत्तावता कतमेत्तावता, अनुप्पत्तो नो सामञ्ञत्थो, नत्थि नो किञ्चि उत्तरिं करणीय’न्ति तावतकेनेव तुट्ठिं आपज्जेय्याथ. आरोचयामि वो, भिक्खवे, पटिवेदयामि वो, भिक्खवे – ‘मा वो सामञ्ञत्थिकानं सतं सामञ्ञत्थो परिहायि, सति उत्तरिं करणीये’.
४२२. ‘‘किञ्च, भिक्खवे, उत्तरिं करणीयं? ‘भोजने मत्तञ्ञुनो भविस्साम, पटिसङ्खा योनिसो आहारं आहरिस्साम, नेव दवाय न मदाय न मण्डनाय न विभूसनाय यावदेव इमस्स कायस्स ठितिया यापनाय, विहिंसूपरतिया, ब्रह्मचरियानुग्गहाय, इति पुराणञ्च वेदनं पटिहङ्खाम नवञ्च वेदनं न उप्पादेस्साम, यात्रा च नो भविस्सति, अनवज्जता च, फासु विहारो चा’ति एवञ्हि वो, भिक्खवे, सिक्खितब्बं. सिया खो पन, भिक्खवे, तुम्हाकं एवमस्स – ‘हिरोत्तप्पेनम्ह समन्नागता, परिसुद्धो नो कायसमाचारो, परिसुद्धो वचीसमाचारो, परिसुद्धो मनोसमाचारो, परिसुद्धो आजीवो, इन्द्रियेसुम्ह गुत्तद्वारा, भोजने मत्तञ्ञुनो; अलमेत्तावता कतमेत्तावता, अनुप्पत्तो नो सामञ्ञत्थो, नत्थि नो किञ्चि उत्तरिं करणीय’न्ति तावतकेनेव तुट्ठिं आपज्जेय्याथ. आरोचयामि वो, भिक्खवे, पटिवेदयामि वो, भिक्खवे – ‘मा वो, सामञ्ञत्थिकानं सतं सामञ्ञत्थो परिहायि सति उत्तरिं करणीये’.
४२३. ‘‘किञ्च , भिक्खवे, उत्तरिं करणीयं? ‘जागरियं अनुयुत्ता भविस्साम, दिवसं चङ्कमेन निसज्जाय आवरणीयेहि धम्मेहि चित्तं परिसोधेस्साम. रत्तिया पठमं यामं चङ्कमेन निसज्जाय आवरणीयेहि धम्मेहि चित्तं परिसोधेस्साम. रत्तिया मज्झिमं यामं दक्खिणेन पस्सेन सीहसेय्यं कप्पेस्साम पादे पादं अच्चाधाय, सतो सम्पजानो उट्ठानसञ्ञं मनसि करित्वा. रत्तिया पच्छिमं यामं पच्चुट्ठाय चङ्कमेन निसज्जाय आवरणीयेहि धम्मेहि चित्तं परिसोधेस्सामा’ति, एवञ्हि वो, भिक्खवे, सिक्खितब्बं. सिया खो पन, भिक्खवे, तुम्हाकं एवमस्स – ‘हिरोत्तप्पेनम्ह समन्नागता, परिसुद्धो नो कायसमाचारो, परिसुद्धो वचीसमाचारो, परिसुद्धो मनोसमाचारो, परिसुद्धो आजीवो, इन्द्रियेसुम्ह गुत्तद्वारा, भोजने मत्तञ्ञुनो, जागरियं अनुयुत्ता; अलमेत्तावता कतमेत्तावता, अनुप्पत्तो नो सामञ्ञत्थो, नत्थि नो किञ्चि उत्तरिं करणीय’न्ति, तावतकेनेव तुट्ठिं आपज्जेय्याथ. आरोचयामि वो, भिक्खवे, पटिवेदयामि वो, भिक्खवे – ‘मा वो, सामञ्ञत्थिकानं सतं सामञ्ञत्थो परिहायि सति उत्तरिं करणीये’.
४२४. ‘‘किञ्च, भिक्खवे, उत्तरिं करणीयं? ‘सतिसम्पजञ्ञेन समन्नागता भविस्साम, अभिक्कन्ते पटिक्कन्ते सम्पजानकारी, आलोकिते विलोकिते सम्पजानकारी, समिञ्जिते पसारिते सम्पजानकारी, सङ्घाटिपत्तचीवरधारणे सम्पजानकारी, असिते पीते खायिते सायिते सम्पजानकारी, उच्चारपस्सावकम्मे सम्पजानकारी, गते ठिते निसिन्ने सुत्ते जागरिते भासिते तुण्हीभावे सम्पजानकारी’ति, एवञ्हि वो, भिक्खवे, सिक्खितब्बं. सिया खो पन, भिक्खवे, तुम्हाकं एवमस्स – ‘हिरोत्तप्पेनम्ह समन्नागता, परिसुद्धो नो कायसमाचारो, परिसुद्धो वचीसमाचारो, परिसुद्धो मनोसमाचारो, परिसुद्धो आजीवो, इन्द्रियेसुम्ह गुत्तद्वारा, भोजने मत्तञ्ञुनो, जागरियं अनुयुत्ता, सतिसम्पजञ्ञेन समन्नागता; अलमेत्तावता कतमेत्तावता, अनुप्पत्तो नो सामञ्ञत्थो, नत्थि नो किञ्चि उत्तरिं करणीय’न्ति तावतकेनेव तुट्ठिं आपज्जेय्याथ. आरोचयामि वो, भिक्खवे, पटिवेदयामि वो, भिक्खवे – ‘मा वो, सामञ्ञत्थिकानं सतं सामञ्ञत्थो परिहायि सति उत्तरिं करणीये’.
४२५. ‘‘किञ्च, भिक्खवे, उत्तरिं करणीयं? इध, भिक्खवे, भिक्खु विवित्तं सेनासनं भजति – अरञ्ञं रुक्खमूलं पब्बतं कन्दरं गिरिगुहं सुसानं वनप्पत्थं अब्भोकासं पलालपुञ्जं. सो पच्छाभत्तं पिण्डपातपटिक्कन्तो निसीदति पल्लङ्कं आभुजित्वा, उजुं कायं पणिधाय परिमुखं सतिं उपट्ठपेत्वा. सो अभिज्झं लोके पहाय विगताभिज्झेन चेतसा विहरति, अभिज्झाय चित्तं परिसोधेति; ब्यापादपदोसं पहाय अब्यापन्नचित्तो विहरति, सब्बपाणभूतहितानुकम्पी , ब्यापादपदोसा चित्तं परिसोधेति; थीनमिद्धं पहाय विगतथीनमिद्धो विहरति, आलोकसञ्ञी सतो सम्पजानो, थीनमिद्धा चित्तं परिसोधेति; उद्धच्चकुक्कुच्चं पहाय अनुद्धतो विहरति , अज्झत्तं वूपसन्तचित्तो, उद्धच्चकुक्कुच्चा चित्तं परिसोधेति; विचिकिच्छं पहाय तिण्णविचिकिच्छो विहरति, अकथंकथी कुसलेसु धम्मेसु, विचिकिच्छाय चित्तं परिसोधेति.
४२६. ‘‘सेय्यथापि , भिक्खवे, पुरिसो इणं आदाय कम्मन्ते पयोजेय्य. तस्स ते कम्मन्ता समिज्झेय्युं [सम्पज्जेय्युं (स्या. कं. क.)]. सो यानि च पोराणानि इणमूलानि तानि च ब्यन्ती [ब्यन्तिं (क.), ब्यन्ति (पी.)] करेय्य, सिया चस्स उत्तरिं अवसिट्ठं दारभरणाय. तस्स एवमस्स – ‘अहं खो पुब्बे इणं आदाय कम्मन्ते पयोजेसिं, तस्स मे ते कम्मन्ता समिज्झिंसु. सोहं यानि च पोराणानि इणमूलानि तानि च ब्यन्ती अकासिं, अत्थि च मे उत्तरिं अवसिट्ठं दारभरणाया’ति. सो ततोनिदानं लभेथ पामोज्जं, अधिगच्छेय्य सोमनस्सं.
‘‘सेय्यथापि, भिक्खवे, पुरिसो आबाधिको अस्स दुक्खितो बाळ्हगिलानो, भत्तञ्चस्स नच्छादेय्य, न चस्स काये बलमत्ता. सो अपरेन समयेन तम्हा आबाधा मुच्चेय्य, भत्तञ्चस्स छादेय्य, सिया चस्स काये बलमत्ता. तस्स एवमस्स – ‘अहं खो पुब्बे आबाधिको अहोसिं दुक्खितो बाळ्हगिलानो, भत्तञ्च मे नच्छादेसि, न च मे आसि काये बलमत्ता, सोम्हि एतरहि तम्हा आबाधा मुत्तो, भत्तञ्च मे छादेति, अत्थि च मे काये बलमत्ता’ति. सो ततोनिदानं लभेथ पामोज्जं, अधिगच्छेय्य सोमनस्सं.
‘‘सेय्यथापि, भिक्खवे, पुरिसो बन्धनागारे बद्धो अस्स. सो अपरेन समयेन तम्हा बन्धना मुच्चेय्य सोत्थिना अब्भयेन [अब्ययेन (सी. पी.)], न चस्स किञ्चि भोगानं वयो. तस्स एवमस्स – ‘अहं खो पुब्बे बन्धनागारे बद्धो अहोसिं, सोम्हि एतरहि तम्हा बन्धना मुत्तो, सोत्थिना अब्भयेन, नत्थि च मे किञ्चि भोगानं वयो’ति. सो ततोनिदानं लभेथ पामोज्जं, अधिगच्छेय्य सोमनस्सं.
‘‘सेय्यथापि , भिक्खवे, पुरिसो दासो अस्स अनत्ताधीनो पराधीनो न येनकामंगमो. सो अपरेन समयेन तम्हा दासब्या मुच्चेय्य अत्ताधीनो अपराधीनो भुजिस्सो येनकामंगमो. तस्स एवमस्स – ‘अहं खो पुब्बे दासो अहोसिं अनत्ताधीनो पराधीनो न येनकामंगमो, सोम्हि एतरहि तम्हा दासब्या मुत्तो अत्ताधीनो अपराधीनो भुजिस्सो येनकामंगमो’ति. सो ततोनिदानं लभेथ पामोज्जं, अधिगच्छेय्य सोमनस्सं.
‘‘सेय्यथापि, भिक्खवे, पुरिसो सधनो सभोगो कन्तारद्धानमग्गं पटिपज्जेय्य [सीलक्खन्धवग्गपाळिया किञ्चि विसदिसं]. सो अपरेन समयेन तम्हा कन्तारा नित्थरेय्य सोत्थिना अब्भयेन, न चस्स किञ्चि भोगानं वयो. तस्स एवमस्स – ‘अहं खो पुब्बे सधनो सभोगो कन्तारद्धानमग्गं पटिपज्जिं. सोम्हि एतरहि तम्हा कन्तारा नित्थिण्णो सोत्थिना अब्भयेन, नत्थि च मे किञ्चि भोगानं वयो’ति. सो ततोनिदानं लभेथ पामोज्जं, अधिगच्छेय्य सोमनस्सं.
‘‘एवमेव खो, भिक्खवे, भिक्खु यथा इणं यथा रोगं यथा बन्धनागारं यथा दासब्यं यथा कन्तारद्धानमग्गं, इमे पञ्च नीवरणे अप्पहीने अत्तनि समनुपस्सति. सेय्यथापि, भिक्खवे, आणण्यं यथा आरोग्यं यथा बन्धनामोक्खं यथा भुजिस्सं यथा खेमन्तभूमिं; एवमेव भिक्खु इमे पञ्च नीवरणे पहीने अत्तनि समनुपस्सति.
४२७. ‘‘सो इमे पञ्च नीवरणे पहाय चेतसो उपक्किलेसे पञ्ञाय दुब्बलीकरणे, विविच्चेव कामेहि विविच्च अकुसलेहि धम्मेहि, सवितक्कं सविचारं विवेकजं पीतिसुखं पठमं झानं उपसम्पज्ज विहरति. सो इममेव कायं विवेकजेन पीतिसुखेन अभिसन्देति परिसन्देति परिपूरेति परिप्फरति, नास्स किञ्चि सब्बावतो कायस्स विवेकजेन पीतिसुखेन अप्फुटं होति. सेय्यथापि, भिक्खवे, दक्खो न्हापको [नहापको (सी. स्या. कं. पी.)] वा न्हापकन्तेवासी वा कंसथाले न्हानीयचुण्णानि [नहानीयचुण्णानि (सी. स्या. कं. पी.)] आकिरित्वा उदकेन परिप्फोसकं परिप्फोसकं सन्नेय्य. सायं न्हानीयपिण्डि स्नेहानुगता स्नेहपरेता सन्तरबाहिरा, फुटा स्नेहेन न च पग्घरिणी. एवमेव खो, भिक्खवे, भिक्खु इममेव कायं विवेकजेन पीतिसुखेन अभिसन्देति परिसन्देति परिपूरेति परिप्फरति, नास्स किञ्चि सब्बावतो कायस्स विवेकजेन पीतिसुखेन अप्फुटं होति.
४२८. ‘‘पुन चपरं, भिक्खवे, भिक्खु वितक्कविचारानं वूपसमा अज्झत्तं सम्पसादनं चेतसो एकोदिभावं अवितक्कं अविचारं समाधिजं पीतिसुखं दुतियं झानं उपसम्पज्ज विहरति. सो इममेव कायं समाधिजेन पीतिसुखेन अभिसन्देति परिसन्देति परिपूरेति परिप्फरति, नास्स किञ्चि सब्बावतो कायस्स समाधिजेन पीतिसुखेन अप्फुटं होति. सेय्यथापि, भिक्खवे, उदकरहदो उब्भिदोदको [उब्भितोदको (क.)]. तस्स नेवस्स पुरत्थिमाय दिसाय उदकस्स आयमुखं, न पच्छिमाय दिसाय उदकस्स आयमुखं, न उत्तराय दिसाय उदकस्स आयमुखं, न दक्खिणाय दिसाय उदकस्स आयमुखं, देवो च न कालेन कालं सम्माधारं अनुप्पवेच्छेय्य. अथ खो तम्हाव उदकरहदा सीता वारिधारा उब्भिज्जित्वा तमेव उदकरहदं सीतेन वारिना अभिसन्देय्य परिसन्देय्य परिपूरेय्य परिप्फरेय्य, नास्स किञ्चि सब्बावतो उदकरहदस्स सीतेन वारिना अप्फुटं अस्स. एवमेव खो, भिक्खवे, भिक्खु इममेव कायं समाधिजेन पीतिसुखेन अभिसन्देति परिसन्देति परिपूरेति परिप्फरति, नास्स किञ्चि सब्बावतो कायस्स समाधिजेन पीतिसुखेन अप्फुटं होति.
४२९. ‘‘पुन चपरं, भिक्खवे, भिक्खु पीतिया च विरागा उपेक्खको च विहरति, सतो च सम्पजानो, सुखञ्च कायेन पटिसंवेदेति, यं तं अरिया आचिक्खन्ति – ‘उपेक्खको सतिमा सुखविहारी’ति ततियं झानं उपसम्पज्ज विहरति. सो इममेव कायं निप्पीतिकेन सुखेन अभिसन्देति परिसन्देति परिपूरेति परिप्फरति, नास्स किञ्चि सब्बावतो कायस्स निप्पीतिकेन सुखेन अप्फुटं होति. सेय्यथापि, भिक्खवे, उप्पलिनियं वा पदुमिनियं वा पुण्डरीकिनियं वा अप्पेकच्चानि उप्पलानि वा पदुमानि वा पुण्डरीकानि वा उदके जातानि उदके संवड्ढानि उदकानुग्गतानि अन्तोनिमुग्गपोसीनि, तानि याव चग्गा याव च मूला सीतेन वारिना अभिसन्नानि परिसन्नानि परिपूरानि परिप्फुटानि, नास्स [न नेसं (सी.)] किञ्चि सब्बावतं उप्पलानं वा पदुमानं वा पुण्डरीकानं वा सीतेन वारिना अप्फुटं अस्स. एवमेव खो, भिक्खवे, भिक्खु इममेव कायं निप्पीतिकेन सुखेन अभिसन्देति परिसन्देति परिपूरेति परिप्फरति, नास्स किञ्चि सब्बावतो कायस्स निप्पीतिकेन सुखेन अप्फुटं होति.
४३०. ‘‘पुन चपरं, भिक्खवे, भिक्खु सुखस्स च पहाना दुक्खस्स च पहाना, पुब्बेव सोमनस्सदोमनस्सानं अत्थङ्गमा, अदुक्खमसुखं उपेक्खासतिपारिसुद्धिं चतुत्थं झानं उपसम्पज्ज विहरति. सो इममेव कायं परिसुद्धेन चेतसा परियोदातेन फरित्वा निसिन्नो होति , नास्स किञ्चि सब्बावतो कायस्स परिसुद्धेन चेतसा परियोदातेन अप्फुटं होति. सेय्यथापि, भिक्खवे, पुरिसो ओदातेन वत्थेन ससीसं पारुपेत्वा निसिन्नो अस्स, नास्स किञ्चि सब्बावतो कायस्स ओदातेन वत्थेन अप्फुटं अस्स. एवमेव खो, भिक्खवे, भिक्खु इममेव कायं परिसुद्धेन चेतसा परियोदातेन फरित्वा निसिन्नो होति, नास्स किञ्चि सब्बावतो कायस्स परिसुद्धेन चेतसा परियोदातेन अप्फुटं होति.
४३१. ‘‘सो एवं समाहिते चित्ते परिसुद्धे परियोदाते अनङ्गणे विगतूपक्किलेसे मुदुभूते कम्मनिये ठिते आनेञ्जप्पत्ते पुब्बेनिवासानुस्सतिञाणाय चित्तं अभिनिन्नामेति. सो अनेकविहितं पुब्बेनिवासं अनुस्सरति, सेय्यथिदं – एकम्पि जातिं, द्वेपि जातियो…पे… इति साकारं सउद्देसं अनेकविहितं पुब्बेनिवासं अनुस्सरति. सेय्यथापि, भिक्खवे, पुरिसो सकम्हा गामा अञ्ञं गामं गच्छेय्य, तम्हापि गामा अञ्ञं गामं गच्छेय्य, सो तम्हा गामा सकंयेव गामं पच्चागच्छेय्य. तस्स एवमस्स – ‘अहं खो सकम्हा गामा अमुं गामं अगच्छिं [अगच्छिं (सी. स्या. कं. पी.)], तत्रपि एवं अट्ठासिं एवं निसीदिं एवं अभासिं एवं तुण्ही अहोसिं; तम्हापि गामा अमुं गामं अगच्छिं, तत्रपि एवं अट्ठासिं एवं निसीदिं एवं अभासिं एवं तुण्ही अहोसिं; सोम्हि तम्हा गामा सकंयेव गामं पच्चागतो’ति. एवमेव खो, भिक्खवे, भिक्खु अनेकविहितं पुब्बेनिवासं अनुस्सरति, सेय्यथिदं – एकम्पि जातिं द्वेपि जातियो…पे… इति साकारं सउद्देसं अनेकविहितं पुब्बेनिवासं अनुस्सरति.
४३२. ‘‘सो एवं समाहिते चित्ते परिसुद्धे परियोदाते अनङ्गणे विगतूपक्किलेसे मुदुभूते कम्मनिये ठिते आनेञ्जप्पत्ते सत्तानं चुतूपपातञाणाय चित्तं अभिनिन्नामेति. सो दिब्बेन चक्खुना विसुद्धेन अतिक्कन्तमानुसकेन सत्ते पस्सति चवमाने उपपज्जमाने हीने पणीते सुवण्णे दुब्बण्णे, सुगते दुग्गते, यथाकम्मूपगे सत्ते पजानाति…पे… सेय्यथापि, भिक्खवे, द्वे अगारा सद्वारा [सन्नद्वारा (क.)]. तत्थ चक्खुमा पुरिसो मज्झे ठितो पस्सेय्य मनुस्से गेहं पविसन्तेपि निक्खमन्तेपि, अनुचङ्कमन्तेपि अनुविचरन्तेपि . एवमेव खो, भिक्खवे, भिक्खु दिब्बेन चक्खुना विसुद्धेन अतिक्कन्तमानुसकेन सत्ते पस्सति चवमाने उपपज्जमाने हीने पणीते सुवण्णे दुब्बण्णे, सुगते दुग्गते यथाकम्मूपगे सत्ते पजानाति…पे….
४३३. ‘‘सो एवं समाहिते चित्ते परिसुद्धे परियोदाते अनङ्गणे विगतूपक्किलेसे मुदुभूते कम्मनिये ठिते आनेञ्जप्पत्ते आसवानं खयञाणाय चित्तं अभिनिन्नामेति. सो ‘इदं दुक्ख’न्ति यथाभूतं पजानाति, ‘अयं दुक्खसमुदयो’ति यथाभूतं पजानाति, ‘अयं दुक्खनिरोधो’ति यथाभूतं पजानाति, ‘अयं दुक्खनिरोधगामिनी पटिपदा’ति यथाभूतं पजानाति. ‘इमे आसवा’ति यथाभूतं पजानाति, ‘अयं आसवसमुदयो’ति यथाभूतं पजानाति, ‘अयं आसवनिरोधो’ति यथाभूतं पजानाति, ‘अयं आसवनिरोधगामिनी पटिपदा’ति यथाभूतं पजानाति. तस्स एवं जानतो एवं पस्सतो कामासवापि चित्तं विमुच्चति, भवासवापि चित्तं विमुच्चति, अविज्जासवापि चित्तं विमुच्चति. विमुत्तस्मिं विमुत्तमिति ञाणं होति – ‘खीणा जाति, वुसितं ब्रह्मचरियं, कतं करणीयं, नापरं इत्थत्ताया’ति पजानाति.
‘‘सेय्यथापि, भिक्खवे, पब्बतसङ्खेपे उदकरहदो अच्छो विप्पसन्नो अनाविलो. तत्थ चक्खुमा पुरिसो तीरे ठितो पस्सेय्य सिप्पिसम्बुकम्पि [सिप्पिकसम्बुकम्पि (स्या. कं. क.)] सक्खरकथलम्पि मच्छगुम्बम्पि, चरन्तम्पि तिट्ठन्तम्पि. तस्स एवमस्स – ‘अयं खो उदकरहदो अच्छो विप्पसन्नो अनाविलो. तत्रिमे सिप्पिसम्बुकापि सक्खरकथलापि मच्छगुम्बापि चरन्तिपि तिट्ठन्तिपीति . एवमेव खो, भिक्खवे, भिक्खु ‘इदं दुक्ख’न्ति यथाभूतं पजानाति…पे… नापरं इत्थत्तायाति पजानाति.
४३४. ‘‘अयं वुच्चति, भिक्खवे, भिक्खु ‘समणो’ इतिपि ‘ब्राह्मणो’इतिपि ‘न्हातको’इतिपि ‘वेदगू’इतिपि ‘सोत्तियो’इतिपि ‘अरियो’इतिपि ‘अरहं’इतिपि. कथञ्च, भिक्खवे, भिक्खु समणो होति? समितास्स होन्ति पापका अकुसला धम्मा, संकिलेसिका, पोनोब्भविका, सदरा, दुक्खविपाका , आयतिं, जातिजरामरणिया. एवं खो, भिक्खवे, भिक्खु समणो होति.
‘‘कथञ्च, भिक्खवे, भिक्खु ब्राह्मणो होति? बाहितास्स होन्ति पापका अकुसला धम्मा , संकिलेसिका, पोनोब्भविका, सदरा, दुक्खविपाका, आयतिं, जातिजरामरणिया. एवं खो, भिक्खवे, भिक्खु ब्राह्मणो होति.
‘‘कथञ्च, भिक्खवे, भिक्खु न्हातको [नहातको (सी. स्या. कं. पी.)] होति? न्हातास्स होन्ति पापका अकुसला धम्मा, संकिलेसिका, पोनोब्भविका, सदरा, दुक्खविपाका, आयतिं, जातिजरामरणिया. एवं खो, भिक्खवे, भिक्खु न्हातको होति.
‘‘कथञ्च, भिक्खवे, भिक्खु वेदगू होति? विदितास्स होन्ति पापका अकुसला धम्मा, संकिलेसिका, पोनोब्भविका, सदरा, दुक्खविपाका, आयतिं, जातिजरामरणिया. एवं खो, भिक्खवे, भिक्खु वेदगू होति.
‘‘कथञ्च, भिक्खवे, भिक्खु सोत्तियो होति? निस्सुतास्स होन्ति पापका अकुसला धम्मा, संकिलेसिका, पोनोब्भविका, सदरा, दुक्खविपाका, आयतिं, जातिजरामरणिया. एवं खो, भिक्खवे, भिक्खु सोत्तियो होति.
‘‘कथञ्च, भिक्खवे, भिक्खु अरियो होति ? आरकास्स होन्ति पापका अकुसला धम्मा, संकिलेसिका, पोनोब्भविका, सदरा, दुक्खविपाका, आयतिं, जातिजरामरणिया. एवं खो, भिक्खवे, भिक्खु अरियो होति.
‘‘कथञ्च, भिक्खवे, भिक्खु अरहं होति? आरकास्स होन्ति पापका अकुसला धम्मा, संकिलेसिका, पोनोब्भविका, सदरा, दुक्खविपाका, आयतिं, जातिजरामरणिया. एवं खो, भिक्खवे, भिक्खु अरहं होती’’ति.
इदमवोच भगवा. अत्तमना ते भिक्खू भगवतो भासितं अभिनन्दुन्ति.
महाअस्सपुरसुत्तं निट्ठितं नवमं.