नमो तस्स भगवतो अरहतो सम्मा-सम्बुद्धस्स

📜 श्रमण का उचित मार्ग

✦ ॥ नमो तस्स भगवतो अरहतो सम्मासम्बुद्धस्स ॥ ✦

Hindi

ऐसा मैंने सुना — एक समय भगवान अङ्ग (देश) के अस्सपुर नामक अङ्ग नगर में विहार कर रहे थे। वहाँ भगवान ने भिक्षुओं को संबोधित किया, “भिक्षुओं।”

“भदंत!” भिक्षुओं ने भगवान को उत्तर दिया। भगवान ने कहा—

“‘श्रमण… श्रमण’ कहते हुए, भिक्षुओं, जनता तुम्हें पहचानती है। तुम्हें भी जब पूछा जाता है कि ‘तुम कौन हो’, तो ‘हम श्रमण हैं’, ऐसा दावा करते हो।

जब इस तरह तुम्हारी पहचान हो, इस तरह तुम्हारा दावा हो, तब, भिक्षुओं, तुम्हें इस तरह सीखना चाहिए कि — ‘हम श्रमण के उचित मार्ग पर चलेंगे। तब हमारी पहचान और हमारा दावा सच्चाई के अनुरूप होगा। और हम जो चीवर, भिक्षान्न, आवास, और रोगावश्यक औषधि और भैषज्य का उपभोग करेंगे, वह दायकों के लिए महाफलदायी और महापुरस्कारी साबित होगा। और हमारी प्रवज्जा सार्थक, सफल, और उपजाऊ होगी।’

श्रमण के अनुचित मार्ग

तो, भिक्षुओं, श्रमण के उचित मार्ग पर चलना क्या नहीं होता है?

भिक्षुओं, जब किसी —

  • लालची भिक्षु का लालच नहीं त्यागा जाता,
  • दुर्भाव-चित्त की दुर्भावना नहीं त्यागी जाती,
  • क्रोधी का क्रोध नहीं त्यागा जाता,
  • बदलेखोर का बदला नहीं त्यागा जाता,
  • तिरस्कारी का तिरस्कार नहीं त्यागा जाता,
  • अकड़ू का अकड़ूपन नहीं त्यागा जाता,
  • ईर्ष्यालु की ईर्ष्या नहीं त्यागी जाती,
  • कंजूस की कंजूसी नहीं त्यागी जाती,
  • ठग की ठगी नहीं त्यागी जाती,
  • धोखेबाज की धोखेबाजी नहीं त्यागी जाती,
  • पापी इच्छुक की पापेच्छा नहीं त्यागी जाती,
  • मिथ्या-दृष्टिवान की मिथ्यादृष्टि नहीं त्यागी जाती

— तब मैं कहता हूँ, भिक्षुओं कि वे श्रमण के उचित मार्ग पर नहीं चलते हैं, और वे श्रमण के मल, श्रमण के दोष, श्रमण की त्रुटियों, निचले स्थानों में दुर्गति की अनुभूति कराने वाले को त्यागने वाले नहीं होते हैं।

जैसे, भिक्षुओं, ‘मतज’ नामक शस्त्र होता है, जो दोनों छोर से धारदार होता है, (हरताल पर) घिसकर पीला बनाया जाता है, फिर जिसे म्यान में रखा, ढका, आवृत किया जाता है। मैं कहता हूँ, भिक्षुओं, उसी तरह ऐसे भिक्षु की प्रवज्जा होती है।

भिक्षुओं, कोई —

  • संघाटी वाला बस संघाटी ओढ़ता है, उसे मैं श्रमण्यता नहीं कहता हूँ।
  • निर्वस्त्र (नंगा साधु) बस निर्वस्त्र रहता है, उसे मैं श्रमण्यता नहीं कहता हूँ।
  • धूल-मलिन बस धूल-मलिन रहता है, उसे मैं श्रमण्यता नहीं कहता हूँ।
  • जल-मग्न होने वाला बस जल मग्न होता है, उसे मैं श्रमण्यता नहीं कहता हूँ।
  • वृक्ष के तले रहने वाला बस वृक्ष के तले रहता है, उसे मैं श्रमण्यता नहीं कहता हूँ।
  • खुले आकाश के तले रहने वाला बस खुले आकाश के तले रहता है, उसे मैं श्रमण्यता नहीं कहता हूँ।
  • खड़ा रहने के व्रत वाला बस खड़ा रहता है, उसे मैं श्रमण्यता नहीं कहता हूँ।
  • (कई दिनों के) अंतराल में भोजन ग्रहण करने वाला बस अंतराल में भोजन करता है, उसे मैं श्रमण्यता नहीं कहता हूँ।
  • जटाधारी बस जटा धारण करता है, उसे मैं श्रमण्यता नहीं कहता हूँ।

निरर्थक व्रत

(१) भिक्षुओं, यदि किसी संघाटी वाले के संघाटी ओढ़ने मात्र से —

  • लालची का लालच त्यागा जाता,
  • दुर्भाव-चित्त की दुर्भावना त्यागी जाती,
  • क्रोधी का क्रोध त्यागा जाता,
  • बदलेखोर का बदला त्यागा जाता,
  • तिरस्कारी का तिरस्कार त्यागा जाता,
  • अकड़ू का अकड़ूपन त्यागा जाता,
  • ईर्ष्यालु की ईर्ष्या त्यागी जाती,
  • कंजूस की कंजूसी त्यागी जाती,
  • ठग की ठगी त्यागी जाती,
  • धोखेबाज की धोखेबाजी त्यागी जाती,
  • पापी इच्छुक की पापेच्छा त्यागी जाती,
  • मिथ्या-दृष्टिवान की मिथ्यादृष्टि त्यागी जाती

— तब तुम्हारे जन्म लेते ही परिवार, रिश्तेदार, मित्र, और सहकारी तुम्हें संघाटी ओढ़ा देते, संघाटी ओढ़े रखने के लिए ही कहते, “ओह, भोली शक्ल वाले, संघाटी ओढ़ लो! संघाटी वाला होकर संघाटी ओढ़ने मात्र से, लालची होने पर तुम्हारा लालच त्यागा जाएगा… मिथ्या-दृष्टिवान होने पर मिथ्यादृष्टि त्यागी जाएगी।”

किन्तु, भिक्षुओं, मैं किसी संघाटी वाले को लालची, दुर्भाव-चित्त का, क्रोधी, बदलेखोर, तिरस्कारी, अकड़ू, ईर्ष्यालु, कंजूस, ठग, धोखेबाज, पापेच्छुक, और मिथ्या दृष्टिवान देखता हूँ। इसलिए संघाटी वाला बस संघाटी ओढ़ता है, उसे मैं श्रमण्यता नहीं कहता हूँ।

(२) भिक्षुओं, यदि किसी निर्वस्त्र के निर्वस्त्र रहने मात्र से…

(३) किसी धूल-मलिन के धूल-मलिन रहने मात्र से…

(४) किसी जल-मग्न के जल-मग्न रहने मात्र से…

(५) किसी वृक्ष के तले रहने वाले के वृक्ष के तले रहने मात्र से…

(६) किसी खुले आकाश के तले रहने वाले के खुले आकाश के तले रहने मात्र से…

(७) किसी खड़े रहने के व्रत वाले के खड़े रहने मात्र से…

(८) किसी (कई दिनों के) अंतराल में भोजन ग्रहण करने वाले के अंतराल में भोजन करने मात्र से…

(९) किसी जटाधारी के जटा धारण करने मात्र से —

  • लालची का लालच त्यागा जाता,
  • दुर्भाव-चित्त की दुर्भावना त्यागी जाती,
  • क्रोधी का क्रोध त्यागा जाता,
  • बदलेखोर का बदला त्यागा जाता,
  • तिरस्कारी का तिरस्कार त्यागा जाता,
  • अकड़ू का अकड़ूपन त्यागा जाता,
  • ईर्ष्यालु की ईर्ष्या त्यागी जाती,
  • कंजूस की कंजूसी त्यागी जाती,
  • ठग की ठगी त्यागी जाती,
  • धोखेबाज की धोखेबाजी त्यागी जाती,
  • पापी इच्छुक की पापेच्छा त्यागी जाती,
  • मिथ्या-दृष्टिवान की मिथ्यादृष्टि त्यागी जाती

— तब तुम्हारे जन्म लेते ही परिवार, रिश्तेदार, मित्र, और सहकारी तुम्हें संघाटी ओढ़ा देते, संघाटी ओढ़े रखने के लिए ही कहते, “ओह, भोली शक्ल वाले, जटाधारी बनो! जटाधारी होकर जटा धारण करने मात्र से, लालची होने पर तुम्हारा लालच त्यागा जाएगा… मिथ्या-दृष्टिवान होने पर मिथ्यादृष्टि त्यागी जाएगी।”

किन्तु, भिक्षुओं, मैं किसी जटाधारी को लालची, दुर्भाव-चित्त का, क्रोधी, बदलेखोर, तिरस्कारी, अकड़ू, ईर्ष्यालु, कंजूस, ठग, धोखेबाज, पापेच्छुक, और मिथ्या दृष्टिवान देखता हूँ। इसलिए जटाधारी बस जटा धारण करता है, उसे मैं श्रमण्यता नहीं कहता हूँ।

श्रमण के उचित मार्ग

तो, भिक्षुओं, श्रमण के उचित मार्ग पर चलना क्या होता है?

भिक्षुओं, जब किसी —

  • लालची भिक्षु का लालच त्यागा जाता है,
  • दुर्भाव-चित्त की दुर्भावना त्यागी जाती है,
  • क्रोधी का क्रोध त्यागा जाता है,
  • बदलेखोर का बदला त्यागा जाता है,
  • तिरस्कारी का तिरस्कार त्यागा जाता है,
  • अकड़ू का अकड़ूपन त्यागा जाता है,
  • ईर्ष्यालु की ईर्ष्या त्यागी जाती है,
  • कंजूस की कंजूसी त्यागी जाती है,
  • ठग की ठगी त्यागी जाती है,
  • धोखेबाज की धोखेबाजी त्यागी जाती है,
  • पापी इच्छुक की पापेच्छा त्यागी जाती है,
  • मिथ्या-दृष्टिवान की मिथ्यादृष्टि त्यागी जाती है

— तब मैं कहता हूँ, भिक्षुओं कि वे श्रमण के उचित मार्ग पर चलते हैं, और वे श्रमण के मल, श्रमण के दोष, श्रमण की त्रुटियों, निचले स्थानों में दुर्गति की अनुभूति कराने वाले को त्यागने वाले होते हैं।

वे स्वयं को सभी पाप अकुशल स्वभावों से विशुद्ध देखते हैं, विमुक्त देखते हैं। स्वयं को उन सभी पाप अकुशल स्वभावों से विशुद्ध देखने पर प्रसन्नता जन्म लेती है। प्रसन्न होने से प्रफुल्लता जन्म लेती है। प्रफुल्लित मन होने से काया प्रशान्त हो जाती है। प्रशान्त काया सुख महसूस करती है। सुखी चित्त समाहित हो जाता है।

वह सद्भावपूर्ण (“मेत्ता”) चित्त को एक दिशा में फैलाकर व्याप्त करता है। उसी तरह दूसरी दिशा में… तीसरी दिशा में… चौथी दिशा में। उसी तरह, वह ऊपर… नीचे… तत्र सर्वत्र… सभी ओर संपूर्ण ब्रह्मांड में निर्बैर, निर्द्वेष, विस्तृत, विराट और असीम सद्भावपूर्ण चित्त को फैलाकर परिपूर्णतः व्याप्त करता है।

आगे, वह करुण चित्त… प्रसन्न [“मुदिता”] चित्त… तटस्थ [“उपेक्खा”] चित्त को एक दिशा में फैलाकर व्याप्त करता है। उसी तरह दूसरी दिशा में… तीसरी दिशा में… चौथी दिशा में। उसी तरह, वह ऊपर… नीचे… तत्र सर्वत्र… सभी ओर संपूर्ण ब्रह्मांड में निर्बैर, निर्द्वेष, विस्तृत, विराट और असीम करुण… प्रसन्न… तटस्थ चित्त को फैलाकर परिपूर्णतः व्याप्त करता है।

जैसे, भिक्षुओं, कोई पुष्करणी (=कमलपुष्प वाला तालाब) हो — पारदर्शी, मधुर, शीतल और स्वच्छ जल हो, मंद तट हो, रमणीय हो। तब तपति गर्मी में कोई पुरुष पूर्व-दिशा से आता है — गर्मी से बेहाल, थका मांदा, कपकपाता, और प्यासा। वह उस पुष्करणी में उतर कर अपनी प्यास और गर्मी से बदहाली मिटाता है।

तब तपति गर्मी में कोई पुरुष दक्षिण-दिशा से आता है… पश्चिम-दिशा से आता है… उत्तर दिशा से आता है — गर्मी से बेहाल, थका मांदा, कपकपाता, और प्यासा। वह उस पुष्करणी में उतर कर अपनी प्यास और गर्मी से बदहाली मिटाता है।

उसी तरह, भिक्षुओं, कोई क्षत्रिय कुल से घर से बेघर होकर प्रवज्जित होकर, तथागत द्वारा घोषित धर्म-विनय में आता है, वह सद्भाव, करुण, प्रसन्न और तटस्थता की साधना कर भीतरी प्रशांति प्राप्त करता है। मैं उस भीतरी प्रशांति को ‘श्रमण के उचित मार्ग पर चलना’ कहता हूँ।

उसी तरह, भिक्षुओं, कोई ब्राह्मण कुल से… वैश्य कुल से… शूद्र कुल से… जिस भी किसी कुल से घर से बेघर होकर प्रवज्जित होकर, तथागत द्वारा घोषित धर्म-विनय में आता है, वह सद्भाव, करुण, प्रसन्न और तटस्थता की साधना कर भीतरी प्रशांति प्राप्त करता है। मैं उस भीतरी प्रशांति को ‘श्रमण के उचित मार्ग पर चलना’ कहता हूँ।

कोई क्षत्रिय कुल से घर से बेघर होकर प्रवज्जित होता है। वह आस्रवों के क्षय होने से अनास्रव होकर, इसी जीवन में चेतोविमुक्ति और प्रज्ञाविमुक्ति प्राप्त कर, [अर्हत्व] प्रत्यक्ष-ज्ञान का साक्षात्कार करते हैं। आस्रवों के क्षय होने से वह ‘श्रमण’ होता है।

कोई ब्राह्मण कुल से… वैश्य कुल से… शूद्र कुल से… जिस भी किसी कुल से घर से बेघर होकर प्रवज्जित होता है। वह आस्रवों के क्षय होने से अनास्रव होकर, इसी जीवन में चेतोविमुक्ति और प्रज्ञाविमुक्ति प्राप्त कर, प्रत्यक्ष-ज्ञान का साक्षात्कार करते हैं। आस्रवों के क्षय होने से वह ‘श्रमण’ होता है।"

भगवान ने ऐसा कहा। हर्षित होकर भिक्षुओं ने भगवान के कथन का अभिनंदन किया।

सुत्र समाप्त।

Pali

४३५. एवं मे सुतं – एकं समयं भगवा अङ्गेसु विहरति अस्सपुरं नाम अङ्गानं निगमो. तत्र खो भगवा भिक्खू आमन्तेसि – ‘‘भिक्खवो’’ति. ‘‘भदन्ते’’ति ते भिक्खू भगवतो पच्चस्सोसुं. भगवा एतदवोच – ‘‘समणा समणाति वो, भिक्खवे, जनो सञ्जानाति. तुम्हे च पन ‘के तुम्हे’ति पुट्ठा समाना ‘समणाम्हा’ति पटिजानाथ. तेसं वो, भिक्खवे, एवंसमञ्ञानं सतं एवंपटिञ्ञानं सतं – ‘या समणसामीचिप्पटिपदा तं पटिपज्जिस्साम; एवं नो अयं अम्हाकं समञ्ञा च सच्चा भविस्सति पटिञ्ञा च भूता; येसञ्च मयं चीवरपिण्डपातसेनासनगिलानप्पच्चयभेसज्जपरिक्खारं परिभुञ्जाम, तेसं ते कारा अम्हेसु महप्फला भविस्सन्ति महानिसंसा, अम्हाकञ्चेवायं पब्बज्जा अवञ्झा भविस्सति सफला सउद्रया’ति. एवञ्हि वो, भिक्खवे, सिक्खितब्बं.

४३६. ‘‘कथञ्च, भिक्खवे, भिक्खु न समणसामीचिप्पटिपदं पटिपन्नो होति? यस्स कस्सचि, भिक्खवे, भिक्खुनो अभिज्झालुस्स अभिज्झा अप्पहीना होति, ब्यापन्नचित्तस्स ब्यापादो अप्पहीनो होति, कोधनस्स कोधो अप्पहीनो होति, उपनाहिस्स उपनाहो अप्पहीनो होति, मक्खिस्स मक्खो अप्पहीनो होति, पळासिस्स पळासो अप्पहीनो होति, इस्सुकिस्स इस्सा अप्पहीना होति, मच्छरिस्स मच्छरियं अप्पहीनं होति , सठस्स साठेय्यं अप्पहीनं होति, मायाविस्स माया अप्पहीना होति, पापिच्छस्स पापिका इच्छा अप्पहीना होति, मिच्छादिट्ठिकस्स मिच्छादिट्ठि अप्पहीना होति – इमेसं खो अहं, भिक्खवे, समणमलानं समणदोसानं समणकसटानं आपायिकानं ठानानं दुग्गतिवेदनियानं अप्पहाना ‘न समणसामीचिप्पटिपदं पटिपन्नो’ति वदामि. सेय्यथापि, भिक्खवे, मतजं नाम आवुधजातं उभतोधारं पीतनिसितं. तदस्स सङ्घाटिया सम्पारुतं सम्पलिवेठितं. तथूपमाहं, भिक्खवे, इमस्स भिक्खुनो पब्बज्जं वदामि.

४३७. ‘‘नाहं, भिक्खवे, सङ्घाटिकस्स सङ्घाटिधारणमत्तेन सामञ्ञं वदामि. नाहं, भिक्खवे, अचेलकस्स अचेलकमत्तेन सामञ्ञं वदामि. नाहं, भिक्खवे, रजोजल्लिकस्स रजोजल्लिकमत्तेन सामञ्ञं वदामि. नाहं, भिक्खवे , उदकोरोहकस्स उदकोरोहणमत्तेन [उदकोरोहकमत्तेन (सी. पी.)] सामञ्ञं वदामि. नाहं, भिक्खवे, रुक्खमूलिकस्स रुक्खमूलिकमत्तेन सामञ्ञं वदामि. नाहं, भिक्खवे, अब्भोकासिकस्स अब्भोकासिकमत्तेन सामञ्ञं वदामि. नाहं, भिक्खवे, उब्भट्ठकस्स उब्भट्ठकमत्तेन सामञ्ञं वदामि. नाहं, भिक्खवे, परियायभत्तिकस्स परियायभत्तिकमत्तेन सामञ्ञं वदामि. नाहं, भिक्खवे, मन्तज्झायकस्स मन्तज्झायकमत्तेन सामञ्ञं वदामि. नाहं, भिक्खवे, जटिलकस्स जटाधारणमत्तेन सामञ्ञं वदामि.

‘‘सङ्घाटिकस्स चे, भिक्खवे, सङ्घाटिधारणमत्तेन अभिज्झालुस्स अभिज्झा पहीयेथ, ब्यापन्नचित्तस्स ब्यापादो पहीयेथ, कोधनस्स कोधो पहीयेथ, उपनाहिस्स उपनाहो पहीयेथ, मक्खिस्स मक्खो पहीयेथ, पळासिस्स पळासो पहीयेथ, इस्सुकिस्स इस्सा पहीयेथ, मच्छरिस्स मच्छरियं पहीयेथ, सठस्स साठेय्यं पहीयेथ, मायाविस्स माया पहीयेथ, पापिच्छस्स पापिका इच्छा पहीयेथ, मिच्छादिट्ठिकस्स मिच्छादिट्ठि पहीयेथ, तमेनं मित्तामच्चा ञातिसालोहिता जातमेव नं सङ्घाटिकं करेय्युं, सङ्घाटिकत्तमेव [संघाटीकत्ते चेव (क.)] समादपेय्युं – ‘एहि त्वं, भद्रमुख, सङ्घाटिको होहि, सङ्घाटिकस्स ते सतो सङ्घाटिधारणमत्तेन अभिज्झालुस्स अभिज्झा पहीयिस्सति, ब्यापन्नचित्तस्स ब्यापादो पहीयिस्सति, कोधनस्स कोधो पहीयिस्सति, उपनाहिस्स उपनाहो पहीयिस्सति, मक्खिस्स मक्खो पहीयिस्सति, पळासिस्स पळासो पहीयिस्सति, इस्सुकिस्स इस्सा पहीयिस्सति, मच्छरिस्स मच्छरियं पहीयिस्सति, सठस्स साठेय्यं पहीयिस्सति, मायाविस्स माया पहीयिस्सति, पापिच्छस्स पापिका इच्छा पहीयिस्सति, मिच्छादिट्ठिकस्स मिच्छादिट्ठि पहीयिस्सती’ति. यस्मा च खो अहं, भिक्खवे, सङ्घाटिकम्पि इधेकच्चं पस्सामि अभिज्झालुं ब्यापन्नचित्तं कोधनं उपनाहिं मक्खिं पळासिं इस्सुकिं मच्छरिं सठं मायाविं पापिच्छं मिच्छादिट्ठिकं, तस्मा न सङ्घाटिकस्स सङ्घाटिधारणमत्तेन सामञ्ञं वदामि.

‘‘अचेलकस्स चे, भिक्खवे…पे… रजोजल्लिकस्स चे, भिक्खवे…पे… उदकोरोहकस्स चे, भिक्खवे…पे… रुक्खमूलिकस्स चे, भिक्खवे…पे… अब्भोकासिकस्स चे, भिक्खवे…पे… उब्भट्ठकस्स चे, भिक्खवे…पे… परियायभत्तिकस्स चे, भिक्खवे…पे… मन्तज्झायकस्स चे, भिक्खवे…पे… जटिलकस्स चे, भिक्खवे, जटाधारणमत्तेन अभिज्झालुस्स अभिज्झा पहीयेथ, ब्यापन्नचित्तस्स ब्यापादो पहीयेथ , कोधनस्स कोधो पहीयेथ, उपनाहिस्स उपनाहो पहीयेथ, मक्खिस्स मक्खो पहीयेथ, पळासिस्स पळासो पहीयेथ, इस्सुकिस्स इस्सा पहीयेथ, मच्छरिस्स मच्छरियं पहीयेथ, सठस्स साठेय्यं पहीयेथ, मायाविस्स माया पहीयेथ, पापिच्छस्स पापिका इच्छा पहीयेथ, मिच्छादिट्ठिकस्स मिच्छादिट्ठि पहीयेथ, तमेनं मित्तामच्चा ञातिसालोहिता जातमेव नं जटिलकं करेय्युं, जटिलकत्तमेव [जटिलकत्ते चेव (क.)] समादपेय्युं – ‘एहि त्वं, भद्रमुख, जटिलको होहि, जटिलकस्स ते सतो जटाधारणमत्तेन अभिज्झालुस्स अभिज्झा पहीयिस्सति ब्यापन्नचित्तस्स ब्यापादो पहीयिस्सति, कोधनस्स कोधो पहीयिस्सति…पे… पापिच्छस्स पापिका इच्छा पहीयिस्सति मिच्छादिट्ठिकस्स मिच्छादिट्ठि पहीयिस्सती’ति. यस्मा च खो अहं, भिक्खवे, जटिलकम्पि इधेकच्चं पस्सामि अभिज्झालुं ब्यापन्नचित्तं कोधनं उपनाहिं मक्खिं पलासिं इस्सुकिं मच्छरिं सठं मायाविं पापिच्छं मिच्छादिट्ठिं, तस्मा न जटिलकस्स जटाधारणमत्तेन सामञ्ञं वदामि.

४३८. ‘‘कथञ्च, भिक्खवे, भिक्खु समणसामीचिप्पटिपदं पटिपन्नो होति? यस्स कस्सचि, भिक्खवे, भिक्खुनो अभिज्झालुस्स अभिज्झा पहीना होति, ब्यापन्नचित्तस्स ब्यापादो पहीनो होति, कोधनस्स कोधो पहीनो होति, उपनाहिस्स उपनाहो पहीनो होति, मक्खिस्स मक्खो पहीनो होति, पळासिस्स पळासो पहीनो होति, इस्सुकिस्स इस्सा पहीना होति, मच्छरिस्स मच्छरियं पहीनं होति, सठस्स साठेय्यं पहीनं होति, मायाविस्स माया पहीना होति, पापिच्छस्स पापिका इच्छा पहीना होति, मिच्छादिट्ठिकस्स मिच्छादिट्ठि पहीना होति – इमेसं खो अहं, भिक्खवे, समणमलानं समणदोसानं समणकसटानं आपायिकानं ठानानं दुग्गतिवेदनियानं पहाना ‘समणसामीचिप्पटिपदं पटिपन्नो’ति वदामि. सो सब्बेहि इमेहि पापकेहि अकुसलेहि धम्मेहि विसुद्धमत्तानं समनुपस्सति ( ) [(विमुत्तमत्तानं समनुपस्सति) (सी. स्या. कं. पी.)]. तस्स सब्बेहि इमेहि पापकेहि अकुसलेहि धम्मेहि विसुद्धमत्तानं समनुपस्सतो ( ) [(विमुत्तमत्तानं समनुपस्सतो) (सी. स्या. कं. पी.)] पामोज्जं जायति, पमुदितस्स पीति जायति, पीतिमनस्स कायो पस्सम्भति, पस्सद्धकायो सुखं वेदेति, सुखिनो चित्तं समाधियति.

‘‘सो मेत्तासहगतेन चेतसा एकं दिसं फरित्वा विहरति, तथा दुतियं, तथा ततियं, तथा चतुत्थं. इति उद्धमधो तिरियं सब्बधि सब्बत्तताय सब्बावन्तं लोकं मेत्तासहगतेन चेतसा विपुलेन महग्गतेन अप्पमाणेन अवेरेन अब्याबज्झेन फरित्वा विहरति. करुणासहगतेन चेतसा…पे… मुदितासहगतेन चेतसा…पे… उपेक्खासहगतेन चेतसा एकं दिसं फरित्वा विहरति, तथा दुतियं, तथा ततियं, तथा चतुत्थं. इति उद्धमधो तिरियं सब्बधि सब्बत्तताय सब्बावन्तं लोकं उपेक्खासहगतेन चेतसा विपुलेन महग्गतेन अप्पमाणेन अवेरेन अब्याबज्झेन फरित्वा विहरति. सेय्यथापि, भिक्खवे, पोक्खरणी अच्छोदका सातोदका सीतोदका सेतका सुपतित्था रमणीया. पुरत्थिमाय चेपि दिसाय पुरिसो आगच्छेय्य घम्माभितत्तो घम्मपरेतो किलन्तो तसितो पिपासितो. सो तं पोक्खरणिं आगम्म विनेय्य उदकपिपासं विनेय्य घम्मपरिळाहं…पे… पच्छिमाय चेपि दिसाय पुरिसो आगच्छेय्य…पे… उत्तराय चेपि दिसाय पुरिसो आगच्छेय्य…पे… दक्खिणाय चेपि दिसाय पुरिसो आगच्छेय्य. यतो कुतो चेपि नं पुरिसो आगच्छेय्य घम्माभितत्तो घम्मपरेतो, किलन्तो तसितो पिपासितो. सो तं पोक्खरणिं आगम्म विनेय्य उदकपिपासं, विनेय्य घम्मपरिळाहं. एवमेव खो, भिक्खवे, खत्तियकुला चेपि अगारस्मा अनगारियं पब्बजितो होति, सो च तथागतप्पवेदितं धम्मविनयं आगम्म, एवं मेत्तं करुणं मुदितं उपेक्खं भावेत्वा लभति अज्झत्तं [तमहं (क.)] वूपसमं [तमहं (क.)]. अज्झत्तं वूपसमा ‘समणसामीचिप्पटिपदं पटिपन्नो’ति वदामि. ब्राह्मणकुला चेपि…पे… वेस्सकुला चेपि…पे… सुद्दकुला चेपि…पे… यस्मा कस्मा चेपि कुला अगारस्मा अनगारियं पब्बजितो होति , सो च तथागतप्पवेदितं धम्मविनयं आगम्म, एवं मेत्तं करुणं मुदितं उपेक्खं भावेत्वा लभति अज्झत्तं वूपसमं. अज्झत्तं वूपसमा ‘समणसामीचिप्पटिपदं पटिपन्नो’ति वदामि.

‘‘खत्तियकुला चेपि अगारस्मा अनगारियं पब्बजितो होति. सो च आसवानं खया अनासवं चेतोविमुत्तिं पञ्ञाविमुत्तिं दिट्ठेव धम्मे सयं अभिञ्ञा सच्छिकत्वा उपसम्पज्ज विहरति. आसवानं खया समणो होति. ब्राह्मणकुला चेपि…पे… वेस्सकुला चेपि… सुद्दकुला चेपि… यस्मा कस्मा चेपि कुला अगारस्मा अनगारियं पब्बजितो होति, सो च आसवानं खया अनासवं चेतोविमुत्तिं पञ्ञाविमुत्तिं दिट्ठेव धम्मे सयं अभिञ्ञा सच्छिकत्वा उपसम्पज्ज विहरति. आसवानं खया समणो होती’’ति.

इदमवोच भगवा. अत्तमना ते भिक्खू भगवतो भासितं अभिनन्दुन्ति.

चूळअस्सपुरसुत्तं निट्ठितं दसमं.

महायमकवग्गो निट्ठितो चतुत्थो.