ऐसा मैंने सुना — एक समय भगवान विशाल भिक्षुसंघ के साथ कौशल देश में घूमते हुए साला 1 नामक कौशल ब्राह्मण गाँव में पहुँचे।
तब साल के ब्राह्मणों और (वैश्य) गृहस्थों ने सुना — “यह सच है, श्रीमान! शाक्यपुत्र श्रमण गौतम, जो शाक्य-कुल से प्रवज्ज्यित हैं, वे विशाल भिक्षुसंघ के साथ कौशल देश में घूमते हुए साला नामक कौशल ब्राह्मण गाँव में पहुँचे हैं। उनके बारे में ऐसी यशकीर्ति फैली है कि ‘वाकई भगवान ही अरहंत सम्यक-सम्बुद्ध है—विद्या और आचरण से संपन्न, परम लक्ष्य पा चुके, दुनिया के ज्ञाता, दमनशील पुरुषों के अनुत्तर सारथी, देवों और मनुष्यों के गुरु, बुद्ध भगवान! वे प्रत्यक्ष-ज्ञान का साक्षात्कार कर, उसे — देव, मार, ब्रह्मा, श्रमण, ब्राह्मण, राजा और जनता से भरे इस लोक में — प्रकट करते हैं। वे ऐसा सार्थक और शब्दशः धर्म बताते हैं, जो आरंभ में कल्याणकारी, मध्य में कल्याणकारी, अन्त में कल्याणकारी हो; और सर्वपरिपूर्ण, परिशुद्ध ‘ब्रह्मचर्य’ प्रकाशित हो। और ऐसे अर्हन्तों का दर्शन वाकई शुभ होता है।”
तब साल गांव के ब्राह्मण और गृहस्थ भगवान के पास गए। जाकर कुछ लोग भगवान को अभिवादन कर एक ओर बैठ गए। कुछ लोग भगवान को नम्रतापूर्ण हालचाल पूछ कर एक ओर बैठ गए। कुछ लोग हाथ जोड़, अंजलिबद्ध वंदन कर एक ओर बैठ गए। कोई अपना नाम-गोत्र बता कर एक ओर बैठ गए। तथा कोई चुपचाप ही एक ओर बैठ गए। एक ओर बैठे उन साल गाँव के ब्राह्मण और गृहस्थों ने भगवान से कहा —
“क्या कारण, क्या परिस्थिति में, श्रीमान गोतम, कोई कोई सत्व मरणोपरांत काया छूटने पर पतन होकर दुर्गति हो, यातनालोक नर्क में उपजते हैं? और क्या कारण, क्या परिस्थिति में कोई कोई सत्व मरणोपरांत काया छूटने पर सद्गति होकर स्वर्ग में उपजते हैं?”
“अधर्मचर्या–विषमचर्या 2 के कारण, गृहस्थों, कोई कोई सत्व मरणोपरांत पतन होकर दुर्गति हो, यातनालोक नर्क में उपजते हैं। धर्मचर्या–समचर्या के कारण, गृहस्थों, कोई कोई सत्व मरणोपरांत सद्गति होकर स्वर्ग में उपजते हैं।"
“श्रीमान गोतम द्वारा संक्षिप्त में बतायी बात का हम अर्थ विस्तार से नहीं समझें, जिसे उन्होंने विस्तार से नहीं बताया। अच्छा होगा जो गुरु गोतम हमें धर्म बताएँ, ताकि श्रीमान गोतम द्वारा संक्षिप्त में बतायी बात का हम विस्तार से अर्थ समझ सकें।”
“ठीक है तब, गृहस्थों, ध्यान देकर गौर से सुनों, मैं बताता हूँ।”
“ठीक है, श्रीमान!” साल गाँव के ब्राह्मण और गृहस्थों ने भगवान को उत्तर दिया।
भगवान ने कहा —
“गृहस्थों, काया से तीन प्रकार की अधर्मचर्या–विषमचर्या होती हैं। वाणी से चार प्रकार की अधर्मचर्या–विषमचर्या होती हैं। और मन से तीन प्रकार की अधर्मचर्या–विषमचर्या होती हैं।
— काया से इन तीन प्रकार की, गृहस्थों, अधर्मचर्या–विषमचर्या होती हैं।
— वाणी से इन चार प्रकार की, गृहस्थों, अधर्मचर्या–विषमचर्या होती हैं।
— मन से इन चार प्रकार की, गृहस्थों, अधर्मचर्या–विषमचर्या होती हैं। और, ऐसी अधर्मचर्या–विषमचर्या के कारण कोई कोई सत्व मरणोपरांत पतन होकर दुर्गति हो, यातनालोक नर्क में उपजते हैं।
दूसरी ओर, गृहस्थों, काया से तीन प्रकार की धर्मचर्या–समचर्या होती हैं। वाणी से चार प्रकार की धर्मचर्या–समचर्या होती हैं। तथा मन से तीन प्रकार की धर्मचर्या–समचर्या होती हैं।
— काया से इन तीन प्रकार की, गृहस्थों, धर्मचर्या–समचर्या होती हैं।
— वाणी से इन चार प्रकार की, गृहस्थों, धर्मचर्या–समचर्या होती हैं।
— मन से इन तीन प्रकार की, गृहस्थों, धर्मचर्या–समचर्या होती हैं। तथा गृहस्थों, ऐसी धर्मचर्या–समचर्या के कारण कुछ सत्व मरणोपरांत सद्गति होकर स्वर्ग उपजते हैं।
यदि, गृहस्थों, ऐसा धर्मचारी–समचारी आकांक्षा करता है कि ‘काश! मैं मरणोपरांत काया छूटने पर —
यदि, गृहस्थों, ऐसा धर्मचारी–समचारी आकांक्षा करता है कि ‘काश! मैं मरणोपरांत काया छूटने पर —
ऐसा क्यों? क्योंकि वह धर्मचारी–समचारी है।
यदि, गृहस्थों, ऐसा धर्मचारी–समचारी आकांक्षा करता है कि ‘काश! मैं मरणोपरांत काया छूटने पर —
ऐसा क्यों? क्योंकि वह धर्मचारी–समचारी है।
यदि, गृहस्थों, ऐसा धर्मचारी–समचारी आकांक्षा करता है कि ‘काश! मैं मरणोपरांत काया छूटने पर —
ऐसा क्यों? क्योंकि वह धर्मचारी–समचारी है।
यदि, गृहस्थों, ऐसा धर्मचारी–समचारी आकांक्षा करता है कि ‘काश! मैं आस्रवों के क्षय होने से अनास्रव होकर, इसी जीवन में चेतोविमुक्ति और प्रज्ञाविमुक्ति प्राप्त कर, प्रत्यक्ष-ज्ञान का साक्षात्कार कर विहार करूँ’ — तो संभव है, वह आस्रवों के क्षय होने से अनास्रव होकर, इसी जीवन में चेतोविमुक्ति और प्रज्ञाविमुक्ति प्राप्त कर, प्रत्यक्ष-ज्ञान का साक्षात्कार कर विहार रहेगा।
ऐसा क्यों? क्योंकि वह धर्मचारी–समचारी है।”
जब ऐसा कहा गया, तब साल गाँव के ब्राह्मण और गृहस्थ कह पड़े, “अतिउत्तम, श्रीमान गौतम! अतिउत्तम, श्रीमान गौतम! जैसे कोई पलटे को सीधा करे, छिपे को खोल दे, भटके को मार्ग दिखाए, या अँधेरे में दीप जलाकर दिखाए, ताकि अच्छी आँखोंवाला स्पष्ट देख पाए — उसी तरह श्रीमान गौतम ने धर्म को अनेक तरह से स्पष्ट कर दिया।
हम बुद्ध की शरण जाते हैं! धर्म और संघ की! भगवान हमें आज से लेकर प्राण रहने तक शरणागत उपासक धारण करें!”
यह गाँव संभवतः उस शालग्राम से जुड़ा हो सकता है जो बाद के समय में गंडकी नदी से प्राप्त होने वाली शालग्राम शिलाओं के कारण प्रसिद्ध हुआ—ये प्राकृतिक अमोनाइट पत्थर भगवान विष्णु के अनाकार रूप में पूजे जाते हैं। यद्यपि वर्तमान शालग्राम स्थल उत्तर-पूर्व में बहुत दूर है, फिर भी कोशल राज्य की प्राचीन सीमाएँ स्पष्ट न होने के कारण इस संबंध को पूरी तरह नकारा नहीं जा सकता। पालि में इसके स्त्रीलिंग रूप से यह संकेत मिलता है कि नाम का अर्थ “सभा भवन” या “धर्मशाला” रहा होगा, जबकि संस्कृत परंपरा इसे हिमालयी तराई में पाए जाने वाले शाल वृक्षों से जोड़ती है। ↩︎
सम-विषम के बारे में अधिक जानने के लिए हमारी शब्दावली पढ़ें। ↩︎
ब्रह्मा को ब्राह्मण इस दुनिया का प्रमुख और सर्वोच्च ईश्वर मानते हैं, जिसके तथाकथित दिव्यशक्ति से ही सम्पूर्ण दुनिया की रचना हुई है। लेकिन बुद्ध के अनुसार, ब्रह्मा भी अन्य सत्वों की तरह ही एक सत्व है, जो अपने कर्मों और ध्यान साधना की वजह से ब्रह्मलोक में रिक्त महल में उत्पन्न होता है। दरअसल, उसकी आयु और पुण्य खत्म होने पर, वह आभास्वर ब्रह्मलोक से नीचे पतित होता है। आगे चलकर ब्रह्म का पतन भी होता है, और वह अगले कल्पों में निचले लोक में जन्म लेता है। ब्रह्म के तथाकथित ज्ञान और उसकी सीमा जानने के लिए दीघनिकाय ११ पढ़ें। ↩︎
आभास्वर देवताओं का उल्लेख वेदों में नहीं मिलता, लेकिन उनका वर्णन बौद्ध ग्रंथों में प्रमुखता से हुआ। इसके पश्चात, ये देवता हिंदू पुराणों में भी स्थान पाने लगे। बौद्ध परंपरा में आभास्वर ब्रह्मलोक के उच्च देवताओं में गिने जाते हैं। कहा जाता है कि जब इन देवताओं का पुण्य क्षीण हो जाता है, तो वे नीचे के लोकों में—जैसे महाब्रह्मा लोक या उससे भी नीचे—पुनर्जन्म लेने लगते हैं। ब्रह्मजाल सुत्त में आंशिक-शाश्वतवाद का वर्णन इस संदर्भ में विशेष रूप से उल्लेखनीय है। ↩︎
शुभकृष्ण नाम उन ब्रह्म देवताओं को दिया गया है जो ध्यान-समाधि के प्रभाव से जन्म लेते हैं। इनका स्वरूप ‘सुंदर एवं प्रकाशमान’ अथवा ‘गहरे, शांत काले’ के रूप में वर्णित होता है। यह नाम शायद ध्यान की उस गहन अवस्था की ओर संकेत करता है जिसमें प्रकाश और अंधकार दोनों की सीमा मिट जाती है। ↩︎
वेहप्फल का अर्थ है — ‘अत्यंत फलदायी’। इन ब्रह्म देवताओं का उल्लेख प्राचीन वैदिक या ब्राह्मण ग्रंथों में नहीं मिलता, लेकिन बौद्ध साहित्य में इनका ज़िक्र मिलता है। संभवतः इन्हें ‘ब्रह्मा’ की एक विशेष श्रेणी का उच्चतम या दीर्घजीवी रूप माना गया है। नाम से प्रतीत होता है कि इनका कर्मफल अथवा पुण्य इतना महान होता है कि उसका प्रभाव अत्यंत व्यापक और दीर्घकालिक होता है। ↩︎
शुद्धवास कुल पाँच ब्रह्मलोक हैं — नीचे अविहा से लेकर अतप्प, सुदस्सा, सुदस्सी और सबसे ऊपर अकनिट्ठ। शुद्धवास ब्रह्मलोक में उत्पन्न होने वाला का फिर दुबारा कभी किसी निम्नलोक में पतन नहीं होता। अर्थात, ये पाँच लोक केवल ‘अनागामी’ अवस्था प्राप्त सत्वों के लिए आरक्षित होते हैं। ↩︎
४३९. एवं मे सुतं – एकं समयं भगवा कोसलेसु चारिकं चरमानो महता भिक्खुसङ्घेन सद्धिं येन साला नाम कोसलानं ब्राह्मणगामो तदवसरि. अस्सोसुं खो सालेय्यका ब्राह्मणगहपतिका – ‘‘समणो खलु, भो, गोतमो सक्यपुत्तो सक्यकुला पब्बजितो कोसलेसु चारिकं चरमानो महता भिक्खुसङ्घेन सद्धिं सालं अनुप्पत्तो. तं खो पन भवन्तं गोतमं एवं कल्याणो कित्तिसद्दो अब्भुग्गतो – ‘इतिपि सो भगवा अरहं सम्मासम्बुद्धो विज्जाचरणसम्पन्नो सुगतो लोकविदू अनुत्तरो पुरिसदम्मसारथि सत्था देवमनुस्सानं बुद्धो भगवा. सो इमं लोकं सदेवकं समारकं सब्रह्मकं सस्समणब्राह्मणिं पजं सदेवमनुस्सं सयं अभिञ्ञा सच्छिकत्वा पवेदेति. सो धम्मं देसेति आदिकल्याणं मज्झेकल्याणं परियोसानकल्याणं सात्थं सब्यञ्जनं; केवलपरिपुण्णं परिसुद्धं ब्रह्मचरियं पकासेति’. साधु खो पन तथारूपानं अरहतं दस्सनं होती’’ति.
अथ खो सालेय्यका ब्राह्मणगहपतिका येन भगवा तेनुपसङ्कमिंसु; उपसङ्कमित्वा अप्पेकच्चे भगवन्तं अभिवादेत्वा एकमन्तं निसीदिंसु; अप्पेकच्चे भगवता सद्धिं सम्मोदिंसु, सम्मोदनीयं कथं सारणीयं वीतिसारेत्वा एकमन्तं निसीदिंसु; अप्पेकच्चे येन भगवा तेनञ्जलिं पणामेत्वा एकमन्तं निसीदिंसु; अप्पेकच्चे भगवतो सन्तिके नामगोत्तं सावेत्वा एकमन्तं निसीदिंसु; अप्पेकच्चे तुण्हीभूता एकमन्तं निसीदिंसु. एकमन्तं निसिन्ना खो सालेय्यका ब्राह्मणगहपतिका भगवन्तं एतदवोचुं – ‘‘को नु खो, भो गोतम, हेतु, को पच्चयो, येन मिधेकच्चे सत्ता कायस्स भेदा परं मरणा अपायं दुग्गतिं विनिपातं निरयं उपपज्जन्ति ? को पन, भो गोतम, हेतु, को पच्चयो, येन मिधेकच्चे सत्ता कायस्स भेदा परं मरणा सुगतिं सग्गं लोकं उपपज्जन्ती’’ति?
‘‘अधम्मचरियाविसमचरियाहेतु खो, गहपतयो, एवमिधेकच्चे सत्ता कायस्स भेदा परं मरणा अपायं दुग्गतिं विनिपातं निरयं उपपज्जन्ति. धम्मचरियासमचरियाहेतु खो, गहपतयो, एवमिधेकच्चे सत्ता कायस्स भेदा परं मरणा सुगतिं सग्गं लोकं उपपज्जन्ती’’ति .
‘‘न खो मयं इमस्स भोतो गोतमस्स संखित्तेन भासितस्स, वित्थारेन अत्थं अविभत्तस्स, वित्थारेन अत्थं आजानाम. साधु नो भवं गोतमो तथा धम्मं देसेतु, यथा मयं इमस्स भोतो गोतमस्स संखित्तेन भासितस्स, वित्थारेन अत्थं अविभत्तस्स, वित्थारेन अत्थं आजानेय्यामा’’ति. ‘‘तेन हि, गहपतयो, सुणाथ, साधुकं मनसि करोथ, भासिस्सामी’’ति. ‘‘एवं, भो’’ति खो सालेय्यका ब्राह्मणगहपतिका भगवतो पच्चस्सोसुं. भगवा एतदवोच –
४४०. ‘‘तिविधं खो, गहपतयो, कायेन अधम्मचरियाविसमचरिया होति, चतुब्बिधं वाचाय अधम्मचरियाविसमचरिया होति, तिविधं मनसा अधम्मचरियाविसमचरिया होति.
‘‘कथञ्च, गहपतयो, तिविधं कायेन अधम्मचरियाविसमचरिया होति? इध, गहपतयो, एकच्चो पाणातिपाती होति, लुद्दो [लुद्दो दारुणो (क.) टीका ओलोकेतब्बा] लोहितपाणि हतप्पहते निविट्ठो अदयापन्नो पाणभूतेसु [सब्बपाणभूतेसु (स्या. कं. क.)].
‘‘अदिन्नादायी खो पन होति. यं तं परस्स परवित्तूपकरणं, गामगतं वा अरञ्ञगतं वा, तं अदिन्नं थेय्यसङ्खातं आदाता होति.
‘‘कामेसुमिच्छाचारी खो पन होति. या ता मातुरक्खिता पितुरक्खिता मातापितुरक्खिता भातुरक्खिता भगिनिरक्खिता ञातिरक्खिता गोत्तरक्खिता धम्मरक्खिता सस्सामिका सपरिदण्डा अन्तमसो मालागुळपरिक्खित्तापि, तथारूपासु चारित्तं आपज्जिता होति. एवं खो, गहपतयो, तिविधं कायेन अधम्मचरियाविसमचरिया होति.
‘‘कथञ्च , गहपतयो, चतुब्बिधं वाचाय अधम्मचरियाविसमचरिया होति? इध, गहपतयो, एकच्चो मुसावादी होति. सभागतो वा परिसागतो वा, ञातिमज्झगतो वा पूगमज्झगतो वा राजकुलमज्झगतो वा, अभिनीतो सक्खिपुट्ठो – ‘एहम्भो पुरिस, यं जानासि तं वदेही’ति , सो अजानं वा आह – ‘जानामी’ति, जानं वा आह – ‘न जानामी’ति, अपस्सं वा आह – ‘पस्सामी’ति, पस्सं वा आह – ‘न पस्सामी’ति [सो आह अजानं वा अहं जानामीति जानं वा अहं न जानामीति अपस्सं वा अहं पस्सामीति पस्सं वा अहं न पस्सामीति (क.)]. इति अत्तहेतु वा परहेतु वा आमिसकिञ्चिक्खहेतु वा सम्पजानमुसा भासिता होति.
‘‘पिसुणवाचो खो पन होति. इतो सुत्वा अमुत्र अक्खाता इमेसं भेदाय, अमुत्र वा सुत्वा इमेसं अक्खाता अमूसं भेदाय. इति समग्गानं वा भेत्ता [भेदका (क.), भेदेता (स्या. कं.), तदट्ठकथायं पन भेत्ताति दिस्सति], भिन्नानं वा अनुप्पदाता, वग्गारामो वग्गरतो वग्गनन्दी वग्गकरणिं वाचं भासिता होति.
‘‘फरुसवाचो खो पन होति. या सा वाचा अण्डका [कण्डका (क.)] कक्कसा परकटुका पराभिसज्जनी कोधसामन्ता असमाधिसंवत्तनिका , तथारूपिं वाचं भासिता होति.
‘‘सम्फप्पलापी खो पन होति. अकालवादी अभूतवादी अनत्थवादी अधम्मवादी अविनयवादी. अनिधानवतिं वाचं भासिता होति अकालेन अनपदेसं अपरियन्तवतिं अनत्थसंहितं. एवं खो, गहपतयो, चतुब्बिधं वाचाय अधम्मचरियाविसमचरिया होति.
‘‘कथञ्च, गहपतयो, तिविधं मनसा अधम्मचरियाविसमचरिया होति? इध, गहपतयो, एकच्चो अभिज्झालु होति, यं तं परस्स परवित्तूपकरणं तं अभिज्झाता होति – ‘अहो वत यं परस्स तं ममस्सा’’’ति!
‘‘ब्यापन्नचित्तो खो पन होति पदुट्ठमनसङ्कप्पो – ‘इमे सत्ता हञ्ञन्तु वा वज्झन्तु वा उच्छिज्जन्तु वा विनस्सन्तु वा मा वा अहेसु’’’न्ति [मा वा अहेसुं इति वाति (सी. पी. क.)].
‘‘मिच्छादिट्ठिको खो पन होति विपरीतदस्सनो – ‘नत्थि दिन्नं नत्थि यिट्ठं नत्थि हुतं, नत्थि सुकतदुक्कटानं कम्मानं फलं विपाको, नत्थि अयं लोको नत्थि परो लोको, नत्थि माता नत्थि पिता, नत्थि सत्ता ओपपातिका , नत्थि लोके समणब्राह्मणा सम्मग्गता सम्मापटिपन्ना ये इमञ्च लोकं परञ्च लोकं सयं अभिञ्ञा सच्छिकत्वा पवेदेन्ती’ति. एवं खो, गहपतयो, तिविधं मनसा अधम्मचरियाविसमचरिया होति.
‘‘एवं अधम्मचरियाविसमचरियाहेतु खो, गहपतयो, एवमिधेकच्चे सत्ता कायस्स भेदा परं मरणा अपायं दुग्गतिं विनिपातं निरयं उपपज्जन्ति.
४४१. ‘‘तिविधं खो, गहपतयो, कायेन धम्मचरियासमचरिया होति, चतुब्बिधं वाचाय धम्मचरियासमचरिया होति, तिविधं मनसा धम्मचरियासमचरिया होति.
‘‘कथञ्च, गहपतयो, तिविधं कायेन धम्मचरियासमचरिया होति? इध, गहपतयो, एकच्चो पाणातिपातं पहाय पाणातिपाता पटिविरतो होति, निहितदण्डो निहितसत्थो लज्जी दयापन्नो सब्बपाणभूतहितानुकम्पी विहरति.
‘‘अदिन्नादानं पहाय अदिन्नादाना पटिविरतो होति. यं तं परस्स परवित्तूपकरणं, गामगतं वा अरञ्ञगतं वा, तं नादिन्नं थेय्यसङ्खातं आदाता होति.
‘‘कामेसुमिच्छाचारं पहाय कामेसुमिच्छाचारा पटिविरतो होति. या ता मातुरक्खिता पितुरक्खिता मातापितुरक्खिता भातुरक्खिता भगिनिरक्खिता ञातिरक्खिता गोत्तरक्खिता धम्मरक्खिता सस्सामिका सपरिदण्डा अन्तमसो मालागुळपरिक्खित्तापि, तथारूपासु न चारित्तं आपज्जिता होति. एवं खो, गहपतयो, तिविधं कायेन धम्मचरियासमचरिया होति.
‘‘कथञ्च, गहपतयो, चतुब्बिधं वाचाय धम्मचरियासमचरिया होति? इध, गहपतयो, एकच्चो मुसावादं पहाय मुसावादा पटिविरतो होति. सभागतो वा परिसागतो वा, ञातिमज्झगतो वा पूगमज्झगतो वा राजकुलमज्झगतो वा, अभिनीतो सक्खिपुट्ठो – ‘एहम्भो पुरिस, यं जानासि तं वदेही’ति, सो अजानं वा आह – ‘न जानामी’ति, जानं वा आह – ‘जानामी’ति, अपस्सं वा आह – ‘न पस्सामी’ति, पस्सं वा आह – ‘पस्सामी’ति. इति अत्तहेतु वा परहेतु वा आमिसकिञ्चिक्खहेतु वा न सम्पजानमुसा भासिता होति.
‘‘पिसुणं वाचं पहाय पिसुणाय वाचाय पटिविरतो होति, इतो सुत्वा न अमुत्र अक्खाता इमेसं भेदाय, अमुत्र वा सुत्वा न इमेसं अक्खाता अमूसं भेदाय. इति भिन्नानं वा सन्धाता, सहितानं वा अनुप्पदाता, समग्गारामो समग्गरतो समग्गनन्दी समग्गकरणिं वाचं भासिता होति.
‘‘फरुसं वाचं पहाय फरुसाय वाचाय पटिविरतो होति. या सा वाचा नेला कण्णसुखा पेमनीया हदयङ्गमा पोरी बहुजनकन्ता बहुजनमनापा – तथारूपिं वाचं भासिता होति.
‘‘सम्फप्पलापं पहाय सम्फप्पलापा पटिविरतो होति. कालवादी भूतवादी अत्थवादी धम्मवादी विनयवादी निधानवतिं वाचं भासिता होति कालेन सापदेसं परियन्तवतिं अत्थसंहितं. एवं खो, गहपतयो, चतुब्बिधं वाचाय धम्मचरियासमचरिया होति.
‘‘कथञ्च, गहपतयो, तिविधं मनसा धम्मचरियासमचरिया होति? इध, गहपतयो, एकच्चो अनभिज्झालु होति, यं तं परस्स परवित्तूपकरणं तं नाभिज्झाता होति – ‘अहो वत यं परस्स तं ममस्सा’ति!
‘‘अब्यापन्नचित्तो खो पन होति अप्पदुट्ठमनसङ्कप्पो – ‘इमे सत्ता अवेरा अब्याबज्झा अनीघा सुखी अत्तानं परिहरन्तू’ति.
‘‘सम्मादिट्ठिको खो पन होति अविपरीतदस्सनो – ‘अत्थि दिन्नं अत्थि यिट्ठं अत्थि हुतं, अत्थि सुकतदुक्कटानं कम्मानं फलं विपाको, अत्थि अयं लोको अत्थि परो लोको, अत्थि माता अत्थि पिता, अत्थि सत्ता ओपपातिका, अत्थि लोके समणब्राह्मणा सम्मग्गता सम्मापटिपन्ना ये इमञ्च लोकं परञ्च लोकं सयं अभिञ्ञा सच्छिकत्वा पवेदेन्ती’ति. एवं खो, गहपतयो, तिविधं मनसा धम्मचरियासमचरिया होति.
‘‘एवं धम्मचरियासमचरियाहेतु खो, गहपतयो, एवमिधेकच्चे सत्ता कायस्स भेदा परं मरणा सुगतिं सग्गं लोकं उपपज्जन्ति.
४४२. ‘‘आकङ्खेय्य चे, गहपतयो, धम्मचारी समचारी – ‘अहो वताहं कायस्स भेदा परं मरणा खत्तियमहासालानं सहब्यतं उपपज्जेय्य’न्ति; ठानं खो पनेतं विज्जति, यं सो कायस्स भेदा परं मरणा खत्तियमहासालानं सहब्यतं उपपज्जेय्य. तं किस्स हेतु? तथा हि सो धम्मचारी समचारी.
‘‘आकङ्खेय्य चे, गहपतयो, धम्मचारी समचारी – ‘अहो वताहं कायस्स भेदा परं मरणा ब्राह्मणमहासालानं…पे… गहपतिमहासालानं सहब्यतं उपपज्जेय्य’न्ति; ठानं खो पनेतं विज्जति, यं सो कायस्स भेदा परं मरणा गहपतिमहासालानं सहब्यतं उपपज्जेय्य. तं किस्स हेतु? तथा हि सो धम्मचारी समचारी.
‘‘आकङ्खेय्य चे, गहपतयो, धम्मचारी समचारी – ‘अहो वताहं कायस्स भेदा परं मरणा चातुमहाराजिकानं देवानं सहब्यतं उपपज्जेय’न्ति; ठानं खो पनेतं विज्जति, यं सो कायस्स भेदा परं मरणा चातुमहाराजिकानं देवानं सहब्यतं उपपज्जेय्य. तं किस्स हेतु? तथा हि सो धम्मचारी समचारी.
‘‘आकङ्खेय्य चे, गहपतयो, धम्मचारी समचारी – ‘अहो वताहं कायस्स भेदा परं मरणा तावतिंसानं देवानं…पे… यामानं देवानं… तुसितानं देवानं… निम्मानरतीनं देवानं… परनिम्मितवसवत्तीनं देवानं… ब्रह्मकायिकानं देवानं सहब्यतं उपपज्जेय्य’न्ति; ठानं खो पनेतं विज्जति, यं सो कायस्स भेदा परं मरणा ब्रह्मकायिकानं देवानं सहब्यतं उपपज्जेय्य. तं किस्स हेतु? तथा हि सो धम्मचारी समचारी.
‘‘आकङ्खेय्य चे, गहपतयो, धम्मचारी समचारी – ‘अहो वताहं कायस्स भेदा परं मरणा आभानं देवानं सहब्यतं उपपज्जेय्य’न्ति; ठानं खो पनेतं विज्जति, यं सो कायस्स भेदा परं मरणा आभानं देवानं सहब्यतं उपपज्जेय्य. तं किस्स हेतु? तथा हि सो धम्मचारी समचारी.
‘‘आकङ्खेय्य चे, गहपतयो, धम्मचारी समचारी – ‘अहो वताहं कायस्स भेदा परं मरणा परित्ताभानं देवानं…पे… अप्पमाणाभानं देवानं… आभस्सरानं देवानं… परित्तसुभानं देवानं… अप्पमाणसुभानं देवानं… सुभकिण्हानं देवानं… वेहप्फलानं देवानं… अविहानं देवानं… अतप्पानं देवानं… सुदस्सानं देवानं… सुदस्सीनं देवानं… अकनिट्ठानं देवानं… आकासानञ्चायतनूपगानं देवानं… विञ्ञाणञ्चायतनूपगानं देवानं … आकिञ्चञ्ञायतनूपगानं देवानं… नेवसञ्ञानासञ्ञायतनूपगानं देवानं सहब्यतं उपपज्जेय्य’न्ति; ठानं खो पनेतं विज्जति, यं सो कायस्स भेदा परं मरणा नेवसञ्ञानासञ्ञायतनूपगानं देवानं सहब्यतं उपपज्जेय्य. तं किस्स हेतु? तथा हि सो धम्मचारी समचारी.
‘‘आकङ्खेय्य चे, गहपतयो, धम्मचारी समचारी – ‘अहो वताहं आसवानं खया अनासवं चेतोविमुत्तिं पञ्ञाविमुत्तिं दिट्ठेव धम्मे सयं अभिञ्ञा सच्छिकत्वा उपसम्पज्ज विहरेय्य’न्ति; ठानं खो पनेतं विज्जति, यं सो आसवानं खया अनासवं चेतोविमुत्तिं पञ्ञाविमुत्तिं दिट्ठेव धम्मे सयं अभिञ्ञा सच्छिकत्वा उपसम्पज्ज विहरेय्य. तं किस्स हेतु? तथा हि सो धम्मचारी समचारी’’ति.
४४३. एवं वुत्ते, सालेय्यका ब्राह्मणगहपतिका भगवन्तं एतदवोचुं – ‘‘अभिक्कन्तं, भो गोतम, अभिक्कन्तं, भो गोतम! सेय्यथापि, भो गोतम, निक्कुज्जितं वा उक्कुज्जेय्य, पटिच्छन्नं वा विवरेय्य, मूळ्हस्स वा मग्गं आचिक्खेय्य, अन्धकारे वा तेलपज्जोतं धारेय्य, चक्खुमन्तो रूपानि दक्खन्तीति. एवमेवं भोता गोतमेन अनेकपरियायेन धम्मो पकासितो. एते मयं भवन्तं गोतमं सरणं गच्छाम धम्मञ्च भिक्खुसङ्घञ्च. उपासके नो भवं गोतमो धारेतु अज्जतग्गे पाणुपेते [पाणुपेतं (क.)] सरणं गते’’ति.
सालेय्यकसुत्तं निट्ठितं पठमं.