यह सूत्र और अगला सूत्र वेदल्ल श्रेणी में आते हैं, जो धर्म के गहरे पहलुओं को स्पष्ट रूप से समझाने का प्रयास करते हैं। इन सूत्रों का नाम ‘वेदल्ल’ इस अर्थ में है कि यह धर्म को “खोलने” (vi-√dal) का काम करते हैं। वे अपने भीतर छिपे गहरे ज्ञान को उस तरह प्रकट करते हैं, जैसे एक ख़ुशनुमा सुबह कोई सुंदर फूल खिलता है और अपनी सुगंध से पूरे वातावरण को महका देता है। इनका मुख्य उद्देश्य साधारण विश्लेषण या वर्गीकरण करना नहीं, बल्कि बुद्ध की बुनियादी शिक्षाओं और साधनाओं को विस्तार से समझाना है। इसलिए इसे संस्कृत में ‘वैपुल्य’ (विस्तार) भी कहा जाता है।
महावेदल्ल सूत्र में सवाल-जवाब की श्रृंखला के माध्यम से ध्यान की ऊँची अवस्थाओं को सुलझाने की कोशिश की जाती है। यह सूत्र उन साधकों के लिए अत्यंत सहायक हो सकता है, जो चित्त के उच्चतम स्तर और निर्वाण-मार्ग को ठीक से समझना चाहते हैं। प्रश्नों का स्वरूप कुछ ऐसा होता है कि वे अपने उद्देश्य को प्रकट नहीं करते, लेकिन हर जवाब एक कदम और करीब ले आता है गहरी ध्यान अवस्था और निर्वाण के रहस्यों तक।
ऐसा मैंने सुना — एक समय भगवान श्रावस्ती में अनाथपिण्डक के जेतवन उद्यान में विहार कर रहे थे। उस समय, आयुष्मान महाकोट्ठित सायंकाल होने पर एकांतवास से निकलकर आयुष्मान सारिपुत्त के पास गए, और जाकर आयुष्मान सारिपुत्त से हालचाल पूछा। मैत्रीपूर्ण वार्तालाप कर वे एक ओर बैठ गए। एक ओर बैठकर आयुष्मान महाकोट्ठित ने आयुष्मान सारिपुत्त से कहा —
“‘दुष्प्रज्ञ… दुष्प्रज्ञ…’ कहते हैं, मित्र। यह दुष्प्रज्ञ (“दुप्पञ्ञो”) क्या होता है?”
“जो ‘नहीं समझता है… नहीं समझता है…’, मित्र, उसे दुष्प्रज्ञ कहते हैं। क्या नहीं समझता है?
— इस तरह, मित्र, जो ‘नहीं समझता है… नहीं समझता है…’, उसे दुष्प्रज्ञ कहते हैं।”
“बहुत अच्छा, मित्र!” कहते हुए हर्षित हुए आयुष्मान महाकोट्ठित ने आयुष्मान सारिपुत्त के कहे का अभिनंदन किया, और फिर आयुष्मान सारिपुत्त से अगला प्रश्न पूछा —
“‘प्रज्ञावान… प्रज्ञावान…’ कहते हैं, मित्र। यह प्रज्ञावान (“पञ्ञवा”) क्या होता है?”
“जो ‘समझता है… समझता है…’, मित्र, उसे प्रज्ञावान कहते हैं। क्या समझता (“पजानाति”) है?
— इस तरह, मित्र, जो ‘समझता है… समझता है…’ उसे प्रज्ञावान कहते हैं।”
“बहुत अच्छा, मित्र!” कहते हुए हर्षित हुए आयुष्मान महाकोट्ठित ने आयुष्मान सारिपुत्त के कहे का अभिनंदन किया, और फिर आयुष्मान सारिपुत्त से अगला प्रश्न पूछा —
‘चैतन्य… चैतन्य…’ कहते हैं, मित्र। यह चैतन्य (“विञ्ञाणं”) क्या होता है?"
“जिससे ‘पता चलता है… पता चलता है…’, मित्र, उसे चैतन्य कहते हैं। क्या पता चलता (“विजानाति”) है?
— इस तरह, मित्र, जिससे ‘पता चलता है… पता चलता है…’ उसे चैतन्य कहते हैं।”
“मित्र, प्रज्ञा और चैतन्य — क्या ये धर्म आपस में जुड़े हुए हैं या जुड़े नहीं हैं? क्या उन धर्मों को अलग-अलग विभाजित कर उनकी भिन्नता का पता लगाया जा सकता है?”
“प्रज्ञा और चैतन्य — ये धर्म आपस में जुड़े हुए हैं, मित्र, कोई अलग नहीं। उन धर्मों को अलग-अलग विभाजित कर उनकी भिन्नता का पता नहीं लगाया जा सकता। जो समझते हैं, मित्र, वही पता चलता है। जो पता चलता है, उसे ही समझते हैं। इस तरह, ये धर्म आपस में जुड़े हुए हैं, कोई अलग नहीं। उन धर्मों को अलग-अलग विभाजित कर उनकी भिन्नता का पता लगाया नहीं जा सकता।”
“तो, मित्र, प्रज्ञा और चैतन्य — ये धर्म जो आपस में जुड़े हुए हैं, कोई अलग नहीं — उनमें फर्क क्या हैं?”
“मित्र, प्रज्ञा और चैतन्य — ये धर्म जो आपस में जुड़े हुए हैं, कोई अलग नहीं — उनमें फर्क यहीं हैं कि प्रज्ञा को विकसित करना पड़ता है, जबकि चैतन्य को पूरी तरह समझना पड़ता है। यहीं उनमें अंतर हैं।” 1
“‘संवेदना… संवेदना…’ कहते हैं, मित्र। यह संवेदना (“वेदना”) क्या होती है?”
“जो ‘अनुभूति होती है… अनुभूति होती है…’, मित्र, उसे संवेदना कहते हैं। क्या अनुभूति होती है?
— इस तरह, मित्र, जो ‘अनुभूति होती है… अनुभूति होती है…’ उसे संवेदना कहते हैं।”
“‘संज्ञा… संज्ञा…’ कहते हैं, मित्र। यह संज्ञा क्या होती है?”
“जिस तरह ‘पहचानते हैं… पहचानते हैं…’, मित्र, उसे संज्ञा कहते हैं। क्या पहचानते (“सञ्जानाति”) हैं?
— इस तरह, मित्र, जिस तरह ‘पहचानते हैं… पहचानते हैं…’ उसे संज्ञा कहते हैं।
“मित्र, संवेदना, संज्ञा, और चैतन्य — क्या ये धर्म आपस में जुड़े हुए हैं या जुड़े नहीं हैं? क्या उन धर्मों को अलग-अलग विभाजित कर उनकी भिन्नता का पता लगाया जा सकता है?”
“संवेदना, संज्ञा, और चैतन्य — ये धर्म आपस में जुड़े हुए हैं, मित्र, कोई अलग नहीं। उन धर्मों को अलग-अलग विभाजित कर उनकी भिन्नता का पता नहीं लगाया जा सकता। जो अनुभूति करते हैं, मित्र, उसे ही पहचानते हैं। जो पहचानते हैं, उसे ही समझते हैं। इस तरह, ये धर्म आपस में जुड़े हुए हैं, कोई अलग नहीं। उन धर्मों को अलग-अलग विभाजित कर उनकी भिन्नता का पता लगाया नहीं जा सकता।”
“मित्र, पाँच इंद्रियों से छूटे किसी परिशुद्ध मनो चैतन्य से क्या पता चलता है?”
“मित्र, पाँच इंद्रियों से छूटे किसी परिशुद्ध मनो चैतन्य से —
“किन्तु, मित्र, उन धर्मों का पता कैसे चलता हैं?”
“प्रज्ञाचक्षु से, मित्र, उन धर्मों का पता चलता है।”
“किन्तु, मित्र, प्रज्ञा का काम (=ध्येय) क्या है?”
“मित्र, प्रज्ञा का काम —
“किस परिस्थिति में, मित्र, सम्यक दृष्टि उपजती है?”
“दो परिस्थितियों में, मित्र, सम्यक दृष्टि उपजती है —
— इन दो परिस्थितियों में, मित्र, सम्यक दृष्टि उपजती है।
“किन्तु, मित्र, कितने अंगों के आधार पर सम्यक दृष्टि का फल चेतो-विमुक्ति होता है, पुरस्कार चेतो-विमुक्ति होता है, फल प्रज्ञा-विमुक्ति होता है, पुरस्कार प्रज्ञा-विमुक्ति होता है?”
“पाँच अंगों के आधार पर, मित्र, सम्यक दृष्टि का फल चेतो-विमुक्ति होता है, पुरस्कार चेतो-विमुक्ति होता है, फल प्रज्ञा-विमुक्ति होता है, पुरस्कार प्रज्ञा-विमुक्ति होता है। कौन से पाँच?
कोई सम्यक दृष्टि —
— इन पाँच अंगों के आधार पर, मित्र, सम्यक दृष्टि का फल चेतो-विमुक्ति होता है, पुरस्कार चेतो-विमुक्ति होता है, फल प्रज्ञा-विमुक्ति होता है, पुरस्कार प्रज्ञा-विमुक्ति होता है।”
“मित्र, भव (=अस्तित्वगत उत्पत्ति या अवस्था) कितने हैं?”
“मित्र, तीन (प्रकार के) भव होते हैं — काम भव, रूप भव, अरूप भव।”
“किन्तु, मित्र, भविष्य में पुनरुत्पत्ति कैसे होती है?”
“मित्र, अविद्या में डूबे, तृष्णा में फँसे सत्व यहाँ-वहाँ मजा लेते हैं। इस तरह भविष्य में पुनरुत्पत्ति होती है।”
“किन्तु, मित्र, भविष्य में पुनरुत्पत्ति कैसे नहीं होती?”
“मित्र, अविद्या के विराग होने पर, विद्या उत्पन्न होकर तृष्णा का निरोध होता है। इस तरह भविष्य में पुनरुत्पत्ति नहीं होती।”
“मित्र, यह प्रथम ध्यान क्या है?”
“मित्र, कोई भिक्षु कामुकता से निर्लिप्त, अकुशल स्वभाव से निर्लिप्त — विषय और विचार के साथ, निर्लिप्तता से जन्मे प्रफुल्लता और सुख वाले प्रथम-झान में प्रवेश कर रहता है। इसे, मित्र, प्रथम ध्यान कहते हैं।”
“मित्र, प्रथम ध्यान में कितने अंग (=घटक) होते हैं?”
“प्रथम ध्यान में, मित्र, पाँच अंग होते हैं। कोई भिक्षु प्रथम ध्यान में विषय (“वितक्क”), विचार, प्रफुल्लता (“पीति”), सुख, और चित्त की एकाग्रता प्राप्त करता है। ये पाँच अंग, मित्र, प्रथम ध्यान में होते हैं।”
“किन्तु, मित्र, प्रथम ध्यान में कितने अंग त्यागे जाते हैं, और कितने अंग प्राप्त किए जाते हैं?”
“मित्र, प्रथम ध्यान में पाँच अंग त्यागे जाते हैं, और पाँच अंग प्राप्त किए जाते है। प्रथम ध्यान प्राप्त कर भिक्षु में कामेच्छा त्यागी जाती है, दुर्भावना त्यागी जाती है, सुस्ती और तंद्रा त्यागी जाती हैं, बेचैनी और पश्चाताप त्यागी जाती हैं, और उलझन त्यागी जाती है। विषय, विचार, प्रफुल्लता, सुख, और चित्त की एकाग्रता प्राप्त की जाती हैं। ये पाँच अंग, मित्र, प्रथम ध्यान में त्यागे जाते हैं, और ये पाँच अंग प्राप्त किए जाते हैं।”
“मित्र, ये पाँच इंद्रिय हैं — आँख इंद्रिय, कान इंद्रिय, नाक इंद्रिय, जीभ इंद्रिय, और काया इंद्रिय। इन इंद्रियों के अपने अलग-अलग विषय हैं, अलग-अलग क्षेत्र (“गोचर”) हैं। वे एक दूसरे के क्षेत्रों-विषयों की अनुभूति नहीं करते हैं। तब, मित्र, ये पाँच इंद्रिय, जिनके अलग-अलग विषय, अलग-अलग क्षेत्र हैं, जो एक दूसरे के क्षेत्रों-विषयों की अनुभूति नहीं करते हैं, उनकी प्रतिशरण (=उनका फैसला करने वाला) क्या है? उन क्षेत्रों-विषयों की अनुभूति कौन करता हैं?”
“मित्र, ये पाँच इंद्रिय — आँख इंद्रिय, कान इंद्रिय, नाक इंद्रिय, जीभ इंद्रिय, और काया इंद्रिय — जिनके अलग-अलग विषय, अलग-अलग क्षेत्र हैं, जो एक दूसरे के क्षेत्रों-विषयों की अनुभूति नहीं करते हैं, उनकी प्रतिशरण ‘मन’ है। मन ही उन क्षेत्रों-विषयों की अनुभूति करता है।”
“मित्र, ये पाँच इंद्रिय हैं — आँख इंद्रिय, कान इंद्रिय, नाक इंद्रिय, जीभ इंद्रिय, और काया इंद्रिय। ये पाँच इंद्रिय किसके आधार पर खड़े होते हैं?”
“मित्र, ये पाँच इंद्रिय हैं — आँख इंद्रिय, कान इंद्रिय, नाक इंद्रिय, जीभ इंद्रिय, और काया इंद्रिय। ये पाँच इंद्रिय आयु (=जीवन) के आधार पर खड़े होते हैं?”
“किन्तु, मित्र, यह आयु किसके आधार पर खड़ी होती है?”
“आयु, मित्र, ऊष्मा के आधार पर खड़ी होती है।”
“किन्तु, मित्र, यह ऊष्मा किसके आधार पर खड़ी होती है?”
“ऊष्मा, मित्र, आयु के आधार पर खड़ी होती है।”
“अभी मुझे आयुष्मान सारिपुत्त की बात से पता चला कि ‘आयु ऊष्मा के आधार पर खड़ी होती है।’ किन्तु मुझे आयुष्मान सारिपुत्त की बात से यह भी पता चला कि ‘ऊष्मा आयु के आधार पर खड़ी होती है।’ तब, मित्र, इस बात का अर्थ किस तरह देखा जाए?”
“ठीक है, मित्र, तब मैं तुम्हें एक उपमा देता हूँ। कभी कभी कोई समझदार पुरुष उपमा के माध्यम से बात का अर्थ समझ जाता है। कल्पना करो, मित्र, कोई तेल का दीया जल रहा हो। तब आँच का आधार पर उसकी आभा पता चलती है। और आभा के आधार पर उसकी आँच पता चलती है। उसी तरह, मित्र, आयु ऊष्मा के आधार पर खड़ी होती है। और ऊष्मा आयु के आधार पर खड़ी होती है।”
“मित्र, क्या आयु-संस्कार और अनुभूति-योग्य स्वभाव एक ही हैं? अथवा आयु-संस्कार अलग है, और अनुभूति-योग्य स्वभाव अलग?”
“आयु-संस्कार और अनुभूति-योग्य स्वभाव, मित्र, एक नहीं हैं। आयु-संस्कार अलग है, और अनुभूति-योग्य स्वभाव अलग है। क्योंकि, मित्र, यदि आयु-संस्कार और अनुभूति-योग्य स्वभाव एक होते, तो संज्ञा-वेदना निरोध समापत्ति प्राप्त किए भिक्षु का उठना (=उस अवस्था से निकलना) पता न चलता। किन्तु चूँकि आयु-संस्कार अलग है, और अनुभूति-योग्य स्वभाव अलग, इसलिए संज्ञा-वेदना निरोध समापत्ति प्राप्त किए भिक्षु का उठना पता चलता है।”
“मित्र, इस काया से कौन से धर्म छूटने पर काया पड़ी मिलती है, जैसे अचेत काष्ठ (=लकड़ी का टुकड़ा) हो?”
“मित्र, इस काया से तीन धर्म — आयु, ऊष्मा और चैतन्य — छूटने पर काया पड़ी मिलती है, जैसे अचेत काष्ठ हो।”
“मित्र, किसी समय पूरा किए मृत व्यक्ति, और किसी संज्ञा-वेदना निरोध समापत्ति भिक्षु में क्या अंतर होता है?”
“मित्र, किसी समय पूरा किए मृत व्यक्ति के काया-संस्कार निरुद्ध और प्रशांत हो जाते हैं, वाणी-संस्कार निरुद्ध और प्रशांत हो जाते हैं, चित्त-संस्कार निरुद्ध और प्रशांत हो जाते हैं, आयु व्यय हो जाती है, ऊष्मा शान्त हो जाती है, इंद्रिय बिखर जाते हैं।
जबकि किसी संज्ञा-वेदना निरोध समापत्ति भिक्षु के काया-संस्कार निरुद्ध और प्रशांत हो जाते हैं, वाणी-संस्कार निरुद्ध और प्रशांत हो जाते हैं, चित्त-संस्कार निरुद्ध और प्रशांत हो जाते हैं, किन्तु उसकी आयु व्यय नहीं होती, ऊष्मा शान्त नहीं होती, बल्कि इंद्रिय स्पष्ट हो जाते हैं।
यही अंतर है, मित्र, किसी समय पूरा किए मृत व्यक्ति, और किसी संज्ञा-वेदना निरोध समापत्ति भिक्षु में।”
“मित्र, कितनी परिस्थितियों में अदुखद-असुखद चेतोविमुक्ति प्राप्त होती है?”
“मित्र, चार परिस्थितियों में अदुखद-असुखद चेतोविमुक्ति प्राप्त होती है। कोई भिक्षु सुख और दर्द दोनों हटाकर, खुशी और परेशानी पूर्व ही विलुप्त होने पर, तटस्थता और स्मरणशीलता की परिशुद्धता के साथ, अब अदुखद-असुखद चतुर्थ-ध्यान में प्रवेश पाकर रहता है। इन चार परिस्थितियों में, मित्र, अदुखद-असुखद चेतोविमुक्ति प्राप्त होती है।”
“और, मित्र, कितनी परिस्थितियों में अनिमित्त चेतोविमुक्ति प्राप्त होती है?”
“दो परिस्थितियों में, मित्र, अनिमित्त चेतोविमुक्ति प्राप्त होती है —
— इन दो परिस्थितियों में, मित्र, अनिमित्त चेतोविमुक्ति प्राप्त होती है।”
“किन्तु, मित्र, कितनी परिस्थितियों में अनिमित्त चेतोविमुक्ति बनी रहती है?”
“तीन परिस्थितियों में, मित्र, अनिमित्त चेतोविमुक्ति बनी रहती है —
— इन तीन परिस्थितियों में, मित्र, अनिमित्त चेतोविमुक्ति बनी रहती है।”
“और, मित्र, कितनी परिस्थितियों में अनिमित्त चेतोविमुक्ति से उठा (=निकला) जाता है?”
“दो परिस्थितियों में, मित्र, अनिमित्त चेतोविमुक्ति से उठा जाता है —
— इन दो परिस्थितियों में, मित्र, अनिमित्त चेतोविमुक्ति से निकला जाता है।”
“मित्र, असीम (“अप्पमाण”) चेतोविमुक्ति, सूनी (“आकिञ्चञ्ञ”) चेतोविमुक्ति, शून्यता चेतोविमुक्ति, और अनिमित्त चेतोविमुक्ति — क्या इन धर्मों का अलग-अलग अर्थ, अलग-अलग परिभाषाएँ हैं? अथवा एक ही अर्थ, बस अलग-अलग परिभाषाएँ हैं?”
“मित्र, असीम चेतोविमुक्ति, सूनी चेतोविमुक्ति, शून्यता चेतोविमुक्ति, और अनिमित्त चेतोविमुक्ति — एक प्रकार से इन धर्मों का अलग-अलग अर्थ, अलग-अलग परिभाषाएँ दिखती हैं। और, मित्र, दूसरे प्रकार से उनका एक ही अर्थ, बस परिभाषाएँ अलग-अलग दिखती हैं।
किस प्रकार से इन धर्मों का अलग-अलग अर्थ, अलग-अलग परिभाषाएँ दिखती हैं?
मित्र, कोई भिक्षुसद्भावपूर्ण (“मेत्ता”) चित्त को एक दिशा में फैलाकर व्याप्त करता है। उसी तरह दूसरी दिशा में… तीसरी दिशा में… चौथी दिशा में। उसी तरह, वह ऊपर… नीचे… तत्र सर्वत्र… सभी ओर संपूर्ण ब्रह्मांड में निर्बैर, निर्द्वेष, विस्तृत, विराट और असीम सद्भावपूर्ण चित्त को फैलाकर परिपूर्णतः व्याप्त करता है।
आगे, वह करुण चित्त… प्रसन्न [“मुदिता”] चित्त… तटस्थ [“उपेक्खा”] चित्त को एक दिशा में फैलाकर व्याप्त करता है। उसी तरह दूसरी दिशा में… तीसरी दिशा में… चौथी दिशा में। उसी तरह, वह ऊपर… नीचे… तत्र सर्वत्र… सभी ओर संपूर्ण ब्रह्मांड में निर्बैर, निर्द्वेष, विस्तृत, विराट और असीम करुण… प्रसन्न… तटस्थ चित्त को फैलाकर परिपूर्णतः व्याप्त करता है।
— इस तरह, मित्र, असीम चेतोविमुक्ति कहते हैं।
और, मित्र, सूनी चेतोविमुक्ति क्या है?
मित्र, कोई भिक्षु अनंत चैतन्य-आयाम को पूर्णतः लाँघ कर, ‘कुछ नहीं है’ [देखते हुए] सूने-आयाम में प्रवेश पाकर रहता है। इसे, मित्र, सूनी चेतोविमुक्ति कहते हैं।
और, मित्र, शून्यता चेतोविमुक्ति क्या है?
मित्र, कोई भिक्षु जंगल में, पेड़ के तले, या ख़ाली गृह में जाकर इस तरह चिंतन करता है — ‘यह आत्म (=स्व) और आत्म के मालकीयत से शून्य है।’ 5 इसे, मित्र, शून्यता चेतोविमुक्ति कहते हैं।
और, मित्र, अनिमित्त चेतोविमुक्ति क्या है?
मित्र, कोई भिक्षु सभी छाप से ध्यान हटाकर, अनिमित्त चेतोसमाधि में प्रवेश पाकर विहार करता है। इसे, मित्र, अनिमित्त चेतोविमुक्ति कहते हैं।
— इस प्रकार से, मित्र, इन धर्मों का अलग-अलग अर्थ, अलग-अलग परिभाषाएँ दिखती हैं।
और, मित्र, किस प्रकार से उनका एक ही अर्थ, बस परिभाषाएँ अलग-अलग दिखती हैं?
मित्र, राग (=दिलचस्पी) सीमित करता है, द्वेष सीमित करता है, मोह (=भ्रम) सीमित करता है। कोई क्षिणास्रव भिक्षु उन्हें त्याग देता है, जड़ से उखाड़ देता है, ताड़ के ठूँठ जैसे बना देता है, अस्तित्व से मिटा देता है, ताकि वे कभी पुनरुत्पन्न न हो। अब जहाँ तक असीम चेतोविमुक्ति की बात है, मित्र, अविचल (“अकुप्पा”) चेतोविमुक्ति सर्वश्रेष्ठ घोषित है। उस अविचल चेतोविमुक्ति में राग शून्य होता है, द्वेष शून्य होता है, मोह शून्य होता है।
मित्र, राग कुछ है, द्वेष कुछ है, मोह कुछ है। कोई क्षिणास्रव भिक्षु उन्हें त्याग देता है, जड़ से उखाड़ देता है, ताड़ के ठूँठ जैसे बना देता है, अस्तित्व से मिटा देता है, ताकि वे कभी पुनरुत्पन्न न हो। अब जहाँ तक सूनी चेतोविमुक्ति की बात है, मित्र, अविचल चेतोविमुक्ति सर्वश्रेष्ठ घोषित है। उस अविचल चेतोविमुक्ति में राग शून्य होता है, द्वेष शून्य होता है, मोह शून्य होता है।
मित्र, राग छाप बनाता है, द्वेष छाप बनाता है, मोह छाप बनाता है। कोई क्षिणास्रव भिक्षु उन्हें त्याग देता है, जड़ से उखाड़ देता है, ताड़ के ठूँठ जैसे बना देता है, अस्तित्व से मिटा देता है, ताकि वे कभी पुनरुत्पन्न न हो। अब जहाँ तक अनिमित्त चेतोविमुक्ति की बात है, मित्र, अविचल चेतोविमुक्ति सर्वश्रेष्ठ घोषित है। उस अविचल चेतोविमुक्ति में राग शून्य होता है, द्वेष शून्य होता है, मोह शून्य होता है।
— इस प्रकार से, मित्र, उनका एक ही अर्थ, बस परिभाषाएँ अलग-अलग दिखती हैं।
आयुष्मान सारिपुत्त ने ऐसा कहा। हर्षित होकर आयुष्मान महाकोट्ठित ने आयुष्मान सारिपुत्त के कथन का अभिनंदन किया।
मुक्ति पाने के लिए साधक को अपनी प्रज्ञा (अंतर्ज्ञान) को विकसित करना पड़ता (“भावेतब्बा”) है। यह चौथे आर्य सत्य का हिस्सा है, जिसे “दुःख के निरोधकर्ता मार्ग” कहा गया है। इस मार्ग पर चलने के लिए अभ्यास करना पड़ता है, और इस अभ्यास से ही प्रज्ञा विकसित होती है।
वहीं दूसरी ओर, चैतन्य को पूरी तरह समझना (“परिञ्ञेय्यं”) जरूरी होता है। यह पहले आर्य सत्य का हिस्सा है, जिसे “दुःख आर्य सत्य” कहा गया है। दुःख के इस सत्य में पाँच चीज़ें होती हैं जिन्हें हम पकड़कर रखते हैं — इन्हें “उपादान स्कन्ध” कहा जाता है — और चैतन्य उनमें से एक है।
इसका मतलब ये है कि जब हम चैतन्य से चिपके रहते हैं, तब दुःख पैदा होता है। इसलिए, चैतन्य की प्रकृति को पूरी तरह समझना जरूरी है। जब हम इसे समझते हैं, तभी हमें यह भी समझ आता है कि इसके पीछे कौन-सी तृष्णा (काम, भव या विभव तृष्णा) काम कर रही है — और यही है दूसरा आर्य सत्य। और जब वह तृष्णा हमें साफ़ दिखने लगती है, तब ही हम उसे छोड़ सकते हैं — जो कि तीसरा आर्य सत्य है, यानी तृष्णा का अंत। (अधिक जानने के लिए पढ़ें, भगवान के द्वारा बताया गया सबसे पहला धर्म उपदेश: धम्मचक्कपवत्तन सुत्त ↩︎
जब व्यक्ति तीन अरूप आयामों में से किसी एक में होता है, तो वह उन अवस्थाओं के प्रति अंतर्दृष्टि प्राप्त (विपस्सना) कर सकता है — और ऐसी अंतर्दृष्टि मुक्ति की ओर ले जा सकती है। लेकिन चौथी अरूप अवस्था (न-संज्ञा न-असंज्ञा आयाम) में ऐसा करना संभव नहीं होता। इस विषय में अधिक जानकारी के लिए मज्झिम निकाय १११ देखें।
साथ ही, यह भी जानना ज़रूरी है कि जब कोई इन अरूप अवस्थाओं में होता है, तब बाह्य इन्द्रियाँ शांत हो सकती हैं — इसका उल्लेख अङ्गुत्तरनिकाय ९.३७ में मिलता है। ↩︎
समथ और विपस्सना के बारे में जानने के लिए हमारी शब्दावली पढ़ें। ↩︎
अनिमित्त चेतोविमुक्ति पर अधिक जानकारी के लिए मज्झिमनिकाय १२१ पढ़ें। ↩︎
शून्यता चेतोविमुक्ति पर अधिक जानकारी के लिए मज्झिमनिकाय १०६ पढ़ें। ↩︎
४४९. एवं मे सुतं – एकं समयं भगवा सावत्थियं विहरति जेतवने अनाथपिण्डिकस्स आरामे. अथ खो आयस्मा महाकोट्ठिको सायन्हसमयं पटिसल्लाना वुट्ठितो येनायस्मा सारिपुत्तो तेनुपसङ्कमि; उपसङ्कमित्वा आयस्मता सारिपुत्तेन सद्धिं सम्मोदि. सम्मोदनीयं कथं सारणीयं वीतिसारेत्वा एकमन्तं निसीदि. एकमन्तं निसिन्नो खो आयस्मा महाकोट्ठिको आयस्मन्तं सारिपुत्तं एतदवोच –
‘‘‘दुप्पञ्ञो दुप्पञ्ञो’ति, आवुसो, वुच्चति. कित्तावता नु खो, आवुसो, दुप्पञ्ञोति वुच्चती’’ति?
‘‘‘नप्पजानाति नप्पजानाती’ति खो, आवुसो, तस्मा दुप्पञ्ञोति वुच्चति.
‘‘किञ्च नप्पजानाति? ‘इदं दुक्ख’न्ति नप्पजानाति, ‘अयं दुक्खसमुदयो’ति नप्पजानाति, ‘अयं दुक्खनिरोधो’ति नप्पजानाति, ‘अयं दुक्खनिरोधगामिनी पटिपदा’ति नप्पजानाति. ‘नप्पजानाति नप्पजानाती’ति खो, आवुसो, तस्मा दुप्पञ्ञोति वुच्चती’’ति.
‘‘‘साधावुसो’ति खो आयस्मा महाकोट्ठिको आयस्मतो सारिपुत्तस्स भासितं अभिनन्दित्वा अनुमोदित्वा आयस्मन्तं सारिपुत्तं उत्तरिं पञ्हं अपुच्छि –
‘‘‘पञ्ञवा पञ्ञवा’ति, आवुसो, वुच्चति. कित्तावता नु खो, आवुसो, पञ्ञवाति वुच्चती’’ति?
‘‘‘पजानाति पजानाती’ति खो, आवुसो, तस्मा पञ्ञवाति वुच्चति.
‘‘किञ्च पजानाति? ‘इदं दुक्ख’न्ति पजानाति, ‘अयं दुक्खसमुदयो’ति पजानाति, ‘अयं दुक्खनिरोधो’ति पजानाति, ‘अयं दुक्खनिरोधगामिनी पटिपदा’ति पजानाति. ‘पजानाति पजानाती’ति खो, आवुसो, तस्मा पञ्ञवाति वुच्चती’’ति.
‘‘‘विञ्ञाणं विञ्ञाण’न्ति, आवुसो, वुच्चति. कित्तावता नु खो, आवुसो, विञ्ञाणन्ति वुच्चती’’ति?
‘‘‘विजानाति विजानाती’ति खो, आवुसो, तस्मा विञ्ञाणन्ति वुच्चति.
‘‘किञ्च विजानाति? सुखन्तिपि विजानाति, दुक्खन्तिपि विजानाति, अदुक्खमसुखन्तिपि विजानाति. ‘विजानाति विजानाती’ति खो, आवुसो, तस्मा विञ्ञाणन्ति वुच्चती’’ति.
‘‘या चावुसो, पञ्ञा यञ्च विञ्ञाणं – इमे धम्मा संसट्ठा उदाहु विसंसट्ठा? लब्भा च पनिमेसं धम्मानं विनिब्भुजित्वा [विनिब्भुज्जित्वा विनिब्भुज्जित्वा (क.)] विनिब्भुजित्वा नानाकरणं पञ्ञापेतु’’न्ति? ‘‘या चावुसो, पञ्ञा यञ्च विञ्ञाणं – इमे धम्मा संसट्ठा, नो विसंसट्ठा. न च लब्भा इमेसं धम्मानं विनिब्भुजित्वा विनिब्भुजित्वा नानाकरणं पञ्ञापेतुं. यं हावुसो [यञ्चावुसो (स्या. कं. क.)], पजानाति तं विजानाति, यं विजानाति तं पजानाति. तस्मा इमे धम्मा संसट्ठा, नो विसंसट्ठा. न च लब्भा इमेसं धम्मानं विनिब्भुजित्वा विनिब्भुजित्वा नानाकरणं पञ्ञापेतु’’न्ति.
‘‘या चावुसो, पञ्ञा यञ्च विञ्ञाणं – इमेसं धम्मानं संसट्ठानं नो विसंसट्ठानं किं नानाकरण’’न्ति? ‘‘या चावुसो, पञ्ञा यञ्च विञ्ञाणं – इमेसं धम्मानं संसट्ठानं नो विसंसट्ठानं पञ्ञा भावेतब्बा, विञ्ञाणं परिञ्ञेय्यं. इदं नेसं नानाकरण’’न्ति.
४५०. ‘‘‘वेदना वेदना’ति, आवुसो, वुच्चति. कित्तावता नु खो, आवुसो , वेदनाति वुच्चती’’ति?
‘‘‘वेदेति वेदेती’ति खो, आवुसो, तस्मा वेदनाति वुच्चति.
‘‘किञ्च वेदेति? सुखम्पि वेदेति, दुक्खम्पि वेदेति, अदुक्खमसुखम्पि वेदेति. ‘वेदेति वेदेती’ति खो, आवुसो, तस्मा वेदनाति वुच्चती’’ति.
‘‘‘सञ्ञा सञ्ञा’ति, आवुसो, वुच्चति. कित्तावता नु खो, आवुसो, सञ्ञाति वुच्चती’’ति?
‘‘‘सञ्जानाति सञ्जानाती’ति खो, आवुसो, तस्मा सञ्ञाति वुच्चति.
‘‘किञ्च सञ्जानाति? नीलकम्पि सञ्जानाति, पीतकम्पि सञ्जानाति, लोहितकम्पि सञ्जानाति, ओदातम्पि सञ्जानाति. ‘सञ्जानाति सञ्जानाती’ति खो, आवुसो, तस्मा सञ्ञाति वुच्चती’’ति.
‘‘या चावुसो, वेदना या च सञ्ञा यञ्च विञ्ञाणं – इमे धम्मा संसट्ठा उदाहु विसंसट्ठा? लब्भा च पनिमेसं धम्मानं विनिब्भुजित्वा विनिब्भुजित्वा नानाकरणं पञ्ञापेतु’’न्ति? ‘‘या चावुसो, वेदना या च सञ्ञा यञ्च विञ्ञाणं – इमे धम्मा संसट्ठा, नो विसंसट्ठा. न च लब्भा इमेसं धम्मानं विनिब्भुजित्वा विनिब्भुजित्वा नानाकरणं पञ्ञापेतुं. यं हावुसो [यञ्चावुसो (स्या. कं. क.)], वेदेति तं सञ्जानाति, यं सञ्जानाति तं विजानाति. तस्मा इमे धम्मा संसट्ठा नो विसंसट्ठा. न च लब्भा इमेसं धम्मानं विनिब्भुजित्वा विनिब्भुजित्वा नानाकरणं पञ्ञापेतु’’न्ति.
४५१. ‘‘निस्सट्ठेन हावुसो [निस्सट्ठेन पनावुसो (?)], पञ्चहि इन्द्रियेहि परिसुद्धेन मनोविञ्ञाणेन किं नेय्य’’न्ति?
‘‘निस्सट्ठेन आवुसो, पञ्चहि इन्द्रियेहि परिसुद्धेन मनोविञ्ञाणेन ‘अनन्तो आकासो’ति आकासानञ्चायतनं नेय्यं, ‘अनन्तं विञ्ञाण’न्ति विञ्ञाणञ्चायतनं नेय्यं, ‘नत्थि किञ्ची’ति आकिञ्चञ्ञायतनं नेय्य’’न्ति.
‘‘नेय्यं पनावुसो, धम्मं केन पजानाती’’ति?
‘‘नेय्यं खो, आवुसो, धम्मं पञ्ञाचक्खुना पजानाती’’ति.
‘‘पञ्ञा पनावुसो, किमत्थिया’’ति?
‘‘पञ्ञा खो, आवुसो, अभिञ्ञत्था परिञ्ञत्था पहानत्था’’ति.
४५२. ‘‘कति पनावुसो, पच्चया सम्मादिट्ठिया उप्पादाया’’ति?
‘‘द्वे खो, आवुसो, पच्चया सम्मादिट्ठिया उप्पादाय – परतो च घोसो, योनिसो च मनसिकारो. इमे खो, आवुसो, द्वे पच्चया सम्मादिट्ठिया उप्पादाया’’ति.
‘‘कतिहि पनावुसो, अङ्गेहि अनुग्गहिता सम्मादिट्ठि चेतोविमुत्तिफला च होति चेतोविमुत्तिफलानिसंसा च, पञ्ञाविमुत्तिफला च होति पञ्ञाविमुत्तिफलानिसंसा चा’’ति?
‘‘पञ्चहि खो, आवुसो, अङ्गेहि अनुग्गहिता सम्मादिट्ठि चेतोविमुत्तिफला च होति चेतोविमुत्तिफलानिसंसा च, पञ्ञाविमुत्तिफला च होति पञ्ञाविमुत्तिफलानिसंसा च. इधावुसो, सम्मादिट्ठि सीलानुग्गहिता च होति, सुतानुग्गहिता च होति, साकच्छानुग्गहिता च होति, समथानुग्गहिता च होति, विपस्सनानुग्गहिता च होति. इमेहि खो, आवुसो, पञ्चहङ्गेहि अनुग्गहिता सम्मादिट्ठि चेतोविमुत्तिफला च होति चेतोविमुत्तिफलानिसंसा च, पञ्ञाविमुत्तिफला च होति पञ्ञाविमुत्तिफलानिसंसा चा’’ति.
४५३. ‘‘कति पनावुसो, भवा’’ति?
‘‘तयोमे, आवुसो, भवा – कामभवो , रूपभवो, अरूपभवो’’ति.
‘‘कथं पनावुसो, आयतिं पुनब्भवाभिनिब्बत्ति होती’’ति?
‘‘अविज्जानीवरणानं खो, आवुसो, सत्तानं तण्हासंयोजनानं तत्रतत्राभिनन्दना – एवं आयतिं पुनब्भवाभिनिब्बत्ति होती’’ति.
‘‘कथं पनावुसो, आयतिं पुनब्भवाभिनिब्बत्ति न होती’’ति?
‘‘अविज्जाविरागा खो, आवुसो, विज्जुप्पादा तण्हानिरोधा – एवं आयतिं पुनब्भवाभिनिब्बत्ति न होती’’ति.
४५४. ‘‘कतमं पनावुसो, पठमं झान’’न्ति?
‘‘इधावुसो, भिक्खु विविच्चेव कामेहि विविच्च अकुसलेहि धम्मेहि सवितक्कं सविचारं विवेकजं पीतिसुखं पठमं झानं उपसम्पज्ज विहरति – इदं वुच्चति, आवुसो, पठमं झान’’न्ति.
‘‘पठमं पनावुसो, झानं कतिअङ्गिक’’न्ति?
‘‘पठमं खो, आवुसो, झानं पञ्चङ्गिकं. इधावुसो, पठमं झानं समापन्नस्स भिक्खुनो वितक्को च वत्तति, विचारो च पीति च सुखञ्च चित्तेकग्गता च. पठमं खो, आवुसो, झानं एवं पञ्चङ्गिक’’न्ति.
‘‘पठमं पनावुसो, झानं कतङ्गविप्पहीनं कतङ्गसमन्नागत’’न्ति?
‘‘पठमं खो, आवुसो, झानं पञ्चङ्गविप्पहीनं, पञ्चङ्गसमन्नागतं. इधावुसो, पठमं झानं समापन्नस्स भिक्खुनो कामच्छन्दो पहीनो होति, ब्यापादो पहीनो होति, थीनमिद्धं पहीनं होति, उद्धच्चकुक्कुच्चं पहीनं होति, विचिकिच्छा पहीना होति; वितक्को च वत्तति, विचारो च पीति च सुखञ्च चित्तेकग्गता च. पठमं खो, आवुसो, झानं एवं पञ्चङ्गविप्पहीनं पञ्चङ्गसमन्नागत’’न्ति.
४५५. ‘‘पञ्चिमानि , आवुसो, इन्द्रियानि नानाविसयानि नानागोचरानि, न अञ्ञमञ्ञस्स गोचरविसयं पच्चनुभोन्ति, सेय्यथिदं – चक्खुन्द्रियं, सोतिन्द्रियं, घानिन्द्रियं, जिव्हिन्द्रियं, कायिन्द्रियं. इमेसं खो, आवुसो, पञ्चन्नं इन्द्रियानं नानाविसयानं नानागोचरानं, न अञ्ञमञ्ञस्स गोचरविसयं पच्चनुभोन्तानं, किं पटिसरणं, को च नेसं गोचरविसयं पच्चनुभोती’’ति?
‘‘पञ्चिमानि, आवुसो, इन्द्रियानि नानाविसयानि नानागोचरानि, न अञ्ञमञ्ञस्स गोचरविसयं पच्चनुभोन्ति, सेय्यथिदं – चक्खुन्द्रियं, सोतिन्द्रियं, घानिन्द्रियं, जिव्हिन्द्रियं, कायिन्द्रियं. इमेसं खो, आवुसो, पञ्चन्नं इन्द्रियानं नानाविसयानं नानागोचरानं, न अञ्ञमञ्ञस्स गोचरविसयं पच्चनुभोन्तानं, मनो पटिसरणं, मनो च नेसं गोचरविसयं पच्चनुभोती’’ति.
४५६. ‘‘पञ्चिमानि, आवुसो, इन्द्रियानि, सेय्यथिदं – चक्खुन्द्रियं, सोतिन्द्रियं, घानिन्द्रियं, जिव्हिन्द्रियं, कायिन्द्रियं. इमानि खो, आवुसो, पञ्चिन्द्रियानि किं पटिच्च तिट्ठन्ती’’ति?
‘‘पञ्चिमानि, आवुसो, इन्द्रियानि, सेय्यथिदं – चक्खुन्द्रियं, सोतिन्द्रियं, घानिन्द्रियं, जिव्हिन्द्रियं, कायिन्द्रियं. इमानि खो, आवुसो, पञ्चिन्द्रियानि आयुं पटिच्च तिट्ठन्ती’’ति.
‘‘आयु पनावुसो, किं पटिच्च तिट्ठती’’ति?
‘‘आयु उस्मं पटिच्च तिट्ठती’’ति.
‘‘उस्मा पनावुसो, किं पटिच्च तिट्ठती’’ति?
‘‘उस्मा आयुं पटिच्च तिट्ठती’’ति.
‘‘इदानेव खो मयं, आवुसो, आयस्मतो सारिपुत्तस्स भासितं एवं आजानाम – ‘आयु उस्मं पटिच्च तिट्ठती’ति. इदानेव पन मयं, आवुसो, आयस्मतो सारिपुत्तस्स भासितं एवं आजानाम – ‘उस्मा आयुं पटिच्च तिट्ठती’ति.
‘‘यथा कथं पनावुसो, इमस्स भासितस्स अत्थो दट्ठब्बो’’ति?
‘‘तेन हावुसो, उपमं ते करिस्सामि; उपमायपिधेकच्चे विञ्ञू पुरिसा भासितस्स अत्थं आजानन्ति. सेय्यथापि, आवुसो, तेलप्पदीपस्स झायतो अच्चिं पटिच्च आभा पञ्ञायति, आभं पटिच्च अच्चि पञ्ञायति; एवमेव खो, आवुसो, आयु उस्मं पटिच्च तिट्ठति, उस्मा आयुं पटिच्च तिट्ठती’’ति.
४५७. ‘‘तेव नु खो, आवुसो, आयुसङ्खारा, ते वेदनिया धम्मा उदाहु अञ्ञे आयुसङ्खारा अञ्ञे वेदनिया धम्मा’’ति? ‘‘न खो , आवुसो, तेव आयुसङ्खारा ते वेदनिया धम्मा. ते च हावुसो, आयुसङ्खारा अभविंसु ते वेदनिया धम्मा, न यिदं सञ्ञावेदयितनिरोधं समापन्नस्स भिक्खुनो वुट्ठानं पञ्ञायेथ. यस्मा च खो, आवुसो, अञ्ञे आयुसङ्खारा अञ्ञे वेदनिया धम्मा, तस्मा सञ्ञावेदयितनिरोधं समापन्नस्स भिक्खुनो वुट्ठानं पञ्ञायती’’ति.
‘‘यदा नु खो, आवुसो, इमं कायं कति धम्मा जहन्ति; अथायं कायो उज्झितो अवक्खित्तो सेति, यथा कट्ठं अचेतन’’न्ति?
‘‘यदा खो, आवुसो, इमं कायं तयो धम्मा जहन्ति – आयु उस्मा च विञ्ञाणं; अथायं कायो उज्झितो अवक्खित्तो सेति, यथा कट्ठं अचेतन’’न्ति.
‘‘य्वायं, आवुसो, मतो कालङ्कतो, यो चायं भिक्खु सञ्ञावेदयितनिरोधं समापन्नो – इमेसं किं नानाकरण’’न्ति?
‘‘य्वायं, आवुसो, मतो कालङ्कतो तस्स कायसङ्खारा निरुद्धा पटिप्पस्सद्धा , वचीसङ्खारा निरुद्धा पटिप्पस्सद्धा, चित्तसङ्खारा निरुद्धा पटिप्पस्सद्धा, आयु परिक्खीणो, उस्मा वूपसन्ता, इन्द्रियानि परिभिन्नानि. यो चायं भिक्खु सञ्ञावेदयितनिरोधं समापन्नो तस्सपि कायसङ्खारा निरुद्धा पटिप्पस्सद्धा, वचीसङ्खारा निरुद्धा पटिप्पस्सद्धा, चित्तसङ्खारा निरुद्धा पटिप्पस्सद्धा, आयु न परिक्खीणो, उस्मा अवूपसन्ता, इन्द्रियानि विप्पसन्नानि. य्वायं, आवुसो, मतो कालङ्कतो, यो चायं भिक्खु सञ्ञावेदयितनिरोधं समापन्नो – इदं नेसं नानाकरण’’न्ति.
४५८. ‘‘कति पनावुसो, पच्चया अदुक्खमसुखाय चेतोविमुत्तिया समापत्तिया’’ति?
‘‘चत्तारो खो, आवुसो, पच्चया अदुक्खमसुखाय चेतोविमुत्तिया समापत्तिया. इधावुसो, भिक्खु सुखस्स च पहाना दुक्खस्स च पहाना पुब्बेव सोमनस्सदोमनस्सानं अत्थङ्गमा अदुक्खमसुखं उपेक्खासतिपारिसुद्धिं चतुत्थं झानं उपसम्पज्ज विहरति. इमे खो, आवुसो, चत्तारो पच्चया अदुक्खमसुखाय चेतोविमुत्तिया समापत्तिया’’ति.
‘‘कति पनावुसो, पच्चया अनिमित्ताय चेतोविमुत्तिया समापत्तिया’’ति?
‘‘द्वे खो, आवुसो, पच्चया अनिमित्ताय चेतोविमुत्तिया समापत्तिया – सब्बनिमित्तानञ्च अमनसिकारो, अनिमित्ताय च धातुया मनसिकारो. इमे खो, आवुसो, द्वे पच्चया अनिमित्ताय चेतोविमुत्तिया समापत्तिया’’ति.
‘‘कति पनावुसो, पच्चया अनिमित्ताय चेतोविमुत्तिया ठितिया’’ति?
‘‘तयो खो, आवुसो, पच्चया अनिमित्ताय चेतोविमुत्तिया ठितिया – सब्बनिमित्तानञ्च अमनसिकारो, अनिमित्ताय च धातुया मनसिकारो, पुब्बे च अभिसङ्खारो. इमे खो, आवुसो, तयो पच्चया अनिमित्ताय चेतोविमुत्तिया ठितिया’’ति.
‘‘कति पनावुसो, पच्चया अनिमित्ताय चेतोविमुत्तिया वुट्ठानाया’’ति?
‘‘द्वे खो, आवुसो, पच्चया अनिमित्ताय चेतोविमुत्तिया वुट्ठानाय – सब्बनिमित्तानञ्च मनसिकारो, अनिमित्ताय च धातुया अमनसिकारो. इमे खो, आवुसो, द्वे पच्चया अनिमित्ताय चेतोविमुत्तिया वुट्ठानाया’’ति.
४५९. ‘‘या चायं, आवुसो, अप्पमाणा चेतोविमुत्ति, या च आकिञ्चञ्ञा चेतोविमुत्ति, या च सुञ्ञता चेतोविमुत्ति, या च अनिमित्ता चेतोविमुत्ति – इमे धम्मा नानात्था चेव नानाब्यञ्जना च उदाहु एकत्था ब्यञ्जनमेव नान’’न्ति?
‘‘या चायं, आवुसो, अप्पमाणा चेतोविमुत्ति, या च आकिञ्चञ्ञा चेतोविमुत्ति, या च सुञ्ञता चेतोविमुत्ति, या च अनिमित्ता चेतोविमुत्ति – अत्थि खो, आवुसो, परियायो यं परियायं आगम्म इमे धम्मा नानात्था चेव नानाब्यञ्जना च; अत्थि च खो, आवुसो, परियायो यं परियायं आगम्म इमे धम्मा एकत्था, ब्यञ्जनमेव नानं’’.
‘‘कतमो चावुसो, परियायो यं परियायं आगम्म इमे धम्मा नानात्था चेव नानाब्यञ्जना च’’?
‘‘इधावुसो, भिक्खु मेत्तासहगतेन चेतसा एकं दिसं फरित्वा विहरति, तथा दुतियं, तथा ततियं, तथा चतुत्थं. इति उद्धमधो तिरियं सब्बधि सब्बत्तताय सब्बावन्तं लोकं मेत्तासहगतेन चेतसा विपुलेन महग्गतेन अप्पमाणेन अवेरेन अब्याबज्झेन फरित्वा विहरति. करुणासहगतेन चेतसा…पे… मुदितासहगतेन चेतसा… उपेक्खासहगतेन चेतसा एकं दिसं फरित्वा विहरति, तथा दुतियं, तथा ततियं, तथा चतुत्थं. इति उद्धमधो तिरियं सब्बधि सब्बत्तताय सब्बावन्तं लोकं उपेक्खासहगतेन चेतसा विपुलेन महग्गतेन अप्पमाणेन अवेरेन अब्याबज्झेन फरित्वा विहरति. अयं वुच्चतावुसो, अप्पमाणा चेतोविमुत्ति’’.
‘‘कतमा चावुसो, आकिञ्चञ्ञा चेतोविमुत्ति’’?
‘‘इधावुसो, भिक्खु सब्बसो विञ्ञाणञ्चायतनं समतिक्कम्म नत्थि किञ्चीति आकिञ्चञ्ञायतनं उपसम्पज्ज विहरति. अयं वुच्चतावुसो, आकिञ्चञ्ञा चेतोविमुत्ति’’.
‘‘कतमा चावुसो, सुञ्ञता चेतोविमुत्ति’’?
‘‘इधावुसो, भिक्खु अरञ्ञगतो वा रुक्खमूलगतो वा सुञ्ञागारगतो वा इति पटिसञ्चिक्खति – ‘सुञ्ञमिदं अत्तेन वा अत्तनियेन वा’ति. अयं वुच्चतावुसो, सुञ्ञता चेतोविमुत्ति’’.
‘‘कतमा चावुसो, अनिमित्ता चेतोविमुत्ति’’?
‘‘इधावुसो, भिक्खु सब्बनिमित्तानं अमनसिकारा अनिमित्तं चेतोसमाधिं उपसम्पज्ज विहरति. अयं वुच्चतावुसो, अनिमित्ता चेतोविमुत्ति. अयं खो, आवुसो, परियायो यं परियायं आगम्म इमे धम्मा नानात्था चेव नानाब्यञ्जना च’’.
‘‘कतमो चावुसो, परियायो यं परियायं आगम्म इमे धम्मा एकत्था ब्यञ्जनमेव नानं’’?
‘‘रागो खो, आवुसो, पमाणकरणो, दोसो पमाणकरणो, मोहो पमाणकरणो. ते खीणासवस्स भिक्खुनो पहीना उच्छिन्नमूला तालावत्थुकता अनभावंकता आयतिं अनुप्पादधम्मा. यावता खो, आवुसो, अप्पमाणा चेतोविमुत्तियो, अकुप्पा तासं चेतोविमुत्ति अग्गमक्खायति. सा खो पनाकुप्पा चेतोविमुत्ति सुञ्ञा रागेन, सुञ्ञा दोसेन, सुञ्ञा मोहेन. रागो खो, आवुसो, किञ्चनो, दोसो किञ्चनो, मोहो किञ्चनो. ते खीणासवस्स भिक्खुनो पहीना उच्छिन्नमूला तालावत्थुकता अनभावंकता आयतिं अनुप्पादधम्मा. यावता खो, आवुसो, आकिञ्चञ्ञा चेतोविमुत्तियो, अकुप्पा तासं चेतोविमुत्ति अग्गमक्खायति. सा खो पनाकुप्पा चेतोविमुत्ति सुञ्ञा रागेन, सुञ्ञा दोसेन , सुञ्ञा मोहेन. रागो खो, आवुसो, निमित्तकरणो, दोसो निमित्तकरणो, मोहो निमित्तकरणो. ते खीणासवस्स भिक्खुनो पहीना उच्छिन्नमूला तालावत्थुकता अनभावंकता आयतिं अनुप्पादधम्मा. यावता खो, आवुसो, अनिमित्ता चेतोविमुत्तियो, अकुप्पा तासं चेतोविमुत्ति अग्गमक्खायति. सा खो पनाकुप्पा चेतोविमुत्ति सुञ्ञा रागेन, सुञ्ञा दोसेन, सुञ्ञा मोहेन. अयं खो, आवुसो, परियायो यं परियायं आगम्म इमे धम्मा एकत्था ब्यञ्जनमेव नान’’न्ति.
इदमवोचायस्मा सारिपुत्तो. अत्तमनो आयस्मा महाकोट्ठिको आयस्मतो सारिपुत्तस्स भासितं अभिनन्दीति.
महावेदल्लसुत्तं निट्ठितं ततियं.