यह सूत्र सुत्तपिटक के सबसे अनुपम, उपयोगी और दुर्लभ सूत्रों में से एक है, जो एक भिक्षुणी के द्वारा दिया गया है। भगवान बुद्ध ने भिक्षुणी धम्मदिन्ना की अत्यधिक सराहना की और उन्हें अपनी भिक्षुणियों में सबसे श्रेष्ठ धर्म शिक्षा देने वाली के रूप में पहचाना। इस वेदल्ल सूत्र में, वह वैश्य गृहस्थ विसाख के जटिल और गहरे सवालों का उत्तर देती हैं। विसाख, जो राजगृह के एक समृद्ध व्यापारी परिवार से थे, अट्ठकथा के अनुसार, वे ही पूर्व धम्मदिन्ना के पति थे, और उन्होंने आगे चलकर अनागामी अवस्था प्राप्त की।
इस संदर्भ में, अपनी पूर्व पत्नी से — जो अब एक जानी-पहचानी, प्रज्ञावान और अग्र अरहंत भिक्षुणी बन चुकी थीं — धर्म की गहरी बातें सीखना, उस पुरुष-प्रधान समाज की आम सोच के ठीक उलट था, जो महिलाओं को अक्सर धर्म और ज्ञान के क्षेत्र में कमतर मानता था। लेकिन यहाँ एक भिक्षुणी न केवल सवालों का जवाब देती हैं, बल्कि धर्म के सबसे जटिल और अनुभव-संबंधी विषयों को इतनी सरल भाषा, गहरी समझ, और साफ़-सुथरे तार्किक क्रम में प्रस्तुत करती हैं — कि उसका कोई मुकाबला नहीं!
यह सूत्र अनेक सूक्ष्म और गहन सिद्धांतों को अत्यंत सीधे और स्पष्ट अंदाज में, पूरी तार्किकता के साथ उजागर करता है। यह उन चुनिंदा सूत्रों में से एक है जिन्हें किसी अन्य सूत्र से बदला नहीं जा सकता। क्योंकि यह सूत्र सिद्धान्त और अनुभव — दोनों को साथ में साधता है। व्याकरणिक स्पष्टता और दार्शनिक गहराई — दोनों को जोड़ता है। और साधक के विमुक्ति पथ पर, श्रोतापति से लेकर अरहत्व तक, उन्नति के लिए ठोस और अमूल्य मार्गदर्शन देता है।
ऐसा मैंने सुना — एक समय भगवान राजगृह के वेणुवन गिलहरियों के परिसर में विहार कर रहे थे। तब विसाख उपासक धम्मदिन्ना भिक्षुणी के पास गया, और जाकर धम्मदिन्ना भिक्षुणी को अभिवादन कर एक ओर बैठ गया। एक ओर बैठ कर विसाख उपासक ने धम्मदिन्ना भिक्षुणी से कहा —
“‘स्व-धारणा… स्व-धारणा…’ कहते हैं, आर्या 1। भगवान स्व-धारणा (“सक्काय”) किसे कहते हैं?”
“पाँच आसक्ति संग्रहों (“उपादानक्खन्ध”) को, मित्र विसाख, भगवान स्व-धारणा कहते हैं। जैसे — रूप आसक्ति संग्रह, अनुभूति आसक्ति संग्रह, संज्ञा आसक्ति संग्रह, रचना आसक्ति संग्रह, चैतन्य आसक्ति संग्रह। इन पाँच आसक्ति संग्रहों को भगवान स्व-धारणा कहते हैं।”
“बहुत अच्छा, आर्या!” कहते हुए हर्षित हुए विसाख उपासक ने धम्मदिन्ना भिक्षुणी के कहे का अभिनंदन किया, और फिर धम्मदिन्ना भिक्षुणी से अगला प्रश्न पूछा —
“‘स्व-धारणा की उत्पत्ति… स्व-धारणा की उत्पत्ति…’ कहते हैं, आर्या। भगवान स्व-धारणा की उत्पत्ति (“सक्कायसमुदय”) किसे कहते हैं?”
यह जो तृष्णा है, मित्र विसाख, पुनः अस्तित्व बनाने वाली, मज़ा और दिलचस्पी के साथ आने वाली, यहाँ-वहाँ मजा लेने वाली — अर्थात (इंद्रिय सुख पाने की) काम तृष्णा, अस्तित्व (बनाने की) तृष्णा, और अस्तित्व मिटाने की तृष्णा। इसे ही भगवान स्व-धारणा की उत्पत्ति कहते हैं।"
“‘स्व-धारणा का निरोध… स्व-धारणा का निरोध…’ कहते हैं, आर्या। भगवान स्व-धारणा का निरोध किसे कहते हैं?”
“उसी तृष्णा का, मित्र विसाख, बिना अवशेष रहे विराग होना, निरोध होना, त्याग दिया जाना, संन्यास ले लेना, मुक्ति होना, आश्रय छूट जाना। इसे ही भगवान स्व-धारणा का निरोध कहते हैं।”
“‘स्व-धारणा का निरोधकर्ता मार्ग… स्व-धारणा का निरोधकर्ता मार्ग…’ कहते हैं, आर्या। भगवान स्व-धारणा का निरोधकर्ता मार्ग किसे कहते हैं?”
“बस यही, मित्र विसाख, आर्य अष्टांगिक मार्ग को भगवान स्व-धारणा का निरोधकर्ता मार्ग कहते हैं। अर्थात, सम्यक दृष्टि, सम्यक संकल्प, सम्यक वचन, सम्यक कार्य, सम्यक जीविका, सम्यक प्रयास, सम्यक स्मृति, और सम्यक समाधि।”
“क्या आसक्ति (“उपादान”) ही पाँच आसक्ति संग्रह (“पञ्चुपादानक्खन्ध”) हैं, आर्या? अथवा पाँच आसक्ति संग्रह अलग है, और आसक्ति अलग?”
“आसक्ति, मित्र विसाख, पाँच आसक्ति संग्रह नहीं है। और आसक्ति और पाँच आसक्ति संग्रह अलग-अलग भी नहीं हैं। बल्कि, मित्र विसाख, पाँच आसक्ति संग्रहों के लिए जो ‘चाहत और दिलचस्पी’ (“छन्दराग”) होती है, वही आसक्ति होती है।”
“स्व-धारणा दृष्टि (“सक्कायदिट्ठि”) कैसे होती है, आर्या?”
“मित्र विसाख, कोई धर्म न सुना, आम आदमी हो, जो आर्यजनों के दर्शन से वंचित, आर्य-धर्म से अपरिचित, आर्य-धर्म में अनुशासित न हो; या सत्पुरुषों के दर्शन से वंचित, सत्पुरूष-धर्म से अपरिचित, सत्पुरूष-धर्म में अनुशासित न हो —
— इस तरह, मित्र विसाख, स्व-धारणा दृष्टि होती है।
“किन्तु, आर्या, स्व-धारणा दृष्टि कैसे नहीं होती?”
“मित्र विसाख, कोई धर्म सुना आर्यश्रावक हो, जो आर्यजनों के दर्शन से लाभान्वित, आर्य-धर्म से परिचित, आर्य-धर्म में अनुशासित हो; या सत्पुरुषों के दर्शन से लाभान्वित, सत्पुरूष-धर्म से परिचित, सत्पुरूष-धर्म में अनुशासित हो —
— इस तरह, मित्र विसाख, स्व-धारणा दृष्टि नहीं होती है।
“आर्या, यह आर्य अष्टांगिक मार्ग क्या है?”
“आर्य अष्टांगिक मार्ग, मित्र विसाख, बस यही है। जैसे, सम्यक दृष्टि, सम्यक संकल्प, सम्यक वचन, सम्यक कार्य, सम्यक जीविका, सम्यक प्रयास, सम्यक स्मृति, और सम्यक समाधि।”
“किन्तु, आर्या, यह आर्य अष्टांगिक मार्ग रचित (=संस्कृत, गढ़ा गया) है, अथवा अरचित?”
“आर्य अष्टांगिक मार्ग, मित्र विसाख, रचित है।”
“आर्या, यह आर्य अष्टांगिक मार्ग तीन स्कंधों में संग्रहीत होता है, अथवा तीन स्कंध आर्य अष्टांगिक मार्ग में संग्रहीत होते हैं?”
“तीन स्कंध आर्य अष्टांगिक मार्ग में संग्रहीत नहीं होते हैं, मित्र विसाख। बल्कि आर्य अष्टांगिक मार्ग तीन स्कंधों में संग्रहीत होता है।
“आर्या, समाधि क्या है? कौन से धर्म समाधि के निमित्त होते हैं? कौन से धर्म समाधि में सहायक होते हैं? और समाधि भावना (=विकसित करना) क्या होती है?”
“चित्त की एकाग्रता ही, मित्र विसाख, समाधि है। चार स्मृतिप्रस्थान ही समाधि के निमित्त हैं। चार सम्यक परिश्रम समाधि में सहायक हैं। और उन्हीं धर्मों का अध्यास करना, उनकी साधना करना, उन्हें विकसित करना, यही समाधि भावना है।”
“आर्या, रचना (“सङ्खार”) क्या होती है?”
“तीन प्रकार की, मित्र विसाख, रचनाएँ होती हैं — शारीरिक रचना, वाणी रचना, और चैतसिक रचना।”
“आर्या, ये शारीरिक रचना क्या होती है? ये वाणी रचना क्या होती है? और ये चैतसिक रचना क्या होती है?”
“मित्र विसाख, साँस लेना और साँस छोड़ना — शारीरिक रचना है। विषय और विचार — वाणी रचना है। और संज्ञा और अनुभूति — चैतसिक रचना है।”
“किन्तु, आर्या, साँस लेना और साँस छोड़ना — शारीरिक रचना क्यों है? विषय और विचार — वाणी रचना क्यों हैं? और संज्ञा और अनुभूति — चैतसिक रचना क्यों हैं?”
“मित्र विसाख, साँस लेना और साँस छोड़ना शरीर से होता है। वह शरीर से जुड़ा धर्म है, इसलिए साँस लेना और साँस छोड़ना — शारीरिक रचना है। पहले किसी विषय पर विचार करने के पश्चात ही वचन फूट पड़ते हैं, इसलिए विषय और विचार — वाणी रचना है। संज्ञा और अनुभूति चित्त से होती है। वे चित्त से जुड़े धर्म हैं, इसलिए संज्ञा और अनुभूति — चैतसिक रचना है।”
“आर्या, ‘संज्ञा अनुभूति निरोध समापत्ति’ क्या होती है?”
“मित्र विसाख, कभी किसी संज्ञा अनुभूति निरोध अवस्था पाने वाले भिक्षु को ऐसे नहीं लगता कि — ‘मैं संज्ञा अनुभूति निरोध अवस्था को प्राप्त करूँगा’, या ‘मैं संज्ञा अनुभूति निरोध अवस्था प्राप्त कर रहा हूँ’, या ‘मैंने संज्ञा अनुभूति निरोध अवस्था प्राप्त की।’ बल्कि, जिस तरह उनका चित्त पहले से विकसित हो, उस तरह वह अवस्था आती है।”
“आर्या, ‘संज्ञा अनुभूति निरोध समापत्ति’ पाने वाले भिक्षु में पहले कौन से धर्म निरुद्ध होते (=रुकते, थमते) हैं — शारीरिक रचना, वाणी रचना, अथवा चैतसिक रचना?”
“मित्र विसाख, ‘संज्ञा अनुभूति निरोध समापत्ति’ पाने वाले भिक्षु में पहले वाणी रचना निरुद्ध होती है, फिर शारीरिक रचना, और फिर चैतसिक रचना।”
“आर्या, ये ‘संज्ञा अनुभूति निरोध समापत्ति’ से उठते (=निकलते) कैसे है?”
“मित्र विसाख, कभी किसी संज्ञा अनुभूति निरोध अवस्था से उठने वाले भिक्षु को ऐसे नहीं लगता कि — ‘मैं संज्ञा अनुभूति निरोध अवस्था से निकलूँगा’, या ‘मैं संज्ञा अनुभूति निरोध अवस्था से निकल रहा हूँ’, या ‘मैं संज्ञा अनुभूति निरोध अवस्था से निकल गया।’ बल्कि, जिस तरह उनका चित्त पहले से विकसित हो, उस तरह वह अवस्था आती है।”
“आर्या, ‘संज्ञा अनुभूति निरोध समापत्ति’ से उठने वाले भिक्षु में पहले कौन से धर्म उपजते हैं — शारीरिक रचना, वाणी रचना, अथवा चैतसिक रचना?”
“मित्र विसाख, ‘संज्ञा अनुभूति निरोध समापत्ति’ से उठने वाले भिक्षु में पहले चैतसिक रचना उपजती है, फिर शारीरिक रचना, और फिर वाणी रचना।”
“किन्तु, आर्या, ‘संज्ञा अनुभूति निरोध समापत्ति’ से उठने वाले भिक्षु को कितने प्रकार के संपर्क छूते हैं?”
“मित्र विसाख, ‘संज्ञा अनुभूति निरोध समापत्ति’ से उठने वाले भिक्षु को तीन प्रकार के संपर्क छूते हैं — शून्यता संपर्क, अनिमित्त संपर्क, और दिशा-रहित संपर्क।” 2
“और, आर्या, ‘संज्ञा अनुभूति निरोध समापत्ति’ से उठने वाले भिक्षु का चित्त किस ओर झुकता है, ढलता है, उन्मुख होता हैं?”
“मित्र विसाख, ‘संज्ञा अनुभूति निरोध समापत्ति’ से उठने वाले भिक्षु का चित्त निर्लिप्तता की ओर झुकता है, निर्लिप्तता की ओर ढलता है, निर्लिप्तता की ओर उन्मुख होता है।”
“आर्या, अनुभूति कितने प्रकार की होती है?”
“मित्र विसाख, तीन प्रकार की अनुभूति होती हैं — सुखद अनुभूति, दुखद अनुभूति, अदुखद-असुखद अनुभूति।”
“किन्तु, आर्या, ये सुखद अनुभूति क्या है, दुखद अनुभूति क्या है, अदुखद-असुखद अनुभूति क्या है?”
“मित्र विसाख, जो शारीरिक या चैतसिक सुख और राहत महसूस होती है — वह सुखद अनुभूति है। जो शारीरिक या चैतसिक दुख और कष्ट महसूस होता है — वह दुखद अनुभूति है। जो शारीरिक या चैतसिक न राहत न कष्ट महसूस होता है — वह अदुखद-असुखद अनुभूति हैं।”
“किन्तु, आर्या, सुख में क्या सुखद और क्या दुखद होता है? दुःख में क्या सुखद और क्या दुखद होता है? अदुखद-असुखद में क्या सुखद और क्या दुखद होता है?”
“मित्र विसाख, सुख का बने रहना सुखद, किन्तु बदल जाना दुखद होता है। दुःख का बने रहना दुखद, किन्तु बदल जाना सुखद होता है। अदुखद-असुखद का ज्ञान होना सुखद, किन्तु अज्ञान दुखद होता है।”
“आर्या, सुखद अनुभूति किस अनुशय के साथ सोती है? दुखद अनुभूति किस अनुशय के साथ सोती है? अदुखद-असुखद अनुभूति किस अनुशय के साथ सोती है?”
“सुख, मित्र विसाख, ‘राग’ (=दिलचस्पी) अनुशय के साथ सोता है। दुःख प्रतिरोध (“पटिघ”) अनुशय के साथ सोता है। और अदुखद-असुखद ‘अविद्या’ अनुशय के साथ सोता है।” 3
“क्या, आर्या, सभी तरह के सुख ‘राग’ अनुशय के साथ सोते हैं? सभी तरह के दुःख ‘प्रतिरोध’ अनुशय के साथ सोते हैं? सभी तरह के अदुख-असुख ‘अविद्या’ अनुशय के साथ सोते हैं?”
“नहीं, मित्र विसाख। सभी तरह के सुख ‘राग’ अनुशय के साथ नहीं सोते हैं। सभी तरह के दुःख ‘प्रतिरोध’ अनुशय के साथ नहीं सोते हैं। सभी तरह के अदुख-असुख ‘अविद्या’ अनुशय के साथ सोते हैं।” 4
“तब, आर्या, सुखद अनुभूति में क्या त्यागना होता है? दुखद अनुभूति में क्या त्यागना होता है? अदुखद-असुखद अनुभूति में क्या त्यागना होता है?”
“मित्र विसाख, सुखद अनुभूति में राग अनुशय को त्यागना होता है। दुखद अनुभूति में प्रतिरोध अनुशय को त्यागना होता है। और अदुखद-असुखद अनुभूति में अविद्या अनुशय को त्यागना होता है।”
“किन्तु, आर्या, क्या सभी तरह की सुखद अनुभूतियों में राग अनुशय को त्यागना होता है? क्या सभी तरह की दुखद अनुभूतियों में प्रतिरोध अनुशय को त्यागना होता है? क्या सभी तरह की अदुखद-असुखद अनुभूतियों में अविद्या अनुशय को त्यागना होता है?”
“नहीं, मित्र विसाख। सभी तरह की सुखद अनुभूतियों में राग अनुशय को त्यागना नहीं होता है। सभी तरह की दुखद अनुभूतियों में प्रतिरोध अनुशय को त्यागना नहीं होता है। सभी तरह की अदुखद-असुखद अनुभूतियों में अविद्या अनुशय को त्यागना नहीं होता है।
जैसे, मित्र विसाख, कोई भिक्षु कामुकता से निर्लिप्त, अकुशल स्वभाव से निर्लिप्त — विषय और विचार के साथ, निर्लिप्तता से जन्मे प्रफुल्लता और सुख वाले प्रथम-झान में प्रवेश कर रहता है। उस (प्रथम झान) के सहारे वह राग अनुशय को त्यागता है, राग अनुशय के साथ नहीं सोता। 5
जैसे, मित्र विसाख, कोई भिक्षु चिंतन करता है, ‘अरे! मैं आखिर कब उस आयाम में प्रवेश पाकर विहार करूँगा, जिस आयाम में आर्यजन प्रवेश पाकर विहार करते हैं!?’ इस तरह अनुत्तर विमोक्ष के लिए तड़पने के कारण उसमें व्यथा उत्पन्न होती है। उस (कुशल व्यथा) के सहारे वह प्रतिरोध अनुशय को त्यागता है, प्रतिरोध अनुशय के साथ नहीं सोता।
जैसे, मित्र विसाख, कोई भिक्षु सुख और दर्द दोनों ही हटाकर, खुशी और परेशानी पूर्व ही विलुप्त होने से, अब अदुखद-असुखद तटस्थता और स्मरणशीलता की परिशुद्धता के साथ चतुर्थ-झान में प्रवेश कर रहता है। उस (चतुर्थ झान) के सहारे वह अविद्या अनुशय को त्यागता है, अविद्या अनुशय के साथ नहीं सोता।”
“आर्या, सुखद अनुभूति का प्रतिपक्ष क्या है?”
“सुखद अनुभूति का प्रतिपक्ष, मित्र विसाख, दुखद अनुभूति है।”
“और, आर्या, दुखद अनुभूति का प्रतिपक्ष क्या है?”
“दुखद अनुभूति का प्रतिपक्ष, मित्र विसाख, सुखद अनुभूति है।”
“और, आर्या, अदुखद-असुखद अनुभूति का प्रतिपक्ष क्या है?”
“अदुखद-असुखद अनुभूति का प्रतिपक्ष, मित्र विसाख, अविद्या है।”
“और, आर्या, अविद्या का प्रतिपक्ष क्या है?”
“अविद्या का प्रतिपक्ष, मित्र विसाख, विद्या है।”
“और, आर्या, विद्या का प्रतिपक्ष क्या है?”
“विद्या का प्रतिपक्ष, मित्र विसाख, विमुक्ति है।”
“और, आर्या, विमुक्ति का प्रतिपक्ष क्या है?”
“विद्या का प्रतिपक्ष, मित्र विसाख, निर्वाण है।”
“और, आर्या, निर्वाण का प्रतिपक्ष क्या है?”
“तुम्हारे प्रश्न बहुत आगे बढ़ गए, मित्र विसाख। तुम्हें प्रश्नों की सीमा नहीं समझ आयी। क्योंकि, मित्र विसाख, ब्रह्मचर्य निर्वाण पर टिकता है, निर्वाण पर समापन होता है, निर्वाण पर अन्त होता है। अब, मित्र विसाख, यदि तुम्हारी इच्छा हो, तो भगवान के पास जाकर इसका अर्थ पुछो। जिस तरह भगवान व्याख्या करें, उसी तरह उसे धारण करो।”
तब हर्षित होकर विसाख उपासक ने धम्मदिन्ना भिक्षुणी के कथन का अभिनंदन किया। और वह आसन से उठकर धम्मदिन्ना भिक्षुणी को अभिवादन कर, उसे प्रदक्षिणा करते हुए भगवान के पास गया। जाकर भगवान को अभिवादन कर एक ओर बैठ गया। एक ओर बैठकर विसाख उपासक ने धम्मदिन्ना भिक्षुणी के साथ हुए पूरे वार्तालाप को भगवान को सुनाया।
ऐसा कहे जाने पर, भगवान विसाख उपासक से कह पड़ें, “धम्मदिन्ना भिक्षुणी पण्डित है, विसाख! धम्मदिन्ना भिक्षुणी महाप्रज्ञावान है, विसाख! यदि तुम (पहले) मुझसे उसका अर्थ पुछते, तो मैं ठीक उसी तरह उत्तर देता, जिस तरह धम्मदिन्ना भिक्षुणी ने उत्तर दिया है। यही उसका अर्थ है। इसे ठीक इसी तरह धारण करो।”
भगवान ने ऐसा कहा। हर्षित होकर विसाख उपासक ने भगवान के कथन का अभिनंदन किया।
आर्या शब्द “आर्य” से जुड़ा है, जिसका उपयोग प्राचीन संदर्भ में एक स्त्री को अत्यधिक आदर और सम्मान के साथ संबोधित करने के लिए किया जाता था। यह विशेष रूप से उन स्त्रियों के लिए प्रयोग किया जाता था, जो किसी उच्च सामाजिक या धार्मिक पद पर आसीन होती थीं, जैसे कि राजमाता, भिक्षुणी, तपस्विनी, आदि। यह शब्द न केवल शारीरिक सुंदरता और सामाजिक प्रतिष्ठा का प्रतीक था, बल्कि ज्ञान, उच्च नैतिक आचरण, और आध्यात्मिक उन्नति का भी संकेत था। ↩︎
शून्यता, अनिमित्त, और दिशा-रहित (“अप्पणिहित”)— ये तीनों विशेष प्रकार की समाधि अवस्थाएँ हैं, जो निर्वाण के बिल्कुल निकट स्थित होती हैं। ये अवस्थाएँ अपने स्वभाव में समान हैं, फर्क केवल इस बात में होता है कि साधक ने किस प्रकार से साधना किया है। अट्ठकथा के अनुसार, ये अवस्थाएँ निर्वाण के उस प्रारंभिक अनुभव को एक तरह का रंग देती हैं।
अनुशय और उनके विविध प्रकारों के बारे में अधिक जानने के लिए हमारी शब्दावली पढ़ें। ↩︎
अर्थात, कुछ प्रकार के सुख — जैसे ध्यान में उत्पन्न सुख, त्याग से मिलने वाला सुख, संतोष का सुख, विराग का सुख, और समाधि से उत्पन्न सुख — ये सभी “कुशल” या “आर्य” सुख कहलाते हैं। इनसे चित्त में राग-अनुशय जाग्रत नहीं होता; बल्कि इसके विपरीत, ये सुख राग को क्षीण करते हैं।
इसी प्रकार, यदि ध्यान-साधना के दौरान कोई दुखद अनुभूति (जैसे शारीरिक पीड़ा या मानसिक बेचैनी), या न सुखद न दुखद अनुभूति (तटस्थता भाव) उत्पन्न हो, तो वे भी अनुशय के साथ नहीं सोती, बल्कि अनुशयों का क्षय करती हैं। इस प्रकार, कुशल और धर्मानुकूल अनुभूतियों को आधार बनाकर, चित्त में छिपे हुए अनुशय का क्षय किया जा सकता है। ↩︎
अन्य शब्दों में कहें तो, प्रथम झान में उत्पन्न सुख जब प्रज्ञा के विकास का आधार बन जाता है, जो आगे चलकर अरहत्वपद पाने में सहायक होता है, तब चित्त में सुखद अनुभूति के प्रति अनुशय नहीं बचता।
अट्ठकथा में कहा गया है कि यह अवस्था केवल अनागामी बनने पर ही आती है, परंतु यह कथन त्रुटिपूर्ण प्रतीत होता है। क्योंकि अनागामी में अब भी रूप और अरूप धर्मों के प्रति सूक्ष्म राग शेष रह सकता है। ↩︎
४६०. एवं मे सुतं – एकं समयं भगवा राजगहे विहरति वेळुवने कलन्दकनिवापे. अथ खो विसाखो उपासको येन धम्मदिन्ना भिक्खुनी तेनुपसङ्कमि; उपसङ्कमित्वा धम्मदिन्नं भिक्खुनिं अभिवादेत्वा एकमन्तं निसीदि. एकमन्तं निसिन्नो खो विसाखो उपासको धम्मदिन्नं भिक्खुनिं एतदवोच – ‘‘‘सक्कायो सक्कायो’ति, अय्ये, वुच्चति. कतमो नु खो, अय्ये, सक्कायो वुत्तो भगवता’’ति? ‘‘पञ्च खो इमे, आवुसो विसाख, उपादानक्खन्धा सक्कायो वुत्तो भगवता, सेय्यथिदं – रूपुपादानक्खन्धो, वेदनुपादानक्खन्धो, सञ्ञुपादानक्खन्धो, सङ्खारुपादानक्खन्धो, विञ्ञाणुपादानक्खन्धो. इमे खो, आवुसो विसाख, पञ्चुपादानक्खन्धा सक्कायो वुत्तो भगवता’’ति.
‘‘साधय्ये’’ति खो विसाखो उपासको धम्मदिन्नाय भिक्खुनिया भासितं अभिनन्दित्वा अनुमोदित्वा धम्मदिन्नं भिक्खुनिं उत्तरिं पञ्हं अपुच्छि – ‘‘‘सक्कायसमुदयो सक्कायसमुदयो’ति, अय्ये, वुच्चति. कतमो नु खो, अय्ये, सक्कायसमुदयो वुत्तो भगवता’’ति? ‘‘यायं, आवुसो विसाख, तण्हा पोनोब्भविका नन्दीरागसहगता तत्रतत्राभिनन्दिनी, सेय्यथिदं – कामतण्हा भवतण्हा विभवतण्हा; अयं खो, आवुसो विसाख, सक्कायसमुदयो वुत्तो भगवता’’ति.
‘‘‘सक्कायनिरोधो सक्कायनिरोधो’ति, अय्ये, वुच्चति. कतमो नु खो, अय्ये, सक्कायनिरोधो वुत्तो भगवता’’ति?
‘‘यो खो, आवुसो विसाख, तस्सायेव तण्हाय असेसविरागनिरोधो चागो पटिनिस्सग्गो मुत्ति अनालयो; अयं खो, आवुसो विसाख, सक्कायनिरोधो वुत्तो भगवता’’ति.
‘‘‘सक्कायनिरोधगामिनी पटिपदा सक्कायनिरोधगामिनी पटिपदा’ति, अय्ये, वुच्चति. कतमा नु खो, अय्ये, सक्कायनिरोधगामिनी पटिपदा वुत्ता भगवता’’ति?
‘‘अयमेव खो, आवुसो विसाख, अरियो अट्ठङ्गिको मग्गो सक्कायनिरोधगामिनी पटिपदा वुत्ता भगवता, सेय्यथिदं – सम्मादिट्ठि सम्मासङ्कप्पो सम्मावाचा सम्माकम्मन्तो सम्माआजीवो सम्मावायामो सम्मासति सम्मासमाधी’’ति.
‘‘तञ्ञेव नु खो, अय्ये, उपादानं ते [तेव (सी.)] पञ्चुपादानक्खन्धा उदाहु अञ्ञत्र पञ्चहुपादानक्खन्धेहि उपादान’’न्ति? ‘‘न खो, आवुसो विसाख, तञ्ञेव उपादानं ते पञ्चुपादानक्खन्धा, नापि अञ्ञत्र पञ्चहुपादानक्खन्धेहि उपादानं. यो खो, आवुसो विसाख, पञ्चसु उपादानक्खन्धेसु छन्दरागो तं तत्थ उपादान’’न्ति.
४६१. ‘‘कथं पनाय्ये, सक्कायदिट्ठि होती’’ति? ‘‘इधावुसो विसाख, अस्सुतवा पुथुज्जनो, अरियानं अदस्सावी अरियधम्मस्स अकोविदो अरियधम्मे अविनीतो, सप्पुरिसानं अदस्सावी सप्पुरिसधम्मस्स अकोविदो सप्पुरिसधम्मे अविनीतो, रूपं अत्ततो समनुपस्सति, रूपवन्तं वा अत्तानं, अत्तनि वा रूपं, रूपस्मिं वा अत्तानं. वेदनं…पे… सञ्ञं… सङ्खारे… विञ्ञाणं अत्ततो समनुपस्सति, विञ्ञाणवन्तं वा अत्तानं, अत्तनि वा विञ्ञाणं, विञ्ञाणस्मिं वा अत्तानं. एवं खो , आवुसो विसाख, सक्कायदिट्ठि होती’’ति.
‘‘कथं पनाय्ये, सक्कायदिट्ठि न होती’’ति?
‘‘इधावुसो विसाख, सुतवा अरियसावको, अरियानं दस्सावी अरियधम्मस्स कोविदो अरियधम्मे सुविनीतो, सप्पुरिसानं दस्सावी सप्पुरिसधम्मस्स कोविदो सप्पुरिसधम्मे सुविनीतो, न रूपं अत्ततो समनुपस्सति, न रूपवन्तं वा अत्तानं, न अत्तनि वा रूपं, न रूपस्मिं वा अत्तानं. न वेदनं…पे… न सञ्ञं… न सङ्खारे…पे… न विञ्ञाणं अत्ततो समनुपस्सति, न विञ्ञाणवन्तं वा अत्तानं , न अत्तनि वा विञ्ञाणं, न विञ्ञाणस्मिं वा अत्तानं. एवं खो, आवुसो विसाख, सक्कायदिट्ठि न होती’’ति.
४६२. ‘‘कतमो पनाय्ये, अरियो अट्ठङ्गिको मग्गो’’ति?
‘‘अयमेव खो, आवुसो विसाख, अरियो अट्ठङ्गिको मग्गो, सेय्यथिदं – सम्मादिट्ठि सम्मासङ्कप्पो सम्मावाचा सम्माकम्मन्तो सम्माआजीवो सम्मावायामो सम्मासति सम्मासमाधी’’ति. ‘‘अरियो पनाय्ये, अट्ठङ्गिको मग्गो सङ्खतो उदाहु असङ्खतो’’ति?
‘‘अरियो खो, आवुसो विसाख, अट्ठङ्गिको मग्गो सङ्खतो’’ति .
‘‘अरियेन नु खो, अय्ये, अट्ठङ्गिकेन मग्गेन तयो खन्धा सङ्गहिता उदाहु तीहि खन्धेहि अरियो अट्ठङ्गिको मग्गो सङ्गहितो’’ति?
‘‘न खो, आवुसो विसाख, अरियेन अट्ठङ्गिकेन मग्गेन तयो खन्धा सङ्गहिता; तीहि च खो, आवुसो विसाख, खन्धेहि अरियो अट्ठङ्गिको मग्गो सङ्गहितो. या चावुसो विसाख, सम्मावाचा यो च सम्माकम्मन्तो यो च सम्माआजीवो इमे धम्मा सीलक्खन्धे सङ्गहिता. यो च सम्मावायामो या च सम्मासति यो च सम्मासमाधि इमे धम्मा समाधिक्खन्धे सङ्गहिता. या च सम्मादिट्ठि यो च सम्मासङ्कप्पो, इमे धम्मा पञ्ञाक्खन्धे सङ्गहिता’’ति.
‘‘कतमो पनाय्ये, समाधि, कतमे धम्मा समाधिनिमित्ता, कतमे धम्मा समाधिपरिक्खारा, कतमा समाधिभावना’’ति?
‘‘या खो, आवुसो विसाख, चित्तस्स एकग्गता अयं समाधि; चत्तारो सतिपट्ठाना समाधिनिमित्ता; चत्तारो सम्मप्पधाना समाधिपरिक्खारा. या तेसंयेव धम्मानं आसेवना भावना बहुलीकम्मं, अयं एत्थ समाधिभावना’’ति.
४६३. ‘‘कति पनाय्ये, सङ्खारा’’ति?
‘‘तयोमे, आवुसो विसाख, सङ्खारा – कायसङ्खारो, वचीसङ्खारो, चित्तसङ्खारो’’ति.
‘‘कतमो पनाय्ये, कायसङ्खारो, कतमो वचीसङ्खारो, कतमो चित्तसङ्खारो’’ति?
‘‘अस्सासपस्सासा खो, आवुसो विसाख, कायसङ्खारो, वितक्कविचारा वचीसङ्खारो, सञ्ञा च वेदना च चित्तसङ्खारो’’ति.
‘‘कस्मा पनाय्ये, अस्सासपस्सासा कायसङ्खारो, कस्मा वितक्कविचारा वचीसङ्खारो, कस्मा सञ्ञा च वेदना च चित्तसङ्खारो’’ति?
‘‘अस्सासपस्सासा खो, आवुसो विसाख, कायिका एते धम्मा कायप्पटिबद्धा, तस्मा अस्सासपस्सासा कायसङ्खारो. पुब्बे खो, आवुसो विसाख, वितक्केत्वा विचारेत्वा पच्छा वाचं भिन्दति, तस्मा वितक्कविचारा वचीसङ्खारो. सञ्ञा च वेदना च चेतसिका एते धम्मा चित्तप्पटिबद्धा, तस्मा सञ्ञा च वेदना च चित्तसङ्खारो’’ति.
४६४. ‘‘कथं पनाय्ये, सञ्ञावेदयितनिरोधसमापत्ति होती’’ति?
‘‘न खो, आवुसो विसाख, सञ्ञावेदयितनिरोधं समापज्जन्तस्स भिक्खुनो एवं होति – ‘अहं सञ्ञावेदयितनिरोधं समापज्जिस्स’न्ति वा, ‘अहं सञ्ञावेदयितनिरोधं समापज्जामी’ति वा, ‘अहं सञ्ञावेदयितनिरोधं समापन्नो’ति वा. अथ ख्वास्स पुब्बेव तथा चित्तं भावितं होति यं तं तथत्ताय उपनेती’’ति.
‘‘सञ्ञावेदयितनिरोधं समापज्जन्तस्स पनाय्ये, भिक्खुनो कतमे धम्मा पठमं निरुज्झन्ति – यदि वा कायसङ्खारो, यदि वा वचीसङ्खारो, यदि वा चित्तसङ्खारो’’ति? ‘‘सञ्ञावेदयितनिरोधं समापज्जन्तस्स खो, आवुसो विसाख, भिक्खुनो पठमं निरुज्झति वचीसङ्खारो, ततो कायसङ्खारो, ततो चित्तसङ्खारो’’ति.
‘‘कथं पनाय्ये, सञ्ञावेदयितनिरोधसमापत्तिया वुट्ठानं होती’’ति?
‘‘न खो, आवुसो विसाख, सञ्ञावेदयितनिरोधसमापत्तिया वुट्ठहन्तस्स भिक्खुनो एवं होति – ‘अहं सञ्ञावेदयितनिरोधसमापत्तिया वुट्ठहिस्स’न्ति वा, ‘अहं सञ्ञावेदयितनिरोधसमापत्तिया वुट्ठहामी’ति वा, ‘अहं सञ्ञावेदयितनिरोधसमापत्तिया वुट्ठितो’ति वा. अथ ख्वास्स पुब्बेव तथा चित्तं भावितं होति यं तं तथत्ताय उपनेती’’ति.
‘‘सञ्ञावेदयितनिरोधसमापत्तिया वुट्ठहन्तस्स पनाय्ये, भिक्खुनो कतमे धम्मा पठमं उप्पज्जन्ति – यदि वा कायसङ्खारो, यदि वा वचीसङ्खारो, यदि वा चित्तसङ्खारो’’ति? ‘‘सञ्ञावेदयितनिरोधसमापत्तिया वुट्ठहन्तस्स खो, आवुसो विसाख, भिक्खुनो पठमं उप्पज्जति चित्तसङ्खारो, ततो कायसङ्खारो, ततो वचीसङ्खारो’’ति.
‘‘सञ्ञावेदयितनिरोधसमापत्तिया वुट्ठितं पनाय्ये, भिक्खुं कति फस्सा फुसन्ती’’ति? ‘‘सञ्ञावेदयितनिरोधसमापत्तिया वुट्ठितं खो, आवुसो विसाख, भिक्खुं तयो फस्सा फुसन्ति – सुञ्ञतो फस्सो, अनिमित्तो फस्सो, अप्पणिहितो फस्सो’’ति.
‘‘सञ्ञावेदयितनिरोधसमापत्तिया वुट्ठितस्स पनाय्ये, भिक्खुनो किंनिन्नं चित्तं होति किंपोणं किंपब्भार’’न्ति? ‘‘सञ्ञावेदयितनिरोधसमापत्तिया वुट्ठितस्स खो, आवुसो विसाख, भिक्खुनो विवेकनिन्नं चित्तं होति, विवेकपोणं विवेकपब्भार’’न्ति.
४६५. ‘‘कति पनाय्ये, वेदना’’ति?
‘‘तिस्सो खो इमा, आवुसो विसाख, वेदना – सुखा वेदना, दुक्खा वेदना, अदुक्खमसुखा वेदना’’ति.
‘‘कतमा पनाय्ये, सुखा वेदना, कतमा दुक्खा वेदना, कतमा अदुक्खमसुखा वेदना’’ति?
‘‘यं खो, आवुसो विसाख, कायिकं वा चेतसिकं वा सुखं सातं वेदयितं – अयं सुखा वेदना. यं खो, आवुसो विसाख, कायिकं वा चेतसिकं वा दुक्खं असातं वेदयितं – अयं दुक्खा वेदना. यं खो, आवुसो विसाख, कायिकं वा चेतसिकं वा नेव सातं नासातं वेदयितं – अयं अदुक्खमसुखा वेदना’’ति.
‘‘सुखा पनाय्ये, वेदना किंसुखा किंदुक्खा, दुक्खा वेदना किंसुखा किंदुक्खा, अदुक्खमसुखा वेदना किंसुखा किंदुक्खा’’ति?
‘‘सुखा खो, आवुसो विसाख, वेदना ठितिसुखा विपरिणामदुक्खा; दुक्खा वेदना ठितिदुक्खा विपरिणामसुखा ; अदुक्खमसुखा वेदना ञाणसुखा अञ्ञाणदुक्खा’’ति.
‘‘सुखाय पनाय्ये, वेदनाय किं अनुसयो अनुसेति, दुक्खाय वेदनाय किं अनुसयो अनुसेति, अदुक्खमसुखाय वेदनाय किं अनुसयो अनुसेती’’ति?
‘‘सुखाय खो, आवुसो विसाख, वेदनाय रागानुसयो अनुसेति, दुक्खाय वेदनाय पटिघानुसयो अनुसेति, अदुक्खमसुखाय वेदनाय अविज्जानुसयो अनुसेती’’ति.
‘‘सब्बाय नु खो, अय्ये, सुखाय वेदनाय रागानुसयो अनुसेति, सब्बाय दुक्खाय वेदनाय पटिघानुसयो अनुसेति, सब्बाय अदुक्खमसुखाय वेदनाय अविज्जानुसयो अनुसेती’’ति?
‘‘न खो, आवुसो विसाख, सब्बाय सुखाय वेदनाय रागानुसयो अनुसेति, न सब्बाय दुक्खाय वेदनाय पटिघानुसयो अनुसेति, न सब्बाय अदुक्खमसुखाय वेदनाय अविज्जानुसयो अनुसेती’’ति.
‘‘सुखाय पनाय्ये, वेदनाय किं पहातब्बं, दुक्खाय वेदनाय किं पहातब्बं, अदुक्खमसुखाय वेदनाय किं पहातब्ब’’न्ति?
‘‘सुखाय खो, आवुसो विसाख, वेदनाय रागानुसयो पहातब्बो, दुक्खाय वेदनाय पटिघानुसयो पहातब्बो, अदुक्खमसुखाय वेदनाय अविज्जानुसयो पहातब्बो’’ति.
‘‘सब्बाय नु खो, अय्ये, सुखाय वेदनाय रागानुसयो पहातब्बो, सब्बाय दुक्खाय वेदनाय पटिघानुसयो पहातब्बो, सब्बाय अदुक्खमसुखाय वेदनाय अविज्जानुसयो पहातब्बो’’ति?
‘‘न खो, आवुसो विसाख, सब्बाय सुखाय वेदनाय रागानुसयो पहातब्बो, न सब्बाय दुक्खाय वेदनाय पटिघानुसयो पहातब्बो , न सब्बाय अदुक्खमसुखाय वेदनाय अविज्जानुसयो पहातब्बो. इधावुसो विसाख, भिक्खु विविच्चेव कामेहि विविच्च अकुसलेहि धम्मेहि सवितक्कं सविचारं विवेकजं पीतिसुखं पठमं झानं उपसम्पज्ज विहरति. रागं तेन पजहति, न तत्थ रागानुसयो अनुसेति. इधावुसो विसाख, भिक्खु इति पटिसञ्चिक्खति – ‘कुदास्सु नामाहं तदायतनं उपसम्पज्ज विहरिस्सामि यदरिया एतरहि आयतनं उपसम्पज्ज विहरन्ती’ति? इति अनुत्तरेसु विमोक्खेसु पिहं उपट्ठापयतो उप्पज्जति पिहाप्पच्चया दोमनस्सं. पटिघं तेन पजहति, न तत्थ पटिघानुसयो अनुसेति. इधावुसो विसाख, भिक्खु सुखस्स च पहाना, दुक्खस्स च पहाना, पुब्बेव सोमनस्सदोमनस्सानं अत्थङ्गमा, अदुक्खमसुखं उपेक्खासतिपारिसुद्धिं चतुत्थं झानं उपसम्पज्ज विहरति. अविज्जं तेन पजहति, न तत्थ अविज्जानुसयो अनुसेती’’ति.
४६६. ‘‘सुखाय पनाय्ये, वेदनाय किं पटिभागो’’ति?
‘‘सुखाय खो, आवुसो विसाख, वेदनाय दुक्खा वेदना पटिभागो’’ति.
‘‘दुक्खाय पन्नाय्ये, वेदनाय किं पटिभागो’’ति?
‘‘दुक्खाय खो, आवुसो विसाख, वेदनाय सुखा वेदना पटिभागो’’ति.
‘‘अदुक्खमसुखाय पनाय्ये, वेदनाय किं पटिभागो’’ति?
‘‘अदुक्खमसुखाय खो, आवुसो विसाख, वेदनाय अविज्जा पटिभागो’’ति.
‘‘अविज्जाय पनाय्ये, किं पटिभागो’’ति?
‘‘अविज्जाय खो, आवुसो विसाख, विज्जा पटिभागो’’ति.
‘‘विज्जाय पनाय्ये, किं पटिभागो’’ति?
‘‘विज्जाय खो, आवुसो विसाख, विमुत्ति पटिभागो’’ति.
‘‘विमुत्तिया पनाय्ये , किं पटिभागो’’ति?
‘‘विमुत्तिया खो, आवुसो विसाख, निब्बानं पटिभागो’’ति.
‘‘निब्बानस्स पनाय्ये, किं पटिभागो’’ति? ‘‘अच्चयासि, आवुसो [अच्चसरावुसो (सी. पी.), अच्चस्सरावुसो (स्या. कं.)] विसाख, पञ्हं, नासक्खि पञ्हानं परियन्तं गहेतुं. निब्बानोगधञ्हि, आवुसो विसाख, ब्रह्मचरियं, निब्बानपरायनं निब्बानपरियोसानं. आकङ्खमानो च त्वं, आवुसो विसाख, भगवन्तं उपसङ्कमित्वा एतमत्थं पुच्छेय्यासि, यथा च ते भगवा ब्याकरोति तथा नं धारेय्यासी’’ति.
४६७. अथ खो विसाखो उपासको धम्मदिन्नाय भिक्खुनिया भासितं अभिनन्दित्वा अनुमोदित्वा उट्ठायासना धम्मदिन्नं भिक्खुनिं अभिवादेत्वा पदक्खिणं कत्वा येन भगवा तेनुपसङ्कमि; उपसङ्कमित्वा भगवन्तं अभिवादेत्वा एकमन्तं निसीदि. एकमन्तं निसिन्नो खो विसाखो उपासको यावतको अहोसि धम्मदिन्नाय भिक्खुनिया सद्धिं कथासल्लापो तं सब्बं भगवतो आरोचेसि. एवं वुत्ते, भगवा विसाखं उपासकं एतदवोच – ‘‘पण्डिता, विसाख, धम्मदिन्ना भिक्खुनी, महापञ्ञा, विसाख, धम्मदिन्ना भिक्खुनी. मं चेपि त्वं, विसाख, एतमत्थं पुच्छेय्यासि, अहम्पि तं एवमेवं ब्याकरेय्यं, यथा तं धम्मदिन्नाय भिक्खुनिया ब्याकतं. एसो चेवेतस्स [एसोवेतस्स (स्या. कं.)] अत्थो. एवञ्च नं [एवमेतं (सी. स्या. कं.)] धारेही’’ति.
इदमवोच भगवा. अत्तमनो विसाखो उपासको भगवतो भासितं अभिनन्दीति.
चूळवेदल्लसुत्तं निट्ठितं चतुत्थं.