नमो तस्स भगवतो अरहतो सम्मा-सम्बुद्धस्स

📜 धर्म अपनाना

✦ ॥ नमो तस्स भगवतो अरहतो सम्मासम्बुद्धस्स ॥ ✦

Hindi

ऐसा मैंने सुना — एक समय भगवान श्रावस्ती में अनाथपिण्डक के जेतवन उद्यान में विहार कर रहे थे। वहाँ भगवान ने भिक्षुओं से कहा, “भिक्षुओं!"

“भदंत”, भिक्षुओं ने भगवान को उत्तर दिया।

भगवान ने कहा —

“भिक्षुओं, चार प्रकार का धर्म अपनाया जाता है। कौन से चार?

  • एक प्रकार का धर्म अपनाने पर वर्तमान में सुख उत्पन्न होता है, किन्तु भविष्य में दुखद फल आता है।
  • एक प्रकार का धर्म अपनाने पर वर्तमान में दुःख उत्पन्न होता है, और भविष्य में भी दुखद फल आता है।
  • एक प्रकार का धर्म अपनाने पर वर्तमान में दुःख उत्पन्न होता है, किन्तु भविष्य में सुखद फल आता है।
  • एक प्रकार का धर्म अपनाने पर वर्तमान में सुख उत्पन्न होता है, और भविष्य में भी सुखद फल आता है।

१. वर्तमान सुखद, भविष्य दुखद

किस प्रकार का धर्म अपनाने पर, भिक्षुओं, वर्तमान में सुख उत्पन्न होता है, किन्तु भविष्य में दुखद फल आता है?

कुछ श्रमण-ब्राह्मण होते हैं, भिक्षुओं, जिनकी ऐसी धारणा, ऐसी दृष्टि होती है: ‘कामुकता में कोई दोष नहीं।’ और वे कामुकता में गिर पड़ते हैं। वे ऊपर की ओर जुड़ा बाँधने वाली घुमक्कड़ के साथ समागम करते हैं।

वे कहते हैं — ‘भला कौन-से भविष्य के खतरे को देखकर कुछ श्रमण-ब्राह्मण कामुकता को त्यागने की बात करते हैं, कामुकता को पूरी तरह समझने की बात करते हैं? क्योंकि इस घुमक्कड़ की कोमल, मुलायम और मृदुरोमिल बाहों का स्पर्श कितना सुखद है!’

और वे कामुकता में गिर पड़ते हैं। और, कामुकता में गिर पड़ने पर, मरणोपरांत काया छूटने पर, वे पतन होकर दुर्गति हो, यातनालोक नर्क में उपजते हैं। वहाँ उन्हें तीव्र, तीक्ष्ण और कटु वेदनाओं की अनुभूति होती है। तब वे कहते हैं — ‘इस भविष्य के खतरे को देखकर कुछ श्रमण-ब्राह्मण कामुकता को त्यागने की बात करते थे, कामुकता को पूरी तरह समझने की बात करते थे। क्योंकि इसी कामुकता के कारण, इसी कामुकता के स्त्रोत से मैं अब तीव्र, तीक्ष्ण और कटु वेदनाओं की अनुभूति कर रहा हूँ।’

जैसे, भिक्षुओं, ग्रीष्मकाल के अंतिम महीने ‘मालुवा’ लता को फल लगता है। और उसका मालुवा बीज किसी शालवृक्ष के तले गिरता है। और, भिक्षुओं, उस शालवृक्ष में रहने वाला देवता भयभीत होता है, डर जाता है, चिंतित होता है।

तब उस शालवृक्ष में रहने वाले देवता के मित्र और सहायक, परिवार और रिश्तेदार — उद्यान देवता, वन देवता, वृक्ष देवता, औषधि, तृण और वनस्पति में रहने वाले देवतागण — सभी मिलते हैं, एकत्र होते हैं, और उसका हौसला बढ़ाने लगते हैं, ‘मत भयभीत हो, श्रीमान! मत भयभीत हो, श्रीमान! इस मालुवा बीज को, हो सकता है, कोई मोर निगल लेगा, या कोई हिरण खा लेगा, या जंगल की आग जला देगी, या वनकर्मी उठा ले जाएगा, या दीमक खा लेंगे, या वह बीज अंकुरित नहीं होगा!’

और, भिक्षुओं, उस मालुवा बीज को कोई मोर नहीं निगलता, कोई हिरण नहीं खाता, कोई जंगल की आग नहीं जलाती, कोई वनकर्मी उठाकर नहीं ले जाता, दीमक नहीं खाते, और बारिश वाले मेघ से वर्षा होने पर वह बीज अच्छे से अंकुरित होता है। तब मालुवा लता की कोमल, मुलायम और मृदुरोमिल बेल उस शालवृक्ष को लपेट देती है।

तब, भिक्षुओं, उस शालवृक्ष में रहने वाले देवता को ऐसा लगता है, ‘भला कौन-से भविष्य के खतरे को देखकर मेरे मित्र और सहायक, परिवार और रिश्तेदार — उद्यान देवता, वन देवता, वृक्ष देवता, औषधि, तृण और वनस्पति में रहने वाले देवतागण — सभी मिलकर, एकत्र होकर, मेरा हौसला बढ़ा रहे थे, ‘मत भयभीत हो, श्रीमान! मत भयभीत हो, श्रीमान! इस मालुवा बीज को, हो सकता है, कोई मोर निगल लेगा, या कोई हिरण खा लेगा, या जंगल की आग जला देगी, या वनकर्मी उठा ले जाएगा, या दीमक खा लेंगे, या वह बीज अंकुरित नहीं होगा!’ क्योंकि इस मालुवा लता की कोमल, मुलायम और मृदुरोमिल बेल का स्पर्श कितना सुखद है!’

तब वह बेल उस शाल को आच्छादित करती है। उस शाल को आच्छादित कर उसके ऊपर वितान (=छत्र) फैलाती है। ऊपर वितान फैलाने पर घनघोर बिछ जाती है। घनघोर बिछने पर शाल की बड़ी बड़ी शाखाओं को तोड़ देती है।

तब, भिक्षुओं, उस शालवृक्ष में रहने वाले देवता को ऐसा लगता है, ‘इस भविष्य के खतरे को देखकर मेरे मित्र और सहायक, परिवार और रिश्तेदार — उद्यान देवता, वन देवता, वृक्ष देवता, औषधि, तृण और वनस्पति में रहने वाले देवतागण — सभी मिलकर, एकत्र होकर, मेरा हौसला बढ़ा रहे थे, ‘मत भयभीत हो, श्रीमान! मत भयभीत हो, श्रीमान… इसी मालुवा बीज के कारण मैं अब तीव्र, तीक्ष्ण और कटु वेदनाओं की अनुभूति कर रहा हूँ।’

उसी तरह, भिक्षुओं, कुछ श्रमण-ब्राह्मण होते हैं, जिनकी ऐसी धारणा, ऐसी दृष्टि होती है: ‘कामुकता में कोई दोष नहीं।’ और वे कामुकता में गिर पड़ते हैं। वे ऊपर की ओर जुड़ा बाँधने वाली घुमक्कड़ के साथ समागम करते हैं।

वे कहते हैं — ‘भला कौन-से भविष्य के खतरे को देखकर कुछ श्रमण-ब्राह्मण कामुकता को त्यागने की बात करते हैं, कामुकता को पूरी तरह समझने की बात करते हैं? क्योंकि इस घुमक्कड़ की कोमल, मुलायम और मृदुरोमिल बाहों का स्पर्श कितना सुखद है!’

और वे कामुकता में गिर पड़ते हैं। और, कामुकता में गिर पड़ने पर, मरणोपरांत काया छूटने पर, वे पतन होकर दुर्गति हो, यातनालोक नर्क में उपजते हैं। वहाँ उन्हें तीव्र, तीक्ष्ण और कटु वेदनाओं की अनुभूति होती है। तब वे कहते हैं — ‘इस भविष्य के खतरे को देखकर कुछ श्रमण-ब्राह्मण कामुकता को त्यागने की बात करते थे, कामुकता को पूरी तरह समझने की बात करते थे। क्योंकि इसी कामुकता के कारण, इसी कामुकता के स्त्रोत से मैं अब तीव्र, तीक्ष्ण और कटु वेदनाओं की अनुभूति कर रहा हूँ।’

इसे कहते हैं, भिक्षुओं, इस प्रकार का धर्म अपनाने पर वर्तमान में सुख उत्पन्न होता है, किन्तु भविष्य में दुखद फल आता है।

२. वर्तमान दुखद, भविष्य दुखद

आगे, भिक्षुओं, किस प्रकार का धर्म अपनाने पर वर्तमान में दुःख उत्पन्न होता है, और भविष्य में भी दुखद फल आता है?

भिक्षुओं, कोई निर्वस्त्र रहते हैं, (सामाजिक आचरण से) मुक्त रहते हैं, हाथ चाटते हैं, बुलाने पर नहीं जाते हैं, रोकने पर नहीं रुकते हैं, अपने लिए लायी भिक्षा को नहीं लेते हैं, अपने लिए पकाये भोज को नहीं लेते हैं, निमंत्रण भोज पर नहीं जाते हैं। (भोजन पकाये) हाँडी से भिक्षा नहीं लेते हैं, (भोजन पकाये) बर्तन से भिक्षा नहीं लेते हैं, द्वार के अंतराल से भिक्षा नहीं लेते हैं, डंडे के अंतराल से भिक्षा नहीं लेते हैं, मूसल के अंतराल से भिक्षा नहीं लेते हैं।

और, वे दो भोजन साथ करने वालों से भिक्षा नहीं लेते हैं, गर्भिणी स्त्री से भिक्षा नहीं लेते हैं, दूध पिलाती स्त्री से भिक्षा नहीं लेते हैं, पुरुष के पास गयी स्त्री से भिक्षा नहीं लेते हैं, संग्रहीत किए भिक्षा को नहीं लेते हैं, कुत्ता खड़े स्थान से भिक्षा नहीं लेते हैं, भिनभिनाती मक्खियों के स्थान से भिक्षा नहीं लेते हैं, माँस नहीं लेते हैं, मछली नहीं लेते हैं, कच्ची शराब नहीं लेते हैं, पक्की शराब नहीं लेते हैं, चावल की शराब नहीं पीते हैं।

और, वे भिक्षाटन के लिए केवल एक घर जाकर एक निवाला लेते हैं, अथवा दो घर जाकर दो निवाले लेते हैं… अथवा सात घर जाकर सात निवाले लेते हैं। केवल एक ही कलछी पर यापन करते हैं, अथवा दो कलछी पर यापन करते हैं… अथवा सात कलछी पर यापन करते हैं। दिन में एक बार आहार लेते हैं, दो दिनों में एक बार आहार लेते हैं… एक सप्ताह में एक बार आहार लेते हैं। और ऐसे ही आधे-आधे महीने के स्थिर अंतराल में एक ही बार आहार लेते हुए विहार करते हैं।

और, वे (केवल) साग खाकर रहते हैं, जंगली बाजरा खाकर रहते हैं, लाल चावल खाकर रहते हैं, चमड़े के टुकड़े खाकर रहते हैं, शैवाल (=जल के पौधे) खाकर रहते हैं, कणिक (=टूटा चावल) खाकर रहते हैं, काँजी (=उबले चावल का पानी) पीकर रहते हैं, तिल खाकर रहते हैं, घास खाकर रहते हैं, गोबर खाकर रहते हैं, जंगल के कन्द-मूल या गिरे हुए फल खाकर यापन करते हैं।

और, वे (केवल) सन के रूखे वस्त्र पहनते हैं, सन में मिलावट किए रूखे वस्त्र पहनते हैं, फेंके लाश के वस्त्र पहनते हैं, चिथड़े सिला वस्त्र पहनते हैं, लोध्र के वस्त्र पहनते हैं, हिरण-खाल पूर्ण पहनते हैं, हिरण-खाल के टुकड़े पहनते हैं, कुशघास के वस्त्र पहनते हैं, वृक्षछाल के वस्त्र पहनते हैं, लकड़ी के छिलके का वस्त्र पहनते हैं, (मनुष्य के) केश का कंबल पहनते हैं, घोड़े की पूँछ के बाल का कंबल पहनते हैं, उल्लू के पंखों का वस्त्र पहनते हैं।

और, वे सिर-दाढ़ी के बाल नोचकर निकालते हैं, बाल नोचकर निकालने के प्रति संकल्पबद्ध रहते हैं। बैठना त्यागकर सदा खड़े ही रहते हैं, उकड़ूँ बैठकर सदा उकड़ूँ ही बैठते हैं, काँटों की चटाई पर लेटते हैं और काँटों की चटाई को ही अपना बिस्तर बनाते हैं, सदा तख़्ते पर सोते हैं, सदा जमीन पर सोते हैं, सदा एक ही करवट सोते हैं, शरीर पर धूल और गंदगी लपेटे रहते हैं, सदा खुले आकाश के तले रहते हैं, जहाँ चटाई बिछाएँ वही सोते हैं, गंदगी खाते हैं और गंदगी खाने के प्रति संकल्पबद्ध रहते हैं, कभी पानी नहीं पीते हैं और पानी नहीं पीने के प्रति संकल्पबद्ध रहते हैं, शरीर को सुबह-दोपहर-शाम तीन बार जल में डुबोते हैं, और तीन बार डुबोने के प्रति संकल्पबद्ध रहते हैं।

इस तरह वे अनेक प्रकार से काया को पीड़ा देने, घोर कष्ट देने के प्रति संकल्पबद्ध रहते हैं। और मरणोपरांत काया छूटने पर, वे पतन होकर दुर्गति हो, यातनालोक नर्क में उपजते हैं। इसे कहते हैं, भिक्षुओं, इस प्रकार का धर्म अपनाने पर वर्तमान में दुःख उत्पन्न होता है, और भविष्य में भी दुखद फल आता है।

३. वर्तमान दुखद, भविष्य सुखद

आगे, भिक्षुओं, किस प्रकार का धर्म अपनाने पर वर्तमान में दुःख उत्पन्न होता है, किन्तु भविष्य में सुखद फल आता है?

भिक्षुओं, कोई (साधक) तीव्र रागपूर्ण प्रकृति के होते हैं, जो अक्सर राग से जन्मे दर्द और व्यथा को महसूस करते हैं। वह तीव्र द्वेषपूर्ण प्रकृति के होते हैं, जो अक्सर द्वेष से जन्मे दर्द और व्यथा को महसूस करते हैं। वह तीव्र मोहपूर्ण प्रकृति के होते हैं, जो अक्सर भ्रम से जन्मे दर्द और व्यथा को महसूस करते हैं।

किन्तु वे उस दर्द को सहते हुए, उस व्यथा को सहते हुए, अश्रुपूर्ण नेत्रों से रोते हुए, परिपूर्ण और परिशुद्ध ब्रह्मचर्य का पालन करते हैं। और मरणोपरांत काया छूटने पर, वे सद्गति पाकर स्वर्ग में उपजते हैं।

इसे कहते हैं, भिक्षुओं, इस प्रकार का धर्म अपनाने पर वर्तमान में दुःख उत्पन्न होता है, किन्तु भविष्य में सुखद फल आता है।

४. वर्तमान सुखद, भविष्य सुखद

आगे, भिक्षुओं, किस प्रकार का धर्म अपनाने पर वर्तमान में सुख उत्पन्न होता है, और भविष्य में भी सुखद फल आता है?

भिक्षुओं, कोई (साधक) तीव्र रागपूर्ण प्रकृति के नहीं होते हैं, जो अक्सर राग से जन्मे दर्द और व्यथा को महसूस नहीं करते हैं। वह तीव्र द्वेषपूर्ण प्रकृति के नहीं होते हैं, जो अक्सर द्वेष से जन्मे दर्द और व्यथा को महसूस नहीं करते हैं। वह तीव्र मोहपूर्ण प्रकृति के नहीं होते हैं, जो अक्सर भ्रम से जन्मे दर्द और व्यथा को महसूस नहीं करते हैं।

वे कामुकता से निर्लिप्त, अकुशल स्वभाव से निर्लिप्त — सोच और विचार के साथ, निर्लिप्तता से जन्मे प्रफुल्लता और सुख वाले प्रथम-झान में प्रवेश कर रहते हैं।

आगे, सोच और विचार रुक जाने पर भीतर आश्वस्त हुआ मानस एकरस होकर बिना-सोच बिना-विचार, समाधि से जन्मे प्रफुल्लता और सुख वाले द्वितीय-झान में प्रवेश कर रहते हैं।

तब, आगे वे प्रफुल्लता से विरक्ति ले, स्मरणशीलता और सचेतता के साथ तटस्थता धारण कर शरीर से सुख महसूस करते हैं। जिसे आर्यजन ‘तटस्थ, स्मरणशील, सुखविहारी’ कहते हैं — वह उस तृतीय-झान में प्रवेश कर रहते हैं।

आगे, वे सुख और दर्द दोनों ही हटाकर, खुशी और परेशानी पूर्व ही विलुप्त होने से, अब नसुख-नदर्दवाले, तटस्थता और स्मरणशीलता की परिशुद्धता के साथ चतुर्थ-झान में प्रवेश कर रहते हैं।

और मरणोपरांत काया छूटने पर, वे सद्गति पाकर स्वर्ग में उपजते हैं।

इसे कहते हैं, भिक्षुओं, इस प्रकार का धर्म अपनाने पर वर्तमान में सुख उत्पन्न होता है, और भविष्य में भी सुखद फल आता है।

इन चार प्रकार से, भिक्षुओं, धर्म आत्मसात किया जाता है।”

भगवान ने ऐसा कहा। संतुष्ट हुए भिक्षुओं ने भगवान के कथन का अनुमोदन किया।

सुत्र समाप्त।

Pali

४६८. एवं मे सुतं – एकं समयं भगवा सावत्थियं विहरति जेतवने अनाथपिण्डिकस्स आरामे. तत्र खो भगवा भिक्खू आमन्तेसि – ‘‘भिक्खवो’’ति. ‘‘भदन्ते’’ति ते भिक्खू भगवतो पच्चस्सोसुं. भगवा एतदवोच – ‘‘चत्तारिमानि, भिक्खवे, धम्मसमादानानि. कतमानि चत्तारि? अत्थि, भिक्खवे, धम्मसमादानं पच्चुप्पन्नसुखं आयतिं दुक्खविपाकं; अत्थि, भिक्खवे , धम्मसमादानं पच्चुप्पन्नदुक्खञ्चेव आयतिञ्च दुक्खविपाकं; अत्थि, भिक्खवे, धम्मसमादानं पच्चुप्पन्नदुक्खं आयतिं सुखविपाकं; अत्थि, भिक्खवे, धम्मसमादानं पच्चुप्पन्नसुखञ्चेव आयतिञ्च सुखविपाकं’’.

४६९. ‘‘कतमञ्च, भिक्खवे, धम्मसमादानं पच्चुप्पन्नसुखं आयतिं दुक्खविपाकं? सन्ति, भिक्खवे, एके समणब्राह्मणा एवंवादिनो एवंदिट्ठिनो – ‘नत्थि कामेसु दोसो’ति. ते कामेसु पातब्यतं आपज्जन्ति. ते खो मोळिबद्धाहि [मोळिबन्धाहि (स्या. कं. क.)] परिब्बाजिकाहि परिचारेन्ति. ते एवमाहंसु – ‘किंसु नाम ते भोन्तो समणब्राह्मणा कामेसु अनागतभयं सम्पस्समाना कामानं पहानमाहंसु, कामानं परिञ्ञं पञ्ञपेन्ति? सुखो इमिस्सा परिब्बाजिकाय तरुणाय मुदुकाय लोमसाय बाहाय सम्फस्सो’ति ते कामेसु पातब्यतं आपज्जन्ति. ते कामेसु पातब्यतं आपज्जित्वा कायस्स भेदा परं मरणा अपायं दुग्गतिं विनिपातं निरयं उपपज्जन्ति. ते तत्थ दुक्खा तिब्बा खरा कटुका वेदना वेदयन्ति. ते एवमाहंसु – ‘इदं खो ते भोन्तो समणब्राह्मणा कामेसु अनागतभयं सम्पस्समाना कामानं पहानमाहंसु, कामानं परिञ्ञं पञ्ञपेन्ति, इमे हि मयं कामहेतु कामनिदानं दुक्खा तिब्बा खरा कटुका वेदना वेदयामा’ति. सेय्यथापि, भिक्खवे, गिम्हानं पच्छिमे मासे मालुवासिपाटिका फलेय्य. अथ खो तं, भिक्खवे, मालुवाबीजं अञ्ञतरस्मिं सालमूले निपतेय्य. अथ खो, भिक्खवे, या तस्मिं साले अधिवत्था देवता सा भीता संविग्गा सन्तासं आपज्जेय्य. अथ खो, भिक्खवे, तस्मिं साले अधिवत्थाय देवताय मित्तामच्चा ञातिसालोहिता आरामदेवता वनदेवता रुक्खदेवता ओसधितिणवनप्पतीसु अधिवत्था देवता सङ्गम्म समागम्म एवं समस्सासेय्युं – ‘मा भवं भायि, मा भवं भायि; अप्पेव नामेतं मालुवाबीजं मोरो वा गिलेय्य [मोरो वा गिलेय्य, गोधा वा खादेय्य (क.)], मगो वा खादेय्य, दवडाहो [वनदाहो (क.)] वा डहेय्य, वनकम्मिका वा उद्धरेय्युं, उपचिका वा उट्ठहेय्युं [उद्रभेय्युं (सी. पी. क.)], अबीजं वा पनस्सा’ति. अथ खो तं, भिक्खवे, मालुवाबीजं नेव मोरो गिलेय्य, न मगो खादेय्य, न दवडाहो डहेय्य, न वनकम्मिका उद्धरेय्युं, न उपचिका उट्ठहेय्युं, बीजञ्च पनस्स तं पावुस्सकेन मेघेन अभिप्पवुट्ठं सम्मदेव विरुहेय्य. सास्स मालुवालता तरुणा मुदुका लोमसा विलम्बिनी, सा तं सालं उपनिसेवेय्य. अथ खो, भिक्खवे, तस्मिं साले अधिवत्थाय देवताय एवमस्स – ‘किंसु नाम ते भोन्तो मित्तामच्चा ञातिसालोहिता आरामदेवता वनदेवता रुक्खदेवता ओसधितिणवनप्पतीसु अधिवत्था देवता मालुवाबीजे अनागतभयं सम्पस्समाना सङ्गम्म समागम्म एवं समस्सासेसुं [समस्सासेय्युं (क.)] – ‘‘मा भवं भायि मा भवं भायि, अप्पेव नामेतं मालुवाबीजं मोरो वा गिलेय्य, मगो वा खादेय्य, दवडाहो वा डहेय्य, वनकम्मिका वा उद्धरेय्युं, उपचिका वा उट्ठहेय्युं, अबीजं वा पनस्सा’’ति; सुखो इमिस्सा मालुवालताय तरुणाय मुदुकाय लोमसाय विलम्बिनिया सम्फस्सो’ति. सा तं सालं अनुपरिहरेय्य. सा तं सालं अनुपरिहरित्वा उपरि विटभिं [विटपं (स्या. ट्ठ.)] करेय्य. उपरि विटभिं करित्वा ओघनं जनेय्य. ओघनं जनेत्वा ये तस्स सालस्स महन्ता महन्ता खन्धा ते पदालेय्य. अथ खो, भिक्खवे, तस्मिं साले अधिवत्थाय देवताय एवमस्स – ‘इदं खो ते भोन्तो मित्तामच्चा ञातिसालोहिता आरामदेवता वनदेवता रुक्खदेवता ओसधितिणवनप्पतीसु अधिवत्था देवता मालुवाबीजे अनागतभयं सम्पस्समाना सङ्गम्म समागम्म एवं समस्सासेसुं [समस्सासेय्युं (क.)] – ‘‘मा भवं भायि मा भवं भायि, अप्पेव नामेतं मालुवाबीजं मोरो वा गिलेय्य, मगो वा खादेय्य, दवडाहो वा डहेय्य, वनकम्मिका वा उद्धरेय्युं, उपचिका वा उट्ठहेय्युं अबीजं वा पनस्सा’’ति. यञ्चाहं [यं वाहं (क.), स्वाहं (स्या. कं.)] मालुवाबीजहेतु दुक्खा तिब्बा खरा कटुका वेदना वेदयामी’ति. एवमेव खो, भिक्खवे, सन्ति एके समणब्राह्मणा एवंवादिनो एवंदिट्ठिनो ‘नत्थि कामेसु दोसो’ति . ते कामेसु पातब्यतं आपज्जन्ति. ते मोळिबद्धाहि परिब्बाजिकाहि परिचारेन्ति. ते एवमाहंसु – ‘किंसु नाम ते भोन्तो समणब्राह्मणा कामेसु अनागतभयं सम्पस्समाना कामानं पहानमाहंसु, कामानं परिञ्ञं पञ्ञपेन्ति? सुखो इमिस्सा परिब्बाजिकाय तरुणाय मुदुकाय लोमसाय बाहाय सम्फस्सो’ति. ते कामेसु पातब्यतं आपज्जन्ति. ते कामेसु पातब्यतं आपज्जित्वा कायस्स भेदा परं मरणा अपायं दुग्गतिं विनिपातं निरयं उपपज्जन्ति. ते तत्थ दुक्खा तिब्बा खरा कटुका वेदना वेदयन्ति. ते एवमाहंसु – ‘इदं खो ते भोन्तो समणब्राह्मणा कामेसु अनागतभयं सम्पस्समाना कामानं पहानमाहंसु, कामानं परिञ्ञं पञ्ञपेन्ति. इमे हि मयं कामहेतु कामनिदानं दुक्खा तिब्बा खरा कटुका वेदना वेदयामा’ति. इदं वुच्चति, भिक्खवे, धम्मसमादानं पच्चुप्पन्नसुखं आयतिं दुक्खविपाकं.

४७०. ‘‘कतमञ्च, भिक्खवे, धम्मसमादानं पच्चुप्पन्नदुक्खञ्चेव आयतिञ्च दुक्खविपाकं? इध, भिक्खवे, एकच्चो अचेलको होति मुत्ताचारो हत्थापलेखनो, नएहिभद्दन्तिको, नतिट्ठभद्दन्तिको, नाभिहटं, न उद्दिस्सकतं, न निमन्तनं सादियति, सो न कुम्भिमुखा पटिग्गण्हाति, न कळोपिमुखा पटिग्गण्हाति, न एळकमन्तरं, न दण्डमन्तरं, न मुसलमन्तरं, न द्विन्नं भुञ्जमानानं, न गब्भिनिया, न पायमानाय, न पुरिसन्तरगताय, न सङ्कित्तीसु, न यत्थ सा उपट्ठितो होति, न यत्थ मक्खिका सण्डसण्डचारिनी, न मच्छं, न मंसं, न सुरं, न मेरयं, न थुसोदकं पिवति. सो एकागारिको वा होति एकालोपिको, द्वागारिको वा होति द्वालोपिको…पे… सत्तागारिको वा होति सत्तालोपिको. एकिस्सापि दत्तिया यापेति, द्वीहिपि दत्तीहि यापेति… सत्तहिपि दत्तीहि यापेति. एकाहिकम्पि आहारं आहारेति, द्वीहिकम्पि आहारं आहारेति… सत्ताहिकम्पि आहारं आहारेति. इति एवरूपं अद्धमासिकम्पि परियायभत्तभोजनानुयोगमनुयुत्तो विहरति. सो साकभक्खो वा होति , सामाकभक्खो वा होति, नीवारभक्खो वा होति, दद्दुलभक्खो वा होति, हटभक्खो वा होति, कणभक्खो वा होति, आचामभक्खो वा होति, पिञ्ञाकभक्खो वा होति, तिणभक्खो वा होति, गोमयभक्खो वा होति, वनमूलफलाहारो यापेति पवत्तफलभोजी. सो साणानिपि धारेति, मसाणानिपि धारेति, छवदुस्सानिपि धारेति, पंसुकूलानिपि धारेति, तिरीटानिपि धारेति, अजिनम्पि धारेति, अजिनक्खिपम्पि धारेति, कुसचीरम्पि धारेति, वाकचीरम्पि धारेति, फलकचीरम्पि धारेति, केसकम्बलम्पि धारेति, वाळकम्बलम्पि धारेति, उलूकपक्खम्पि धारेति, केसमस्सुलोचकोपि होति, केसमस्सुलोचनानुयोगमनुयुत्तो, उब्भट्ठकोपि होति, आसनपटिक्खित्तो, उक्कुटिकोपि होति उक्कुटिकप्पधानमनुयुत्तो, कण्टकापस्सयिकोपि होति, कण्टकापस्सये सेय्यं कप्पेति [पस्स म. नि. १.१५५ महासीहनादसुत्ते], सायततियकम्पि उदकोरोहनानुयोगमनुयुत्तो विहरति. इति एवरूपं अनेकविहितं कायस्स आतापनपरितापनानुयोगमनुयुत्तो विहरति . सो कायस्स भेदा परं मरणा अपायं दुग्गतिं विनिपातं निरयं उपपज्जति. इदं वुच्चति, भिक्खवे, धम्मसमादानं पच्चुप्पन्नदुक्खञ्चेव आयतिञ्च दुक्खविपाकं.

४७१. ‘‘कतमञ्च, भिक्खवे, धम्मसमादानं पच्चुप्पन्नदुक्खं आयतिं सुखविपाकं? इध , भिक्खवे, एकच्चो पकतिया तिब्बरागजातिको होति, सो अभिक्खणं रागजं दुक्खं दोमनस्सं पटिसंवेदेति; पकतिया तिब्बदोसजातिको होति, सो अभिक्खणं दोसजं दुक्खं दोमनस्सं पटिसंवेदेति; पकतिया तिब्बमोहजातिको होति, सो अभिक्खणं मोहजं दुक्खं दोमनस्सं पटिसंवेदेति. सो सहापि दुक्खेन, सहापि दोमनस्सेन, अस्सुमुखोपि रुदमानो परिपुण्णं परिसुद्धं ब्रह्मचरियं चरति. सो कायस्स भेदा परं मरणा सुगतिं सग्गं लोकं उपपज्जति. इदं वुच्चति, भिक्खवे, धम्मसमादानं पच्चुप्पन्नदुक्खं आयतिं सुखविपाकं.

४७२. ‘‘कतमञ्च, भिक्खवे, धम्मसमादानं पच्चुप्पन्नसुखञ्चेव आयतिञ्च सुखविपाकं? इध, भिक्खवे, एकच्चो पकतिया न तिब्बरागजातिको होति, सो न अभिक्खणं रागजं दुक्खं दोमनस्सं पटिसंवेदेति; पकतिया न तिब्बदोसजातिको होति, सो न अभिक्खणं दोसजं दुक्खं दोमनस्सं पटिसंवेदेति; पकतिया न तिब्बमोहजातिको होति , सो न अभिक्खणं मोहजं दुक्खं दोमनस्सं पटिसंवेदेति. सो विविच्चेव कामेहि विविच्च अकुसलेहि धम्मेहि सवितक्कं सविचारं विवेकजं पीतिसुखं पठमं झानं उपसम्पज्ज विहरति. वितक्कविचारानं वूपसमा अज्झत्तं सम्पसादनं चेतसो एकोदिभावं अवितक्कं अविचारं समाधिजं पीतिसुखं दुतियं झानं…पे… ततियं झानं… चतुत्थं झानं उपसम्पज्ज विहरति. सो कायस्स भेदा परं मरणा सुगतिं सग्गं लोकं उपपज्जति. इदं वुच्चति, भिक्खवे, धम्मसमादानं पच्चुप्पन्नसुखञ्चेव आयतिञ्च सुखविपाकं. इमानि खो, भिक्खवे, चत्तारि धम्मसमादानानी’’ति.

इदमवोच भगवा. अत्तमना ते भिक्खू भगवतो भासितं अभिनन्दुन्ति.

चूळधम्मसमादानसुत्तं निट्ठितं पञ्चमं.