ऐसा मैंने सुना — एक समय भगवान श्रावस्ती में अनाथपिण्डक के जेतवन उद्यान में विहार कर रहे थे। वहाँ भगवान ने भिक्षुओं से कहा, “भिक्षुओं!"
“भदंत”, भिक्षुओं ने भगवान को उत्तर दिया।
भगवान ने कहा —
“भिक्षुओं, सत्वों की ऐसा कामना, ऐसी चाहत, ऐसी आशा होती है — ‘अरे! काश बुरे, अनचाहे और नापसंद स्वभाव कम होते जाएँ! और अच्छे, मनचाहे और पसंदीदा स्वभाव बढ़ते जाएँ!’ किन्तु, भिक्षुओं, सत्वों की ऐसा कामना, ऐसी चाहत, ऐसी आशा होने पर भी उनके बुरे, अनचाहे और नापसंद स्वभाव बढ़ते जाते हैं, और अच्छे, मनचाहे और पसंदीदा स्वभाव घटते जाते हैं। तुम्हें, भिक्षुओं, इसका कारण, इसकी परिस्थिति क्या लगती है?"
“भंते, हमारा धर्म भगवान की नींव पर हैं, भगवान के मार्गदर्शन से हैं, भगवान के प्रति शरण से हैं। अच्छा होगा, भंते, जो भगवान ही इस कहे का अर्थ बताएँ। भगवान से सुनकर भिक्षुगण धारण करेंगे।”
“ठीक है, भिक्षुओं, ध्यान देकर गौर से सुनो, मैं बताता हूँ।”
“ठीक है, भंते।” भिक्षुओं ने भगवान को उत्तर दिया।
भगवान ने कहा —
“भिक्षुओं, कोई धर्म न सुना, आम आदमी हो, जो आर्यजनों के दर्शन से वंचित, आर्य-धर्म से अपरिचित, आर्य-धर्म में अनुशासित न हो; या सत्पुरुषों के दर्शन से वंचित, सत्पुरूष-धर्म से अपरिचित, सत्पुरूष-धर्म में अनुशासित न हो — वह अपनाने योग्य स्वभावों को नहीं जानते हैं, न अपनाने योग्य स्वभावों को नहीं जानते हैं, जुड़ने योग्य स्वभावों को नहीं जानते हैं, न जुड़ने योग्य स्वभावों को नहीं जानते हैं।
तब न जानते हुए, वे अपनाने योग्य स्वभावों को नहीं अपनाते हैं, न अपनाने योग्य स्वभावों को अपनाते हैं, जुड़ने योग्य स्वभावों से नहीं जुड़ते हैं, न जुड़ने योग्य स्वभावों से जुड़ते हैं। तब वैसा करने से उनके बुरे, अनचाहे और नापसंद स्वभाव बढ़ते जाते हैं, और अच्छे, मनचाहे और पसंदीदा स्वभाव घटते जाते हैं।
ऐसा क्यों? क्योंकि न जानने वाले के साथ, भिक्षुओं, ऐसा ही होता है।
किन्तु, भिक्षुओं, कोई धर्म सुने आर्यश्रावक हो, जो आर्यजनों के दर्शन से लाभान्वित, आर्य-धर्म से परिचित, आर्य-धर्म में अनुशासित हो; या सत्पुरुषों के दर्शन से लाभान्वित, सत्पुरूष-धर्म से परिचित, सत्पुरूष-धर्म में अनुशासित हो — वे अपनाने योग्य स्वभावों को जानते हैं, न अपनाने योग्य स्वभावों को भी जानते हैं, जुड़ने योग्य स्वभावों को जानते हैं, न जुड़ने योग्य स्वभावों को भी जानते हैं।
तब जानते हुए, वे अपनाने योग्य स्वभावों को अपनाते हैं, न अपनाने योग्य स्वभावों को नहीं अपनाते। वे जुड़ने योग्य स्वभावों से जुड़ते हैं, न जुड़ने योग्य स्वभावों से नहीं जुड़ते। तब वैसा करने से उनके बुरे, अनचाहे और नापसंद स्वभाव घटते जाते हैं, और अच्छे, मनचाहे और पसंदीदा स्वभाव बढ़ते जाते हैं।
ऐसा क्यों? क्योंकि किसी जानने वाले के साथ, भिक्षुओं, ऐसा ही होता है।
भिक्षुओं, चार प्रकार का धर्म अपनाया जाता है। कौन से चार?
(१) भिक्षुओं, जिस धर्म को अपनाने पर वर्तमान में सुख उत्पन्न होता है, किन्तु भविष्य में दुखद फल आता है — उसे कोई अज्ञानी, अविद्या के मारे, यथास्वरूप नहीं समझता है — ‘इस धर्म को अपनाने पर वर्तमान में सुख उत्पन्न होता है, किन्तु भविष्य में दुखद फल आता है।’ तब वह अज्ञानी, अविद्या के मारे, यथास्वरूप न समझते हुए उसे अपनाता है, उसे टालता नहीं है। तब उसे अपनाने से, उसे न टालने से, उसके बुरे, अनचाहे और नापसंद स्वभाव बढ़ते जाते हैं, और अच्छे, मनचाहे और पसंदीदा स्वभाव घटते जाते हैं।
ऐसा क्यों? क्योंकि न जानने वाले के साथ, भिक्षुओं, ऐसा ही होता है।
(२) आगे, भिक्षुओं, जिस धर्म को अपनाने पर वर्तमान में दुःख उत्पन्न होता है, और भविष्य में भी दुखद फल आता है — उसे कोई अज्ञानी, अविद्या के मारे, यथास्वरूप नहीं समझता है — ‘इस धर्म को अपनाने पर वर्तमान में दुःख उत्पन्न होता है, और भविष्य में भी दुखद फल आता है।’ तब वह अज्ञानी, अविद्या के मारे, यथास्वरूप न समझते हुए उसे अपनाता है, उसे टालता नहीं है। तब उसे अपनाने से, उसे न टालने से, उसके बुरे, अनचाहे और नापसंद स्वभाव बढ़ते जाते हैं, और अच्छे, मनचाहे और पसंदीदा स्वभाव घटते जाते हैं।
ऐसा क्यों? क्योंकि न जानने वाले के साथ, भिक्षुओं, ऐसा ही होता है।
(३) आगे, भिक्षुओं, जिस धर्म को अपनाने पर वर्तमान में दुःख उत्पन्न होता है, किन्तु भविष्य में सुखद फल आता है — उसे कोई अज्ञानी, अविद्या के मारे, यथास्वरूप नहीं समझता है — ‘इस धर्म को अपनाने पर वर्तमान में दुःख उत्पन्न होता है, किन्तु भविष्य में सुखद फल आता है।’ तब वह अज्ञानी, अविद्या के मारे, यथास्वरूप न समझते हुए उसे अपनाता नहीं है, बल्कि उसे टालता है। तब उसे न अपनाने से, उसे टालने से, उसके बुरे, अनचाहे और नापसंद स्वभाव बढ़ते जाते हैं, और अच्छे, मनचाहे और पसंदीदा स्वभाव घटते जाते हैं।
ऐसा क्यों? क्योंकि न जानने वाले के साथ, भिक्षुओं, ऐसा ही होता है।
(४) आगे, भिक्षुओं, जिस धर्म को अपनाने पर वर्तमान में सुख उत्पन्न होता है, और भविष्य में भी सुखद फल आता है — उसे कोई अज्ञानी, अविद्या के मारे, यथास्वरूप नहीं समझता है — ‘इस धर्म को अपनाने पर वर्तमान में सुख उत्पन्न होता है, और भविष्य में भी सुखद फल आता है।’ तब वह अज्ञानी, अविद्या के मारे, यथास्वरूप न समझते हुए उसे अपनाता नहीं है, बल्कि उसे टालता है। तब उसे न अपनाने से, उसे टालने से, उसके बुरे, अनचाहे और नापसंद स्वभाव बढ़ते जाते हैं, और अच्छे, मनचाहे और पसंदीदा स्वभाव घटते जाते हैं।
ऐसा क्यों? क्योंकि न जानने वाले के साथ, भिक्षुओं, ऐसा ही होता है।
(१) दूसरी ओर, भिक्षुओं, जिस धर्म को अपनाने पर वर्तमान में सुख उत्पन्न होता है, किन्तु भविष्य में दुखद फल आता है — उसे कोई ज्ञानी, विद्या के कारण, यथास्वरूप समझता है — ‘इस धर्म को अपनाने पर वर्तमान में सुख उत्पन्न होता है, किन्तु भविष्य में दुखद फल आता है।’ तब वह ज्ञानी, विद्या के कारण, यथास्वरूप समझते हुए उसे अपनाता नहीं है, बल्कि उसे टालता है। तब उसे न अपनाने से, उसे टालने से, उसके बुरे, अनचाहे और नापसंद स्वभाव घटते जाते हैं, और अच्छे, मनचाहे और पसंदीदा स्वभाव बढ़ते जाते हैं।
ऐसा क्यों? क्योंकि जानने वाले के साथ, भिक्षुओं, ऐसा ही होता है।
(२) आगे, भिक्षुओं, जिस धर्म को अपनाने पर वर्तमान में दुःख उत्पन्न होता है, और भविष्य में भी दुखद फल आता है — उसे कोई ज्ञानी, विद्या के कारण, यथास्वरूप समझता है — ‘इस धर्म को अपनाने पर वर्तमान में दुःख उत्पन्न होता है, और भविष्य में भी दुखद फल आता है।’ तब वह ज्ञानी, विद्या के कारण, यथास्वरूप समझते हुए उसे अपनाता नहीं है, बल्कि उसे टालता है। तब उसे न अपनाने से, उसे टालने से, उसके बुरे, अनचाहे और नापसंद स्वभाव घटते जाते हैं, और अच्छे, मनचाहे और पसंदीदा स्वभाव बढ़ते जाते हैं।
ऐसा क्यों? क्योंकि जानने वाले के साथ, भिक्षुओं, ऐसा ही होता है।
(३) आगे, भिक्षुओं, जिस धर्म को अपनाने पर वर्तमान में दुःख उत्पन्न होता है, किन्तु भविष्य में सुखद फल आता है — उसे कोई ज्ञानी, विद्या के कारण, यथास्वरूप समझता है — ‘इस धर्म को अपनाने पर वर्तमान में दुःख उत्पन्न होता है, किन्तु भविष्य में सुखद फल आता है।’ तब वह ज्ञानी, विद्या के कारण, यथास्वरूप समझते हुए उसे अपनाता है, उसे टालता नहीं है। तब उसे अपनाने से, उसे न टालने से, उसके बुरे, अनचाहे और नापसंद स्वभाव घटते जाते हैं, और अच्छे, मनचाहे और पसंदीदा स्वभाव बढ़ते जाते हैं।
ऐसा क्यों? क्योंकि जानने वाले के साथ, भिक्षुओं, ऐसा ही होता है।
(४) आगे, भिक्षुओं, जिस धर्म को अपनाने पर वर्तमान में सुख उत्पन्न होता है, और भविष्य में भी सुखद फल आता है — उसे कोई ज्ञानी, विद्या के कारण, यथास्वरूप समझता है — ‘इस धर्म को अपनाने पर वर्तमान में सुख उत्पन्न होता है, और भविष्य में भी सुखद फल आता है।’ तब वह ज्ञानी, विद्या के कारण, यथास्वरूप समझते हुए उसे अपनाता है, उसे टालता नहीं है। तब उसे अपनाने से, उसे न टालने से, उसके बुरे, अनचाहे और नापसंद स्वभाव घटते जाते हैं, और अच्छे, मनचाहे और पसंदीदा स्वभाव बढ़ते जाते हैं।
ऐसा क्यों? क्योंकि जानने वाले के साथ, भिक्षुओं, ऐसा ही होता है।
किस प्रकार का धर्म अपनाने पर, भिक्षुओं, वर्तमान में सुख उत्पन्न होता है, और भविष्य में भी दुखद फल आता है?
भिक्षुओं, कोई दुःखी और व्यथित होने पर —
और, मरणोपरांत काया छूटने पर, वे पतन होकर दुर्गति हो, यातनालोक नर्क में उपजते हैं। इसे कहते हैं, भिक्षुओं, इस प्रकार का धर्म अपनाने पर वर्तमान में दुःख उत्पन्न होता है, और भविष्य में भी दुखद फल आता है।
किस प्रकार का धर्म अपनाने पर, भिक्षुओं, वर्तमान में सुख उत्पन्न होता है, किन्तु भविष्य में दुखद फल आता है?
भिक्षुओं, कोई सुख और हर्षित होने पर —
और मरणोपरांत काया छूटने पर, वे पतन होकर दुर्गति हो, यातनालोक नर्क में उपजते हैं। इसे कहते हैं, भिक्षुओं, इस प्रकार का धर्म अपनाने पर वर्तमान में सुख उत्पन्न होता है, किन्तु भविष्य में दुखद फल आता है।
किस प्रकार का धर्म अपनाने पर, भिक्षुओं, वर्तमान में दुःख उत्पन्न होता है, किन्तु भविष्य में सुखद फल आता है?
भिक्षुओं, कोई दुःखी होने पर, व्यथित होने पर —
और मरणोपरांत काया छूटने पर, वे सद्गति पाकर स्वर्ग में उपजते हैं। इसे कहते हैं, भिक्षुओं, इस प्रकार का धर्म अपनाने पर वर्तमान में दुःख उत्पन्न होता है, किन्तु भविष्य में सुखद फल आता है।
आगे, भिक्षुओं, किस प्रकार का धर्म अपनाने पर वर्तमान में सुख उत्पन्न होता है, और भविष्य में भी सुखद फल आता है?
भिक्षुओं, कोई सुखी होने पर, हर्षित होने पर —
और मरणोपरांत काया छूटने पर, वे सद्गति पाकर स्वर्ग में उपजते हैं। इसे कहते हैं, भिक्षुओं, इस प्रकार का धर्म अपनाने पर वर्तमान में सुख उत्पन्न होता है, और भविष्य में भी सुखद फल आता है।
इन चार प्रकार से, भिक्षुओं, धर्म आत्मसात किया जाता है।
(१) जैसे, भिक्षुओं, कोई कद्दू के कड़वे रस में विष मिला हो। और कोई पुरुष आता है, जो जीवित रहना चाहता है, मरना नहीं चाहता, सुख चाहता है, दुःख से दूर भागता है। वे उसे कहते हैं, “ओ, प्यारे पुरुष! इस कद्दू के कड़वे रस में विष मिला हुआ है। चाहो तो पी लो। उसे पीते हुए न उसका रंग अच्छा लगेगा, न उसकी गंध अच्छी लगेगी, न उसका स्वाद अच्छा लगेगा। और पीने पर तुम्हारी मौत होगी, या मौत जैसी पीड़ा।”
और, वह बिना सोचे, उसे पी लेता है, छोड़ता नहीं है। पीते हुए, उसे न उसका रंग अच्छा लगता है, न गंध अच्छी लगती है, न स्वाद अच्छा लगता है। और पीने पर उसकी मौत होती है, या मौत जैसी पीड़ा। भिक्षुओं, मैं कहता हूँ कि यही उपमा है — जिस धर्म अपनाने पर वर्तमान में दुःख उत्पन्न होता है, और भविष्य में भी दुखद फल आता है।
(२) जैसे, भिक्षुओं, किसी काँसे के प्याले में अच्छे रंग का, अच्छी गंध का, अच्छे स्वाद का रस हो, जिसमें विष मिला हो। और कोई पुरुष आता है, जो जीवित रहना चाहता है, मरना नहीं चाहता, सुख चाहता है, दुःख से दूर भागता है। वे उसे कहते हैं, “ओ, प्यारे पुरुष! इस काँसे के प्याले में अच्छे रंग का, अच्छी गंध का, अच्छे स्वाद का रस है, जिसमें विष मिला हुआ है। चाहो तो पी लो। उसे पीते हुए तुम्हें उसका रंग अच्छा लगेगा, उसकी गंध अच्छी लगेगी, उसका स्वाद अच्छा लगेगा। किन्तु पीने पर तुम्हारी मौत होगी, या मौत जैसी पीड़ा।”
और, वह बिना सोचे, उसे पी लेता है, छोड़ता नहीं है। पीते हुए, उसे उसका रंग अच्छा लगता है, गंध अच्छी लगती है, स्वाद अच्छा लगता है। और पीने पर उसकी मौत होती है, या मौत जैसी पीड़ा। भिक्षुओं, मैं कहता हूँ कि यही उपमा है — जिस धर्म अपनाने पर वर्तमान में सुख उत्पन्न होता है, किन्तु भविष्य में दुखद फल आता है।
(३) जैसे, भिक्षुओं, बासा मूत्र हो, जिसमें कई प्रकार की औषधियाँ मिली हुई हो। और कोई पुरुष आता है, पीलिया का रोगी। वे उसे कहते हैं, “ओ, प्यारे पुरुष! इस बासे मूत्र में कई प्रकार की औषधियाँ मिलायी गयी हैं। चाहो तो पी लो। उसे पीते हुए न उसका रंग अच्छा लगेगा, न उसकी गंध अच्छी लगेगी, न उसका स्वाद अच्छा लगेगा। किन्तु पीने पर तुम सुखी हो जाओगे।”
तब, वह सोच-विचार कर, उसे पी लेता है, छोड़ता नहीं है। पीते हुए, उसे न उसका रंग अच्छा लगता है, न गंध अच्छी लगती है, न स्वाद अच्छा लगता है। किन्तु पीने पर वह सुखी हो जाता है। भिक्षुओं, मैं कहता हूँ कि यही उपमा है — जिस धर्म अपनाने पर वर्तमान में दुःख उत्पन्न होता है, किन्तु भविष्य में सुखद फल आता है।
(४) जैसे, भिक्षुओं, दही, शहद, घी और गुड़ को मिलाकर एकत्र किया गया हो। 1 और कोई पुरुष आता है, रक्त-अतिसार का रोगी। वे उसे कहते हैं, “ओ, प्यारे पुरुष! इस दही, शहद, घी और गुड़ को मिलाकर एकत्र किया गया हैं। चाहो तो पी लो। उसे पीते हुए, तुम्हें उसका रंग अच्छा लगेगा, उसकी गंध अच्छी लगेगी, उसका स्वाद अच्छा लगेगा। और, पीने पर तुम सुखी भी हो जाओगे।”
तब, वह सोच-विचार कर, उसे पी लेता है, छोड़ता नहीं है। पीते हुए, उसे उसका रंग अच्छा लगता है, गंध अच्छी लगती है, स्वाद अच्छा लगता है। और पीने पर वह सुखी हो जाता है। भिक्षुओं, मैं कहता हूँ कि यही उपमा है — जिस धर्म अपनाने पर वर्तमान में सुख उत्पन्न होता है, और भविष्य में भी सुखद फल आता है।
जैसे, भिक्षुओं, वर्षाकाल के अंतिम महीने में, शरदऋतु के समय, जब बादल छटते हैं और सूर्य देवता साफ आकाश में उगकर, सभी अंधकार मिटाते हुए चमकता, तपता और चकाचौंध करता है। उसी तरह, भिक्षुओं, जिस प्रकार का धर्म अपनाने पर वर्तमान में सुख उत्पन्न होता है, और भविष्य में भी सुखद फल आता है, वह दूसरे श्रमण-ब्राह्मणों की मान्यताओं और परंपराओं को मिटाते हुए चमकता, तपता और चकाचौंध करता है।”
भगवान ने ऐसा कहा। हर्षित होकर भिक्षुओं ने भगवान की बात का अभिनंदन किया।
चतुमादु — कई बौद्ध देशों में मक्खन, शहद, घी और गुड़ को समान मात्रा में मिलाकर, कुछ समय तक पकाया जाता है और फिर ठंडा करके सेवन किया जाता है। इसे भिक्षुओं के विहारों में दान स्वरूप भी दिया जाता है, खासकर बीमार भिक्षुओं के लिए, क्योंकि इसे औषधि के रूप में भी प्रयोग किया जाता है। इसे पौष्टिक और सेहतमंद माना जाता है, और कभी-कभी प्रसाद के रूप में भी वितरित किया जाता है। भगवान उसे ‘रक्त अतिसार’ (bloody dysentary) के लिए औषधि बताते हैं।
वहीं, आयुर्वेद में इसे “विरुद्ध आहार” माना जाता है। आयुर्वेद के अनुसार, मक्खन, शहद, घी और गुड़ को एक साथ मिलाकर गर्म कर सेवन करना स्वास्थ्य के लिए अत्यधिक हानिकारक है। इसे विष के समान माना गया है, क्योंकि शहद की प्रकृति गर्म और रूखी होती है, जबकि घी ठंडी और चिकनी होती है। इन दोनों के मिश्रण से शरीर में असंतुलन उत्पन्न हो सकता है, जो वात, पित्त और कफ तीनों दोषों को बिगाड़ सकता है और विभिन्न बीमारियों का कारण बन सकता है।
यह विरोधाभास इस बात को दर्शाता है कि एक ही पदार्थ अलग-अलग सांस्कृतिक परिप्रेक्ष्यों में भिन्न-भिन्न अर्थ रखता है। हालाँकि हम भिक्षु भी अपने विहार में इसका सेवन करते हैं। ↩︎
४७३. एवं मे सुतं – एकं समयं भगवा सावत्थियं विहरति जेतवने अनाथपिण्डिकस्स आरामे. तत्र खो भगवा भिक्खू आमन्तेसि – ‘‘भिक्खवो’’ति. ‘‘भदन्ते’’ति ते भिक्खू भगवतो पच्चस्सोसुं. भगवा एतदवोच – ‘‘येभुय्येन, भिक्खवे, सत्ता एवंकामा एवंछन्दा एवंअधिप्पाया – ‘अहो वत अनिट्ठा अकन्ता अमनापा धम्मा परिहायेय्युं, इट्ठा कन्ता मनापा धम्मा अभिवड्ढेय्यु’न्ति. तेसं, भिक्खवे, सत्तानं एवंकामानं एवंछन्दानं एवंअधिप्पायानं अनिट्ठा अकन्ता अमनापा धम्मा अभिवड्ढन्ति, इट्ठा कन्ता मनापा धम्मा परिहायन्ति. तत्र तुम्हे, भिक्खवे, कं हेतुं पच्चेथा’’ति? ‘‘भगवंमूलका नो, भन्ते, धम्मा, भगवंनेत्तिका, भगवंपटिसरणा. साधु वत, भन्ते, भगवन्तञ्ञेव पटिभातु एतस्स भासितस्स अत्थो; भगवतो सुत्वा भिक्खू धारेस्सन्ती’’ति. ‘‘तेन हि, भिक्खवे, सुणाथ, साधुकं मनसि करोथ, भासिस्सामी’’ति. ‘‘एवं, भन्ते’’ति खो ते भिक्खू भगवतो पच्चस्सोसुं. भगवा एतदवोच –
४७४. ‘‘इध, भिक्खवे, अस्सुतवा पुथुज्जनो, अरियानं अदस्सावी अरियधम्मस्स अकोविदो अरियधम्मे अविनीतो, सप्पुरिसानं अदस्सावी सप्पुरिसधम्मस्स अकोविदो सप्पुरिसधम्मे अविनीतो, सेवितब्बे धम्मे न जानाति असेवितब्बे धम्मे न जानाति, भजितब्बे धम्मे न जानाति अभजितब्बे धम्मे न जानाति. सो सेवितब्बे धम्मे अजानन्तो असेवितब्बे धम्मे अजानन्तो, भजितब्बे धम्मे अजानन्तो अभजितब्बे धम्मे अजानन्तो, असेवितब्बे धम्मे सेवति सेवितब्बे धम्मे न सेवति, अभजितब्बे धम्मे भजति भजितब्बे धम्मे न भजति. तस्स असेवितब्बे धम्मे सेवतो सेवितब्बे धम्मे असेवतो, अभजितब्बे धम्मे भजतो भजितब्बे धम्मे अभजतो अनिट्ठा अकन्ता अमनापा धम्मा अभिवड्ढन्ति, इट्ठा कन्ता मनापा धम्मा परिहायन्ति. तं किस्स हेतु? एवञ्हेतं, भिक्खवे, होति यथा तं अविद्दसुनो.
‘‘सुतवा च खो, भिक्खवे, अरियसावको, अरियानं दस्सावी अरियधम्मस्स कोविदो अरियधम्मे सुविनीतो, सप्पुरिसानं दस्सावी सप्पुरिसधम्मस्स कोविदो सप्पुरिसधम्मे सुविनीतो, सेवितब्बे धम्मे जानाति असेवितब्बे धम्मे जानाति, भजितब्बे धम्मे जानाति अभजितब्बे धम्मे जानाति. सो सेवितब्बे धम्मे जानन्तो असेवितब्बे धम्मे जानन्तो, भजितब्बे धम्मे जानन्तो अभजितब्बे धम्मे जानन्तो, असेवितब्बे धम्मे न सेवति सेवितब्बे धम्मे सेवति, अभजितब्बे धम्मे न भजति भजितब्बे धम्मे भजति. तस्स असेवितब्बे धम्मे असेवतो सेवितब्बे धम्मे सेवतो, अभजितब्बे धम्मे अभजतो भजितब्बे धम्मे भजतो, अनिट्ठा अकन्ता अमनापा धम्मा परिहायन्ति, इट्ठा कन्ता मनापा धम्मा अभिवड्ढन्ति. तं किस्स हेतु? एवञ्हेतं, भिक्खवे, होति यथा तं विद्दसुनो.
४७५. ‘‘चत्तारिमानि, भिक्खवे, धम्मसमादानानि. कतमानि चत्तारि? अत्थि, भिक्खवे, धम्मसमादानं पच्चुप्पन्नदुक्खञ्चेव आयतिञ्च दुक्खविपाकं; अत्थि, भिक्खवे, धम्मसमादानं पच्चुप्पन्नसुखं आयतिं दुक्खविपाकं; अत्थि, भिक्खवे, धम्मसमादानं पच्चुप्पन्नदुक्खं आयतिं सुखविपाकं; अत्थि, भिक्खवे, धम्मसमादानं पच्चुप्पन्नसुखञ्चेव आयतिञ्च सुखविपाकं.
४७६. ‘‘तत्र, भिक्खवे, यमिदं [यदिदं (सी.)] धम्मसमादानं पच्चुप्पन्नदुक्खञ्चेव आयतिञ्च दुक्खविपाकं, तं अविद्वा अविज्जागतो यथाभूतं नप्पजानाति – ‘इदं खो धम्मसमादानं पच्चुप्पन्नदुक्खञ्चेव आयतिञ्च दुक्खविपाक’न्ति. तं अविद्वा अविज्जागतो यथाभूतं अप्पजानन्तो तं सेवति, तं न परिवज्जेति. तस्स तं सेवतो, तं अपरिवज्जयतो, अनिट्ठा अकन्ता अमनापा धम्मा अभिवड्ढन्ति, इट्ठा कन्ता मनापा धम्मा परिहायन्ति. तं किस्स हेतु? एवञ्हेतं, भिक्खवे, होति यथा तं अविद्दसुनो.
‘‘तत्र, भिक्खवे, यमिदं धम्मसमादानं पच्चुप्पन्नसुखं आयतिं दुक्खविपाकं तं अविद्वा अविज्जागतो यथाभूतं नप्पजानाति – ‘इदं खो धम्मसमादानं पच्चुप्पन्नसुखं आयतिं दुक्खविपाक’न्ति. तं अविद्वा अविज्जागतो यथाभूतं अप्पजानन्तो तं सेवति, तं न परिवज्जेति. तस्स तं सेवतो, तं अपरिवज्जयतो, अनिट्ठा अकन्ता अमनापा धम्मा अभिवड्ढन्ति, इट्ठा कन्ता मनापा धम्मा परिहायन्ति. तं किस्स हेतु? एवञ्हेतं, भिक्खवे, होति यथा तं अविद्दसुनो.
‘‘तत्र , भिक्खवे, यमिदं धम्मसमादानं पच्चुप्पन्नदुक्खं आयतिं सुखविपाकं, तं अविद्वा अविज्जागतो यथाभूतं नप्पजानाति – ‘इदं खो धम्मसमादानं पच्चुप्पन्नदुक्खं आयतिं सुखविपाक’न्ति. तं अविद्वा अविज्जागतो यथाभूतं अप्पजानन्तो तं न सेवति, तं परिवज्जेति. तस्स तं असेवतो, तं परिवज्जयतो, अनिट्ठा अकन्ता अमनापा धम्मा अभिवड्ढन्ति, इट्ठा कन्ता मनापा धम्मा परिहायन्ति. तं किस्स हेतु? एवञ्हेतं, भिक्खवे, होति यथा तं अविद्दसुनो.
‘‘तत्र, भिक्खवे, यमिदं धम्मसमादानं पच्चुप्पन्नसुखञ्चेव आयतिञ्च सुखविपाकं, तं अविद्वा अविज्जागतो यथाभूतं नप्पजानाति – ‘इदं खो धम्मसमादानं पच्चुप्पन्नसुखञ्चेव आयतिञ्च सुखविपाक’न्ति. तं अविद्वा अविज्जागतो यथाभूतं अप्पजानन्तो तं न सेवति, तं परिवज्जेति. तस्स तं असेवतो, तं परिवज्जयतो, अनिट्ठा अकन्ता अमनापा धम्मा अभिवड्ढन्ति, इट्ठा कन्ता मनापा धम्मा परिहायन्ति. तं किस्स हेतु? एवञ्हेतं, भिक्खवे, होति यथा तं अविद्दसुनो.
४७७. ‘‘तत्र, भिक्खवे, यमिदं धम्मसमादानं पच्चुप्पन्नदुक्खञ्चेव आयतिञ्च दुक्खविपाकं तं विद्वा विज्जागतो यथाभूतं पजानाति – ‘इदं खो धम्मसमादानं पच्चुप्पन्नदुक्खञ्चेव आयतिञ्च दुक्खविपाक’न्ति. तं विद्वा विज्जागतो यथाभूतं पजानन्तो तं न सेवति, तं परिवज्जेति. तस्स तं असेवतो, तं परिवज्जयतो, अनिट्ठा अकन्ता अमनापा धम्मा परिहायन्ति, इट्ठा कन्ता मनापा धम्मा अभिवड्ढन्ति. तं किस्स हेतु? एवञ्हेतं, भिक्खवे, होति यथा तं विद्दसुनो.
‘‘तत्र, भिक्खवे, यमिदं धम्मसमादानं पच्चुप्पन्नसुखं आयतिं दुक्खविपाकं तं विद्वा विज्जागतो यथाभूतं पजानाति – ‘इदं खो धम्मसमादानं पच्चुप्पन्नसुखं आयतिं दुक्खविपाक’न्ति. तं विद्वा विज्जागतो यथाभूतं पजानन्तो तं न सेवति, तं परिवज्जेति. तस्स तं असेवतो, तं परिवज्जयतो , अनिट्ठा अकन्ता अमनापा धम्मा परिहायन्ति, इट्ठा कन्ता मनापा धम्मा अभिवड्ढन्ति. तं किस्स हेतु? एवञ्हेतं, भिक्खवे, होति यथा तं विद्दसुनो.
‘‘तत्र , भिक्खवे, यमिदं धम्मसमादानं पच्चुप्पन्नदुक्खं आयतिं सुखविपाकं तं विद्वा विज्जागतो यथाभूतं पजानाति – ‘इदं खो धम्मसमादानं पच्चुप्पन्नदुक्खं आयतिं सुखविपाक’न्ति. तं विद्वा विज्जागतो यथाभूतं पजानन्तो तं सेवति, तं न परिवज्जेति. तस्स तं सेवतो, तं अपरिवज्जयतो, अनिट्ठा अकन्ता अमनापा धम्मा परिहायन्ति, इट्ठा कन्ता मनापा धम्मा अभिवड्ढन्ति. तं किस्स हेतु? एवञ्हेतं, भिक्खवे, होति यथा तं विद्दसुनो.
‘‘तत्र, भिक्खवे, यमिदं धम्मसमादानं पच्चुप्पन्नसुखञ्चेव आयतिञ्च सुखविपाकं तं विद्वा विज्जागतो यथाभूतं पजानाति – ‘इदं खो धम्मसमादानं पच्चुप्पन्नसुखञ्चेव आयतिञ्च सुखविपाक’न्ति. तं विद्वा विज्जागतो यथाभूतं पजानन्तो तं सेवति, तं न परिवज्जेति. तस्स तं सेवतो, तं अपरिवज्जयतो, अनिट्ठा अकन्ता अमनापा धम्मा परिहायन्ति, इट्ठा कन्ता मनापा धम्मा अभिवड्ढन्ति. तं किस्स हेतु? एवञ्हेतं, भिक्खवे, होति यथा तं विद्दसुनो.
४७८. ‘‘कतमञ्च , भिक्खवे, धम्मसमादानं पच्चुप्पन्नदुक्खञ्चेव आयतिञ्च दुक्खविपाकं? इध, भिक्खवे, एकच्चो सहापि दुक्खेन सहापि दोमनस्सेन पाणातिपाती होति, पाणातिपातपच्चया च दुक्खं दोमनस्सं पटिसंवेदेति; सहापि दुक्खेन सहापि दोमनस्सेन अदिन्नादायी होति, अदिन्नादानपच्चया च दुक्खं दोमनस्सं पटिसंवेदेति; सहापि दुक्खेन सहापि दोमनस्सेन कामेसु मिच्छाचारी होति, कामेसु मिच्छाचारपच्चया च दुक्खं दोमनस्सं पटिसंवेदेति; सहापि दुक्खेन सहापि दोमनस्सेन मुसावादी होति, मुसावादपच्चया च दुक्खं दोमनस्सं पटिसंवेदेति; सहापि दुक्खेन सहापि दोमनस्सेन पिसुणवाचो होति, पिसुणवाचापच्चया च दुक्खं दोमनस्सं पटिसंवेदेति; सहापि दुक्खेन सहापि दोमनस्सेन फरुसवाचो होति, फरुसवाचापच्चया च दुक्खं दोमनस्सं पटिसंवेदेति; सहापि दुक्खेन सहापि दोमनस्सेन सम्फप्पलापी होति, सम्फप्पलापपच्चया च दुक्खं दोमनस्सं पटिसंवेदेति; सहापि दुक्खेन सहापि दोमनस्सेन अभिज्झालु होति, अभिज्झापच्चया च दुक्खं दोमनस्सं पटिसंवेदेति; सहापि दुक्खेन सहापि दोमनस्सेन ब्यापन्नचित्तो होति, ब्यापादपच्चया च दुक्खं दोमनस्सं पटिसंवेदेति; सहापि दुक्खेन सहापि दोमनस्सेन मिच्छादिट्ठि होति, मिच्छादिट्ठिपच्चया च दुक्खं दोमनस्सं पटिसंवेदेति. सो कायस्स भेदा परं मरणा अपायं दुग्गतिं विनिपातं निरयं उपपज्जति. इदं वुच्चति, भिक्खवे, धम्मसमादानं पच्चुप्पन्नदुक्खञ्चेव आयतिञ्च दुक्खविपाकं.
४७९. ‘‘कतमञ्च, भिक्खवे, धम्मसमादानं पच्चुप्पन्नसुखं आयतिं दुक्खविपाकं? इध, भिक्खवे, एकच्चो सहापि सुखेन सहापि सोमनस्सेन पाणातिपाती होति, पाणातिपातपच्चया च सुखं सोमनस्सं पटिसंवेदेति; सहापि सुखेन सहापि सोमनस्सेन अदिन्नादायी होति, अदिन्नादानपच्चया च सुखं सोमनस्सं पटिसंवेदेति; सहापि सुखेन सहापि सोमनस्सेन कामेसुमिच्छाचारी होति, कामेसुमिच्छाचारपच्चया च सुखं सोमनस्सं पटिसंवेदेति; सहापि सुखेन सहापि सोमनस्सेन मुसावादी होति, मुसावादपच्चया च सुखं सोमनस्सं पटिसंवेदेति; सहापि सुखेन सहापि सोमनस्सेन पिसुणवाचो होति, पिसुणवाचापच्चया च सुखं सोमनस्सं पटिसंवेदेति; सहापि सुखेन सहापि सोमनस्सेन फरुसवाचो होति, फरुसवाचापच्चया च सुखं सोमनस्सं पटिसंवेदेति; सहापि सुखेन सहापि सोमनस्सेन सम्फप्पलापी होति, सम्फप्पलापपच्चया च सुखं सोमनस्सं पटिसंवेदेति; सहापि सुखेन सहापि सोमनस्सेन अभिज्झालु होति, अभिज्झापच्चया च सुखं सोमनस्सं पटिसंवेदेति; सहापि सुखेन सहापि सोमनस्सेन ब्यापन्नचित्तो होति, ब्यापादपच्चया च सुखं सोमनस्सं पटिसंवेदेति; सहापि सुखेन सहापि सोमनस्सेन मिच्छादिट्ठि होति, मिच्छादिट्ठिपच्चया च सुखं सोमनस्सं पटिसंवेदेति. सो कायस्स भेदा परं मरणा अपायं दुग्गतिं विनिपातं निरयं उपपज्जति. इदं वुच्चति, भिक्खवे, धम्मसमादानं पच्चुप्पन्नसुखं आयतिं दुक्खविपाकं.
४८०. ‘‘कतमञ्च, भिक्खवे, धम्मसमादानं पच्चुप्पन्नदुक्खं आयतिं सुखविपाकं? इध, भिक्खवे, एकच्चो सहापि दुक्खेन सहापि दोमनस्सेन पाणातिपाता पटिविरतो होति, पाणातिपाता वेरमणीपच्चया च दुक्खं दोमनस्सं पटिसंवेदेति ; सहापि दुक्खेन सहापि दोमनस्सेन अदिन्नादाना पटिविरतो होति, अदिन्नादाना वेरमणीपच्चया च दुक्खं दोमनस्सं पटिसंवेदेति; सहापि दुक्खेन सहापि दोमनस्सेन कामेसुमिच्छाचारा पटिविरतो होति, कामेसुमिच्छाचारा वेरमणीपच्चया च दुक्खं दोमनस्सं पटिसंवेदेति; सहापि दुक्खेन सहापि दोमनस्सेन मुसावादा पटिविरतो होति, मुसावादा वेरमणीपच्चया च दुक्खं दोमनस्सं पटिसंवेदेति; सहापि दुक्खेन सहापि दोमनस्सेन पिसुणाय वाचाय पटिविरतो होति , पिसुणाय वाचाय वेरमणीपच्चया च दुक्खं दोमनस्सं पटिसंवेदेति ; सहापि दुक्खेन सहापि दोमनस्सेन फरुसाय वाचाय पटिविरतो होति, फरुसाय वाचाय वेरमणीपच्चया च दुक्खं दोमनस्सं पटिसंवेदेति; सहापि दुक्खेन सहापि दोमनस्सेन सम्फप्पलापा पटिविरतो होति, सम्फप्पलापा वेरमणीपच्चया च दुक्खं दोमनस्सं पटिसंवेदेति; सहापि दुक्खेन सहापि दोमनस्सेन अनभिज्झालु होति, अनभिज्झापच्चया च दुक्खं दोमनस्सं पटिसंवेदेति; सहापि दुक्खेन सहापि दोमनस्सेन अब्यापन्नचित्तो होति, अब्यापादपच्चया च दुक्खं दोमनस्सं पटिसंवेदेति; सहापि दुक्खेन सहापि दोमनस्सेन सम्मादिट्ठि होति, सम्मादिट्ठिपच्चया च दुक्खं दोमनस्सं पटिसंवेदेति. सो कायस्स भेदा परं मरणा सुगतिं सग्गं लोकं उपपज्जति. इदं वुच्चति, भिक्खवे, धम्मसमादानं पच्चुप्पन्नदुक्खं आयतिं सुखविपाकं.
४८१. ‘‘कतमञ्च, भिक्खवे, धम्मसमादानं पच्चुप्पन्नसुखञ्चेव आयतिञ्च सुखविपाकं? इध, भिक्खवे, एकच्चो सहापि सुखेन सहापि सोमनस्सेन पाणातिपाता पटिविरतो होति, पाणातिपाता वेरमणीपच्चया च सुखं सोमनस्सं पटिसंवेदेति; सहापि सुखेन सहापि सोमनस्सेन अदिन्नादाना पटिविरतो होति, अदिन्नादाना वेरमणीपच्चया च सुखं सोमनस्सं पटिसंवेदेति; सहापि सुखेन सहापि सोमनस्सेन कामेसुमिच्छाचारा पटिविरतो होति, कामेसुमिच्छाचारा वेरमणीपच्चया च सुखं सोमनस्सं पटिसंवेदेति; सहापि सुखेन सहापि सोमनस्सेन मुसावादा पटिविरतो होति, मुसावादा वेरमणीपच्चया च सुखं सोमनस्सं पटिसंवेदेति; सहापि सुखेन सहापि सोमनस्सेन पिसुणाय वाचाय पटिविरतो होति, पिसुणाय वाचाय वेरमणीपच्चया च सुखं सोमनस्सं पटिसंवेदेति; सहापि सुखेन सहापि सोमनस्सेन फरुसाय वाचाय पटिविरतो होति, फरुसाय वाचाय वेरमणीपच्चया च सुखं सोमनस्सं पटिसंवेदेति; सहापि सुखेन सहापि सोमनस्सेन सम्फप्पलापा पटिविरतो होति, सम्फप्पलापा वेरमणीपच्चया च सुखं सोमनस्सं पटिसंवेदेति; सहापि सुखेन सहापि सोमनस्सेन अनभिज्झालु होति, अनभिज्झापच्चया च सुखं सोमनस्सं पटिसंवेदेति; सहापि सुखेन सहापि सोमनस्सेन अब्यापन्नचित्तो होति, अब्यापादपच्चया च सुखं सोमनस्सं पटिसंवेदेति; सहापि सुखेन सहापि सोमनस्सेन सम्मादिट्ठि होति, सम्मादिट्ठिपच्चया च सुखं सोमनस्सं पटिसंवेदेति. सो कायस्स भेदा परं मरणा सुगतिं सग्गं लोकं उपपज्जति. इदं, वुच्चति, भिक्खवे, धम्मसमादानं पच्चुप्पन्नसुखञ्चेव आयतिञ्च सुखविपाकं. इमानि खो, भिक्खवे, चत्तारि धम्मसमादानानि.
४८२. ‘‘सेय्यथापि, भिक्खवे, तित्तकालाबु विसेन संसट्ठो. अथ पुरिसो आगच्छेय्य जीवितुकामो अमरितुकामो सुखकामो दुक्खप्पटिकूलो. तमेनं एवं वदेय्युं – ‘अम्भो पुरिस, अयं तित्तकालाबु विसेन संसट्ठो, सचे आकङ्खसि पिव [पिप (सी. पी.)]. तस्स ते पिवतो [पिपतो (सी. पी.)] चेव नच्छादेस्सति वण्णेनपि गन्धेनपि रसेनपि, पिवित्वा [पीत्वा (सी.)] च पन मरणं वा निगच्छसि मरणमत्तं वा दुक्ख’न्ति. सो तं अप्पटिसङ्खाय पिवेय्य, नप्पटिनिस्सज्जेय्य. तस्स तं पिवतो चेव नच्छादेय्य वण्णेनपि गन्धेनपि रसेनपि, पिवित्वा च पन मरणं वा निगच्छेय्य मरणमत्तं वा दुक्खं. तथूपमाहं, भिक्खवे, इमं धम्मसमादानं वदामि, यमिदं धम्मसमादानं पच्चुप्पन्नदुक्खञ्चेव आयतिञ्च दुक्खविपाकं.
४८३. ‘‘सेय्यथापि, भिक्खवे, आपानीयकंसो वण्णसम्पन्नो गन्धसम्पन्नो रससम्पन्नो. सो च खो विसेन संसट्ठो. अथ पुरिसो आगच्छेय्य जीवितुकामो अमरितुकामो सुखकामो दुक्खप्पटिकूलो. तमेनं एवं वदेय्युं – ‘अम्भो पुरिस, अयं आपानीयकंसो वण्णसम्पन्नो गन्धसम्पन्नो रससम्पन्नो. सो च खो विसेन संसट्ठो, सचे आकङ्खसि पिव. तस्स ते पिवतोहि [पिवतोपि (क.)] खो छादेस्सति वण्णेनपि गन्धेनपि रसेनपि, पिवित्वा च पन मरणं वा निगच्छसि मरणमत्तं वा दुक्ख’न्ति. सो तं अप्पटिसङ्खाय पिवेय्य, नप्पटिनिस्सज्जेय्य. तस्स तं पिवतोहि खो छादेय्य वण्णेनपि गन्धेनपि रसेनपि, पिवित्वा च पन मरणं वा निगच्छेय्य मरणमत्तं वा दुक्खं. तथूपमाहं, भिक्खवे, इमं धम्मसमादानं वदामि, यमिदं धम्मसमादानं पच्चुप्पन्नसुखं आयतिं दुक्खविपाकं.
४८४. ‘‘सेय्यथापि, भिक्खवे, पूतिमुत्तं नानाभेसज्जेहि संसट्ठं. अथ पुरिसो आगच्छेय्य पण्डुकरोगी. तमेनं एवं वदेय्युं – ‘अम्भो पुरिस, इदं पूतिमुत्तं नानाभेसज्जेहि संसट्ठं, सचे आकङ्खसि पिव. तस्स ते पिवतोहि खो नच्छादेस्सति वण्णेनपि गन्धेनपि रसेनपि, पिवित्वा च पन सुखी भविस्ससी’ति. सो तं पटिसङ्खाय पिवेय्य, नप्पटिनिस्सज्जेय्य. तस्स तं पिवतोहि खो नच्छादेय्य वण्णेनपि गन्धेनपि रसेनपि, पिवित्वा च पन सुखी अस्स. तथूपमाहं, भिक्खवे, इमं धम्मसमादानं वदामि, यमिदं धम्मसमादानं पच्चुप्पन्नदुक्खं आयतिं सुखविपाकं.
४८५. ‘‘सेय्यथापि, भिक्खवे, दधि च मधु च सप्पि च फाणितञ्च एकज्झं संसट्ठं. अथ पुरिसो आगच्छेय्य लोहितपक्खन्दिको. तमेनं एवं वदेय्युं – ‘अम्भो पुरिस, इदं दधिं च मधुं च सप्पिं च फाणितञ्च एकज्झं संसट्ठं, सचे आकङ्खसि पिव. तस्स ते पिवतो चेव छादेस्सति वण्णेनपि गन्धेनपि रसेनपि, पिवित्वा च पन सुखी भविस्ससी’ति. सो तं पटिसङ्खाय पिवेय्य, नप्पटिनिस्सज्जेय्य. तस्स तं पिवतो चेव छादेय्य वण्णेनपि गन्धेनपि रसेनपि, पिवित्वा च पन सुखी अस्स. तथूपमाहं, भिक्खवे, इमं धम्मसमादानं वदामि, यमिदं धम्मसमादानं पच्चुप्पन्नसुखञ्चेव आयतिञ्च सुखविपाकं.
४८६. ‘‘सेय्यथापि, भिक्खवे, वस्सानं पच्छिमे मासे सरदसमये विद्धे विगतवलाहके देवे आदिच्चो नभं अब्भुस्सक्कमानो सब्बं आकासगतं तमगतं अभिविहच्च भासते च तपते च विरोचते च; एवमेव खो, भिक्खवे, यमिदं धम्मसमादानं पच्चुप्पन्नसुखञ्चेव आयतिञ्च सुखविपाकं तदञ्ञे पुथुसमणब्राह्मणपरप्पवादे अभिविहच्च भासते च तपते च विरोचते चा’’ति.
इदमवोच भगवा. अत्तमना ते भिक्खू भगवतो भासितं अभिनन्दुन्ति.
महाधम्मसमादानसुत्तं निट्ठितं छट्ठं.