कौशाम्बी के भिक्षुओं के बीच एक बड़ा विवाद हुआ था, जो मज्झिमनिकाय १२८ के अनुसार इतना गंभीर हो गया कि भगवान बुद्ध के सामने भी भिक्षुओं ने अपनी गरिमा बनाए नहीं रखी। इस विवाद को सुलझाना इतना आसान नहीं था और भगवान को कौशाम्बी छोड़कर श्रावस्ती जाना पड़ा। यह स्थिति भिक्षुओं के बीच इतने गहरे मतभेदों और विघटन का प्रतीक थी कि संघ की एकता भी खतरे में पड़ गई थी।
जब इस विवाद की जानकारी उपासकों को हुई, तो उन्होंने उन भिक्षुओं का दाना-पानी रोक दिया, जिससे उन्हें अपनी गलती का अहसास हुआ। अंततः, शर्म के मारे वे भिक्षु भगवान से मिलने श्रावस्ती गए, जहां उन्होंने अपनी गलतियों को स्वीकारते हुए विवाद को सुलझाया। इस घटना का विस्तृत वर्णन विनयपिटक (महावग्ग के कोसम्बकक्खन्धक) में भी मिलता है, जो भिक्षुओं के अनुशासन और संघ की एकता की महत्ता को रेखांकित करता है।
ऐसा मैंने सुना — एक समय भगवान कौशाम्बी में घोषित के विहार में रह रहे थे। उस समय कौशाम्बी के भिक्षु बहस करते हुए, कलह करते हुए, विवाद करते हुए, एक दूसरे को मुख-बाणों से घायल करते हुए विहार कर रहे थे। वे एक दूसरे को न समझा पा रहे थे, न समझ पा रहे थे, एक दूसरे को न मना पा रहे थे, न मान रहे थे।
तब कोई भिक्षु भगवान के पास गया, और जाकर अभिवादन कर एक ओर बैठ गया। एक ओर बैठकर उस भिक्षु ने भगवान से कहा, “भंते, कौशाम्बी के भिक्षु बहस करते हुए, कलह करते हुए, विवाद करते हुए, एक दूसरे को मुख-बाणों से घायल करते हुए विहार कर रहे हैं। वे एक दूसरे को न समझा पा रहे हैं, न समझ पा रहे हैं, एक दूसरे को न मना पा रहे हैं, न मान रहे हैं।”
तब भगवान ने (पास खड़े) किसी भिक्षु को संबोधित किया, “जाओ, भिक्षु, मेरे नाम पर उन भिक्षुओं को सूचना दो, ‘शास्ता आप आयुष्मानों को आमंत्रित करते हैं।’”
“ठीक है, भंते!” उस भिक्षु ने भगवान को उत्तर दिया, उन भिक्षुओं के पास गया, और जाकर उन भिक्षुओं से कहा, “शास्ता आप आयुष्मानों को आमंत्रित करते हैं।”
“ठीक है, मित्र!” उन भिक्षुओं ने उस भिक्षु को उत्तर दिया, और भगवान के पास गए। भगवान के पास जाकर, अभिवादन कर, वे एक ओर बैठ गए। एक ओर बैठे भिक्षुओं से भगवान ने कहा:
“क्या यह सच है, भिक्षुओं, तुम बहस करते हुए, कलह करते हुए, विवाद करते हुए, एक दूसरे को मुख-बाणों से घायल करते हुए विहार कर रहे हो। न एक दूसरे को समझा पा रहे हो, न समझ पा रहे हो, न एक दूसरे को मना पा रहे हैं, न मान रहे हो?"
“हाँ, भंते।”
“तुम्हें क्या लगता है, भिक्षुओं, जब तुम बहस करते हुए, कलह करते हुए, विवाद करते हुए, एक दूसरे को मुख-बाणों से घायल करते हुए विहार करते हो, तब क्या उस समय तुम अपने सब्रह्मचारियों के प्रति, उनके आगे और उनके पीछे, सद्भावपूर्ण (“मेत्ता”) शारीरिक कर्म में प्रतिस्थापित होते हो, सद्भावपूर्ण वाचिक कर्म में प्रतिस्थापित होते हो, सद्भावपूर्ण मानसिक कर्म में प्रतिस्थापित होते हो?”
“नहीं, भंते।”
“अच्छा, तो लगता है, भिक्षुओं, जब तुम बहस करते हुए, कलह करते हुए, विवाद करते हुए, एक दूसरे को मुख-बाणों से घायल करते हुए विहार करते हो, तब उस समय तुम अपने सब्रह्मचारियों के प्रति, उनके आगे और उनके पीछे, न सद्भावपूर्ण शारीरिक कर्म में प्रतिस्थापित होते हो, न सद्भावपूर्ण वाचिक कर्म में प्रतिस्थापित होते हो, और न ही सद्भावपूर्ण मानसिक कर्म में प्रतिस्थापित होते हो।
तब, निकम्मे पुरुषों, भला क्या देखते हुए, क्या जानते हुए तुम बहस करते हुए, कलह करते हुए, विवाद करते हुए, एक दूसरे को मुख-बाणों से घायल करते हुए विहार कर रहे हो? न एक दूसरे को समझा पा रहे हो, न समझ पा रहे हो, न एक दूसरे को मना पा रहे हैं, न मान ही रहे हो? निकम्मे पुरुषों, यह तुम्हारे लिए दीर्घकाल तक अहितकारी और दुःखदायी होगा।”
और तब, भगवान ने भिक्षुओं को संबोधित किया —
“छह स्नेहभाव धर्मों से, भिक्षुओं, लाड़-प्यार और आदरभाव जन्मता है, जो साथ जुटाकर सामंजस्यता और साथ लाकर एकता लाता है। कौन से छह?
(१) भिक्षुओं, कोई भिक्षु सब्रह्मचारियों के प्रति सद्भावपूर्ण शारीरिक कर्म में स्थापित होता है, उनके आगे भी और उनके पीछे भी। इस स्नेहभाव धर्म से लाड़-प्यार और आदरभाव जन्मता है, जो साथ जुटाकर सामंजस्यता और साथ लाकर एकता लाती है।
(२) आगे, कोई भिक्षु सब्रह्मचारियों के प्रति सद्भावपूर्ण वाचिक कर्म में स्थापित होता है, उनके आगे भी और उनके पीछे भी। इस स्नेहभाव धर्म से लाड़-प्यार और आदरभाव जन्मता है, जो साथ जुटाकर सामंजस्यता और साथ लाकर एकता लाती है।
(३) आगे, कोई भिक्षु सब्रह्मचारियों के प्रति सद्भावपूर्ण मानसिक कर्म में स्थापित होता है, उनके आगे भी और उनके पीछे भी। इस स्नेहभाव धर्म से लाड़-प्यार और आदरभाव जन्मता है, जो साथ जुटाकर सामंजस्यता और साथ लाकर एकता लाती है।
(४) आगे, कोई भिक्षु धर्मानुसार जो भी धार्मिक लाभ प्राप्त करता है, भले ही पात्र में पड़ी भिक्षा ही क्यों न हो, उसका अकेले उपभोग नहीं करता। बल्कि उसे शीलवान सब्रह्मचारियों के साथ बाँटकर समान उपभोग करता है। इस स्नेहभाव धर्म से लाड़-प्यार और आदरभाव जन्मता है, जो साथ जुटाकर सामंजस्यता और साथ लाकर एकता लाती है।
(५) आगे, कोई भिक्षु ऐसे शील — जो अखंडित हो, अछिद्रित हो, बेदाग हो, बेधब्बा हो, निष्कलंक हो, विद्वानों द्वारा प्रशंसित हो, छुटकारा दिलाते हो, और समाधि की ओर बढ़ाते हो — ऐसे शीलों में सब्रह्मचारियों के शील-समानता के साथ विहार करता है, उनके आगे भी और उनके पीछे भी। इस स्नेहभाव धर्म से लाड़-प्यार और आदरभाव जन्मता है, जो साथ जुटाकर सामंजस्यता और साथ लाकर एकता लाती है।
(६) आगे, कोई भिक्षु ऐसी दृष्टि — जो आर्य हो, पार कराती हो, साधना करने वाले को सम्यक दुःखों के अंत की ओर ले जाती हो — ऐसी दृष्टि में सब्रह्मचारियों के दृष्टि-समानता के साथ विहार करता है, उनके आगे भी और उनके पीछे भी। इस स्नेहभाव धर्म से लाड़-प्यार और आदरभाव जन्मता है, जो साथ जुटाकर सामंजस्यता और साथ लाकर एकता लाती है।
ये छह स्नेहभाव धर्म हैं, जिनसे लाड़-प्यार और आदरभाव जन्मता है, जो साथ जुटाकर सामंजस्यता और साथ लाकर एकता लाती है।
इन छह स्नेहभाव धर्मों में, भिक्षुओं, सबसे ऊँचा, सबको साथ जोड़ने वाला, सबको साथ बांधने वाला धर्म है — ऐसी आर्य दृष्टि, जो पार कराती हो, साधना करने वाले को सम्यक दुःखों के अंत की ओर ले जाती हो।
जैसे, भिक्षुओं, किसी शिखर वाले भवन का सबसे ऊँचा, सबको साथ जोड़ने वाला, सबको साथ बांधने वाला हिस्सा — उसका शिखर होता है। उसी तरह, भिक्षुओं, इन छह स्नेहभाव धर्मों में सबसे ऊँचा, सबको साथ जोड़ने वाला, सबको साथ बांधने वाला धर्म है — ऐसी आर्य दृष्टि, जो पार कराती हो, साधना करने वाले को सम्यक दुःखों के अंत की ओर ले जाती हो।
और कैसे, भिक्षुओं, वह आर्य दृष्टि, पार कराती है, साधना करने वाले को सम्यक दुःखों के अंत की ओर ले जाती है?
(१) ऐसा होता है, भिक्षुओं, कोई भिक्षु जंगल जाकर, पेड़ के तले जाकर, या शून्यागार में जाकर ऐसा चिंतन करता है — ‘क्या मेरे भीतर कोई आवेग अब तक छूटा नहीं, जिस आवेग से चित्त प्रकोपित होने पर, मैं न यथास्वरूप जान पाऊँगा, न देख पाऊँगा?’
यदि, भिक्षुओं, कोई भिक्षु —
उन्हें समझ आता है — ‘मेरे भीतर ऐसा कोई आवेग नहीं जो अब तक छूटा न हो, जिस आवेग से चित्त प्रकोपित होने पर, मैं न यथास्वरूप जान पाऊँगा, न देख पाऊँगा। बल्कि मेरा मानस सच्चाई का बोध करने के लिए अच्छे से प्रवृत्त (=सही दिशा में लगा) है।’
यह पहला ज्ञान उन्हें मिलता है, जो आर्य, अलौकिक और आम आदमी के लिए असाधारण है।
(२) आगे, भिक्षुओं, कोई आर्यश्रावक इस तरह चिंतन करता है, ‘जब मैं उस दृष्टि को अपनाता हूँ, उसका अभ्यास करता हूँ, उसे विकसित करता हूँ, तो क्या मुझे उस कारण समथ (=चित्त की स्थिर निश्चलता) प्राप्त होता है, निर्वृती (=तृष्णा बुझने की अवस्था) प्राप्त होती है?’
उन्हें समझ आता है — ‘जब मैं उस दृष्टि को अपनाता हूँ, उसका अभ्यास करता हूँ, उसे विकसित करता हूँ, तो मुझे उस कारण समथ प्राप्त होता है, निर्वृती प्राप्त होती है।’
यह दूसरा ज्ञान उन्हें मिलता है, जो आर्य, अलौकिक और आम आदमी के लिए असाधारण है।
(३) आगे, भिक्षुओं, कोई आर्यश्रावक इस तरह चिंतन करता है, ‘क्या मैं जिस स्वरूप की दृष्टि से संपन्न हूँ, उसी स्वरूप की दृष्टि से बाहर के कोई (परधार्मिक) श्रमण या ब्राह्मण भी संपन्न हैं?’
उन्हें समझ आता है — ‘मैं जिस स्वरूप की दृष्टि से संपन्न हूँ, उसी स्वरूप की दृष्टि से बाहर के कोई श्रमण या ब्राह्मण संपन्न नहीं हैं।’
यह तीसरा ज्ञान उन्हें मिलता है, जो आर्य, अलौकिक और आम आदमी के लिए असाधारण है।
(४) आगे, भिक्षुओं, कोई आर्यश्रावक इस तरह चिंतन करता है, ‘कोई दृष्टिसंपन्न व्यक्ति जिस स्वरूप की धर्मता से संपन्न होता है, क्या मैं उसी स्वरूप की धर्मता से संपन्न हूँ?’
और, भिक्षुओं, दृष्टिसंपन्न व्यक्ति किस स्वरूप की धर्मता से संपन्न होता है?
इस तरह की धर्मता, भिक्षुओं, दृष्टिसंपन्न व्यक्ति की होती है — भले ही वे किसी भी तरह की आपत्ति 1 में पड़े, जिस तरह की आपत्ति से निकलना संभव दिखायी देता है, उसे वे शास्ता, या समझदार, या सब्रह्मचारी को तुरंत बता देते हैं, खोल देते हैं, उजागर करते हैं। और बता देने पर, खोल देने पर, उजागर करने पर भविष्य में संवर करते हैं।
जैसे, भिक्षुओं, कोई नन्हा, कोमल कुमार हो, पीठ के बल लेटने वाला। यदि वह अपने हाथ या पैर से अंगारे को छू लेता है, तो तुरंत पीछे हटता है। उसी तरह की धर्मता, भिक्षुओं, दृष्टिसंपन्न व्यक्ति की होती है — भले ही वे किसी भी तरह की आपत्ति में पड़े, जिस तरह की आपत्ति से निकलना संभव दिखायी देता है, उसे वे शास्ता, या समझदार, या सब्रह्मचारी को तुरंत बता देते हैं, प्रदर्शित करते है, खोल देते हैं। और बता देने पर, प्रदर्शित करने पर, खोल देने पर भविष्य में संवर करते हैं।
उन्हें समझ आता है — ‘कोई दृष्टिसंपन्न व्यक्ति जिस स्वरूप की धर्मता से संपन्न होता है, मैं भी उसी स्वरूप की धर्मता से संपन्न हूँ।’
यह चौथा ज्ञान उन्हें मिलता है, जो आर्य, अलौकिक और आम आदमी के लिए असाधारण है।
(५) आगे, भिक्षुओं, कोई आर्यश्रावक इस तरह चिंतन करता है, ‘कोई दृष्टिसंपन्न व्यक्ति जिस (दूसरे) स्वरूप की धर्मता से संपन्न होता है, क्या मैं उसी स्वरूप की धर्मता से संपन्न हूँ?’
और, भिक्षुओं, दृष्टिसंपन्न व्यक्ति किस स्वरूप की धर्मता से संपन्न होता है?
इस तरह की धर्मता, भिक्षुओं, दृष्टिसंपन्न व्यक्ति की होती है — भले ही वे अपने सब्रह्मचारियों के प्रति ऊँचे या हीन कर्तव्यों में उत्सुक और व्यस्त रहते हो, तब भी वे अपने शील को ऊँचा उठाने की (“अधिसील”) शिक्षा, चित्त को ऊँचा उठाने की (“अधिचित्त” =समाधि) शिक्षा, और प्रज्ञा को ऊँचा उठाने की (“अधिपञ्ञा”) शिक्षा की तीव्र अपेक्षा रखते हैं।
जैसे, भिक्षुओं, किसी गाय का नन्हा बछड़ा हो, तो चरते हुए भी वह समर्पित भाव से बछड़े की देखभाल करती है। उसी तरह की धर्मता, भिक्षुओं, दृष्टिसंपन्न व्यक्ति की होती है — भले ही वे अपने सब्रह्मचारियों के प्रति ऊँचे या हीन कर्तव्यों में उत्सुक और व्यस्त रहते हो, तब भी वे अपने शील को ऊँचा उठाने की शिक्षा, चित्त को ऊँचा उठाने की शिक्षा, और प्रज्ञा को ऊँचा उठाने की शिक्षा की तीव्र अपेक्षा रखते हैं।
उन्हें समझ आता है — ‘कोई दृष्टिसंपन्न व्यक्ति जिस स्वरूप की धर्मता से संपन्न होता है, मैं भी उसी स्वरूप की धर्मता से संपन्न हूँ।’
यह पाँचवा ज्ञान उन्हें मिलता है, जो आर्य, अलौकिक और आम आदमी के लिए असाधारण है।
(६) आगे, भिक्षुओं, कोई आर्यश्रावक इस तरह चिंतन करता है, ‘कोई दृष्टिसंपन्न व्यक्ति जिस स्वरूप के बल (=शक्ति) से संपन्न होता है, क्या मैं उसी स्वरूप की बलता से संपन्न हूँ?’
और, भिक्षुओं, दृष्टिसंपन्न व्यक्ति किस स्वरूप के बलता से संपन्न होता है?
इस तरह की बलता, भिक्षुओं, दृष्टिसंपन्न व्यक्ति की होती है — जब तथागत के द्वारा घोषित धर्म-विनय का उपदेश किया जाता है, तो वे गौर करते हैं, ध्यान लगाते हैं, अपना पूरा मानस लगाते हैं, और कान देकर धर्म सुनते हैं।
उन्हें समझ आता है — ‘कोई दृष्टिसंपन्न व्यक्ति जिस स्वरूप की बलता से संपन्न होता है, मैं भी उसी स्वरूप की बलता से संपन्न हूँ।’
यह छठा ज्ञान उन्हें मिलता है, जो आर्य, अलौकिक और आम आदमी के लिए असाधारण है।
(७) आगे, भिक्षुओं, कोई आर्यश्रावक इस तरह चिंतन करता है, ‘कोई दृष्टिसंपन्न व्यक्ति जिस (दूसरे) स्वरूप के बल से संपन्न होता है, क्या मैं उसी स्वरूप की बलता से संपन्न हूँ?’
और, भिक्षुओं, दृष्टिसंपन्न व्यक्ति किस स्वरूप के बलता से संपन्न होता है?
इस तरह की बलता, भिक्षुओं, दृष्टिसंपन्न व्यक्ति की होती है — जब तथागत के द्वारा घोषित धर्म-विनय का उपदेश किया जाता है, तो वे उसका अर्थ-भेद प्राप्त करते हैं, धर्म-भेद प्राप्त करते हैं, और उन्हें धर्म से जुड़ी प्रसन्नता प्राप्त होती है।
उन्हें समझ आता है — ‘कोई दृष्टिसंपन्न व्यक्ति जिस स्वरूप की बलता से संपन्न होता है, मैं भी उसी स्वरूप की बलता से संपन्न हूँ।’
यह सातवा ज्ञान उन्हें मिलता है, जो आर्य, अलौकिक और आम आदमी के लिए असाधारण है।
इन सात अंगों से संपन्न आर्यश्रावक, भिक्षुओं, श्रोतापतिफल के साक्षात्कार की धर्मता का अच्छे से परीक्षण करता है। इन सात अंगों से संपन्न आर्यश्रावक, भिक्षुओं, श्रोतापतिफल के संपन्न होता है।”
भगवान ने ऐसा कहा। हर्षित होकर भिक्षुओं ने भगवान की बात का अभिनंदन किया।
आपत्ति के बारे में अधिक जानने के लिए हमारी शब्दावली पढ़ें। ↩︎
४९१. एवं मे सुतं – एकं समयं भगवा कोसम्बियं विहरति घोसितारामे. तेन खो पन समयेन कोसम्बियं भिक्खू भण्डनजाता कलहजाता विवादापन्ना अञ्ञमञ्ञं मुखसत्तीहि वितुदन्ता विहरन्ति. ते न चेव अञ्ञमञ्ञं सञ्ञापेन्ति न च सञ्ञत्तिं उपेन्ति, न च अञ्ञमञ्ञं निज्झापेन्ति, न च निज्झत्तिं उपेन्ति. अथ खो अञ्ञतरो भिक्खु येन भगवा तेनुपसङ्कमि; उपसङ्कमित्वा भगवन्तं अभिवादेत्वा एकमन्तं निसीदि. एकमन्तं निसिन्नो खो सो भिक्खु भगवन्तं एतदवोच – ‘‘इध, भन्ते, कोसम्बियं भिक्खू भण्डनजाता कलहजाता विवादापन्ना अञ्ञमञ्ञं मुखसत्तीहि वितुदन्ता विहरन्ति, ते न चेव अञ्ञमञ्ञं सञ्ञापेन्ति, न च सञ्ञत्तिं उपेन्ति, न च अञ्ञमञ्ञं निज्झापेन्ति, न च निज्झत्तिं उपेन्ती’’ति.
अथ खो भगवा अञ्ञतरं भिक्खुं आमन्तेसि – ‘‘एहि त्वं, भिक्खु, मम वचनेन ते भिक्खू आमन्तेहि – ‘सत्था वो आयस्मन्ते आमन्तेती’’’ति. ‘‘एवं , भन्ते’’ति खो सो भिक्खु भगवतो पटिस्सुत्वा येन ते भिक्खू तेनुपसङ्कमि; उपसङ्कमित्वा ते भिक्खू एतदवोच – ‘‘सत्था आयस्मन्ते आमन्तेती’’ति. ‘‘एवमावुसो’’ति खो ते भिक्खू तस्स भिक्खुनो पटिस्सुत्वा येन भगवा तेनुपसङ्कमिंसु; उपसङ्कमित्वा भगवन्तं अभिवादेत्वा एकमन्तं निसीदिंसु. एकमन्तं निसिन्ने खो ते भिक्खू भगवा एतदवोच – ‘‘सच्चं किर तुम्हे, भिक्खवे, भण्डनजाता कलहजाता विवादापन्ना अञ्ञमञ्ञं मुखसत्तीहि वितुदन्ता विहरथ, ते न चेव अञ्ञमञ्ञं सञ्ञापेथ, न च सञ्ञत्तिं उपेथ, न च अञ्ञमञ्ञं निज्झापेथ, न च निज्झत्तिं उपेथा’’ति? ‘‘एवं, भन्ते’’. ‘‘तं किं मञ्ञथ, भिक्खवे, यस्मिं तुम्हे समये भण्डनजाता कलहजाता विवादापन्ना अञ्ञमञ्ञं मुखसत्तीहि वितुदन्ता विहरथ, अपि नु तुम्हाकं तस्मिं समये मेत्तं कायकम्मं पच्चुपट्ठितं होति सब्रह्मचारीसु आवि चेव रहो च, मेत्तं वचीकम्मं…पे… मेत्तं मनोकम्मं पच्चुपट्ठितं होति सब्रह्मचारीसु आवि चेव रहो चा’’ति? ‘‘नो हेतं, भन्ते’’. ‘‘इति किर, भिक्खवे, यस्मिं तुम्हे समये भण्डनजाता कलहजाता विवादापन्ना अञ्ञमञ्ञं मुखसत्तीहि वितुदन्ता विहरथ, नेव तुम्हाकं तस्मिं समये मेत्तं कायकम्मं पच्चुपट्ठितं होति सब्रह्मचारीसु आवि चेव रहो च, न मेत्तं वचीकम्मं…पे… न मेत्तं मनोकम्मं पच्चुपट्ठितं होति सब्रह्मचारीसु आवि चेव रहो च. अथ किञ्चरहि तुम्हे, मोघपुरिसा, किं जानन्ता किं पस्सन्ता भण्डनजाता कलहजाता विवादापन्ना अञ्ञमञ्ञं मुखसत्तीहि वितुदन्ता विहरथ, ते न चेव अञ्ञमञ्ञं सञ्ञापेथ, न च सञ्ञत्तिं उपेथ, न च अञ्ञमञ्ञं निज्झापेथ, न च निज्झत्तिं उपेथ ? तञ्हि तुम्हाकं, मोघपुरिसा, भविस्सति दीघरत्तं अहिताय दुक्खाया’’ति.
४९२. अथ खो भगवा भिक्खू आमन्तेसि – ‘‘छयिमे, भिक्खवे, धम्मा सारणीया पियकरणा गरुकरणा सङ्गहाय अविवादाय सामग्गिया एकीभावाय संवत्तन्ति. कतमे छ? इध, भिक्खवे, भिक्खुनो मेत्तं कायकम्मं पच्चुपट्ठितं होति सब्रह्मचारीसु आवि चेव रहो च. अयम्पि धम्मो सारणीयो पियकरणो गरुकरणो सङ्गहाय अविवादाय सामग्गिया एकीभावाय संवत्तति.
‘‘पुन चपरं, भिक्खवे, भिक्खुनो मेत्तं वचीकम्मं पच्चुपट्ठितं होति सब्रह्मचारीसु आवि चेव रहो च. अयम्पि धम्मो सारणीयो पियकरणो गरुकरणो सङ्गहाय अविवादाय सामग्गिया एकिभावाय संवत्तति.
‘‘पुन चपरं, भिक्खवे, भिक्खुनो मेत्तं मनोकम्मं पच्चुपट्ठितं होति सब्रह्मचारीसु आवि चेव रहो च. अयम्पि धम्मो सारणीयो पियकरणो गरुकरणो सङ्गहाय अविवादाय सामग्गिया एकीभावाय संवत्तति.
‘‘पुन चपरं, भिक्खवे, भिक्खु ये ते लाभा धम्मिका धम्मलद्धा अन्तमसो पत्तपरियापन्नमत्तम्पि, तथारूपेहि लाभेहि अप्पटिविभत्तभोगी होति सीलवन्तेहि सब्रह्मचारीहि साधारणभोगी. अयम्पि धम्मो सारणीयो पियकरणो गरुकरणो सङ्गहाय अविवादाय सामग्गिया एकीभावाय संवत्तति.
‘‘पुन चपरं, भिक्खवे, भिक्खु यानि तानि सीलानि अखण्डानि अच्छिद्दानि असबलानि अकम्मासानि भुजिस्सानि विञ्ञुप्पसत्थानि अपरामट्ठानि समाधिसंवत्तनिकानि तथारूपेसु सीलेसु सीलसामञ्ञगतो विहरति सब्रह्मचारीहि आवि चेव रहो च. अयम्पि धम्मो सारणीयो पियकरणो गरुकरणो सङ्गहाय अविवादाय सामग्गिया एकीभावाय संवत्तति.
‘‘पुन चपरं, भिक्खवे, भिक्खु यायं दिट्ठि अरिया निय्यानिका निय्याति तक्करस्स सम्मा दुक्खक्खयाय तथारूपाय दिट्ठिया दिट्ठिसामञ्ञगतो विहरति सब्रह्मचारीहि आवि चेव रहो च. अयम्पि धम्मो सारणीयो पियकरणो गरुकरणो सङ्गहाय अविवादाय सामग्गिया एकीभावाय संवत्तति.
‘‘इमे खो, भिक्खवे, छ सारणीया धम्मा पियकरणा गरुकरणा सङ्गहाय अविवादाय सामग्गिया एकीभावाय संवत्तन्ति. इमेसं खो, भिक्खवे, छन्नं सारणीयानं धम्मानं एतं अग्गं एतं सङ्गाहिकं [सङ्गाहकं (?)] एतं सङ्घाटनिकं – यदिदं यायं दिट्ठि अरिया निय्यानिका निय्याति तक्करस्स सम्मा दुक्खक्खयाय. सेय्यथापि, भिक्खवे, कूटागारस्स एतं अग्गं एतं सङ्गाहिकं एतं सङ्घाटनिकं यदिदं कूटं; एवमेव खो, भिक्खवे , इमेसं छन्नं सारणीयानं धम्मानं एतं अग्गं एतं सङ्गाहिकं एतं सङ्घाटनिकं यदिदं यायं दिट्ठि अरिया निय्यानिका निय्याति तक्करस्स सम्मा दुक्खक्खयाय.
४९३. ‘‘कथञ्च, भिक्खवे, यायं दिट्ठि अरिया निय्यानिका निय्याति तक्करस्स सम्मा दुक्खक्खयाय? इध, भिक्खवे, भिक्खु अरञ्ञगतो वा रुक्खमूलगतो वा सुञ्ञागारगतो वा इति पटिसञ्चिक्खति – ‘अत्थि नु खो मे तं परियुट्ठानं अज्झत्तं अप्पहीनं, येनाहं परियुट्ठानेन परियुट्ठितचित्तो यथाभूतं नप्पजानेय्यं न पस्सेय्य’न्ति? सचे, भिक्खवे, भिक्खु कामरागपरियुट्ठितो होति, परियुट्ठितचित्तोव होति. सचे, भिक्खवे, भिक्खु ब्यापादपरियुट्ठितो होति, परियुट्ठितचित्तोव होति. सचे, भिक्खवे, भिक्खु थीनमिद्धपरियुट्ठितो होति, परियुट्ठितचित्तोव होति. सचे, भिक्खवे, भिक्खु उद्धच्चकुक्कुच्चपरियुट्ठितो होति, परियुट्ठितचित्तोव होति. सचे, भिक्खवे, भिक्खु विचिकिच्छापरियुट्ठितो होति, परियुट्ठितचित्तोव होति. सचे, भिक्खवे, भिक्खु इधलोकचिन्ताय पसुतो होति, परियुट्ठितचित्तोव होति. सचे, भिक्खवे, भिक्खु परलोकचिन्ताय पसुतो होति, परियुट्ठितचित्तोव होति. सचे, भिक्खवे, भिक्खु भण्डनजातो कलहजातो विवादापन्नो अञ्ञमञ्ञं मुखसत्तीहि वितुदन्तो विहरति, परियुट्ठितचित्तोव होति . सो एवं पजानाति – ‘नत्थि खो मे तं परियुट्ठानं अज्झत्तं अप्पहीनं, येनाहं परियुट्ठानेन परियुट्ठितचित्तो यथाभूतं नप्पजानेय्यं न पस्सेय्यं. सुप्पणिहितं मे मानसं सच्चानं बोधाया’ति. इदमस्स पठमं ञाणं अधिगतं होति अरियं लोकुत्तरं असाधारणं पुथुज्जनेहि.
४९४. ‘‘पुन चपरं, भिक्खवे, अरियसावको इति पटिसञ्चिक्खति – ‘इमं नु खो अहं दिट्ठिं आसेवन्तो भावेन्तो बहुलीकरोन्तो लभामि पच्चत्तं समथं, लभामि पच्चत्तं निब्बुति’न्ति? सो एवं पजानाति – ‘इमं खो अहं दिट्ठिं आसेवन्तो भावेन्तो बहुलीकरोन्तो लभामि पच्चत्तं समथं, लभामि पच्चत्तं निब्बुति’न्ति. इदमस्स दुतियं ञाणं अधिगतं होति अरियं लोकुत्तरं असाधारणं पुथुज्जनेहि.
४९५. ‘‘पुन चपरं, भिक्खवे, अरियसावको इति पटिसञ्चिक्खति – ‘यथा रूपायाहं दिट्ठिया समन्नागतो, अत्थि नु खो इतो बहिद्धा अञ्ञो समणो वा ब्राह्मणो वा तथारूपाय दिट्ठिया समन्नागतो’ति? सो एवं पजानाति – ‘यथारूपायाहं दिट्ठिया समन्नागतो, नत्थि इतो बहिद्धा अञ्ञो समणो वा ब्राह्मणो वा तथारूपाय दिट्ठिया समन्नागतो’ति. इदमस्स ततियं ञाणं अधिगतं होति अरियं लोकुत्तरं असाधारणं पुथुज्जनेहि.
४९६. ‘‘पुन चपरं, भिक्खवे, अरियसावको इति पटिसञ्चिक्खति – ‘यथारूपाय धम्मताय दिट्ठिसम्पन्नो पुग्गलो समन्नागतो, अहम्पि तथारूपाय धम्मताय समन्नागतो’ति. कथंरूपाय च, भिक्खवे, धम्मताय दिट्ठिसम्पन्नो पुग्गलो समन्नागतो? धम्मता एसा, भिक्खवे, दिट्ठिसम्पन्नस्स पुग्गलस्स – ‘किञ्चापि तथारूपिं आपत्तिं आपज्जति, यथारूपाय आपत्तिया वुट्ठानं पञ्ञायति, अथ खो नं खिप्पमेव सत्थरि वा विञ्ञूसु वा सब्रह्मचारीसु देसेति विवरति उत्तानीकरोति; देसेत्वा विवरित्वा उत्तानीकत्वा आयतिं संवरं आपज्जति’. सेय्यथापि, भिक्खवे, दहरो कुमारो मन्दो उत्तानसेय्यको हत्थेन वा पादेन वा अङ्गारं अक्कमित्वा खिप्पमेव पटिसंहरति; एवमेव खो, भिक्खवे, धम्मता एसा दिट्ठिसम्पन्नस्स पुग्गलस्स – ‘किञ्चापि तथारूपिं आपत्तिं आपज्जति यथारूपाय आपत्तिया वुट्ठानं पञ्ञायति, अथ खो नं खिप्पमेव सत्थरि वा विञ्ञूसु वा सब्रह्मचारीसु देसेति विवरति उत्तानीकरोति; देसेत्वा विवरित्वा उत्तानीकत्वा आयतिं संवरं आपज्जति’. सो एवं पजानाति – ‘यथारूपाय धम्मताय दिट्ठिसम्पन्नो पुग्गलो समन्नागतो, अहम्पि तथारूपाय धम्मताय समन्नागतो’ति. इदमस्स चतुत्थं ञाणं अधिगतं होति अरियं लोकुत्तरं असाधारणं पुथुज्जनेहि.
४९७. ‘‘पुन चपरं, भिक्खवे, अरियसावको इति पटिसञ्चिक्खति – ‘यथारूपाय धम्मताय दिट्ठिसम्पन्नो पुग्गलो समन्नागतो, अहम्पि तथारूपाय धम्मताय समन्नागतो’ति. कथंरूपाय च, भिक्खवे, धम्मताय दिट्ठिसम्पन्नो पुग्गलो समन्नागतो? धम्मता एसा, भिक्खवे, दिट्ठिसम्पन्नस्स पुग्गलस्स – ‘किञ्चापि यानि तानि सब्रह्मचारीनं उच्चावचानि किंकरणीयानि तत्थ उस्सुक्कं आपन्नो होति, अथ ख्वास्स तिब्बापेक्खा होति अधिसीलसिक्खाय अधिचित्तसिक्खाय अधिपञ्ञासिक्खाय’. सेय्यथापि, भिक्खवे, गावी तरुणवच्छा थम्बञ्च आलुम्पति वच्छकञ्च अपचिनति; एवमेव खो, भिक्खवे , धम्मता एसा दिट्ठिसम्पन्नस्स पुग्गलस्स – ‘किञ्चापि यानि तानि सब्रह्मचारीनं उच्चावचानि किंकरणीयानि तत्थ उस्सुक्कं आपन्नो होति, अथ ख्वास्स तिब्बापेक्खा होति अधिसीलसिक्खाय अधिचित्तसिक्खाय अधिपञ्ञासिक्खाय’. सो एवं पजानाति – ‘यथारूपाय धम्मताय दिट्ठिसम्पन्नो पुग्गलो समन्नागतो, अहम्पि तथारूपाय धम्मताय समन्नागतो’ति. इदमस्स पञ्चमं ञाणं अधिगतं होति अरियं लोकुत्तरं असाधारणं पुथुज्जनेहि.
४९८. ‘‘पुन चपरं, भिक्खवे, अरियसावको इति पटिसञ्चिक्खति – ‘यथारूपाय बलताय दिट्ठिसम्पन्नो पुग्गलो समन्नागतो, अहम्पि तथारूपाय बलताय समन्नागतो’ति. कथंरूपाय च, भिक्खवे, बलताय दिट्ठिसम्पन्नो पुग्गलो समन्नागतो? बलता एसा, भिक्खवे, दिट्ठिसम्पन्नस्स पुग्गलस्स यं तथागतप्पवेदिते धम्मविनये देसियमाने अट्ठिंकत्वा मनसिकत्वा सब्बचेतसा [सब्बचेतसो (सी. स्या. कं. पी.), सब्बं चेतसा (क.)] समन्नाहरित्वा ओहितसोतो धम्मं सुणाति. सो एवं पजानाति – ‘यथारूपाय बलताय दिट्ठिसम्पन्नो पुग्गलो समन्नागतो, अहम्पि तथारूपाय बलताय समन्नागतो’ति. इदमस्स छट्ठं ञाणं अधिगतं होति अरियं लोकुत्तरं असाधारणं पुथुज्जनेहि.
४९९. ‘‘पुन चपरं, भिक्खवे, अरियसावको इति पटिसञ्चिक्खति – ‘यथारूपाय बलताय दिट्ठिसम्पन्नो पुग्गलो समन्नागतो, अहम्पि तथारूपाय बलताय समन्नागतो’ति. कथंरूपाय च, भिक्खवे, बलताय दिट्ठिसम्पन्नो पुग्गलो समन्नागतो? बलता एसा, भिक्खवे, दिट्ठिसम्पन्नस्स पुग्गलस्स यं तथागतप्पवेदिते धम्मविनये देसियमाने लभति अत्थवेदं, लभति धम्मवेदं, लभति धम्मूपसंहितं पामोज्जं. सो एवं पजानाति – ‘यथारूपाय बलताय दिट्ठिसम्पन्नो पुग्गलो समन्नागतो, अहम्पि तथारूपाय बलताय समन्नागतो’ति. इदमस्स सत्तमं ञाणं अधिगतं होति अरियं लोकुत्तरं असाधारणं पुथुज्जनेहि.
५००. ‘‘एवं सत्तङ्गसमन्नागतस्स खो, भिक्खवे, अरियसावकस्स धम्मता सुसमन्निट्ठा होति सोतापत्तिफलसच्छिकिरियाय. एवं सत्तङ्गसमन्नागतो खो, भिक्खवे, अरियसावको सोतापत्तिफलसमन्नागतो होती’’ति.
इदमवोच भगवा. अत्तमना ते भिक्खू भगवतो भासितं अभिनन्दुन्ति.
कोसम्बियसुत्तं निट्ठितं अट्ठमं.