ऐसा मैंने सुना — एक समय भगवान श्रावस्ती में अनाथपिण्डक के जेतवन उद्यान में विहार कर रहे थे। वहाँ भगवान ने भिक्षुओं से कहा, “भिक्षुओं!"
“भदंत”, भिक्षुओं ने भगवान को उत्तर दिया।
भगवान ने कहा —
“एक समय, भिक्षुओं, मैं उकट्ठ के सुभग-वन में शालराज (वृक्ष) के तले विहार कर रहा था। उस समय बक ब्रह्म 1 को इस तरह की पापी मिथ्या धारणा उत्पन्न हुई थी — ‘यहीं नित्य है। यहीं ध्रुव है। यहीं शाश्वत है। यहीं पूर्ण है। यहीं गुजरने वाले स्वभाव का नहीं है। यहीं कोई जन्म नहीं लेता, जीर्ण नहीं होता, मरता नहीं, च्युत नहीं होता, पुनरुत्पन्न नहीं होता। और इसके परे और कोई निकास मार्ग नहीं है।’
तब, भिक्षुओं, मैंने अपने मानस से बक ब्रह्मा के चित्त के विचारों को जान लिया। और, जैसे कोई बलवान पुरुष अपनी समेटी हुई बाह को पसार दे, या पसारी हुई बाह को समेट ले, उसी तरह, मैं उकट्ठ के सुभग-वन में शालराज के तले से विलुप्त होकर ब्रह्मलोक में प्रकट हुआ।
बक ब्रह्मा ने, भिक्षुओं, मुझे दूर से आते देखा, और देखकर उसने कहा, “आईयें, महाशय। स्वागत है, महाशय। बहुत समय के बाद महाशय ने यहाँ आने का अवसर लिया। क्योंकि यहीं नित्य है। यहीं ध्रुव है। यहीं शाश्वत है। यहीं पूर्ण है। यहीं गुजरने वाले स्वभाव का नहीं है। यहीं कोई जन्म नहीं लेता, जीर्ण नहीं होता, मरता नहीं, च्युत नहीं होता, पुनरुत्पन्न नहीं होता। और इसके परे और कोई निकास मार्ग नहीं है।”
जब ऐसा कहा गया, भिक्षुओं, तो मैंने बक ब्रह्मा से कहा, “कितनी अविद्या में पड़े है बक ब्रह्मा! कितनी अविद्या में पड़े है बक ब्रह्मा! जो दरअसल अनित्य है उसे वे ‘नित्य’ पुकारते है। जो दरअसल अध्रुव है उसे ‘ध्रुव’ पुकारते है। जो दरअसल अशाश्वत है उसे ‘शाश्वत’ पुकारते है। जो दरअसल अपूर्ण है उसे ‘पूर्ण’ पुकारते है। जो दरअसल गुजरने वाले स्वभाव का है उसे कहते है कि ‘वह गुजरने वाले स्वभाव का नहीं है।’ जहाँ दरअसल कोई जन्म लेता है, जीर्ण होता है, मरता है, च्युत होता है, पुनरुत्पन्न होता है, उसके बारे में वे कहते है कि ‘यहीं कोई जन्म नहीं लेता, जीर्ण नहीं होता, मरता नहीं, च्युत नहीं होता, पुनरुत्पन्न नहीं होता।’ और जिसके परे निकास मार्ग है, उसके बारे में वे कहते है कि ‘इसके परे और कोई निकास मार्ग नहीं है।’”
तब, भिक्षुओं, पापी मार ने ब्रह्म परिषद के किसी सदस्य को वशीभूत कर मुझे कहा, “भिक्षु! भिक्षु! इन पर हमला मत करो! इन पर हमला मत करो! क्योंकि ये ही, भिक्षु, ब्रह्मा हैं, महाब्रह्मा हैं, विजेता हैं, अजेय हैं, सर्वदृष्टा हैं, वशवर्ती हैं, ईश्वर हैं, कर्ता हैं, निर्माता हैं, श्रेष्ठ हैं, नियुक्तकर्ता हैं, शासक हैं, आ चुके या आने वाले सभी के पिता हैं! 2
तुमसे पहले भी, भिक्षु, ऐसे श्रमण-ब्राह्मण हुआ करते थे, जो इस लोक के —
— वे काया टूटने पर, प्राण छूटने पर 7 हीन काया (=निचले लोक) में प्रतिष्ठित हुए।
किन्तु, भिक्षु, तुमसे पहले भी ऐसे श्रमण-ब्राह्मण हुआ करते थे, जो इस लोक के —
— वे काया टूटने पर, प्राण छूटने पर उत्तम काया (ऊँचे लोक) में प्रतिष्ठित हुए।
इसलिए, भिक्षु, मैं तुम्हें कहता हूँ, “कृपा कर, महाशय, जैसे ब्रह्मा कहता है, वैसा ही करो। ब्रह्मा के शब्दों की अवहेलना मत करो।” और यदि, भिक्षु, तुम ब्रह्मा के शब्दों की अवहेलनाकरते हो, तो जैसे कोई पुरुष भाग्यश्री (=भाग्य लाने वाली देवी, आज की लक्ष्मी) के आने पर उसे डंडे से भगाता है, या जैसे कोई पुरुष नारक की खाईं में गिरकर, हाथ और पैर से पृथ्वी का आधार खो दर्ता है वही, भिक्षु, तुम्हारा भी हश्र होगा।
इसलिए, महाशय, कृपा कर जैसे ब्रह्मा कहता है, वैसा ही करो। ब्रह्मा के शब्दों की अवहेलना मत करो। क्या तुम्हें, भिक्षु, यहाँ ब्रह्म परिषद इकट्ठा हुई दिखाई नहीं देती?’ और, भिक्षुओं, तब पापी मार ने मेरे आगे ब्रह्म परिषद को प्रस्तुत किया।
ऐसा कहे जाने पर, भिक्षुओं, मैंने पापी मार से कहा, “मैं तुम्हें जानता हूँ, पापी। ऐसा मत समझो कि ‘यह मुझे नहीं जानता।’ तुम मार हो, पापी। और ये ब्रह्मा, यह ब्रह्म परिषद, ये ब्रह्म सभासद, सभी को तुमने हस्तगत किया है, सभी को तुमने वशीभूत किया है। और, पापी, तुम्हें लगता है, ‘इसे भी मैंने हस्तगत किया है, इसे भी मैंने वशीभूत किया है।’ किन्तु, पापी, मैं तुम्हारे हस्तगत नहीं हुआ, मैं तुम्हारे वशीभूत नहीं हुआ।”
जब ऐसा कहा गया, भिक्षुओं, तब बक ब्रह्मा ने मुझसे कहा, “किन्तु, महाशय, जो दरअसल नित्य है उसे ही मैं ‘नित्य’ पुकारता हूँ। जो ध्रुव है उसे ही मैं ‘ध्रुव’ पुकारता हूँ। जो शाश्वत है उसे ही मैं ‘शाश्वत’ पुकारता हूँ। जो पूर्ण है उसे ही मैं ‘पूर्ण’ पुकारता हूँ। जो गुजरने वाले स्वभाव का नहीं है, उसे ही मैं कहता हूँ कि ‘वह गुजरने वाले स्वभाव का नहीं है।’ जहाँ दरअसल कोई जन्म नहीं लेता है, जीर्ण नहीं होता है, मरता नहीं है, च्युत नहीं होता है, पुनरुत्पन्न नहीं होता है, उसी के बारे में मैं कहता हूँ कि ‘यहीं कोई जन्म नहीं लेता, जीर्ण नहीं होता, मरता नहीं, च्युत नहीं होता, पुनरुत्पन्न नहीं होता।’ और जिसके परे निकास मार्ग नहीं है, उसी के बारे में मैं कहता हूँ कि ‘इसके परे और कोई निकास मार्ग नहीं है।’
और, भिक्षु, तुमसे पहले भी इस लोक में ऐसे श्रमण-ब्राह्मण हुआ करते थे, जिन्होंने तुम्हारे संपूर्ण जीवनकाल की अवधि तक तपश्चर्या की। उन्हें इससे आगे निकास मार्ग (संभव) होने पर पता चला कि ‘आगे निकास मार्ग (उपलब्ध) है।’ और आगे का निकास मार्ग न होने पर पता चला कि ‘आगे निकास मार्ग नहीं है।’ इसलिए, भिक्षु, मैं तुम्हें कहता हूँ कि ‘तुम्हें इससे आगे निकास मार्ग कभी दिखायी नहीं देगा। और अंततः तुम थकान और परेशानी के भागी होंगे।’
यदि, भिक्षु, तुम —
“यह मैं भी जानता हूँ, ब्रह्मा, कि यदि मैं —
“किन्तु, महाशय, भला तुम किस तरह मेरे गति को समझते हो, मेरे प्रताप को समझते हो कि ‘बक ब्रह्मा इतना ऋद्धिमानी है! बक ब्रह्मा इतना शक्तिशाली है! बक ब्रह्मा इतना प्रभावशाली है!’?”
इस तरह, ब्रह्मा, मैं तुम्हारी गति को समझता हूँ, तुम्हारे प्रताप को समझता हूँ कि ‘बक ब्रह्मा इतना ऋद्धिमानी है! बक ब्रह्मा इतना शक्तिशाली है! बक ब्रह्मा इतना प्रभावशाली है!’ किन्तु, ब्रह्मा, ऐसे दूसरे देव समूह हैं, जिन्हें तुम नहीं जानते, नहीं देखते, जिन्हें मैं जानता हूँ और मैं देखता हूँ।
आभास्सर 8 नामक देव-काया (=देव अवस्था) है, ब्रह्मा, जहाँ से तुम च्युत होकर यहाँ उत्पन्न हुए हो। यहाँ बहुत लंबे समय तक निवास करने से तुम्हारी स्मृति धुँधली पड़ चुकी है, इसलिए अब तुम उसे जानते नहीं हो, देखते नहीं हो। उसे मैं जानता हूँ, मैं देखता हूँ। इस तरह, ब्रह्मा, मैं अभिज्ञता (=प्रत्यक्ष ज्ञान) में तुम्हारे बराबर नहीं हूँ। तुमसे हीन कैसे हूँ? दरअसल, मैं तुमसे बेहतर हूँ।
ब्रह्मा, शुभकृष्ण 9 नामक देव-काया है, वेहप्पफल 10 नामक देव-काया है, अभिभू 11 नामक देव-काया है। उन अवस्थाओं को तुम जानते नहीं हो, देखते नहीं हो। उसे मैं जानता हूँ, मैं देखता हूँ। इस तरह, ब्रह्मा, मैं अभिज्ञता में तुम्हारे बराबर नहीं हूँ। तुमसे हीन कैसे हूँ? दरअसल, मैं तुमसे बेहतर हूँ।
“यदि, महाशय, आप ने उसे भी जान लिया, जिसकी सब कुछ की सर्वता से अनुभूति नहीं की जाती, तब आपका दावा खोखला और तुच्छ न हो।’
यही है, जिसकी पृथ्वी की पृथ्विता से अनुभूति नहीं की जाती, जल की जलता से अनुभूति नहीं की जाती, अग्नि की अग्निता से अनुभूति नहीं की जाती, वायु की वायुता से अनुभूति नहीं की जाती, जीव की जीवितता से अनुभूति नहीं की जाती, देवताओं की दैवत्वता से अनुभूति नहीं की जाती, प्रजापति की प्रजापतिता से अनुभूति नहीं की जाती, ब्रह्म की ब्रह्मता से अनुभूति नहीं की जाती, आभास्वर की आभास्वरता से अनुभूति नहीं की जाती, शुभकृष्ण की शुभकृष्णता से अनुभूति नहीं की जाती, वेहपफल की वेहपफलता से अनुभूति नहीं की जाती, अभिभू की अभिभूतता से अनुभूति नहीं की जाती, सब कुछ की सर्वता से अनुभूति नहीं की जाती। ठीक है, देखिये, महाशय, मैं तुमसे विलुप्त होता हूँ।”
“ठीक है, ब्रह्मा, मुझसे विलुप्त होकर दिखाओं — यदि हो सको तो।”
तब, भिक्षुओं, बक ब्रह्मा ने “मैं श्रमण गौतम से विलुप्त होऊंगा! मैं श्रमण गौतम से विलुप्त होऊंगा”, कहते हुए मुझसे विलुप्त नहीं हो पाया। जब ऐसा कहा गया, भिक्षुओं, तब बक ब्रह्मा ने मुझसे कहा, “ठीक है, ब्रह्मा, अब मैं तुमसे विलुप्त होता हूँ।”
“ठीक है, महाशय, मुझसे विलुप्त होकर दिखाओं — यदि हो सको तो।”
तब, भिक्षुओं, मैंने ऋद्धिबल से ऐसी रचना की कि मेरी आवाज ब्रह्मा, ब्रह्म-परिषद और ब्रह्म सभासद तक फैली, किन्तु वे मुझसे देख न सकें। उनसे विलुप्त होकर मैंने यह गाथा कही —
तब, भिक्षुओं, ब्रह्मा, ब्रह्म परिषद और ब्रह्म सभासद में चकित और अचंभित चित्त जागा, ‘आश्चर्य है, श्रीमान! अद्भुत है, श्रीमान, श्रमण गौतम की महाऋद्धि और महाप्रताप! हमने पहले किसी श्रमण-ब्राह्मण को इतना महाऋद्धिमानी, इतना महाप्रतापी न देखा, न सुना ही, जितना शाक्यपुत्र श्रमण गौतम हैं, जो शाक्यकुल से प्रवज्ज्यित हुए है! भले ही जनता भव में रमती हो, भव में रत रहती हो, भव में ही प्रसन्न रहती है, श्रीमान ने उसे जड़ से उखाड़ दिया!’
तभी, भिक्षुओं, पापी मार ने (पुनः) किसी ब्रह्म सभासद को वशीभूत कर मुझसे कहा, “महाशय, यदि आप इतना समझ चुके हैं, इतना बोध कर चुके हैं, तो किसी श्रावक या प्रवज्ज्यित का मार्गदर्शन मत करिए! किसी श्रावक या प्रवज्ज्यित को धर्म मत बताईये! किसी श्रावक या प्रवज्ज्यित की इच्छा मत रखिए!
तुमसे पहले भी, भिक्षु, इस लोक में ऐसे श्रमण-ब्राह्मण हुआ करते थे, जो अरहंत सम्यक-सम्बुद्ध होने का दावा करते थे। उन्होंने श्रावक और प्रवज्ज्यितों का मार्गदर्शन किया, श्रावक और प्रवज्ज्यितों को धर्म बताया, श्रावक और प्रवज्ज्यितों की इच्छा रखी, और वे मरणोपरांत काया छूटने पर हीन लोक में जाकर प्रतिष्ठित हुए।
किन्तु, भिक्षु, तुमसे पहले इस लोक में ऐसे श्रमण-ब्राह्मण हुआ करते थे, जो अरहंत सम्यक-सम्बुद्ध होने का दावा करते थे। उन्होंने श्रावक और प्रवज्ज्यितों का मार्गदर्शन नहीं किया, श्रावक और प्रवज्ज्यितों को धर्म नहीं बताया, श्रावक और प्रवज्ज्यितों की इच्छा नहीं रखी, और वे मरणोपरांत काया छूटने पर उत्तम लोक में जाकर प्रतिष्ठित हुए।
इसलिए, भिक्षु, मैं तुमसे कहता हूँ — कृपा कर महाशय अल्प-उत्सुकता (=निष्क्रियता) और इस जीवन में सुख-विहार के प्रति संकल्पबद्ध होकर विहार करें! क्योंकि, महाशय, (धर्म) को उजागर न करना और दूसरों को निर्देश न देना ही कुशल होगा!”
जब ऐसा कहा गया, भिक्षुओं, तो मैंने उस पापी मार से कहा, “मैं तुम्हें जानता हूँ, पापी। ऐसा मत समझो कि ‘यह मुझे नहीं जानता।’ तुम मार हो, पापी। और पापी, तुम हितचिंतक होकर नहीं बोल रहे हो! बल्कि, तुम अहितचिंतक होकर बोल रहे हो! क्योंकि तुम्हें लगता है, पापी, कि ‘यह श्रमण गौतम जिसे धर्म बताएगा, वह मेरे पहुँच से दूर चला जाएगा!’
और, पापी, तुम्हारे श्रमणों ने सम्यक-सम्बुद्ध न होकर सम्यक-सम्बुद्ध होने का दावा किया था। किन्तु, पापी, मैं सम्यक-सम्बुद्ध होकर सम्यक-सम्बुद्ध होने का दावा करता हूँ। और, पापी, तथागत चाहे श्रावकों को धर्म बताए या न बताए, वे उसी तरह रहते हैं। तथागत चाहे श्रावकों को मार्गदर्शित करें या न करें, वे उसी तरह रहते हैं।
ऐसा क्यों? क्योंकि, पापी, जो मटमैला करते आस्रव होते हैं, जो पुनर्भव कराते हैं, कष्टप्रद हैं, दुःख परिणामी हैं, और जन्म-बुढ़ापा-मौत लाते हैं — तथागत उन्हें त्याग देते हैं, जड़ से उखाड़ देते हैं, ताड़ के ठूँठ जैसे बना देते हैं, अस्तित्व से मिटा देते हैं, ताकि वे कभी पुनरुत्पन्न न हो।
जैसे, पापी, किसी ताड़-वृक्ष का सिरा छांट देने पर वह पुनः नहीं उगता। उसी तरह, पापी, जो मटमैला करते आस्रव होते हैं, जो पुनर्भव कराते हैं, कष्टप्रद हैं, दुःख परिणामी हैं, और जन्म-बुढ़ापा-मौत लाते हैं — तथागत उन्हें त्याग देते हैं, जड़ से उखाड़ देते हैं, ताड़ के ठूँठ जैसे बना देते हैं, अस्तित्व से मिटा देते हैं, ताकि वे कभी पुनरुत्पन्न न हो।”
इस तरह, मार को चुप करा देने और ब्रह्मा के निमंत्रण के कारण, इस सूत्र को ‘ब्रह्म निमंत्रण’ पुकारा गया।
बक ब्रह्म — ‘बक’ शब्द का सामान्य अर्थ ‘सारस’ पक्षी है, जो अपनी सुंदरता और पवित्रता के लिए जाना जाता है। हालांकि, यह प्रतीत होता है कि प्राचीन काल में ‘बक’ एक प्रसिद्ध ब्रह्म देवता के रूप में पूजित था। तथापि, आज ब्राह्मणी वेदों में इस ब्रह्मा का कोई स्पष्ट उल्लेख नहीं मिलता है, और समय के साथ शायद इसे धार्मिक परंपराओं से हटा दिया गया। हालांकि, महाभारत में ‘बक’ नामक असुर का उल्लेख मिलता है, जो अपनी अंधी भूख के कारण प्रसिद्ध हुआ। वह बकासुर प्रतिदिन एक मानव की बलि माँगता था, और अंततः उसकी मृत्यु भीम के हाथों हुई, जो स्वयं भी अंधी भूख से त्रस्त थे, जिसकी वजह से उन्हें भी नर्क जाना पड़ा। ↩︎
कोई भगवान को ‘भिक्षु’ कहते हुए पुकारे, यह बहुत ही दुर्लभ है। लेकिन यहाँ पापी मार छिपे सूक्ष्म अंदाज में मान गिराकर बात करता है। साथ ही वह महाब्रह्मा के ईश्वर होने के दावे को बढ़ा-चढ़ाकर पेश करता है, ताकि बक ब्रह्मा की मिथ्यादृष्टि को आँच न आए। ↩︎
भूत का शाब्दिक अर्थ है, ‘जो हो चुका है’ या ‘जो अस्तित्व में आया है’। इससे यह संकेत मिलता है कि यह शब्द मूलतः अस्तित्व या घटित सत्ता की ओर इशारा करता है — चाहे वह दृश्य हो या अदृश्य। इसलिए भूत को मैंने साधारणतः ‘जीव’ के तौर पर अनुवाद किया है। अर्थात, यह वर्ग उन सजीवों को दर्शाता है जो देवताओं से निम्न स्तर पर माने जाते हैं, चाहे वे दृश्य हों या अदृश्य। उदाहरण स्वरूप, मनुष्य, पशु-पक्षी, वनस्पति, और विभिन्न प्रेतात्माएँ, ये सभी ‘भूत’ की श्रेणी में आते हैं। ↩︎
देवताओं से यहाँ अर्थ है, कामलोक के छह देवतागण। जैसे, चार महाराज देवता (यक्ष, गन्धब्ब, नाग, कुंभण्ड), तैतीस देवता, याम देवता, तुषित देवता, निर्माणरति देवता, और परनिर्मित वशवर्ती देवतागण। ↩︎
प्रजापति ब्राह्मणी शास्त्रों के अनुसार ऐसे देव होते हैं, जो सब स्वयं से उत्पन्न करते हैं। शतपथब्राह्मण ६ के अनुसार प्रजापति के तप से ही दुनिया की निर्मिति हुई। ऋग्वेद १०.८५.३ में आता है, “प्रजापति हमारी भावी पीढ़ियों को जन्म दें!” ↩︎
ब्रह्मा को ब्राह्मण इस दुनिया का प्रमुख और सर्वोच्च ईश्वर मानते हैं, जिसके तथाकथित दिव्यशक्ति से ही सम्पूर्ण दुनिया की रचना हुई है। लेकिन बुद्ध के अनुसार, ब्रह्मा भी अन्य सत्वों की तरह ही एक सत्व है, जो अपने कर्मों और ध्यान साधना की वजह से ब्रह्मलोक में रिक्त महल में उत्पन्न होता है। दरअसल, उसकी आयु और पुण्य खत्म होने पर, वह आभास्वर ब्रह्मलोक से नीचे पतित होता है। आगे चलकर ब्रह्म का पतन भी होता है, और वह अगले कल्पों में निचले लोक में जन्म लेता है। ब्रह्म के तथाकथित ज्ञान और उसकी सीमा जानने के लिए दीघनिकाय ११ पढ़ें। ↩︎
प्राण छूटने पर यह वाक्यांश पालि साहित्य में बिलकुल अनोखा है। ऐसा वाक्यांश अक्सर उपनिषद में पाया जाता है, पालि सूत्रों में नहीं। पालि में इसके बजाय “मरणोपरांत काया छूटने पर” उपयोग होता है। ↩︎
आभास्वर देवताओं का उल्लेख वेदों में नहीं मिलता, लेकिन उनका वर्णन बौद्ध ग्रंथों में प्रमुखता से हुआ। इसके पश्चात, ये देवता हिंदू पुराणों में भी स्थान पाने लगे। बौद्ध परंपरा में आभास्वर ब्रह्मलोक के उच्च देवताओं में गिने जाते हैं। कहा जाता है कि जब इन देवताओं का पुण्य क्षीण हो जाता है, तो वे नीचे के लोकों में—जैसे महाब्रह्मा लोक या उससे भी नीचे—पुनर्जन्म लेने लगते हैं। ब्रह्मजाल सुत्त में आंशिक-शाश्वतवाद का वर्णन इस संदर्भ में विशेष रूप से उल्लेखनीय है। ↩︎
शुभकृष्ण नाम उन ब्रह्म देवताओं को दिया गया है जो ध्यान-समाधि के प्रभाव से जन्म लेते हैं। इनका स्वरूप ‘सुंदर एवं प्रकाशमान’ अथवा ‘गहरे, शांत काले’ के रूप में वर्णित होता है। यह नाम शायद ध्यान की उस गहन अवस्था की ओर संकेत करता है जिसमें प्रकाश और अंधकार दोनों की सीमा मिट जाती है। ↩︎
वेहप्फल का अर्थ है — ‘अत्यंत फलदायी’। इन ब्रह्म देवताओं का उल्लेख प्राचीन वैदिक या ब्राह्मण ग्रंथों में नहीं मिलता, लेकिन बौद्ध साहित्य में इनका ज़िक्र मिलता है। संभवतः इन्हें ‘ब्रह्मा’ की एक विशेष श्रेणी का उच्चतम या दीर्घजीवी रूप माना गया है। नाम से प्रतीत होता है कि इनका कर्मफल अथवा पुण्य इतना महान होता है कि उसका प्रभाव अत्यंत व्यापक और दीर्घकालिक होता है। ↩︎
अभिभू का अर्थ होता है — ‘विजेता’, या ‘जो सब पर विजयी है’। कुछ सूत्रों में महाब्रह्मा या बकब्रह्मा जैसे देवताओं को स्वयं को ‘अभिभू’ कहने वाला बताया गया है, जो कि उनके अहंकार की ओर संकेत करता है। लेकिन तकनीकी रूप से ‘अभिभू’ उन्हें भी कहा जा सकता है जो वास्तविक रूप से पतनरहित अवस्था में पहुँच चुके हों — जैसे वे ब्रह्म देवता जो अनागामी स्तर के होते हैं और जिनका पुनर्जन्म अब संभव नहीं। ↩︎
यही दावा मज्झिमनिकाय १ में भी पाया जाता है। ↩︎
५०१. एवं मे सुतं – एकं समयं भगवा सावत्थियं विहरति जेतवने अनाथपिण्डिकस्स आरामे. तत्र खो भगवा भिक्खू आमन्तेसि – ‘‘भिक्खवो’’ति. ‘‘भदन्ते’’ति ते भिक्खू भगवतो पच्चस्सोसुं. भगवा एतदवोच –
‘‘एकमिदाहं, भिक्खवे, समयं उक्कट्ठायं विहरामि सुभगवने सालराजमूले. तेन खो पन, भिक्खवे, समयेन बकस्स ब्रह्मुनो एवरूपं पापकं दिट्ठिगतं उप्पन्नं होति – ‘इदं निच्चं, इदं धुवं, इदं सस्सतं, इदं केवलं, इदं अचवनधम्मं, इदञ्हि न जायति न जीयति न मीयति न चवति न उपपज्जति, इतो च पनञ्ञं उत्तरि निस्सरणं नत्थी’ति. अथ ख्वाहं, भिक्खवे, बकस्स ब्रह्मुनो चेतसा चेतोपरिवितक्कमञ्ञाय – सेय्यथापि नाम बलवा पुरिसो समिञ्जितं वा बाहं पसारेय्य, पसारितं वा बाहं समिञ्जेय्य, एवमेव – उक्कट्ठायं सुभगवने सालराजमूले अन्तरहितो तस्मिं ब्रह्मलोके पातुरहोसिं. अद्दसा खो मं, भिक्खवे, बको ब्रह्मा दूरतोव आगच्छन्तं; दिस्वान मं एतदवोच – ‘एहि खो, मारिस, स्वागतं, मारिस! चिरस्सं खो, मारिस, इमं परियायमकासि यदिदं इधागमनाय. इदञ्हि, मारिस, निच्चं, इदं धुवं, इदं सस्सतं, इदं केवलं, इदं अचवनधम्मं, इदञ्हि न जायति न जीयति न मीयति न चवति न उपपज्जति. इतो च पनञ्ञं उत्तरि निस्सरणं नत्थी’’’ति.
एवं वुत्ते, अहं, भिक्खवे, बकं ब्रह्मानं एतदवोचं – ‘‘अविज्जागतो वत, भो, बको ब्रह्मा; अविज्जागतो वत, भो, बको ब्रह्मा; यत्र हि नाम अनिच्चंयेव समानं निच्चन्ति वक्खति, अद्धुवंयेव समानं धुवन्ति वक्खति, असस्सतंयेव समानं सस्सतन्ति वक्खति, अकेवलंयेव समानं केवलन्ति वक्खति, चवनधम्मंयेव समानं अचवनधम्मन्ति वक्खति; यत्थ च पन जायति जीयति मीयति चवति उपपज्जति तञ्च वक्खति – ‘इदञ्हि न जायति न जीयति न मीयति न चवति न उपपज्जती’ति; सन्तञ्च पनञ्ञं उत्तरि निस्सरणं ‘नत्थञ्ञं उत्तरि निस्सरण’न्ति वक्खती’’ति.
५०२. ‘‘अथ खो, भिक्खवे, मारो पापिमा अञ्ञतरं ब्रह्मपारिसज्जं अन्वाविसित्वा मं एतदवोच – ‘भिक्खु, भिक्खु, मेतमासदो मेतमासदो, एसो हि, भिक्खु, ब्रह्मा महाब्रह्मा अभिभू अनभिभूतो अञ्ञदत्थुदसो वसवत्ती इस्सरो कत्ता निम्माता सेट्ठो सजिता [सज्जिता (स्या. कं. क.), सञ्जिता (सी. पी.)] वसी पिता भूतभब्यानं. अहेसुं खो ये, भिक्खु, तया पुब्बे समणब्राह्मणा लोकस्मिं पथवीगरहका पथवीजिगुच्छका, आपगरहका आपजिगुच्छका, तेजगरहका तेजजिगुच्छका, वायगरहका वायजिगुच्छका, भूतगरहका भूतजिगुच्छका, देवगरहका देवजिगुच्छका, पजापतिगरहका पजापतिजिगुच्छका, ब्रह्मगरहका ब्रह्मजिगुच्छका – ते कायस्स भेदा पाणुपच्छेदा हीने काये पतिट्ठिता अहेसुं. ये पन, भिक्खु, तया पुब्बे समणब्राह्मणा लोकस्मिं पथवीपसंसका पथवाभिनन्दिनो, आपपसंसका आपाभिनन्दिनो, तेजपसंसका तेजाभिनन्दिनो, वायपसंसका वायाभिनन्दिनो, भूतपसंसका भूताभिनन्दिनो, देवपसंसका देवाभिनन्दिनो, पजापतिपसंसका पजापताभिनन्दिनो, ब्रह्मपसंसका ब्रह्माभिनन्दिनो – ते कायस्स भेदा पाणुपच्छेदा पणीते काये पतिट्ठिता. तं ताहं, भिक्खु, एवं वदामि – ‘इङ्घ त्वं, मारिस, यदेव ते ब्रह्मा आह तदेव त्वं करोहि, मा त्वं ब्रह्मुनो वचनं उपातिवत्तित्थो’. सचे खो त्वं, भिक्खु, ब्रह्मुनो वचनं उपातिवत्तिस्ससि, सेय्यथापि नाम पुरिसो सिरिं आगच्छन्तिं दण्डेन पटिप्पणामेय्य, सेय्यथापि वा पन, भिक्खु, पुरिसो नरकप्पपाते पपतन्तो हत्थेहि च पादेहि च पथविं विराधेय्य, एवं सम्पदमिदं, भिक्खु, तुय्हं भविस्सति. ‘इङ्घं त्वं, मारिस, यदेव ते ब्रह्मा आह तदेव त्वं करोहि, मा त्वं ब्रह्मुनो वचनं उपातिवत्तित्थो. ननु त्वं, भिक्खु, पस्ससि ब्रह्मपरिसं सन्निपतित’न्ति? इति खो मं, भिक्खवे, मारो पापिमा ब्रह्मपरिसं उपनेसि.
‘‘एवं वुत्ते, अहं, भिक्खवे, मारं पापिमन्तं एतदवोचं – ‘जानामि खो ताहं, पापिम; मा त्वं मञ्ञित्थो – न मं जानाती’ति. मारो त्वमसि, पापिम. यो चेव, पापिम, ब्रह्मा, या च ब्रह्मपरिसा, ये च ब्रह्मपारिसज्जा, सब्बेव तव हत्थगता सब्बेव तव वसंगता. तुय्हञ्हि, पापिम, एवं होति – ‘एसोपि मे अस्स हत्थगतो, एसोपि मे अस्स वसंगतो’ति. अहं खो पन, पापिम, नेव तव हत्थगतो नेव तव वसंगतो’’ति.
५०३. ‘‘एवं वुत्ते, भिक्खवे, बको ब्रह्मा मं एतदवोच – ‘अहञ्हि, मारिस, निच्चंयेव समानं निच्चन्ति वदामि, धुवंयेव समानं धुवन्ति वदामि, सस्सतंयेव समानं सस्सतन्ति वदामि, केवलंयेव समानं केवलन्ति वदामि, अचवनधम्मंयेव समानं अचवनधम्म’न्ति वदामि, यत्थ च पन न जायति न जीयति न मीयति न चवति न उपपज्जति तदेवाहं वदामि – ‘इदञ्हि न जायति न जीयति न मीयति न चवति न उपपज्जती’ति. असन्तञ्च पनञ्ञं उत्तरि निस्सरणं ‘नत्थञ्ञं उत्तरि निस्सरण’न्ति वदामि. अहेसुं खो, भिक्खु, तया पुब्बे समणब्राह्मणा लोकस्मिं यावतकं तुय्हं कसिणं आयु तावतकं तेसं तपोकम्ममेव अहोसि. ते खो एवं जानेय्युं – ‘सन्तञ्च पनञ्ञं उत्तरि निस्सरणं अत्थञ्ञं उत्तरि निस्सरणन्ति, असन्तं वा अञ्ञं उत्तरि निस्सरणं नत्थञ्ञं उत्तरि निस्सरण’न्ति. तं ताहं, भिक्खु, एवं वदामि – ‘न चेवञ्ञं उत्तरि निस्सरणं दक्खिस्ससि, यावदेव च पन किलमथस्स विघातस्स भागी भविस्ससि. सचे खो त्वं, भिक्खु, पथविं अज्झोसिस्ससि, ओपसायिको मे भविस्ससि वत्थुसायिको, यथाकामकरणीयो बाहितेय्यो. सचे आपं… तेजं… वायं… भूते… देवे… पजापतिं… ब्रह्मं अज्झोसिस्ससि, ओपसायिको मे भविस्ससि वत्थुसायिको, यथाकामकरणीयो बाहितेय्यो’ति.
‘‘अहम्पि खो एवं, ब्रह्मे, जानामि – सचे पथविं अज्झोसिस्सामि, ओपसायिको ते भविस्सामि वत्थुसायिको, यथाकामकरणीयो बाहितेय्यो. ‘सचे आपं… तेजं… वायं… भूते… देवे… पजापतिं… ब्रह्मं अज्झोसिस्सामि, ओपसायिको ते भविस्सामि वत्थुसायिको, यथाकामकरणीयो बाहितेय्यो’ति अपि च ते अहं, ब्रह्मे, गतिञ्च पजानामि, जुतिञ्च पजानामि – एवं महिद्धिको बको ब्रह्मा, एवं महानुभावो बको ब्रह्मा, एवं महेसक्खो बको ब्रह्मा’’ति.
‘‘यथाकथं पन मे त्वं, मारिस, गतिञ्च पजानासि, जुतिञ्च पजानासि – ‘एवं महिद्धिको बको ब्रह्मा, एवं महानुभावो बको ब्रह्मा, एवं महेसक्खो बको ब्रह्मा’ति?
‘‘यावता चन्दिमसूरिया, परिहरन्ति दिसा भन्ति विरोचना;
ताव सहस्सधा लोको, एत्थ ते वत्तते [वत्तती (सी. स्या. कं. पी.)] वसो.
‘‘परोपरञ्च [परोवरञ्च (सी. पी.)] जानासि, अथो रागविरागिनं;
इत्थभावञ्ञथाभावं, सत्तानं आगतिं गति’’न्ति.
‘‘एवं खो ते अहं, ब्रह्मे, गतिञ्च पजानामि जुतिञ्च पजानामि – ‘एवं महिद्धिको बको ब्रह्मा, एवं महानुभावो बको ब्रह्मा, एवं महेसक्खो बको ब्रह्मा’ति.
५०४. ‘‘अत्थि खो, ब्रह्मे, अञ्ञो कायो, तं त्वं न जानासि न पस्ससि; तमहं जानामि पस्सामि. अत्थि खो, ब्रह्मे, आभस्सरा नाम कायो यतो त्वं चुतो इधूपपन्नो. तस्स ते अतिचिरनिवासेन सा सति पमुट्ठा, तेन तं त्वं न जानासि न पस्ससि; तमहं जानामि पस्सामि. एवम्पि खो अहं, ब्रह्मे, नेव ते समसमो अभिञ्ञाय, कुतो नीचेय्यं? अथ खो अहमेव तया भिय्यो. अत्थि खो, ब्रह्मे, सुभकिण्हो नाम कायो, वेहप्फलो नाम कायो, अभिभू नाम कायो, तं त्वं न जानासि न पस्ससि; तमहं जानामि पस्सामि. एवम्पि खो अहं, ब्रह्मे, नेव ते समसमो अभिञ्ञाय, कुतो नीचेय्यं? अथ खो अहमेव तया भिय्यो. पथविं खो अहं, ब्रह्मे, पथवितो अभिञ्ञाय यावता पथविया पथवत्तेन अननुभूतं तदभिञ्ञाय पथविं नापहोसिं, पथविया नापहोसिं, पथवितो नापहोसिं, पथविं मेति नापहोसिं, पथविं नाभिवदिं. एवम्पि खो अहं, ब्रह्मे, नेव ते समसमो अभिञ्ञाय, कुतो नीचेय्यं? अथ खो अहमेव तया भिय्यो. आपं खो अहं, ब्रह्मे…पे… तेजं खो अहं, ब्रह्मे…पे… वायं खो अहं, ब्रह्मे…पे… भूते खो अहं, ब्रह्मे…पे… देवे खो अहं, ब्रह्मे…पे… पजापतिं खो अहं, ब्रह्मे…पे… ब्रह्मं खो अहं, ब्रह्मे…पे… आभस्सरे खो अहं, ब्रह्मे…पे… सुभकिण्हे खो अहं, ब्रह्मे… …पे… वेहप्फले खो अहं, ब्रह्मे…पे… अभिभुं खो अहं, ब्रह्मे…पे… सब्बं खो अहं, ब्रह्मे, सब्बतो अभिञ्ञाय यावता सब्बस्स सब्बत्तेन अननुभूतं तदभिञ्ञाय सब्बं नापहोसिं सब्बस्मिं नापहोसिं सब्बतो नापहोसिं सब्बं मेति नापहोसिं, सब्बं नाभिवदिं. एवम्पि खो अहं, ब्रह्मे, नेव ते समसमो अभिञ्ञाय, कुतो नीचेय्यं? अथ खो अहमेव तया भिय्यो’’ति.
‘‘सचे खो, मारिस, सब्बस्स सब्बत्तेन अननुभूतं, तदभिञ्ञाय मा हेव ते रित्तकमेव अहोसि, तुच्छकमेव अहोसी’’ति .
‘‘‘विञ्ञाणं अनिदस्सनं अनन्तं सब्बतो पभं’, तं पथविया पथवत्तेन अननुभूतं, आपस्स आपत्तेन अननुभूतं, तेजस्स तेजत्तेन अननुभूतं, वायस्स वायत्तेन अननुभूतं, भूतानं भूतत्तेन अननुभूतं, देवानं देवत्तेन अननुभूतं, पजापतिस्स पजापतित्तेन अननुभूतं, ब्रह्मानं ब्रह्मत्तेन अननुभूतं, आभस्सरानं आभस्सरत्तेन अननुभूतं, सुभकिण्हानं सुभकिण्हत्तेन अननुभूतं, वेहप्फलानं वेहप्फलत्ते अननुभूतं, अभिभुस्स अभिभुत्तेन अननुभूतं, सब्बस्स सब्बत्तेन अननुभूतं’’.
‘‘हन्द चरहि [हन्द च हि (सी. पी.)] ते, मारिस, पस्स अन्तरधायामी’’ति. ‘हन्द चरहि मे त्वं, ब्रह्मे, अन्तरधायस्सु, सचे विसहसी’ति. अथ खो, भिक्खवे, बको ब्रह्मा ‘अन्तरधायिस्सामि समणस्स गोतमस्स, अन्तरधायिस्सामि समणस्स गोतमस्सा’ति नेवस्सु मे सक्कोति अन्तरधायितुं.
‘‘एवं वुत्ते, अहं, भिक्खवे, बकं ब्रह्मानं एतदवोचं – ‘हन्द चरहि ते ब्रह्मे अन्तरधायामी’ति. ‘हन्द चरहि मे त्वं, मारिस, अन्तरधायस्सु सचे विसहसी’ति. अथ खो अहं, भिक्खवे, तथारूपं इद्धाभिसङ्खारं अभिसङ्खासिं – ‘एत्तावता ब्रह्मा च ब्रह्मपरिसा च ब्रह्मपारिसज्जा च सद्दञ्च मे सोस्सन्ति [सद्दमेव सुय्यन्ति (क.)], न च मं दक्खन्ती’ति. अन्तरहितो इमं गाथं अभासिं –
‘‘भवेवाहं भयं दिस्वा, भवञ्च विभवेसिनं;
भवं नाभिवदिं किञ्चि, नन्दिञ्च न उपादियि’’न्ति.
‘‘अथ खो, भिक्खवे, ब्रह्मा च ब्रह्मपरिसा च ब्रह्मपारिसज्जा च अच्छरियब्भुतचित्तजाता अहेसुं – ‘अच्छरियं वत भो, अब्भुतं वत भो! समणस्स गोतमस्स महिद्धिकता महानुभावता, न च वत नो इतो पुब्बे दिट्ठो वा, सुतो वा, अञ्ञो समणो वा ब्राह्मणो वा एवं महिद्धिको एवं महानुभावो यथायं समणो गोतमो सक्यपुत्तो सक्यकुला पब्बजितो. भवरामाय वत, भो, पजाय भवरताय भवसम्मुदिताय समूलं भवं उदब्बही’ति.
५०५. ‘‘अथ खो, भिक्खवे, मारो पापिमा अञ्ञतरं ब्रह्मपारिसज्जं अन्वाविसित्वा मं एतदवोच – ‘सचे खो त्वं, मारिस, एवं पजानासि, सचे त्वं एवं अनुबुद्धो, मा सावके उपनेसि, मा पब्बजिते; मा सावकानं धम्मं देसेसि, मा पब्बजितानं; मा सावकेसु गेधिमकासि, मा पब्बजितेसु. अहेसुं खो, भिक्खु, तया पुब्बे समणब्राह्मणा लोकस्मिं अरहन्तो सम्मासम्बुद्धा पटिजानमाना . ते सावके उपनेसुं पब्बजिते, सावकानं धम्मं देसेसुं पब्बजितानं, सावकेसु गेधिमकंसु पब्बजितेसु, ते सावके उपनेत्वा पब्बजिते, सावकानं धम्मं देसेत्वा पब्बजितानं, सावकेसु गेधितचित्ता पब्बजितेसु, कायस्स भेदा पाणुपच्छेदा हीने काये पतिट्ठिता. अहेसुं ये पन, भिक्खु, तया पुब्बे समणब्राह्मणा लोकस्मिं अरहन्तो सम्मासम्बुद्धा पटिजानमाना. ते न सावके उपनेसुं न पब्बजिते, न सावकानं धम्मं देसेसुं न पब्बजितानं, न सावकेसु गेधिमकंसु न पब्बजितेसु, ते न सावके उपनेत्वा न पब्बजिते, न सावकानं धम्मं देसेत्वा न पब्बजितानं, न सावकेसु गेधितचित्ता न पब्बजितेसु, कायस्स भेदा पाणुपच्छेदा पणीते काये पतिट्ठिता. तं ताहं, भिक्खु, एवं वदामि – इङ्घ त्वं, मारिस, अप्पोस्सुक्को दिट्ठधम्मसुखविहारमनुयुत्तो विहरस्सु, अनक्खातं कुसलञ्हि, मारिस, मा परं ओवदाही’ति.
‘‘एवं वुत्ते, अहं, भिक्खवे, मारं पापिमन्तं एतदवोचं – ‘जानामि खो ताहं, पापिम, मा त्वं मञ्ञित्थो – न मं जानाती’ति. मारो त्वमसि, पापिम. न मं त्वं, पापिम, हितानुकम्पी एवं वदेसि; अहितानुकम्पी मं त्वं, पापिम, एवं वदेसि. तुय्हञ्हि, पापिम, एवं होति – ‘येसं समणो गोतमो धम्मं देसेस्सति, ते मे विसयं उपातिवत्तिस्सन्ती’ति. असम्मासम्बुद्धाव पन ते , पापिम, समाना सम्मासम्बुद्धाम्हाति पटिजानिंसु. अहं खो पन, पापिम, सम्मासम्बुद्धोव समानो सम्मासम्बुद्धोम्हीति पटिजानामि. देसेन्तोपि हि, पापिम, तथागतो सावकानं धम्मं तादिसोव अदेसेन्तोपि हि, पापिम, तथागतो सावकानं धम्मं तादिसोव. उपनेन्तोपि हि, पापिम, तथागतो सावके तादिसोव, अनुपनेन्तोपि हि, पापिम, तथागतो सावके तादिसोव. तं किस्स हेतु? तथागतस्स, पापिम, ये आसवा संकिलेसिका पोनोब्भविका सदरा दुक्खविपाका आयतिं जातिजरामरणिया – ते पहीना उच्छिन्नमूला तालावत्थुकता अनभावंकता आयतिं अनुप्पादधम्मा. सेय्यथापि, पापिम, तालो मत्थकच्छिन्नो अभब्बो पुन विरूळ्हिया; एवमेव खो, पापिम, तथागतस्स ये आसवा संकिलेसिका पोनोब्भविका सदरा दुक्खविपाका आयतिं जातिजरामरणिया – ते पहीना उच्छिन्नमूला तालावत्थुकता अनभावंकता आयतिं अनुप्पादधम्माति.
‘‘इति हिदं मारस्स च अनालपनताय ब्रह्मुनो च अभिनिमन्तनताय, तस्मा इमस्स वेय्याकरणस्स ब्रह्मनिमन्तनिकंतेव अधिवचन’’न्ति.
ब्रह्मनिमन्तनिकसुत्तं निट्ठितं नवमं.
इस सुत्त में बुद्ध दो विरोधियों का सामना करते हैं: एक बक नामक ब्रह्मा, जो अपनी ब्रह्मा-अधिगति को सर्वोत्तम मानता है, और मारा, जो बुद्ध को अपने ज्ञान को दूसरों के साथ साझा करने से रोकना चाहता है। मारा का उद्देश्य बक को उसकी भ्रांतियों में बांधे रखना है और बुद्ध को भी अपने मार्ग से भटकाना है। मारा अधिक चालाक है क्योंकि वह हमेशा किसी और के माध्यम से ही बोलता है, कभी सीधे सामने नहीं आता। मारा का यह तरीका दर्शाता है कि वह स्वयं को छिपाने में माहिर है और कभी अपनी असली पहचान नहीं दिखाता।
बुद्ध इन दोनों विरोधियों से अपनी ज्ञान की श्रेष्ठता को दो तरीकों से सिद्ध करते हैं: एक तो अपने जागृत ज्ञान का वर्णन कर और दूसरा, अपनी मानसिक शक्तियों का प्रदर्शन करके।
बुद्ध अपनी जागृति के बारे में कई महत्वपूर्ण बातें कहते हैं:
इन तथ्यों में से कुछ, जैसे इंद्रियों से परे चेतना की बात, बहुत गहरे धर्म पाठ हैं। लेकिन जैसा कि सुत्त में दिखाया गया है, बुद्ध के शब्दों का प्रभाव बक या उसके अनुयायियों पर तब तक नहीं पड़ा, जब तक उन्होंने अपनी मानसिक शक्ति का प्रदर्शन नहीं किया। यह प्रदर्शन ऐसा था कि बक और उसके अनुयायी भी उसे समझ नहीं पाए, और इसने बुद्ध के सिद्धांत को स्पष्ट रूप से सिद्ध किया।
अब तक, बुद्ध यह कह रहे थे, “मैं तुम्हें देख सकता हूँ, पर तुम मुझे नहीं देख पाते।” लेकिन जब उन्होंने अपनी मानसिक शक्ति से यह दिखाया कि ब्रह्मा और उसके अनुयायी उन्हें देख नहीं सकते, केवल उनकी आवाज सुन सकते हैं, तो यह एक ऐसा तर्क बन गया, जिसे खंडित नहीं किया जा सकता था। इसके बाद, बक और उसके अनुयायी तुरंत बुद्ध की श्रेष्ठता को स्वीकार करने लगे।
आज के पाठक शायद बुद्ध के ज्ञान की व्याख्या से अधिक प्रभावित होते हैं, लेकिन जो लोग उस घटना को प्रत्यक्ष रूप से देखते हैं, उनके लिए बुद्ध का शक्ति प्रदर्शन एक प्रमाण था, जो शब्दों से परे था। पहले उनके दावे को वे सिर्फ दावे मानते थे, लेकिन अब जब बुद्ध ने एक चमत्कार दिखाया, जो बक भी नहीं कर सका, तो वे उसकी श्रेष्ठता को स्वीकार करने को मजबूर हो गए।
इस तरह, बुद्ध ने न केवल शब्दों से, बल्कि उदाहरणों से भी शिक्षा दी, और कभी-कभी वह एक ऐसी शक्ति का प्रदर्शन करते थे, जो देवताओं के पास भी नहीं थी। लेकिन बुद्ध यह भी जानते थे कि मानसिक शक्तियों का प्रदर्शन हमेशा सकारात्मक असर नहीं डालता। कभी-कभी श्रोता इसे तंत्र-मंत्र या जादू का खेल समझ सकते थे, जो संदेह को बढ़ा सकता था। फिर भी, कुछ खास अवसरों पर, जैसे कास्सप भाइयों की कथा या अंगुलिमाल की कथा में, बुद्ध का मानसिक शक्ति प्रदर्शन बहुत प्रभावी साबित हुआ।
अंत में, इस सुत्त का नाम दो महत्वपूर्ण पहलुओं से लिया गया है: एक तो बक का बुद्ध को अपने लोक में स्वागत करना, और दूसरा मारा का मौन होना। “ब्रह्मा” शब्द का एक गहरा अर्थ है—यह केवल देवताओं के उच्चतम स्तर को नहीं, बल्कि एक महान शक्ति को भी व्यक्त करता है। बुद्ध का अंतिम कथन, जिसमें उन्होंने पुनर्जन्म से मुक्ति की घोषणा की, मारा के लिए एक चुनौती बन गई, जिसे वह खंडित नहीं कर सका। मारा अब किसी शर्त पर बुद्ध को चुनौती नहीं दे सकता था, क्योंकि बुद्ध ने स्पष्ट रूप से यह कह दिया था कि उन्होंने पुनर्जन्म के लिए सभी संभावनाएँ छोड़ दी हैं। इस तरह, बुद्ध का अंतिम कथन एक ब्रह्मा-आमंत्रण था, जिसे कोई भी खंडित करने का प्रयास कर सकता था, लेकिन वह इतनी महान शक्ति से भरा हुआ था कि उसे कोई भी खंडित नहीं कर सकता।