नमो तस्स भगवतो अरहतो सम्मा-सम्बुद्धस्स

📜 दाग

✦ ॥ नमो तस्स भगवतो अरहतो सम्मासम्बुद्धस्स ॥ ✦

Hindi

ऐसा मैंने सुना — एक समय भगवान श्रावस्ती में अनाथपिण्डक के जेतवन उद्यान में विहार कर रहे थे। वहाँ आयुष्मान सारिपुत्त ने भिक्षुओं को संबोधित किया, “मित्र भिक्षुओं।”

“मित्र”, भिक्षुओं ने आयुष्मान सारिपुत्त को उत्तर दिया। आयुष्मान सारिपुत्त ने कहा —

“मित्रों, इस दुनिया में चार प्रकार के लोग पाए जाते हैं। कैसे चार? एक प्रकार के दागी व्यक्ति को यथास्वरूप पता नहीं चलता कि ‘मुझ में दाग है।’ किन्तु, दूसरे प्रकार के दागी व्यक्ति को यथास्वरूप पता चलता है कि ‘मुझ में दाग है।’ एक प्रकार के बेदाग व्यक्ति को यथास्वरूप पता नहीं चलता कि ‘मुझ में दाग नहीं है।’ जबकि चौथे प्रकार के बेदाग व्यक्ति को यथास्वरूप पता चलता है कि ‘मुझ में दाग नहीं है।’

मित्रों, जिस प्रकार के दागी व्यक्ति को यथास्वरूप पता नहीं चलता कि ‘मुझ में दाग है’, वह दोनों दागी व्यक्तियों में हीन पुरुष कहा जाता है। जबकि जिस प्रकार के दागी व्यक्ति को यथास्वरूप पता चलता है कि ‘मुझ में दाग है’, वह दोनों दागी व्यक्तियों में श्रेष्ठ पुरुष कहा जाता है।

और, मित्रों, जिस प्रकार के बेदाग व्यक्ति को यथास्वरूप पता नहीं चलता कि ‘मुझ में दाग नहीं है’, वह दोनों बेदाग व्यक्तियों में हीन पुरुष कहा जाता है। जबकि जिस प्रकार के बेदाग व्यक्ति को यथास्वरूप पता चलता है कि ‘मुझ में दाग नहीं है’, वह दोनों बेदाग व्यक्तियों में श्रेष्ठ पुरुष कहा जाता है।"

जब ऐसा कहा गया, तब आयुष्मान महामोग्गल्लान ने आयुष्मान सारिपुत्त से कहा, “मित्र सारिपुत्त, क्या कारण क्या परिस्थिति में दोनों दागी व्यक्तियों में एक को ‘हीन पुरुष’ कहा जाएगा, जबकि दूसरे को ‘श्रेष्ठ पुरुष’? और, क्या कारण क्या परिस्थिति में दोनों बेदाग व्यक्तियों में एक को ‘हीन पुरुष’ कहा जाएगा, जबकि दूसरे को ‘श्रेष्ठ पुरुष’?”

पहला व्यक्ति

“मित्रों, जिस प्रकार के दागी व्यक्ति को यथास्वरूप पता नहीं चलता कि ‘मुझ में दाग है’ — उससे आशा की जा सकती है कि वह न चाह पैदा कर, न मेहनत कर, न ही ज़ोर लगाकर उस दाग को हटाएगा। बल्कि वह राग, द्वेष, और मोह से दागी रह, दागी चित्त के साथ ही मरेगा।

कल्पना करों, मित्रों, जैसे किसी दुकान या लोहार से एक काँसे का बर्तन लाया जाए — धूल और मल से सना हुआ! उसे उसका मालिक न उपयोग करता है, न स्वच्छ करता है, बल्कि उसे मैली जगह रख देता है। तब, मित्रों, क्या समय के साथ वह काँसे का बर्तन अधिक दागी और मैला नहीं होगा?”

“हाँ, मित्र।”

“उसी तरह, मित्रों, जिस प्रकार के दागी व्यक्ति को यथास्वरूप पता नहीं चलता कि ‘मुझ में दाग है’ — उससे आशा की जा सकती है कि वह न चाह पैदा कर, न मेहनत कर, न ही ज़ोर लगाकर उस दाग को हटाएगा। बल्कि वह राग, द्वेष, और मोह से दागी रह, दागी चित्त के साथ ही मरेगा।

दूसरा व्यक्ति

किन्तु, मित्रों, जिस प्रकार के दागी व्यक्ति को यथास्वरूप पता चलता है कि ‘मुझ में दाग है’ — उससे आशा की जा सकती है कि वह चाह पैदा कर, मेहनत कर, ज़ोर लगाकर उस दाग को हटाएगा। वह रागविहीन, द्वेषविहीन, और मोहविहीन हो, बेदाग होकर, बेदाग चित्त के साथ मरेगा।

कल्पना करों, मित्रों, जैसे किसी दुकान या लोहार से एक काँसे का बर्तन लाया जाए — धूल और मल से सना हुआ! किन्तु उसे उसका मालिक उपयोग करता है, स्वच्छ करता है, उसे मैली जगह नहीं रख देता। तब, मित्रों, क्या समय के साथ वह काँसे का बर्तन परिशुद्ध और चमकीला नहीं होगा?”

“हाँ, मित्र।”

उसी तरह, मित्रों, जिस प्रकार के दागी व्यक्ति को यथास्वरूप पता चलता है कि ‘मुझ में दाग है’ — उससे आशा की जा सकती है कि वह चाह पैदा कर, मेहनत कर, ज़ोर लगाकर उस दाग को हटाएगा। वह रागविहीन, द्वेषविहीन, और मोहविहीन हो, बेदाग होकर, बेदाग चित्त के साथ मरेगा।

तीसरा व्यक्ति

“अब, मित्रों, जिस प्रकार के बेदाग व्यक्ति को यथास्वरूप पता नहीं चलता कि ‘मुझ में दाग नहीं है’ — उससे आशा की जा सकती है कि वह आकर्षक पहलू (“शुभ निमित्त” = सौंदर्य लक्षण) पर ध्यान देगा। आकर्षक पहलू पर ध्यान देने से राग (=कामुक दिलचस्पी) उसके चित्त पर हमला करेगा। तब वह राग, द्वेष, और मोह से दागी हो, दागी चित्त के साथ मरेगा।

कल्पना करों, मित्रों, जैसे किसी दुकान या लोहार से एक काँसे का बर्तन लाया जाए — परिशुद्ध और चमकीला! किन्तु, उसे उसका मालिक न उपयोग करता है, न स्वच्छ करता है, बल्कि उसे मैली जगह रख देता है। तब, मित्रों, क्या समय के साथ वह काँसे का बर्तन अधिक दागी और मैला नहीं होगा?”

“हाँ, मित्र।”

उसी तरह, मित्रों, जिस प्रकार के बेदाग व्यक्ति को यथास्वरूप पता नहीं चलता कि ‘मुझ में दाग नहीं है’ — उससे आशा की जा सकती है कि वह आकर्षक पहलू पर ध्यान देगा। आकर्षक पहलू पर ध्यान देने से राग उसके चित्त पर हमला करेगा। तब वह राग, द्वेष, और मोह से दागी हो, दागी चित्त के साथ मरेगा।

चौथा व्यक्ति

और, मित्रों, जिस प्रकार के बेदाग व्यक्ति को यथास्वरूप पता चलता है कि ‘मुझ में दाग नहीं है’ — उससे आशा की जा सकती है कि वह आकर्षक पहलू पर ध्यान नहीं देगा। आकर्षक पहलू पर ध्यान न देने से राग उसके चित्त पर हमला नहीं कर सकेगा। तब वह रागविहीन, द्वेषविहीन, और मोहविहीन रह, बेदाग रहकर, बेदाग चित्त के साथ मरेगा।

कल्पना करों, मित्रों, जैसे किसी दुकान या लोहार से एक काँसे का बर्तन लाया जाए — परिशुद्ध और चमकीला! उसे उसका मालिक उपयोग करता है, स्वच्छ करता है, उसे मैली जगह नहीं रख देता। तब, मित्रों, क्या समय के साथ वह काँसे का बर्तन अधिक परिशुद्ध और चमकीला नहीं होगा?"

“हाँ, मित्र।”

उसी तरह, मित्रों, जिस प्रकार के बेदाग व्यक्ति को यथास्वरूप पता चलता है कि ‘मुझ में दाग नहीं है’ — उससे आशा की जा सकती है कि वह आकर्षक पहलू पर ध्यान नहीं देगा। आकर्षक पहलू पर ध्यान न देने से राग उसके चित्त पर हमला नहीं कर सकेगा। तब वह रागविहीन, द्वेषविहीन, और मोहविहीन रह, बेदाग रहकर, बेदाग चित्त के साथ मरेगा।

इस कारण, इस परिस्थिति से, मित्र मोग्गल्लान, दो दागी व्यक्तियों में एक को ‘हीन पुरुष’ कहा जाएगा, जबकि दूसरे को ‘श्रेष्ठ पुरुष’! और, इस कारण इस परिस्थिति में दो बेदाग व्यक्तियों में एक को ‘हीन पुरुष’ कहा जाएगा, जबकि दूसरे को ‘श्रेष्ठ पुरुष’!"

“मित्र, ‘दाग… दाग’ (“अङगण”) कहते हैं। किन्तु ये ‘दाग’ शब्द का अर्थ क्या हैं?”

“मित्र, ‘पाप, अकुशल इच्छाओं के साथ सहवास करने’ को दाग कहते हैं।”

आपत्ति

“संभव है, मित्रों, कि किसी भिक्षु को ऐसी इच्छा उपजे, “यदि मुझसे कोई उल्लंघन (“आपत्ति”) 1 हो जाए, तो कहीं भिक्षुओं को पता न चले कि मुझसे उल्लंघन हुआ है। किन्तु, संभव है, मित्रों, कि भिक्षुओं को पता चल जाता है कि इस भिक्षु ने उल्लंघन किया है।”

तब, (सोचते हुए कि) “भिक्षुओं को मेरे उल्लंघन के बारे में पता चल गया” — वह कुपित होता है, और कड़वाहट लाता है। वह कुपित और कड़वाहट, मित्रों, दोनों ही ‘दाग’ है।

आगे, संभव है, मित्रों, कि किसी भिक्षु को ऐसी इच्छा उपजे, “यदि मुझसे कोई उल्लंघन हो जाए, तो काश, भिक्षुगण मुझे अकेले में ही फटकारे, संघ के बीच में नहीं!” किन्तु, संभव है, मित्रों, कि भिक्षुगण उस भिक्षु को संघ के बीच में फटकारते हैं, अकेले में नहीं।

तब, (सोचते हुए कि) “भिक्षुओं ने मुझे संघ के बीच में फटकार लगायी, अकेले में नहीं” — वह कुपित होता है, और कड़वाहट लाता है। वह कुपित और कड़वाहट, मित्रों, दोनों ही ‘दाग’ है।

आगे, संभव है, मित्रों, कि किसी भिक्षु को ऐसी इच्छा उपजे, “यदि मुझसे कोई उल्लंघन हो जाए, तो काश, मुझे मेरे जैसा ही कोई व्यक्ति (“पटिपुग्गल” =प्रतिपक्ष”) फटकारे, कोई दूसरा व्यक्ति (=विपक्षी) नहीं!” किन्तु, संभव है, मित्रों, कि उसे कोई दूसरा ही व्यक्ति फटकारता है, उसके जैसा व्यक्ति नहीं।

तब, (सोचते हुए कि) “मुझे किसी दूसरे व्यक्ति ने फटकार लगायी, किसी मेरे जैसे व्यक्ति ने नहीं” — वह कुपित होता है, और कड़वाहट लाता है। वह कुपित और कड़वाहट, मित्रों, दोनों ही ‘दाग’ है।

आत्म-महत्ता

आगे, संभव है, मित्रों, कि किसी भिक्षु को ऐसी इच्छा उपजे, “अरे, काश, शास्ता मुझसे ही प्रश्न पुछ-पुछकर भिक्षुओं को उपदेश करें, किसी दूसरे भिक्षु को प्रश्न पुछ-पुछकर नहीं!” किन्तु, संभव है, मित्रों, कि शास्ता किसी दूसरे भिक्षु से प्रश्न पुछ-पुछकर भिक्षुओं को उपदेश करते हैं, उससे प्रश्न पुछ-पुछकर नहीं!

तब, (सोचते हुए कि) “शास्ता किसी दूसरे भिक्षु से प्रश्न पुछ-पुछकर भिक्षुओं को उपदेश करते हैं, मुझसे प्रश्न पुछ-पुछकर नहीं” — वह कुपित होता है, और कड़वाहट लाता है। वह कुपित और कड़वाहट, मित्रों, दोनों ही ‘दाग’ है।

आगे, संभव है, मित्रों, कि किसी भिक्षु को ऐसी इच्छा उपजे, “अरे, काश, भिक्षुगण भिक्षाटन के लिए गाँव में प्रवेश करते हुए मुझे ही सबसे आगे करें, किसी दूसरे भिक्षु को नहीं!” किन्तु, संभव है, मित्रों, कि भिक्षुगण भिक्षाटन के लिए गाँव में प्रवेश करते हुए किसी दूसरे भिक्षु को सबसे आगे करते हैं, उस भिक्षु को नहीं।

तब, (सोचते हुए कि) “भिक्षुगण भिक्षाटन के लिए गाँव में प्रवेश करते हुए किसी दूसरे भिक्षु को सबसे आगे करते हैं, मुझे नहीं” — वह कुपित होता है, और कड़वाहट लाता है। वह कुपित और कड़वाहट, मित्रों, दोनों ही ‘दाग’ है।

आगे, संभव है, मित्रों, कि किसी भिक्षु को ऐसी इच्छा उपजे, “अरे, काश, भोजनशाला में अग्र (=प्रमुख) आसन, अग्र जलपान, अग्र भिक्षान्न का मुझे ही लाभ मिले, किसी दूसरे भिक्षु को नहीं!” किन्तु, संभव है, मित्रों, कि भोजनशाला में अग्र आसन, अग्र जलपान, अग्र भिक्षान्न का लाभ किसी दूसरे भिक्षु को मिलता है, उसे नहीं।

तब, (सोचते हुए कि) “भोजनशाला में अग्र आसन, अग्र जलपान, अग्र भिक्षान्न का लाभ किसी दूसरे भिक्षु को मिला, मुझे नहीं” — वह कुपित होता है, और कड़वाहट लाता है। वह कुपित और कड़वाहट, मित्रों, दोनों ही ‘दाग’ है।

आगे, संभव है, मित्रों, कि किसी भिक्षु को ऐसी इच्छा उपजे, “अरे, काश, भोजनशाला में भोजन करने पश्चात मैं अकेला ही अनुमोदन 2 करूँ, कोई दूसरा भिक्षु नहीं!” किन्तु, संभव है, मित्रों, कि भोजनशाला में भोजन करने पश्चात कोई दूसरा भिक्षु अनुमोदन करता है, वह भिक्षु नहीं।

तब, (सोचते हुए कि) “भोजनशाला में भोजन करने पश्चात कोई दूसरा भिक्षु अनुमोदन करता है, मैं नहीं” — वह कुपित होता है, और कड़वाहट लाता है। वह कुपित और कड़वाहट, मित्रों, दोनों ही ‘दाग’ है।

आगे, संभव है, मित्रों, कि किसी भिक्षु को ऐसी इच्छा उपजे, “अरे, काश, विहार के भिक्षुओं… भिक्षुणीयों… उपासकों… उपासिकाओं को मैं ही धर्म देशना करूँ, कोई दूसरा भिक्षु नहीं।” किन्तु, संभव है, मित्रों, कि उन्हें कोई दूसरा भिक्षु धर्म देशना करता है, वह भिक्षु नहीं।

तब, (सोचते हुए कि) “विहार के भिक्षुओं… भिक्षुणीयों… उपासकों… उपासिकाओं को कोई दूसरा भिक्षु धर्म देशना करता है, मैं नहीं” — वह कुपित होता है, और कड़वाहट लाता है। वह कुपित और कड़वाहट, मित्रों, दोनों ही ‘दाग’ है।

आगे, संभव है, मित्रों, कि किसी भिक्षु को ऐसी इच्छा उपजे, “अरे, काश, विहार के भिक्षु… भिक्षुणी… उपासक… उपासिकाएँ मेरा ही आदर और सत्कार करें, मुझे ही माने और पूजे, किसी दूसरे भिक्षु को नहीं।” किन्तु, संभव है, मित्रों, कि वे किसी दूसरे भिक्षु का आदर और सत्कार करते हैं, दूसरे भिक्षु को मानते और पूजते हैं, उस भिक्षु को नहीं।

तब, (सोचते हुए कि) “विहार के भिक्षु… भिक्षुणी… उपासक… उपासिकाएँ किसी दूसरे भिक्षु का आदर और सत्कार करते हैं, दूसरे भिक्षु को मानते और पूजते हैं, मुझे नहीं” — वह कुपित होता है, और कड़वाहट लाता है। वह कुपित और कड़वाहट, मित्रों, दोनों ही ‘दाग’ है।

आगे, संभव है, मित्रों, कि किसी भिक्षु को ऐसी इच्छा उपजे, “अरे, काश, मुझे ही सबसे उत्तम चीवर… सबसे उत्तम भिक्षान्न… सबसे उत्तम आवास… सबसे उत्तम रोगावश्यक औषधि और भैषज्य का लाभ मिले, किसी दूसरे भिक्षु को नहीं।” किन्तु, संभव है, मित्रों, कि वे किसी दूसरे भिक्षु को वह लाभ मिलता है, उस भिक्षु को नहीं।

तब, (सोचते हुए कि) “किसी दूसरे ही भिक्षु को सबसे उत्तम चीवर… सबसे उत्तम भिक्षान्न… सबसे उत्तम आवास… सबसे उत्तम रोगावश्यक औषधि और भैषज्य का लाभ मिला, मुझे नहीं” — वह कुपित होता है, और कड़वाहट लाता है। वह कुपित और कड़वाहट, मित्रों, दोनों ही ‘दाग’ है।

इस तरह, मित्रों, पाप अकुशल इच्छाओं के साथ सहवास करने को ‘दाग’ कहते हैं।

उपमा

कल्पना करों, मित्रों, कि किसी भिक्षु में ये पाप, अकुशल इच्छाओं को देखा जाता हो, और (उनके बारे में) सुना जाता हो, जो अब तक त्यागी न गयी हो। तब भले ही वह अकेले अरण्य निवास करता हो, केवल भिक्षा खाता हो, भिक्षाटन में बिना भेद किए (=क्रमानुसार) भटकता हो, पंसुकूलीक (=फेंके गए वस्त्रों से बुना चीवर पहनता) हो, चिथड़े (सिला चीवर) पहनता हो — किन्तु तब भी सब्रह्मचारी उसका न आदर करते हैं, न सत्कार करते हैं, न मानते हैं, और न ही पूजते हैं। ऐसा क्यों? क्योंकि उसमें ये पाप, अकुशल इच्छाओं को देखा जाता हैं, और सुना जाता हैं, जो अब तक त्यागी नहीं गयी।

कल्पना करों, मित्रों, जैसे किसी दुकान या लोहार से एक काँसे का बर्तन लाया जाए — परिशुद्ध और चमकीला! उसका मालिक उसमें साँप का शव, कुत्ते का शव, या मनुष्य का शव रख, ऊपर से काँसे के ढक्कन रख, उसे बाजार में घुमाता है।

लोग देख कर कहते हैं, “भले आदमी, ये खजाने जैसा क्या ढो रहे हो?”

तब वह ढक्कन उठाकर भीतर दिखाता है। जैसे ही लोग भीतर देखते हैं, घृणा से भर जाते हैं, प्रतिकर्षण से भर जाते हैं, घिन से भर जाते हैं। जो भूके हो, वे भी न खाना चाहे, तो पेट भरे हुए का कहना ही क्या!

उसी तरह, मित्रों, जिस किसी भिक्षु में ये पाप, अकुशल इच्छाओं को देखा जाता हो, और सुना जाता हो, जो अब तक त्यागी न गयी हो। तब भले ही वह अकेले अरण्य निवास करता हो, केवल भिक्षा खाता हो, भिक्षाटन में बिना भेद किए भटकता हो, पंसुकूलीक हो, चिथड़े पहनता हो — किन्तु तब भी सब्रह्मचारी उसका न आदर करते हैं, न सत्कार करते हैं, न मानते हैं, और न ही पूजते हैं। ऐसा क्यों? क्योंकि उसमें ये पाप, अकुशल इच्छाओं को देखा जाता हैं, और सुना जाता हैं, जो अब तक त्यागी नहीं गयी।

किन्तु, अब कल्पना करों, मित्रों, कि किसी भिक्षु में ये पाप, अकुशल इच्छाओं को देखा जाता हैं, और सुना जाता हैं, जो त्यागी जा चुकी हो। तब भले ही वह गाँव में रहता हो, भोज निमंत्रण लेता हो, गृहस्थों से चीवर स्वीकारता हो, किन्तु तब भी सब्रह्मचारी उसका आदर करते हैं, सत्कार करते हैं, उसे मानते हैं, और पूजते हैं। ऐसा क्यों? क्योंकि उसमें ये पाप, अकुशल इच्छाओं को देखा जाता हैं, और सुना जाता हैं, जो त्यागी जा चुकी हैं।

कल्पना करों, मित्रों, जैसे किसी दुकान या लोहार से एक काँसे का बर्तन लाया जाए — परिशुद्ध और चमकीला! उसका मालिक उसमें पका हुआ बासमती चावल, और अनेक स्वादिष्ट सूप और ब्यंजन बनाकर ऊपर से काँसे के ढक्कन रख, उसे बाजार में घुमाता है।

लोग देख कर कहते हैं, “भले आदमी, ये खजाने जैसा क्या ढो रहे हो?”

तब वह ढक्कन उठाकर भीतर दिखाता है। जैसे ही लोग भीतर देखते हैं, स्वाद से भर जाते हैं, आकर्षण से भर जाते हैं, चसके से भर जाते हैं। जिसका पेट भरा हो, वे भी खाना चाहें, तो भूके का कहना ही क्या!

उसी तरह, मित्रों, जिस किसी भिक्षु में ये पाप, अकुशल इच्छाओं को देखा जाता हैं, और सुना जाता हैं, जो त्यागी जा चुकी हो। तब भले ही वह गाँव में रहता हो, भोज निमंत्रण लेता हो, गृहस्थों से चीवर स्वीकारता हो, किन्तु तब भी सब्रह्मचारी उसका आदर करते हैं, सत्कार करते हैं, उसे मानते हैं, और पूजते हैं। ऐसा क्यों? क्योंकि उसमें ये पाप, अकुशल इच्छाओं को देखा जाता हैं, और सुना जाता हैं, जो त्यागी जा चुकी हैं।

महामोग्गल्लान की उपमा

जब ऐसा कहा गया, तब आयुष्मान महामोग्गल्लान ने आयुष्मान सारिपुत्त से कहा, “मित्र सारिपुत्त, मुझे एक उपमा आ रही है।”

“सो बताओ, मित्र मोग्गल्लान।”

“एक समय, मित्र, मैं राजगृह के पर्वतों में विहार कर रहा था। तब सुबह होने पर मैंने चीवर ओढ़, पात्र लेकर, भिक्षाटन के लिए राजगृह में प्रवेश किया। उस समय समीति (नामक) यानकार (=गाड़ी बनाने वाला) का पुत्र रथ की नेमि को तराश रहा था। पण्डुपुत्त (=पाण्डव पुत्र) आजीवक 3, जो पुराने यानकार का पुत्र था, वहीं खड़ा था।

तब उस पण्डुपुत्त आजीवक के चित्त में इस तरह का विचार उत्पन्न हुआ, “अरे, काश, यानकारपुत्र समीति इस रथ की नेमि में जो विकृति हैं, टेढ़ापन हैं, और दोष हैं, उसे सीधा कर लें! तब वह नेमि बिना विकृति के, बिना टेढ़ेपन के, बिना दोष के शुद्ध होकर, सार में प्रतिष्ठित हो जाएगी!”

और तब, मित्र, जिस तरह पण्डुपुत्त आजीवक के चित्त में विचार उत्पन्न हुआ था, ठीक उसी तरह यानकारपुत्र समीति ने उस रथ की नेमि में जो-जो विकृति थी, टेढ़ापन था, दोष था, उसे-उसे तराश कर सीधा कर लिया।

तब पण्डुपुत्त आजीवक ने हर्षित होकर अपनी खुशी जाहिर की, “ये (अपने) हृदय से (मेरे) हृदय जान कर तराशता है!”

ठीक उसी तरह, मित्र, ऐसे श्रद्धाहीन व्यक्ति हैं, जो श्रद्धा से नहीं, बल्कि जीविका कमाने के लिए घर से बेघर होकर प्रवज्जित हुए हैं। वे शठ (ठग), मायावी (धोखेबाज), और गुप्त हैं। बेचैन, घमंडी, चंचल, मुखर हैं, और बिखरी हुई बातें करते हैं। वे इंद्रियों की रक्षा नहीं करते, भोजन की मात्रा नहीं जानते, जागरण के प्रति संकल्पबद्ध नहीं हैं। वे श्रामण्य जीवन की चिंता नहीं करते, शिक्षा का तीव्र आदर नहीं करते। वे भोगी और शिथिल हैं, पतन में सबसे आगे, एकांतवास को नजरंदाज करने वाले, आलसी और ऊर्जाहीन हैं। वे भुलक्कड़, अचेत, बिना एकाग्रता के, भटकता हुआ चित्त, दुष्प्रज्ञ और मंदबुद्धि हैं। उनकी जो-जो विकृति, टेढ़ापन, और दोष हैं, आयुष्मान सारिपुत्त हृदय से हृदय जान कर उसे-उसे अपने धर्म उपदेश से तराश कर सीधा करते हैं।

किन्तु, ऐसे भी कुलपुत्र हैं जो श्रद्धा से घर से बेघर होकर प्रवज्जित हुए हैं। वे शठ, मायावी, और गुप्त नहीं हैं। बेचैन, घमंडी, चंचल, मुखर नहीं हैं, और बिखरी हुई बातें नहीं करते हैं। वे इंद्रियों की रक्षा करते हैं, भोजन की मात्रा जानते हैं, और जागरण के प्रति संकल्पबद्ध हैं। वे श्रामण्य जीवन की चिंता करते हैं, और शिक्षा का तीव्र आदर करते हैं। वे न भोगी, न ही शिथिल हैं, एकांतवास में सबसे आगे, जागृत ऊर्जावान हैं। वे उपस्थित स्मृतिवान, सचेत, समाहित, एकाग्र चित्त, प्रज्ञावान और तेजबुद्धि वाले हैं। वे आयुष्मान सारिपुत्त के धर्म उपदेश को सुनकर, मानो पीते लेते हैं, निगल लेते हैं। वे अपनी वाणी और विचारों में कहते हैं, “बहुत अच्छा है, श्रीमान, जो वे अपने सब्रह्मचारियों को अकुशल से उठाकर कुशल में स्थापित करते हैं!”

जैसे कोई तरुण युवा स्त्री या पुरुष सजने के शौकीन हो। उसके सिर धोने के पश्चात, उसे कमल का पुष्प, या चमेली का पुष्प, या कठलता का पुष्प दिया जाए, जिसे वे अपने दोनों हाथों से (सम्मानपूर्वक) लेकर अपने सिर के शीर्ष पर स्थापित करे।

उसी तरह, कुछ ऐसे कुलपुत्र हैं जो श्रद्धा से घर से बेघर होकर प्रवज्जित हुए हैं। वे शठ, मायावी, और गुप्त नहीं हैं। बेचैन, घमंडी, चंचल, मुखर नहीं हैं, और बिखरी हुई बातें नहीं करते हैं। वे इंद्रियों की रक्षा करते हैं, भोजन की मात्रा जानते हैं, और जागरण के प्रति संकल्पबद्ध हैं। वे श्रामण्य जीवन की चिंता करते हैं, और शिक्षा का तीव्र आदर करते हैं। वे न भोगी, न ही शिथिल हैं, एकांतवास में सबसे आगे, जागृत ऊर्जावान हैं। वे उपस्थित स्मृतिवान, सचेत, समाहित, एकाग्र चित्त, प्रज्ञावान और तेजबुद्धि वाले हैं। वे आयुष्मान सारिपुत्त के धर्म उपदेश को सुनकर, मानो पीते लेते हैं, निगल लेते हैं। वे अपनी वाणी और विचारों में कहते हैं, “बहुत अच्छा है, श्रीमान, जो वे अपने सब्रह्मचारियों को अकुशल से उठाकर कुशल में स्थापित करते हैं!”

इस तरह, उन दोनों महानागों (=आध्यात्मिक रूप से विराटकाय) ने एक-दूसरे की सुभाषितता पर सहानुमोदन किया।

सुत्र समाप्त।


  1. आपत्ति के बारे में अधिक जानने के लिए हमारी शब्दावली पढ़ें। ↩︎

  2. अनुमोदन गाथाओं को आज भी भिक्षुगण बोलते हैं। वह भगवान द्वारा बतायी ऐसी कुछ गाथाएँ हैं, जिन्हें भोजन करने के पश्चात, या कभी-कभी पहले, उनका पाली में पठन किया जाता है। उसमें दान करने की महत्ता होती है, दानी के फल गिनाए जाते हैं। उनमें से कुछ अनुमोदन गाथाएँ यहाँ पायी गयी हैं — दीघनिकाय १६:१.३१.२ = उदान ८.६:२२.१, मज्झिमनिकाय ९२:२६.१ = सुत्तनिपात ३.७:३५.१, संयुक्तनिकाय ५५.२६:२०.१, अंगुत्तरनिकाय ५.४४:८.१, अंगुत्तरनिकाय ५४:८.१, खुद्दकनिकाय १:१५.१४.४, और खुद्दकनिकाय १:१.५.१। ↩︎

  3. आजीवक परंपरा का नेतृत्व मक्खलि गोसाल कर रहे थे। आजीवकों का विश्वास नियतिवाद (नियति) पर आधारित होता था, जिसमें यह कहा गया था कि जीवन की हर घटना पूर्व-निर्धारित होती है। और मनुष्य के पास अपने कर्मों का कोई नियंत्रण नहीं है। ↩︎

Pali

५७. एवं मे सुतं – एकं समयं भगवा सावत्थियं विहरति जेतवने अनाथपिण्डिकस्स आरामे। तत्र खो आयस्मा सारिपुत्तो भिक्खू आमन्तेसि – ‘‘आवुसो, भिक्खवे’’ति। ‘‘आवुसो’’ति खो ते भिक्खू आयस्मतो सारिपुत्तस्स पच्‍चस्सोसुं। आयस्मा सारिपुत्तो एतदवोच –

‘‘चत्तारोमे, आवुसो, पुग्गला सन्तो संविज्‍जमाना लोकस्मिं। कतमे चत्तारो? इधावुसो, एकच्‍चो पुग्गलो साङ्गणोव समानो ‘अत्थि मे अज्झत्तं अङ्गण’न्ति यथाभूतं नप्पजानाति। इध पनावुसो, एकच्‍चो पुग्गलो साङ्गणोव समानो ‘अत्थि मे अज्झत्तं अङ्गण’न्ति यथाभूतं पजानाति। इधावुसो, एकच्‍चो पुग्गलो अनङ्गणोव समानो ‘नत्थि मे अज्झत्तं अङ्गण’न्ति यथाभूतं नप्पजानाति। इध पनावुसो, एकच्‍चो पुग्गलो अनङ्गणोव समानो ‘नत्थि मे अज्झत्तं अङ्गण’न्ति यथाभूतं पजानाति। तत्रावुसो, य्वायं पुग्गलो साङ्गणोव समानो ‘अत्थि मे अज्झत्तं अङ्गण’न्ति यथाभूतं नप्पजानाति, अयं इमेसं द्विन्‍नं पुग्गलानं साङ्गणानंयेव सतं हीनपुरिसो अक्खायति। तत्रावुसो, य्वायं पुग्गलो साङ्गणोव समानो ‘अत्थि मे अज्झत्तं अङ्गण’न्ति यथाभूतं पजानाति, अयं इमेसं द्विन्‍नं पुग्गलानं साङ्गणानंयेव सतं सेट्ठपुरिसो अक्खायति । तत्रावुसो, य्वायं पुग्गलो अनङ्गणोव समानो ‘नत्थि मे अज्झत्तं अङ्गण’न्ति यथाभूतं नप्पजानाति, अयं इमेसं द्विन्‍नं पुग्गलानं अनङ्गणानंयेव सतं हीनपुरिसो अक्खायति। तत्रावुसो, य्वायं पुग्गलो अनङ्गणोव समानो ‘नत्थि मे अज्झत्तं अङ्गण’न्ति यथाभूतं पजानाति, अयं इमेसं द्विन्‍नं पुग्गलानं अनङ्गणानंयेव सतं सेट्ठपुरिसो अक्खायती’’ति।

५८. एवं वुत्ते, आयस्मा महामोग्गल्‍लानो आयस्मन्तं सारिपुत्तं एतदवोच –

‘‘को नु खो, आवुसो सारिपुत्त, हेतु को पच्‍चयो येनिमेसं द्विन्‍नं पुग्गलानं साङ्गणानंयेव सतं एको हीनपुरिसो अक्खायति, एको सेट्ठपुरिसो अक्खायति? को पनावुसो सारिपुत्त, हेतु को पच्‍चयो येनिमेसं द्विन्‍नं पुग्गलानं अनङ्गणानंयेव सतं एको हीनपुरिसो अक्खायति, एको सेट्ठपुरिसो अक्खायती’’ति?

५९. ‘‘तत्रावुसो, य्वायं पुग्गलो साङ्गणोव समानो ‘अत्थि मे अज्झत्तं अङ्गण’न्ति यथाभूतं नप्पजानाति, तस्सेतं पाटिकङ्खं – न छन्दं जनेस्सति न वायमिस्सति न वीरियं आरभिस्सति तस्सङ्गणस्स पहानाय; सो सरागो सदोसो समोहो साङ्गणो संकिलिट्ठचित्तो कालं करिस्सति। सेय्यथापि, आवुसो, कंसपाति आभता आपणा वा कम्मारकुला वा रजेन च मलेन च परियोनद्धा। तमेनं सामिका न चेव परिभुञ्‍जेय्युं न च परियोदपेय्युं परियोदापेय्युं (?), रजापथे च नं निक्खिपेय्युं। एवञ्हि सा, आवुसो, कंसपाति अपरेन समयेन संकिलिट्ठतरा अस्स मलग्गहिता’’ति? ‘‘एवमावुसो’’ति। ‘‘एवमेव खो, आवुसो, य्वायं पुग्गलो साङ्गणोव समानो ‘अत्थि मे अज्झत्तं अङ्गण’न्ति यथाभूतं नप्पजानाति, तस्सेतं पाटिकङ्खं – न छन्दं जनेस्सति न वायमिस्सति न वीरियं आरभिस्सति तस्सङ्गणस्स पहानाय; सो सरागो सदोसो समोहो साङ्गणो संकिलिट्ठचित्तो कालं करिस्सति।

‘‘तत्रावुसो, य्वायं पुग्गलो साङ्गणोव समानो ‘अत्थि मे अज्झत्तं अङ्गण’न्ति यथाभूतं पजानाति, तस्सेतं पाटिकङ्खं – छन्दं जनेस्सति वायमिस्सति वीरियं आरभिस्सति तस्सङ्गणस्स पहानाय; सो अरागो अदोसो अमोहो अनङ्गणो असंकिलिट्ठचित्तो कालं करिस्सति। सेय्यथापि, आवुसो, कंसपाति आभता आपणा वा कम्मारकुला वा रजेन च मलेन च परियोनद्धा। तमेनं सामिका परिभुञ्‍जेय्युञ्‍चेव परियोदपेय्युञ्‍च, न च नं रजापथे निक्खिपेय्युं। एवञ्हि सा, आवुसो, कंसपाति अपरेन समयेन परिसुद्धतरा अस्स परियोदाता’’ति? ‘‘एवमावुसो’’ति। ‘‘एवमेव खो, आवुसो, य्वायं पुग्गलो साङ्गणोव समानो ‘अत्थि मे अज्झत्तं अङ्गण’न्ति यथाभूतं पजानाति, तस्सेतं पाटिकङ्खं – छन्दं जनेस्सति वायमिस्सति वीरियं आरभिस्सति तस्सङ्गणस्स पहानाय; सो अरागो अदोसो अमोहो अनङ्गणो असंकिलिट्ठचित्तो कालं करिस्सति।

‘‘तत्रावुसो , य्वायं पुग्गलो अनङ्गणोव समानो ‘नत्थि मे अज्झत्तं अङ्गण’न्ति यथाभूतं नप्पजानाति, तस्सेतं पाटिकङ्खं – सुभनिमित्तं मनसि करिस्सति, तस्स सुभनिमित्तस्स मनसिकारा रागो चित्तं अनुद्धंसेस्सति; सो सरागो सदोसो समोहो साङ्गणो संकिलिट्ठचित्तो कालं करिस्सति। सेय्यथापि, आवुसो, कंसपाति आभता आपणा वा कम्मारकुला वा परिसुद्धा परियोदाता। तमेनं सामिका न चेव परिभुञ्‍जेय्युं न च परियोदपेय्युं, रजापथे च नं निक्खिपेय्युं। एवञ्हि सा, आवुसो, कंसपाति अपरेन समयेन संकिलिट्ठतरा अस्स मलग्गहिता’’ति? ‘‘एवमावुसो’’ति। ‘‘एवमेव खो, आवुसो, य्वायं पुग्गलो अनङ्गणोव समानो ‘नत्थि मे अज्झत्तं अङ्गण’न्ति यथाभूतं नप्पजानाति, तस्सेतं पाटिकङ्खं – सुभनिमित्तं मनसि करिस्सति, तस्स सुभनिमित्तस्स मनसिकारा रागो चित्तं अनुद्धंसेस्सति;सो सरागो सदोसो समोहो साङ्गणो संकिलिट्ठचित्तोकालंकरिस्सति।

‘‘तत्रावुसो, य्वायं पुग्गलो अनङ्गणोव समानो ‘नत्थि मे अज्झत्तं अङ्गण’न्ति यथाभूतं पजानाति, तस्सेतं पाटिकङ्खं – सुभनिमित्तं न मनसि करिस्सति, तस्स सुभनिमित्तस्स अमनसिकारा रागो चित्तं नानुद्धंसेस्सति; सो अरागो अदोसो अमोहो अनङ्गणो असंकिलिट्ठचित्तो कालं करिस्सति। सेय्यथापि, आवुसो, कंसपाति आभता आपणा वा कम्मारकुला वा परिसुद्धा परियोदाता। तमेनं सामिका परिभुञ्‍जेय्युञ्‍चेव परियोदपेय्युञ्‍च, न च नं रजापथे निक्खिपेय्युं। एवञ्हि सा, आवुसो, कंसपाति अपरेन समयेन परिसुद्धतरा अस्स परियोदाता’’ति? ‘‘एवमावुसो’’ति। ‘‘एवमेव खो, आवुसो, य्वायं पुग्गलो अनङ्गणोव समानो ‘नत्थि मे अज्झत्तं अङ्गण’न्ति यथाभूतं पजानाति, तस्सेतं पाटिकङ्खं – सुभनिमित्तं न मनसि करिस्सति, तस्स सुभनिमित्तस्स अमनसिकारा रागो चित्तं नानुद्धंसेस्सति; सो अरागो अदोसो अमोहो अनङ्गणो असंकिलिट्ठचित्तो कालं करिस्सति।

‘‘अयं खो, आवुसो मोग्गल्‍लान , हेतु अयं पच्‍चयो येनिमेसं द्विन्‍नं पुग्गलानं साङ्गणानंयेव सतं एको हीनपुरिसो अक्खायति, एको सेट्ठपुरिसो अक्खायति। अयं पनावुसो मोग्गल्‍लान, हेतु अयं पच्‍चयो येनिमेसं द्विन्‍नं पुग्गलानं अनङ्गणानंयेव सतं एको हीनपुरिसो अक्खायति, एको सेट्ठपुरिसो अक्खायती’’ति।

६०. ‘‘अङ्गणं अङ्गणन्ति, आवुसो, वुच्‍चति। किस्स नु खो एतं, आवुसो, अधिवचनं यदिदं अङ्गण’’न्ति? ‘‘पापकानं खो एतं, आवुसो, अकुसलानं इच्छावचरानं अधिवचनं, यदिदं अङ्गण’’न्ति।

‘‘ठानं खो पनेतं, आवुसो, विज्‍जति यं इधेकच्‍चस्स भिक्खुनो एवं इच्छा उप्पज्‍जेय्य – ‘आपत्तिञ्‍च वत आपन्‍नो अस्सं, न च मं भिक्खू जानेय्युं आपत्तिं आपन्‍नो’ति। ठानं खो पनेतं, आवुसो, विज्‍जति यं तं भिक्खुं भिक्खू जानेय्युं – ‘आपत्तिं आपन्‍नो’ति। ‘जानन्ति मं भिक्खू आपत्तिं आपन्‍नो’ति – इति सो कुपितो होति अप्पतीतो। यो चेव खो, आवुसो, कोपो यो च अप्पच्‍चयो – उभयमेतं अङ्गणं।

‘‘ठानं खो पनेतं, आवुसो, विज्‍जति यं इधेकच्‍चस्स भिक्खुनो एवं इच्छा उप्पज्‍जेय्य – ‘आपत्तिञ्‍च वत आपन्‍नो अस्सं, अनुरहो मं भिक्खू चोदेय्युं, नो सङ्घमज्झे’ति। ठानं खो पनेतं, आवुसो, विज्‍जति यं तं भिक्खुं भिक्खू सङ्घमज्झे चोदेय्युं, नो अनुरहो। ‘सङ्घमज्झे मं भिक्खू चोदेन्ति, नो अनुरहो’ति – इति सो कुपितो होति अप्पतीतो। यो चेव खो, आवुसो, कोपो यो च अप्पच्‍चयो – उभयमेतं अङ्गणं।

‘‘ठानं खो पनेतं, आवुसो, विज्‍जति यं इधेकच्‍चस्स भिक्खुनो एवं इच्छा उप्पज्‍जेय्य – ‘आपत्तिञ्‍च वत आपन्‍नो अस्सं, सप्पटिपुग्गलो मं चोदेय्य, नो अप्पटिपुग्गलो’ति। ठानं खो पनेतं, आवुसो, विज्‍जति यं तं भिक्खुं अप्पटिपुग्गलो चोदेय्य, नो सप्पटिपुग्गलो। ‘अप्पटिपुग्गलो मं चोदेति, नो सप्पटिपुग्गलो’ति – इति सो कुपितो होति अप्पतीतो। यो चेव खो, आवुसो, कोपो यो च अप्पच्‍चयो – उभयमेतं अङ्गणं।

‘‘ठानं खो पनेतं, आवुसो, विज्‍जति यं इधेकच्‍चस्स भिक्खुनो एवं इच्छा उप्पज्‍जेय्य – ‘अहो वत ममेव सत्था पटिपुच्छित्वा पटिपुच्छित्वा भिक्खूनं धम्मं देसेय्य, न अञ्‍ञं भिक्खुं सत्था पटिपुच्छित्वा पटिपुच्छित्वा भिक्खूनं धम्मं देसेय्या’ति। ठानं खो पनेतं, आवुसो, विज्‍जति यं अञ्‍ञं भिक्खुं सत्था पटिपुच्छित्वा पटिपुच्छित्वा भिक्खूनं धम्मं देसेय्य, न तं भिक्खुं सत्था पटिपुच्छित्वा पटिपुच्छित्वा भिक्खूनं धम्मं देसेय्य। ‘अञ्‍ञं भिक्खुं सत्था पटिपुच्छित्वा पटिपुच्छित्वा भिक्खूनं धम्मं देसेति, न मं सत्था पटिपुच्छित्वा पटिपुच्छित्वा भिक्खूनं धम्मं देसेती’ति – इति सो कुपितो होति अप्पतीतो। यो चेव खो, आवुसो, कोपो यो च अप्पच्‍चयो – उभयमेतं अङ्गणं।

‘‘ठानं खो पनेतं, आवुसो, विज्‍जति यं इधेकच्‍चस्स भिक्खुनो एवं इच्छा उप्पज्‍जेय्य – ‘अहो वत ममेव भिक्खू पुरक्खत्वा पुरक्खत्वा गामं भत्ताय पविसेय्युं, न अञ्‍ञं भिक्खुं भिक्खू पुरक्खत्वा पुरक्खत्वा गामं भत्ताय पविसेय्यु’न्ति। ठानं खो पनेतं, आवुसो, विज्‍जति यं अञ्‍ञं भिक्खुं भिक्खू पुरक्खत्वा पुरक्खत्वा गामं भत्ताय पविसेय्युं, न तं भिक्खुं भिक्खू पुरक्खत्वा पुरक्खत्वा गामं भत्ताय पविसेय्युं। ‘अञ्‍ञं भिक्खुं भिक्खू पुरक्खत्वा पुरक्खत्वा गामं भत्ताय पविसन्ति, न मं भिक्खू पुरक्खत्वा पुरक्खत्वा गामं भत्ताय पविसन्ती’ति – इति सो कुपितो होति अप्पतीतो। यो चेव खो, आवुसो, कोपो यो च अप्पच्‍चयो – उभयमेतं अङ्गणं।

‘‘ठानं खो पनेतं, आवुसो, विज्‍जति यं इधेकच्‍चस्स भिक्खुनो एवं इच्छा उप्पज्‍जेय्य – ‘अहो वत अहमेव लभेय्यं भत्तग्गे अग्गासनं अग्गोदकं अग्गपिण्डं, न अञ्‍ञो भिक्खु लभेय्य भत्तग्गे अग्गासनं अग्गोदकं अग्गपिण्ड’न्ति। ठानं खो पनेतं, आवुसो, विज्‍जति यं अञ्‍ञो भिक्खु लभेय्य भत्तग्गे अग्गासनं अग्गोदकं अग्गपिण्डं, न सो भिक्खु लभेय्य भत्तग्गे अग्गासनं अग्गोदकं अग्गपिण्डं। ‘अञ्‍ञो भिक्खु लभति भत्तग्गे अग्गासनं अग्गोदकं अग्गपिण्डं, नाहं लभामि भत्तग्गे अग्गासनं अग्गोदकं अग्गपिण्ड’न्ति – इति सो कुपितो होति अप्पतीतो। यो चेव खो, आवुसो, कोपो यो च अप्पच्‍चयो – उभयमेतं अङ्गणं।

‘‘ठानं खो पनेतं, आवुसो, विज्‍जति यं इधेकच्‍चस्स भिक्खुनो एवं इच्छा उप्पज्‍जेय्य – ‘अहो वत अहमेव भत्तग्गे भुत्तावी अनुमोदेय्यं, न अञ्‍ञो भिक्खु भत्तग्गे भुत्तावी अनुमोदेय्या’ति। ठानं खो पनेतं, आवुसो, विज्‍जति यं अञ्‍ञो भिक्खु भत्तग्गे भुत्तावी अनुमोदेय्य, न सो भिक्खु भत्तग्गे भुत्तावी अनुमोदेय्य। ‘अञ्‍ञो भिक्खु भत्तग्गे भुत्तावी अनुमोदति, नाहं भत्तग्गे भुत्तावी अनुमोदामी’ति – इति सो कुपितो होति अप्पतीतो। यो चेव खो, आवुसो, कोपो यो च अप्पच्‍चयो – उभयमेतं अङ्गणं।

‘‘ठानं खो पनेतं, आवुसो, विज्‍जति यं इधेकच्‍चस्स भिक्खुनो एवं इच्छा उप्पज्‍जेय्य – ‘अहो वत अहमेव आरामगतानं भिक्खूनं धम्मं देसेय्यं, न अञ्‍ञो भिक्खु आरामगतानं भिक्खूनं धम्मं देसेय्या’ति। ठानं खो पनेतं, आवुसो, विज्‍जति यं अञ्‍ञो भिक्खु आरामगतानं भिक्खूनं धम्मं देसेय्य, न सो भिक्खु आरामगतानं भिक्खूनं धम्मं देसेय्य। ‘अञ्‍ञो भिक्खु आरामगतानं भिक्खूनं धम्मं देसेति, नाहं आरामगतानं भिक्खूनं धम्मं देसेमी’ति – इति सो कुपितो होति अप्पतीतो। यो चेव खो, आवुसो, कोपो यो च अप्पच्‍चयो – उभयमेतं अङ्गणं।

‘‘ठानं खो पनेतं, आवुसो, विज्‍जति यं इधेकच्‍चस्स भिक्खुनो एवं इच्छा उप्पज्‍जेय्य – ‘अहो वत अहमेव आरामगतानं भिक्खुनीनं धम्मं देसेय्यं…पे॰… उपासकानं धम्मं देसेय्यं…पे॰… उपासिकानं धम्मं देसेय्यं, न अञ्‍ञो भिक्खु आरामगतानं उपासिकानं धम्मं देसेय्या’ति। ठानं खो पनेतं, आवुसो, विज्‍जति यं अञ्‍ञो भिक्खु आरामगतानं उपासिकानं धम्मं देसेय्य, न सो भिक्खु आरामगतानं उपासिकानं धम्मं देसेय्य। ‘अञ्‍ञो भिक्खु आरामगतानं उपासिकानं धम्मं देसेति, नाहं आरामगतानं उपासिकानं धम्मं देसेमी’ति – इति सो कुपितो होति अप्पतीतो। यो चेव खो, आवुसो, कोपो यो च अप्पच्‍चयो – उभयमेतं अङ्गणं।

‘‘ठानं खो पनेतं, आवुसो, विज्‍जति यं इधेकच्‍चस्स भिक्खुनो एवं इच्छा उप्पज्‍जेय्य – ‘अहो वत ममेव भिक्खू सक्‍करेय्युं गरुं करेय्युं गरुकरेय्युं (सी॰ स्या॰ पी॰) मानेय्युं पूजेय्युं, न अञ्‍ञं भिक्खुं भिक्खू सक्‍करेय्युं गरुं करेय्युं मानेय्युं पूजेय्यु’न्ति। ठानं खो पनेतं, आवुसो, विज्‍जति यं अञ्‍ञं भिक्खुं भिक्खू सक्‍करेय्युं गरुं करेय्युं मानेय्युं पूजेय्युं, न तं भिक्खुं भिक्खू सक्‍करेय्युं गरुं करेय्युं मानेय्युं पूजेय्युं। ‘अञ्‍ञं भिक्खुं भिक्खू सक्‍करोन्ति गरुं करोन्ति मानेन्ति पूजेन्ति , न मं भिक्खू सक्‍करोन्ति गरुं करोन्ति मानेन्ति पूजेन्ती’ति – इति सो कुपितो होति अप्पतीतो। यो चेव खो, आवुसो, कोपो यो च अप्पच्‍चयो – उभयमेतं अङ्गणं।

‘‘ठानं खो पनेतं, आवुसो, विज्‍जति यं इधेकच्‍चस्स भिक्खुनो एवं इच्छा उप्पज्‍जेय्य – ‘अहो वत ममेव भिक्खुनियो…पे॰… उपासका…पे॰… उपासिका सक्‍करेय्युं गरुं करेय्युं मानेय्युं पूजेय्युं, न अञ्‍ञं भिक्खुं उपासिका सक्‍करेय्युं गरुं करेय्युं मानेय्युं पूजेय्यु’न्ति। ठानं खो पनेतं, आवुसो, विज्‍जति यं अञ्‍ञं भिक्खुं उपासिका सक्‍करेय्युं गरुं करेय्युं मानेय्युं पूजेय्युं, न तं भिक्खुं उपासिका सक्‍करेय्युं गरुं करेय्युं मानेय्युं पूजेय्युं। ‘अञ्‍ञं भिक्खुं उपासिका सक्‍करोन्ति गरुं करोन्ति मानेन्ति पूजेन्ति, न मं उपासिका सक्‍करोन्ति गरुं करोन्ति मानेन्ति पूजेन्ती’ति – इति सो कुपितो होति अप्पतीतो। यो चेव खो, आवुसो, कोपो यो च अप्पच्‍चयो – उभयमेतं अङ्गणं।

‘‘ठानं खो पनेतं, आवुसो, विज्‍जति यं इधेकच्‍चस्स भिक्खुनो एवं इच्छा उप्पज्‍जेय्य – ‘अहो वत अहमेव लाभी अस्सं पणीतानं चीवरानं, न अञ्‍ञो भिक्खु लाभी अस्स पणीतानं चीवरान’न्ति। ठानं खो पनेतं, आवुसो, विज्‍जति यं अञ्‍ञो भिक्खु लाभी अस्स पणीतानं चीवरानं, न सो भिक्खु लाभी अस्स पणीतानं चीवरानं। ‘अञ्‍ञो भिक्खु लाभी लाभी अस्स (क॰) पणीतानं चीवरानं, नाहं लाभी लाभी अस्सं (क॰) पणीतानं चीवरान’न्ति – इति सो कुपितो होति अप्पतीतो। यो चेव खो, आवुसो, कोपो यो च अप्पच्‍चयो – उभयमेतं अङ्गणं।

‘‘ठानं खो पनेतं, आवुसो, विज्‍जति यं इधेकच्‍चस्स भिक्खुनो एवं इच्छा उप्पज्‍जेय्य – ‘अहो वत अहमेव लाभी अस्सं पणीतानं पिण्डपातानं…पे॰… पणीतानं सेनासनानं…पे॰… पणीतानं गिलानप्पच्‍चयभेसज्‍जपरिक्खारानं, न अञ्‍ञो भिक्खु लाभी अस्स पणीतानं गिलानप्पच्‍चयभेसज्‍जपरिक्खारान’न्ति। ठानं खो पनेतं, आवुसो, विज्‍जति यं अञ्‍ञो भिक्खु लाभी अस्स पणीतानं गिलानप्पच्‍चयभेसज्‍जपरिक्खारानं, न सो भिक्खु लाभी अस्स पणीतानं गिलानप्पच्‍चयभेसज्‍जपरिक्खारानं। ‘अञ्‍ञो भिक्खु लाभी लाभी अस्स (क॰) पणीतानं गिलानप्पच्‍चयभेसज्‍जपरिक्खारानं, नाहं लाभी लाभी अस्सं (क॰) पणीतानं गिलानप्पच्‍चयभेसज्‍जपरिक्खारान’न्ति – इति सो कुपितो होति अप्पतीतो। यो चेव खो, आवुसो, कोपो यो च अप्पच्‍चयो – उभयमेतं अङ्गणं।

‘‘इमेसं खो एतं, आवुसो, पापकानं अकुसलानं इच्छावचरानं अधिवचनं, यदिदं अङ्गण’’न्ति।

६१. ‘‘यस्स कस्सचि, आवुसो, भिक्खुनो इमे पापका अकुसला इच्छावचरा अप्पहीना दिस्सन्ति चेव सूयन्ति च, किञ्‍चापि सो होति आरञ्‍ञिको पन्तसेनासनो पिण्डपातिको सपदानचारी पंसुकूलिको लूखचीवरधरो, अथ खो नं सब्रह्मचारी न चेव सक्‍करोन्ति न गरुं करोन्ति न मानेन्ति न पूजेन्ति। तं किस्स हेतु? ते हि तस्स आयस्मतो पापका अकुसला इच्छावचरा अप्पहीना दिस्सन्ति चेव सूयन्ति च। सेय्यथापि, आवुसो, कंसपाति आभता आपणा वा कम्मारकुला वा परिसुद्धा परियोदाता। तमेनं सामिका अहिकुणपं वा कुक्‍कुरकुणपं वा मनुस्सकुणपं वा रचयित्वा अञ्‍ञिस्सा कंसपातिया पटिकुज्‍जित्वा अन्तरापणं पटिपज्‍जेय्युं। तमेनं जनो दिस्वा एवं वदेय्य – ‘अम्भो, किमेविदं हरीयति जञ्‍ञजञ्‍ञं विया’ति? तमेनं उट्ठहित्वा अपापुरित्वा अवापुरित्वा (सी॰) ओलोकेय्य। तस्स सहदस्सनेन अमनापता च सण्ठहेय्य, पाटिकुल्यता पटिकूलता (क॰), पाटिकूल्यता (स्या॰) च सण्ठहेय्य, जेगुच्छता च जेगुच्छिता च (पी॰ क॰) सण्ठहेय्य; जिघच्छितानम्पि न भोत्तुकम्यता अस्स, पगेव सुहितानं। एवमेव खो, आवुसो, यस्स कस्सचि भिक्खुनो इमे पापका अकुसला इच्छावचरा अप्पहीना दिस्सन्ति चेव सूयन्ति च, किञ्‍चापि सो होति आरञ्‍ञिको पन्तसेनासनो पिण्डपातिको सपदानचारी पंसुकूलिको लूखचीवरधरो, अथ खो नं सब्रह्मचारी न चेव सक्‍करोन्ति न गरुं करोन्ति न मानेन्ति न पूजेन्ति। तं किस्स हेतु? ते हि तस्स आयस्मतो पापका अकुसला इच्छावचरा अप्पहीना दिस्सन्ति चेव सूयन्ति च।

६२. ‘‘यस्स कस्सचि, आवुसो, भिक्खुनो इमे पापका अकुसला इच्छावचरा पहीना दिस्सन्ति चेव सूयन्ति च, किञ्‍चापि सो होति गामन्तविहारी नेमन्तनिको गहपतिचीवरधरो, अथ खो नं सब्रह्मचारी सक्‍करोन्ति गरुं करोन्ति मानेन्ति पूजेन्ति। तं किस्स हेतु ? ते हि तस्स आयस्मतो पापका अकुसला इच्छावचरा पहीना दिस्सन्ति चेव सूयन्ति च। सेय्यथापि, आवुसो, कंसपाति आभता आपणा वा कम्मारकुला वा परिसुद्धा परियोदाता। तमेनं सामिका सालीनं ओदनं विचितकाळकं विचिनितकाळकं (क॰) अनेकसूपं अनेकब्यञ्‍जनं रचयित्वा अञ्‍ञिस्सा कंसपातिया पटिकुज्‍जित्वा अन्तरापणं पटिपज्‍जेय्युं। तमेनं जनो दिस्वा एवं वदेय्य – ‘अम्भो, किमेविदं हरीयति जञ्‍ञजञ्‍ञं विया’ति? तमेनं उट्ठहित्वा अपापुरित्वा ओलोकेय्य। तस्स सह दस्सनेन मनापता च सण्ठहेय्य, अप्पाटिकुल्यता च सण्ठहेय्य, अजेगुच्छता च सण्ठहेय्य; सुहितानम्पि भोत्तुकम्यता अस्स, पगेव जिघच्छितानं। एवमेव खो, आवुसो, यस्स कस्सचि भिक्खुनो इमे पापका अकुसला इच्छावचरा पहीना दिस्सन्ति चेव सूयन्ति च, किञ्‍चापि सो होति गामन्तविहारी नेमन्तनिको गहपतिचीवरधरो, अथ खो नं सब्रह्मचारी सक्‍करोन्ति गरुं करोन्ति मानेन्ति पूजेन्ति । तं किस्स हेतु? ते हि तस्स आयस्मतो पापका अकुसला इच्छावचरा पहीना दिस्सन्ति चेव सूयन्ति चा’’ति।

६३. एवं वुत्ते, आयस्मा महामोग्गल्‍लानो आयस्मन्तं सारिपुत्तं एतदवोच – ‘‘उपमा मं, आवुसो सारिपुत्त, पटिभाती’’ति। ‘‘पटिभातु तं, आवुसो मोग्गल्‍लाना’’ति। ‘‘एकमिदाहं, आवुसो, समयं राजगहे विहरामि गिरिब्बजे। अथ ख्वाहं, आवुसो, पुब्बण्हसमयं निवासेत्वा पत्तचीवरमादाय राजगहं पिण्डाय पाविसिं। तेन खो पन समयेन समीति यानकारपुत्तो रथस्स नेमिं तच्छति। तमेनं पण्डुपुत्तो आजीवको पुराणयानकारपुत्तो पच्‍चुपट्ठितो होति। अथ खो, आवुसो, पण्डुपुत्तस्स आजीवकस्स पुराणयानकारपुत्तस्स एवं चेतसो परिवितक्‍को उदपादि – ‘अहो वतायं समीति यानकारपुत्तो इमिस्सा नेमिया इमञ्‍च वङ्कं इमञ्‍च जिम्हं इमञ्‍च दोसं तच्छेय्य, एवायं नेमि अपगतवङ्का अपगतजिम्हा अपगतदोसा सुद्धा अस्स सुद्धास्स (सी॰ पी॰), सुद्धा (क॰) सारे पतिट्ठिता’ति । यथा यथा खो, आवुसो, पण्डुपुत्तस्स आजीवकस्स पुराणयानकारपुत्तस्स चेतसो परिवितक्‍को होति, तथा तथा समीति यानकारपुत्तो तस्सा नेमिया तञ्‍च वङ्कं तञ्‍च जिम्हं तञ्‍च दोसं तच्छति। अथ खो, आवुसो, पण्डुपुत्तो आजीवको पुराणयानकारपुत्तो अत्तमनो अत्तमनवाचं निच्छारेसि – ‘हदया हदयं मञ्‍ञे अञ्‍ञाय तच्छती’ति।

‘‘एवमेव खो, आवुसो, ये ते पुग्गला अस्सद्धा, जीविकत्था न सद्धा अगारस्मा अनगारियं पब्बजिता, सठा मायाविनो केतबिनो केटुभिनो (बहूसु) उद्धता उन्‍नळा चपला मुखरा विकिण्णवाचा, इन्द्रियेसु अगुत्तद्वारा, भोजने अमत्तञ्‍ञुनो, जागरियं अननुयुत्ता, सामञ्‍ञे अनपेक्खवन्तो, सिक्खाय न तिब्बगारवा, बाहुलिका साथलिका, ओक्‍कमने पुब्बङ्गमा, पविवेके निक्खित्तधुरा, कुसीता हीनवीरिया मुट्ठस्सती असम्पजाना असमाहिता विब्भन्तचित्ता दुप्पञ्‍ञा एळमूगा, तेसं आयस्मा सारिपुत्तो इमिना धम्मपरियायेन हदया हदयं मञ्‍ञे अञ्‍ञाय तच्छति।

‘‘ये पन ते कुलपुत्ता सद्धा अगारस्मा अनगारियं पब्बजिता, असठा अमायाविनो अकेतबिनो अनुद्धता अनुन्‍नळा अचपला अमुखरा अविकिण्णवाचा, इन्द्रियेसु गुत्तद्वारा, भोजने मत्तञ्‍ञुनो, जागरियं अनुयुत्ता, सामञ्‍ञे अपेक्खवन्तो, सिक्खाय तिब्बगारवा, न बाहुलिका न साथलिका, ओक्‍कमने निक्खित्तधुरा, पविवेके पुब्बङ्गमा, आरद्धवीरिया पहितत्ता उपट्ठितस्सती सम्पजाना समाहिता एकग्गचित्ता पञ्‍ञवन्तो अनेळमूगा, ते आयस्मतो सारिपुत्तस्स इमं धम्मपरियायं सुत्वा पिवन्ति मञ्‍ञे, घसन्ति मञ्‍ञे वचसा चेव मनसा च – ‘साधु वत, भो, सब्रह्मचारी अकुसला वुट्ठापेत्वा कुसले पतिट्ठापेती’ति। सेय्यथापि, आवुसो, इत्थी वा पुरिसो वा दहरो युवा मण्डनकजातिको सीसंन्हातो उप्पलमालं वा वस्सिकमालं वा अतिमुत्तकमालं अधिमुत्तकमालं (स्या॰) वा लभित्वा उभोहि हत्थेहि पटिग्गहेत्वा उत्तमङ्गे सिरस्मिं पतिट्ठपेय्य, एवमेव खो, आवुसो, ये ते कुलपुत्ता सद्धा अगारस्मा अनगारियं पब्बजिता, असठा अमायाविनो अकेतबिनो अनुद्धता अनुन्‍नळा अचपला अमुखरा अविकिण्णवाचा, इन्द्रियेसु गुत्तद्वारा, भोजने मत्तञ्‍ञुनो, जागरियं अनुयुत्ता, सामञ्‍ञे अपेक्खवन्तो, सिक्खाय तिब्बगारवा, न बाहुलिका न साथलिका, ओक्‍कमने निक्खित्तधुरा, पविवेके पुब्बङ्गमा, आरद्धवीरिया पहितत्ता उपट्ठितस्सती सम्पजाना समाहिता एकग्गचित्ता पञ्‍ञवन्तो अनेळमूगा, ते आयस्मतो सारिपुत्तस्स इमं धम्मपरियायं सुत्वा पिवन्ति मञ्‍ञे, घसन्ति मञ्‍ञे वचसा चेव मनसा च – ‘साधु वत, भो, सब्रह्मचारी अकुसला वुट्ठापेत्वा कुसले पतिट्ठापेती’ति। इतिह ते उभो महानागा अञ्‍ञमञ्‍ञस्स सुभासितं समनुमोदिंसू’’ति।

अनङ्गणसुत्तं निट्ठितं पञ्‍चमं।