ऐसा मैंने सुना — एक समय आयुष्मान महामोग्गल्लान भग्गों के साथ मगरमच्छ टीले पर भेसकला मृगवन में विहार कर रहे थे। उस समय आयुष्मान महामोग्गल्लान खुले आकाश के नीचे चक्रमण (=चलते हुए ध्यान) कर रहे थे। तब उसी समय पापी मार ने आयुष्मान महामोग्गल्लान के पेट में प्रवेश किया।
तब आयुष्मान महामोग्गल्लान को लगा, “मेरा पेट भला इतना भारी क्यों हो गया? जैसे (गर्भवती स्त्री के) महीने लग चुके हो।”
तब आयुष्मान महामोग्गल्लान ने चक्रमण से उतर कर अपने विहार में प्रवेश किया और बिछे आसन पर बैठ गए। बैठकर आयुष्मान महामोग्गल्लान ने उचित तरह से गौर किया। तब आयुष्मान महामोग्गल्लान को अपने पेट में पापी मार का प्रवेश हुआ दिखायी दिया। देखकर उन्होंने पापी मार को कहा, “निकलो, पापी! निकलो, पापी! तथागत को परेशान मत करो! तथागत के श्रावक को परेशान मत करो! अपना दीर्घकाल के लिए अहित और दुःख मत करो!”
तब पापी मार को लगा, “बिना जाने, बिना देखे यह श्रमण मुझसे कहता है, ‘निकलो, पापी! निकलो, पापी…’ इसके शास्ता भी मुझे इतना जल्दी नहीं पहचान सकते हैं, तो भला यह श्रावक क्या पहचानेगा?”
तब आयुष्मान महामोग्गल्लान ने पापी मार से कहा, “ऐसी (सूक्ष्म) अवस्था होने पर भी, पापी, ऐसा मत सोचो कि ‘यह मुझे नहीं पहचानता!’ तुम मार हो, पापी! और पापी तुम्हें लगता है, ‘बिना जाने, बिना देखे यह श्रमण मुझसे कहता है, ‘निकलो, पापी! निकलो, पापी…’ इसके शास्ता भी मुझे इतना जल्दी नहीं पहचान सकते हैं, तो भला यह श्रावक क्या पहचानेगा?’”
तब पापी मार आयुष्मान महामोग्गल्लान के मुख से (शायद, डकार की तरह?) उगलकर दरवाजे से सटकर खड़ा हुआ। तब आयुष्मान महामोग्गल्लान ने पापी मार को दरवाजे से सटकर खड़ा देखा। देखकर उन्होंने पापी मार से कहा, “वहाँ भी, पापी, मैं तुम्हें देख रहा हूँ। ऐसा मत सोचो कि ‘यह मुझे नहीं देख रहा है!’ पापी, तुम वही दरवाजे से सटकर खड़े हो।
बहुत पहले की बात है, पापी, मैं ‘दूसी’ (=दूषित) नामक मार था, और मेरी ‘काली’ नामक बहन थी। उसी के तुम पुत्र हो। इस तरह तुम मेरे भानजे हुए।
उस समय, पापी, ‘ककुसन्ध’ भगवान अरहंत सम्यक-सम्बुद्ध इस लोक में उत्पन्न हुए थे। ककुसन्ध भगवान अरहंत सम्यक-सम्बुद्ध की ‘विधुर’ और ‘संजीव’ नामक अग्र श्रावकों की भद्र जोड़ी थी। ककुसन्ध भगवान अरहंत सम्यक-सम्बुद्ध के कई श्रावक थे, किन्तु धर्म उपदेश करने में कोई श्रावक आयुष्मान विधुर के समान नहीं था। और इस प्रकार, पापी, आयुष्मान विधुर का नाम विधुर (=चतुर, सयाना) पड़ा।
और, पापी, आयुष्मान संजीव जंगल जाकर, पेड़ के तले जाकर, या शून्यागार जाकर बिना कठिनाई के संज्ञा-वेदना निरोध समापत्ति लगाते। बहुत पहले, पापी, आयुष्मान संजीव किसी पेड़ के तले संज्ञा-वेदना निरोध समापत्ति लगाकर बैठे हुए थे। तब कुछ चरवाहो, पशुपालको, किसानो और रास्ते से आने-जाने वालों ने आयुष्मान संजीव को किसी पेड़ के तले संज्ञा-वेदना निरोध समापत्ति लगाकर बैठे हुए देखा। देखकर उन्हें लगा, “आश्चर्य है, श्रीमान! अद्भुत है, श्रीमान! यह श्रमण बैठे-बैठे गुजर गया। चलो, इसका दाह-संस्कार करें!”
तब, पापी, उन चरवाहो, पशुपालको, किसानो और रास्ते से आने-जाने वालो ने आयुष्मान संजीव की काया पर घास, काष्ठ और सूखा गोबर लगाकर अग्नि लगाकर चले गए। तब रात बीतने पर, पापी, आयुष्मान संजीव निरोध अवस्था से निकल, अपने चीवर को झाड़, सुबह होने पर चीवर ओढ़, पात्र लेकर भिक्षाटन के लिए गाँव में प्रवेश किया।
तब, पापी, उन चरवाहो, पशुपालको, किसानो और रास्ते से आने-जाने वालो ने आयुष्मान संजीव को भिक्षाटन के लिए भटकते देखा। देखकर उन्हें लगा, “आश्चर्य है, श्रीमान! अद्भुत है, श्रीमान! यह श्रमण बैठे-बैठे गुजर गया था! और अब जीवित हो उठा है!” और इस प्रकार, पापी, आयुष्मान संजीव का नामक संजीव (=जीवित बचा) पड़ा।
तब, पापी, दूसी मार को लगा, “मुझे इन कल्याणधर्मी और शीलवान भिक्षुओं का आना-जाना (“आगति-गति” =चित्त का स्टेशन) पता नहीं चलता। क्यों न मैं गाँव के ब्राह्मणों और गृहस्थों को वशीभूत करूँ — ‘जाओ, सब मिलकर इन कल्याणधर्मी और शीलवान भिक्षुओं को गाली-गलौच करो, दोषारोपित करो, चिढ़ाओं, परेशान करो। हो सकता है उनके गाली-गलौच करने, दोषारोपित करने, चिढ़ाने, परेशान करने से भिक्षुओं का चित्त विचलित हो जाएगा, और तब दूसी मार को अवसर मिलेगा।’”
तब, पापी, दूसी मार ने गाँव के ब्राह्मणों और गृहस्थों को वशीभूत किया — ‘जाओ, सब मिलकर इन कल्याणधर्मी और शीलवान भिक्षुओं को गाली-गलौच करो, दोषारोपित करो, चिढ़ाओं, परेशान करो। हो सकता है तुम्हारे गाली-गलौच करने, दोषारोपित करने, चिढ़ाने, परेशान करने से भिक्षुओं का चित्त विचलित हो जाएगा, और तब दूसी मार को अवसर मिलेगा।’
तब, पापी, दूसी मार के द्वारा वशीभूत होकर गाँव के ब्राह्मणों और गृहस्थों ने जाकर उन कल्याणधर्मी और शीलवान भिक्षुओं को खूब गाली-गलौच किया, दोषारोपित किया, चिढ़ाया, परेशान किया — “ये टकले श्रमण तुच्छ हैं, नीच जाति के हैं, काले हैं, हमारे वंशज (=ब्रह्मा) के पैर से उपजे हैं। ‘हम ध्यान लगाते हैं! हम ध्यान लगाते हैं!’ कहते हुए, कंधे झुका कर, मुँह नीचे कर, नशेड़ी-गंजेड़ी जैसे ध्यान लगाते हैं, अनुध्यान करते हैं, चिंतन करते हैं, मंथन करते हैं।
जैसे पेड़ की शाखा पर बैठे उल्लू हो, जो चूहे के रास्ते पर ध्यान लगाते हैं, अनुध्यान करते हैं, चिंतन करते हैं, मंथन करते हैं। उसी तरह ये टकले श्रमण तुच्छ हैं, नीच जाति के हैं, काले हैं, हमारे वंशज के पैर से उपजे हैं। ‘हम ध्यान लगाते हैं! हम ध्यान लगाते हैं!’ कहते हुए, कंधे झुका कर, मुँह नीचे कर, नशेड़ी-गंजेड़ी जैसे ध्यान लगाते हैं, अनुध्यान करते हैं, चिंतन करते हैं, मंथन करते हैं।
जैसे नदी के किनारे के सियार हो, जो मछलियों के रास्ते पर ध्यान लगाते हैं, अनुध्यान करते हैं, चिंतन करते हैं, मंथन करते हैं। उसी तरह ये टकले श्रमण तुच्छ हैं, नीच जाति के हैं, काले हैं, हमारे वंशज के पैर से उपजे हैं। ‘हम ध्यान लगाते हैं! हम ध्यान लगाते हैं!’ कहते हुए, कंधे झुका कर, मुँह नीचे कर, नशेड़ी-गंजेड़ी जैसे ध्यान लगाते हैं, अनुध्यान करते हैं, चिंतन करते हैं, मंथन करते हैं।
जैसे गली, गंदी नाली और कूड़े-करकट की बिल्लियाँ हो, जो चूहे के रास्ते पर ध्यान लगाते हैं, अनुध्यान करते हैं, चिंतन करते हैं, मंथन करते हैं। उसी तरह ये टकले श्रमण तुच्छ हैं, नीच जाति के हैं, काले हैं, हमारे वंशज के पैर से उपजे हैं। ‘हम ध्यान लगाते हैं! हम ध्यान लगाते हैं!’ कहते हुए, कंधे झुका कर, मुँह नीचे कर, नशेड़ी-गंजेड़ी जैसे ध्यान लगाते हैं, अनुध्यान करते हैं, चिंतन करते हैं, मंथन करते हैं।
जैसे गली, गंदी नाली और कूड़े-करकट के गधे हो, जो बोझा उतार कर ध्यान लगाते हैं, अनुध्यान करते हैं, चिंतन करते हैं, मंथन करते हैं। उसी तरह ये टकले श्रमण तुच्छ हैं, नीच जाति के हैं, काले हैं, हमारे वंशज के पैर से उपजे हैं। ‘हम ध्यान लगाते हैं! हम ध्यान लगाते हैं!’ कहते हुए, कंधे झुका कर, मुँह नीचे कर, नशेड़ी-गंजेड़ी जैसे ध्यान लगाते हैं, अनुध्यान करते हैं, चिंतन करते हैं, मंथन करते हैं।
उस समय, पापी, उन मनुष्यों में अधिकांश लोग मरणोपरांत काया छूटने पर पतन होकर दुर्गति हो, यातनालोक नर्क में उपजे।
किन्तु, पापी, तब भगवान ककुसन्ध अरहंत सम्यक-सम्बुद्ध ने भिक्षुओं को संबोधित किया, “भिक्षुओं! दूसी मार ने ब्राह्मणों और गृहस्थों को वशीभूत किया है — ‘जाओ, सब मिलकर इन कल्याणधर्मी और शीलवान भिक्षुओं को गाली-गलौच करो, दोषारोपित करो, चिढ़ाओं, परेशान करो। हो सकता है तुम्हारे गाली-गलौच करने, दोषारोपित करने, चिढ़ाने, परेशान करने से भिक्षुओं का चित्त विचलित हो जाएगा, और तब दूसी मार को अवसर मिलेगा।’
इसलिए आओ, भिक्षुओं, सद्भावपूर्ण (“मेत्ता”) चित्त को एक दिशा में फैलाकर व्याप्त करो। उसी तरह दूसरी दिशा में… तीसरी दिशा में… चौथी दिशा में। उसी तरह, ऊपर… नीचे… तत्र सर्वत्र… सभी ओर संपूर्ण ब्रह्मांड में निर्बैर, निर्द्वेष, विस्तृत, विराट और असीम सद्भावपूर्ण चित्त को फैलाकर परिपूर्णतः व्याप्त करो।
(उसी तरह) करुण चित्त को… प्रसन्न [“मुदिता”] चित्त को… तटस्थ [“उपेक्खा”] चित्त को एक दिशा में फैलाकर व्याप्त करो। उसी तरह दूसरी दिशा में… तीसरी दिशा में… चौथी दिशा में। उसी तरह, ऊपर… नीचे… तत्र सर्वत्र… सभी ओर संपूर्ण ब्रह्मांड में निर्बैर, निर्द्वेष, विस्तृत, विराट और असीम करुण… प्रसन्न… तटस्थ चित्त को फैलाकर परिपूर्णतः व्याप्त करो।”
तब, पापी, भगवान ककुसन्ध अरहंत सम्यक-सम्बुद्ध से इस तरह निर्देशित होने पर, इस तरह अनुशासित होने पर, भिक्षु संघ जंगल जाकर, पेड़ के तले जाकर, या शून्यागार जाकर सद्भावपूर्ण चित्त को एक दिशा में फैलाकर व्याप्त किया। उसी तरह दूसरी दिशा में… तीसरी दिशा में… चौथी दिशा में। उसी तरह, उन्होंने ऊपर… नीचे… तत्र सर्वत्र… सभी ओर संपूर्ण ब्रह्मांड में निर्बैर, निर्द्वेष, विस्तृत, विराट और असीम सद्भावपूर्ण चित्त को फैलाकर परिपूर्णतः व्याप्त किया।
(उसी तरह) करुण चित्त को… प्रसन्न चित्त को… तटस्थ चित्त को एक दिशा में फैलाकर व्याप्त किया। उसी तरह दूसरी दिशा में… तीसरी दिशा में… चौथी दिशा में। उसी तरह, उन्होंने ऊपर… नीचे… तत्र सर्वत्र… सभी ओर संपूर्ण ब्रह्मांड में निर्बैर, निर्द्वेष, विस्तृत, विराट और असीम करुण… प्रसन्न… तटस्थ चित्त को फैलाकर परिपूर्णतः व्याप्त किया।
तब, पापी, दूसी मार को लगा, “मेरे ऐसा करने पर भी मुझे उन कल्याणधर्मी और शीलवान भिक्षुओं का आना-जाना पता नहीं चल रहा है। (अबकी बार) क्यों न मैं गाँव के (दूसरे) ब्राह्मणों और गृहस्थों को वशीभूत करूँ — ‘जाओ, तुम मिलकर इन कल्याणधर्मी और शीलवान भिक्षुओं का सत्कार करो, सम्मान करो, उन्हें मानो, उन्हें पूजो। हो सकता है उनके सत्कार करने, सम्मान करने, उन्हें मानने और पूजने से भिक्षुओं का चित्त विचलित हो जाएगा, और तब दूसी मार को अवसर मिलेगा।’”
तब, पापी, दूसी मार ने गाँव के ब्राह्मणों और गृहस्थों को वशीभूत किया — ‘जाओ, तुम मिलकर इन कल्याणधर्मी और शीलवान भिक्षुओं का सत्कार करो, सम्मान करो, उन्हें मानो, उन्हें पूजो। हो सकता है उनके सत्कार करने, सम्मान करने, उन्हें मानने और पूजने से भिक्षुओं का चित्त विचलित हो जाएगा, और तब दूसी मार को अवसर मिलेगा।’
तब, पापी, दूसी मार के द्वारा वशीभूत होकर गाँव के ब्राह्मणों और गृहस्थों ने जाकर उन कल्याणधर्मी और शीलवान भिक्षुओं का खूब सत्कार किया, सम्मान किया, उन्हें मानने लगे, उन्हें पूजने लगे।
उस समय, पापी, उन मनुष्यों में अधिकांश लोग मरणोपरांत काया छूटने पर सद्गति होकर स्वर्ग में उपजे।
किन्तु, पापी, तब भगवान ककुसन्ध अरहंत सम्यक-सम्बुद्ध ने भिक्षुओं को संबोधित किया, “भिक्षुओं! दूसी मार ने ब्राह्मणों और गृहस्थों को (पुनः) वशीभूत किया है — ‘जाओ, तुम मिलकर इन कल्याणधर्मी और शीलवान भिक्षुओं का सत्कार करो, सम्मान करो, उन्हें मानो, उन्हें पूजो। हो सकता है उनके सत्कार करने, सम्मान करने, उन्हें मानने और पूजने से भिक्षुओं का चित्त विचलित हो जाएगा, और तब दूसी मार को अवसर मिलेगा।’
इसलिए आओ, भिक्षुओं, (अबकी बार) काया को अनाकर्षक (“असुभ”) देखते हुए विहार करो, आहार के प्रति विपरीत नजरिया रखो, सभी लोक के प्रति निरस नजरिया रखो, और सभी रचनाओं का अनित्य पहलू देखो।”
तब, पापी, भगवान ककुसन्ध अरहंत सम्यक-सम्बुद्ध से इस तरह निर्देशित होने पर, इस तरह अनुशासित होने पर, भिक्षु संघ ने जंगल जाकर, पेड़ के तले जाकर, या शून्यागार जाकर काया को अनाकर्षक देखते हुए विहार किया, आहार के प्रति विपरीत नजरिया रखा, सभी लोक के प्रति निरस नजरिया रखा, और सभी रचनाओं का अनित्य पहलू देखा।
तब, पापी, सुबह होने पर भगवान ककुसन्ध अरहंत सम्यक-सम्बुद्ध ने चीवर ओढ़, पात्र और संघाटी लेकर भिक्षाटन के लिए आयुष्मान विधुर को साथ लेकर गाँव में प्रवेश किया। तब, पापी, दूसी मार ने किसी लड़के को वशीभूत किया, और पत्थर उठाकर आयुष्मान विधुर के सिर पर दे मारा। उनका सिर फट गया।
किन्तु, तब भी, पापी, आयुष्मान विधुर फटे सिर से रक्त बहाते हुए भगवान ककुसन्ध अरहंत सम्यक-सम्बुद्ध के पीछे-पीछे (शांत) चलते रहे। तब भगवान ककुसन्ध अरहंत सम्यक-सम्बुद्ध पीछे मुड़कर हाथी की नजर से देखा, (सोचते हुए), “यह दूसी मार कोई मर्यादा नहीं मानता!” और, पापी, उसी नजर के साथ दूसी मार उस स्थान से च्युत होकर महानर्क में गिर पड़ा।
किन्तु, पापी, महानर्क के तीन नाम हैं —
तब, पापी, नर्कपालों ने मेरे पास आकर कहा, “महाशय, जब इस सूली (या खूँटी) का समागम तुम्हारे हृदय की सूली से होगा, तब तुम्हें पता चलेगा कि ‘हजारों वर्षों तक नर्क में जलना क्या होता है!’”
और तब, पापी, मैं बहुत वर्षों तक, बहुत सैकड़ों वर्षों तक, बहुत हजारों वर्षों तक महानर्क में जलाया गया। दस हजार वर्षों तक मैं महानर्क के भवन में ‘ये उभरना है’ नामक पीड़ाओं की अनुभूति करते रहा। 1
और तब, पापी, मेरी काया ऐसी ही थी, जैसे मनुष्य की होती है। किन्तु मेरा सिर ऐसा था, जैसा मछली का होता है।
पाप हमारे हृदय में खूँटी, तीर, अग्नि, विष, या अन्य कष्टकारी बीजों के रूप में संचित होता है, और उसकी सजा भी उसी रूप में प्रकट होती है—जैसे सूली, तीर, भाला या अग्नि से समागम होना। इसका अर्थ यह है कि कर्मों की सजा का कोई बाहरी रूप निश्चित नहीं होता, बल्कि यह पूरी तरह से हमारी आंतरिक अवस्था पर निर्भर करती है। जिस रूप में पाप हमारे हृदय में संचित होता है, उसी रूप में उसकी सजा भी प्रकट होती है।
जब भीतर का पाप बाहरी दंड से जुड़ता है, तो एक तरह का ‘शॉर्ट सर्किट’ होता है, जिससे पीड़ा उभरने लगती है। यह पीड़ा सीधे उस पाप से जुड़ी होती है और हमें उसे भीतर से खत्म करने का अवसर भी देती है। इस प्रकार, नर्क की पीड़ा एक ‘उभरती हुई’ प्रक्रिया बन जाती है, जो धीरे-धीरे पाप को समाप्त करती है। इस प्रक्रिया में हृदय भीतर के भारी बीजों से मुक्त और हल्का हो जाता है। ↩︎
भगवान ने महामोग्गल्लान भंते को मिगारमाता भवन को पैर के अँगूठे से हिलाने के लिए संयुक्तनिकाय ५१.१४ में फटकारा था। इसके बाद, महामोग्गल्लान भंते ने तैतीस लोक के वैजयंत महल को मज्झिमनिकाय ३७ में हिलाया। हालांकि, वहाँ वे देवराज इन्द्र को “वासव” के बजाय “कोसिय” पुकारते हैं। फिर, महामोग्गल्लान भंते ने ब्रह्मा से जाकर संयुक्तनिकाय ६.५ में पूछा। लेकिन वहाँ ‘सुधम्म सभा’ का कोई उल्लेख नहीं है। अट्ठकथा के अनुसार, अंतिम चार पंक्तियाँ संगायन के समय जोड़ी गईं। ↩︎
५०६. एवं मे सुतं – एकं समयं आयस्मा महामोग्गल्लानो भग्गेसु विहरति सुसुमारगिरे भेसकळावने मिगदाये. तेन खो पन समयेन आयस्मा महामोग्गल्लानो अब्भोकासे चङ्कमति. तेन खो पन समयेन मारो पापिमा आयस्मतो महामोग्गल्लानस्स कुच्छिगतो होति कोट्ठमनुपविट्ठो. अथ खो आयस्मतो महामोग्गल्लानस्स एतदहोसि – ‘‘किं नु खो मे कुच्छि गरुगरो विय [गरु गरु विय (सी. पी. टीकायं पाठन्तरं)]? मासाचितं मञ्ञे’’ति. अथ खो आयस्मा महामोग्गल्लानो चङ्कमा ओरोहित्वा विहारं पविसित्वा पञ्ञत्ते आसने निसीदि. निसज्ज खो आयस्मा महामोग्गल्लानो पच्चत्तं योनिसो मनसाकासि. अद्दसा खो आयस्मा महामोग्गल्लानो मारं पापिमन्तं कुच्छिगतं कोट्ठमनुपविट्ठं. दिस्वान मारं पापिमन्तं एतदवोच – ‘‘निक्खम, पापिम; निक्खम, पापिम! मा तथागतं विहेसेसि, मा तथागतसावकं. मा ते अहोसि दीघरत्तं अहिताय दुक्खाया’’ति. अथ खो मारस्स पापिमतो एतदहोसि – ‘‘अजानमेव खो मं अयं समणो अपस्सं एवमाह – ‘निक्खम, पापिम; निक्खम, पापिम! मा तथागतं विहेसेसि, मा तथागतसावकं. मा ते अहोसि दीघरत्तं अहिताय दुक्खाया’ति. योपिस्स सो सत्था सोपि मं नेव खिप्पं जानेय्य, कुतो पन [कुतो च पन (स्या.)] मं अयं सावको जानिस्सती’’ति? अथ खो आयस्मा महामोग्गल्लानो मारं पापिमन्तं एतदवोच – ‘‘एवम्पि खो ताहं, पापिम, जानामि, मा त्वं मञ्ञित्थो – ‘न मं जानाती’ति. मारो त्वमसि, पापिम; तुय्हञ्हि, पापिम, एवं होति – ‘अजानमेव खो मं अयं समणो अपस्सं एवमाह – निक्खम, पापिम; निक्खम, पापिम! मा तथागतं विहेसेसि, मा तथागतसावकं. मा ते अहोसि दीघरत्तं अहिताय दुक्खायाति. योपिस्स सो सत्था सोपि मं नेव खिप्पं जानेय्य, कुतो पन मं अयं सावको जानिस्सती’’’ति?
अथ खो मारस्स पापिमतो एतदहोसि – ‘‘जानमे खो मं अयं समणो पस्सं एवमाह – ‘निक्खम, पापिम; निक्खम, पापिम! मा तथागतं विहेसेसि, मा तथागतसावकं. मा ते अहोसि दीघरत्तं अहिताय दुक्खाया’’’ति. अथ खो मारो पापिमा आयस्मतो महामोग्गल्लानस्स मुखतो उग्गन्त्वा पच्चग्गळे अट्ठासि.
५०७. अद्दसा खो आयस्मा महामोग्गल्लानो मारं पापिमन्तं पच्चग्गळे ठितं; दिस्वान मारं पापिमन्तं एतदवोच – ‘एत्थापि खो ताहं, पापिम, पस्सामि; मा त्वं मञ्ञित्थो ‘‘न मं पस्सती’’ति. एसो त्वं, पापिम, पच्चग्गळे ठितो. भूतपुब्बाहं, पापिम, दूसी नाम मारो अहोसिं, तस्स मे काळी नाम भगिनी. तस्सा त्वं पुत्तो. सो मे त्वं भागिनेय्यो अहोसि. तेन खो पन, पापिम, समयेन ककुसन्धो भगवा अरहं सम्मासम्बुद्धो लोके उप्पन्नो होति. ककुसन्धस्स खो पन, पापिम, भगवतो अरहतो सम्मासम्बुद्धस्स विधुरसञ्जीवं नाम सावकयुगं अहोसि अग्गं भद्दयुगं. यावता खो पन, पापिम, ककुसन्धस्स भगवतो अरहतो सम्मासम्बुद्धस्स सावका. तेसु न च कोचि आयस्मता विधुरेन समसमो होति यदिदं धम्मदेसनाय. इमिना खो एवं [एतं (सी. स्या. पी.)], पापिम, परियायेन आयस्मतो विधुरस्स विधुरोतेव [विधुरस्स विधुरो विधुरोत्वेव (सी. स्या. कं. पी.)] समञ्ञा उदपादि.
‘‘आयस्मा पन, पापिम, सञ्जीवो अरञ्ञगतोपि रुक्खमूलगतोपि सुञ्ञागारगतोपि अप्पकसिरेनेव सञ्ञावेदयितनिरोधं समापज्जति. भूतपुब्बं, पापिम, आयस्मा सञ्जीवो अञ्ञतरस्मिं रुक्खमूले सञ्ञावेदयितनिरोधं समापन्नो निसिन्नो होति. अद्दसंसु खो, पापिम, गोपालका पसुपालका कस्सका पथाविनो आयस्मन्तं सञ्जीवं अञ्ञतरस्मिं रुक्खमूले सञ्ञावेदयितनिरोधं समापन्नं निसिन्नं; दिस्वान तेसं एतदहोसि – ‘अच्छरियं वत, भो, अब्भुतं वत, भो! अयं समणो निसिन्नकोव कालङ्कतो! हन्द नं दहामा’ति. अथ खो ते, पापिम, गोपालका पसुपालका कस्सका पथाविनो तिणञ्च कट्ठञ्च गोमयञ्च संकड्ढित्वा आयस्मतो सञ्जीवस्स काये उपचिनित्वा अग्गिं दत्वा पक्कमिंसु. अथ खो, पापिम, आयस्मा सञ्जीवो तस्सा रत्तिया अच्चयेन ताय समापत्तिया वुट्ठहित्वा चीवरानि पप्फोटेत्वा पुब्बण्हसमयं निवासेत्वा पत्तचीवरमादाय गामं पिण्डाय पाविसि. अद्दसंसु खो ते, पापिम, गोपालका पसुपालका कस्सका पथाविनो आयस्मन्तं सञ्जीवं पिण्डाय चरन्तं; दिस्वान नेसं एतदहोसि – ‘अच्छरियं वत, भो, अब्भुतं वत, भो! अयं समणो निसिन्नकोव कालङ्कतो, स्वायं पटिसञ्जीवितो’ति . इमिना खो एवं, पापिम, परियायेन आयस्मतो सञ्जीवस्स सञ्जीवोतेव [सञ्जीवो सञ्जीवोत्वेव (सी. स्या. कं. पी.)] समञ्ञा उदपादि.
५०८. ‘‘अथ खो, पापिम, दूसिस्स मारस्स एतदहोसि – ‘इमेसं खो अहं भिक्खूनं सीलवन्तानं कल्याणधम्मानं नेव जानामि आगतिं वा गतिं वा. यंनूनाहं ब्राह्मणगहपतिके अन्वाविसेय्यं – एथ, तुम्हे भिक्खू सीलवन्ते कल्याणधम्मे अक्कोसथ परिभासथ रोसेथ विहेसेथ. अप्पेव नाम तुम्हेहि अक्कोसियमानानं परिभासियमानानं रोसियमानानं विहेसियमानानं सिया चित्तस्स अञ्ञथत्तं, यथा तं दूसी मारो लभेथ ओतार’न्ति. अथ खो ते, पापिम, दूसी मारो ब्राह्मणगहपतिके अन्वाविसि – ‘एथ, तुम्हे भिक्खू सीलवन्ते कल्याणधम्मे अक्कोसथ परिभासथ रोसेथ विहेसेथ. अप्पेव नाम तुम्हेहि अक्कोसियमानानं परिभासियमानानं रोसियमानानं विहेसियमानानं सिया चित्तस्स अञ्ञथत्तं, यथा तं दूसी मारो लभेथ ओतार’न्ति.
‘‘अथ खो ते, पापिम, ब्राह्मणगहपतिका अन्वाविसिट्ठा दूसिना मारेन भिक्खू सीलवन्ते कल्याणधम्मे अक्कोसन्ति परिभासन्ति रोसेन्ति विहेसेन्ति – ‘इमे पन मुण्डका समणका इब्भा किण्हा [कण्हा (स्या. कं. क.)] बन्धुपादापच्चा ‘‘झायिनोस्मा झायिनोस्मा’’ति पत्तक्खन्धा अधोमुखा मधुरकजाता झायन्ति पज्झायन्ति निज्झायन्ति अपज्झायन्ति. सेय्यथापि नाम उलूको रुक्खसाखायं मूसिकं मग्गयमानो झायति पज्झायति निज्झायति अपज्झायति; एवमेविमे मुण्डका समणका इब्भा किण्हा बन्धुपादापच्चा ‘‘झायिनोस्मा झायिनोस्मा’’ति पत्तक्खन्धा अधोमुखा मधुरकजाता झायन्ति पज्झायन्ति निज्झायन्ति अपज्झायन्ति. सेय्यथापि नाम कोत्थु नदीतीरे मच्छे मग्गयमानो झायति पज्झायति निज्झायति अपज्झायति; एवमेविमे मुण्डका समणका इब्भा किण्हा बन्धुपादापच्चा ‘‘झायिनोस्मा झायिनोस्मा’’ति पत्तक्खन्धा अधोमुखा मधुरकजाता झायन्ति पज्झायन्ति निज्झायन्ति अपज्झायन्ति. सेय्यथापि नाम बिळारो सन्धिसमलसङ्कटीरे मूसिकं मग्गयमानो झायति पज्झायति निज्झायति अपज्झायति; एवमेविमे मुण्डका समणका इब्भा किण्हा बन्धुपादापच्चा ‘‘झायिनोस्मा झायिनोस्मा’’ति पत्तक्खन्धा अधोमुखा मधुरकजाता झायन्ति पज्झायन्ति निज्झायन्ति अपज्झायन्ति. सेय्यथापि नाम गद्रभो वहच्छिन्नो सन्धिसमलसङ्कटीरे झायति पज्झायति निज्झायति अपज्झायति, एवमेविमे मुण्डका समणका इब्भा किण्हा बन्धुपादापच्चा ‘‘झायिनोस्मा झायिनोस्मा’’ति पत्तक्खन्धा अधोमुखा मधुरकजाता झायन्ति पज्झायन्ति निज्झायन्ति अपज्झायन्ती’’ति.
‘‘ये खो पन, पापिम, तेन समयेन मनुस्सा कालङ्करोन्ति येभुय्येन कायस्स भेदा परं मरणा अपायं दुग्गतिं विनिपातं निरयं उपपज्जन्ति.
५०९. ‘‘अथ खो, पापिम, ककुसन्धो भगवा अरहं सम्मासम्बुद्धो भिक्खू आमन्तेसि – ‘अन्वाविट्ठा खो, भिक्खवे, ब्राह्मणगहपतिका दूसिना मारेन – एथ, तुम्हे भिक्खू सीलवन्ते कल्याणधम्मे अक्कोसथ परिभासथ रोसेथ विहेसेथ, अप्पेव नाम तुम्हेहि अक्कोसियमानानं परिभासियमानानं रोसियमानानं विहेसियमानानं सिया चित्तस्स अञ्ञथत्तं, यथा तं दूसी मारो लभेथ ओतार’न्ति. एथ, तुम्हे, भिक्खवे, मेत्तासहगतेन चेतसा एकं दिसं फरित्वा विहरथ, तथा दुतियं, तथा ततियं, तथा चतुत्थं. इति उद्धमधो तिरियं सब्बधि सब्बत्तताय सब्बावन्तं लोकं मेत्तासहगतेन चेतसा विपुलेन महग्गतेन अप्पमाणेन अवेरेन अब्याबज्झेन फरित्वा विहरथ. करुणासहगतेन चेतसा…पे… मुदितासहगतेन चेतसा…पे… उपेक्खासहगतेन चेतसा एकं दिसं फरित्वा विहरथ, तथा दुतियं, तथा ततियं, तथा चतुत्थं. इति उद्धमधो तिरियं सब्बधि सब्बत्तताय सब्बावन्तं लोकं उपेक्खासहगतेन चेतसा विपुलेन महग्गतेन अप्पमाणेन अवेरेन अब्याबज्झेन फरित्वा विहरथा’ति.
‘‘अथ खो ते, पापिम, भिक्खू ककुसन्धेन भगवता अरहता सम्मासम्बुद्धेन एवं ओवदियमाना एवं अनुसासियमाना अरञ्ञगतापि रुक्खमूलगतापि सुञ्ञागारगतापि मेत्तासहगतेन चेतसा एकं दिसं फरित्वा विहरिंसु, तथा दुतियं, तथा ततियं, तथा चतुत्थं. इति उद्धमधो तिरियं सब्बधि सब्बत्तताय सब्बावन्तं लोकं मेत्तासहगतेन चेतसा विपुलेन महग्गतेन अप्पमाणेन अवेरेन अब्याबज्झेन फरित्वा विहरिंसु. करुणासहगतेन चेतसा…पे… मुदितासहगतेन चेतसा…पे… उपेक्खासहगतेन चेतसा एकं दिसं फरित्वा विहरिंसु, तथा दुतियं, तथा ततियं, तथा चतुत्थं. इति उद्धमधो तिरियं सब्बधि सब्बत्तताय सब्बावन्तं लोकं उपेक्खासहगतेन चेतसा विपुलेन महग्गतेन अप्पमाणेन अवेरेन अब्याबज्झेन फरित्वा विहरिंसु .
५१०. ‘‘अथ खो, पापिम, दूसिस्स मारस्स एतदहोसि – ‘एवम्पि खो अहं करोन्तो इमेसं भिक्खूनं सीलवन्तानं कल्याणधम्मानं नेव जानामि आगतिं वा गतिं वा, यंनूनाहं ब्राह्मणगहपतिके अन्वाविसेय्यं – एथ, तुम्हे भिक्खू सीलवन्ते कल्याणधम्मे सक्करोथ गरुं करोथ मानेथ पूजेथ , अप्पेव नाम तुम्हेहि सक्करियमानानं गरुकरियमानानं मानियमानानं पूजियमानानं सिया चित्तस्स अञ्ञथत्तं, यथा तं दूसी मारो लभेथ ओतार’न्ति . अथ खो ते, पापिम, दूसी मारो ब्राह्मणगहपतिके अन्वाविसि – ‘एथ, तुम्हे भिक्खू सीलवन्ते कल्याणधम्मे सक्करोथ गरुं करोथ मानेथ पूजेथ, अप्पेव नाम तुम्हेहि सक्करियमानानं गरुकरियमानानं मानियमानानं पूजियमानानं सिया चित्तस्स अञ्ञथत्तं, यथा तं दूसी मारो लभेथ ओतार’न्ति. अथ खो ते, पापिम, ब्राह्मणगहपतिका अन्वाविट्ठा दूसिना मारेन भिक्खू सीलवन्ते कल्याणधम्मे सक्करोन्ति गरुं करोन्ति मानेन्ति पूजेन्ति.
‘‘ये खो पन, पापिम, तेन समयेन मनुस्सा कालङ्करोन्ति येभुय्येन कायस्स भेदा परं मरणा सुगतिं सग्गं लोकं उपपज्जन्ति.
५११. ‘‘अथ खो, पापिम, ककुसन्धो भगवा अरहं सम्मासम्बुद्धो भिक्खू आमन्तेसि – ‘अन्वाविट्ठा खो, भिक्खवे, ब्राह्मणगहपतिका दूसिना मारेन – एथ, तुम्हे भिक्खू सीलवन्ते कल्याणधम्मे सक्करोथ गरुं करोथ मानेथ पूजेथ, अप्पेव नाम तुम्हेहि सक्करियमानानं गरुकरियमानानं मानियमानानं पूजियमानानं सिया चित्तस्स अञ्ञथत्तं, यथा तं दूसी मारो लभेथ ओतारन्ति. एथ, तुम्हे, भिक्खवे, असुभानुपस्सिनो काये विहरथ, आहारे पटिकूलसञ्ञिनो, सब्बलोके अनभिरतिसञ्ञिनो [अनभिरतसञ्ञीनो (सी. स्या. कं. पी.)], सब्बसङ्खारेसु अनिच्चानुपस्सिनो’ति.
‘‘अथ खो ते, पापिम, भिक्खू ककुसन्धेन भगवता अरहता सम्मासम्बुद्धेन एवं ओवदियमाना एवं अनुसासियमाना अरञ्ञगतापि रुक्खमूलगतापि सुञ्ञागारगतापि असुभानुपस्सिनो काये विहरिंसु, आहारे पटिकूलसञ्ञिनो, सब्बलोके अनभिरतिसञ्ञिनो, सब्बसङ्खारेसु अनिच्चानुपस्सिनो.
५१२. ‘‘अथ खो, पापिम, ककुसन्धो भगवा अरहं सम्मासम्बुद्धो पुब्बण्हसमयं निवासेत्वा पत्तचीवरमादाय आयस्मता विधुरेन पच्छासमणेन गामं पिण्डाय पाविसि. अथ खो, पापिम, दूसी मारो अञ्ञतरं कुमारकं [कुमारं (सी. पी.)] अन्वाविसित्वा सक्खरं गहेत्वा आयस्मतो विधुरस्स सीसे पहारमदासि; सीसं वोभिन्दि [सीसं ते भिन्दिस्सामीति (क.)]. अथ खो, पापिम, आयस्मा विधुरो भिन्नेन सीसेन लोहितेन गळन्तेन ककुसन्धंयेव भगवन्तं अरहन्तं सम्मासम्बुद्धं पिट्ठितो पिट्ठितो अनुबन्धि. अथ खो , पापिम, ककुसन्धो भगवा अरहं सम्मासम्बुद्धो नागापलोकितं अपलोकेसि – ‘न वायं दूसी मारो मत्तमञ्ञासी’ति. सहापलोकनाय च पन, पापिम, दूसी मारो तम्हा च ठाना चवि महानिरयञ्च उपपज्जि.
‘‘तस्स खो पन, पापिम, महानिरयस्स तयो नामधेय्या होन्ति – छफस्सायतनिको इतिपि, सङ्कुसमाहतो इतिपि, पच्चत्तवेदनियो इतिपि. अथ खो मं, पापिम, निरयपाला उपसङ्कमित्वा एतदवोचुं – यदा खो ते [यतो ते (क.)], मारिस, सङ्कुना सङ्कु हदये समागच्छेय्य. अथ नं त्वं जानेय्यासि – ‘वस्ससहस्सं मे निरये पच्चमानस्सा’ति. सो खो अहं, पापिम, बहूनि वस्सानि बहूनि वस्ससतानि बहूनि वस्ससहस्सानि तस्मिं महानिरये अपच्चिं. दसवस्ससहस्सानि तस्सेव महानिरयस्स उस्सदे अपच्चिं वुट्ठानिमं नाम वेदनं वेदियमानो. तस्स मय्हं, पापिम, एवरूपो कायो होति, सेय्यथापि मनुस्सस्स. एवरूपं सीसं होति, सेय्यथापि मच्छस्स.
५१३.
‘‘कीदिसो निरयो आसि, यत्थ दूसी अपच्चथ;
विधुरं सावकमासज्ज, ककुसन्धञ्च ब्राह्मणं.
‘‘सतं आसि अयोसङ्कू, सब्बे पच्चत्तवेदना;
ईदिसो निरयो आसि, यत्थ दूसी अपच्चथ;
विधुरं सावकमासज्ज, ककुसन्धञ्च ब्राह्मणं.
‘‘यो एतमभिजानाति, भिक्खु बुद्धस्स सावको;
तादिसं भिक्खुमासज्ज, कण्ह दुक्खं निगच्छसि.
‘‘मज्झे सरस्स तिट्ठन्ति, विमाना कप्पट्ठायिनो;
वेळुरियवण्णा रुचिरा, अच्चिमन्तो पभस्सरा;
अच्छरा तत्थ नच्चन्ति, पुथु नानत्तवण्णियो.
‘‘यो एतमभिजानाति, भिक्खु बुद्धस्स सावको;
तादिसं भिक्खुमासज्ज, कण्ह दुक्खं निगच्छसि.
‘‘यो वे बुद्धेन चोदितो, भिक्खु सङ्घस्स पेक्खतो;
मिगारमातुपासादं, पादङ्गुट्ठेन कम्पयि.
‘‘यो एतमभिजानाति, भिक्खु बुद्धस्स सावको;
तादिसं भिक्खुमासज्ज, कण्ह दुक्खं निगच्छसि.
‘‘यो वेजयन्तं पासादं, पादङ्गुट्ठेन कम्पयि;
इद्धिबलेनुपत्थद्धो, संवेजेसि च देवता.
‘‘यो एतमभिजानाति, भिक्खु बुद्धस्स सावको;
तादिसं भिक्खुमासज्ज, कण्ह दुक्खं निगच्छसि.
‘‘यो वेजयन्तपासादे, सक्कं सो परिपुच्छति;
अपि वासव जानासि, तण्हाक्खयविमुत्तियो;
तस्स सक्को वियाकासि, पञ्हं पुट्ठो यथातथं.
‘‘यो एतमभिजानाति, भिक्खु बुद्धस्स सावको;
तादिसं भिक्खुमासज्ज, कण्ह दुक्खं निगच्छसि.
‘‘यो ब्रह्मं परिपुच्छति, सुधम्मायाभितो सभं;
अज्जापि त्यावुसो दिट्ठि, या ते दिट्ठि पुरे अहु;
पस्ससि वीतिवत्तन्तं, ब्रह्मलोके पभस्सरं.
‘‘तस्स ब्रह्मा वियाकासि, अनुपुब्बं यथातथं;
न मे मारिस सा दिट्ठि, या मे दिट्ठि पुरे अहु.
‘‘पस्सामि वीतिवत्तन्तं, ब्रह्मलोके पभस्सरं;
सोहं अज्ज कथं वज्जं, अहं निच्चोम्हि सस्सतो.
‘‘यो एतमभिजानाति, भिक्खु बुद्धस्स सावको;
तादिसं भिक्खुमासज्ज, कण्ह दुक्खं निगच्छसि.
‘‘यो महामेरुनो कूटं, विमोक्खेन अफस्सयि;
वनं पुब्बविदेहानं, ये च भूमिसया नरा.
‘‘यो एतमभिजानाति, भिक्खु बुद्धस्स सावको;
तादिसं भिक्खुमासज्ज, कण्ह दुक्खं निगच्छसि.
‘‘न वे अग्गि चेतयति [वेठयति (सी.)], ‘अहं बालं डहामी’ति;
बालो च जलितं अग्गिं, आसज्ज नं स डय्हति.
‘‘एवमेव तुवं मार, आसज्ज नं तथागतं;
सयं डहिस्ससि अत्तानं, बालो अग्गिंव संफुसं.
‘‘अपुञ्ञं पसवी मारो, आसज्ज नं तथागतं;
किन्नु मञ्ञसि पापिम, न मे पापं विपच्चति.
‘‘करोतो चीयति पापं, चिररत्ताय अन्तक;
मार निब्बिन्द बुद्धम्हा, आसं माकासि भिक्खुसु.
‘‘इति मारं अतज्जेसि, भिक्खु भेसकळावने;
ततो सो दुम्मनो यक्खो, नतत्थेवन्तरधायथा’’ति.
मारतज्जनीयसुत्तं निट्ठितं दसमं.
चूळयमकवग्गो निट्ठितो पञ्चमो.