ऐसा मैंने सुना — एक समय भगवान विशाल भिक्षु संघ के साथ चम्पा के गग्गरा पुष्करणी के किनारे विहार कर रहे थे। 1 तब महावत-पुत्र पेस्स और कंदरक घुमक्कड़ भगवान के पास गए। 2 जाकर महावत-पुत्र पेस्स से भगवान को अभिवादन किया और एक ओर बैठ गया। कंदरक घुमक्कड़ ने भगवान से हालचाल पूछा। मैत्रीपूर्ण वार्तालाप कर एक ओर खड़ा हुआ।
एक ओर खड़े होकर कंदरक घुमक्कड़ ने भिक्षुसंघ से नजर दौड़ाई, जो बिलकुल चुपचाप और शांत था, और भगवान से कहा, “आश्चर्य है, श्रीमान गौतम! अद्भुत है, श्रीमान गौतम, जिस तरह सम्यक रूप से श्रीमान गौतम का भिक्षुसंघ चलता (=अभ्यास करता) है।
अतीतकाल में जितने भी अरहंत सम्यक-सम्बुद्ध हुए, उन भगवानों के भिक्षुसंघ भी इसी तरह सम्यक रूप से चलते थे — जिस तरह सम्यक रूप से श्रीमान गौतम का भिक्षुसंघ चलता है। भविष्यकाल में जितने भी अरहंत सम्यक-सम्बुद्ध होंगे, उन भगवानों के भिक्षुसंघ भी इसी तरह सम्यक रूप से चलेंगे — जिस तरह सम्यक रूप से श्रीमान गौतम का भिक्षुसंघ चलता है।”
“ऐसा ही है, कंदरक! ऐसा ही है! अतीतकाल में जितने भी अरहंत सम्यक-सम्बुद्ध हुए, उन भगवानों के भिक्षुसंघ भी इसी तरह सम्यक रूप से चलते थे — जिस तरह सम्यक रूप से मेरा भिक्षुसंघ चलता है। भविष्यकाल में जितने भी अरहंत सम्यक-सम्बुद्ध होंगे, उन भगवानों के भिक्षुसंघ भी इसी तरह सम्यक रूप से चलेंगे — जिस तरह सम्यक रूप से मेरा भिक्षुसंघ चलता है।
इस भिक्षुसंघ में, कंदरक, ऐसे अरहंत क्षिणास्रव भिक्षु हैं, जिन्होंने ब्रह्मचर्य परिपूर्ण किया हैं, कर्तव्य समाप्त किया हैं, बोझ को नीचे रखा हैं, परम-ध्येय प्राप्त किया हैं, भव-बंधन को पूर्णतः तोड़ दिया हैं, सम्यक-ज्ञान से विमुक्त हुए हैं।
इस भिक्षुसंघ में, कंदरक, ऐसे सीख रहे भिक्षु हैं, जो लगातार एक-जैसे शीलवान हैं, लगातार एक-जैसे जीते हैं, जागरूक रहते हैं, सतर्क जीते हैं। वे चार स्मृतिप्रस्थान में सुप्रतिष्ठित होकर विहार करते हैं। कौन से चार?
कंदरक, कोई भिक्षु दुनिया के प्रति लालसा और नाराज़ी हटाकर —
— तत्पर, सचेत और स्मरणशील।”
जब ऐसा कहा गया, तो महावत-पुत्र पेस्स ने भगवान से कहा, “आश्चर्य है, भंते। अद्भुत है, भंते! भगवान ने कितना अच्छे से चार स्मृतिप्रस्थान का वर्णन किया है — सत्वों की विशुद्धि के लिए, शोक और विलाप को लाँघने के लिए, दर्द और व्यथा को विलुप्त करने के लिए, अंतिम उपाय को पाने के लिए, निर्वाण के साक्षात्कार के लिए।
हम श्वेतवस्त्रधारी गृहस्थ भी, भंते, समय-समय पर अपने चित्त को इन्हीं चार स्मृतिप्रस्थान में सुप्रतिष्ठित कर विहार करते हैं। भंते, हम भी दुनिया के प्रति लालसा और नाराज़ी हटाकर —
— तत्पर, सचेत और स्मरणशील।
आश्चर्य है, भंते। अद्भुत है, भंते! कैसे भगवान सत्वों का हित और कल्याण जानते हैं, जबकि मनुष्य इतने घनघोर (प्रवृत्ति के) होते हैं, मनुष्य इतने सड़े (प्रवृत्ति के) होते हैं, मनुष्य इतने धोखेबाज होते हैं। भंते, ये मनुष्य बड़े घनघोर होते हैं। जबकि, पशु सीधे होते हैं।
भंते, मैं दमनयोग्य हाथी की सवारी करता हूँ। वह चम्पा में आते-जाते हुए सभी तरह की ठगी प्रकट करता है, दाँव-पेच चलता है, धोखा देता है, मक्कारी दिखाता है। किन्तु, भंते, मेरे दास, नौकर और कर्मचारी शरीर से अलग बर्ताव करते हैं, वाणी से अलग बर्ताव करते हैं, जबकि चित्त से अलग बर्ताव करते हैं।
आश्चर्य है, भंते। अद्भुत है, भंते! कैसे भगवान सत्वों का हित और कल्याण जानते हैं, जबकि मनुष्य इतने घनघोर होते हैं, मनुष्य इतने सड़े होते हैं, मनुष्य इतने धोखेबाज होते हैं। भंते, ये मनुष्य बड़े घनघोर होते हैं। जबकि, पशु सीधे होते हैं।”
“ऐसा ही है, पेस्स! ऐसा ही है! ये मनुष्य बड़े घनघोर होते हैं। जबकि, पशु सीधे होते हैं। पेस्स, इस दुनिया में चार तरह के लोग पाए जाते हैं। कौन से चार?
पेस्स, तुम्हें इन चार व्यक्तियों में कौन से व्यक्ति का चित्त भाता (=अच्छा लगता) है?”
“भंते —
“किन्तु, पेस्स, तुम्हें उन तीन व्यक्तियों का चित्त क्यों नहीं भाता है?”
“भंते —
ठीक है, भन्ते! तब अनुमति चाहता हूँ। बहुत कर्तव्य हैं मेरे। बहुत जिम्मेदारियाँ हैं।”
“तब, पेस्स, जिसका उचित समय समझो!”
तब महावत-पुत्र पेस्स ने भगवान की बातों का अभिनन्दन करते हुए, अनुमोदन करते हुए, आसन से उठकर भगवान को अभिवादन करते हुए, प्रदक्षिणा करते हुए चला गया।
भगवान ने महावत-पुत्र पेस्स के जाने के पश्चात भिक्षुओं को कहा, “भिक्षुओं, महावत-पुत्र पेस्स पंडित है। महावत-पुत्र पेस्स प्रज्ञावान है। यदि वह महावत-पुत्र पेस्स एक मुहूर्त (=थोड़ी देर) और बैठा होता, तो मैं उन चार व्यक्तियों का विस्तार से विश्लेषण करता, जो उसके लिए बहुत लाभकारी सिद्ध होता। किन्तु, भिक्षुओं, इतने से भी महावत-पुत्र पेस्स के लिए बहुत लाभकारी हुआ।”
“यही उचित समय है, भगवान! यही उचित समय है, सुगत! भगवान उन चार व्यक्तियों का विस्तार से विश्लेषण करें। भगवान से सुन कर भिक्षुगण उस तरह धारण करेंगे।”
“ठीक है, भिक्षुओं, ध्यान देकर गौर से सुनों। मैं बताता हूँ।”
“ठीक है, भंते!” भिक्षुओं ने भगवान को उत्तर दिया।
भगवान ने कहा —
“भिक्षुओं, किस तरह के व्यक्ति स्वयं को पीड़ित करते हैं, आत्मपीड़ा के लिए प्रतिबद्ध होते हैं?
भिक्षुओं, कोई निर्वस्त्र रहते हैं, (सामाजिक आचरण से) मुक्त रहते हैं, हाथ चाटते हैं, बुलाने पर नहीं जाते हैं, रोकने पर नहीं रुकते हैं, अपने लिए लायी भिक्षा को नहीं लेते हैं, अपने लिए पकाये भोज को नहीं लेते हैं, निमंत्रण भोज पर नहीं जाते हैं। (भोजन पकाये) हाँडी से भिक्षा नहीं लेते हैं, (भोजन पकाये) बर्तन से भिक्षा नहीं लेते हैं, द्वार के अंतराल से भिक्षा नहीं लेते हैं, डंडे के अंतराल से भिक्षा नहीं लेते हैं, मूसल के अंतराल से भिक्षा नहीं लेते हैं।
और, भिक्षुओं, वे दो भोजन साथ करने वालों से भिक्षा नहीं लेते हैं, गर्भिणी स्त्री से भिक्षा नहीं लेते हैं, दूध पिलाती स्त्री से भिक्षा नहीं लेते हैं, पुरुष के पास गयी स्त्री से भिक्षा नहीं लेते हैं, संग्रहीत किए भिक्षा को नहीं लेते हैं, कुत्ता खड़े स्थान से भिक्षा नहीं लेते हैं, भिनभिनाती मक्खियों के स्थान से भिक्षा नहीं लेते हैं, माँस नहीं लेते हैं, मछली नहीं लेते हैं, कच्ची शराब नहीं लेते हैं, पक्की शराब नहीं लेते हैं, चावल की शराब नहीं पीते हैं।
और, भिक्षुओं, वे भिक्षाटन के लिए केवल एक घर जाकर एक निवाला लेते हैं, अथवा दो घर जाकर दो निवाले लेते हैं… अथवा सात घर जाकर सात निवाले लेते हैं। केवल एक ही कलछी पर यापन करते हैं, अथवा दो कलछी पर यापन करते हैं… अथवा सात कलछी पर यापन करते हैं। दिन में एक बार आहार लेते हैं, दो दिनों में एक बार आहार लेते हैं… एक सप्ताह में एक बार आहार लेते हैं। और ऐसे ही आधे-आधे महीने के स्थिर अंतराल में एक ही बार आहार लेते हुए विहार करते हैं।
और, भिक्षुओं, वे (केवल) साग खाकर रहते हैं, जंगली बाजरा खाकर रहते हैं, लाल चावल खाकर रहते हैं, चमड़े के टुकड़े खाकर रहते हैं, शैवाल (=जल के पौधे) खाकर रहते हैं, कणिक (=टूटा चावल) खाकर रहते हैं, काँजी (=उबले चावल का पानी) पीकर रहते हैं, तिल खाकर रहते हैं, घास खाकर रहते हैं, गोबर खाकर रहते हैं, जंगल के कन्द-मूल या गिरे हुए फल खाकर यापन करते हैं।
और, भिक्षुओं, वे (केवल) सन के रूखे वस्त्र पहनते हैं, सन में मिलावट किए रूखे वस्त्र पहनते हैं, फेंके लाश के वस्त्र पहनते हैं, चिथड़े सिला वस्त्र पहनते हैं, लोध्र के वस्त्र पहनते हैं, हिरण-खाल पूर्ण पहनते हैं, हिरण-खाल के टुकड़े पहनते हैं, कुशघास के वस्त्र पहनते हैं, वृक्षछाल के वस्त्र पहनते हैं, लकड़ी के छिलके का वस्त्र पहनते हैं, (मनुष्य के) केश का कंबल पहनते हैं, घोड़े की पूँछ के बाल का कंबल पहनते हैं, उल्लू के पंखों का वस्त्र पहनते हैं।
और, भिक्षुओं, वे सिर-दाढ़ी के बाल नोचकर निकालते हैं, बाल नोचकर निकालने के प्रति संकल्पबद्ध रहते हैं। बैठना त्यागकर सदा खड़े ही रहते हैं, उकड़ूँ बैठकर सदा उकड़ूँ ही बैठते हैं, काँटों की चटाई पर लेटते हैं और काँटों की चटाई को ही अपना बिस्तर बनाते हैं, सदा तख़्ते पर सोते हैं, सदा जमीन पर सोते हैं, सदा एक ही करवट सोते हैं, शरीर पर धूल और गंदगी लपेटे रहते हैं, सदा खुले आकाश के तले रहते हैं, जहाँ चटाई बिछाएँ वही सोते हैं, गंदगी खाते हैं और गंदगी खाने के प्रति संकल्पबद्ध रहते हैं, कभी पानी नहीं पीते हैं और पानी नहीं पीने के प्रति संकल्पबद्ध रहते हैं, शरीर को सुबह-दोपहर-शाम तीन बार जल में डुबोते हैं, और तीन बार डुबोने के प्रति संकल्पबद्ध रहते हैं।
इस तरह के व्यक्ति को कहते हैं, भिक्षुओं, कि वे स्वयं को पीड़ित करते हैं और आत्मपीड़ा के लिए प्रतिबद्ध होते हैं।
आगे, भिक्षुओं, किस तरह के व्यक्ति दूसरे को उत्पीड़ित करते हैं, परपीड़ा के लिए प्रतिबद्ध होते हैं?
भिक्षुओं, कोई व्यक्ति कसाई होता है, बकरी-कसाई होता है, सुवर-कसाई होता है, मुर्गी-कसाई होता है, शिकारी होता है, मछुआरा होता है, लुटेरा होता है, जल्लाद होता है, गाय-कसाई होता है, कारावास-कर्ता (=जेलर) होता है, या ऐसा ही कोई अन्य क्रूर कार्य (=जीविका) करने वाला होता है।
इस तरह के व्यक्ति को कहते हैं, भिक्षुओं, कि वे दूसरे को पीड़ित करते हैं और परपीड़ा के लिए प्रतिबद्ध होते हैं।
आगे, भिक्षुओं, किस तरह के व्यक्ति स्वयं को पीड़ित करते हैं, आत्मपीड़ा के लिए प्रतिबद्ध होते हैं, और दूसरे को उत्पीड़ित करते हैं, परपीड़ा के लिए प्रतिबद्ध होते हैं?
भिक्षुओं, कोई व्यक्ति राजतिलक हुआ क्षत्रिय राजा होता है, या महासंपत्तिशाली ब्राह्मण होता है। वह नगर के पूर्व दिशा में सभागृह बनवाता है, और सिर-दाढ़ी मुंडन कर, हिरण का खुरदुरा चमड़ा ओढ़ कर, शरीर पर घी और तेल से मालिश कर, मृग के सिंग से पीठ खुजाते हुए, नए सभागृह में महारानी, ब्राह्मण पुरोहितों के साथ प्रवेश करता है। वहाँ वह घास और पत्तियाँ बिछायी हुई भूमि पर लेट जाता है।
तब समान रंग के बछड़े वाली गाय के एक थन से राजा दूध पीते हुए यापन करता है। उसके दूसरे थन से महारानी दूध पीते हुए यापन करती है। उसके तीसरे थन से ब्राह्मण पुरोहित दूध पीते हुए यापन करते हैं। उसके चौथे थन के दूध को अग्नि ज्वालाओं को दिया जाता है। बचे हुआ दूध पर बछड़ा यापन करता है।
वह कहता है, “इस यज्ञ के लिए इतने वृषभ (तगड़े बैल) की बलि दी जाएँ… इतने (तरुण) बैलों की बलि दी जाएँ… इतने (नन्हें) बछड़ों की बलि दी जाएँ… इतने बकरियों की बलि दी जाएँ… इतने भेड़ों की बलि दी जाएँ… इतने घोड़ों की बलि दी जाएँ। यज्ञ स्तंभ के लिए इतने वृक्ष काटे जाएँ। यज्ञ में चढ़ाने के लिए इतनी घास काटी जाएँ।” तब जो उसके दास होते हैं, नौकर होते हैं, कर्मचारी होते हैं, वे दंड के खतरे से, भय के मारे, अश्रुपूर्ण मुख से रोते हुए उस कार्य को अंजाम देते हैं।
इस तरह के व्यक्ति को कहते हैं, भिक्षुओं, कि स्वयं को पीड़ित करते हैं, आत्मपीड़ा के लिए प्रतिबद्ध होते हैं, और दूसरे को उत्पीड़ित करते हैं, परपीड़ा के लिए प्रतिबद्ध होते हैं।
आगे, भिक्षुओं, किस तरह के व्यक्ति न स्वयं को पीड़ित करते हैं, न आत्मपीड़ा के लिए प्रतिबद्ध होते हैं, और न ही दूसरे को उत्पीड़ित करते हैं, न परपीड़ा के लिए प्रतिबद्ध होते हैं, जो इस जीवन में न आत्मपीड़न कर, न परउत्पीड़न कर, शीतल हो चुके, ब्रह्म हो चुके, इच्छारहित और निर्वृत आत्म से सुख की अनुभूति करते हुए विहार करते हैं?
यहाँ कभी इस लोक में ‘तथागत अरहंत सम्यकसम्बुद्ध’ प्रकट होते हैं — जो विद्या और आचरण से संपन्न होते हैं, परम लक्ष्य पा चुके, दुनिया के ज्ञाता, दमनशील पुरुषों के अनुत्तर सारथी, देवों और मनुष्यों के गुरु, बुद्ध भगवान!’ वे प्रत्यक्ष-ज्ञान का साक्षात्कार कर, उसे — देव, मार, ब्रह्मा, श्रमण, ब्राह्मण, राजा और जनता से भरे इस लोक में — प्रकट करते हैं। वे ऐसा सार्थक और शब्दशः धर्म बताते हैं, जो आरंभ में कल्याणकारी, मध्य में कल्याणकारी, अन्त में कल्याणकारी हो; और सर्वपरिपूर्ण, परिशुद्ध ‘ब्रह्मचर्य’ प्रकाशित हो।
ऐसा धर्म सुनकर किसी गृहस्थ या कुलपुत्र को तथागत के प्रति श्रद्धा जागती है। उसे लगता है, “गृहस्थ जीवन बंधनकारी है, जैसे धूलभरा रास्ता हो! किंतु प्रवज्या, मानो खुला आकाश हो! घर रहते हुए ऐसा परिपूर्ण, परिशुद्ध ब्रह्मचर्य निभाना कठिन है, जो शुद्ध शंख जैसा उज्ज्वल हो! क्यों न मैं सिरदाढ़ी मुंडवाकर, काषाय वस्त्र धारण कर, घर से बेघर होकर प्रव्रजित हो जाऊँ?’
फिर वह समय पाकर, थोड़ी या अधिक धन-संपत्ति त्यागकर, छोटा या बड़ा परिवार त्यागकर, सिरदाढ़ी मुंडवाकर, काषाय वस्त्र धारण कर, घर से बेघर हो प्रव्रजित होता है।
• प्रव्रजित होकर ऐसा भिक्षु शिक्षा और आजीविका से संपन्न होकर हिंसा त्यागकर जीवहत्या से विरत रहता है — डंडा और शस्त्र फेंक चुका, शर्मिला और दयावान, समस्त जीवहित के प्रति करुणामयी।
• वह ‘न सौपी चीज़ें’ त्यागकर चोरी से विरत रहता है — मात्र सौपी चीज़ें ही उठाता, स्वीकारता है। पावन जीवन जीता है, चोरी-चुपके नहीं।
• वह ब्रह्मचर्य धारणकर अब्रह्मचर्य से विरत रहता है — ‘देहाती’ मैथुनधर्म से विरत!
• वह झूठ बोलना त्यागकर असत्यवचन से विरत रहता है। वह सत्यवादी, सत्य का पक्षधर, दृढ़ और भरोसेमंद बनता है; दुनिया को ठगता नहीं।
• वह विभाजित करनेवाली बातें त्यागकर फूट डालनेवाले वचन से विरत रहता है। यहाँ सुनकर वहाँ नहीं बताता, ताकि वहाँ दरार पड़े। वहाँ सुनकर यहाँ नहीं बताता, ताकि यहाँ दरार पड़े। बल्कि वह बटे हुए लोगों का मेल कराता है, साथ रहते लोगों को जोड़ता है, एकता चाहता है, आपसी भाईचारे में प्रसन्न और ख़ुश होता है; ‘सामंजस्यता बढ़े’ ऐसे बोल बोलता है।
• वह तीखा बोलना त्यागकर कटु वचन से विरत रहता है। वह ऐसे मीठे बोल बोलता है — जो राहत दे, कर्णमधुर लगे, हृदय छू ले, स्नेहपूर्ण हो, सौम्य हो, अधिकांश लोगों को अनुकूल और स्वीकार्य लगे।
• वह बक़वास त्यागकर व्यर्थ वचन से विरत रहता है। वह समयानुकूल बोलता है, तथ्यात्मक बोलता है, अर्थपूर्ण बोलता है, धर्मानुकूल बोलता है, विनयानुकूल बोलता है; ‘बहुमूल्य लगे’ ऐसे सटीक वचन वह बोलता है — तर्क के साथ, नपे-तुले शब्दों में, सही समय पर, सही दिशा में, ध्येय के साथ।
• वह बीज और पौधों का जीवनाश करना त्यागता है।…
• वह दिन में एक-बार भोजन करता है — रात्रिभोज व विकालभोज से विरत।…
• वह नृत्य, गीत, वाद्यसंगीत तथा मनोरंजन से विरत रहता है।…
• वह मालाएँ, गन्ध, लेप, सुडौलता-लानेवाले तथा अन्य सौंदर्य-प्रसाधन से विरत रहता है।…
• वह बड़े विलासी आसन और पलंग का उपयोग करने से विरत रहता है।…
• वह स्वर्ण व रुपये स्वीकारने से विरत रहते है।…
• वह कच्चा अनाज… कच्चा माँस… स्त्री व कुमारी… दासी व दास… भेड़ व बकरी… मुर्गी व सूवर… हाथी, गाय, घोड़ा, खच्चर… ख़ेत व संपत्ति स्वीकारने से विरत रहता है।…
• वह दूत [=संदेशवाहक] का काम… ख़रीद-बिक्री… भ्रामक तराज़ू, नाप, मानदंडों द्वारा ठगना… घूसख़ोरी, ठगना, ज़ाली काम, छलकपट… हाथपैर काटने, पीटने बाँधने, लूट डाका व हिंसा करने से विरत रहता है।
वह शरीर ढकने के लिए चीवर और पेट भरने के लिए भिक्षा पर संतुष्ट रहता है। वह जहाँ भी जाता है, अपनी सभी मूल आवश्यकताओं को साथ लेकर जाता है। जैसे पक्षी जहाँ भी जाता है, मात्र अपने पंखों को लेकर उड़ता है। उसी तरह, कोई भिक्षु शरीर ढकने के लिए चीवर और पेट भरने के लिए भिक्षा पर संतुष्ट रहता है। वह ऐसे आर्य शीलस्कन्ध से संपन्न होकर भीतर निष्पाप सुख का अनुभव करता है।
वह ऐसे आर्यसँवर से संपन्न होकर भीतर निष्पाप सुख का अनुभव करता है।
वह आगे बढ़ते और लौट आते सचेत होता है। वह नज़र टिकाते और नज़र हटाते सचेत होता है। वह [अंग] सिकोड़ते और पसारते हुए सचेत होता है। वह संघाटी, पात्र और चीवर धारण करते हुए सचेत होता है। वह खाते, पीते, चबाते, स्वाद लेते हुए सचेत होता है। वह पेशाब और शौच करते हुए सचेत होता है। वह चलते, खड़े रहते, बैठते, सोते, जागते, बोलते, मौन होते हुए सचेत होता है।
इस तरह वह आर्य शीलस्कन्ध से संपन्न होकर, आर्य संतुष्टि से संपन्न होकर, इंद्रियों पर आर्य सँवर से संपन्न होकर, आर्य स्मरणशीलता और सचेतता से संपन्न होकर एकांतवास ढूँढता है — जैसे जंगल, पेड़ के तले, पहाड़, सँकरी घाटी, गुफ़ा, श्मशानभूमि, उपवन, खुली-जगह या पुआल का ढ़ेर। भिक्षाटन से लौटकर भोजन के पश्चात, वह पालथी मार, काया सीधी रखकर बैठता है और स्मरणशीलता आगे लाता है।
वह इन पाँच व्यवधानों (“नीवरण”) को हटाता है, ऐसे चित्त के उपक्लेश जो प्रज्ञा को दुर्बल बनाते हैं।
(१) तब, ब्राह्मण, वह कामुकता से निर्लिप्त, अकुशल-स्वभाव से निर्लिप्त, सोच एवं विचार के साथ निर्लिप्तता से उपजे प्रफुल्लता और सुखपूर्ण प्रथम-ध्यान में प्रवेश पाकर रहता है। इसे कहते हैं, ब्राह्मण, तथागत का पदचिन्ह, तथागत का लगा हुआ निशान, तथागत का प्रकट हुआ लक्षण!
किन्तु, तब भी कोई आर्यश्रावक तुरंत इस निष्कर्ष पर नहीं पहुँचता है कि — ‘भगवान ही सम्यक-सम्बुद्ध हैं! भगवान का धर्म स्पष्ट बताया है! भगवान का श्रावकसंघ सुमार्ग पर चलता है!’
(२) आगे, ब्राह्मण, वह सोच एवं विचार के रुक जाने पर, भीतर आश्वस्त हुआ मानस एकरस होकर, बिना-सोच, बिना-विचार, समाधि से उपजे प्रफुल्लता और सुखपूर्ण द्वितीय-ध्यान में प्रवेश पाकर रहता है। इसे कहते हैं, ब्राह्मण, तथागत का पदचिन्ह, तथागत का लगा हुआ निशान, तथागत का प्रकट हुआ लक्षण!
किन्तु, तब भी कोई आर्यश्रावक तुरंत इस निष्कर्ष पर नहीं पहुँचता है कि — ‘भगवान ही सम्यक-सम्बुद्ध हैं! भगवान का धर्म स्पष्ट बताया है! भगवान का श्रावकसंघ सुमार्ग पर चलता है!’
(३) आगे, ब्राह्मण, वह प्रफुल्लता से विरक्त हो, स्मरणशील एवं सचेतता के साथ-साथ तटस्थता धारण कर शरीर से सुख महसूस करता है। जिसे आर्यजन ‘तटस्थ, स्मरणशील, सुखविहारी’ कहते हैं, वह ऐसे तृतीय-ध्यान में प्रवेश पाकर रहता है। इसे कहते हैं, ब्राह्मण, तथागत का पदचिन्ह, तथागत का लगा हुआ निशान, तथागत का प्रकट हुआ लक्षण!
किन्तु, तब भी कोई आर्यश्रावक तुरंत इस निष्कर्ष पर नहीं पहुँचता है कि — ‘भगवान ही सम्यक-सम्बुद्ध हैं! भगवान का धर्म स्पष्ट बताया है! भगवान का श्रावकसंघ सुमार्ग पर चलता है!’
(४) आगे, ब्राह्मण, वह सुख एवं दर्द दोनों हटाकर, खुशी एवं परेशानी पूर्व ही विलुप्त होने पर, तटस्थता और स्मरणशीलता की परिशुद्धता के साथ, अब न-सुख-न-दर्द पूर्ण चतुर्थ-ध्यान में प्रवेश पाकर रहता है। इसे कहते हैं, ब्राह्मण, तथागत का पदचिन्ह, तथागत का लगा हुआ निशान, तथागत का प्रकट हुआ लक्षण!
किन्तु, तब भी कोई आर्यश्रावक तुरंत इस निष्कर्ष पर नहीं पहुँचता है कि — ‘भगवान ही सम्यक-सम्बुद्ध हैं! भगवान का धर्म स्पष्ट बताया है! भगवान का श्रावकसंघ सुमार्ग पर चलता है!’
आगे, ब्राह्मण, जब उसका चित्त इस तरह समाहित, परिशुद्ध, उज्ज्वल, बेदाग, निर्मल, मृदुल, काम करने-योग्य, स्थिर और अविचल हो जाता है, तब वह उस चित्त को पूर्वजन्मों का अनुस्मरण करने की ओर झुकाता है। तो उसे विविध प्रकार के पूर्वजन्म स्मरण होने लगते है — जैसे एक जन्म, दो जन्म, तीन जन्म, चार, पाँच, दस जन्म, बीस, तीस, चालीस, पचास जन्म, सौ जन्म, हज़ार जन्म, लाख जन्म, कई कल्पों का लोक-संवर्त [=ब्रह्मांडिय सिकुड़न], कई कल्पों का लोक-विवर्त [=ब्रह्मांडिय विस्तार], कई कल्पों का संवर्त-विवर्त — ‘वहाँ मेरा ऐसा नाम था, ऐसा गोत्र था, ऐसा दिखता था। ऐसा भोज था, ऐसा सुख-दुःख महसूस हुआ, ऐसा जीवन अंत हुआ। उस लोक से च्युत होकर मैं वहाँ उत्पन्न हुआ। वहाँ मेरा वैसा नाम था, वैसा गोत्र था, वैसा दिखता था। वैसा भोज था, वैसा सुख-दुःख महसूस हुआ, वैसे जीवन अंत हुआ। उस लोक से च्युत होकर मैं यहाँ उत्पन्न हुआ।’ इस तरह वह अपने विविध प्रकार के पूर्वजन्म शैली एवं विवरण के साथ स्मरण करता है।
आगे, ब्राह्मण, जब उसका चित्त इस तरह समाहित, परिशुद्ध, उज्ज्वल, बेदाग, निर्मल, मृदुल, काम करने-योग्य, स्थिर और अविचल हो जाता है, तब वह उस चित्त को सत्वों की गति जानने [“चुतूपपात ञाण”] की ओर झुकाता है। तब विशुद्ध हुए अलौकिक दिव्यचक्षु से उसे अन्य सत्वों की मौत और पुनर्जन्म होते हुए दिखता है। और उसे पता चलता है कि कर्मानुसार ही वे कैसे हीन अथवा उच्च हैं, सुंदर अथवा कुरूप हैं, सद्गति होते अथवा दुर्गति होते हैं। कैसे ये सत्व — काया दुराचार में संपन्न, वाणी दुराचार में संपन्न, एवं मन दुराचार में संपन्न, जिन्होंने आर्यजनों का अनादर किया, मिथ्यादृष्टि धारण की, और मिथ्यादृष्टि के प्रभाव में दुष्कृत्य किए — वे मरणोपरांत काया छूटने पर दुर्गति होकर यातनालोक नर्क में उपजे।’ किन्तु कैसे ये सत्व — काया सदाचार में संपन्न, वाणी सदाचार में संपन्न, एवं मन सदाचार में संपन्न, जिन्होंने आर्यजनों का अनादर नहीं किया, सम्यकदृष्टि धारण की, और सम्यकदृष्टि के प्रभाव में सुकृत्य किए — वे मरणोपरांत सद्गति होकर स्वर्ग में उपजे। इस तरह विशुद्ध हुए अलौकिक दिव्यचक्षु से उसे अन्य सत्वों की मौत और पुनर्जन्म होते हुए दिखता है। और उसे पता चलता है कि कर्मानुसार ही वे कैसे हीन अथवा उच्च हैं, सुंदर अथवा कुरूप हैं, सद्गति होते अथवा दुर्गति होते हैं।
आगे, ब्राह्मण, जब उसका चित्त इस तरह समाहित, परिशुद्ध, उज्ज्वल, बेदाग, निर्मल, मृदुल, काम करने-योग्य, स्थिर और अविचल हो जाता है, तब वह उस चित्त को आस्रव का क्षय जानने की ओर झुकाता है। तब ‘दुःख ऐसा है’, उसे यथास्वरूप पता चलता है। ‘दुःख की उत्पत्ति ऐसी है’, उसे यथास्वरूप पता चलता है। ‘दुःख का निरोध ऐसा है’, उसे यथास्वरूप पता चलता है। ‘दुःख का निरोध-मार्ग ऐसा है’, उसे यथास्वरूप पता चलता है। ‘आस्रव ऐसा है’, उसे यथास्वरूप पता चलता है। ‘आस्रव की उत्पत्ति ऐसी है’, उसे यथास्वरूप पता चलता है। ‘आस्रव का निरोध ऐसा है’, उसे यथास्वरूप पता चलता है। ‘आस्रव का निरोध-मार्ग ऐसा है’, उसे यथास्वरूप पता चलता है।
इस तरह जानने से, देखने से, उसका चित्त कामुक-आस्रव से विमुक्त हो जाता है, अस्तित्व-आस्रव से विमुक्त हो जाता है, अविद्या-बहाव से विमुक्त हो जाता है। विमुक्ति के साथ ज्ञान उत्पन्न होता है, ‘विमुक्त हुआ!’ उसे पता चलता है, ‘जन्म क्षीण हुए, ब्रह्मचर्य पूर्ण हुआ, काम समाप्त हुआ, आगे कोई काम बचा नहीं।’
इस तरह के व्यक्ति को कहते हैं, भिक्षुओं, कि वे न स्वयं को पीड़ित करते हैं, न आत्मपीड़ा के लिए प्रतिबद्ध होते हैं, और न ही दूसरे को उत्पीड़ित करते हैं, न परपीड़ा के लिए प्रतिबद्ध होते हैं। वे इस जीवन में न आत्मपीड़न कर, न परउत्पीड़न कर, शीतल हो चुके, ब्रह्म हो चुके, इच्छारहित और निर्वृत आत्म से सुख की अनुभूति करते हुए विहार करते हैं।”
भगवान ने ऐसा कहा। हर्षित होकर भिक्षुओं ने भगवान की बात का अभिनंदन किया।
चम्पा आज का चंपापुर है, जो बिहार राज्य में भागलपुर के पास स्थित है और पश्चिम बंगाल से ज़्यादा दूर नहीं है। यह बुद्ध के यात्रा मार्ग के एकदम पूर्वी छोर के पास आता है। चम्पा अङ्ग देश की राजधानी थी, जो सोलह महाजनपदों में से एक था। यह एक समृद्ध व्यापारिक केंद्र था और बाद में जैन धर्म के लिए एक पवित्र नगरी बन गया।
गग्गरा एक ध्वन्यात्मक शब्द है जो “गरगर” की ध्वनि से जुड़ा है। संस्कृत में इसका प्रयोग कई नदियों और जल-भंवरों के लिए हुआ है। जैसे आज की आधुनिक घग्गर नदी, जो हरियाणा और पंजाब से होकर बहती है। ↩︎
इस सूत्र का नाम कंदरक घुमक्कड़ के नाम पर क्यों रखा गया, यह स्पष्ट नहीं है। क्योंकि स्वयं कंदरक इस संवाद में मात्र नाममात्र की उपस्थिति रखते हैं। इसके विपरीत, संवाद का वास्तविक नेतृत्व महावत-पुत्र पेस्स के हाथ में है। वह मुख्य चर्चा प्रस्तुत करते हैं, धर्मचर्चा को दिशा देते हैं, और अंततः स्वयं भगवान बुद्ध द्वारा प्रशंसित भी होते हैं। उल्लेखनीय है कि पालि साहित्य में कंदरक तथा पेस्स का उल्लेख केवल इसी सूत्र में प्राप्त होता है; अन्यत्र इनका नाम नहीं मिलता। ↩︎
१. एवं मे सुतं – एकं समयं भगवा चम्पायं विहरति गग्गराय पोक्खरणिया तीरे महता भिक्खुसङ्घेन सद्धिं. अथ खो पेस्सो [पेयो (क.)] च हत्थारोहपुत्तो कन्दरको च परिब्बाजको येन भगवा तेनुपसङ्कमिंसु; उपसङ्कमित्वा पेस्सो हत्थारोहपुत्तो भगवन्तं अभिवादेत्वा एकमन्तं निसीदि. कन्दरको पन परिब्बाजको भगवता सद्धिं सम्मोदि. सम्मोदनीयं कथं सारणीयं [साराणीयं (सी. स्या. कं पी.)] वीतिसारेत्वा एकमन्तं अट्ठासि. एकमन्तं ठितो खो कन्दरको परिब्बाजको तुण्हीभूतं तुण्हीभूतं भिक्खुसङ्घं अनुविलोकेत्वा भगवन्तं एतदवोच – ‘‘अच्छरियं , भो गोतम, अब्भुतं, भो गोतम, यावञ्चिदं भोता गोतमेन सम्मा भिक्खुसङ्घो पटिपादितो! येपि ते, भो गोतम, अहेसुं अतीतमद्धानं अरहन्तो सम्मासम्बुद्धा तेपि भगवन्तो एतपरमंयेव सम्मा भिक्खुसङ्घं पटिपादेसुं – सेय्यथापि एतरहि भोता गोतमेन सम्मा भिक्खुसङ्घो पटिपादितो. येपि ते, भो गोतम, भविस्सन्ति अनागतमद्धानं अरहन्तो सम्मासम्बुद्धा तेपि भगवन्तो एतपरमंयेव सम्मा भिक्खुसङ्घं पटिपादेस्सन्ति – सेय्यथापि एतरहि भोता गोतमेन सम्मा भिक्खुसङ्घो पटिपादितो’’ति.
२. ‘‘एवमेतं , कन्दरक, एवमेतं, कन्दरक. येपि ते, कन्दरक, अहेसुं अतीतमद्धानं अरहन्तो सम्मासम्बुद्धा तेपि भगवन्तो एतपरमंयेव सम्मा भिक्खुसङ्घं पटिपादेसुं – सेय्यथापि एतरहि मया सम्मा भिक्खुसङ्घो पटिपादितो. येपि ते, कन्दरक, भविस्सन्ति अनागतमद्धानं अरहन्तो सम्मासम्बुद्धा तेपि भगवन्तो एतपरमंयेव सम्मा भिक्खुसङ्घं पटिपादेस्सन्ति – सेय्यथापि एतरहि मया सम्मा भिक्खुसङ्घो पटिपादितो.
‘‘सन्ति हि, कन्दरक, भिक्खू इमस्मिं भिक्खुसङ्घे अरहन्तो खीणासवा वुसितवन्तो कतकरणीया ओहितभारा अनुप्पत्तसदत्था परिक्खीणभवसंयोजना सम्मदञ्ञा विमुत्ता. सन्ति हि, कन्दरक, भिक्खू इमस्मिं भिक्खुसङ्घे सेक्खा सन्ततसीला सन्ततवुत्तिनो निपका निपकवुत्तिनो; ते चतूसु [निपकवुत्तिनो चतूसु (सी.)] सतिपट्ठानेसु सुप्पतिट्ठितचित्ता [सुपट्ठितचित्ता (सी. पी. क.)] विहरन्ति. कतमेसु चतूसु? इध, कन्दरक, भिक्खु काये कायानुपस्सी विहरति आतापी सम्पजानो सतिमा, विनेय्य लोके अभिज्झादोमनस्सं; वेदनासु वेदनानुपस्सी विहरति आतापी सम्पजानो सतिमा, विनेय्य लोके अभिज्झादोमनस्सं; चित्ते चित्तानुपस्सी विहरति आतापी सम्पजानो सतिमा, विनेय्य लोके अभिज्झादोमनस्सं; धम्मेसु धम्मानुपस्सी विहरति आतापी सम्पजानो सतिमा, विनेय्य लोके अभिज्झादोमनस्स’’न्ति.
३. एवं वुत्ते, पेस्सो हत्थारोहपुत्तो भगवन्तं एतदवोच – ‘‘अच्छरियं, भन्ते, अब्भुतं, भन्ते! याव सुपञ्ञत्ता चिमे, भन्ते, भगवता चत्तारो सतिपट्ठाना सत्तानं विसुद्धिया सोकपरिदेवानं [सोकपरिद्दवानं (सी. पी.)] समतिक्कमाय दुक्खदोमनस्सानं अत्थङ्गमाय ञायस्स अधिगमाय निब्बानस्स सच्छिकिरियाय. मयम्पि हि, भन्ते, गिही ओदातवसना कालेन कालं इमेसु चतूसु सतिपट्ठानेसु सुप्पतिट्ठितचित्ता विहराम. इध मयं, भन्ते, काये कायानुपस्सिनो विहराम आतापिनो सम्पजाना सतिमन्तो, विनेय्य लोके अभिज्झादोमनस्सं; वेदनासु वेदनानुपस्सिनो विहराम आतापिनो सम्पजाना सतिमन्तो, विनेय्य लोके अभिज्झादोमनस्सं; चित्ते चित्तानुपस्सिनो विहराम आतापिनो सम्पजाना सतिमन्तो, विनेय्य लोके अभिज्झादोमनस्सं; धम्मेसु धम्मानुपस्सिनो विहराम आतापिनो सम्पजाना सतिमन्तो, विनेय्य लोके अभिज्झादोमनस्सं. अच्छरियं, भन्ते, अब्भुतं, भन्ते! यावञ्चिदं, भन्ते, भगवा एवं मनुस्सगहने एवं मनुस्सकसटे एवं मनुस्ससाठेय्ये वत्तमाने सत्तानं हिताहितं जानाति. गहनञ्हेतं, भन्ते, यदिदं मनुस्सा; उत्तानकञ्हेतं, भन्ते, यदिदं पसवो. अहञ्हि, भन्ते, पहोमि हत्थिदम्मं सारेतुं. यावतकेन अन्तरेन चम्पं गतागतं करिस्सति सब्बानि तानि साठेय्यानि कूटेय्यानि वङ्केय्यानि जिम्हेय्यानि पातुकरिस्सति. अम्हाकं पन, भन्ते, दासाति वा पेस्साति वा कम्मकराति वा अञ्ञथाव कायेन समुदाचरन्ति अञ्ञथाव वाचाय अञ्ञथाव नेसं चित्तं होति. अच्छरियं, भन्ते, अब्भुतं, भन्ते! यावञ्चिदं, भन्ते, भगवा एवं मनुस्सगहने एवं मनुस्सकसटे एवं मनुस्ससाठेय्ये वत्तमाने सत्तानं हिताहितं जानाति. गहनञ्हेतं, भन्ते, यदिदं मनुस्सा; उत्तानकञ्हेतं, भन्ते, यदिदं पसवो’’ति.
४. ‘‘एवमेतं, पेस्स, एवमेतं, पेस्स. गहनञ्हेतं , पेस्स, यदिदं मनुस्सा; उत्तानकञ्हेतं, पेस्स, यदिदं पसवो. चत्तारोमे, पेस्स, पुग्गला सन्तो संविज्जमाना लोकस्मिं. कतमे चत्तारो? इध, पेस्स, एकच्चो पुग्गलो अत्तन्तपो होति अत्तपरितापनानुयोगमनुयुत्तो; इध पन, पेस्स, एकच्चो पुग्गलो परन्तपो होति परपरितापनानुयोगमनुयुत्तो; इध पन, पेस्स, एकच्चो पुग्गलो अत्तन्तपो च होति अत्तपरितापनानुयोगमनुयुत्तो, परन्तपो च परपरितापनानुयोगमनुयुत्तो ; इध पन, पेस्स, एकच्चो पुग्गलो नेवत्तन्तपो होति नात्तपरितापनानुयोगमनुयुत्तो न परन्तपो न परपरितापनानुयोगमनुयुत्तो. सो अनत्तन्तपो अपरन्तपो दिट्ठेव धम्मे निच्छातो निब्बुतो सीतीभूतो [सीतिभूतो (सी. पी. क.)] सुखप्पटिसंवेदी ब्रह्मभूतेन अत्तना विहरति. इमेसं, पेस्स, चतुन्नं पुग्गलानं कतमो ते पुग्गलो चित्तं आराधेती’’ति?
‘‘य्वायं, भन्ते, पुग्गलो अत्तन्तपो अत्तपरितापनानुयोगमनुयुत्तो, अयं मे पुग्गलो चित्तं नाराधेति. योपायं, भन्ते, पुग्गलो परन्तपो परपरितापनानुयोगमनुयुत्तो , अयम्पि मे पुग्गलो चित्तं नाराधेति. योपायं, भन्ते, पुग्गलो अत्तन्तपो च अत्तपरितापनानुयोगमनुयुत्तो परन्तपो च परपरितापनानुयोगमनुयुत्तो, अयम्पि मे पुग्गलो चित्तं नाराधेति. यो च खो अयं, भन्ते, पुग्गलो नेवत्तन्तपो नात्तपरितापनानुयोगमनुयुत्तो न परन्तपो न परपरितापनानुयोगमनुयुत्तो, सो अनत्तन्तपो अपरन्तपो दिट्ठेव धम्मे निच्छातो निब्बुतो सीतीभूतो सुखप्पटिसंवेदी ब्रह्मभूतेन अत्तना विहरति – अयमेव [अयं (सी. स्या. कं. पी.)] मे पुग्गलो चित्तं आराधेती’’ति.
५. ‘‘कस्मा पन ते, पेस्स, इमे तयो पुग्गला चित्तं नाराधेन्ती’’ति? ‘‘य्वायं, भन्ते, पुग्गलो अत्तन्तपो अत्तपरितापनानुयोगमनुयुत्तो सो अत्तानं सुखकामं दुक्खपटिक्कूलं आतापेति परितापेति – इमिना मे अयं पुग्गलो चित्तं नाराधेति. योपायं, भन्ते, पुग्गलो परन्तपो परपरितापनानुयोगमनुयुत्तो सो परं सुखकामं दुक्खपटिक्कूलं आतापेति परितापेति – इमिना मे अयं पुग्गलो चित्तं नाराधेति. योपायं, भन्ते, पुग्गलो अत्तन्तपो च अत्तपरितापनानुयोगमनुयुत्तो परन्तपो च परपरितापनानुयोगमनुयुत्तो सो अत्तानञ्च परञ्च सुखकामं दुक्खपटिक्कूलं [सुखकामे दुक्खपटिक्कूले (सी. पी.)] आतापेति परितापेति – इमिना मे अयं पुग्गलो चित्तं नाराधेति. यो च खो अयं, भन्ते, पुग्गलो नेवत्तन्तपो नात्तपरितापनानुयोगमनुयुत्तो न परन्तपो न परपरितापनानुयोगमनुयुत्तो सो अनत्तन्तपो अपरन्तपो दिट्ठेव धम्मे निच्छातो निब्बुतो सीतीभूतो सुखप्पटिसंवेदी ब्रह्मभूतेन अत्तना [विहरति. इमिना (सी. स्या. कं. पी.)] विहरति; सो अत्तानञ्च परञ्च सुखकामं दुक्खपटिक्कूलं नेव आतापेति न परितापेति – इमिना [विहरति. इमिना (सी. स्या. कं. पी.)] मे अयं पुग्गलो चित्तं आराधेति. हन्द, च दानि मयं, भन्ते, गच्छाम; बहुकिच्चा मयं बहुकरणीया’’ति. ‘‘यस्सदानि त्वं, पेस्स, कालं मञ्ञसी’’ति. अथ खो पेस्सो हत्थारोहपुत्तो भगवतो भासितं अभिनन्दित्वा अनुमोदित्वा उट्ठायासना भगवन्तं अभिवादेत्वा पदक्खिणं कत्वा पक्कामि.
६. अथ खो भगवा अचिरपक्कन्ते पेस्से हत्थारोहपुत्ते भिक्खू आमन्तेसि – ‘‘पण्डितो, भिक्खवे, पेस्सो हत्थारोहपुत्तो; महापञ्ञो, भिक्खवे, पेस्सो हत्थारोहपुत्तो. सचे, भिक्खवे, पेस्सो हत्थारोहपुत्तो मुहुत्तं निसीदेय्य यावस्साहं इमे चत्तारो पुग्गले वित्थारेन विभजिस्सामि [विभजामि (सी. पी.)], महता अत्थेन संयुत्तो अभविस्स. अपि च, भिक्खवे, एत्तावतापि पेस्सो हत्थारोहपुत्तो महता अत्थेन संयुत्तो’’ति. ‘‘एतस्स, भगवा, कालो, एतस्स, सुगत, कालो, यं भगवा इमे चत्तारो पुग्गले वित्थारेन विभजेय्य. भगवतो सुत्वा भिक्खू धारेस्सन्ती’’ति. ‘‘तेन हि, भिक्खवे, सुणाथ, साधुकं मनसि करोथ, भासिस्सामी’’ति. ‘‘एवं, भन्ते’’ति खो ते भिक्खू भगवतो पच्चस्सोसुं. भगवा एतदवोच –
७. ‘‘कतमो च, भिक्खवे, पुग्गलो अत्तन्तपो अत्तपरितापनानुयोगमनुयुत्तो? इध, भिक्खवे, एकच्चो पुग्गलो अचेलको होति मुत्ताचारो हत्थापलेखनो [हत्थावलेखनो (स्या. कं.)] नएहिभद्दन्तिको नतिट्ठभद्दन्तिको [नएहिभदन्तिको, नतिट्ठभदन्तिको (सी. स्या. कं. पी.)]; नाभिहटं न उद्दिस्सकतं न निमन्तनं सादियति; सो न कुम्भिमुखा पटिग्गण्हाति न कळोपिमुखा [खळोपिमुखो (सी.)] पटिग्गण्हाति न एळकमन्तरं न दण्डमन्तरं न मुसलमन्तरं न द्विन्नं भुञ्जमानानं न गब्भिनिया न पायमानाय न पुरिसन्तरगताय न सङ्कित्तीसु न यत्थ सा उपट्ठितो होति न यत्थ मक्खिका सण्डसण्डचारिनी; न मच्छं न मंसं न सुरं न मेरयं न थुसोदकं पिवति. सो एकागारिको वा होति एकालोपिको, द्वागारिको वा होति द्वालोपिको…पे… सत्तागारिको वा होति सत्तालोपिको; एकिस्सापि दत्तिया यापेति, द्वीहिपि दत्तीहि यापेति…पे… सत्तहिपि दत्तीहि यापेति; एकाहिकम्पि आहारं आहारेति, द्वीहिकम्पि आहारं आहारेति…पे… सत्ताहिकम्पि आहारं आहारेति – इति एवरूपं अड्ढमासिकं परियायभत्तभोजनानुयोगमनुयुत्तो विहरति. सो साकभक्खो वा होति, सामाकभक्खो वा होति, नीवारभक्खो वा होति, दद्दुलभक्खो वा होति, हटभक्खो वा होति, कणभक्खो वा होति, आचामभक्खो वा होति, पिञ्ञाकभक्खो वा होति, तिणभक्खो वा होति, गोमयभक्खो वा होति; वनमूलफलाहारो यापेति पवत्तफलभोजी. सो साणानिपि धारेति, मसाणानिपि धारेति, छवदुस्सानिपि धारेति, पंसुकूलानिपि धारेति, तिरीटानिपि धारेति, अजिनम्पि धारेति, अजिनक्खिपम्पि धारेति, कुसचीरम्पि धारेति, वाकचीरम्पि धारेति, फलकचीरम्पि धारेति, केसकम्बलम्पि धारेति, वाळकम्बलम्पि धारेति, उलूकपक्खम्पि धारेति; केसमस्सुलोचकोपि होति, केसमस्सुलोचनानुयोगमनुयुत्तो, उब्भट्ठकोपि होति आसनपटिक्खित्तो, उक्कुटिकोपि होति उक्कुटिकप्पधानमनुयुत्तो, कण्टकापस्सयिकोपि होति कण्टकापस्सये सेय्यं कप्पेति [पस्स म. नि. १.१५५ महासीहनादसुत्ते]; सायततियकम्पि उदकोरोहनानुयोगमनुयुत्तो विहरति – इति एवरूपं अनेकविहितं कायस्स आतापनपरितापनानुयोगमनुयुत्तो विहरति. अयं वुच्चति, भिक्खवे, पुग्गलो अत्तन्तपो अत्तपरितापनानुयोगमनुयुत्तो.
८. ‘‘कतमो च, भिक्खवे, पुग्गलो परन्तपो परपरितापनानुयोगमनुयुत्तो? इध, भिक्खवे, एकच्चो पुग्गलो ओरब्भिको होति सूकरिको साकुणिको मागविको लुद्दो मच्छघातको चोरो चोरघातको गोघातको बन्धनागारिको ये वा पनञ्ञेपि केचि कुरूरकम्मन्ता. अयं वुच्चति, भिक्खवे, पुग्गलो परन्तपो परपरितापनानुयोगमनुयुत्तो.
९. ‘‘कतमो च, भिक्खवे, पुग्गलो अत्तन्तपो च अत्तपरितापनानुयोगमनुयुत्तो परन्तपो च परपरितापनानुयोगमनुयुत्तो? इध, भिक्खवे, एकच्चो पुग्गलो राजा वा होति खत्तियो मुद्धावसित्तो ब्राह्मणो वा महासालो. सो पुरत्थिमेन नगरस्स नवं सन्थागारं [सन्धागारं (टीका)] कारापेत्वा केसमस्सुं ओहारेत्वा खराजिनं निवासेत्वा सप्पितेलेन कायं अब्भञ्जित्वा मगविसाणेन पिट्ठिं कण्डुवमानो नवं सन्थागारं पविसति सद्धिं महेसिया ब्राह्मणेन च पुरोहितेन. सो तत्थ अनन्तरहिताय भूमिया हरितुपलित्ताय सेय्यं कप्पेति. एकिस्साय गाविया सरूपवच्छाय यं एकस्मिं थने खीरं होति तेन राजा यापेति, यं दुतियस्मिं थने खीरं होति तेन महेसी यापेति, यं ततियस्मिं थने खीरं होति तेन ब्राह्मणो पुरोहितो यापेति , यं चतुत्थस्मिं थने खीरं होति तेन अग्गिं जुहति, अवसेसेन वच्छको यापेति. सो एवमाह – ‘एत्तका उसभा हञ्ञन्तु यञ्ञत्थाय, एत्तका वच्छतरा हञ्ञन्तु यञ्ञत्थाय, एत्तका वच्छतरियो हञ्ञन्तु यञ्ञत्थाय, एत्तका अजा हञ्ञन्तु यञ्ञत्थाय, एत्तका उरब्भा हञ्ञन्तु यञ्ञत्थाय, (एत्तका अस्सा हञ्ञन्तु यञ्ञत्थाय) [( ) नत्थि सी. पी. पोत्थकेसु], एत्तका रुक्खा छिज्जन्तु यूपत्थाय, एत्तका दब्भा लूयन्तु बरिहिसत्थाया’ति [परिहिं सत्थाय (क.)]. येपिस्स ते होन्ति दासाति वा पेस्साति वा कम्मकराति वा तेपि दण्डतज्जिता भयतज्जिता अस्सुमुखा रुदमाना परिकम्मानि करोन्ति. अयं वुच्चति, भिक्खवे, पुग्गलो अत्तन्तपो च अत्तपरितापनानुयोगमनुयुत्तो परन्तपो च परपरितापनानुयोगमनुयुत्तो.
१०. ‘‘कतमो च, भिक्खवे, पुग्गलो नेवत्तन्तपो नात्तपरितापनानुयोगमनुयुत्तो न परन्तपो न परपरितापनानुयोगमनुयुत्तो, सो अनत्तन्तपो अपरन्तपो दिट्ठेव धम्मे निच्छातो निब्बुतो सीतीभूतो सुखप्पटिसंवेदी ब्रह्मभूतेन अत्तना विहरति? इध, भिक्खवे, तथागतो लोके उप्पज्जति अरहं सम्मासम्बुद्धो विज्जाचरणसम्पन्नो सुगतो लोकविदू अनुत्तरो पुरिसदम्मसारथि सत्था देवमनुस्सानं बुद्धो भगवा. सो इमं लोकं सदेवकं समारकं सब्रह्मकं सस्समणब्राह्मणिं पजं सदेवमनुस्सं सयं अभिञ्ञा सच्छिकत्वा पवेदेति. सो धम्मं देसेति आदिकल्याणं मज्झेकल्याणं परियोसानकल्याणं सात्थं सब्यञ्जनं, केवलपरिपुण्णं परिसुद्धं ब्रह्मचरियं पकासेति. तं धम्मं सुणाति गहपति वा गहपतिपुत्तो वा अञ्ञतरस्मिं वा कुले पच्चाजातो. सो तं धम्मं सुत्वा तथागते सद्धं पटिलभति. सो तेन सद्धापटिलाभेन समन्नागतो इति पटिसञ्चिक्खति – ‘सम्बाधो घरावासो रजापथो, अब्भोकासो पब्बज्जा. नयिदं सुकरं अगारं अज्झावसता एकन्तपरिपुण्णं एकन्तपरिसुद्धं सङ्खलिखितं ब्रह्मचरियं चरितुं. यंनूनाहं केसमस्सुं ओहारेत्वा कासायानि वत्थानि अच्छादेत्वा अगारस्मा अनगारियं पब्बजेय्य’न्ति . सो अपरेन समयेन अप्पं वा भोगक्खन्धं पहाय, महन्तं वा भोगक्खन्धं पहाय, अप्पं वा ञातिपरिवट्टं पहाय , महन्तं वा ञातिपरिवट्टं पहाय, केसमस्सुं ओहारेत्वा, कासायानि वत्थानि अच्छादेत्वा अगारस्मा अनगारियं पब्बजति.
११. ‘‘सो एवं पब्बजितो समानो भिक्खूनं सिक्खासाजीवसमापन्नो पाणातिपातं पहाय पाणातिपाता पटिविरतो होति निहितदण्डो निहितसत्थो, लज्जी दयापन्नो सब्बपाणभूतहितानुकम्पी विहरति. अदिन्नादानं पहाय अदिन्नादाना पटिविरतो होति दिन्नादायी दिन्नपाटिकङ्खी, अथेनेन सुचिभूतेन अत्तना विहरति. अब्रह्मचरियं पहाय ब्रह्मचारी होति आराचारी विरतो मेथुना गामधम्मा. मुसावादं पहाय मुसावादा पटिविरतो होति सच्चवादी सच्चसन्धो थेतो पच्चयिको अविसंवादको लोकस्स. पिसुणं वाचं पहाय पिसुणाय वाचाय पटिविरतो होति, इतो सुत्वा न अमुत्र अक्खाता इमेसं भेदाय, अमुत्र वा सुत्वा न इमेसं अक्खाता अमूसं भेदाय – इति भिन्नानं वा सन्धाता सहितानं वा अनुप्पदाता समग्गारामो समग्गरतो समग्गनन्दी समग्गकरणिं वाचं भासिता होति. फरुसं वाचं पहाय फरुसाय वाचाय पटिविरतो होति, या सा वाचा नेला कण्णसुखा पेमनीया हदयङ्गमा पोरी बहुजनकन्ता बहुजनमनापा तथारूपिं वाचं भासिता होति. सम्फप्पलापं पहाय सम्फप्पलापा पटिविरतो होति कालवादी भूतवादी अत्थवादी धम्मवादी विनयवादी, निधानवतिं वाचं भासिता कालेन सापदेसं परियन्तवतिं अत्थसंहितं. सो बीजगामभूतगामसमारम्भा पटिविरतो होति, एकभत्तिको होति रत्तूपरतो विरतो विकालभोजना; नच्चगीतवादितविसूकदस्सना पटिविरतो होति; मालागन्धविलेपनधारणमण्डनविभूसनट्ठाना पटिविरतो होति; उच्चासयनमहासयना पटिविरतो होति; जातरूपरजतपटिग्गहणा पटिविरतो होति; आमकधञ्ञपटिग्गहणा पटिविरतो होति; आमकमंसपटिग्गहणा पटिविरतो होति; इत्थिकुमारिकपटिग्गहणा पटिविरतो होति; दासिदासपटिग्गहणा पटिविरतो होति; अजेळकपटिग्गहणा पटिविरतो होति; कुक्कुटसूकरपटिग्गहणा पटिविरतो होति; हत्थिगवस्सवळवपटिग्गहणा पटिविरतो होति; खेत्तवत्थुपटिग्गहणा पटिविरतो होति; दूतेय्यपहिणगमनानुयोगा पटिविरतो होति; कयविक्कया पटिविरतो होति; तुलाकूटकंसकूटमानकूटा पटिविरतो होति; उक्कोटनवञ्चननिकतिसाचियोगा [सावियोगा (स्या. कं. क.) साचि कुटिलपरियायो] पटिविरतो होति; छेदनवधबन्धनविपरामोसआलोपसहसाकारा पटिविरतो होति [पस्स म. नि. १.२९३ चूळहत्थिपदोपमे].
‘‘सो सन्तुट्ठो होति कायपरिहारिकेन चीवरेन कुच्छिपरिहारिकेन पिण्डपातेन. सो येन येनेव पक्कमति, समादायेव पक्कमति. सेय्यथापि नाम पक्खी सकुणो येन येनेव डेति, सपत्तभारोव डेति; एवमेव भिक्खु सन्तुट्ठो होति कायपरिहारिकेन चीवरेन कुच्छिपरिहारिकेन पिण्डपातेन. सो येन येनेव पक्कमति, समादायेव पक्कमति . सो इमिना अरियेन सीलक्खन्धेन समन्नागतो अज्झत्तं अनवज्जसुखं पटिसंवेदेति.
१२. ‘‘सो चक्खुना रूपं दिस्वा न निमित्तग्गाही होति नानुब्यञ्जनग्गाही. यत्वाधिकरणमेनं चक्खुन्द्रियं असंवुतं विहरन्तं अभिज्झादोमनस्सा पापका अकुसला धम्मा अन्वास्सवेय्युं तस्स संवराय पटिपज्जति, रक्खति चक्खुन्द्रियं, चक्खुन्द्रिये संवरं आपज्जति. सोतेन सद्दं सुत्वा…पे… घानेन गन्धं घायित्वा…पे… जिव्हाय रसं सायित्वा…पे… कायेन फोट्ठब्बं फुसित्वा…पे… मनसा धम्मं विञ्ञाय न निमित्तग्गाही होति नानुब्यञ्जनग्गाही. यत्वाधिकरणमेनं मनिन्द्रियं असंवुतं विहरन्तं अभिज्झादोमनस्सा पापका अकुसला धम्मा अन्वास्सवेय्युं तस्स संवराय पटिपज्जति, रक्खति मनिन्द्रियं, मनिन्द्रिये संवरं आपज्जति. सो इमिना अरियेन इन्द्रियसंवरेन समन्नागतो अज्झत्तं अब्यासेकसुखं पटिसंवेदेति.
‘‘सो अभिक्कन्ते पटिक्कन्ते सम्पजानकारी होति, आलोकिते विलोकिते सम्पजानकारी होति, समिञ्जिते पसारिते सम्पजानकारी होति, सङ्घाटिपत्तचीवरधारणे सम्पजानकारी होति, असिते पीते खायिते सायिते सम्पजानकारी होति, उच्चारपस्सावकम्मे सम्पजानकारी होति, गते ठिते निसिन्ने सुत्ते जागरिते भासिते तुण्हीभावे सम्पजानकारी होति.
१३. ‘‘सो इमिना च अरियेन सीलक्खन्धेन समन्नागतो, (इमाय च अरियाय सन्तुट्ठिया समन्नागतो,) [पस्स म. नि. १.२९६ चूळहत्थिपदोपमे] इमिना च अरियेन इन्द्रियसंवरेन समन्नागतो, इमिना च अरियेन सतिसम्पजञ्ञेन समन्नागतो विवित्तं सेनासनं भजति अरञ्ञं रुक्खमूलं पब्बतं कन्दरं गिरिगुहं सुसानं वनपत्थं अब्भोकासं पलालपुञ्जं. सो पच्छाभत्तं पिण्डपातपटिक्कन्तो निसीदति पल्लङ्कं आभुजित्वा उजुं कायं पणिधाय परिमुखं सतिं उपट्ठपेत्वा. सो अभिज्झं लोके पहाय विगताभिज्झेन चेतसा विहरति, अभिज्झाय चित्तं परिसोधेति, ब्यापादपदोसं पहाय अब्यापन्नचित्तो विहरति सब्बपाणभूतहितानुकम्पी, ब्यापादपदोसा चित्तं परिसोधेति; थीनमिद्धं पहाय विगतथीनमिद्धो विहरति आलोकसञ्ञी सतो सम्पजानो, थीनमिद्धा चित्तं परिसोधेति; उद्धच्चकुक्कुच्चं पहाय अनुद्धतो विहरति अज्झत्तं वूपसन्तचित्तो, उद्धच्चकुक्कुच्चा चित्तं परिसोधेति; विचिकिच्छं पहाय तिण्णविचिकिच्छो विहरति अकथंकथी कुसलेसु धम्मेसु, विचिकिच्छाय चित्तं परिसोधेति.
‘‘सो इमे पञ्च नीवरणे पहाय चेतसो उपक्किलेसे पञ्ञाय दुब्बलीकरणे, विविच्चेव कामेहि विविच्च अकुसलेहि धम्मेहि सवितक्कं सविचारं विवेकजं पीतिसुखं पठमं झानं उपसम्पज्ज विहरति; वितक्कविचारानं वूपसमा अज्झत्तं सम्पसादनं चेतसो एकोदिभावं अवितक्कं अविचारं समाधिजं पीतिसुखं दुतियं झानं उपसम्पज्ज विहरति; पीतिया च विरागा उपेक्खको च विहरति सतो च सम्पजानो सुखञ्च कायेन पटिसंवेदेति, यं तं अरिया आचिक्खन्ति – ‘उपेक्खको सतिमा सुखविहारी’ति ततियं झानं उपसम्पज्ज विहरति ; सुखस्स च पहाना दुक्खस्स च पहाना पुब्बेव सोमनस्सदोमनस्सानं अत्थङ्गमा अदुक्खमसुखं उपेक्खासतिपारिसुद्धिं चतुत्थं झानं उपसम्पज्ज विहरति.
१४. ‘‘सो एवं समाहिते चित्ते परिसुद्धे परियोदाते अनङ्गणे विगतूपक्किलेसे मुदुभूते कम्मनिये ठिते आनेञ्जप्पत्ते पुब्बेनिवासानुस्सतिञाणाय चित्तं अभिनिन्नामेति. सो अनेकविहितं पुब्बेनिवासं अनुस्सरति, सेय्यथिदं – एकम्पि जातिं द्वेपि जातियो तिस्सोपि जातियो चतस्सोपि जातियो पञ्चपि जातियो दसपि जातियो वीसम्पि जातियो तिंसम्पि जातियो चत्तालीसम्पि जातियो पञ्ञासम्पि जातियो जातिसतम्पि जातिसहस्सम्पि जातिसतसहस्सम्पि अनेकेपि संवट्टकप्पे अनेकेपि विवट्टकप्पे अनेकेपि संवट्टविवट्टकप्पे – ‘अमुत्रासिं एवंनामो एवंगोत्तो एवंवण्णो एवमाहारो एवंसुखदुक्खप्पटिसंवेदी एवमायुपरियन्तो, सो ततो चुतो अमुत्र उदपादिं; तत्रापासिं एवंनामो एवंगोत्तो एवंवण्णो एवमाहारो एवंसुखदुक्खप्पटिसंवेदी एवमायुपरियन्तो, सो ततो चुतो इधूपपन्नो’ति. इति साकारं सउद्देसं अनेकविहितं पुब्बेनिवासं अनुस्सरति.
१५. ‘‘सो एवं समाहिते चित्ते परिसुद्धे परियोदाते अनङ्गणे विगतूपक्किलेसे मुदुभूते कम्मनिये ठिते आनेञ्जप्पत्ते सत्तानं चुतूपपातञाणाय चित्तं अभिनिन्नामेति. सो दिब्बेन चक्खुना विसुद्धेन अतिक्कन्तमानुसकेन सत्ते पस्सति चवमाने उपपज्जमाने हीने पणीते सुवण्णे दुब्बण्णे सुगते दुग्गते यथाकम्मूपगे सत्ते पजानाति – ‘इमे वत भोन्तो सत्ता कायदुच्चरितेन समन्नागता वचीदुच्चरितेन समन्नागता मनोदुच्चरितेन समन्नागता अरियानं उपवादका मिच्छादिट्ठिका मिच्छादिट्ठिकम्मसमादाना, ते कायस्स भेदा परं मरणा अपायं दुग्गतिं विनिपातं निरयं उपपन्ना; इमे वा पन भोन्तो सत्ता कायसुचरितेन समन्नागता वचीसुचरितेन समन्नागता मनोसुचरितेन समन्नागता अरियानं अनुपवादका सम्मादिट्ठिका सम्मादिट्ठिकम्मसमादाना, ते कायस्स भेदा परं मरणा सुगतिं सग्गं लोकं उपपन्ना’ति. इति दिब्बेन चक्खुना विसुद्धेन अतिक्कन्तमानुसकेन सत्ते पस्सति चवमाने उपपज्जमाने हीने पणीते सुवण्णे दुब्बण्णे सुगते दुग्गते यथाकम्मूपगे सत्ते पजानाति.
१६. ‘‘सो एवं समाहिते चित्ते परिसुद्धे परियोदाते अनङ्गणे विगतूपक्किलेसे मुदुभूते कम्मनिये ठिते आनेञ्जप्पत्ते आसवानं खयञाणाय चित्तं अभिनिन्नामेति. सो ‘इदं दुक्ख’न्ति यथाभूतं पजानाति. ‘अयं दुक्खसमुदयो’ति यथाभूतं पजानाति. ‘अयं दुक्खनिरोधो’ति यथाभूतं पजानाति. ‘अयं दुक्खनिरोधगामिनी पटिपदा’ति यथाभूतं पजानाति. ‘इमे आसवा’ति यथाभूतं पजानाति. ‘अयं आसवसमुदयो’ति यथाभूतं पजानाति. ‘अयं आसवनिरोधो’ति यथाभूतं पजानाति . ‘अयं आसवनिरोधगामिनी पटिपदा’ति यथाभूतं पजानाति. तस्स एवं जानतो एवं पस्सतो कामासवापि चित्तं विमुच्चति, भवासवापि चित्तं विमुच्चति, अविज्जासवापि चित्तं विमुच्चति. विमुत्तस्मिं विमुत्तमिति ञाणं होति. ‘खीणा जाति, वुसितं ब्रह्मचरियं, कतं करणीयं, नापरं इत्थत्ताया’ति पजानाति. अयं वुच्चति, भिक्खवे, पुग्गलो नेवत्तन्तपो नात्तपरितापनानुयोगमनुयुत्तो, न परन्तपो न परपरितापनानुयोगमनुयुत्तो . सो अत्तन्तपो अपरन्तपो दिट्ठेव धम्मे निच्छातो निब्बुतो सीतीभूतो सुखप्पटिसंवेदी ब्रह्मभूतेन अत्तना विहरती’’ति.
इदमवोच भगवा. अत्तमना ते भिक्खू भगवतो भासितं अभिनन्दुन्ति.
कन्दरकसुत्तं निट्ठितं पठमं.