नमो तस्स भगवतो अरहतो सम्मा-सम्बुद्धस्स

📜 ग्यारह अमृतद्वार

✦ ॥ नमो तस्स भगवतो अरहतो सम्मासम्बुद्धस्स ॥ ✦

Hindi

ऐसा मैंने सुना — एक समय आयुष्मान आनन्द वैशाली के बेलुव गाँव में विहार कर रहे थे। 1 उस समय अट्ठकनगर का गृहस्थ दसम किसी काम से पाटलिपुत्र पहुँचा था। तब अट्ठकनगर का गृहस्थ दसम कुक्कुटाराम (=मुर्गियों का विहार?) में किसी भिक्षु के पास गया। जाकर उस भिक्षु को अभिवादन कर एक ओर बैठ गया। एक ओर बैठ कर अट्ठकनगर के गृहस्थ दसम ने भिक्षु से कहा, “भंते, आयुष्मान आनन्द इस समय कहाँ विहार कर रहे हैं? मुझे आयुष्मान आनन्द का दर्शन लेने की कामना है।”

“गृहस्थ, इस समय आयुष्मान आनन्द वैशाली के बेलुव गाँव में विहार कर रहे हैं।”

तब अट्ठकनगर के गृहस्थ दसम ने पाटलिपुत्र में अपना काम समाप्त कर वैशाली के बेलुव गाँव में आयुष्मान आनन्द के पास गया। जाकर आयुष्मान आनन्द को अभिवादन कर एक ओर बैठ गया। एक ओर बैठ कर अट्ठकनगर के गृहस्थ दसम ने आयुष्मान आनन्द से कहा —

“भंते आनन्द, क्या भगवान — जो जानते थे, जो देखते थे, जो अरहंत सम्यक-सम्बुद्ध थे — ने किसी एक धर्म की बात बताई, जिसे कोई भिक्षु सतर्क, तत्पर और संकल्पबद्ध होकर विहार करते हुए अपने अविमुक्त चित्त को विमुक्त करता है, उसके (अब तक) असमाप्त आस्रव समाप्ति की ओर बढ़ते हैं, उसे (अब तक) अप्राप्त अनुत्तर योगबन्धन से राहत प्राप्त होती है?”

“हाँ, गृहस्थ! भगवान — जो जानते थे, देखते थे, अरहंत सम्यक-सम्बुद्ध थे — ने एक धर्म बताया हैं, जिसे कोई भिक्षु सतर्क, तत्पर और संकल्पबद्ध होकर विहार करते हुए अपने अविमुक्त चित्त को विमुक्त करता है, उसके असमाप्त आस्रव समाप्ति की ओर बढ़ते हैं, उसे अप्राप्त अनुत्तर योगबन्धन से राहत प्राप्त होती है।”

“कौन सा एक धर्म है, भंते आनन्द, जिसे भगवान — जो जानते थे, देखते थे, अरहंत सम्यक-सम्बुद्ध थे — ने बताया, जिसे कोई भिक्षु सतर्क, तत्पर और संकल्पबद्ध होकर विहार करते हुए अपने अविमुक्त चित्त को विमुक्त करता है, उसके असमाप्त आस्रव समाप्ति की ओर बढ़ते हैं, उसे अप्राप्त अनुत्तर योगबन्धन से राहत प्राप्त होती है?”

चार झान

(१) “गृहस्थ, कोई भिक्षु कामुकता से निर्लिप्त, अकुशल-स्वभाव से निर्लिप्त, सोच एवं विचार के साथ निर्लिप्तता से उपजे प्रफुल्लता और सुखपूर्ण प्रथम-ध्यान में प्रवेश पाकर रहता है। तब वह चिंतन-मनन कर प्रज्ञापूर्वक समझता है — ‘यह प्रथम-ध्यान संस्कार से बना है, चेतना से रचा गया है। किंतु जो संस्कार से बना हो, चेतना से रचा हो, वह अनित्य होता है, निरोध स्वभाव का होता है।’ 2

तब वही रुकने पर उसके आस्रवों का क्षय होता है। यदि आस्रवों का क्षय न हो, तो उस धर्म (=प्रथम-ध्यान) के प्रति दिलचस्पी, उस धर्म के प्रति खुशी के कारण, निचले पाँच संयोजन तोड़कर (शुद्धवास ब्रह्मलोक में) स्वप्रकट होता है और वही परिनिर्वाण प्राप्त करता है। 3

यह एक धर्म है, गृहस्थ, जिसे भगवान — जो जानते थे, देखते थे, अरहंत सम्यक-सम्बुद्ध थे — ने बताया हैं, जिसे कोई भिक्षु सतर्क, तत्पर और संकल्पबद्ध होकर विहार करते हुए अपने अविमुक्त चित्त को विमुक्त करता है, उसके असमाप्त आस्रव समाप्ति की ओर बढ़ते हैं, उसे अप्राप्त अनुत्तर योगबन्धन से राहत प्राप्त होती है।

(२) आगे, गृहस्थ, कोई भिक्षु सोच एवं विचार के रुक जाने पर, भीतर आश्वस्त हुआ मानस एकरस होकर, बिना-सोच, बिना-विचार, समाधि से उपजे प्रफुल्लता और सुखपूर्ण द्वितीय-ध्यान में प्रवेश पाकर रहता है। तब वह चिंतन-मनन कर प्रज्ञापूर्वक समझता है — ‘यह द्वितीय-ध्यान संस्कार से बना है, चेतना से रचा गया है। किंतु जो संस्कार से बना हो, चेतना से रचा हो, वह अनित्य होता है, निरोध स्वभाव का होता है।’

तब वही रुकने पर उसके आस्रवों का क्षय होता है। यदि आस्रवों का क्षय न हो, तो उस धर्म (=द्वितीय-ध्यान) के प्रति दिलचस्पी, उस धर्म के प्रति खुशी के कारण, निचले पाँच संयोजन तोड़कर (शुद्धवास ब्रह्मलोक में) स्वप्रकट होता है और वही परिनिर्वाण प्राप्त करता है।

यह भी एक धर्म है, गृहस्थ, जिसे भगवान — जो जानते थे, देखते थे, अरहंत सम्यक-सम्बुद्ध थे — ने बताया हैं, जिसे कोई भिक्षु सतर्क, तत्पर और संकल्पबद्ध होकर विहार करते हुए अपने अविमुक्त चित्त को विमुक्त करता है, उसके असमाप्त आस्रव समाप्ति की ओर बढ़ते हैं, उसे अप्राप्त अनुत्तर योगबन्धन से राहत प्राप्त होती है।

(३) आगे, गृहस्थ, कोई भिक्षु प्रफुल्लता से विरक्त हो, स्मरणशील एवं सचेतता के साथ-साथ तटस्थता धारण कर शरीर से सुख महसूस करता है। जिसे आर्यजन ‘तटस्थ, स्मरणशील, सुखविहारी’ कहते हैं, वह ऐसे तृतीय-ध्यान में प्रवेश पाकर रहता है। तब वह चिंतन-मनन कर प्रज्ञापूर्वक समझता है — ‘यह तृतीय-ध्यान संस्कार से बना है, चेतना से रचा गया है। किंतु जो संस्कार से बना हो, चेतना से रचा हो, वह अनित्य होता है, निरोध स्वभाव का होता है।’

तब वही रुकने पर उसके आस्रवों का क्षय होता है। यदि आस्रवों का क्षय न हो, तो उस धर्म (=तृतीय-ध्यान) के प्रति दिलचस्पी, उस धर्म के प्रति खुशी के कारण, निचले पाँच संयोजन तोड़कर (शुद्धवास ब्रह्मलोक में) स्वप्रकट होता है और वही परिनिर्वाण प्राप्त करता है।

यह भी एक धर्म है, गृहस्थ, जिसे भगवान — जो जानते थे, देखते थे, अरहंत सम्यक-सम्बुद्ध थे — ने बताया हैं, जिसे कोई भिक्षु सतर्क, तत्पर और संकल्पबद्ध होकर विहार करते हुए अपने अविमुक्त चित्त को विमुक्त करता है, उसके असमाप्त आस्रव समाप्ति की ओर बढ़ते हैं, उसे अप्राप्त अनुत्तर योगबन्धन से राहत प्राप्त होती है।

(४) आगे, गृहस्थ, कोई भिक्षु सुख एवं दर्द दोनों हटाकर, खुशी एवं परेशानी पूर्व ही विलुप्त होने पर, तटस्थता और स्मरणशीलता की परिशुद्धता के साथ, अब न-सुख-न-दर्द पूर्ण चतुर्थ-ध्यान में प्रवेश पाकर रहता है। तब वह चिंतन-मनन कर प्रज्ञापूर्वक समझता है — ‘यह चतुर्थ-ध्यान संस्कार से बना है, चेतना से रचा गया है। किंतु जो संस्कार से बना हो, चेतना से रचा हो, वह अनित्य होता है, निरोध स्वभाव का होता है।’

तब वही रुकने पर उसके आस्रवों का क्षय होता है। यदि आस्रवों का क्षय न हो, तो उस धर्म (=चतुर्थ-ध्यान) के प्रति दिलचस्पी, उस धर्म के प्रति खुशी के कारण, निचले पाँच संयोजन तोड़कर (शुद्धवास ब्रह्मलोक में) स्वप्रकट होता है और वही परिनिर्वाण प्राप्त करता है।

यह भी एक धर्म है, गृहस्थ, जिसे भगवान — जो जानते थे, देखते थे, अरहंत सम्यक-सम्बुद्ध थे — ने बताया हैं, जिसे कोई भिक्षु सतर्क, तत्पर और संकल्पबद्ध होकर विहार करते हुए अपने अविमुक्त चित्त को विमुक्त करता है, उसके असमाप्त आस्रव समाप्ति की ओर बढ़ते हैं, उसे अप्राप्त अनुत्तर योगबन्धन से राहत प्राप्त होती है।

चार ब्रह्मविहार चेतोविमुक्ति

(५) आगे, गृहस्थ, कोई भिक्षु सद्भावपूर्ण (“मेत्ता”) चित्त को एक-दिशा में फैलाकर व्याप्त करता है। उसी तरह दूसरी-दिशा में… तीसरी-दिशा में… चौथी-दिशा में। उसी तरह, वह ऊपर… नीचे… तत्र सर्वत्र… सभी ओर संपूर्ण ब्रह्मांड में निर्बैर, निर्द्वेष, विस्तृत, विराट, असीम सद्भावपूर्ण चित्त को फैलाकर परिपूर्णतः व्याप्त करता है। तब वह चिंतन-मनन कर प्रज्ञापूर्वक समझता है — ‘यह मेत्ता चेतोविमुक्ति संस्कार से बनी है, चेतना से रची गयी है। किंतु जो संस्कार से बनी हो, चेतना से रची हो, वह अनित्य होती है, निरोध स्वभाव की होती है।’

तब वही रुकने पर उसके आस्रवों का क्षय होता है। यदि आस्रवों का क्षय न हो, तो उस धर्म (=मेत्ता चेतोविमुक्ति) के प्रति दिलचस्पी, उस धर्म के प्रति खुशी के कारण, निचले पाँच संयोजन तोड़कर (शुद्धवास ब्रह्मलोक में) स्वप्रकट होता है और वही परिनिर्वाण प्राप्त करता है।

यह भी एक धर्म है, गृहस्थ, जिसे भगवान — जो जानते थे, देखते थे, अरहंत सम्यक-सम्बुद्ध थे — ने बताया हैं, जिसे कोई भिक्षु सतर्क, तत्पर और संकल्पबद्ध होकर विहार करते हुए अपने अविमुक्त चित्त को विमुक्त करता है, उसके असमाप्त आस्रव समाप्ति की ओर बढ़ते हैं, उसे अप्राप्त अनुत्तर योगबन्धन से राहत प्राप्त होती है।

(६) आगे, गृहस्थ, कोई भिक्षु करुण चित्त को एक-दिशा में फैलाकर व्याप्त करता है। उसी तरह दूसरी-दिशा में… तीसरी-दिशा में… चौथी-दिशा में। उसी तरह, वह ऊपर… नीचे… तत्र सर्वत्र… सभी ओर संपूर्ण ब्रह्मांड में निर्बैर, निर्द्वेष, विस्तृत, विराट, असीम करुण चित्त को फैलाकर परिपूर्णतः व्याप्त करता है। तब वह चिंतन-मनन कर प्रज्ञापूर्वक समझता है — ‘यह करुणा चेतोविमुक्ति संस्कार से बनी है, चेतना से रची गयी है। किंतु जो संस्कार से बनी हो, चेतना से रची हो, वह अनित्य होती है, निरोध स्वभाव की होती है।’

तब वही रुकने पर उसके आस्रवों का क्षय होता है। यदि आस्रवों का क्षय न हो, तो उस धर्म (=करुणा चेतोविमुक्ति) के प्रति दिलचस्पी, उस धर्म के प्रति खुशी के कारण, निचले पाँच संयोजन तोड़कर (शुद्धवास ब्रह्मलोक में) स्वप्रकट होता है और वही परिनिर्वाण प्राप्त करता है।

यह भी एक धर्म है, गृहस्थ, जिसे भगवान — जो जानते थे, देखते थे, अरहंत सम्यक-सम्बुद्ध थे — ने बताया हैं, जिसे कोई भिक्षु सतर्क, तत्पर और संकल्पबद्ध होकर विहार करते हुए अपने अविमुक्त चित्त को विमुक्त करता है, उसके असमाप्त आस्रव समाप्ति की ओर बढ़ते हैं, उसे अप्राप्त अनुत्तर योगबन्धन से राहत प्राप्त होती है।

(७) आगे, गृहस्थ, कोई भिक्षु प्रसन्न (“मुदिता”) चित्त को एक-दिशा में फैलाकर व्याप्त करता है। उसी तरह दूसरी-दिशा में… तीसरी-दिशा में… चौथी-दिशा में। उसी तरह, वह ऊपर… नीचे… तत्र सर्वत्र… सभी ओर संपूर्ण ब्रह्मांड में निर्बैर, निर्द्वेष, विस्तृत, विराट, असीम प्रसन्न चित्त को फैलाकर परिपूर्णतः व्याप्त करता है। तब वह चिंतन-मनन कर प्रज्ञापूर्वक समझता है — ‘यह मुदिता चेतोविमुक्ति संस्कार से बनी है, चेतना से रची गयी है। किंतु जो संस्कार से बनी हो, चेतना से रची हो, वह अनित्य होती है, निरोध स्वभाव की होती है।’

तब वही रुकने पर उसके आस्रवों का क्षय होता है। यदि आस्रवों का क्षय न हो, तो उस धर्म (=मुदिता चेतोविमुक्ति) के प्रति दिलचस्पी, उस धर्म के प्रति खुशी के कारण, निचले पाँच संयोजन तोड़कर (शुद्धवास ब्रह्मलोक में) स्वप्रकट होता है और वही परिनिर्वाण प्राप्त करता है।

यह भी एक धर्म है, गृहस्थ, जिसे भगवान — जो जानते थे, देखते थे, अरहंत सम्यक-सम्बुद्ध थे — ने बताया हैं, जिसे कोई भिक्षु सतर्क, तत्पर और संकल्पबद्ध होकर विहार करते हुए अपने अविमुक्त चित्त को विमुक्त करता है, उसके असमाप्त आस्रव समाप्ति की ओर बढ़ते हैं, उसे अप्राप्त अनुत्तर योगबन्धन से राहत प्राप्त होती है।

(८) आगे, गृहस्थ, कोई भिक्षु तटस्थ (“उपेक्खा”) चित्त को एक-दिशा में फैलाकर व्याप्त करता है। उसी तरह दूसरी-दिशा में… तीसरी-दिशा में… चौथी-दिशा में। उसी तरह, वह ऊपर… नीचे… तत्र सर्वत्र… सभी ओर संपूर्ण ब्रह्मांड में निर्बैर, निर्द्वेष, विस्तृत, विराट, असीम तटस्थ चित्त को फैलाकर परिपूर्णतः व्याप्त करता है। तब वह चिंतन-मनन कर प्रज्ञापूर्वक समझता है — ‘यह उपेक्खा चेतोविमुक्ति संस्कार से बनी है, चेतना से रची गयी है। किंतु जो संस्कार से बनी हो, चेतना से रची हो, वह अनित्य होती है, निरोध स्वभाव की होती है।’

तब वही रुकने पर उसके आस्रवों का क्षय होता है। यदि आस्रवों का क्षय न हो, तो उस धर्म (=उपेक्खा चेतोविमुक्ति) के प्रति दिलचस्पी, उस धर्म के प्रति खुशी के कारण, निचले पाँच संयोजन तोड़कर (शुद्धवास ब्रह्मलोक में) स्वप्रकट होता है और वही परिनिर्वाण प्राप्त करता है।

यह भी एक धर्म है, गृहस्थ, जिसे भगवान — जो जानते थे, देखते थे, अरहंत सम्यक-सम्बुद्ध थे — ने बताया हैं, जिसे कोई भिक्षु सतर्क, तत्पर और संकल्पबद्ध होकर विहार करते हुए अपने अविमुक्त चित्त को विमुक्त करता है, उसके असमाप्त आस्रव समाप्ति की ओर बढ़ते हैं, उसे अप्राप्त अनुत्तर योगबन्धन से राहत प्राप्त होती है।

तीन अरूप आयाम

(९) आगे, भिक्षुओं, वह भिक्षु रूप नजरिए पूर्णतः लाँघकर, विरोधी नजरिए ओझल होने पर, विविध नजरियों पर ध्यान न देकर — ‘आकाश अनन्त है’ (देखते हुए) ‘अनन्त आकाश-आयाम’ में प्रवेश कर रहता है। तब वह चिंतन-मनन कर प्रज्ञापूर्वक समझता है — ‘यह आकाश आयाम समापत्ति संस्कार से बनी है, चेतना से रची गयी है। किंतु जो संस्कार से बनी हो, चेतना से रची हो, वह अनित्य होती है, निरोध स्वभाव की होती है।’

तब वही रुकने पर उसके आस्रवों का क्षय होता है। यदि आस्रवों का क्षय न हो, तो उस धर्म (=आकाश आयाम समापत्ति) के प्रति दिलचस्पी, उस धर्म के प्रति खुशी के कारण, निचले पाँच संयोजन तोड़कर (शुद्धवास ब्रह्मलोक में) स्वप्रकट होता है और वही परिनिर्वाण प्राप्त करता है।

यह भी एक धर्म है, गृहस्थ, जिसे भगवान — जो जानते थे, देखते थे, अरहंत सम्यक-सम्बुद्ध थे — ने बताया हैं, जिसे कोई भिक्षु सतर्क, तत्पर और संकल्पबद्ध होकर विहार करते हुए अपने अविमुक्त चित्त को विमुक्त करता है, उसके असमाप्त आस्रव समाप्ति की ओर बढ़ते हैं, उसे अप्राप्त अनुत्तर योगबन्धन से राहत प्राप्त होती है।

(१०) आगे, भिक्षुओं, वह भिक्षु अनन्त आकाश-आयाम पूर्णतः लाँघकर, ‘चैतन्य अनन्त है’ (देखते हुए) ‘अनन्त चैतन्य-आयाम’ में प्रवेश कर रहता है। तब वह चिंतन-मनन कर प्रज्ञापूर्वक समझता है — ‘यह चैतन्य आयाम समापत्ति संस्कार से बनी है, चेतना से रची गयी है। किंतु जो संस्कार से बनी हो, चेतना से रची हो, वह अनित्य होती है, निरोध स्वभाव की होती है।’

तब वही रुकने पर उसके आस्रवों का क्षय होता है। यदि आस्रवों का क्षय न हो, तो उस धर्म (=चैतन्य आयाम समापत्ति) के प्रति दिलचस्पी, उस धर्म के प्रति खुशी के कारण, निचले पाँच संयोजन तोड़कर (शुद्धवास ब्रह्मलोक में) स्वप्रकट होता है और वही परिनिर्वाण प्राप्त करता है।

यह भी एक धर्म है, गृहस्थ, जिसे भगवान — जो जानते थे, देखते थे, अरहंत सम्यक-सम्बुद्ध थे — ने बताया हैं, जिसे कोई भिक्षु सतर्क, तत्पर और संकल्पबद्ध होकर विहार करते हुए अपने अविमुक्त चित्त को विमुक्त करता है, उसके असमाप्त आस्रव समाप्ति की ओर बढ़ते हैं, उसे अप्राप्त अनुत्तर योगबन्धन से राहत प्राप्त होती है।

(११) आगे, भिक्षुओं, वह भिक्षु अनन्त चैतन्य-आयाम पूर्णतः लाँघकर, ‘कुछ नहीं है’ (देखते हुए) ‘सूने-आयाम’ में प्रवेश कर रहता है। तब वह चिंतन-मनन कर प्रज्ञापूर्वक समझता है — ‘यह सूना आयाम समापत्ति संस्कार से बनी है, चेतना से रची गयी है। किंतु जो संस्कार से बनी हो, चेतना से रची हो, वह अनित्य होती है, निरोध स्वभाव की होती है।’

तब वही रुकने पर उसके आस्रवों का क्षय होता है। यदि आस्रवों का क्षय न हो, तो उस धर्म (=सूना आयाम समापत्ति) के प्रति दिलचस्पी, उस धर्म के प्रति खुशी के कारण, निचले पाँच संयोजन तोड़कर (शुद्धवास ब्रह्मलोक में) स्वप्रकट होता है और वही परिनिर्वाण प्राप्त करता है।

यह भी एक धर्म है, गृहस्थ, जिसे भगवान — जो जानते थे, देखते थे, अरहंत सम्यक-सम्बुद्ध थे — ने बताया हैं, जिसे कोई भिक्षु सतर्क, तत्पर और संकल्पबद्ध होकर विहार करते हुए अपने अविमुक्त चित्त को विमुक्त करता है, उसके असमाप्त आस्रव समाप्ति की ओर बढ़ते हैं, उसे अप्राप्त अनुत्तर योगबन्धन से राहत प्राप्त होती है। 4

जब ऐसा कहा गया, तब अट्ठकनगर के गृहस्थ दसम ने आयुष्मान आनन्द से कहा, “भन्ते आनन्द, जैसे कोई पुरुष किसी खजाने का द्वार खोज रहा हो, और यकायक वह ग्यारह खजानों के द्वार के सामने आ पहुँचे! उसी तरह, भंते, मैं अमृतद्वार खोज रहा था, और यकायक ग्यारह अमृतद्वार साधनाएँ प्राप्त हुई!

जैसे, भंते, किसी पुरुष के घर में ग्यारह द्वार हो। अब यदि उस घर में आग लगे, तो वह ग्यारह में से किसी भी एक द्वार से निकलकर सुरक्षित बच सकता है। उसी तरह, भंते, मैं ग्यारह अमृतद्वारों में से किसी भी एक अमृतद्वार से निकलकर सुरक्षित बच सकता हूँ!

भंते, दूसरे संप्रदायों के आचार्य आचार्यधन (=गुरुदक्षिणा) खोजते हैं। तब क्यों मैं आयुष्मान आनन्द की पूजा न करूँ?”

तब, अट्ठकनगर के गृहस्थ दसम ने वैशाली और पाटलिपुत्र के भिक्षुसंघ को एकत्र किया और उन्हें अपने हाथों से उत्तम खाद्य और भोजन परोस कर संतृप्त किया, संतुष्ट किया। उसने हर एक भिक्षु को दो जोड़ी (चीवर) पहनाया, और आयुष्मान आनन्द को तीन चीवर से आच्छादित किया। और, तब आयुष्मान आनन्द के लिए पाँच सौ का विहार बनवाया। 5

सुत्र समाप्त।


  1. महापरिनिर्वाण सूत्र (और संयुक्तनिकाय ४७.९) के अनुसार परिनिर्वाण से पहले भगवान ने यहीं अपना अंतिम वर्षावास बिताया। चूँकि यहाँ भगवान को कोई उल्लेख नहीं हुआ, जिससे पता चलता है कि यह भगवान के परिनिर्वाण के पश्चात घटित हुआ। यहीं सूत्र अंगुत्तरनिकाय ११.१६ में भी दोहराया गया है। ↩︎

  2. इस सूत्र में भी समथ के आधार पर विपस्सना का अभ्यास मार्ग प्रस्तुत किया गया है। इससे स्पष्ट होता है कि समथ और विपस्सना वास्तव में अलग-अलग मार्ग नहीं, बल्कि एक-दूसरे के पूरक हैं। यद्यपि आचार्य बुद्धघोष ने अपनी अट्ठकथा, विसुद्धिमग्ग और अभिधम्म में इन दोनों को भिन्न मार्गों के रूप में प्रतिपादित करने का प्रयास किया है, तथापि बुद्धवचन में इनका सार्थक समन्वय ही मुक्ति का वास्तविक पथ दर्शाता है। समथ मन को स्थिर करता है, विपस्सना उस स्थिर मन से वास्तविकता का साक्षात्कार कराती है। और, दोनों के संयुक्त साधन से ही निर्वाण के निकट पहुँचा जा सकता है। ↩︎

  3. यह वर्णन अनागामी अवस्था का है। इसका सरल अर्थ यह है कि यदि कोई व्यक्ति प्रथम ध्यान की अवस्था को प्राप्त करके उसमें राग या आकर्षण से खुश रहता है, तो वह उसके परिणामस्वरूप अनागामी अवस्था तक पहुँच सकता है। हालांकि, यदि वह उस प्रथम ध्यान में रुचि या प्रसन्नता नहीं रखता, तो वह अरहंत अवस्था भी प्राप्त कर सकता है।

    निचले पाँच संयोजन हैं — स्व-धारणा की दृष्टि, उलझन, कर्मकाण्ड और व्रत में अटकाव, कामेच्छा, और दुर्भावना। संयोजन के बारे में अधिक जानने के लिए हमारी शब्दावली पढ़ें। ↩︎

  4. गौर करें कि आयुष्मान आनन्द ने चौथे अरूप आयाम “न-संज्ञा न-असंज्ञा आयाम” को इस सूची में शामिल नहीं किया है। इसका कारण यह है कि यह अंतिम अरूप आयाम अत्यंत सूक्ष्म होता है, और उस अवस्था में रहते हुए न तो उस पर किसी प्रकार का चिंतन-मनन किया जा सकता है, न ही वहाँ रहते हुए उसे प्रज्ञापूर्वक समझा जा सकता है। अधिक जानने के लिए मज्झिमनिकाय ६५ पढ़ें। ↩︎

  5. दसम के धन-संपत्ति का यह भव्य प्रदर्शन पाटलिपुत्र में भिक्षुसंघ की बढ़ती समृद्धि का प्रारंभिक संकेत था, जो समय के साथ और भी विस्तृत होती गई। यह दर्शाता है कि संघ ने भिक्षुओं की भौतिक स्थिति में सुधार किया था, लेकिन इस समृद्धि ने कुछ नकारात्मक प्रभाव भी डाले। एक-दो शताब्दियों बाद, सम्राट अशोक के शासनकाल में, भ्रष्ट और स्वार्थी व्यक्ति संघ में प्रवेश करने लगे, जो केवल व्यक्तिगत लाभ के लिए भिक्षु बन रहे थे। उन्हें बाहर करने के लिए एक संगायन का आयोजन करना पड़ा। ↩︎

Pali

१७. एवं मे सुतं – एकं समयं आयस्मा आनन्दो वेसालियं विहरति बेलुवगामके [वेळुवगामके (स्या. कं. क.)]. तेन खो पन समयेन दसमो गहपति अट्ठकनागरो पाटलिपुत्तं अनुप्पत्तो होति केनचिदेव करणीयेन. अथ खो दसमो गहपति अट्ठकनागरो येन कुक्कुटारामो येन अञ्ञतरो भिक्खु तेनुपसङ्कमि; उपसङ्कमित्वा तं भिक्खुं अभिवादेत्वा एकमन्तं निसीदि. एकमन्तं निसिन्नो खो दसमो गहपति अट्ठकनागरो तं भिक्खुं एतदवोच – ‘‘कहं नु खो, भन्ते, आयस्मा आनन्दो एतरहि विहरति? दस्सनकामा हि मयं तं आयस्मन्तं आनन्द’’न्ति. ‘‘एसो, गहपति, आयस्मा आनन्दो वेसालियं विहरति बेलुवगामके’’ति. अथ खो दसमो गहपति अट्ठकनागरो पाटलिपुत्ते तं करणीयं तीरेत्वा येन वेसाली येन बेलुवगामको येनायस्मा आनन्दो तेनुपसङ्कमि; उपसङ्कमित्वा आयस्मन्तं आनन्दं अभिवादेत्वा एकमन्तं निसीदि.

१८. एकमन्तं निसिन्नो खो दसमो गहपति अट्ठकनागरो आयस्मन्तं आनन्दं एतदवोच – ‘‘अत्थि नु खो, भन्ते आनन्द, तेन भगवता जानता पस्सता अरहता सम्मासम्बुद्धेन एकधम्मो अक्खातो यत्थ भिक्खुनो अप्पमत्तस्स आतापिनो पहितत्तस्स विहरतो अविमुत्तञ्चेव चित्तं विमुच्चति, अपरिक्खीणा च आसवा परिक्खयं गच्छन्ति , अननुप्पत्तञ्च अनुत्तरं योगक्खेमं अनुपापुणाती’’ति?

‘‘अत्थि खो, गहपति, तेन भगवता जानता पस्सता अरहता सम्मासम्बुद्धेन एकधम्मो अक्खातो यत्थ भिक्खुनो अप्पमत्तस्स आतापिनो पहितत्तस्स विहरतो अविमुत्तञ्चेव चित्तं विमुच्चति, अपरिक्खीणा च आसवा परिक्खयं गच्छन्ति, अननुप्पत्तञ्च अनुत्तरं योगक्खेमं अनुपापुणाती’’ति.

‘‘कतमो पन, भन्ते आनन्द, तेन भगवता जानता पस्सता अरहता सम्मासम्बुद्धेन एकधम्मो अक्खातो यत्थ भिक्खुनो अप्पमत्तस्स आतापिनो पहितत्तस्स विहरतो अविमुत्तञ्चेव चित्तं विमुच्चति, अपरिक्खीणा च आसवा परिक्खयं गच्छन्ति, अननुप्पत्तञ्च अनुत्तरं योगक्खेमं अनुपापुणाती’’ति?

१९. ‘‘इध, गहपति, भिक्खु विविच्चेव कामेहि विविच्च अकुसलेहि धम्मेहि सवितक्कं सविचारं विवेकजं पीतिसुखं पठमं झानं उपसम्पज्ज विहरति. सो इति पटिसञ्चिक्खति – ‘इदम्पि पठमं झानं अभिसङ्खतं अभिसञ्चेतयितं. यं खो पन किञ्चि अभिसङ्खतं अभिसञ्चेतयितं तदनिच्चं निरोधधम्म’न्ति पजानाति. सो तत्थ ठितो आसवानं खयं पापुणाति. नो चे आसवानं खयं पापुणाति, तेनेव धम्मरागेन ताय धम्मनन्दिया पञ्चन्नं ओरम्भागियानं संयोजनानं परिक्खया ओपपातिको होति तत्थ परिनिब्बायी अनावत्तिधम्मो तस्मा लोका. अयम्पि खो, गहपति, तेन भगवता जानता पस्सता अरहता सम्मासम्बुद्धेन एकधम्मो अक्खातो यत्थ भिक्खुनो अप्पमत्तस्स आतापिनो पहितत्तस्स विहरतो अविमुत्तञ्चेव चित्तं विमुच्चति, अपरिक्खीणा च आसवा परिक्खयं गच्छन्ति, अननुप्पत्तञ्च अनुत्तरं योगक्खेमं अनुपापुणाति.

२०. ‘‘पुन चपरं, गहपति, भिक्खु वितक्कविचारानं वूपसमा अज्झत्तं सम्पसादनं…पे… दुतियं झानं उपसम्पज्ज विहरति. सो इति पटिसञ्चिक्खति – ‘इदम्पि खो दुतियं झानं अभिसङ्खतं अभिसञ्चेतयितं… अनुत्तरं योगक्खेमं अनुपापुणाति.

‘‘पुन चपरं, गहपति, भिक्खु पीतिया च विरागा…पे… ततियं झानं उपसम्पज्ज विहरति. सो इति पटिसञ्चिक्खति – ‘इदम्पि खो ततियं झानं अभिसङ्खतं अभिसञ्चेतयितं…पे… अनुत्तरं योगक्खेमं अनुपापुणाति.

‘‘पुन चपरं, गहपति, भिक्खु सुखस्स च पहाना …पे… चतुत्थं झानं उपसम्पज्ज विहरति. सो इति पटिसञ्चिक्खति – ‘इदम्पि खो चतुत्थं झानं अभिसङ्खतं अभिसञ्चेतयितं… अनुत्तरं योगक्खेमं अनुपापुणाति.

‘‘पुन चपरं, गहपति, भिक्खु मेत्तासहगतेन चेतसा एकं दिसं फरित्वा विहरति, तथा दुतियं, तथा ततियं, तथा चतुत्थं [चतुत्थिं (सी. पी.)]. इति उद्धमधो तिरियं सब्बधि सब्बत्तताय सब्बावन्तं लोकं मेत्तासहगतेन चेतसा विपुलेन महग्गतेन अप्पमाणेन अवेरेन अब्याबज्झेन [अब्यापज्झेन (सी. स्या. पी.), अब्यापज्जेन (क.) अङ्गुत्तरतिकनिपातटीका ओलोकेतब्बा] फरित्वा विहरति. सो इति पटिसञ्चिक्खति – ‘अयम्पि खो मेत्ताचेतोविमुत्ति अभिसङ्खता अभिसञ्चेतयिता. यं खो पन किञ्चि अभिसङ्खतं अभिसञ्चेतयितं तदनिच्चं निरोधधम्म’न्ति पजानाति. सो तत्थ ठितो…पे… अनुत्तरं योगक्खेमं अनुपापुणाति.

‘‘पुन चपरं, गहपति, भिक्खु करुणासहगतेन चेतसा…पे… मुदितासहगतेन चेतसा…पे… उपेक्खासहगतेन चेतसा एकं दिसं फरित्वा विहरति, तथा दुतियं, तथा ततियं, तथा चतुत्थं. इति उद्धमधो तिरियं सब्बधि सब्बत्तताय सब्बावन्तं लोकं उपेक्खासहगतेन चेतसा विपुलेन महग्गतेन अप्पमाणेन अवेरेन अब्याबज्झेन फरित्वा विहरति. सो इति पटिसञ्चिक्खति – ‘अयम्पि खो उपेक्खाचेतोविमुत्ति अभिसङ्खता अभिसञ्चेतयिता. यं खो पन किञ्चि अभिसङ्खतं अभिसञ्चेतयितं तदनिच्चं निरोधधम्म’न्ति पजानाति. सो तत्थ ठितो… अनुत्तरं योगक्खेमं अनुपापुणाति.

‘‘पुन चपरं, गहपति, भिक्खु सब्बसो रूपसञ्ञानं समतिक्कमा पटिघसञ्ञानं अत्थङ्गमा नानत्तसञ्ञानं अमनसिकारा ‘अनन्तो आकासो’ति आकासानञ्चायतनं उपसम्पज्ज विहरति. सो इति पटिसञ्चिक्खति – ‘अयम्पि खो आकासानञ्चायतनसमापत्ति अभिसङ्खता अभिसञ्चेतयिता. यं खो पन किञ्चि अभिसङ्खतं अभिसञ्चेतयितं तदनिच्चं निरोधधम्म’न्ति पजानाति. सो तत्थ ठितो…पे… अनुत्तरं योगक्खेमं अनुपापुणाति.

‘‘पुन चपरं, गहपति, भिक्खु सब्बसो आकासानञ्चायतनं समतिक्कम्म ‘अनन्तं विञ्ञाण’न्ति विञ्ञाणञ्चायतनं उपसम्पज्ज विहरति. सो इति पटिसञ्चिक्खति – ‘अयम्पि खो विञ्ञाणञ्चायतनसमापत्ति अभिसङ्खता अभिसञ्चेतयिता. यं खो पन किञ्चि अभिसङ्खतं अभिसञ्चेतयितं तदनिच्चं निरोधधम्म’न्ति पजानाति. सो तत्थ ठितो…पे… अनुत्तरं योगक्खेमं अनुपापुणाति.

‘‘पुन चपरं, गहपति, भिक्खु सब्बसो विञ्ञाणञ्चायतनं समतिक्कम्म ‘नत्थि किञ्ची’ति आकिञ्चञ्ञायतनं उपसम्पज्ज विहरति. सो इति पटिसञ्चिक्खति – ‘अयम्पि खो आकिञ्चञ्ञायतनसमापत्ति अभिसङ्खता अभिसञ्चेतयिता. यं खो पन किञ्चि अभिसङ्खतं अभिसञ्चेतयितं तदनिच्चं निरोधधम्म’न्ति पजानाति. सो तत्थ ठितो आसवानं खयं पापुणाति. नो चे आसवानं खयं पापुणाति, तेनेव धम्मरागेन ताय धम्मनन्दिया पञ्चन्नं ओरम्भागियानं संयोजनानं परिक्खया ओपपातिको होति तत्थ परिनिब्बायी अनावत्तिधम्मो तस्मा लोका. अयम्पि खो, गहपति, तेन भगवता जानता पस्सता अरहता सम्मासम्बुद्धेन एकधम्मो अक्खातो यत्थ भिक्खुनो अप्पमत्तस्स आतापिनो पहितत्तस्स विहरतो अविमुत्तञ्चेव चित्तं विमुच्चति, अपरिक्खीणा च आसवा परिक्खयं गच्छन्ति, अननुप्पत्तञ्च अनुत्तरं योगक्खेमं अनुपापुणाती’’ति.

२१. एवं वुत्ते, दसमो गहपति अट्ठकनागरो आयस्मन्तं आनन्दं एतदवोच – ‘‘सेय्यथापि, भन्ते आनन्द, पुरिसो एकंव निधिमुखं गवेसन्तो सकिदेव एकादस निधिमुखानि अधिगच्छेय्य; एवमेव खो अहं, भन्ते, एकं अमतद्वारं गवेसन्तो सकिदेव [सकिं देव (क.)] एकादस अमतद्वारानि अलत्थं भावनाय. सेय्यथापि, भन्ते, पुरिसस्स अगारं एकादसद्वारं, सो तस्मिं अगारे आदित्ते एकमेकेनपि द्वारेन सक्कुणेय्य अत्तानं सोत्थिं कातुं; एवमेव खो अहं, भन्ते, इमेसं एकादसन्नं अमतद्वारानं एकमेकेनपि अमतद्वारेन सक्कुणिस्सामि अत्तानं सोत्थिं कातुं. इमेहि नाम, भन्ते, अञ्ञतित्थिया आचरियस्स आचरियधनं परियेसिस्सन्ति, किमङ्गं [किं (सी. पी.)] पनाहं आयस्मतो आनन्दस्स पूजं न करिस्सामी’’ति ! अथ खो दसमो गहपति अट्ठकनागरो पाटलिपुत्तकञ्च वेसालिकञ्च भिक्खुसङ्घं सन्निपातेत्वा पणीतेन खादनीयेन भोजनीयेन सहत्था सन्तप्पेसि सम्पवारेसि, एकमेकञ्च भिक्खुं पच्चेकं दुस्सयुगेन अच्छादेसि, आयस्मन्तञ्च आनन्दं तिचीवरेन अच्छादेसि, आयस्मतो च आनन्दस्स पञ्चसतविहारं कारापेसीति.

अट्ठकनागरसुत्तं निट्ठितं दुतियं.