नमो तस्स भगवतो अरहतो सम्मा-सम्बुद्धस्स

📜 साधक की साधना

✦ ॥ नमो तस्स भगवतो अरहतो सम्मासम्बुद्धस्स ॥ ✦

Hindi

ऐसा मैंने सुना — एक समय भगवान शाक्यों के साथ कपिलवस्तु के बरगद उद्यान में विहार कर रहे थे। तब कपिलवस्तु के शाक्यों के द्वारा नये सभागृह का निर्माण कर अधिक समय नहीं बिता था, और जो किसी श्रमण, ब्राह्मण, या अन्य किसी भी मनुष्य या जीव से उद्घाटित नहीं किया गया था।

तब कपिलवस्तु के शाक्य भगवान के पास गए। जाकर भगवान को अभिवादन कर एक ओर बैठ गए। एक ओर बैठकर कपिलवस्तु के शाक्यों ने भगवान से कहा, “भंते, कपिलवस्तु के शाक्यों के द्वारा नये सभागृह का निर्माण कर अधिक समय नहीं बिता है, जो किसी श्रमण, ब्राह्मण, या अन्य किसी भी मनुष्य या जीव से उद्घाटित नहीं किया गया है। भंते, भगवान उसका प्रथम परिभोग करें! भगवान उसका प्रथम परिभोग करने के पश्चात फिर कपिलवस्तु के शाक्य उसका परिभोग करेंगे। वह कपिलवस्तु के शाक्यों के लिए दीर्घकाल तक हितकारक और सुखदायी होगा।”

भगवान ने मौन रहकर स्वीकार किया।

तब कपिलवस्तु के शाक्यों ने भगवान की स्वीकृति जान कर, अपने आसन से उठे और भगवान को अभिवादन कर, प्रदक्षिणा कर, अतिथि-निवास गए। वहाँ जाकर सभागृह में सभी जगह गलीचा बिछाया, आसन लगाया, जल का मटका स्थापित किया, और तेल प्रदीप रख कर भगवान के पास लौटें। भगवान को अभिवादन करने पर एक-ओर खड़े हुए। एक ओर खड़े होकर कपिलवस्तु के शाक्यों ने भगवान से कहा, “भंते, सभागृह में सभी गलीचे बिछा दिए गए हैं, आसन लगा दिए गए हैं, जल का मटका स्थापित हो चुका है, तेल प्रदीप भी रख दिया गया है। भंते, भगवान जो समय उचित समझें।”

तब भगवान ने चीवर ओढ़ा, और पात्र और चीवर लेकर भिक्षुसंघ के साथ सभागृह गए। वहाँ जाकर भगवान ने पैर धोकर सभागृह में प्रवेश किया, और मध्य-स्तंभ पर पीठ टिका कर पूर्व-दिशा की ओर मुख करते हुए बैठ गए। तब भिक्षुसंघ ने पैर धोकर सभागृह में प्रवेश किया, और भगवान के पीठ के पीछे पश्चिमी दीवार से सटकर पूर्व-दिशा की ओर मुख करते हुए बैठ गए। तब कपिलवस्तु के शाक्यों ने पैर धोकर अतिथि-निवास में प्रवेश किया, और पूर्वी दीवार से सटकर पश्चिम-दिशा की ओर मुख करते हुए भगवान के सम्मुख बैठ गए।

भगवान ने कपिलवस्तु के शाक्यों को देर रात तक धर्म-चर्चा से निर्देशित किया, उत्प्रेरित किया, उत्साहित किया, हर्षित किया। और, आयुष्मान आनन्द को (धर्म उपदेश के लिए) आमंत्रित किया, “आनन्द, तुम कपिलवस्तु के शाक्यों को साधक की साधना (“सेक्ख पटिपदा”) बताओं। मेरी पीठ दर्द दे रही है, मैं उसे टिकाऊँगा।”

“ठीक है, भंते।” आयुष्मान आनन्द ने भगवान को उत्तर दिया। तब भगवान ने अपनी संघाटि को चौपेती बिछा दिया और दायी करवट लेकर सिंहशैय्या में लेट गए, पैर पर पैर रखकर, स्मरणशील और सचेत होकर, उठने (के समय) को निश्चित करते हुए।

तब आयुष्मान आनन्द ने महानाम शाक्य को संबोधित किया, “महानाम, कोई आर्यश्रावक शील संपन्न होता है, इंद्रियों की रक्षा करता है, भोजन की उचित मात्रा जानता है, जागरण के प्रति समर्पित होता है, सात सद्धर्मों से संपन्न होता है, और चार ध्यान अवस्थाएँ, जो इस जीवन में ऊँचे चित्त का सुखपूर्वक विहार है, उसे जब चाहो, बिना परेशानी, बिना कठिनाई के प्राप्त करता है।

सीलसम्पन्नो

और, महानाम, कैसे कोई आर्यश्रावक शीलसंपन्न होता है?

महानाम, कोई आर्यश्रावक शीलवान होता है, पातिमोक्ष के अनुसार संयम में प्रतिष्ठित होकर, आर्य आचरण और जीवनशैली से युक्त होता है, (धर्म-विनय के) शिक्षापदों को सीखकर धारण करता है, अल्प पाप में भी दोष देखता है।

— इस तरह, महानाम, कोई आर्यश्रावक शील संपन्न होता है।

इन्द्रियेसु गुत्तद्वारो

और, महानाम, कैसे कोई इंद्रियों की रक्षा करता है?

  • कोई आर्यश्रावक आँखों से कोई रूप देखता है, तो न वह उसकी छाप (“निमित्त”) पकड़ता है, न ही उसकी आकर्षक विशेषताओं (“अनुव्यंजन”) को ग्रहण करता है। यदि वह चक्षु-इंद्रिय पर संयम न रखे, तो लालसा या निराशा जैसे पाप-अकुशल स्वभाव उसे घेर सकते हैं। इसलिए वह संयम का मार्ग अपनाता है, चक्षु-इंद्रिय की रक्षा करता है, और उस पर संयम करता है।
  • कान से कोई ध्वनि सुनता है…
  • नाक से कोई गंध सूँघता है…
  • जीभ से कोई स्वाद चखता है…
  • शरीर से कोई संस्पर्श अनुभव करता है…
  • मन से कोई विचार करता है, तो न वह उसकी छाप पकड़ता है, न ही उसकी आकर्षक विशेषताओं को ग्रहण करता है। यदि वह मन-इंद्रिय पर संयम न रखे, तो लालसा या निराशा जैसे पाप-अकुशल स्वभाव उसे घेर सकते हैं। इसलिए वह संयम का मार्ग अपनाता है, मन-इंद्रिय की रक्षा करता है, और उस पर संयम करता है।

— इस तरह, महानाम, कोई आर्यश्रावक इंद्रियों की रक्षा करता है।

भोजने मत्तञ्ञू

और, महानाम, कैसे कोई आर्यश्रावक भोजन में मर्यादा जानता है?

महानाम, कोई आर्यश्रावक उचित चिंतन करते हुए आहार लेता है — न मज़े के लिए, न मदहोशी के लिए, न सुडौलता के लिए, न ही सौंदर्य के लिए। बल्कि काया को मात्र टिकाने के लिए। उसकी [भूख] पीड़ाएँ समाप्त करने के लिए, और ब्रह्मचर्य के लिए। [सोचते हुए,] ‘पुरानी पीड़ा ख़त्म करूँगा! [अधिक खाकर] नई पीड़ा नहीं उत्पन्न करूँगा! मेरी जीवनयात्रा निर्दोष रहेगी, और राहत से रहूँगा!’

— इस तरह, महानाम, कोई आर्यश्रावक भोजन में मर्यादा जानता है।

जागरियं अनुयुत्तो

और, महानाम, कैसे कोई आर्यश्रावक जागरण के प्रति समर्पित होता है?

  • महानाम, कोई आर्यश्रावक दिन में चक्रमण करते हुए या बैठे हुए, चित्त को घेरने (या ढकने) वाले स्वभावों को साफ करते रहता है।
  • वह रात के पहले पहर में (=शाम ६-१० बजे) चक्रमण करते हुए या बैठे हुए, चित्त को घेरने वाले स्वभावों को साफ करते रहता है।
  • वह रात के दूसरे पहर में (=रात १०-२) दायी करवट लेट कर, सिंहशय्या धारण करता है — बाये पैर को दाएं पैर पर रख कर, स्मरणशील और सचेत हो, शीघ्र उठने का मन बनाता है।
  • वह रात के तीसरे पहर (=रात २-६) चक्रमण करते हुए या बैठे हुए, चित्त को घेरने वाले स्वभावों को साफ करते रहता है।

— इस तरह, महानाम, कोई आर्यश्रावक जागरण के प्रति समर्पित होता है।

सत्तहि सद्धम्मेहि समन्नागतो

और, महानाम, कैसे कोई आर्यश्रावक सात सद्धर्मों से संपन्न होता है?

(१) महानाम, किसी आर्यश्रावक को श्रद्धा होती है। वह तथागत के बोधि के प्रति आश्वस्त होता है, ‘वाकई भगवान ही अरहंत सम्यक-सम्बुद्ध है—विद्या और आचरण से संपन्न, परम लक्ष्य पा चुके, दुनिया के ज्ञाता, दमनशील पुरुषों के अनुत्तर सारथी, देवों और मनुष्यों के गुरु, बुद्ध भगवान!’

(२) उसे लज्जा (=संकोच) होती है। वह काया के दुराचार, वाणी के दुराचार, मन के दुराचार में लिप्त होने से लज्जित होता है। वह पाप अकुशल स्वभावों में लिप्त होने से लज्जित होता है।

(३) वह भयभीरु (=फिक्र) होता है। वह काया के दुराचार, वाणी के दुराचार, मन के दुराचार में लिप्त होने से भयभीत होता है। वह पाप अकुशल स्वभावों में लिप्त होने से भयभीत होता है।

(४) वह बहुत धर्म सुनता है, सुना हुआ धारण करता है, सुना हुआ संचय करता है। ऐसा धर्म, जो प्रारंभ में कल्याणकारी, मध्य में कल्याणकारी, और अन्त में कल्याणकारी हो, ऐसे सर्वपरिपूर्ण, परिशुद्ध ‘ब्रह्मचर्य’ को वह अर्थ और विवरण के साथ बार-बार सुनता है, याद रखता है, चर्चा करता है, संचित करता है, मन से जाँच-पड़ताल करता है, और गहराई से समझकर सम्यकदृष्टि धारण करता है।

(५) वह ऊर्जा जगाकर रहता है। अकुशल स्वभाव को त्यागने के लिए, और कुशल स्वभाव को धारण करने के लिए। वह निश्चयबद्ध, दृढ़, और पराक्रमी होता है; कुशल स्वभाव के प्रति कर्तव्य से जी नहीं चुराता।

(६) वह स्मृतिमान होता है, याददाश्त में बहुत तेज़! पूर्वकाल में किया गया कर्म, पूर्वकाल में कहा गया वचन भी स्मरण रखता है, और अनुस्मरण कर पाता है।

(७) उसे आर्य और भेदक अन्तर्ज्ञान होता है — उदय-व्यय पता लगने योग्य, दुःखों का सम्यक अंतकर्ता।

— इन सात सद्धर्मों से, महानाम, कोई आर्यश्रावक संपन्न होता है।

चतु झान

और, महानाम, कैसे कोई आर्यश्रावक चार ध्यान अवस्थाएँ, जो इस जीवन में ऊँचे चित्त का सुखपूर्वक विहार है, उसे जब चाहो, बिना परेशानी, बिना कठिनाई के प्राप्त करता है?

(१) कोई आर्यश्रावक काम से निर्लिप्त, अकुशल स्वभाव से निर्लिप्त — सोच और विचार के साथ, निर्लिप्तता से जन्मे प्रफुल्लता और सुख वाले प्रथम-ध्यान में प्रवेश कर रहता है।

(२) आगे, सोच और विचार रुक जाने पर भीतर आश्वस्त हुआ मानस एकरस होकर बिना-सोच बिना-विचार, समाधि से जन्मे प्रफुल्लता और सुख वाले द्वितीय-ध्यान में प्रवेश कर रहता है।

(३) तब, आगे वह प्रफुल्लता से विरक्ति ले, स्मरणशीलता और सचेतता के साथ तटस्थता धारण कर शरीर से सुख महसूस करता है। जिसे आर्यजन ‘तटस्थ, स्मरणशील, सुखविहारी’ कहते हैं — वह उस तृतीय-ध्यान में प्रवेश कर रहता है।

(४) आगे, वह सुख और दर्द दोनों ही हटाकर, खुशी और परेशानी पूर्व ही विलुप्त होने से, अब नसुख-नदर्दवाले, तटस्थता और स्मरणशीलता की परिशुद्धता के साथ चतुर्थ-ध्यान में प्रवेश कर रहता है।

— इस तरह, महानाम, कोई आर्यश्रावक चार ध्यान अवस्थाएँ, जो इस जीवन में ऊँचे चित्त का सुखपूर्वक विहार है, उसे जब चाहो, बिना परेशानी, बिना कठिनाई के प्राप्त करता है।

परिणाम

इस तरह, महानाम, जब कोई आर्यश्रावक शील संपन्न होता है, इंद्रियों की रक्षा करता है, भोजन की उचित मात्रा जानता है, जागरण के प्रति समर्पित होता है, सात सद्धर्मों से संपन्न होता है, और चार ध्यान अवस्थाएँ, जो इस जीवन में ऊँचे चित्त का सुखपूर्वक विहार है, उसे जब चाहो, बिना परेशानी, बिना कठिनाई के प्राप्त करता है — तब वह आर्यश्रावक ‘साधक की साधना’ (“सेक्ख पटिपदा” =सीखते वाले का प्रगतिपथ) का धारक कहलाता है, जो अभी (अविद्या का आवरण) तोड़ने में सक्षम है, संबोधि पाने में सक्षम है, योगबंधन से अनुत्तर राहत पाने में सक्षम है।

जैसे, महानाम, किसी मुर्गी के आठ, दस या बारह अंडे हो। उन्हें वह मुर्गी ठीक से ढकती है, ठीक से गर्म रखती है, ठीक से सेती है। और तब भले ही मुर्गी को ऐसी इच्छा न जागे कि ‘काश! मेरे चूज़े अपने नन्हें पंजे और चोंच से अंडे का आवरण तोड़कर सुरक्षित बाहर निकले!’ तब भी संभव है कि उसके चूज़े नन्हें पंजे और चोंच से अंडे का आवरण तोड़कर सुरक्षित निकल जाएंगे।

इस तरह, महानाम, जब कोई आर्यश्रावक शील संपन्न होता है, इंद्रियों की रक्षा करता है, भोजन की उचित मात्रा जानता है, जागरण के प्रति समर्पित होता है, सात सद्धर्मों से संपन्न होता है, और चार ध्यान अवस्थाएँ, जो इस जीवन में ऊँचे चित्त का सुखपूर्वक विहार है, उसे जब चाहो, बिना परेशानी, बिना कठिनाई के प्राप्त करता है — तब वह आर्यश्रावक ‘साधक की साधना’ का धारक कहलाता है, जो अभी (अविद्या का आवरण) तोड़ने में सक्षम है, संबोधि पाने में सक्षम है, योगबंधन से अनुत्तर राहत पाने में सक्षम है।

प्रज्ञा फल

(१) और तब, महानाम, वह आर्यश्रावक उस अनुत्तर तटस्थता और स्मरणशीलता की परिशुद्धता के आधार पर विविध प्रकार के पूर्वजन्म अनुस्मरण करता है — जैसे एक जन्म, दो जन्म, तीन जन्म, चार, पाँच, दस जन्म, बीस, तीस, चालीस, पचास जन्म, सौ जन्म, हज़ार जन्म, लाख जन्म, कई कल्पों का लोक-संवर्त [=ब्रह्मांडिय सिकुड़न], कई कल्पों का लोक-विवर्त [=ब्रह्मांडिय विस्तार], कई कल्पों का संवर्त-विवर्त — ‘वहाँ मेरा ऐसा नाम था, ऐसा गोत्र था, ऐसा दिखता था। ऐसा भोज था, ऐसा सुख-दुःख महसूस हुआ, ऐसा जीवन अंत हुआ। उस लोक से च्युत होकर मैं वहाँ उत्पन्न हुआ। वहाँ मेरा वैसा नाम था, वैसा गोत्र था, वैसा दिखता था। वैसा भोज था, वैसा सुख-दुःख महसूस हुआ, वैसे जीवन अंत हुआ। उस लोक से च्युत होकर मैं यहाँ उत्पन्न हुआ।’ इस तरह वह अपने विविध प्रकार के पूर्वजन्म शैली एवं विवरण के साथ स्मरण करता है।

— इस तरह, महानाम, वह आर्यश्रावक (अविद्या का) पहला आवरण तोड़ कर बाहर निकलता है, जैसे मुर्गी के चूज़े अंडे का आवरण तोड़कर बाहर निकलते हैं।

(२) आगे, महानाम, वह आर्यश्रावक उस अनुत्तर तटस्थता और स्मरणशीलता की परिशुद्धता के आधार पर विशुद्ध हुए अलौकिक दिव्यचक्षु से अन्य सत्वों की मौत और पुनर्जन्म होते हुए देखता है। और उसे पता चलता है कि कर्मानुसार ही वे कैसे हीन अथवा उच्च हैं, सुंदर अथवा कुरूप हैं, सद्गति होते अथवा दुर्गति होते हैं। कैसे ये सत्व — काया दुराचार में संपन्न, वाणी दुराचार में संपन्न, एवं मन दुराचार में संपन्न, जिन्होंने आर्यजनों का अनादर किया, मिथ्यादृष्टि धारण की, और मिथ्यादृष्टि के प्रभाव में दुष्कृत्य किए — वे मरणोपरांत काया छूटने पर दुर्गति होकर यातनालोक नर्क में उपजे।’ किन्तु कैसे ये सत्व — काया सदाचार में संपन्न, वाणी सदाचार में संपन्न, एवं मन सदाचार में संपन्न, जिन्होंने आर्यजनों का अनादर नहीं किया, सम्यकदृष्टि धारण की, और सम्यकदृष्टि के प्रभाव में सुकृत्य किए — वे मरणोपरांत सद्गति होकर स्वर्ग में उपजे। इस तरह विशुद्ध हुए अलौकिक दिव्यचक्षु से उसे अन्य सत्वों की मौत और पुनर्जन्म होते हुए दिखता है। और उसे पता चलता है कि कर्मानुसार ही वे कैसे हीन अथवा उच्च हैं, सुंदर अथवा कुरूप हैं, सद्गति होते अथवा दुर्गति होते हैं।

— इस तरह, महानाम, वह आर्यश्रावक (अविद्या का) दूसरा आवरण तोड़ कर बाहर निकलता है, जैसे मुर्गी के चूज़े अंडे का आवरण तोड़कर बाहर निकलते हैं।

(३) आगे, महानाम, वह आर्यश्रावक उस अनुत्तर तटस्थता और स्मरणशीलता की परिशुद्धता के आधार पर आस्रवों का क्षय कर अनास्रव हो, इसी जीवन में चेतोविमुक्ति और प्रज्ञाविमुक्ति प्राप्त कर, [अर्हत्व] प्रत्यक्ष-ज्ञान का साक्षात्कार कर विहार करता है।

— इस तरह, महानाम, वह आर्यश्रावक (अविद्या का) तीसरा आवरण तोड़ कर बाहर निकलता है, जैसे मुर्गी के चूज़े अंडे का आवरण तोड़कर बाहर निकलते हैं।

विज्जा-चरण

इस तरह, महानाम, जब आर्यश्रावक शील संपन्न होता है — तब वही उसका ‘चरण’ (=आचरण) होता है।

इस तरह, महानाम, जब आर्यश्रावक इंद्रियों की रक्षा करता है — तब वही उसका ‘चरण’ होता है।

इस तरह, महानाम, जब आर्यश्रावक भोजन की उचित मात्रा जानता है — तब वही उसका ‘चरण’ होता है।

इस तरह, महानाम, जब आर्यश्रावक जागरण के प्रति समर्पित होता है — तब वही उसका ‘चरण’ होता है।

इस तरह, महानाम, जब आर्यश्रावक सात सद्धर्मों से संपन्न होता है — तब वही उसका ‘चरण’ होता है।

इस तरह, महानाम, जब आर्यश्रावक चार ध्यान अवस्थाएँ, जो इस जीवन में ऊँचे चित्त का सुखपूर्वक विहार है, उसे जब चाहो, बिना परेशानी, बिना कठिनाई के प्राप्त करता है — तब वही उसका ‘चरण’ होता है।

और, जब, महानाम, आर्यश्रावक विविध प्रकार के पूर्वजन्म अनुस्मरण करता है — जैसे एक जन्म, दो जन्म, तीन जन्म… — तब वही उसकी ‘विद्या’ होती है।

और, जब, महानाम, आर्यश्रावक विशुद्ध हुए अलौकिक दिव्यचक्षु से अन्य सत्वों की मौत और पुनर्जन्म होते हुए देखता है… — तब वही उसकी ‘विद्या’ होती है।

और, जब, महानाम, आर्यश्रावक आस्रवों का क्षय कर अनास्रव हो, इसी जीवन में चेतोविमुक्ति और प्रज्ञाविमुक्ति प्राप्त कर, प्रत्यक्ष-ज्ञान का साक्षात्कार कर विहार करता है — तब वही उसकी ‘विद्या’ होती है।

इसे ही कहते हैं, महानाम, आर्यश्रावक ‘विद्या-संपन्न’ होता है, ‘चरण-संपन्न’ होता है, और ‘विद्याचरण-संपन्न’ होता है। और, महानाम, ब्रह्मा सनत्कुमार ने भी गाथा कही है:

“खत्तियो सेट्ठो जनेतस्मिं, ये गोत्तपटिसारिनो।
विज्जाचरणसम्पन्नो, सो सेट्ठो देवमानुसे।”

क्षत्रिय श्रेष्ठ होते जनता में,
गोत्र से जो चलते हो।
विद्या-आचरण में संपन्न,
देव-मानव में श्रेष्ठ हो।

इस तरह, महानाम, यह गाथा ब्रह्मा सनत्कुमार ने उचित ही गायी है, अनुचित नहीं; सही गायी है, गलत नहीं; सार्थक गायी है, निरर्थक नहीं। और, भगवान भी उससे सहमत हैं।” 1

तब भगवान ने उठकर आयुष्मान आनन्द से कहा, “साधु साधु, आनन्द! तुमने, आनन्द, कपिलवस्तु के शाक्यों को साधक की साधना बड़े अच्छे से बतायी।”

आयुष्मान आनन्द ने ऐसा कहा। शास्ता ने अपनी स्वीकृति दी। हर्षित होकर कपिलवस्तु के शाक्यों ने आयुष्मान आनन्द की बात का अभिनंदन किया।

सुत्र समाप्त।


  1. ब्रह्मा सनत्कुमार के इस गाथा का अच्छा संदर्भ दीघनिकाय ३ में मिलता है। ↩︎

Pali

२२. एवं मे सुतं – एकं समयं भगवा सक्केसु विहरति कपिलवत्थुस्मिं निग्रोधारामे. तेन खो पन समयेन कापिलवत्थवानं [कपिलवत्थुवासीनं (क.)] सक्यानं नवं सन्थागारं अचिरकारितं होति अनज्झावुट्ठं [अनज्झावुत्थं (सी. स्या. कं. पी.)] समणेन वा ब्राह्मणेन वा केनचि वा मनुस्सभूतेन. अथ खो कापिलवत्थवा सक्या येन भगवा तेनुपसङ्कमिंसु; उपसङ्कमित्वा भगवन्तं अभिवादेत्वा एकमन्तं निसीदिंसु. एकमन्तं निसिन्ना खो कापिलवत्थवा सक्या भगवन्तं एतदवोचुं – ‘‘इध, भन्ते, कापिलवत्थवानं सक्यानं नवं सन्थागारं अचिरकारितं [अचिरकारितं होति (स्या. कं. क.)] अनज्झावुट्ठं समणेन वा ब्राह्मणेन वा केनचि वा मनुस्सभूतेन. तं, भन्ते, भगवा पठमं परिभुञ्जतु. भगवता पठमं परिभुत्तं पच्छा कापिलवत्थवा सक्या परिभुञ्जिस्सन्ति. तदस्स कापिलवत्थवानं सक्यानं दीघरत्तं हिताय सुखाया’’ति . अधिवासेसि भगवा तुण्हीभावेन. अथ खो कापिलवत्थवा सक्या भगवतो अधिवासनं विदित्वा उट्ठायासना भगवन्तं अभिवादेत्वा पदक्खिणं कत्वा येन नवं सन्थागारं तेनुपसङ्कमिंसु; उपसङ्कमित्वा सब्बसन्थरिं सन्थागारं [सब्बसन्थरिं सन्थतं (क.)] सन्थरित्वा आसनानि पञ्ञपेत्वा उदकमणिकं उपट्ठपेत्वा तेलप्पदीपं आरोपेत्वा येन भगवा तेनुपसङ्कमिंसु; उपसङ्कमित्वा भगवन्तं अभिवादेत्वा एकमन्तं अट्ठंसु. एकमन्तं ठिता खो कापिलवत्थवा सक्या भगवन्तं एतदवोचुं – ‘‘सब्बसन्थरिं सन्थतं, भन्ते, सन्थागारं, आसनानि पञ्ञत्तानि, उदकमणिको उपट्ठापितो, तेलप्पदीपो आरोपितो. यस्सदानि, भन्ते , भगवा कालं मञ्ञती’’ति. अथ खो भगवा निवासेत्वा पत्तचीवरमादाय सद्धिं भिक्खुसङ्घेन येन सन्थागारं तेनुपसङ्कमि; उपसङ्कमित्वा पादे पक्खालेत्वा सन्थागारं पविसित्वा मज्झिमं थम्भं निस्साय पुरत्थाभिमुखो निसीदि. भिक्खुसङ्घोपि खो पादे पक्खालेत्वा सन्थागारं पविसित्वा पच्छिमं भित्तिं निस्साय पुरत्थाभिमुखो निसीदि, भगवन्तंयेव पुरक्खत्वा. कापिलवत्थवापि खो सक्या पादे पक्खालेत्वा सन्थागारं पविसित्वा पुरत्थिमं भित्तिं निस्साय पच्छिमाभिमुखा निसीदिंसु, भगवन्तंयेव पुरक्खत्वा. अथ खो भगवा कापिलवत्थवे सक्ये बहुदेव रत्तिं धम्मिया कथाय सन्दस्सेत्वा समादपेत्वा समुत्तेजेत्वा सम्पहंसेत्वा आयस्मन्तं आनन्दं आमन्तेसि – ‘‘पटिभातु तं, आनन्द, कापिलवत्थवानं सक्यानं सेखो पाटिपदो [पटिपदो (स्या. कं. क.)]. पिट्ठि मे आगिलायति; तमहं आयमिस्सामी’’ति. ‘‘एवं, भन्ते’’ति खो आयस्मा आनन्दो भगवतो पच्चस्सोसि. अथ खो भगवा चतुग्गुणं सङ्घाटिं पञ्ञापेत्वा दक्खिणेन पस्सेन सीहसेय्यं कप्पेसि, पादे पादं अच्चाधाय, सतो सम्पजानो, उट्ठानसञ्ञं मनसि करित्वा.

२३. अथ खो आयस्मा आनन्दो महानामं सक्कं आमन्तेसि – ‘‘इध , महानाम, अरियसावको सीलसम्पन्नो होति, इन्द्रियेसु गुत्तद्वारो होति, भोजने मत्तञ्ञू होति, जागरियं अनुयुत्तो होति, सत्तहि सद्धम्मेहि समन्नागतो होति, चतुन्नं झानानं आभिचेतसिकानं दिट्ठधम्मसुखविहारानं निकामलाभी होति अकिच्छलाभी अकसिरलाभी.

२४. ‘‘कथञ्च, महानाम , अरियसावको सीलसम्पन्नो होति? इध, महानाम, अरियसावको सीलवा होति, पातिमोक्खसंवरसंवुतो विहरति आचारगोचरसम्पन्नो अणुमत्तेसु वज्जेसु भयदस्सावी, समादाय सिक्खति सिक्खापदेसु. एवं खो, महानाम, अरियसावको सीलसम्पन्नो होति.

‘‘कथञ्च, महानाम, अरियसावको इन्द्रियेसु गुत्तद्वारो होति? इध, महानाम, अरियसावको चक्खुना रूपं दिस्वा न निमित्तग्गाही होति नानुब्यञ्जनग्गाही. यत्वाधिकरणमेनं चक्खुन्द्रियं असंवुतं विहरन्तं अभिज्झादोमनस्सा पापका अकुसला धम्मा अन्वास्सवेय्युं तस्स संवराय पटिपज्जति, रक्खति चक्खुन्द्रियं, चक्खुन्द्रिये संवरं आपज्जति. सोतेन सद्दं सुत्वा…पे… घानेन गन्धं घायित्वा…पे… जिव्हाय रसं सायित्वा…पे… कायेन फोट्ठब्बं फुसित्वा…पे… मनसा धम्मं विञ्ञाय न निमित्तग्गाही होति नानुब्यञ्जनग्गाही. यत्वाधिकरणमेनं मनिन्द्रियं असंवुतं विहरन्तं अभिज्झादोमनस्सा पापका अकुसला धम्मा अन्वास्सवेय्युं तस्स संवराय पटिपज्जति, रक्खति मनिन्द्रियं, मनिन्द्रिये संवरं आपज्जति . एवं खो, महानाम, अरियसावको इन्द्रियेसु गुत्तद्वारो होति.

‘‘कथञ्च, महानाम, अरियसावको भोजने मत्तञ्ञू होति? इध, महानाम, अरियसावको पटिसङ्खा योनिसो आहारं आहारेति – ‘नेव दवाय न मदाय न मण्डनाय न विभूसनाय; यावदेव इमस्स कायस्स ठितिया यापनाय विहिंसूपरतिया ब्रह्मचरियानुग्गहाय . इति पुराणञ्च वेदनं पटिहङ्खामि, नवञ्च वेदनं न उप्पादेस्सामि, यात्रा च मे भविस्सति अनवज्जता च फासुविहारो चा’ति. एवं खो, महानाम, अरियसावको भोजने मत्तञ्ञू होति.

‘‘कथञ्च, महानाम, अरियसावको जागरियं अनुयुत्तो होति? इध, महानाम, अरियसावको दिवसं चङ्कमेन निसज्जाय आवरणीयेहि धम्मेहि चित्तं परिसोधेति, रत्तिया पठमं यामं चङ्कमेन निसज्जाय आवरणीयेहि धम्मेहि चित्तं परिसोधेति, रत्तिया मज्झिमं यामं दक्खिणेन पस्सेन सीहसेय्यं कप्पेति, पादे पादं अच्चाधाय, सतो सम्पजानो, उट्ठानसञ्ञं मनसि करित्वा, रत्तिया पच्छिमं यामं पच्चुट्ठाय चङ्कमेन निसज्जाय आवरणीयेहि धम्मेहि चित्तं परिसोधेति. एवं खो, महानाम, अरियसावको जागरियं अनुयुत्तो होति.

२५. ‘‘कथञ्च, महानाम, अरियसावको सत्तहि सद्धम्मेहि समन्नागतो होति? इध, महानाम, अरियसावको सद्धो होति, सद्दहति तथागतस्स बोधिं – ‘इतिपि सो भगवा अरहं सम्मासम्बुद्धो विज्जाचरणसम्पन्नो सुगतो लोकविदू अनुत्तरो पुरिसदम्मसारथि सत्था देवमनुस्सानं बुद्धो भगवा’ति. हिरिमा होति, हिरीयति कायदुच्चरितेन वचीदुच्चरितेन मनोदुच्चरितेन, हिरीयति पापकानं अकुसलानं धम्मानं समापत्तिया. ओत्तप्पी होति, ओत्तप्पति कायदुच्चरितेन वचीदुच्चरितेन मनोदुच्चरितेन, ओत्तप्पति पापकानं अकुसलानं धम्मानं समापत्तिया. बहुस्सुतो होति सुतधरो सुतसन्निचयो. ये ते धम्मा आदिकल्याणा मज्झेकल्याणा परियोसानकल्याणा सात्था सब्यञ्जना केवलपरिपुण्णं परिसुद्धं ब्रह्मचरियं अभिवदन्ति तथारूपास्स धम्मा बहुस्सुता [बहू सुता (?)] होन्ति धाता [धता (सी. स्या. कं. पी.)] वचसा परिचिता मनसानुपेक्खिता दिट्ठिया सुप्पटिविद्धा. आरद्धवीरियो विहरति अकुसलानं धम्मानं पहानाय, कुसलानं धम्मानं उपसम्पदाय, थामवा दळ्हपरक्कमो अनिक्खित्तधुरो कुसलेसु धम्मेसु. सतिमा होति, परमेन सतिनेपक्केन समन्नागतो, चिरकतम्पि चिरभासितम्पि सरिता अनुस्सरिता. पञ्ञवा होति, उदयत्थगामिनिया पञ्ञाय समन्नागतो, अरियाय निब्बेधिकाय सम्मा दुक्खक्खयगामिनिया. एवं खो, महानाम, अरियसावको सत्तहि सद्धम्मेहि समन्नागतो होति.

२६. ‘‘कथञ्च , महानाम, अरियसावको चतुन्नं झानानं आभिचेतसिकानं दिट्ठधम्मसुखविहारानं निकामलाभी होति अकिच्छलाभी अकसिरलाभी? इध, महानाम, अरियसावको विविच्चेव कामेहि विविच्च अकुसलेहि धम्मेहि, सवितक्कं सविचारं विवेकजं पीतिसुखं पठमं झानं उपसम्पज्ज विहरति; वितक्कविचारानं वूपसमा अज्झत्तं सम्पसादनं…पे… दुतियं झानं उपसम्पज्ज विहरति; पीतिया च विरागा…पे… ततियं झानं उपसम्पज्ज विहरति; सुखस्स च पहाना दुक्खस्स च पहाना पुब्बेव सोमनस्सदोमनस्सानं अत्थङ्गमा…पे… चतुत्थं झानं उपसम्पज्ज विहरति. एवं खो, महानाम, अरियसावको चतुन्नं झानानं आभिचेतसिकानं दिट्ठधम्मसुखविहारानं निकामलाभी होति अकिच्छलाभी अकसिरलाभी.

२७. ‘‘यतो खो, महानाम, अरियसावको एवं सीलसम्पन्नो होति, एवं इन्द्रियेसु गुत्तद्वारो होति, एवं भोजने मत्तञ्ञू होति, एवं जागरियं अनुयुत्तो होति, एवं सत्तहि सद्धम्मेहि समन्नागतो होति, एवं चतुन्नं झानानं आभिचेतसिकानं दिट्ठधम्मसुखविहारानं निकामलाभी होति अकिच्छलाभी अकसिरलाभी, अयं वुच्चति, महानाम, अरियसावको सेखो पाटिपदो अपुच्चण्डताय समापन्नो, भब्बो अभिनिब्भिदाय, भब्बो सम्बोधाय, भब्बो अनुत्तरस्स योगक्खेमस्स अधिगमाय. सेय्यथापि, महानाम, कुक्कुटिया अण्डानि अट्ठ वा दस वा द्वादस वा तानास्सु कुक्कुटिया सम्मा अधिसयितानि सम्मा परिसेदितानि सम्मा परिभावितानि, किञ्चापि तस्सा कुक्कुटिया न एवं इच्छा उप्पज्जेय्य – ‘अहो वतिमे कुक्कुटपोतका पादनखसिखाय वा मुखतुण्डकेन वा अण्डकोसं पदालेत्वा सोत्थिना अभिनिब्भिज्जेय्यु’न्ति, अथ खो भब्बाव ते कुक्कुटपोतका पादनखसिखाय वा मुखतुण्डकेन वा अण्डकोसं पदालेत्वा सोत्थिना अभिनिब्भिज्जितुं. एवमेव खो, महानाम, यतो अरियसावको एवं सीलसम्पन्नो होति, एवं इन्द्रियेसु गुत्तद्वारो होति, एवं भोजने मत्तञ्ञू होति, एवं जागरियं अनुयुत्तो होति, एवं सत्तहि सद्धम्मेहि समन्नागतो होति, एवं चतुन्नं झानानं आभिचेतसिकानं दिट्ठधम्मसुखविहारानं निकामलाभी होति अकिच्छलाभी अकसिरलाभी, अयं वुच्चति, महानाम, अरियसावको सेखो पाटिपदो अपुच्चण्डताय समापन्नो , भब्बो अभिनिब्भिदाय, भब्बो सम्बोधाय, भब्बो अनुत्तरस्स योगक्खेमस्स अधिगमाय.

२८. ‘‘स खो सो, महानाम, अरियसावको इमंयेव अनुत्तरं उपेक्खासतिपारिसुद्धिं आगम्म अनेकविहितं पुब्बेनिवासं अनुस्सरति, सेय्यथिदं – एकम्पि जातिं द्वेपि जातियो…पे… इति साकारं सउद्देसं अनेकविहितं पुब्बेनिवासं अनुस्सरति, अयमस्स पठमाभिनिब्भिदा होति कुक्कुटच्छापकस्सेव अण्डकोसम्हा.

‘‘स खो सो, महानाम, अरियसावको इमंये अनुत्तरं उपेक्खासतिपारिसुद्धिं आगम्म दिब्बेन चक्खुना विसुद्धेन अतिक्कन्तमानुसकेन सत्ते पस्सति चवमाने उपपज्जमाने हीने पणीते सुवण्णे दुब्बण्णे सुगते दुग्गते…पे… यथाकम्मूपगे सत्ते पजानाति, अयमस्स दुतियाभिनिब्भिदा होति कुक्कुटच्छापकस्सेव अण्डकोसम्हा.

‘‘स खो सो, महानाम, अरियसावको इमंयेव अनुत्तरं उपेक्खासतिपारिसुद्धिं आगम्म आसवानं खया अनासवं चेतोविमुत्तिं पञ्ञाविमुत्तिं दिट्ठेव धम्मे सयं अभिञ्ञा सच्छिकत्वा उपसम्पज्ज विहरति, अयमस्स ततियाभिनिब्भिदा होति कुक्कुटच्छापकस्सेव अण्डकोसम्हा.

२९. ‘‘यम्पि [यम्पि खो (क.)], महानाम, अरियसावको सीलसम्पन्नो होति, इदम्पिस्स होति चरणस्मिं; यम्पि, महानाम, अरियसावको इन्द्रियेसु गुत्तद्वारो होति, इदम्पिस्स होति चरणस्मिं; यम्पि, महानाम, अरियसावको भोजने मत्तञ्ञू होति, इदम्पिस्स होति चरणस्मिं; यम्पि, महानाम, अरियसावको जागरियं अनुयुत्तो होति, इदम्पिस्स होति चरणस्मिं; यम्पि, महानाम, अरियसावको सत्तहि सद्धम्मेहि समन्नागतो होति, इदम्पिस्स होति चरणस्मिं; यम्पि, महानाम, अरियसावको चतुन्नं झानानं आभिचेतसिकानं दिट्ठधम्मसुखविहारानं निकामलाभी होति अकिच्छलाभी अकसिरलाभी, इदम्पिस्स होति चरणस्मिं.

‘‘यञ्च खो, महानाम, अरियसावको अनेकविहितं पुब्बेनिवासं अनुस्सरति, सेय्यथिदं – एकम्पि जातिं द्वेपि जातियो…पे… इति साकारं सउद्देसं अनेकविहितं पुब्बेनिवासं अनुस्सरति, इदम्पिस्स होति विज्जाय; यम्पि, महानाम, अरियसावको दिब्बेन चक्खुना विसुद्धेन अतिक्कन्तमानुसकेन सत्ते पस्सति चवमाने उपपज्जमाने हीने पणीते सुवण्णे दुब्बण्णे सुगते दुग्गते…पे… यथाकम्मूपगे सत्ते पजानाति, इदम्पिस्स होति विज्जाय. यम्पि, महानाम, अरियसावको आसवानं खया अनासवं चेतोविमुत्तिं पञ्ञाविमुत्तिं दिट्ठेव धम्मे सयं अभिञ्ञा सच्छिकत्वा उपसम्पज्ज विहरति, इदम्पिस्स होति विज्जाय.

‘‘अयं वुच्चति, महानाम, अरियसावको विज्जासम्पन्नो इतिपि चरणसम्पन्नो इतिपि विज्जाचरणसम्पन्नो इतिपि.

३०. ‘‘ब्रह्मुनापेसा, महानाम, सनङ्कुमारेन गाथा भासिता –

‘खत्तियो सेट्ठो जनेतस्मिं, ये गोत्तपटिसारिनो;

विज्जाचरणसम्पन्नो, सो सेट्ठो देवमानुसे’ति.

‘‘सा खो पनेसा, महानाम, ब्रह्मुना सनङ्कुमारेन गाथा सुगीता नो दुग्गीता, सुभासिता नो दुब्भासिता, अत्थसंहिता नो अनत्थसंहिता, अनुमता भगवता’’ति.

अथ खो भगवा उट्ठहित्वा आयस्मन्तं आनन्दं आमन्तेसि – ‘‘साधु साधु, आनन्द, साधु खो त्वं, आनन्द, कापिलवत्थवानं सक्यानं सेखं पाटिपदं अभासी’’ति.

इदमवोचायस्मा आनन्दो. समनुञ्ञो सत्था अहोसि. अत्तमना कापिलवत्थवा सक्या आयस्मतो आनन्दस्स भासितं अभिनन्दुन्ति.

सेखसुत्तं निट्ठितं ततियं.