ऐसा मैंने सुना — एक समय भगवान अङ्गुत्तराप में ‘आपण’ नामक अङ्गुत्तराप नगर में विहार कर रहे थे। 1 तब सुबह होने पर भगवान ने चीवर ओढ़, पात्र लेकर, भिक्षाटन के लिए आपण में प्रवेश किया। वे आपण में भिक्षाटन कर, भोजन करने के पश्चात, दिन बिताने के लिए किसी उपवन में गए। उस उपवन में गहरे जाकर, किसी वृक्ष के तले दिन में ध्यान-विहार करने के लिए बैठ गए।
तब पोतलिय गृहस्थ भीतरी और बाहरी बेहतरीन वस्त्रों को पहन कर, छाता तान कर, चप्पल चटका कर चहलकदमी करते हुए, घूमते और टहलते हुए, उस उपवन में गया। उपवन में गहरे जाकर, वह भगवान के पास गया। जाकर उसने भगवान से हालचाल पूछा। मैत्रीपूर्ण वार्तालाप कर वह एक ओर खड़ा हुआ। एक ओर खड़े हुए पोतलिय गृहस्थ को भगवान ने कहा, “यहाँ बैठने का स्थान है, गृहस्थ। यदि बैठना चाहो तो बैठो।”
जब ऐसा कहा गया, तब पोतलिय गृहस्थ को लगा, “श्रमण गौतम मुझे ‘गृहस्थ’ कहकर पुकारता है।” क्रोधित होकर, नाराज होकर, वह मौन रहा।
तब दूसरी बार भगवान ने कहा, “यहाँ बैठने का स्थान है, गृहस्थ। यदि बैठना चाहो तो बैठो।”
दुबारा जब ऐसा कहा गया, तब पोतलिय गृहस्थ को लगा, “यह श्रमण गौतम मुझे दुबारा ‘गृहस्थ’ कहकर पुकारता है।” क्रोधित होकर, नाराज होकर, वह मौन ही रहा।
तब तीसरी बार भगवान ने कहा, “यहाँ बैठने का स्थान है, गृहस्थ। यदि बैठना चाहो तो बैठो।”
तीसरी बार जब ऐसा कहा गया, तब पोतलिय गृहस्थ को लगा, “यह श्रमण गौतम मुझे पुनः ‘गृहस्थ’ कहकर पुकारता है।” क्रोधित होकर, नाराज होकर, उसने भगवान से कहा, “यह ठीक नहीं, श्रीमान गौतम, उचित नहीं कि आप मुझे ‘गृहस्थ’ कहकर पुकारे।”
“तुम्हारा दिखावा, बनावट और लक्षण गृहस्थों जैसा ही है, गृहस्थ।”
“किन्तु मैंने सारे (गृहस्थी) कार्य नकार दिए है, श्रीमान गौतम, सारा लेनदेन काट दिया है।”
“गृहस्थ, तुमने किस तरह सारे कार्य नकार दिए, सारा लेनदेन काट दिया?”
“श्रीमान गौतम, मैंने अपना धन-धान्य, रुपया-सोना सब अपने उत्तराधिकारी पुत्रों को सौंप दिया है। उसके लिए मैं उन्हें न सुझाता हूँ, न कोसता हूँ। बस अधिक-से-अधिक अपने निवाले और वस्त्र पर (ध्यान देकर) विहार करता हूँ। इस तरह, श्रीमान गौतम, मैंने सारे (गृहस्थी) कार्य नकार दिए है, सारा लेनदेन काट दिया है।”
“तुम जिस तरह ‘लेनदेन काटना’ बताते हो, गृहस्थ, वह अलग है। और आर्य विनय में लेनदेन काटना अलग है।”
“आर्य विनय में, भंते, लेनदेन काटना किस तरह अलग है? अच्छा होगा, भंते, जो भगवान आर्य विनय में लेनदेन काटने का धर्म बताएं।”
“ठीक है, गृहस्थ, तब ध्यान देकर गौर से सुनो, मैं बताता हूँ।”
“ठीक है, भंते।” पोतलिय गृहस्थ ने भगवान को उत्तर दिया।
भगवान ने कहा —
“आर्य विनय में ये आठ धर्म हैं, गृहस्थ, जो लेनदेन काटती हैं। कौन से आठ?
ये आठ धर्म संक्षिप्त में बताएं गए हैं, गृहस्थ, बिना विस्तार से विश्लेषण किए, जो आर्य विनय में लेनदेन काटने की ओर ले जाती हैं।”
“भंते, भगवान ने बिना विस्तार से विश्लेषण किए आठ धर्म संक्षिप्त में बताएं। अच्छा होगा, भंते, जो भगवान कृपा कर इन आठ धर्मों को विस्तार से विश्लेषण करें।”
“ठीक है, गृहस्थ, तब ध्यान देकर गौर से सुनो, मैं बताता हूँ।”
“ठीक है, भंते।” पोतलिय गृहस्थ ने भगवान को उत्तर दिया।
भगवान ने कहा —
“मैंने कहा, ‘जीवहत्या त्याग कर बिना जीवहत्या का निश्रय लेना!’ ऐसा मैंने किस आधार पर कहा?
गृहस्थ, कोई आर्यश्रावक चिंतन करता है — ‘जिस बंधन के कारण मैं जीवहत्या कर सकता हूँ, मैं उस बंधन को त्याग देने और काट देने का अभ्यास करता हूँ। किन्तु यदि मैं जीवहत्या करूँ, तो उस जीवहत्या के कारण मैं स्वयं को कोसूँगा। उस जीवहत्या के कारण समझदार लोग सोच-विचार कर मेरी आलोचना करेंगे। और उस जीवहत्या के कारण मरणोपरांत काया छूटने पर मेरी दुर्गति होने की आशंका होगी।
और जो यह जीवहत्या है, वह एक बंधन (“संयोजन”) है, अवरोध (“नीवरण”) ही है। जीवहत्या के कारण जो कष्ट देने वाले, परेशान करने वाले आस्रव उपजते हैं, वे जीवहत्या से विरत रहने से नहीं उपजते हैं।’ मैंने जो कहा, ‘जीवहत्या त्याग कर बिना जीवहत्या का निश्रय लेना!’ ऐसा मैंने इसी आधार पर कहा है।’
आगे मैंने कहा, ‘चोरी… झूठ बोलना… फूट डालने वाली बात… लालच और लोभ… निंदा और अपमान… क्रोध और नाराजी… अहंकार त्याग कर बिना अहंकार का निश्रय लेना!’ ऐसा मैंने किस आधार पर कहा?
गृहस्थ, कोई आर्यश्रावक चिंतन करता है — ‘जिस बंधन के कारण मैं अहंकार कर सकता हूँ, मैं उस बंधन को त्याग देने और काट देने का अभ्यास करता हूँ। किन्तु यदि मैं अहंकार करूँ, तो उस अहंकार के कारण मैं स्वयं को कोसूँगा। उस अहंकार के कारण समझदार लोग सोच-विचार कर मेरी आलोचना करेंगे। और उस अहंकार के कारण मरणोपरांत काया छूटने पर मेरी दुर्गति होने की आशंका होगी।
और जो यह अहंकार है, वह एक बंधन है, अवरोध ही है। अहंकार के कारण जो कष्ट देने वाले, परेशान करने वाले आस्रव उपजते हैं, वे अहंकार से विरत रहने से नहीं उपजते हैं।’ मैंने जो कहा, ‘अहंकार त्याग कर बिना अहंकार का निश्रय लेना!’ ऐसा मैंने इसी आधार पर कहा है।’
ये आठ धर्म संक्षिप्त में बताएं गए हैं, गृहस्थ, और अब विस्तार से विश्लेषण किए गए, जो आर्य विनय में लेनदेन काटने की ओर ले जाते हैं। किन्तु ये ही सब आर्य विनय में सब के सब पूरी तरह से लेनदेन काटने वाले नहीं हैं।”
“तब, भंते, आर्य विनय में सब के सब पूरी तरह से लेनदेन काटने वाले क्या होते हैं? अच्छा होगा, भंते, जो भगवान कृपा कर इन सब के सब पूरी तरह से लेनदेन काटने वाले धर्म का उपदेश करें।”
“ठीक है, गृहस्थ, तब ध्यान देकर गौर से सुनो, मैं बताता हूँ।”
“ठीक है, भंते।” पोतलिय गृहस्थ ने भगवान को उत्तर दिया।
भगवान ने कहा —
“जैसे, गृहस्थ, कोई भूख से दुर्बल हो चुका कुत्ता कसाईखाने के आसपास हो। उसके आगे कोई दक्ष कसाई या कसाई का सहायक हड्डियों की माँस-विहीन लड़ी फेंकता है, जिसका माँस निकाला गया हो, अच्छे से कुरेदा गया हो, किन्तु जो रक्त से सना हो।
तुम्हें क्या लगता है, गृहस्थ? क्या वह कुत्ता उस हड्डियों की माँस-विहीन लड़ी — जिसका माँस निकाला गया हो, अच्छे से कुरेदा गया हो, किन्तु जो रक्त से सना हो — को चबाते हुए अपनी भूख और दुर्बलता मिटा सकता है?”
“नहीं, भन्ते।"
“क्यों नहीं?”
“क्योंकि, भंते, हड्डियों की लड़ी माँस-विहीन है, जिसका माँस निकाला गया है, अच्छे से कुरेदा गया है, किन्तु वह केवल रक्त से सना है। अंततः वह कुत्ता थकान और परेशानी का भागी होगा।”
“उसी तरह, गृहस्थ, आर्यश्रावक चिंतन-मनन करता है — ‘भगवान ने हड्डियों की लड़ी की उपमा देकर कामुकता बतायी है, जो बहुत दुःखदायी और बहुत निराशाजनक है, जिसके दुष्परिणाम भरपूर हैं।’
इस तरह, वह सम्यक प्रज्ञा से यथास्वरूप देखते हुए, ‘विविध आधारों पर स्थित विविध प्रकार की तटस्थताओं’ को नकारता है, और ‘एक आधार पर स्थित एक प्रकार की तटस्थता’ 2 को विकसित करता है, जहाँ दुनिया के सभी आकर्षण और आसक्तियाँ बिना शेष बचे निरुद्ध होते हैं।
जैसे, गृहस्थ, कोई गिद्ध हो, बाज हो, या चील हो, जो माँस के लोथड़े को दबोच कर उड़ान भरती है। तब दूसरे गिद्ध, बाज, या चील उसके पीछे पड़ जाते हैं, चोंच से नोच-खसोट करते हैं, पंजों से छीना-झपटी करते हैं।
तुम्हें क्या लगता है, गृहस्थ? यदि उस गिद्ध, बाज, या चील ने उस माँस के लोथड़े को नहीं छोड़ा, तो क्या उस कारणवश उसकी मौत या मौत जैसी पीड़ा हो सकती है?”
“हाँ, भंते।”
“उसी तरह, गृहस्थ, आर्यश्रावक चिंतन-मनन करता है — ‘भगवान ने माँस के लोथड़े की उपमा देकर कामुकता बतायी है, जो बहुत दुःखदायी और बहुत निराशाजनक है, जिसके दुष्परिणाम भरपूर हैं।’
इस तरह, वह सम्यक प्रज्ञा से यथास्वरूप देखते हुए, ‘विविध आधारों पर स्थित विविध प्रकार की तटस्थताओं’ को नकारता है, और ‘एक आधार पर स्थित एक प्रकार की तटस्थता’ को विकसित करता है, जहाँ दुनिया के सभी आकर्षण और आसक्तियाँ बिना शेष बचे निरुद्ध होते हैं।
जैसे, गृहस्थ, कोई पुरुष घास की जलती हुई मशाल लेकर तेज पवन के विपरीत चलने लगे। तुम्हें क्या लगता है, गृहस्थ? यदि उस पुरुष ने घास की जलती हुई मशाल को नहीं छोड़ा, तो क्या उस जलती हुई घास से उसका हाथ जल जाएगा, या उसकी बाह जल जाएगी, या उसका कोई न कोई अंग-प्रत्यंग जल जाएगा, और क्या उस कारणवश उसकी मौत या मौत जैसी पीड़ा हो सकती है?"
“हाँ, भंते।”
“उसी तरह, गृहस्थ, आर्यश्रावक चिंतन-मनन करता है — ‘भगवान ने घास की मशाल की उपमा देकर कामुकता बतायी है, जो बहुत दुःखदायी और बहुत निराशाजनक है, जिसके दुष्परिणाम भरपूर हैं।’
इस तरह, वह सम्यक प्रज्ञा से यथास्वरूप देखते हुए, ‘विविध आधारों पर स्थित विविध प्रकार की तटस्थताओं’ को नकारता है, और ‘एक आधार पर स्थित एक प्रकार की तटस्थता’ को विकसित करता है, जहाँ दुनिया के सभी आकर्षण और आसक्तियाँ बिना शेष बचे निरुद्ध होते हैं।
जैसे, गृहस्थ, कोई अंगारों से भरा गड्ढा हो — पुरुष-लंबाई से गहरा, जिसमें अंगारे न लौ फेंकते, न धुंवा देते धधक रहे हो। और कोई पुरुष आता है, जो जीवित रहना चाहता है, मरना नहीं चाहता, सुख चाहता है, दुःख से दूर भागता है। तब दो बलवान पुरुष उसे बाहों से पकड़ कर घसीटते हुए उस अंगारों से भरे गड्ढे की ओर ले जाते हैं।
तुम्हें क्या लगता है, गृहस्थ? क्या वह पुरुष काया को जैसे-तैसे नहीं छटपटाएगा?"
“हाँ, भंते।”
“ऐसा क्यों?”
“क्योंकि, भंते, वह पुरुष जानता है, ‘यदि मैं इस अंगारों से भरे गड्ढे में गिरूँगा, तो उस कारणवश मुझे मौत या मौत जैसी पीड़ा होगी।’”
“उसी तरह, गृहस्थ, आर्यश्रावक चिंतन-मनन करता है — ‘भगवान ने अंगारों से भरे गड्ढे की उपमा देकर कामुकता बतायी है, जो बहुत दुःखदायी और बहुत निराशाजनक है, जिसके दुष्परिणाम भरपूर हैं।’
इस तरह, वह सम्यक प्रज्ञा से यथास्वरूप देखते हुए, ‘विविध आधारों पर स्थित विविध प्रकार की तटस्थताओं’ को नकारता है, और ‘एक आधार पर स्थित एक प्रकार की तटस्थता’ को विकसित करता है, जहाँ दुनिया के सभी आकर्षण और आसक्तियाँ बिना शेष बचे निरुद्ध होते हैं।
जैसे, गृहस्थ, कोई पुरुष स्वप्न में रमणीय उद्यान, रमणीय उपवन, रमणीय मैदान, या रमणीय पुष्करणी देखता है। और जब जागता है, तो कुछ नहीं दिखता।
उसी तरह, गृहस्थ, आर्यश्रावक चिंतन-मनन करता है — ‘भगवान ने स्वप्न की उपमा देकर कामुकता बतायी है, जो बहुत दुःखदायी और बहुत निराशाजनक है, जिसके दुष्परिणाम भरपूर हैं।’
इस तरह, वह सम्यक प्रज्ञा से यथास्वरूप देखते हुए, ‘विविध आधारों पर स्थित विविध प्रकार की तटस्थताओं’ को नकारता है, और ‘एक आधार पर स्थित एक प्रकार की तटस्थता’ को विकसित करता है, जहाँ दुनिया के सभी आकर्षण और आसक्तियाँ बिना शेष बचे निरुद्ध होते हैं।
जैसे, गृहस्थ, कोई पुरुष भोगवस्तुओं को उधार लेता है — एक मर्दाना रथ और रत्न-जड़ा कर्ण आभूषण। उन भोगवस्तुओं को ओढ़ कर, सुसज्ज होकर, वह आपण (नगर) के बीच से गुजरता है। जनता उसे देखकर कहती है, ‘ओह श्रीमान! कितना भोगी (=धनी) पुरुष है! इसी तरह भोगी पुरुष भोगविलास करते है!’
किंतु, उसे (असली) मालिक जहाँ-जहाँ देखते हैं, वहाँ-वहाँ अपनी वस्तुएँ छीनते हैं। तुम्हें क्या लगता है, गृहस्थ? क्या वह पुरुष तिलमिलाएगा?"
“हाँ, भन्ते।"
“ऐसा क्यों?”
“क्योंकि, भंते, मालिकों ने अपनी वस्तुएँ छीन ली।”
उसी तरह, गृहस्थ, आर्यश्रावक चिंतन-मनन करता है — ‘भगवान ने उधार की उपमा देकर कामुकता बतायी है, जो बहुत दुःखदायी और बहुत निराशाजनक है, जिसके दुष्परिणाम भरपूर हैं।’
इस तरह, वह सम्यक प्रज्ञा से यथास्वरूप देखते हुए, ‘विविध आधारों पर स्थित विविध प्रकार की तटस्थताओं’ को नकारता है, और ‘एक आधार पर स्थित एक प्रकार की तटस्थता’ को विकसित करता है, जहाँ दुनिया के सभी आकर्षण और आसक्तियाँ बिना शेष बचे निरुद्ध होते हैं।
कल्पना करो, गृहस्थ, किसी गाँव या नगर के समीप एक घना जंगल हो। वहाँ फल से लदा एक वृक्ष हो, जिसे बहुत फल उत्पन्न हुए हो, किन्तु कोई फल भूमि पर न गिरा हो।
तब एक पुरुष आता है, फल चाहते हुए, फल खोजते हुए, फल को ढूँढते हुए घूम रहा हो। वह उस घने जंगल में गहराई में प्रवेश कर उस फल से लदे वृक्ष को देखता है, जिसे बहुत फल उत्पन्न हुए हैं। तब उसे लगता है, ‘यह फल से लदा वृक्ष है, जिसे बहुत फल उत्पन्न हुए हैं, किन्तु कोई फल भूमि पर नहीं गिरा है। किन्तु मुझे वृक्ष पर चढ़ना आता है। क्यों न मैं इस वृक्ष पर चढ़ कर, चाहे जितने फल खाऊँ, और फिर थैला भरूँ?’ तब वह उस वृक्ष पर चढ़कर चाहे जितने फल खाता है, और फिर थैला भरने लगता है।
तब दूसरा पुरुष आता है, फल चाहते हुए, फल खोजते हुए, फल को ढूँढते हुए घूम रहा हो। वह उस घने जंगल में गहराई में प्रवेश कर उस फल से लदे वृक्ष को देखता है, जिसे बहुत फल उत्पन्न हुए हैं। तब उसे लगता है, ‘यह फल से लदा वृक्ष है, जिसे बहुत फल उत्पन्न हुए हैं, किन्तु कोई फल भूमि पर नहीं गिरा है। किन्तु मुझे वृक्ष पर चढ़ना नहीं आता। क्यों न मैं इस वृक्ष का मूल काट कर चाहे जितने फल खाऊँ, और फिर थैला भरूँ?’ तब वह उस वृक्ष का मूल काटने लगता है।
तुम्हें क्या लगता है, गृहस्थ? क्या वह पुरुष, जो वृक्ष पर चढ़ा हुआ है, तुरंत नीचे न उतरे, तो वृक्ष के गिरने पर उसका हाथ नहीं टूटेगा, या पैर नहीं टूटेगा, या कोई अंग-प्रत्यंग नहीं टूटेगा, और क्या उस कारणवश उसकी मौत या मौत जैसी पीड़ा हो सकती है?"
“हाँ, भंते।”
“उसी तरह, गृहस्थ, आर्यश्रावक चिंतन-मनन करता है — ‘भगवान ने फल से लदे वृक्ष की उपमा देकर कामुकता बतायी है, जो बहुत दुःखदायी और बहुत निराशाजनक है, जिसके दुष्परिणाम भरपूर हैं।’
इस तरह, वह सम्यक प्रज्ञा से यथास्वरूप देखते हुए, ‘विविध आधारों पर स्थित विविध प्रकार की तटस्थताओं’ को नकारता है, और ‘एक आधार पर स्थित एक प्रकार की तटस्थता’ को विकसित करता है, जहाँ दुनिया के सभी आकर्षण और आसक्तियाँ बिना शेष बचे निरुद्ध होते हैं।
(१) और तब, गृहस्थ, वह आर्यश्रावक उस अनुत्तर तटस्थता और स्मरणशीलता की परिशुद्धता के आधार पर विविध प्रकार के पूर्वजन्म अनुस्मरण करता है — जैसे एक जन्म, दो जन्म, तीन जन्म, चार, पाँच, दस जन्म, बीस, तीस, चालीस, पचास जन्म, सौ जन्म, हज़ार जन्म, लाख जन्म, कई कल्पों का लोक-संवर्त [=ब्रह्मांडिय सिकुड़न], कई कल्पों का लोक-विवर्त [=ब्रह्मांडिय विस्तार], कई कल्पों का संवर्त-विवर्त — ‘वहाँ मेरा ऐसा नाम था, ऐसा गोत्र था, ऐसा दिखता था। ऐसा भोज था, ऐसा सुख-दुःख महसूस हुआ, ऐसा जीवन अंत हुआ। उस लोक से च्युत होकर मैं वहाँ उत्पन्न हुआ। वहाँ मेरा वैसा नाम था, वैसा गोत्र था, वैसा दिखता था। वैसा भोज था, वैसा सुख-दुःख महसूस हुआ, वैसे जीवन अंत हुआ। उस लोक से च्युत होकर मैं यहाँ उत्पन्न हुआ।’ इस तरह वह अपने विविध प्रकार के पूर्वजन्म शैली एवं विवरण के साथ स्मरण करता है।
(२) आगे, गृहस्थ, वह आर्यश्रावक उस अनुत्तर तटस्थता और स्मरणशीलता की परिशुद्धता के आधार पर विशुद्ध हुए अलौकिक दिव्यचक्षु से अन्य सत्वों की मौत और पुनर्जन्म होते हुए देखता है। और उसे पता चलता है कि कर्मानुसार ही वे कैसे हीन अथवा उच्च हैं, सुंदर अथवा कुरूप हैं, सद्गति होते अथवा दुर्गति होते हैं। कैसे ये सत्व — काया दुराचार में संपन्न, वाणी दुराचार में संपन्न, एवं मन दुराचार में संपन्न, जिन्होंने आर्यजनों का अनादर किया, मिथ्यादृष्टि धारण की, और मिथ्यादृष्टि के प्रभाव में दुष्कृत्य किए — वे मरणोपरांत काया छूटने पर दुर्गति होकर यातनालोक नर्क में उपजे।’ किन्तु कैसे ये सत्व — काया सदाचार में संपन्न, वाणी सदाचार में संपन्न, एवं मन सदाचार में संपन्न, जिन्होंने आर्यजनों का अनादर नहीं किया, सम्यकदृष्टि धारण की, और सम्यकदृष्टि के प्रभाव में सुकृत्य किए — वे मरणोपरांत सद्गति होकर स्वर्ग में उपजे। इस तरह विशुद्ध हुए अलौकिक दिव्यचक्षु से उसे अन्य सत्वों की मौत और पुनर्जन्म होते हुए दिखता है। और उसे पता चलता है कि कर्मानुसार ही वे कैसे हीन अथवा उच्च हैं, सुंदर अथवा कुरूप हैं, सद्गति होते अथवा दुर्गति होते हैं।
(३) आगे, गृहस्थ, वह आर्यश्रावक उस अनुत्तर तटस्थता और स्मरणशीलता की परिशुद्धता के आधार पर आस्रवों का क्षय कर अनास्रव हो, इसी जीवन में चेतोविमुक्ति और प्रज्ञाविमुक्ति प्राप्त कर, [अर्हत्व] प्रत्यक्ष-ज्ञान का साक्षात्कार कर विहार करता है।
— इस तरह, गृहस्थ, आर्य विनय में सब के सब पूरी तरह से लेनदेन काटे जाते हैं।
तुम्हें क्या लगता है, गृहस्थ? जब इस तरह आर्य विनय में सब के सब पूरी तरह से लेनदेन काटे जाते हैं, तो क्या तुम स्वयं को इस तरह लेनदेन काटा हुआ देखते हो?”
“मैं कौन होता हूँ, भंते, आर्य विनय में सब के सब पूरी तरह से लेनदेन काटने वाला? भंते, मैं आर्य विनय में सब के सब पूरी तरह से लेनदेन काटने के बहुत दूर हूँ।
भंते, मैं पहले दूसरे संप्रदायों के संन्यासियों को अच्छी नस्ल के न होने पर भी अच्छी नस्ल का मानता था। और उन्हें अच्छी नस्ल का मानकर भोजन देता था, उन्हें रुकाता था। जबकि, भंते, मैं भिक्षुओं को अच्छी नस्ल के होने पर भी अच्छी नस्ल का नहीं मानता था। और उन्हें अच्छी नस्ल का न मानकर न भोजन देता था, न ही उन्हें रुकाता था।
किन्तु अब, भंते, मैं जान गया हूँ कि दूसरे संप्रदायों के संन्यासि अच्छी नस्ल के नहीं हैं। अब मैं उन्हें अच्छी नस्ल का न मानकर उस तरह भोजन दूँगा, उस तरह उन्हें रुकाऊंगा। और, भंते, मैं जान गया हूँ कि भिक्षु अच्छी नस्ल के हैं। अब मैं उन्हें अच्छी नस्ल का मानकर उस तरह भोजन दूँगा, उस तरह उन्हें रुकाऊंगा। भंते, भगवान ने मुझे श्रमणों के प्रति श्रमण प्रेम, श्रमणों के प्रति आस्था, और श्रमणों के प्रति श्रमण सम्मान समझा दिया है।
अतिउत्तम, भंते! अतिउत्तम, भंते! जैसे कोई पलटे को सीधा करे, छिपे को खोल दे, भटके को मार्ग दिखाए, या अँधेरे में दीप जलाकर दिखाए, ताकि तेज आँखों वाला स्पष्ट देख पाए — उसी तरह, भंते, भगवान ने धर्म को अनेक तरह से स्पष्ट कर दिया। भंते, मैं बुद्ध की शरण जाता हूँ! धर्म की और भिक्षुसंघ की भी! भगवान मुझे आज से लेकर प्राण रहने तक शरणागत उपासक धारण करें!”
अङ्ग वह क्षेत्र था जो गंगा नदी को मगध और वैशाली के पूर्व में नियंत्रित करता था। गंगा और मही नदी के उत्तर में जो अंग का क्षेत्र था, उसे “अंगुत्तराप” कहा जाता था, जिसका मतलब है “पानी के उत्तर का अंग”। इस क्षेत्र का प्रमुख व्यापारिक शहर ‘आपण’ था, जो इस इलाके का मुख्य बसेरा था। ↩︎
“उपेक्खा नानत्ता नानत्तसिता” का अर्थ है — “विविध आधारों पर स्थित विभिन्न प्रकार की तटस्थताएं”। मज्झिमनिकाय १३७ के अनुसार, यह उस तटस्थता को दर्शाता है जो हमारी छह इंद्रियों से टकराने वाले छह प्रकार के विषयों — रूप, ध्वनि, गंध, स्वाद, स्पर्श और मानसिक धारणाओं — के प्रति उत्पन्न होती है। यह तटस्थता बहुविध है क्योंकि प्रत्येक इंद्रिय के प्रति अलग-अलग प्रतिक्रिया होती है, और हर विषय के प्रति एक अलग किस्म की उपेक्षा का भाव प्रकट होता है।
इसके विपरीत, “उपेक्खा एकत्ता एकत्तसिता” उस “‘एक आधार पर स्थित एक प्रकार की तटस्थता” को दर्शाती है जो चार अरूप अवस्थाओं — अनन्त आकाश-आयाम, अनन्त चैतन्य-आयाम, सूना-आयाम, न-संज्ञा-न-असंज्ञा-आयाम — में अनुभूत होती है। यहाँ उपेक्षा-भाव बहुलता से मुक्त होकर एकरस और अखंड हो जाता है, जो ध्यान की उच्चतम अवस्थाओं में अनुभव किया जाता है।
इस प्रकार, इंद्रियों से उत्पन्न कामनाओं और विषय-आकर्षणों से मुक्त होने के लिए, साधक को चाहिए कि वह “बहुविध उपेक्खा” को पार करके “एकत्व उपेक्खा” की ओर बढ़े। यह प्रगति अरूप अवस्थाओं की साधना द्वारा संभव है, जहाँ न तो कोई इंद्रिय विषय होते हैं और न ही उनका कोई आमिष या प्रलोभन। वही क्षेत्र है जहाँ सच्चा निष्काम और आंतरिक प्रशांति संभव है। ↩︎
३१. एवं मे सुतं – एकं समयं भगवा अङ्गुत्तरापेसु विहरति आपणं नाम अङ्गुत्तरापानं निगमो. अथ खो भगवा पुब्बण्हसमयं निवासेत्वा पत्तचीवरमादाय आपणं पिण्डाय पाविसि. आपणे पिण्डाय चरित्वा पच्छाभत्तं पिण्डपातपटिक्कन्तो येनञ्ञतरो वनसण्डो तेनुपसङ्कमि दिवाविहाराय. तं वनसण्डं अज्झोगाहेत्वा [अज्झोगहेत्वा (सी. स्या. कं.), अज्झोगाहित्वा (पी. क.)] अञ्ञतरस्मिं रुक्खमूले दिवाविहारं निसीदि. पोतलियोपि खो गहपति सम्पन्ननिवासनपावुरणो [पापुरणो (सी. स्या. कं.)] छत्तुपाहनाहि [छत्तुपाहनो (क.)] जङ्घाविहारं अनुचङ्कममानो अनुविचरमानो येन सो वनसण्डो तेनुपसङ्कमि; उपसङ्कमित्वा तं वनसण्डं अज्झोगाहेत्वा येन भगवा तेनुपसङ्कमि; उपसङ्कमित्वा भगवता सद्धिं सम्मोदि. सम्मोदनीयं कथं सारणीयं वीतिसारेत्वा एकमन्तं अट्ठासि. एकमन्तं ठितं खो पोतलियं गहपतिं भगवा एतदवोच – ‘‘संविज्जन्ति खो, गहपति, आसनानि; सचे आकङ्खसि निसीदा’’ति. एवं वुत्ते, पोतलियो गहपति ‘‘गहपतिवादेन मं समणो गोतमो समुदाचरती’’ति कुपितो अनत्तमनो तुण्ही अहोसि. दुतियम्पि खो भगवा…पे… ततियम्पि खो भगवा पोतलियं गहपतिं एतदवोच – ‘‘संविज्जन्ति खो, गहपति, आसनानि; सचे आकङ्खसि निसीदा’’ति. ‘‘एवं वुत्ते, पोतलियो गहपति गहपतिवादेन मं समणो गोतमो समुदाचरती’’ति कुपितो अनत्तमनो भगवन्तं एतदवोच – ‘‘तयिदं, भो गोतम, नच्छन्नं, तयिदं नप्पतिरूपं, यं मं त्वं गहपतिवादेन समुदाचरसी’’ति. ‘‘ते हि ते, गहपति, आकारा, ते लिङ्गा , ते निमित्ता यथा तं गहपतिस्सा’’ति. ‘‘तथा हि पन मे, भो गोतम, सब्बे कम्मन्ता पटिक्खित्ता, सब्बे वोहारा समुच्छिन्ना’’ति. ‘‘यथा कथं पन ते, गहपति, सब्बे कम्मन्ता पटिक्खित्ता, सब्बे वोहारा समुच्छिन्ना’’ति? ‘‘इध मे, भो गोतम, यं अहोसि धनं वा धञ्ञं वा रजतं वा जातरूपं वा सब्बं तं पुत्तानं दायज्जं निय्यातं, तत्थाहं अनोवादी अनुपवादी घासच्छादनपरमो विहरामि. एवं खो मे [एवञ्च मे (स्या.), एवं मे (क.)], भो गोतम, सब्बे कम्मन्ता पटिक्खित्ता, सब्बे वोहारा समुच्छिन्ना’’ति. ‘‘अञ्ञथा खो त्वं, गहपति, वोहारसमुच्छेदं वदसि, अञ्ञथा च पन अरियस्स विनये वोहारसमुच्छेदो होती’’ति. ‘‘यथा कथं पन, भन्ते, अरियस्स विनये वोहारसमुच्छेदो होति? साधु मे, भन्ते , भगवा तथा धम्मं देसेतु यथा अरियस्स विनये वोहारसमुच्छेदो होती’’ति. ‘‘तेन हि, गहपति, सुणाहि, साधुकं मनसि करोहि, भासिस्सामी’’ति. ‘‘एवं, भन्ते’’ति खो पोतलियो गहपति भगवतो पच्चस्सोसि.
३२. भगवा एतदवोच – ‘‘अट्ठ खो इमे, गहपति, धम्मा अरियस्स विनये वोहारसमुच्छेदाय संवत्तन्ति. कतमे अट्ठ? अपाणातिपातं निस्साय पाणातिपातो पहातब्बो; दिन्नादानं निस्साय अदिन्नादानं पहातब्बं; सच्चवाचं [सच्चं वाचं (स्या.)] निस्साय मुसावादो पहातब्बो; अपिसुणं वाचं निस्साय पिसुणा वाचा पहातब्बा; अगिद्धिलोभं निस्साय गिद्धिलोभो पहातब्बो; अनिन्दारोसं निस्साय निन्दारोसो पहातब्बो; अक्कोधूपायासं निस्साय कोधूपायासो पहातब्बो; अनतिमानं निस्साय अतिमानो पहातब्बो. इमे खो, गहपति, अट्ठ धम्मा संखित्तेन वुत्ता, वित्थारेन अविभत्ता, अरियस्स विनये वोहारसमुच्छेदाय संवत्तन्ती’’ति. ‘‘ये मे [ये मे पन (स्या. क.)], भन्ते, भगवता अट्ठ धम्मा संखित्तेन वुत्ता, वित्थारेन अविभत्ता, अरियस्स विनये वोहारसमुच्छेदाय संवत्तन्ति, साधु मे, भन्ते, भगवा इमे अट्ठ धम्मे वित्थारेन [वित्थारेत्वा (क.)] विभजतु अनुकम्पं उपादाया’’ति. ‘‘तेन हि, गहपति, सुणाहि, साधुकं मनसि करोहि, भासिस्सामी’’ति. ‘‘एवं, भन्ते’’ति खो पोतलियो गहपति भगवतो पच्चस्सोसि. भगवा एतदवोच –
३३. ‘‘‘अपाणातिपातं निस्साय पाणातिपातो पहातब्बो’ति इति खो पनेतं वुत्तं किञ्चेतं पटिच्च वुत्तं ? इध, गहपति, अरियसावको इति पटिसञ्चिक्खति – ‘येसं खो अहं संयोजनानं हेतु पाणातिपाती अस्सं, तेसाहं संयोजनानं पहानाय समुच्छेदाय पटिपन्नो. अहञ्चेव [अहञ्चे (?)] खो पन पाणातिपाती अस्सं, अत्तापि मं उपवदेय्य पाणातिपातपच्चया, अनुविच्चापि मं विञ्ञू [अनुविच्च विञ्ञू (सी. स्या. पी.)] गरहेय्युं पाणातिपातपच्चया, कायस्स भेदा परं मरणा दुग्गति पाटिकङ्खा पाणातिपातपच्चया. एतदेव खो पन संयोजनं एतं नीवरणं यदिदं पाणातिपातो. ये च पाणातिपातपच्चया उप्पज्जेय्युं आसवा विघातपरिळाहा, पाणातिपाता पटिविरतस्स एवंस ते आसवा विघातपरिळाहा न होन्ति’. ‘अपाणातिपातं निस्साय पाणातिपातो पहातब्बो’ति – इति यन्तं वुत्तं इदमेतं पटिच्च वुत्तं.
३४. ‘‘‘दिन्नादानं निस्साय अदिन्नादानं पहातब्ब’न्ति इति खो पनेतं वुत्तं, किञ्चेतं पटिच्च वुत्तं? इध, गहपति, अरियसावको इति पटिसञ्चिक्खति – ‘येसं खो अहं संयोजनानं हेतु अदिन्नादायी अस्सं, तेसाहं संयोजनानं पहानाय समुच्छेदाय पटिपन्नो. अहञ्चेव खो पन अदिन्नादायी अस्सं, अत्तापि मं उपवदेय्य अदिन्नादानपच्चया, अनुविच्चापि मं विञ्ञू गरहेय्युं अदिन्नादानपच्चया, कायस्स भेदा परं मरणा दुग्गति पाटिकङ्खा अदिन्नादानपच्चया. एतदेव खो पन संयोजनं एतं नीवरणं यदिदं अदिन्नादानं. ये च अदिन्नादानपच्चया उप्पज्जेय्युं आसवा विघातपरिळाहा अदिन्नादाना पटिविरतस्स एवंस ते आसवा विघातपरिळाहा न होन्ति’. ‘दिन्नादानं निस्साय अदिन्नादानं पहातब्ब’न्ति – इति यन्तं वुत्तं इदमेतं पटिच्च वुत्तं.
३५. ‘‘‘सच्चवाचं निस्साय मुसावादो पहातब्बो’ति इति खो पनेतं वुत्तं किञ्चेतं पटिच्च वुत्तं? इध, गहपति, अरियसावको इति पटिसञ्चिक्खति – ‘येसं खो अहं संयोजनानं हेतु मुसावादी अस्सं, तेसाहं संयोजनानं पहानाय समुच्छेदाय पटिपन्नो. अहञ्चेव खो पन मुसावादी अस्सं, अत्तापि मं उपवदेय्य मुसावादपच्चया, अनुविच्चापि मं विञ्ञू गरहेय्युं मुसावादपच्चया, कायस्स भेदा परं मरणा दुग्गति पाटिकङ्खा मुसावादपच्चया. एतदेव खो पन संयोजनं एतं नीवरणं यदिदं मुसावादो . ये च मुसावादपच्चया उप्पज्जेय्युं आसवा विघातपरिळाहा, मुसावादा पटिविरतस्स एवंस ते आसवा विघातपरिळाहा न होन्ति’. ‘सच्चवाचं निस्साय मुसावादो पहातब्बो’ति – इति यन्तं वुत्तं इदमेतं पटिच्च वुत्तं.
३६. ‘‘‘अपिसुणं वाचं निस्साय पिसुणा वाचा पहातब्बा’ति इति खो पनेतं वुत्तं किञ्चेतं पटिच्च वुत्तं? इध, गहपति, अरियसावको इति पटिसञ्चिक्खति – ‘येसं खो अहं संयोजनानं हेतु पिसुणवाचो अस्सं, तेसाहं संयोजनानं पहानाय समुच्छेदाय पटिपन्नो. अहञ्चेव खो पन पिसुणवाचो अस्सं, अत्तापि मं उपवदेय्य पिसुणवाचापच्चया , अनुविच्चापि मं विञ्ञू गरहेय्युं पिसुणवाचापच्चया, कायस्स भेदा परं मरणा दुग्गति पाटिकङ्खा पिसुणवाचापच्चया. एतदेव खो पन संयोजनं एतं नीवरणं यदिदं पिसुणा वाचा. ये च पिसुणवाचापच्चया उप्पज्जेय्युं आसवा विघातपरिळाहा, पिसुणाय वाचाय पटिविरतस्स एवंस ते आसवा विघातपरिळाहा न होन्ति’. ‘अपिसुणं वाचं निस्साय पिसुणा वाचा पहातब्बा’ति – इति यन्तं वुत्तं इदमेतं पटिच्च वुत्तं.
३७. ‘‘‘अगिद्धिलोभं निस्साय गिद्धिलोभो पहातब्बो’ति इति खो पनेतं वुत्तं, किञ्चेतं पटिच्च वुत्तं? इध, गहपति, अरियसावको इति पटिसञ्चिक्खति – ‘येसं खो अहं संयोजनानं हेतु गिद्धिलोभी अस्सं, तेसाहं संयोजनानं पहानाय समुच्छेदाय पटिपन्नो. अहञ्चेव खो पन गिद्धिलोभी अस्सं, अत्तापि मं उपवदेय्य गिद्धिलोभपच्चया, अनुविच्चापि मं विञ्ञू गरहेय्युं गिद्धिलोभपच्चया, कायस्स भेदा परं मरणा दुग्गति पाटिकङ्खा गिद्धिलोभपच्चया. एतदेव खो पन संयोजनं एतं नीवरणं यदिदं गिद्धिलोभो. ये च गिद्धिलोभपच्चया उप्पज्जेय्युं आसवा विघातपरिळाहा, गिद्धिलोभा पटिविरतस्स एवंस ते आसवा विघातपरिळाहा न होन्ति’. ‘अगिद्धिलोभं निस्साय गिद्धिलोभो पहातब्बो’ति – इति यन्तं वुत्तं इदमेतं पटिच्च वुत्तं.
३८. ‘‘‘अनिन्दारोसं निस्साय निन्दारोसो पहातब्बो’ति इति खो पनेतं वुत्तं, किञ्चेतं पटिच्च वुत्तं? इध, गहपति, अरियसावको इति पटिसञ्चिक्खति – ‘येसं खो अहं संयोजनानं हेतु निन्दारोसी अस्सं, तेसाहं संयोजनानं पहानाय समुच्छेदाय पटिपन्नो. अहञ्चेव खो पन निन्दारोसी अस्सं, अत्तापि मं उपवदेय्य निन्दारोसपच्चया, अनुविच्चापि मं विञ्ञू गरहेय्युं निन्दारोसपच्चया, कायस्स भेदा परं मरणा दुग्गति पाटिकङ्खा निन्दारोसपच्चया. एतदेव खो पन संयोजनं एतं नीवरणं यदिदं निन्दारोसो. ये च निन्दारोसपच्चया उप्पज्जेय्युं आसवा विघातपरिळाहा, अनिन्दारोसिस्स एवंस ते आसवा विघातपरिळाहा न होन्ति’. ‘अनिन्दारोसं निस्साय निन्दारोसो पहातब्बो’ति – इति यन्तं वुत्तं इदमेतं पटिच्च वुत्तं.
३९. ‘‘‘अक्कोधूपायासं निस्साय कोधूपायासो पहातब्बो’ति इति खो पनेतं वुत्तं, किञ्चेतं पटिच्च वुत्तं? इध, गहपति, अरियसावको इति पटिसञ्चिक्खति – ‘येसं खो अहं संयोजनानं हेतु कोधूपायासी अस्सं, तेसाहं संयोजनानं पहानाय समुच्छेदाय पटिपन्नो. अहञ्चेव खो पन कोधूपायासी अस्सं, अत्तापि मं उपवदेय्य कोधूपायासपच्चया , अनुविच्चापि मं विञ्ञू गरहेय्युं कोधूपायासपच्चया, कायस्स भेदा परं मरणा दुग्गति पाटिकङ्खा कोधूपायासपच्चया. एतदेव खो पन संयोजनं एतं नीवरणं यदिदं कोधूपायासो. ये च कोधूपायासपच्चया उप्पज्जेय्युं आसवा विघातपरिळाहा, अक्कोधूपायासिस्स एवंस ते आसवा विघातपरिळाहा न होन्ति’. ‘अक्कोधूपायासं निस्साय कोधूपायासो पहातब्बो’ति – इति यन्तं वुत्तं इदमेतं पटिच्च वुत्तं.
४०. ‘‘‘अनतिमानं निस्साय अतिमानो पहातब्बो’ति इति खो पनेतं वुत्तं, किञ्चेतं पटिच्च वुत्तं? इध, गहपति, अरियसावको इति पटिसञ्चिक्खति – ‘येसं खो अहं संयोजनानं हेतु अतिमानी अस्सं, तेसाहं संयोजनानं पहानाय समुच्छेदाय पटिपन्नो. अहञ्चेव खो पन अतिमानी अस्सं, अत्तापि मं उपवदेय्य अतिमानपच्चया, अनुविच्चापि मं विञ्ञू गरहेय्युं अतिमानपच्चया, कायस्स भेदा परं मरणा दुग्गति पाटिकङ्खा अतिमानपच्चया. एतदेव खो पन संयोजनं एतं नीवरणं यदिदं अतिमानो. ये च अतिमानपच्चया उप्पज्जेय्युं आसवा विघातपरिळाहा, अनतिमानिस्स एवंस ते आसवा विघातपरिळाहा न होन्ति’. ‘अनतिमानं निस्साय अतिमानो पहातब्बो’ति – इति यन्तं वुत्तं इदमेतं पटिच्च वुत्तं.
४१. ‘‘इमे खो, गहपति, अट्ठ धम्मा संखित्तेन वुत्ता, वित्थारेन विभत्ता [अविभत्ता (स्या. क.)], ये अरियस्स विनये वोहारसमुच्छेदाय संवत्तन्ति; न त्वेव ताव अरियस्स विनये सब्बेन सब्बं सब्बथा सब्बं वोहारसमुच्छेदो होती’’ति.
‘‘यथा कथं पन, भन्ते, अरियस्स विनये सब्बेन सब्बं सब्बथा सब्बं वोहारसमुच्छेदो होति? साधु मे, भन्ते, भगवा तथा धम्मं देसेतु यथा अरियस्स विनये सब्बेन सब्बं सब्बथा सब्बं वोहारसमुच्छेदो होती’’ति. ‘‘तेन हि, गहपति, सुणाहि, साधुकं मनसि करोहि, भासिस्सामी’’ति. ‘‘एवं, भन्ते’’ति खो पोतलियो गहपति भगवतो पच्चस्सोसि. भगवा एतदवोच –
कामादीनवकथा
४२. ‘‘सेय्यथापि , गहपति, कुक्कुरो जिघच्छादुब्बल्यपरेतो गोघातकसूनं पच्चुपट्ठितो अस्स. तमेनं दक्खो गोघातको वा गोघातकन्तेवासी वा अट्ठिकङ्कलं सुनिक्कन्तं निक्कन्तं निम्मंसं लोहितमक्खितं उपसुम्भेय्य [उपच्छुभेय्य (सी. पी.), उपच्छूभेय्य (स्या. कं.), उपच्चुम्भेय्य (क.)]. तं किं मञ्ञसि, गहपति, अपि नु खो सो कुक्कुरो अमुं अट्ठिकङ्कलं सुनिक्कन्तं निक्कन्तं निम्मंसं लोहितमक्खितं पलेहन्तो जिघच्छादुब्बल्यं पटिविनेय्या’’ति?
‘‘नो हेतं, भन्ते’’.
‘‘तं किस्स हेतु’’?
‘‘अदुञ्हि, भन्ते, अट्ठिकङ्कलं सुनिक्कन्तं निक्कन्तं निम्मंसं लोहितमक्खितं. यावदेव पन सो कुक्कुरो किलमथस्स विघातस्स भागी अस्साति. एवमेव खो, गहपति, अरियसावको इति पटिसञ्चिक्खति – ‘अट्ठिकङ्कलूपमा कामा वुत्ता भगवता बहुदुक्खा बहुपायासा [बहूपायासा (सी. स्या. कं. पी.)], आदीनवो एत्थ भिय्यो’ति. एवमेतं यथाभूतं सम्मप्पञ्ञाय दिस्वा यायं उपेक्खा नानत्ता नानत्तसिता तं अभिनिवज्जेत्वा, यायं उपेक्खा एकत्ता एकत्तसिता यत्थ सब्बसो लोकामिसूपादाना अपरिसेसा निरुज्झन्ति तमेवूपेक्खं भावेति.
४३. ‘‘सेय्यथापि, गहपति, गिज्झो वा कङ्को वा कुललो वा मंसपेसिं आदाय उड्डीयेय्य [उड्डयेय्य (स्या. पी.)]. तमेनं गिज्झापि कङ्कापि कुललापि अनुपतित्वा अनुपतित्वा वितच्छेय्युं विस्सज्जेय्युं [विराजेय्युं (सी. स्या. कं. पी.)]. तं किं मञ्ञसि, गहपति, सचे सो गिज्झो वा कङ्को वा कुललो वा तं मंसपेसिं न खिप्पमेव पटिनिस्सज्जेय्य, सो ततोनिदानं मरणं वा निगच्छेय्य मरणमत्तं वा दुक्ख’’न्ति?
‘‘एवं, भन्ते’’.
‘‘एवमेव खो, गहपति, अरियसावको इति पटिसञ्चिक्खति – ‘मंसपेसूपमा कामा वुत्ता भगवता बहुदुक्खा बहुपायासा, आदीनवो एत्थ भिय्यो’ति. एवमेतं यथाभूतं सम्मप्पञ्ञाय दिस्वा यायं उपेक्खा नानत्ता नानत्तसिता तं अभिनिवज्जेत्वा यायं उपेक्खा एकत्ता एकत्तसिता यत्थ सब्बसो लोकामिसूपादाना अपरिसेसा निरुज्झन्ति तमेवूपेक्खं भावेति.
४४. ‘‘सेय्यथापि, गहपति, पुरिसो आदित्तं तिणुक्कं आदाय पटिवातं गच्छेय्य. तं किं मञ्ञसि, गहपति, सचे सो पुरिसो तं आदित्तं तिणुक्कं न खिप्पमेव पटिनिस्सज्जेय्य तस्स सा आदित्ता तिणुक्का हत्थं वा दहेय्य बाहुं वा दहेय्य अञ्ञतरं वा अञ्ञतरं वा अङ्गपच्चङ्गं [दहेय्य. अञ्ञतरं वा अङ्गपच्चङ्ग (सी. पी.)] दहेय्य, सो ततोनिदानं मरणं वा निगच्छेय्य मरणमत्तं वा दुक्ख’’न्ति?
‘‘एवं, भन्ते’’.
‘‘एवमेव खो, गहपति, अरियसावको इति पटिसञ्चिक्खति – ‘तिणुक्कूपमा कामा वुत्ता भगवता बहुदुक्खा बहुपायासा, आदीनवो एत्थ भिय्यो’ति. एवमेतं यथाभूतं सम्मप्पञ्ञाय दिस्वा…पे… तमेवूपेक्खं भावेति.
४५. ‘‘सेय्यथापि , गहपति, अङ्गारकासु साधिकपोरिसा, पूरा अङ्गारानं वीतच्चिकानं वीतधूमानं. अथ पुरिसो आगच्छेय्य जीवितुकामो अमरितुकामो सुखकामो दुक्खप्पटिक्कूलो. तमेनं द्वे बलवन्तो पुरिसा नानाबाहासु गहेत्वा अङ्गारकासुं उपकड्ढेय्युं. तं किं मञ्ञसि, गहपति, अपि नु सो पुरिसो इतिचितिचेव कायं सन्नामेय्या’’ति?
‘‘एवं, भन्ते’’.
‘‘तं किस्स हेतु’’?
‘‘विदितञ्हि , भन्ते, तस्स पुरिसस्स इमञ्चाहं अङ्गारकासुं पपतिस्सामि, ततोनिदानं मरणं वा निगच्छिस्सामि मरणमत्तं वा दुक्ख’’न्ति. ‘‘एवमेव खो, गहपति, अरियसावको इति पटिसञ्चिक्खति – ‘अङ्गारकासूपमा कामा वुत्ता भगवता बहुदुक्खा बहुपायासा, आदीनवो एत्थ भिय्यो’ति. एवमेतं यथाभूतं सम्मप्पञ्ञाय दिस्वा…पे… तमेवूपेक्खं भावेति.
४६. ‘‘सेय्यथापि , गहपति, पुरिसो सुपिनकं पस्सेय्य आरामरामणेय्यकं वनरामणेय्यकं भूमिरामणेय्यकं पोक्खरणिरामणेय्यकं. सो पटिबुद्धो न किञ्चि पटिपस्सेय्य [पस्सेय्य (सी. स्या. कं. पी.)]. एवमेव खो, गहपति, अरियसावको इति पटिसञ्चिक्खति – ‘सुपिनकूपमा कामा वुत्ता भगवता बहुदुक्खा बहुपायासा, आदीनवो एत्थ भिय्यो’ति…पे… तमेवूपेक्खं भावेति.
४७. ‘‘सेय्यथापि, गहपति, पुरिसो याचितकं भोगं याचित्वा यानं वा [यानं (स्या. कं. पी.)] पोरिसेय्यं [पोरोसेय्यं (सी. पी. क.), ओरोपेय्य (स्या. कं.)] पवरमणिकुण्डलं. सो तेहि याचितकेहि भोगेहि पुरक्खतो परिवुतो अन्तरापणं पटिपज्जेय्य. तमेनं जनो दिस्वा एवं वदेय्य – ‘भोगी वत, भो, पुरिसो, एवं किर भोगिनो भोगानि भुञ्जन्ती’ति. तमेनं सामिका यत्थ यत्थेव पस्सेय्युं तत्थ तत्थेव सानि हरेय्युं. तं किं मञ्ञसि, गहपति, अलं नु खो तस्स पुरिसस्स अञ्ञथत्ताया’’ति?
‘‘एवं, भन्ते’’.
‘‘तं किस्स हेतु’’?
‘‘सामिनो हि, भन्ते, सानि हरन्ती’’ति. ‘‘एवमेव खो, गहपति, अरियसावको इति पटिसञ्चिक्खति – ‘याचितकूपमा कामा वुत्ता भगवता बहुदुक्खा बहुपायासा, आदीनवो एत्थ भिय्यो’ति…पे… तमेवूपेक्खं भावेति.
४८. ‘‘सेय्यथापि, गहपति, गामस्स वा निगमस्स वा अविदूरे तिब्बो वनसण्डो. तत्रस्स रुक्खो सम्पन्नफलो च उपपन्नफलो [उप्पन्नफलो (स्या.)] च, न चस्सु कानिचि फलानि भूमियं पतितानि. अथ पुरिसो आगच्छेय्य फलत्थिको फलगवेसी फलपरियेसनं चरमानो. सो तं वनसण्डं अज्झोगाहेत्वा तं रुक्खं पस्सेय्य सम्पन्नफलञ्च उपपन्नफलञ्च. तस्स एवमस्स – ‘अयं खो रुक्खो सम्पन्नफलो च उपपन्नफलो च, नत्थि च कानिचि फलानि भूमियं पतितानि. जानामि खो पनाहं रुक्खं आरोहितुं [आरुहितुं (सी.)]. यंनूनाहं इमं रुक्खं आरोहित्वा यावदत्थञ्च खादेय्यं उच्छङ्गञ्च पूरेय्य’न्ति. सो तं रुक्खं आरोहित्वा यावदत्थञ्च खादेय्य उच्छङ्गञ्च पूरेय्य. अथ दुतियो पुरिसो आगच्छेय्य फलत्थिको फलगवेसी फलपरियेसनं चरमानो तिण्हं कुठारिं [कुधारिं (स्या. कं. क.)] आदाय. सो तं वनसण्डं अज्झोगाहेत्वा तं रुक्खं पस्सेय्य सम्पन्नफलञ्च उपपन्नफलञ्च. तस्स एवमस्स – ‘अयं खो रुक्खो सम्पन्नफलो च उपपन्नफलो च, नत्थि च कानिचि फलानि भूमियं पतितानि. न खो पनाहं जानामि रुक्खं आरोहितुं. यंनूनाहं इमं रुक्खं मूलतो छेत्वा यावदत्थञ्च खादेय्यं उच्छङ्गञ्च पूरेय्य’न्ति. सो तं रुक्खं मूलतोव छिन्देय्य. तं किं मञ्ञसि, गहपति, अमुको [असु (सी. पी.)] यो सो पुरिसो पठमं रुक्खं आरूळ्हो सचे सो न खिप्पमेव ओरोहेय्य तस्स सो रुक्खो पपतन्तो हत्थं वा भञ्जेय्य पादं वा भञ्जेय्य अञ्ञतरं वा अञ्ञतरं वा अङ्गपच्चङ्गं भञ्जेय्य, सो ततोनिदानं मरणं वा निगच्छेय्य मरणमत्तं वा दुक्ख’’न्ति?
‘‘एवं, भन्ते’’.
‘‘एवमेव खो, गहपति, अरियसावको इति पटिसञ्चिक्खति – ‘रुक्खफलूपमा कामा वुत्ता भगवता बहुदुक्खा बहुपायासा, आदीनवो एत्थ भिय्यो’ति. एवमेतं यथाभूतं सम्मप्पञ्ञाय दिस्वा यायं उपेक्खा नानत्ता नानत्तसिता तं अभिनिवज्जेत्वा यायं उपेक्खा एकत्ता एकत्तसिता यत्थ सब्बसो लोकामिसूपादाना अपरिसेसा निरुज्झन्ति तमेवूपेक्खं भावेति.
४९. ‘‘स खो सो, गहपति, अरियसावको इमंयेव अनुत्तरं उपेक्खासतिपारिसुद्धिं आगम्म अनेकविहितं पुब्बेनिवासं अनुस्सरति, सेय्यथिदं – एकम्पि जातिं द्वेपि जातियो…पे… इति साकारं सउद्देसं अनेकविहितं पुब्बेनिवासं अनुस्सरति.
‘‘स खो सो, गहपति, अरियसावको इमंयेव अनुत्तरं उपेक्खासतिपारिसुद्धिं आगम्म दिब्बेन चक्खुना विसुद्धेन अतिक्कन्तमानुसकेन सत्ते पस्सति चवमाने उपपज्जमाने हीने पणीते सुवण्णे दुब्बण्णे सुगते दुग्गते…पे… यथाकम्मूपगे सत्ते पजानाति.
‘‘स खो सो, गहपति, अरियसावको इमंयेव अनुत्तरं उपेक्खासतिपारिसुद्धिं आगम्म आसवानं खया अनासवं चेतोविमुत्तिं पञ्ञाविमुत्तिं दिट्ठेव धम्मे सयं अभिञ्ञा सच्छिकत्वा उपसम्पज्ज विहरति. एत्तावता खो, गहपति, अरियस्स विनये सब्बेन सब्बं सब्बथा सब्बं वोहारसमुच्छेदो होति.
५०. ‘‘तं किं मञ्ञसि, गहपति, यथा अरियस्स विनये सब्बेन सब्बं सब्बथा सब्बं वोहारसमुच्छेदो होति, अपि नु त्वं एवरूपं वोहारसमुच्छेदं अत्तनि समनुपस्ससी’’ति? ‘‘को चाहं, भन्ते, को च अरियस्स विनये सब्बेन सब्बं सब्बथा सब्बं वोहारसमुच्छेदो! आरका अहं, भन्ते, अरियस्स विनये सब्बेन सब्बं सब्बथा सब्बं वोहारसमुच्छेदा. मयञ्हि, भन्ते, पुब्बे अञ्ञतित्थिये परिब्बाजके अनाजानीयेव समाने आजानीयाति अमञ्ञिम्ह, अनाजानीयेव समाने आजानीयभोजनं भोजिम्ह, अनाजानीयेव समाने आजानीयठाने ठपिम्ह; भिक्खू पन मयं, भन्ते, आजानीयेव समाने अनाजानीयाति अमञ्ञिम्ह, आजानीयेव समाने अनाजानीयभोजनं भोजिम्ह, आजानीयेव समाने अनाजानीयठाने ठपिम्ह; इदानि पन मयं, भन्ते, अञ्ञतित्थिये परिब्बाजके अनाजानीयेव समाने अनाजानीयाति जानिस्साम, अनाजानीयेव समाने अनाजानीयभोजनं भोजेस्साम, अनाजानीयेव समाने अनाजानीयठाने ठपेस्साम. भिक्खू पन मयं, भन्ते, आजानीयेव समाने आजानीयाति जानिस्साम आजानीयेव समाने आजानीयभोजनं भोजेस्साम, आजानीयेव समाने आजानीयठाने ठपेस्साम. अजनेसि वत मे, भन्ते, भगवा समणेसु समणप्पेमं, समणेसु समणप्पसादं, समणेसु समणगारवं. अभिक्कन्तं, भन्ते, अभिक्कन्तं, भन्ते ! सेय्यथापि, भन्ते, निक्कुज्जितं वा उक्कुज्जेय्य, पटिच्छन्नं वा विवरेय्य, मूळ्हस्स वा मग्गं आचिक्खेय्य, अन्धकारे वा तेलपज्जोतं धारेय्य, चक्खुमन्तो रूपानि दक्खन्तीति; एवमेवं खो, भन्ते, भगवता अनेकपरियायेन धम्मो पकासितो. एसाहं, भन्ते, भगवन्तं सरणं गच्छामि धम्मञ्च भिक्खुसङ्घञ्च. उपासकं मं भगवा धारेतु अज्जतग्गे पाणुपेतं सरणं गत’’न्ति.
पोतलियसुत्तं निट्ठितं चतुत्थं.