संन्यासियों द्वारा मांसाहार किया जाना भारत में एक ज्वलंत और विवादास्पद मुद्दा है। आज हिन्दू समाज ने शाकाहार को ही पवित्रता और अहिंसा का पर्याय बना दिया है, लेकिन ऐतिहासिक दृष्टि से यह धारणा आधुनिक है।
वैदिक संस्कृति में मांसाहार केवल स्वीकार्य ही नहीं, बल्कि धार्मिक अनुष्ठानों का अभिन्न हिस्सा था। ऋग्वेद और यजुर्वेद में अश्वमेध, गोमेध जैसे यज्ञों में पशुबलि का उल्लेख है, और शतपथ ब्राह्मण में ब्राह्मणों द्वारा गाय और बैल की बलि दिए जाने के विवरण मिलते हैं।
डॉ. बी. आर. अंबेडकर ने लिखा है कि ब्राह्मण स्वयं मांसाहारी थे, पर बौद्ध-जैन प्रभाव के बाद, सामाजिक-राजनीतिक कारणों से शाकाहार को पवित्रता से जोड़ दिया गया। देवदत्त पटनायक जैसे समकालीन विद्वान भी यह रेखांकित करते हैं कि वैदिक काल में मांसाहार “देवताओं को तृप्त करने का माध्यम” था। उनके अनुसार, शाकाहार कोई “सनातन” परंपरा नहीं, बल्कि समय के साथ बदलती हुई एक सांस्कृतिक प्रतिक्रिया थी, जो सत्ता और आध्यात्मिक वर्चस्व के नए विमर्शों से प्रेरित थी।
छठी शताब्दी ईसा पूर्व में श्रमण आंदोलन का उदय ब्राह्मणवादी परंपरा की प्रतिक्रिया के रूप में हुआ। बौद्ध, जैन और आजीवक संप्रदायों ने यज्ञ-प्रधान कर्मकांड और वर्ण-व्यवस्था को चुनौती दी। उन्होंने तप, आत्मसंयम और अहिंसा को केंद्रीय मूल्य के रूप में स्थापित किया।
जैन धर्म ने सबसे कठोर अहिंसा का मार्ग अपनाया — जिसमें जल, अग्नि और सूक्ष्म जीवों तक को हानि न पहुँचाना आदर्श था। इसी कारण, जैन साधुओं ने बौद्ध भिक्षुओं पर आरोप लगाया कि वे जानबूझकर मारे गए पशुओं का मांस खाते हैं। इसका खंडन भगवान बुद्ध ने इस सूत्र के साथ-साथ अंगुत्तरनिकाय ८.१२ और विनयपिटक के महावग्ग (६.३१.१३) में करते हैं, जहाँ वे स्पष्ट करते हैं कि वे ऐसा मांस कभी नहीं ग्रहण करते जो खास उनके लिए मारा गया हो।
बुद्ध के अनुसार, ऐसा मांस जो तिकोटिपरिशुद्ध हो — अर्थात जिसे न देखा गया हो, न सुना गया हो, न शंका हो कि वह उनके लिए मारा गया — वह भिक्षु के लिए ग्राह्य है। पिंडपात पर निर्भर रहने वाले भिक्षु भोजन चुनने की स्थिति में नहीं होते, अतः जो श्रद्धा से दिया गया मांस तीनों शर्तों पर खरा उतरे, उसे खाया जाता है।
दिलचस्प रूप से, कई जैन ग्रंथों में भी यह स्वीकार किया गया है कि कुछ विशेष परिस्थितियों में मांस का सेवन निषिद्ध नहीं है। उदाहरण के लिए, आचरङ्गसूत्र २.१.१०, भगवतीसूत्र ५५७, कल्पसूत्र (सामाचारी १७), दसवेयालियसुत्त ५-१.७३। इनमें स्पष्ट किया गया है कि यदि मांस खाने की इच्छा न हो, और मांस स्वतः उपलब्ध हो, तथा उसमें हिंसा की मंशा न हो — तो वह निषिद्ध नहीं है। इससे स्पष्ट है कि बौद्ध और जैन दृष्टिकोणों के बीच का विरोध जितना तीव्र दिखाया गया, वास्तविक स्तर पर उतना नहीं है।
बौद्ध परंपरा केवल बाह्य हिंसा नहीं, बल्कि मन की हिंसा — जैसे राग, द्वेष और मोह — को भी अहिंसा के विरुद्ध मानती है। यदि कोई भिक्षु श्रद्धा से प्राप्त भोजन को, बिना हिंसा की मंशा के, केवल शरीर निर्वाह हेतु ग्रहण करता है — तो वह दोषरहित है।
ऐसा मैंने सुना — एक समय भगवान राजगृह में जीवक कोमारभच्च 1 के आम्रवन में विहार कर रहे थे। तब जीवक कोमारभच्च भगवान के पास गया। जाकर भगवान को अभिवादन कर एक ओर बैठ गया। एक ओर बैठकर जीवक कोमारभच्च ने भगवान से कहा, “भंते, मैंने सुना है — ‘वे श्रमण गौतम को उद्देश्य से प्राणियों को काटते हैं, और श्रमण गौतम उस कर्म के आधार पर अपने उद्देश्य से पकाएँ मांस का जानते हुए परिभोग करते हैं।'
भंते, क्या जो ऐसा कहते हैं, वे भगवान के ही शब्द दोहराते हैं? कहीं तथ्यहीन बातों से भगवान का मिथ्यावर्णन तो नहीं करते? क्या वे धर्मानुरूप ही बोलते हैं, ताकि कोई सहधार्मिक व्यक्ति के पास आलोचना की गुंजाइश न रहे?”
“जीवक, जो ऐसा कहते हैं — ‘वे श्रमण गौतम को उद्देश्य से प्राणियों को काटते हैं, और श्रमण गौतम उस कर्म के आधार पर अपने उद्देश्य से पकाएँ मांस का जानते हुए परिभोग करते हैं’ — वे मेरे शब्द नहीं दोहराते हैं, बल्कि तथ्यहीन और झूठे शब्दों से मेरा मिथ्यावर्णन करते हैं।
तीन मामलों में, जीवक, मैं कहता हूँ कि मांस का परिभोग (=मांसाहार) न करें। देखा जाने पर, सुना जाने पर, शंका होने पर — इन तीन मामलों में, जीवक, मैं कहता हूँ कि मांस का परिभोग न करें।
जबकि तीन मामलों में, जीवक, मैं कहता हूँ कि मांस का परिभोग करें। देखा न जाने पर, सुना न जाने पर, शंका न होने पर — इन तीन मामलों में, जीवक, मैं कहता हूँ कि मांस का परिभोग करें।
कोई भिक्षु, जीवक, किसी गाँव या नगर पर निर्भर रह कर विहार करता है। वह सद्भावपूर्ण (“मेत्ता”) चित्त को एक-दिशा में फैलाकर व्याप्त करता है। उसी तरह दूसरी-दिशा में… तीसरी-दिशा में… चौथी-दिशा में। उसी तरह, वह ऊपर… नीचे… तत्र सर्वत्र… सभी ओर संपूर्ण ब्रह्मांड में निर्बैर, निर्द्वेष, विस्तृत, विराट, असीम सद्भावपूर्ण चित्त को फैलाकर परिपूर्णतः व्याप्त करता है।
तब कोई गृहस्थ या गृहस्थ-पुत्र उसके पास जाता है, और उसे अगले दिन भोजन का निमंत्रण देता है। यदि भिक्षु की आकांक्षा हो तो वह (उस निमंत्रण को) स्वीकार करता है।
रात बीतने पर, सुबह के समय वह भिक्षु चीवर ओढ़, पात्र लेकर उस गृहस्थ या गृहस्थ-पुत्र के घर जाता है। जाकर बिछे आसन पर बैठता है। तब वह गृहस्थ या गृहस्थ-पुत्र उसे उत्तम भिक्षान्न परोसते हैं।
तब उस भिक्षु को ऐसा नहीं लगता कि ‘बहुत अच्छा है कि यह गृहस्थ या गृहस्थ-पुत्र मुझे उत्तम भिक्षान्न परोसते हैं। काश, यह गृहस्थ या गृहस्थ-पुत्र भविष्य में भी मुझे उत्तम भिक्षान्न परोसते रहें।’ ऐसा उसे नहीं लगता। बल्कि वह भिक्षान्न से बिना बंधे, बिना मदहोश हुए, बिना लालच के, दुष्परिणाम देखते हुए, और निकलने का मार्ग प्रज्ञापूर्वक समझते हुए उसका परिभोग करता है।
तुम्हें क्या लगता है, जीवक, क्या उस समय वह भिक्षु आत्मपीड़ा चाहता है, या परपीड़ा चाहता है, या परस्पर-पीड़ा चाहता है?”
“नहीं, भंते।”
“क्या वह भिक्षु उस समय निर्दोष आहार नहीं ले रहा?”
“हाँ, भंते। भंते, मैंने सुना है कि ब्रह्मा सद्भावना में विहार करता (“मेत्ताविहारी”) है। और अब, भंते, मैंने भगवान को अपनी आँखों से देख लिया — भगवान सद्भावना में विहार करते हैं।”
“जिस राग, जिस द्वेष और जिस मोह से, जीवक, दुर्भावना उत्पन्न होती है, उस राग, द्वेष और मोह को तथागत त्याग देते हैं, जड़ से उखाड़ते हैं, ताड़ के ठूँठ जैसा बना देते हैं, अस्तित्व मिटा देते हैं, ताकि भविष्य में फिर प्रकट न हो। यदि तुम इससे जुड़ी बात कर रहे हो, तो उसे मैं स्वीकारता हूँ।”
“भंते, मैं बिलकुल इससे ही जुड़ी बात कर रहा था।”
“कोई भिक्षु, जीवक, किसी गाँव या नगर पर निर्भर रह कर विहार करता है। वह करुण चित्त को… प्रसन्न (“मुदिता”) चित्त को… तटस्थ (“उपेक्खा”) चित्त को एक-दिशा में फैलाकर व्याप्त करता है। उसी तरह दूसरी-दिशा में… तीसरी-दिशा में… चौथी-दिशा में। उसी तरह, वह ऊपर… नीचे… तत्र सर्वत्र… सभी ओर संपूर्ण ब्रह्मांड में निर्बैर, निर्द्वेष, विस्तृत, विराट, असीम तटस्थ चित्त को फैलाकर परिपूर्णतः व्याप्त करता है।
तब कोई गृहस्थ या गृहस्थ-पुत्र उसके पास जाता है, और उसे अगले दिन भोजन का निमंत्रण देता है। यदि भिक्षु की आकांक्षा हो तो वह स्वीकार करता है।
रात बीतने पर, सुबह के समय वह भिक्षु चीवर ओढ़, पात्र लेकर उस गृहस्थ या गृहस्थ-पुत्र के घर जाता है। जाकर बिछे आसन पर बैठता है। तब वह गृहस्थ या गृहस्थ-पुत्र उसे उत्तम भिक्षान्न परोसते हैं।
तब उस भिक्षु को ऐसा नहीं लगता कि ‘बहुत अच्छा है कि यह गृहस्थ या गृहस्थ-पुत्र मुझे उत्तम भिक्षान्न परोसते हैं। काश, यह गृहस्थ या गृहस्थ-पुत्र भविष्य में भी मुझे उत्तम भिक्षान्न परोसते रहें।’ ऐसा उसे नहीं लगता। बल्कि वह भिक्षान्न से बिना बंधे, बिना मदहोश हुए, बिना लालच के, दुष्परिणाम देखते हुए, और निकलने का मार्ग प्रज्ञापूर्वक समझते हुए उसका परिभोग करता है।
तुम्हें क्या लगता है, जीवक, क्या उस समय वह भिक्षु आत्मपीड़ा चाहता है, या परपीड़ा चाहता है, या परस्पर-पीड़ा चाहता है?”
“नहीं, भंते।”
“क्या वह भिक्षु उस समय निर्दोष आहार नहीं ले रहा?”
“हाँ, भंते। भंते, मैंने सुना है कि ब्रह्मा करुणा… प्रसन्नता… तटस्थता में विहार करता (“करुणाविहारी… मुदिताविहारी… उपेक्खाविहारी”) है। और अब, भंते, मैंने भगवान को अपनी आँखों से देख लिया — भगवान करुणा… प्रसन्नता… तटस्थता में विहार करते हैं।”
“जिस राग, जिस द्वेष और जिस मोह से, जीवक, हिंसक-भाव… अप्रसन्नता और प्रतिरोधी-भाव 2 उत्पन्न होते हैं, उस राग, द्वेष और मोह को तथागत त्याग देते हैं, जड़ से उखाड़ते हैं, ताड़ के ठूँठ जैसा बना देते हैं, अस्तित्व मिटा देते हैं, ताकि भविष्य में फिर प्रकट न हो। यदि तुम इससे जुड़ी बात कर रहे हो, तो उसे मैं स्वीकारता हूँ।”
“भंते, मैं बिलकुल इससे ही जुड़ी बात कर रहा था।”
“जीवक, यदि कोई तथागत या तथागत से शिष्य के उद्देश से प्राणियों को काटते हैं, वह पाँच प्रकार से बहुत अपुण्य (=पाप) कमाता है।
(१) कोई गृहस्थ कहता है, ‘जाओ, अमुक प्राणी ले आओ।’ इस पहले प्रकार से वह बहुत अपुण्य कमाता है।
(२) उस प्राणी को गले से खींचकर लाते समय दर्द और व्यथा महसूस होती है। इस दूसरे प्रकार से वह बहुत अपुण्य कमाता है।
(३) वह कहता है, ‘जाओ, इसे काटो।’ इस तीसरे प्रकार से वह बहुत अपुण्य कमाता है।
(४) उस प्राणी को काटे जाते समय दर्द और व्यथा महसूस होती है। इस चौथे प्रकार से वह बहुत अपुण्य कमाता है।
(५) वह तथागत या तथागत-शिष्य को उस तरह का भोजन अस्वीकार्य भोजन परोसता है। इस पाँचवे प्रकार से वह बहुत अपुण्य कमाता है।
यदि, जीवक, कोई तथागत या तथागत से शिष्य के उद्देश से प्राणियों को काटते हैं, वह पाँच प्रकार से बहुत अपुण्य कमाता है।”
जब ऐसा कहा गया, तब जीवक कोमारभच्च ने भगवान से कहा, “आश्चर्य है, भंते। अद्भुत है, भंते। भिक्षुगण स्वीकार्य आहार ही लेते हैं! भंते, निर्दोष आहार ही लेते हैं।
अतिउत्तम, भंते! अतिउत्तम, भंते! जैसे कोई पलटे को सीधा करे, छिपे को खोल दे, भटके को मार्ग दिखाए, या अँधेरे में दीप जलाकर दिखाए, ताकि तेज आँखों वाला स्पष्ट देख पाए — उसी तरह, भंते, भगवान ने धर्म को अनेक तरह से स्पष्ट कर दिया। भंते, मैं बुद्ध की शरण जाता हूँ! धर्म की और भिक्षुसंघ की भी! भगवान मुझे आज से लेकर प्राण रहने तक शरणागत उपासक धारण करें!”
भगवान ने ऐसा कहा। हर्षित होकर भिक्षुओं ने भगवान की बात का अभिनंदन किया।
जीवक एक अत्यंत प्रतिभाशाली वैद्य था, जिसे अपनी चमत्कारिक क्षमता के लिए जाना जाता था। साहित्य में यह उल्लेख मिलता है कि वह मगध के राजकुमार अभय द्वारा गोद लिया गया था, इसलिए उसे “कोमारभच्च” (राजकुमार द्वारा गोद लिया गया) कहते थे।
उसके जीवन के अनेक किस्से प्रसिद्ध हैं, जिनमें वह आयुर्वेद के माध्यम से अनोखे और हैरतअंगेज़ तरीकों से लोगों की पुरानी बीमारियों को ठीक कर देता था। वह उस समय किसी व्यक्ति की ब्रेन सर्जरी भी करने के लिए प्रसिद्ध था, जो उस दौर के चिकित्सा विज्ञान के लिए एक अद्वितीय और चमत्कारी कार्य माना जाता था। उसे दूर-दूर से लोग बुलाते थे, और राजाओं से मनमानी कीमत भी वसूलता था।
हालाँकि, जीवक पहले जैन परंपराओं में पला बढ़ा था। इसी सूत्र में वह बौद्ध उपासक बनता है। उसने भगवान बुद्ध को अपना आम्रवन दान में दिया और भगवान तथा भिक्षुसंघ की सेवा में मुफ्त काम करना शुरू कर दिया। कहा जाता है कि जीवक के कहने पर भगवान बुद्ध ने भिक्षुसंघ के लिए कई विनय के नियमों की स्थापना की। जीवक का योगदान बौद्ध धर्म में महत्वपूर्ण माना जाता है। ↩︎
मज्झिमनिकाय ६२ के अनुसार, सद्भावना (“मेत्ता”) का विपरीत ‘दुर्भावना’ (“ब्यापाद”) होती है। ‘करुणा’ का उल्टा ‘हिंसक-भाव’ (“विहेसा”) है। प्रसन्नता (“मुदिता”) का उल्टा ‘अप्रसन्नता’ (“अरति”) है। और तटस्थता का उल्टा ‘प्रतिरोधी-भाव’ (“पटिघ”) है। ↩︎
५१. एवं मे सुतं – एकं समयं भगवा राजगहे विहरति जीवकस्स कोमारभच्चस्स अम्बवने. अथ खो जीवको कोमारभच्चो येन भगवा तेनुपसङ्कमि; उपसङ्कमित्वा भगवन्तं अभिवादेत्वा एकमन्तं निसीदि . एकमन्तं निसिन्नो खो जीवको कोमारभच्चो भगवन्तं एतदवोच – ‘‘सुतं मेतं, भन्ते – ‘समणं गोतमं उद्दिस्स पाणं आरभन्ति [आरम्भन्ति (क.)], तं समणो गोतमो जानं उद्दिस्सकतं [उद्दिस्सकटं (सी. पी.)] मंसं परिभुञ्जति पटिच्चकम्म’न्ति. ये ते, भन्ते, एवमाहंसु – ‘समणं गोतमं उद्दिस्स पाणं आरभन्ति, तं समणो गोतमो जानं उद्दिस्सकतं मंसं परिभुञ्जति पटिच्चकम्म’न्ति, कच्चि ते, भन्ते, भगवतो वुत्तवादिनो, न च भगवन्तं अभूतेन अब्भाचिक्खन्ति, धम्मस्स चानुधम्मं ब्याकरोन्ति, न च कोचि सहधम्मिको वादानुवादो गारय्हं ठानं आगच्छती’’ति?
५२. ‘‘ये ते, जीवक, एवमाहंसु – ‘समणं गोतमं उद्दिस्स पाणं आरभन्ति, तं समणो गोतमो जानं उद्दिस्सकतं मंसं परिभुञ्जति पटिच्चकम्म’न्ति न मे ते वुत्तवादिनो, अब्भाचिक्खन्ति च मं ते असता अभूतेन. तीहि खो अहं, जीवक, ठानेहि मंसं अपरिभोगन्ति वदामि. दिट्ठं, सुतं, परिसङ्कितं – इमेहि खो अहं, जीवक , तीहि ठानेहि मंसं अपरिभोगन्ति वदामि. तीहि खो अहं, जीवक, ठानेहि मंसं परिभोगन्ति वदामि. अदिट्ठं, असुतं, अपरिसङ्कितं – इमेहि खो अहं, जीवक, तीहि ठानेहि मंसं परिभोगन्ति वदामि.
५३. ‘‘इध, जीवक, भिक्खु अञ्ञतरं गामं वा निगमं वा उपनिस्साय विहरति. सो मेत्तासहगतेन चेतसा एकं दिसं फरित्वा विहरति, तथा दुतियं, तथा ततियं, तथा चतुत्थं. इति उद्धमधो तिरियं सब्बधि सब्बत्तताय सब्बावन्तं लोकं मेत्तासहगतेन चेतसा विपुलेन महग्गतेन अप्पमाणेन अवेरेन अब्याबज्झेन फरित्वा विहरति. तमेनं गहपति वा गहपतिपुत्तो वा उपसङ्कमित्वा स्वातनाय भत्तेन निमन्तेति. आकङ्खमानोव [आकङ्खमानो (स्या. कं.)], जीवक, भिक्खु अधिवासेति . सो तस्सा रत्तिया अच्चयेन पुब्बण्हसमयं निवासेत्वा पत्तचीवरमादाय येन तस्स गहपतिस्स वा गहपतिपुत्तस्स वा निवेसनं तेनुपसङ्कमति; उपसङ्कमित्वा पञ्ञत्ते आसने निसीदति. तमेनं सो गहपति वा गहपतिपुत्तो वा पणीतेन पिण्डपातेन परिविसति. तस्स न एवं होति – ‘साधु वत मायं [मं + अयं = मायं] गहपति वा गहपतिपुत्तो वा पणीतेन पिण्डपातेन परिविसेय्याति! अहो वत मायं गहपति वा गहपतिपुत्तो वा आयतिम्पि एवरूपेन पणीतेन पिण्डपातेन परिविसेय्या’ति – एवम्पिस्स न होति. सो तं पिण्डपातं अगथितो [अगधितो (स्या. कं. क.)] अमुच्छितो अनज्झोपन्नो [अनज्झापन्नो (स्या. कं. क.)] आदीनवदस्सावी निस्सरणपञ्ञो परिभुञ्जति. तं किं मञ्ञसि, जीवक , अपि नु सो भिक्खु तस्मिं समये अत्तब्याबाधाय वा चेतेति, परब्याबाधाय वा चेतेति, उभयब्याबाधाय वा चेतेती’’ति?
‘‘नो हेतं, भन्ते’’.
‘‘ननु सो, जीवक, भिक्खु तस्मिं समये अनवज्जंयेव आहारं आहारेती’’ति?
‘‘एवं, भन्ते. सुतं मेतं, भन्ते – ‘ब्रह्मा मेत्ताविहारी’ति. तं मे इदं, भन्ते, भगवा सक्खिदिट्ठो; भगवा हि, भन्ते, मेत्ताविहारी’’ति. ‘‘येन खो, जीवक, रागेन येन दोसेन येन मोहेन ब्यापादवा अस्स सो रागो सो दोसो सो मोहो तथागतस्स पहीनो उच्छिन्नमूलो तालावत्थुकतो अनभावंकतो [अनभावकतो (सी. पी.), अनभावंगतो (स्या. कं.)] आयतिं अनुप्पादधम्मो. सचे खो ते, जीवक, इदं सन्धाय भासितं अनुजानामि ते एत’’न्ति. ‘‘एतदेव खो पन मे, भन्ते, सन्धाय भासितं’’ [भासितन्ति (स्या.)].
५४. ‘‘इध, जीवक, भिक्खु अञ्ञतरं गामं वा निगमं वा उपनिस्साय विहरति. सो करुणासहगतेन चेतसा…पे… मुदितासहगतेन चेतसा…पे… उपेक्खासहगतेन चेतसा एकं दिसं फरित्वा विहरति, तथा दुतियं, तथा ततियं, तथा चतुत्थं. इति उद्धमधो तिरियं सब्बधि सब्बत्तताय सब्बावन्तं लोकं उपेक्खासहगतेन चेतसा विपुलेन महग्गतेन अप्पमाणेन अवेरेन अब्याबज्झेन फरित्वा विहरति. तमेनं गहपति वा गहपतिपुत्तो वा उपसङ्कमित्वा स्वातनाय भत्तेन निमन्तेति. आकङ्खमानोव, जीवक, भिक्खु अधिवासेति. सो तस्सा रत्तिया अच्चयेन पुब्बण्हसमयं निवासेत्वा पत्तचीवरमादाय येन गहपतिस्स वा गहपतिपुत्तस्स वा निवेसनं तेनुपसङ्कमति; उपसङ्कमित्वा पञ्ञत्ते आसने निसीदति. तमेनं सो गहपति वा गहपतिपुत्तो वा पणीतेन पिण्डपातेन परिविसति. तस्स न एवं होति – ‘साधु वत मायं गहपति वा गहपतिपुत्तो वा पणीतेन पिण्डपातेन परिविसेय्याति! अहो वत मायं गहपति वा गहपतिपुत्तो वा आयतिम्पि एवरूपेन पणीतेन पिण्डपातेन परिविसेय्या’ति – एवम्पिस्स न होति. सो तं पिण्डपातं अगथितो अमुच्छितो अनज्झोपन्नो आदीनवदस्सावी निस्सरणपञ्ञो परिभुञ्जति. तं किं मञ्ञसि, जीवक, अपि नु सो भिक्खु तस्मिं समये अत्तब्याबाधाय वा चेतेति, परब्याबाधाय वा चेतेति, उभयब्याबाधाय वा चेतेती’’ति?
‘‘नो हेतं, भन्ते’’.
‘‘ननु सो, जीवक, भिक्खु तस्मिं समये अनवज्जंयेव आहारं आहारेती’’ति?
‘‘एवं, भन्ते. सुतं मेतं, भन्ते – ‘ब्रह्मा उपेक्खाविहारी’ति. तं मे इदं, भन्ते, भगवा सक्खिदिट्ठो; भगवा हि, भन्ते, उपेक्खाविहारी’’ति. ‘‘येन खो, जीवक, रागेन येन दोसेन येन मोहेन विहेसवा अस्स अरतिवा अस्स पटिघवा अस्स सो रागो सो दोसो सो मोहो तथागतस्स पहीनो उच्छिन्नमूलो तालावत्थुकतो अनभावंकतो आयतिं अनुप्पादधम्मो. सचे खो ते, जीवक, इदं सन्धाय भासितं, अनुजानामि ते एत’’न्ति. ‘‘एतदेव खो पन मे, भन्ते, सन्धाय भासितं’’.
५५. ‘‘यो खो, जीवक, तथागतं वा तथागतसावकं वा उद्दिस्स पाणं आरभति सो पञ्चहि ठानेहि बहुं अपुञ्ञं पसवति. यम्पि सो, गहपति, एवमाह – ‘गच्छथ, अमुकं नाम पाणं आनेथा’ति, इमिना पठमेन ठानेन बहुं अपुञ्ञं पसवति. यम्पि सो पाणो गलप्पवेठकेन [गलप्पवेधकेन (बहूसु)] आनीयमानो दुक्खं दोमनस्सं पटिसंवेदेति, इमिना दुतियेन ठानेन बहुं अपुञ्ञं पसवति. यम्पि सो एवमाह – ‘गच्छथ इमं पाणं आरभथा’ति, इमिना ततियेन ठानेन बहुं अपुञ्ञं पसवति. यम्पि सो पाणो आरभियमानो दुक्खं दोमनस्सं पटिसंवेदेति , इमिना चतुत्थेन ठानेन बहुं अपुञ्ञं पसवति. यम्पि सो तथागतं वा तथागतसावकं वा अकप्पियेन आसादेति, इमिना पञ्चमेन ठानेन बहुं अपुञ्ञं पसवति. यो खो, जीवक, तथागतं वा तथागतसावकं वा उद्दिस्स पाणं आरभति सो इमेहि पञ्चहि ठानेहि बहुं अपुञ्ञं पसवती’’ति.
एवं वुत्ते, जीवको कोमारभच्चो भगवन्तं एतदवोच – ‘‘अच्छरियं, भन्ते, अब्भुतं, भन्ते! कप्पियं वत, भन्ते, भिक्खू आहारं आहारेन्ति ; अनवज्जं वत, भन्ते, भिक्खू आहारं आहारेन्ति. अभिक्कन्तं, भन्ते, अभिक्कन्तं, भन्ते…पे… उपासकं मं भगवा धारेतु अज्जतग्गे पाणुपेतं सरणं गत’’न्ति.
जीवकसुत्तं निट्ठितं पञ्चमं.