ऐसा मैंने सुना — एक समय भगवान नालंदा में पावारिक (=कंबल व्यापारियों के) आम्रवन में विहार कर रहे थे। उस समय निगण्ठ नाटपुत्त (=महावीर जैन), निगण्ठो की विशाल परिषद के साथ नालंदा में रहते थे। 1
तब दीघ तपस्सी (=लंबा तपस्वी?) निगण्ठ (=जैन संन्यासी) नालंदा में भिक्षाटन के लिए भटक रहा था। भिक्षाटन कर भोजन करने के पश्चात वह पावारिक आम्रवन में भगवान के पास गया। जाकर भगवान के साथ वार्तालाप किया। मैत्रीपूर्ण हालचाल पूछने पर वह एक ओर खड़ा हुआ। एक ओर खड़े दीघ तपस्सी निगण्ठ से भगवान ने कहा, “तपस्सी, यहाँ बैठने का स्थान है। यदि चाहते हो तो बैठो।”
जब ऐसा कहा गया, तब दीघ तपस्सी निगण्ठ ने अपना आसन नीचे लगाया, और एक ओर बैठ गया। एक ओर बैठे दीघ तपस्सी निगण्ठ से भगवान ने कहा, “कितने तरह के कर्म, तपस्सी, निगण्ठ नाटपुत्त समझाते हैं, जिससे पाप कर्म किए जाते हैं, पाप कर्म घटित होते हैं?”
“मित्र गोतम, निगण्ठ नाटपुत्त ‘कर्म… कर्म…’ के तौर पर नहीं समझाते हैं। बल्कि, मित्र गोतम, निगण्ठ नाटपुत्त ‘दण्ड… दण्ड…’ के तौर पर समझाते हैं।”
“तब, तपस्सी, कितने तरह के “दण्ड” निगण्ठ नाटपुत्त समझाते हैं, जिससे पाप कर्म किए जाते हैं, पाप कर्म घटित होते हैं?”
“मित्र गोतम, निगण्ठ नाटपुत्त तीन तरह के दण्ड समझाते हैं, जिससे पाप कर्म किए जाते हैं, पाप कर्म घटित होते हैं —
“किन्तु, तपस्सी, क्या काया दण्ड अलग है, वाणी दण्ड अलग है, और मनो दण्ड अलग है?”
“हाँ, मित्र गोतम। काया दण्ड अलग है, वाणी दण्ड अलग है, और मनो दण्ड अलग है।”
“किन्तु, तपस्सी, जब इन तीनों दण्डों की विशिष्टता और समीक्षा की जाती है, तब कौन-सा दण्ड निगण्ठ नाटपुत्त सर्वाधिक दोषपूर्ण बताते हैं, जिससे पाप कर्म किए जाते हैं, पाप कर्म घटित होते हैं — काया दण्ड, वाणी दण्ड, या मनो दण्ड?”
“मित्र गोतम, जब इन तीनों दण्डों की विशिष्टता और समीक्षा की जाती है, तब “काया दण्ड” निगण्ठ नाटपुत्त सर्वाधिक दोषपूर्ण बताते हैं, जिससे पाप कर्म किए जाते हैं, पाप कर्म घटित होते हैं। वाणी दण्ड, और मनो दण्ड उतना नहीं। 2
“काया दण्ड कह रहे हो, तपस्सी?”
“काया दण्ड कह रहा हूँ, मित्र गोतम।”
“काया दण्ड कह रहे हो, तपस्सी?”
“काया दण्ड कह रहा हूँ, मित्र गोतम।”
“काया दण्ड कह रहे हो, तपस्सी?”
“काया दण्ड कह रहा हूँ, मित्र गोतम।”
इस तरह, तीन बार भगवान ने दीघ तपस्सी निगण्ठ को इस मुद्दे पर डटाए रखा। जब ऐसा कहा गया, तब दीघ तपस्सी निगण्ठ ने भगवान से कहा, “और तुम, मित्र गोतम, कितने तरह के दण्ड समझाते हो, जिससे पाप कर्म किए जाते हैं, पाप कर्म घटित होते हैं?”
“तपस्सी, मैं ‘दण्ड… दण्ड…’ के तौर पर नहीं समझाता हूँ। बल्कि, तपस्सी, मैं ‘कर्म… कर्म…’ के तौर पर समझाता हूँ।”
“तब, तपस्सी, कितने तरह के “कर्म” तुम समझाते हो, जिससे पाप कर्म किए जाते हैं, पाप कर्म घटित होते हैं?”
“तपस्सी, मैं तीन तरह के कर्म समझाता हूँ, जिससे पाप कर्म किए जाते हैं, पाप कर्म घटित होते हैं —
“किन्तु, मित्र गोतम, क्या काया कर्म अलग है, वाणी कर्म अलग है, और मनो कर्म अलग है?”
“हाँ, तपस्सी। काया कर्म अलग है, वाणी कर्म अलग है, और मनो कर्म अलग है।”
“किन्तु, मित्र गोतम, जब इन तीनों कर्मों की विशिष्टता और समीक्षा की जाती है, तब कौन-सा कर्म तुम सर्वाधिक दोषपूर्ण बताते हैं, जिससे पाप कर्म किए जाते हैं, पाप कर्म घटित होते हैं — काया कर्म, वाणी कर्म, या मनो कर्म?”
“तपस्सी, जब इन तीनों कर्मों की विशिष्टता और समीक्षा की जाती है, तब मैं “मनो कर्म” को सर्वाधिक दोषपूर्ण बताता हूँ, जिससे पाप कर्म किए जाते हैं, पाप कर्म घटित होते हैं। काया कर्म, और वाणी कर्म उतना नहीं।”
“मनो कर्म कह रहे हो, मित्र गोतम?”
“मनो कर्म कह रहा हूँ, तपस्सी।”
“मनो कर्म कह रहे हो, मित्र गोतम?”
“मनो कर्म कह रहा हूँ, तपस्सी।”
“मनो कर्म कह रहे हो, मित्र गोतम?”
“मनो कर्म कह रहा हूँ, तपस्सी।”
इस तरह, तीन बार दीघ तपस्सी निगण्ठ ने भगवान को इस मुद्दे पर डटाए रखा, और आसन से उठकर निगण्ठ नाटपुत्त के पास गया।
उस समय निगण्ठ नाटपुत्त गृहस्थों की विशाल परिषद, उपालि के नेतृत्व में बालकी परिषद, के साथ बैठा हुआ था। निगण्ठ नाटपुत्त ने दूर से दीघ तपस्सी निगण्ठ को आते हुए देखा। देखकर दीघ तपस्सी निगण्ठ को कहा, “कहाँ से आ रहे हो, तपस्सी, दिन के बीच में?”
“भंते, मैं अभी-अभी श्रमण गौतम के पास से आ रहा हूँ।”
“तो, तपस्सी, क्या श्रमण गौतम के साथ कोई वार्तालाप हुआ?”
“हाँ, भंते, श्रमण गौतम के साथ वार्तालाप हुआ।”
“क्या वार्तालाप हुआ श्रमण गौतम के साथ, तपस्सी?”
तब, दीघ तपस्सी निगण्ठ ने निगण्ठ नाटपुत्त को भगवान के साथ हुए वार्तालाप को सब ज्यों-का-त्यों सुना दिया। जब ऐसा कहा गया, तब निगण्ठ नाटपुत्त ने दीघ तपस्सी निगण्ठ से कहा, “साधु, साधु, तपस्सी। जैसे कोई श्रुतवान (=अच्छे से धर्म सुना) शिष्य अपने शास्ता की सीख को सम्यक रूप से समझाता है, उसी तरह दीघ तपस्सी निगण्ठ ने श्रमण गोतम को उत्तर दिया है।
भला, मामूली से ‘मनो दण्ड’ की स्थूल ‘काया दण्ड’ के मुकाबले क्या छाप पड़ती है? बल्कि ‘काया दण्ड’ ही सर्वाधिक दोषपूर्ण होता है, जिससे पाप कर्म किए जाते हैं, पाप कर्म घटित होते हैं। वाणी दण्ड, और मनो दण्ड उतना नहीं।”
जब ऐसा कहा गया, तब उपालि गृहस्थ ने निगण्ठ नाटपुत्त से कहा, “साधु साधु, भंते दीघ तपस्सी! जैसे कोई श्रुतवान शिष्य अपने शास्ता की सीख को सम्यक रूप से समझाता है, उसी तरह दीघ तपस्सी निगण्ठ ने श्रमण गोतम को उत्तर दिया है। भला, मामूली से ‘मनो दण्ड’ की स्थूल ‘काया दण्ड’ के मुकाबले क्या छाप पड़ती है? बल्कि ‘काया दण्ड’ ही सर्वाधिक दोषपूर्ण होता है, जिससे पाप कर्म किए जाते हैं, पाप कर्म घटित होते हैं। वाणी दण्ड, और मनो दण्ड उतना नहीं।
भंते, मुझे जाकर श्रमण गौतम से इस मुद्दे पर वाद-विवाद करना चाहिए। यदि श्रमण गोतम डटते हैं, जिस तरह भदंत तपस्सी के साथ डटे, तब जैसे कोई बलवान पुरुष, किसी ऊनी मुलायम भेड़ को बाल से पकड़कर ऐसा खींचता है, वैसा खींचता है, गोल-गोल घुमाता है — उसी तरह मैं भी वाद-विवाद कर श्रमण गौतम को ऐसा खिचूँगा, वैसा खिचूँगा, गोल-गोल घुमाऊँगा।
जैसे कोई शराब बनाने वाला बलवान कामगार, बड़े से छलने को गहरी टंकी में डालकर, उसके कोनों से पकड़कर ऐसा खींचता है, वैसा खींचता है, गोल-गोल घुमाता है — उसी तरह मैं भी श्रमण गौतम से वाद-विवाद कर ऐसा खिचूँगा, वैसा खिचूँगा, गोल-गोल घुमाऊँगा। 3
जैसे कोई शराबख़ाने का पहलवान गुंडा, घोड़े के बाल से बने छलने को कोनों से पकड़कर ऐसा झाड़ता है, वैसा झकझोरता है, पटक-पटककर मारता है — उसी तरह मैं भी श्रमण गौतम से वाद-विवाद से ऐसा झाड़ूँगा, वैसा झकझोरूँगा, पटक-पटककर मारूँगा। 4
जैसे कोई साठ बरस का हाथी, गहरे सरोवर में उतरकर सन धोने का खेल खेलता है — उसी तरह मैं भी श्रमण गौतम को सन धोने का खेल समझकर खेलूँगा। 5 भंते, मुझे जाकर श्रमण गौतम से इस मुद्दे पर वाद-विवाद करना चाहिए।”
“जाओ, गृहस्थ, श्रमण गौतम से इस मुद्दे पर वाद-विवाद करो। गृहस्थ, या तो मुझे जाकर श्रमण गौतम से वाद-विवाद करना चाहिए, या दीघ तपस्सी को, या तुम्हें।”
जब ऐसा कहा गया, तब दीघ तपस्सी निगण्ठ ने निगण्ठ नाटपुत्त को कहा, “भंते, मुझे नहीं लगता कि उपालि गृहस्थ को जाकर श्रमण गोतम से वाद-विवाद करना चाहिए। भंते, श्रमण गोतम मायावी (=जादूगर) है। वह लपेटने (=धर्म परिवर्तन) का जादू जानता है, और परधर्मिक शिष्यों को लपेट लेता है।”
“यह असंभव है, तपस्सी। ऐसा नहीं हो सकता कि उपालि गृहस्थ श्रमण गोतम का श्रावक बन जाए। बल्कि, यह संभव है, ऐसा हो सकता है कि श्रमण गोतम उपालि गृहस्थ का श्रावक बन जाए। जाओ, गृहस्थ, श्रमण गौतम से इस मुद्दे पर वाद-विवाद करो। गृहस्थ, या तो मुझे जाकर श्रमण गौतम से वाद-विवाद करना चाहिए, या दीघ तपस्सी को, या तुम्हें।”
तब, दूसरी बार दीघ तपस्सी निगण्ठ ने निगण्ठ नाटपुत्त को कहा, “भंते, मुझे नहीं लगता कि उपालि गृहस्थ को जाकर श्रमण गोतम से वाद-विवाद करना चाहिए। भंते, श्रमण गोतम मायावी है। वह लपेटने का जादू जानता है, और परधर्मिक शिष्यों को लपेट लेता है।”
“यह असंभव है, तपस्सी। ऐसा नहीं हो सकता कि उपालि गृहस्थ श्रमण गोतम का श्रावक बन जाए। बल्कि, यह संभव है, ऐसा हो सकता है कि श्रमण गोतम उपालि गृहस्थ का श्रावक बन जाए। जाओ, गृहस्थ, श्रमण गौतम से इस मुद्दे पर वाद-विवाद करो। गृहस्थ, या तो मुझे जाकर श्रमण गौतम से वाद-विवाद करना चाहिए, या दीघ तपस्सी को, या तुम्हें।”
तब, तीसरी बार दीघ तपस्सी निगण्ठ ने निगण्ठ नाटपुत्त को कहा, “भंते, मुझे नहीं लगता कि उपालि गृहस्थ को जाकर श्रमण गोतम से वाद-विवाद करना चाहिए। भंते, श्रमण गोतम मायावी है। वह लपेटने का जादू जानता है, और परधर्मिक शिष्यों को लपेट लेता है।”
“यह असंभव है, तपस्सी। ऐसा नहीं हो सकता कि उपालि गृहस्थ श्रमण गोतम का श्रावक बन जाए। बल्कि, यह संभव है, ऐसा हो सकता है कि श्रमण गोतम उपालि गृहस्थ का श्रावक बन जाए। जाओ, गृहस्थ, श्रमण गौतम से इस मुद्दे पर वाद-विवाद करो। गृहस्थ, या तो मुझे जाकर श्रमण गौतम से वाद-विवाद करना चाहिए, या दीघ तपस्सी को, या तुम्हें।”
“ठीक है, भंते।” उपालि गृहस्थ ने निगण्ठ नाटपुत्त को उत्तर दिया। और आसन से उठकर निगण्ठ नाटपुत्त को अभिवादन कर, प्रदक्षिणा करते हुए पावारिक आम्रवन में भगवान के पास गया। जाकर भगवान को अभिवादन कर एक ओर बैठ गया।
एक ओर बैठ कर उपालि गृहस्थ ने भगवान से कहा, “भंते, क्या यहाँ दीघ तपस्सी निगण्ठ आए थे?”
“हाँ, गृहस्थ। यहाँ दीघ तपस्सी निगण्ठ आया था।”
“भंते, क्या आप का दीघ तपस्सी निगण्ठ के साथ वार्तालाप हुआ?”
“हाँ, गृहस्थ। मेरा दीघ तपस्सी निगण्ठ के साथ वार्तालाप हुआ।”
“भंते, आप का दीघ तपस्सी निगण्ठ के साथ क्या वार्तालाप हुआ?”
तब भगवान ने उपालि गृहस्थ को दीघ तपस्सी निगण्ठ के साथ हुए वार्तालाप को सब ज्यों-का-त्यों सुना दिया। जब ऐसा कहा गया, तब उपालि गृहस्थ ने भगवान से कहा, “साधु साधु, भंते दीघ तपस्सी को! जैसे कोई श्रुतवान शिष्य अपने शास्ता की सीख को सम्यक रूप से समझाता है, उसी तरह दीघ तपस्सी निगण्ठ ने भगवान को उत्तर दिया है। भला, मामूली से ‘मनो दण्ड’ की स्थूल ‘काया दण्ड’ के मुकाबले क्या छाप पड़ती है? बल्कि ‘काया दण्ड’ ही सर्वाधिक दोषपूर्ण होता है, जिससे पाप कर्म किए जाते हैं, पाप कर्म घटित होते हैं। वाणी दण्ड, और मनो दण्ड उतना नहीं।"
“गृहस्थ, यदि तुम सच्चाई के आधार पर विचार-विमर्श करो, तो हमारा संवाद सार्थक हो सकता है।”
“भंते, मैं सच्चाई के आधार पर विचार-विमर्श करूँगा। हमारा संवाद हो।”
“तुम्हें क्या लगता है, गृहस्थ? कोई निगण्ठ बीमार, गंभीर रोग से पीड़ित हो, जो शीतल जल नकारता हो, केवल गर्म जल का सेवन करता हो। वह शीतल जल न लेने से मर जाता है। तब, गृहस्थ, निगण्ठ नाटपुत्त उसका पुनर्जन्म क्या बताते हैं?”
“भंते, ‘मनो सत्व’ नामक देव होते हैं, वहाँ उसका पुनर्जन्म होगा।”
“ऐसा क्यों?”
“क्योंकि, भंते, वह मन से प्रतिबद्ध होकर मरता है।”
“ध्यान दो, गृहस्थ, और सोच-समझकर उत्तर दो। तुम्हारी पूर्व की बात पश्चात की बात से नहीं जुड़ती, और न ही पश्चात की बात पूर्व से जुड़ती है। जबकि, गृहस्थ, तुमने कहा है, ‘भंते, मैं सच्चाई के आधार पर विचार-विमर्श करूँगा। हमारा संवाद हो।’”
“भले ही, भंते, भगवान ऐसा कहें, तब भी ‘काया दण्ड’ ही सर्वाधिक दोषपूर्ण होता है, जिससे पाप कर्म किए जाते हैं, पाप कर्म घटित होते हैं। वाणी दण्ड, और मनो दण्ड उतना नहीं।”
“अच्छा, तुम्हें क्या लगता है, गृहस्थ? निगण्ठ नाटपुत्त चार आयाम के संवर से संवृत हो, सभी तरह के संयम से संयमित हो, सभी तरह के संयम में बंध, सभी तरह के संयम से शुद्ध हो, सभी तरह के संयम को पाते हैं। वे आगे बढ़ते हुए और लौटते हुए बहुत से छोटे-छोटे जीव-जंतुओं को आहत करते हैं। तब, गृहस्थ, निगण्ठ नाटपुत्त उसका परिणाम क्या बताते हैं?”
“भंते, निगण्ठ नाटपुत्त बिना इरादे के किए (कर्म) को बड़ा दोष नहीं बताते हैं।”
“और, यदि इरादे से हो, तो?”
“तब, भंते, बड़ा दोष होता है।”
“किन्तु, गृहस्थ, निगण्ठ नाटपुत्त इरादे (“चेतना”) को किसमें बताते हैं?”
“मनो दण्ड में, भंते।”
“ध्यान दो, गृहस्थ, और सोच-समझकर उत्तर दो। तुम्हारी पूर्व की बात पश्चात की बात से नहीं जुड़ती, और न ही पश्चात की बात पूर्व से जुड़ती है। जबकि, गृहस्थ, तुमने कहा है, ‘भंते, मैं सच्चाई के आधार पर विचार-विमर्श करूँगा। हमारा संवाद हो।’”
“भले ही, भंते, भगवान ऐसा कहें, तब भी ‘काया दण्ड’ ही सर्वाधिक दोषपूर्ण होता है, जिससे पाप कर्म किए जाते हैं, पाप कर्म घटित होते हैं। वाणी दण्ड, और मनो दण्ड उतना नहीं।”
“अच्छा, तुम्हें क्या लगता है, गृहस्थ? क्या यह नालंदा शक्तिशाली, समृद्ध, और घनी आबादी वाला नगर है?”
“हाँ, भंते। यह नालंदा शक्तिशाली, समृद्ध, और घनी आबादी वाला नगर है।”
“तुम्हें क्या लगता है, गृहस्थ? यदि कोई पुरुष तलवार तान कर आता है और कहता है, ‘मैं इस नालंदा के सभी जीवों को एक ही क्षण में, एक ही मुहूर्त में, मांस के एक ढ़ेर में, मांस के एक पुंज में बदल दूँगा!’ तुम्हें क्या लगता है, गृहस्थ? क्या वह पुरुष वाकई नालंदा के सभी जीवों को एक ही क्षण में, एक ही मुहूर्त में, मांस के एक ढ़ेर में, मांस के एक पुंज में बदल सकता है?”
“दस पुरुष, भंते, बीस पुरुष भी, भंते, तीस पुरुष भी, भंते, चालीस पुरुष भी, भंते, बल्कि पचास पुरुष मिलकर भी, भंते, नालंदा के सभी जीवों को एक ही क्षण में, एक ही मुहूर्त में, मांस के एक ढ़ेर में, मांस के एक पुंज में नहीं बदल सकते हैं। तो भला एक पुरुष की क्या बिसात?”
“तुम्हें क्या लगता है, गृहस्थ? यदि कोई ऋद्धिमानी, चित्त पर वश पा चुका श्रमण या ब्राह्मण आता है, और कहता है, ‘मैं अपने एक गुस्से (के कर्म से) से नालंदा को भस्म कर दूँगा!’ तुम्हें क्या लगता है, गृहस्थ? क्या वह ऋद्धिमानी, चित्त पर वश पा चुका श्रमण या ब्राह्मण अपने एक गुस्से से नालंदा को भस्म कर सकता है?”
“दस नालंदा, भंते, बीस नालंदा भी, भंते, तीस नालंदा भी, भंते, चालीस नालंदा भी, भंते, बल्कि पचास नालंदा को भी, भंते, कोई ऋद्धिमानी, चित्त पर वश पा चुका श्रमण या ब्राह्मण अपने एक गुस्से से भस्म कर सकता है। तो भला एक नालंदा की क्या बिसात?”
“ध्यान दो, गृहस्थ, और सोच-समझकर उत्तर दो। तुम्हारी पूर्व की बात पश्चात की बात से नहीं जुड़ती, और न ही पश्चात की बात पूर्व से जुड़ती है। जबकि, गृहस्थ, तुमने कहा है, ‘भंते, मैं सच्चाई के आधार पर विचार-विमर्श करूँगा। हमारा संवाद हो।’”
“भले ही, भंते, भगवान ऐसा कहें, तब भी ‘काया दण्ड’ ही सर्वाधिक दोषपूर्ण होता है, जिससे पाप कर्म किए जाते हैं, पाप कर्म घटित होते हैं। वाणी दण्ड, और मनो दण्ड उतना नहीं।”
“अच्छा, तुम्हें क्या लगता है, गृहस्थ? क्या तुमने सुना है कि दण्डक जंगल, कालिङ्ग जंगल, मज्झ जंगल, मातङ्ग जंगल, ये जंगल ‘जंगल’ कैसे बनें?” 6
“हाँ, भंते। मैंने सुना है कि दण्डक जंगल, कालिङ्ग जंगल, मज्झ जंगल, मातङ्ग जंगल, ये जंगल ‘जंगल’ कैसे बनें।”
“तुमने क्या सुना है, गृहस्थ? दण्डक जंगल, कालिङ्ग जंगल, मज्झ जंगल, मातङ्ग जंगल, ये जंगल ‘जंगल’ कैसे बनें?”
“भंते, मैंने सुना है कि एक ऋषि ने गुस्से से आकर दण्डक जंगल, कालिङ्ग जंगल, मज्झ जंगल, मातङ्ग जंगल को ‘जंगल’ बना दिया।”
“ध्यान दो, गृहस्थ, और सोच-समझकर उत्तर दो। तुम्हारी पूर्व की बात पश्चात की बात से नहीं जुड़ती, और न ही पश्चात की बात पूर्व से जुड़ती है। जबकि, गृहस्थ, तुमने कहा है, ‘भंते, मैं सच्चाई के आधार पर विचार-विमर्श करूँगा। हमारा संवाद हो।’”
“भंते, मैं भगवान की पहली ही उपमा से हर्षित और प्रसन्न हो गया था। किन्तु मुझे भगवान के तरह-तरह के प्रश्नोत्तरों को सुनने की कामना थी। इसलिए मुझे लगा कि भगवान को विपक्षी बनाना चाहिए।
अतिउत्तम, भंते! अतिउत्तम, भंते! जैसे कोई पलटे को सीधा करे, छिपे को खोल दे, भटके को मार्ग दिखाए, या अँधेरे में दीप जलाकर दिखाए, ताकि तेज आँखों वाला स्पष्ट देख पाए — उसी तरह भगवान ने धर्म को अनेक तरह से स्पष्ट कर दिया। मैं बुद्ध की शरण जाता हूँ! धर्म की और संघ की भी! भगवान मुझे आज से लेकर प्राण रहने तक शरणागत उपासक धारण करें!”
“सोच-समझकर ऐसा (कृत्य) करो, गृहस्थ। अच्छा होगा, जो तुम जैसा प्रसिद्ध मनुष्य बहुत सोच-समझकर ऐसा करें।”
“अब तो, भंते, मैं भगवान से और भी अधिक हर्षित और प्रसन्न हुआ, जो भगवान मुझे कहते हैं, ‘सोच-समझकर ऐसा करो, गृहस्थ। अच्छा होगा, जो तुम जैसा प्रसिद्ध मनुष्य बहुत सोच-समझकर ऐसा करें।’ यदि किसी परधर्मी को, भंते, मेरे जैसा शिष्य प्राप्त होगा, तो वे पूरे नालंदा में पताका लगाकर घूमेंगे — ‘उपालि गृहस्थ हमारा शिष्य बन गया!’
किन्तु, भगवान मुझे कहते हैं, ‘सोच-समझकर ऐसा करो, गृहस्थ। अच्छा होगा, जो तुम जैसा प्रसिद्ध मनुष्य बहुत सोच-समझकर ऐसा करें।’ मैं दूसरी बार बुद्ध, धर्म और संघ की शरण जाता हूँ! भगवान मुझे आज से लेकर प्राण रहने तक शरणागत उपासक धारण करें!”
“गृहस्थ, तुम्हारे परिवार का द्वार दीर्घकाल तक निगण्ठों को कुंवे जैसा आधार देते रहा है, जिन्हें तुम्हें आगे भी भिक्षा देते रहना चाहिए।”
“अब तो, भंते, मैं भगवान से और भी अधिक हर्षित और प्रसन्न हुआ, जो भगवान मुझे कहते हैं, ‘गृहस्थ, तुम्हारे परिवार का द्वार दीर्घकाल तक निगण्ठों को कुंवे जैसा आधार देते रहा है, जिन्हें तुम्हें आगे भी भिक्षा देते रहना चाहिए।’
भंते, मैंने सुना था कि — ‘श्रमण गोतम कहते हैं, “मुझे ही दक्षिणा दी जानी चाहिए, पराए को नहीं। मेरे शिष्यों को ही दक्षिणा दी जानी चाहिए, पराए शिष्यों को नहीं। मुझे ही दक्षिणा देने से महाफल प्राप्त होता है, पराए को देने से नहीं। मेरे शिष्यों को ही दक्षिणा देने से महाफल प्राप्त होता है, पराए शिष्यों को देने से नहीं।’ किन्तु, यहाँ भगवान मुझे निगण्ठों को दान देने के लिए प्रेरित कर रहे हैं।
ठीक है, भंते, मुझे उस (दान) का (उचित) समय पता चलेगा। मैं तीसरी बार बुद्ध, धर्म और संघ की शरण जाता हूँ! भगवान मुझे आज से लेकर प्राण रहने तक शरणागत उपासक धारण करें!”
तब, भगवान ने उपालि गृहस्थ को अनुक्रम से धर्म बताया — जैसे, दान कथा, शील कथा, स्वर्ग कथा; फ़िर कामुकता में ख़ामी, दुष्परिणाम और दूषितता, और अंततः संन्यास के लाभ प्रकाशित किए। और जब भगवान ने जान लिया कि उपालि गृहस्थ का तैयार चित्त है, मृदु चित्त है, अवरोध-विहीन चित्त है, प्रसन्न चित्त है, आश्वस्त चित्त है, तब उन्होने बुद्ध-विशेष धर्मदेशना को उजागर किया — दुःख, उत्पत्ति, निरोध, मार्ग।
जैसे कोई स्वच्छ, बेदाग वस्त्र भली प्रकार रंग पकड़ता है, उसी तरह उपालि गृहस्थ को उसी आसन पर बैठकर धूलरहित, निर्मल धर्मचक्षु उत्पन्न हुए — “जो धर्म उत्पत्ति-स्वभाव के हैं, सब निरोध-स्वभाव के हैं!”
तब धर्म देख चुका, धर्म पा चुका, धर्म जान चुका, धर्म में गहरे उतर चुका उपालि गृहस्थ संदेह लाँघकर परे चला गया। तब उसे कोई सवाल न बचे। उसे निडरता प्राप्त हुई, तथा वह शास्ता के शासन में स्वावलंबी हुआ।
तब उसने भगवान से कहा, “ठीक है, भन्ते! तब अनुमति चाहता हूँ। बहुत कर्तव्य हैं मेरे। बहुत जिम्मेदारियाँ हैं।”
“तब, गृहस्थ, जिसका समय उचित समझो!”
तब उपालि गृहस्थ ने भगवान की बातों का अभिनन्दन करते हुए, अनुमोदन करते हुए, आसन से उठकर भगवान को अभिवादन करते हुए, प्रदक्षिणा करते हुए स्वयं के घर गया। जाकर द्वारपाल को संबोधित किया, “भले द्वारपाल! आज से हमारे द्वार को निगण्ठों और निगण्ठियों के लिए बंद करो, और भगवान के भिक्षुओं, भिक्षुणियों, उपासकों, उपासिकाओं के लिए खोल दो। यदि कोई निगण्ठ आए तो उसे कहो, ‘रुक जाओ, भंते, प्रवेश मत करो। अब से उपालि गृहस्थ श्रमण गोतम का शिष्य बन गया है। उसका द्वार निगण्ठों और निगण्ठियों के लिए बंद है, जबकि भगवान के भिक्षुओं, भिक्षुणियों, उपासकों, उपासिकाओं के लिए खुला है। यदि आपको भिक्षा चाहिए, भंते, तो वही रुक जाओ। तुम्हारे लिए यही लायी जाएगी।’”
“ठीक है, स्वामी।” द्वारपाल ने उपालि गृहस्थ को उत्तर दिया।
तब दीघ तपस्सी निगण्ठ ने सुना, “उपालि गृहस्थ श्रमण गोतम का शिष्य बन गया है।” तब दीघ तपस्सी निगण्ठ निगण्ठ नाटपुत्त के पास गया, और जाकर निगण्ठ नाटपुत्त से कहा, “भंते, मैंने सुना है कि उपालि गृहस्थ श्रमण गोतम का शिष्य बन गया है।”
“यह असंभव है, तपस्सी। ऐसा नहीं हो सकता कि उपालि गृहस्थ श्रमण गोतम का श्रावक बन जाए। बल्कि, यह संभव है, ऐसा हो सकता है कि श्रमण गोतम उपालि गृहस्थ का श्रावक बन जाए।”
तब दूसरी बार, दीघ तपस्सी निगण्ठ ने निगण्ठ नाटपुत्त से कहा, “भंते, किन्तु मैंने ऐसे सुना कि उपालि गृहस्थ श्रमण गोतम का शिष्य बन गया है।”
“यह असंभव है, तपस्सी। ऐसा नहीं हो सकता कि उपालि गृहस्थ श्रमण गोतम का श्रावक बन जाए। बल्कि, यह संभव है, ऐसा हो सकता है कि श्रमण गोतम उपालि गृहस्थ का श्रावक बन जाए।”
तब तीसरी बार, दीघ तपस्सी निगण्ठ ने निगण्ठ नाटपुत्त से कहा, “भंते, किन्तु मैंने सुना कि उपालि गृहस्थ श्रमण गोतम का शिष्य बन गया है।”
“यह असंभव है, तपस्सी। ऐसा नहीं हो सकता कि उपालि गृहस्थ श्रमण गोतम का श्रावक बन जाए। बल्कि, यह संभव है, ऐसा हो सकता है कि श्रमण गोतम उपालि गृहस्थ का श्रावक बन जाए।” 7
“ठीक है, भंते, मैंने जाकर पता लगाता हूँ कि क्या उपालि गृहस्थ वाकई श्रमण गोतम का श्रावक बन गया है, अथवा नहीं।”
“जाओ, तपस्सी, पता लगाओ कि क्या उपालि गृहस्थ वाकई श्रमण गोतम का श्रावक बन गया है, अथवा नहीं।”
तब दीघ तपस्सी निगण्ठ उपालि गृहस्थ के घर गया। तब द्वारपाल ने दीघ तपस्सी निगण्ठ को दूर से आते हुए देखा। देखकर उसने दीघ तपस्सी निगण्ठ से कहा, “रुक जाओ, भंते, प्रवेश मत करो। अब से उपालि गृहस्थ श्रमण गोतम का शिष्य बन गया है। उसका द्वार निगण्ठों और निगण्ठियों के लिए बंद है, जबकि भगवान के भिक्षुओं, भिक्षुणियों, उपासकों, उपासिकाओं के लिए खुला है। यदि आपको भिक्षा चाहिए, भंते, तो वही रुक जाओ। तुम्हारे लिए यही लायी जाएगी।”
“नहीं, मित्र, मुझे भिक्षा नहीं चाहिए,” कहते हुए, वह पलटा और निगण्ठ नाटपुत्त के पास गया। जाकर निगण्ठ नाटपुत्त से कहा, “यह सच है, भंते, कि उपालि गृहस्थ वाकई श्रमण गोतम का शिष्य बन गया है। मुझे, भंते, आप से कुछ नहीं मिला, जब मैंने आप से कहा भी कि ‘भंते, मुझे नहीं लगता कि उपालि गृहस्थ को जाकर श्रमण गोतम से वाद-विवाद करना चाहिए। भंते, श्रमण गोतम मायावी है। वह लपेटने का जादू जानता है, और परधर्मिक शिष्यों को लपेट लेता है।’ भंते, उपालि गृहस्थ को श्रमण गोतम ने अपनी जादू से लपेट लिया है।”
“यह असंभव है, तपस्सी। ऐसा नहीं हो सकता कि उपालि गृहस्थ श्रमण गोतम का श्रावक बन जाए। बल्कि, यह संभव है, ऐसा हो सकता है कि श्रमण गोतम उपालि गृहस्थ का श्रावक बन जाए।”
तब दूसरी बार, दीघ तपस्सी निगण्ठ ने निगण्ठ नाटपुत्त से कहा, “भंते, यह सच है कि उपालि गृहस्थ वाकई श्रमण गोतम का शिष्य बन गया है। मुझे, भंते, आप से कुछ नहीं मिला, जब मैंने आप से कहा भी कि ‘भंते, मुझे नहीं लगता कि उपालि गृहस्थ को जाकर श्रमण गोतम से वाद-विवाद करना चाहिए। भंते, श्रमण गोतम मायावी है। वह लपेटने का जादू जानता है, और परधर्मिक शिष्यों को लपेट लेता है।’ भंते, उपालि गृहस्थ को श्रमण गोतम ने अपनी जादू से लपेट लिया है।”
“यह असंभव है, तपस्सी। ऐसा नहीं हो सकता कि उपालि गृहस्थ श्रमण गोतम का श्रावक बन जाए। बल्कि, यह संभव है, ऐसा हो सकता है कि श्रमण गोतम उपालि गृहस्थ का श्रावक बन जाए।”
तब तीसरी बार, दीघ तपस्सी निगण्ठ ने निगण्ठ नाटपुत्त से कहा, “भंते, यह सच है कि उपालि गृहस्थ वाकई श्रमण गोतम का शिष्य बन गया है। मुझे, भंते, आप से कुछ नहीं मिला, जब मैंने आप से कहा भी कि ‘भंते, मुझे नहीं लगता कि उपालि गृहस्थ को जाकर श्रमण गोतम से वाद-विवाद करना चाहिए। भंते, श्रमण गोतम मायावी है। वह लपेटने का जादू जानता है, और परधर्मिक शिष्यों को लपेट लेता है।’ भंते, उपालि गृहस्थ को श्रमण गोतम ने अपनी जादू से लपेट लिया है।”
“ठीक है, तपस्सी, तब मैं जाकर स्वयं पता लगाता हूँ कि क्या उपालि गृहस्थ वाकई श्रमण गोतम का श्रावक बन गया है, अथवा नहीं।”
तब, निगण्ठ नाटपुत्त विशाल निगण्ठ परिषद के साथ उपालि गृहस्थ के घर गया। तब द्वारपाल ने दीघ तपस्सी निगण्ठ को दूर से आते हुए देखा। देखकर उसने दीघ तपस्सी निगण्ठ से कहा, “रुक जाओ, भंते, प्रवेश मत करो। अब से उपालि गृहस्थ श्रमण गोतम का शिष्य बन गया है। उसका द्वार निगण्ठों और निगण्ठियों के लिए बंद है, जबकि भगवान के भिक्षुओं, भिक्षुणियों, उपासकों, उपासिकाओं के लिए खुला है। यदि आपको भिक्षा चाहिए, भंते, तो वही रुक जाओ। तुम्हारे लिए यही लायी जाएगी।”
“ठीक है, भले द्वारपाल, तब तुम उपालि गृहस्थ के पास जाओ, और जाकर उपालि गृहस्थ से कहो, ‘स्वामी, निगण्ठ नाटपुत्त विशाल निगण्ठ परिषद के साथ द्वार के बाहर खड़े हैं। वे आप का दर्शन करना चाहते हैं।’”
“ठीक है, भंते।” द्वारपाल ने निगण्ठ नाटपुत्त को उत्तर देकर उपालि गृहस्थ के पास गया। जाकर उपालि गृहस्थ से कहा, “स्वामी, निगण्ठ नाटपुत्त विशाल निगण्ठ परिषद के साथ द्वार के बाहर खड़े हैं। वे आप का दर्शन करना चाहते हैं।”
“ठीक है, भले द्वारपाल। बीच की द्वारशाला में आसन बिछाओ।”
“ठीक है, स्वामी।” द्वारपाल ने उपालि गृहस्थ को उत्तर देकर बीच की द्वारशाला में आसन लगाया और तब उपालि गृहस्थ के पास गया। जाकर उपालि गृहस्थ से कहा, “स्वामी, बीच की द्वारशाला में आसन बिछा दिए गए हैं। आप जो समय उचित समझे।”
तब उपालि गृहस्थ बीच की द्वारशाला में गया, और जाकर सबसे ऊँचे, श्रेष्ठ, उत्तम, सर्वोत्तम आसन पर बैठकर द्वारपाल को संबोधित किया, “ठीक है तब, भले द्वारपाल। निगण्ठ नाटपुत्त के पास जाओ, और जाकर निगण्ठ नाटपुत्त से कहो, ‘भंते, उपालि गृहस्थ कहता है — भंते, आपकी आकांक्षा हो तो प्रवेश करें।’”
“ठीक है, स्वामी।” द्वारपाल ने उपालि गृहस्थ को उत्तर देकर निगण्ठ नाटपुत्त के पास गया, और जाकर निगण्ठ नाटपुत्त से कहा, “भंते, उपालि गृहस्थ कहता है — ‘भंते, आपकी आकांक्षा हो तो प्रवेश करें।’”
तब निगण्ठ नाटपुत्त विशाल निगण्ठ परिषद के साथ बीच के द्वारशाला गया।
अब, इसके पहले जब भी उपालि गृहस्थ निगण्ठ नाटपुत्त को दूर से आते हुए देखता, तो वह स्वयं उनका स्वागत करने के लिए जाता। और फिर सबसे ऊँचे, श्रेष्ठ, उत्तम, सर्वोत्तम आसन को अपने बाहरी वस्त्र से पोछकर, उन्हें लाकर वहाँ बिठाता।
किन्तु, अब, सबसे ऊँचे, श्रेष्ठ, उत्तम, सर्वोत्तम आसन पर स्वयं बैठकर, उसने निगण्ठ नाटपुत्त से कहा, “भंते, यहाँ बैठने का स्थान है। यदि चाहते हो तो बैठो।”
जब ऐसा कहा गया, तो निगण्ठ नाटपुत्त ने उपालि गृहस्थ से कहा, “पागल हो गए हो तुम, गृहस्थ! बेवकूफ हो गए हो तुम, गृहस्थ! तुम कहकर गए थे, ‘भंते, मैं जाकर श्रमण गोतम के सिद्धान्त का खण्डन करूँगा,’ और उसी के सिद्धांतों के महाजाल में फँस कर लौटे हो!
जैसे, गृहस्थ, कोई पुरुष किसी के अंड निकालने जाए और स्वयं के दोनों अंड निकाल कर लौटे। जैसे कोई पुरुष किसी के आँखें निकालने जाए और स्वयं के दोनों आँखें निकाल कर अंधा लौटे। उसी तरह, गृहस्थ, तुम कहकर गए थे, ‘भंते, मैं जाकर श्रमण गोतम के सिद्धान्त का खण्डन करूँगा,’ और उसी के सिद्धांतों के महाजाल में फँस कर लौटे हो!
श्रमण गोतम ने तुम्हें अपने जादू में लपेट लिया है, गृहस्थ!”
“बड़ा मंगलकारी है, भंते, इस जादू में लपेटा जाना! बड़ा कल्याणकारी है, भंते, इस जादू में लपेटा जाना! काश, मेरे प्रिय परिजन और रिश्तेदार भी इसी जादू में लपेटे जाए! वह उनके लिए दीर्घकाल तक हितकारी और सुखदायी होगा!
काश, भंते, सब के सब क्षत्रिय इसी जादू में लपेटे जाए! वह उनके लिए दीर्घकाल तक हितकारी और सुखदायी होगा! काश, भंते, सब के सब ब्राह्मण… वैश्य… शूद्र इसी जादू में लपेटे जाए! वह उनके लिए दीर्घकाल तक हितकारी और सुखदायी होगा!
काश, भंते, देव, मार, ब्रह्मा, श्रमण, ब्राह्मण, राजा और जनता से भरा यह पूरा लोक इसी जादू में लपेटे जाए! वह सबके लिए दीर्घकाल तक हितकारी और सुखदायी होगा!
ठीक है, भंते, मैं एक उपमा देता हूँ। क्योंकि उपमा से कोई समझदार पुरुष बताए का अर्थ समझ जाता है। बहुत पहले की बात है, भंते, कोई बूढ़ा ब्राह्मण था, जीर्ण हो चुका, पकी उम्र का। उसकी तरुण ब्राह्मणी पत्नी गर्भिणी थी, जन्म देने के समीप। तब, भंते, उस तरुण ब्राह्मणी ने ब्राह्मण से कहा, ‘बाजार जाओ, ब्राह्मण, और बंदर का बच्चा खरीद कर ले आओ। वह मेरे कुमार के साथ खेलेगा।’
जब ऐसा कहा गया, तब ब्राह्मण ने तरुण ब्राह्मणी से कहा, ‘पहले जन्म होकर आने दो, श्रीमति। यदि कुमार जन्मा तो बंदर का नर बच्चा खरीद कर ले आऊँगा, जो तुम्हारे कुमार के साथ खेलेगा। और यदि कुमारी जन्मी तो बंदर का मादा बच्चा खरीद कर ले आऊँगा, जो तुम्हारे कुमारी के साथ खेलेगा।’
तब, भंते, दूसरी बार… और तीसरी बार उस तरुण ब्राह्मणी ने ब्राह्मण से कहा, ‘(नहीं, अभी) बाजार जाओ, ब्राह्मण, और बंदर का बच्चा खरीद कर ले आओ। वह मेरे कुमार के साथ खेलेगा।’
तब, भंते, वह ब्राह्मण अपनी तरुण ब्राह्मणी के लिए प्रेम के मारे, प्रतिबद्ध चित्त से बाजार जाकर बंदर का बच्चा खरीद ले आया, और तरुण ब्राह्मणी से कहा, ‘लो, श्रीमति, बाजार से बंदर का बच्चा खरीद ले आया हूँ। यह तुम्हारे कुमार के साथ खेलेगा।’
जब ऐसा कहा गया, भंते, तब तरुण ब्राह्मणी ने ब्राह्मण से कहा, ‘जाओ, ब्राह्मण, इस बंदर के बच्चे को रत्तपाणि रंगरेज (=वस्त्र रंगने वाला) पुत्र के पास ले जाओ, और जाकर रत्तपाणि रंगरेज-पुत्र से कहो, ‘भले रत्तपाणि, मेरी इच्छा है कि इस बंदर के बच्चे को पीले रंग के लेपन में पीट-पीटकर, कूट-कूटकर, दोनों ओर से दबा-दबा कर रंग दो।’
तब, भंते, वह ब्राह्मण अपनी तरुण ब्राह्मणी के लिए प्रेम के मारे, प्रतिबद्ध चित्त से रत्तपाणि रंगरेज-पुत्र के पास गया, और जाकर रत्तपाणि रंगरेज-पुत्र से कहा, ‘भले रत्तपाणि, मेरी इच्छा है कि इस बंदर के बच्चे को पीले रंग के लेपन में पीट-पीटकर, कूट-कूटकर, दोनों ओर से दबा-दबा कर रंग दो।’
जब ऐसा कहा गया, भंते, तब रत्तपाणि रंगरेज-पुत्र ने ब्राह्मण से कहा, ‘स्वामी, इस बंदर के बच्चे की रंगे जाने तक की क्षमता है, कूटे जाने तक क्षमता नहीं, दबाए जाने तक क्षमता नहीं।’
उसी तरह, भंते, मूर्ख निगण्ठों का सिद्धान्त रंगे जाने की क्षमता वाले मूर्खों तक सीमित है, पंडितों के लिए नहीं, जाँचने-परखने तक क्षमता नहीं, दबाए जाने तक क्षमता नहीं।
तब वह ब्राह्मण, भंते, कुछ समय के बाद, एक नयी जोड़ी वस्त्र को रत्तपाणि रंगरेज-पुत्र के पास ले गया, और जाकर रत्तपाणि रंगरेज-पुत्र से कहा, ‘भले रत्तपाणि, मेरी इच्छा है कि इस नये जोड़ी वस्त्र को पीले रंग के लेपन में पीट-पीटकर, कूट-कूटकर, दोनों ओर से दबा-दबा कर रंग दो।’
जब ऐसा कहा गया, भंते, तब रत्तपाणि रंगरेज-पुत्र ने ब्राह्मण से कहा, ‘(अवश्य) स्वामी, इस नये जोड़ी वस्त्र की रंगे जाने तक की क्षमता है, कूटे जाने तक की भी क्षमता है, दबाए जाने तक की भी क्षमता है।’
उसी तरह, भंते, भगवान अरहंत सम्यक-सम्बुद्ध का सिद्धान्त रंगे जाने की क्षमता वाले पंडितों तक सीमित है, मूर्खों के लिए नहीं, जाँचने-परखने तक की क्षमता है, दबाए जाने तक क्षमता है।”
“गृहस्थ, तुम्हें राजा और परिषद इस तरह जानती है कि ‘उपालि गृहस्थ निगण्ठ नाटपुत्त का शिष्य है।’ अब, गृहस्थ, हम तुम्हें किसका शिष्य समझें?”
जब ऐसा कहा गया, तब उपालि गृहस्थ अपने आसन से उठा, अपने बाहरी वस्त्र को एक कंधे पर कर, भगवान की दिशा में हाथ जोड़कर प्रणाम करते हुए निगण्ठ नाटपुत्त से कहा, “ठीक है, भंते, सुनिए, मैं किसका शिष्य हूँ —
“इसे तुमने कब रचा, गृहस्थ, श्रमण गोतम की प्रशंसा में?”
“भंते, जैसे तरह-तरह के फूलों का एक विशाल पुष्प ढ़ेर हो, जिन्हें कोई दक्ष मालाकार या मालाकार का शिष्य एक माला में बाँधते जाता है। उसी तरह, भंते, भगवान के कई सौंदर्य (=प्रशंसनीय गुण) हैं, कई सैकड़ों सौंदर्य हैं। भला कौन, भंते, सौंदर्यशाली की प्रशंसा नहीं करेगा?”
तब, निगण्ठ नाटपुत्त को इस तरह भगवान का सत्कार सहन नहीं हुआ, और उसे मुख से वही गर्म रक्त की उल्टी हुई। 8
जैन परंपरा के अनुसार, महावीर का निर्वाण पावा नामक स्थान पर हुआ, जिसे कुछ परंपराएँ नालंदा के पास स्थित बताती हैं। लेकिन बौद्ध ग्रंथों में पावा केवल मल्ल गणराज्य के एक नगर के रूप में वर्णित है, जो उत्तर में स्थित था। इससे यह संकेत मिलता है कि पावा की पहचान को लेकर परंपराओं में भ्रम है। संभवतः “पावारिक का आम्रवन,” जहाँ बौद्ध ग्रंथों में जैनों से संवाद हुआ था, वही पावा हो जिसे जैन परंपरा जानती है।
जैन सूत्र “कल्पसूत्र”, जो भगवान महावीर के अंतिम समय का सबसे पुराना स्रोत है, पावा की सटीक भौगोलिक स्थिति नहीं बताता, पर यह उल्लेख करता है कि काशी, कोशल, मल्ल और लिच्छवि राज्यों के शासकों ने भगवान महावीर को श्रद्धांजलि दी थी — मगध का नाम नहीं आता। यह संकेत देता है कि पावा संभवतः मल्ल देश में ही था, न कि मगध में। इस तरह, जैन और बौद्ध परंपराओं की जानकारी मिलाकर पावा की पहचान मल्ल राज्य के एक प्रमुख नगर के रूप में की जा सकती है। ↩︎
जैन दर्शन में तीनों प्रकार के “दण्ड” कर्म का कारण बनते हैं। यहाँ “कर्म” कोई नैतिक सिद्धांत नहीं, बल्कि सूक्ष्म पुद्गल (=भौतिक कण) होते हैं, जो आत्मा से चिपककर उसे ढक देते हैं (तत्वार्थसूत्र ६.१-२)। यानी, जैन मत में कर्म वास्तव में भौतिक स्वरूप का होता है।
हालाँकि, जैसा डॉ. हीरालाल जैन ने Jainism in Buddhist Literature पुस्तक में बताया है, इसका यह मतलब नहीं कि जैन धर्म में शारीरिक कर्म सबसे ज़्यादा महत्वपूर्ण माने जाते हैं। तीनों प्रकार के कर्म — चाहे मन से हों, वाणी से या शरीर से — तब ही कर्म बनते हैं जब वे इरादे (“चेतना”) से किए जाएँ। फिर भी, जैन परंपरा में यह माना जाता है कि जानबूझकर किए गए शारीरिक कर्मों का प्रभाव मानसिक या वाचिक कर्मों से अधिक होता है। इस तरह, जैन कर्म सिद्धांत में कर्म आत्मा पर चिपकने वाला एक भौतिक तत्व है, जो उसकी मुक्ति में बाधा डालता है, और यह कर्म सच्चे अर्थ में तभी उत्पन्न होता है जब क्रिया संकल्पपूर्वक की जाए। ↩︎
इस उपमा में यह दिखाया गया है कि जैसे बलवान कामगार अपनी मजबूत पकड़ के साथ उस छलने (=छानने का जाल) से टंकी में पड़ी अनावश्यक मिलावट को हिला-हिलाकर, घुमा-घुमाकर छानता है; वैसे ही सच्चक सोचता है कि वह भी अपनी तेज बुद्धि के छलने से भगवान की धारणाओं में घुसी हुई अनावश्यक मिलावट को हिला-हिलाकर, घुमा-घुमाकर छान देगा। ↩︎
इस उपमा में संकेत यह है कि सच्चक कोई सौम्यता, शालीनता, या करुणा नहीं दिखाएगा, बल्कि वह किसी शराबखाने के गुंडे या बाउंसर की तरह बर्ताव करेगा। वह वाद-विवाद को अपनी पहलवानी पकड़ में रखकर — झाड़-झाड़कर, पटक-पटक कर अपनी कठोरता प्रदर्शित करेगा। ↩︎
सन धोने के खेल में रस्सी या सन को पानी में भिगोकर मार-मारकर तोड़ा जाता है। हाथी इसे खेल की तरह खेलता है — पानी में कूदता है और मस्ती में सन को पीट-पीटकर तोड़ता है। इस उपमा में सच्चक कहना चाहता है कि वह भी मदमस्त हाथी की तरह श्रमण गौतम को खेल की वस्तु बनाएगा और मार-मारकर तोड़ डालेगा। ↩︎
यह संदर्भ मिलिंदपञ्ह ५.१.६ में प्राप्त होता है। दण्डक एक विशाल जंगल था जो दक्कन के बड़े भूभाग में फैला था। इसका प्रमुख वर्णन रामायण में मिलता है। पुराणकोश (वेत्तम मणि) के अनुसार, दण्ड, सूर्यवंशी इक्ष्वाकु का पुत्र था, जिसे इक्ष्वाकु ने हिमालय और विन्ध्य पर्वतों के मध्य का प्रदेश प्रदान किया था। दण्ड द्वारा शुक्राचार्य की पुत्री अरा के साथ बलात्कारी आचरण के फलस्वरूप शुक्र ने उसके राज्य का अग्निवर्षा द्वारा विनाश किया। यह कथा वाल्मीकि रामायण ३.५ में भी आती है। बौद्ध परंपरा में इसका उल्लेख सर्भंग जातक (जातक ५२२) तथा महावस्तु (पृष्ठ ९९) में है। सम्भवतः इस कथा में उल्लिखित तपस्वी का उल्लेख मज्झिमनिकाय ११६ में नाम सहित हुआ है।
कलिंग एक प्राचीन तटीय राज्य था, जो वर्तमान ओडिशा तथा आन्ध्र प्रदेश में स्थित था। इसके पतन की कथा जातक ५२२ में मिलती है, जहाँ यह स्पष्ट किया गया है कि उसका विनाश चमत्कार से नहीं, अपितु तपस्वियों के प्रति किए गए दुष्कर्म के फलस्वरूप हुआ।
मज्झ के विनाश की कथा जातक ४९७ में वर्णित है। इसमें मातंग नामक एक बुद्धिमान ऋषि की प्रमुख भूमिका है। तथापि, इस कथा का मातंग वन से कोई स्पष्ट सम्बन्ध नहीं बताया गया है। सूत्रों में मातंग को एक प्राचीन, आत्मबोध प्राप्त मुनि माना गया है (मज्झिम निकाय ११६; सुत्तनिपात १.७:२६.१)। ↩︎
यहाँ एक अजीब विडम्बना दिखाई देती है। निगण्ठ नाटपुत्त, जो स्वयं को ‘सर्वज्ञ’ त्रिकालदर्शी घोषित करते थे, जिन्हें प्रत्येक क्षण भूत, भविष्य और वर्तमान की समस्त घटनाओं का ज्ञान होने का दावा था, वे इस एक घटना को न केवल पूर्व में जान न सके, बल्कि वर्तमान में भी स्वीकार नहीं कर पा रहे थे। ↩︎
अट्ठकथा के अनुसार, पावा में निगण्ठ नाटपुत्त की शीघ्र हुई मृत्यु का यही कारण था। इससे यह मत पुष्ट होता है कि पावा ही पावारिक है। वहीं जैन ‘कल्पसूत्र’ एक बिलकुल भिन्न कथा प्रस्तुत करता है — एक विजयी गुरु की, जिसने एक लंबा और आदर्शमयी जीवन व्यतीत कर, पूर्ण सजगता के साथ, सम्मान और गरिमा के साथ इस संसार से विदा ली, जिससे देवता भी चकित रह गए। ↩︎
५६. एवं मे सुतं – एकं समयं भगवा नाळन्दायं विहरति पावारिकम्बवने. तेन खो पन समयेन निगण्ठो नाटपुत्तो [नाथपुत्तो (सी.), नातपुत्तो (पी.)] नाळन्दायं पटिवसति महतिया निगण्ठपरिसाय सद्धिं. अथ खो दीघतपस्सी निगण्ठो नाळन्दायं पिण्डाय चरित्वा पच्छाभत्तं पिण्डपातपटिक्कन्तो येन पावारिकम्बवनं येन भगवा तेनुपसङ्कमि; उपसङ्कमित्वा भगवता सद्धिं सम्मोदि. सम्मोदनीयं कथं सारणीयं वीतिसारेत्वा एकमन्तं अट्ठासि. एकमन्तं ठितं खो दीघतपस्सिं निगण्ठं भगवा एतदवोच – ‘‘संविज्जन्ति खो, तपस्सि [दीघतपस्सि (स्या. कं. क.)], आसनानि; सचे आकङ्खसि निसीदा’’ति. एवं वुत्ते, दीघतपस्सी निगण्ठो अञ्ञतरं नीचं आसनं गहेत्वा एकमन्तं निसीदि. एकमन्तं निसिन्नं खो दीघतपस्सिं निगण्ठं भगवा एतदवोच – ‘‘कति पन, तपस्सि, निगण्ठो नाटपुत्तो कम्मानि पञ्ञपेति पापस्स कम्मस्स किरियाय पापस्स कम्मस्स पवत्तिया’’ति?
‘‘न खो, आवुसो गोतम, आचिण्णं निगण्ठस्स नाटपुत्तस्स ‘कम्मं, कम्म’न्ति पञ्ञपेतुं; ‘दण्डं, दण्ड’न्ति खो, आवुसो गोतम, आचिण्णं निगण्ठस्स नाटपुत्तस्स पञ्ञपेतु’’न्ति.
‘‘कति पन, तपस्सि, निगण्ठो नाटपुत्तो दण्डानि पञ्ञपेति पापस्स कम्मस्स किरियाय पापस्स कम्मस्स पवत्तिया’’ति?
‘‘तीणि खो, आवुसो गोतम, निगण्ठो नाटपुत्तो दण्डानि पञ्ञपेति पापस्स कम्मस्स किरियाय पापस्स कम्मस्स पवत्तियाति, सेय्यथिदं – कायदण्डं, वचीदण्डं, मनोदण्ड’’न्ति.
‘‘किं पन, तपस्सि, अञ्ञदेव कायदण्डं, अञ्ञं वचीदण्डं, अञ्ञं मनोदण्ड’’न्ति?
‘‘अञ्ञदेव , आवुसो गोतम, कायदण्डं, अञ्ञं वचीदण्डं, अञ्ञं मनोदण्ड’’न्ति.
‘‘इमेसं पन, तपस्सि, तिण्णं दण्डानं एवं पटिविभत्तानं एवं पटिविसिट्ठानं कतमं दण्डं निगण्ठो नाटपुत्तो महासावज्जतरं पञ्ञपेति पापस्स कम्मस्स किरियाय पापस्स कम्मस्स पवत्तिया , यदि वा कायदण्डं, यदि वा वचीदण्डं, यदि वा मनोदण्ड’’न्ति?
‘‘इमेसं खो, आवुसो गोतम, तिण्णं दण्डानं एवं पटिविभत्तानं एवं पटिविसिट्ठानं कायदण्डं निगण्ठो नाटपुत्तो महासावज्जतरं पञ्ञपेति पापस्स कम्मस्स किरियाय पापस्स कम्मस्स पवत्तिया, नो तथा वचीदण्डं, नो तथा मनोदण्ड’’न्ति.
‘‘कायदण्डन्ति, तपस्सि, वदेसि’’?
‘‘कायदण्डन्ति, आवुसो गोतम, वदामि’’.
‘‘कायदण्डन्ति, तपस्सि, वदेसि’’?
‘‘कायदण्डन्ति, आवुसो गोतम, वदामि’’.
‘‘कायदण्डन्ति, तपस्सि, वदेसि’’?
‘‘कायदण्डन्ति, आवुसो गोतम, वदामी’’ति.
इतिह भगवा दीघतपस्सिं निगण्ठं इमस्मिं कथावत्थुस्मिं यावततियकं पतिट्ठापेसि.
५७. एवं वुत्ते, दीघतपस्सी निगण्ठो भगवन्तं एतदवोच – ‘‘त्वं पनावुसो गोतम, कति दण्डानि पञ्ञपेसि पापस्स कम्मस्स किरियाय पापस्स कम्मस्स पवत्तिया’’ति?
‘‘न खो, तपस्सि, आचिण्णं तथागतस्स ‘दण्डं, दण्ड’न्ति पञ्ञपेतुं; ‘कम्मं, कम्म’न्ति खो, तपस्सि, आचिण्णं तथागतस्स पञ्ञपेतु’’न्ति?
‘‘त्वं पनावुसो गोतम, कति कम्मानि पञ्ञपेसि पापस्स कम्मस्स किरियाय पापस्स कम्मस्स पवत्तिया’’ति?
‘‘तीणि खो अहं, तपस्सि, कम्मानि पञ्ञपेमि पापस्स कम्मस्स किरियाय पापस्स कम्मस्स पवत्तिया, सेय्यथिदं – कायकम्मं, वचीकम्मं, मनोकम्म’’न्ति.
‘‘किं पनावुसो गोतम, अञ्ञदेव कायकम्मं, अञ्ञं वचीकम्मं, अञ्ञं मनोकम्म’’न्ति?
‘‘अञ्ञदेव, तपस्सि, कायकम्मं, अञ्ञं वचीकम्मं, अञ्ञं मनोकम्म’’न्ति.
‘‘इमेसं पनावुसो गोतम, तिण्णं कम्मानं एवं पटिविभत्तानं एवं पटिविसिट्ठानं कतमं कम्मं महासावज्जतरं पञ्ञपेसि पापस्स कम्मस्स किरियाय पापस्स कम्मस्स पवत्तिया, यदि वा कायकम्मं, यदि वा वचीकम्मं, यदि वा मनोकम्म’’न्ति?
‘‘इमेसं खो अहं, तपस्सि, तिण्णं कम्मानं एवं पटिविभत्तानं एवं पटिविसिट्ठानं मनोकम्मं महासावज्जतरं पञ्ञपेमि पापस्स कम्मस्स किरियाय पापस्स कम्मस्स पवत्तिया, नो तथा कायकम्मं, नो तथा वचीकम्म’’न्ति.
‘‘मनोकम्मन्ति, आवुसो गोतम, वदेसि’’?
‘‘मनोकम्मन्ति, तपस्सि, वदामि’’.
‘‘मनोकम्मन्ति, आवुसो गोतम, वदेसि’’?
‘‘मनोकम्मन्ति, तपस्सि, वदामि’’.
‘‘मनोकम्मन्ति , आवुसो गोतम, वदेसि’’?
‘‘मनोकम्मन्ति, तपस्सि, वदामी’’ति.
इतिह दीघतपस्सी निगण्ठो भगवन्तं इमस्मिं कथावत्थुस्मिं यावततियकं पतिट्ठापेत्वा उट्ठायासना येन निगण्ठो नाटपुत्तो तेनुपसङ्कमि.
५८. तेन खो पन समयेन निगण्ठो नाटपुत्तो महतिया गिहिपरिसाय सद्धिं निसिन्नो होति बालकिनिया परिसाय उपालिपमुखाय. अद्दसा खो निगण्ठो नाटपुत्तो दीघतपस्सिं निगण्ठं दूरतोव आगच्छन्तं; दिस्वान दीघतपस्सिं निगण्ठं एतदवोच – ‘‘हन्द, कुतो नु त्वं, तपस्सि, आगच्छसि दिवा दिवस्सा’’ति? ‘‘इतो हि खो अहं, भन्ते, आगच्छामि समणस्स गोतमस्स सन्तिका’’ति. ‘‘अहु पन ते, तपस्सि, समणेन गोतमेन सद्धिं कोचिदेव कथासल्लापो’’ति ? ‘‘अहु खो मे, भन्ते, समणेन गोतमेन सद्धिं कोचिदेव कथासल्लापो’’ति. ‘‘यथा कथं पन ते, तपस्सि, अहु समणेन गोतमेन सद्धिं कोचिदेव कथासल्लापो’’ति? अथ खो दीघतपस्सी निगण्ठो यावतको अहोसि भगवता सद्धिं कथासल्लापो तं सब्बं निगण्ठस्स नाटपुत्तस्स आरोचेसि. एवं वुत्ते, निगण्ठो नाटपुत्तो दीघतपस्सिं निगण्ठं एतदवोच – ‘‘साधु साधु, तपस्सि! यथा तं सुतवता सावकेन सम्मदेव सत्थुसासनं आजानन्तेन एवमेव दीघतपस्सिना निगण्ठेन समणस्स गोतमस्स ब्याकतं. किञ्हि सोभति छवो मनोदण्डो इमस्स एवं ओळारिकस्स कायदण्डस्स उपनिधाय! अथ खो कायदण्डोव महासावज्जतरो पापस्स कम्मस्स किरियाय पापस्स कम्मस्स पवत्तिया, नो तथा वचीदण्डो, नो तथा मनोदण्डो’’ति.
५९. एवं वुत्ते, उपालि गहपति निगण्ठं नाटपुत्तं एतदवोच – ‘‘साधु साधु, भन्ते दीघतपस्सी [तपस्सी (सी. पी.)]! यथा तं सुतवता सावकेन सम्मदेव सत्थुसासनं आजानन्तेन एवमेवं भदन्तेन तपस्सिना समणस्स गोतमस्स ब्याकतं. किञ्हि सोभति छवो मनोदण्डो इमस्स एवं ओळारिकस्स कायदण्डस्स उपनिधाय! अथ खो कायदण्डोव महासावज्जतरो पापस्स कम्मस्स किरियाय पापस्स कम्मस्स पवत्तिया, नो तथा वचीदण्डो, नो तथा मनोदण्डो. हन्द चाहं, भन्ते, गच्छामि समणस्स गोतमस्स इमस्मिं कथावत्थुस्मिं वादं आरोपेस्सामि. सचे मे समणो गोतमो तथा पतिट्ठहिस्सति यथा भदन्तेन तपस्सिना पतिट्ठापितं; सेय्यथापि नाम बलवा पुरिसो दीघलोमिकं एळकं लोमेसु गहेत्वा आकड्ढेय्य परिकड्ढेय्य सम्परिकड्ढेय्य, एवमेवाहं समणं गोतमं वादेन वादं आकड्ढिस्सामि परिकड्ढिस्सामि सम्परिकड्ढिस्सामि . सेय्यथापि नाम बलवा सोण्डिकाकम्मकारो महन्तं सोण्डिकाकिलञ्जं गम्भीरे उदकरहदे पक्खिपित्वा कण्णे गहेत्वा आकड्ढेय्य परिकड्ढेय्य सम्परिकड्ढेय्य, एवमेवाहं समणं गोतमं वादेन वादं आकड्ढिस्सामि परिकड्ढिस्सामि सम्परिकड्ढिस्सामि. सेय्यथापि नाम बलवा सोण्डिकाधुत्तो वालं [थालं (क.)] कण्णे गहेत्वा ओधुनेय्य निद्धुनेय्य निप्फोटेय्य [निच्छादेय्य (सी. पी. क.), निच्चोटेय्य (क.), निप्पोठेय्य (स्या. कं.)], एवमेवाहं समणं गोतमं वादेन वादं ओधुनिस्सामि निद्धुनिस्सामि निप्फोटेस्सामि . सेय्यथापि नाम कुञ्जरो सट्ठिहायनो गम्भीरं पोक्खरणिं ओगाहेत्वा साणधोविकं नाम कीळितजातं कीळति, एवमेवाहं समणं गोतमं साणधोविकं मञ्ञे कीळितजातं कीळिस्सामि. हन्द चाहं, भन्ते, गच्छामि समणस्स गोतमस्स इमस्मिं कथावत्थुस्मिं वादं आरोपेस्सामी’’ति. ‘‘गच्छ त्वं, गहपति, समणस्स गोतमस्स इमस्मिं कथावत्थुस्मिं वादं आरोपेहि. अहं वा हि, गहपति, समणस्स गोतमस्स वादं आरोपेय्यं, दीघतपस्सी वा निगण्ठो, त्वं वा’’ति.
६०. एवं वुत्ते, दीघतपस्सी निगण्ठो निगण्ठं नाटपुत्तं एतदवोच – ‘‘न खो मेतं, भन्ते, रुच्चति यं उपालि गहपति समणस्स गोतमस्स वादं आरोपेय्य. समणो हि, भन्ते, गोतमो मायावी आवट्टनिं मायं जानाति याय अञ्ञतित्थियानं सावके आवट्टेती’’ति. ‘‘अट्ठानं खो एतं, तपस्सि, अनवकासो यं उपालि गहपति समणस्स गोतमस्स सावकत्तं उपगच्छेय्य. ठानञ्च खो एतं विज्जति यं समणो गोतमो उपालिस्स गहपतिस्स सावकत्तं उपगच्छेय्य. गच्छ, त्वं, गहपति, समणस्स गोतमस्स इमस्मिं कथावत्थुस्मिं वादं आरोपेहि. अहं वा हि, गहपति, समणस्स गोतमस्स वादं आरोपेय्यं, दीघतपस्सी वा निगण्ठो, त्वं वा’’ति. दुतियम्पि खो दीघतपस्सी…पे… ततियम्पि खो दीघतपस्सी निगण्ठो निगण्ठं नाटपुत्तं एतदवोच – ‘‘न खो मेतं, भन्ते, रुच्चति यं उपालि गहपति समणस्स गोतमस्स वादं आरोपेय्य. समणो हि, भन्ते, गोतमो मायावी आवट्टनिं मायं जानाति याय अञ्ञतित्थियानं सावके आवट्टेती’’ति. ‘‘अट्ठानं खो एतं, तपस्सि , अनवकासो यं उपालि गहपति समणस्स गोतमस्स सावकत्तं उपगच्छेय्य. ठानञ्च खो एतं विज्जति यं समणो गोतमो उपालिस्स गहपतिस्स सावकत्तं उपगच्छेय्य. गच्छ त्वं, गहपति, समणस्स गोतमस्स इमस्मिं कथावत्थुस्मिं वादं आरोपेहि. अहं वा हि, गहपति, समणस्स गोतमस्स वादं आरोपेय्यं, दीघतपस्सी वा निगण्ठो, त्वं वा’’ति. ‘‘एवं, भन्ते’’ति खो उपालि गहपति निगण्ठस्स नाटपुत्तस्स पटिस्सुत्वा उट्ठायासना निगण्ठं नाटपुत्तं अभिवादेत्वा पदक्खिणं कत्वा येन पावारिकम्बवनं येन भगवा तेनुपसङ्कमि; उपसङ्कमित्वा भगवन्तं अभिवादेत्वा एकमन्तं निसीदि. एकमन्तं निसिन्नो खो उपालि गहपति भगवन्तं एतदवोच – ‘‘आगमा नु ख्विध, भन्ते, दीघतपस्सी निगण्ठो’’ति?
‘‘आगमा ख्विध, गहपति, दीघतपस्सी निगण्ठो’’ति.
‘‘अहु खो पन ते, भन्ते, दीघतपस्सिना निगण्ठेन सद्धिं कोचिदेव कथासल्लापो’’ति?
‘‘अहु खो मे, गहपति, दीघतपस्सिना निगण्ठेन सद्धिं कोचिदेव कथासल्लापो’’ति.
‘‘यथा कथं पन ते, भन्ते, अहु दीघतपस्सिना निगण्ठेन सद्धिं कोचिदेव कथासल्लापो’’ति?
अथ खो भगवा यावतको अहोसि दीघतपस्सिना निगण्ठेन सद्धिं कथासल्लापो तं सब्बं उपालिस्स गहपतिस्स आरोचेसि.
६१. एवं वुत्ते, उपालि गहपति भगवन्तं एतदवोच – ‘‘साधु साधु, भन्ते तपस्सी! यथा तं सुतवता सावकेन सम्मदेव सत्थुसासनं आजानन्तेन एवमेवं दीघतपस्सिना निगण्ठेन भगवतो ब्याकतं. किञ्हि सोभति छवो मनोदण्डो इमस्स एवं ओळारिकस्स कायदण्डस्स उपनिधाय? अथ खो कायदण्डोव महासावज्जतरो पापस्स कम्मस्स किरियाय पापस्स कम्मस्स पवत्तिया, नो तथा वचीदण्डो, नो तथा मनोदण्डो’’ति. ‘‘सचे खो त्वं, गहपति, सच्चे पतिट्ठाय मन्तेय्यासि सिया नो एत्थ कथासल्लापो’’ति. ‘‘सच्चे अहं, भन्ते, पतिट्ठाय मन्तेस्सामि; होतु नो एत्थ कथासल्लापो’’ति.
६२. ‘‘तं किं मञ्ञसि, गहपति, इधस्स निगण्ठो आबाधिको दुक्खितो बाळ्हगिलानो सीतोदकपटिक्खित्तो उण्होदकपटिसेवी. सो सीतोदकं अलभमानो कालङ्करेय्य. इमस्स पन, गहपति, निगण्ठो नाटपुत्तो कत्थूपपत्तिं पञ्ञपेती’’ति?
‘‘अत्थि, भन्ते, मनोसत्ता नाम देवा तत्थ सो उपपज्जति’’.
‘‘तं किस्स हेतु’’?
‘‘असु हि, भन्ते , मनोपटिबद्धो कालङ्करोती’’ति.
‘‘मनसि करोहि, गहपति [गहपति गहपति मनसि करोहि (सी. स्या. कं.), गहपति मनसि करोहि (क.), गहपति गहपति (पी.)], मनसि करित्वा खो, गहपति, ब्याकरोहि. न खो ते सन्धियति पुरिमेन वा पच्छिमं, पच्छिमेन वा पुरिमं. भासिता खो पन ते, गहपति, एसा वाचा – ‘सच्चे अहं, भन्ते, पतिट्ठाय मन्तेस्सामि, होतु नो एत्थ कथासल्लापो’’’ति. ‘‘किञ्चापि, भन्ते, भगवा एवमाह, अथ खो कायदण्डोव महासावज्जतरो पापस्स कम्मस्स किरियाय पापस्स कम्मस्स पवत्तिया, नो तथा वचीदण्डो, नो तथा मनोदण्डो’’ति.
६३. ‘‘तं किं मञ्ञसि, गहपति , इधस्स निगण्ठो नाटपुत्तो चातुयामसंवरसंवुतो सब्बवारिवारितो सब्बवारियुत्तो सब्बवारिधुतो सब्बवारिफुटो. सो अभिक्कमन्तो पटिक्कमन्तो बहू खुद्दके पाणे सङ्घातं आपादेति. इमस्स पन, गहपति, निगण्ठो नाटपुत्तो कं विपाकं पञ्ञपेती’’ति?
‘‘असञ्चेतनिकं, भन्ते, निगण्ठो नाटपुत्तो नो महासावज्जं पञ्ञपेती’’ति.
‘‘सचे पन, गहपति, चेतेती’’ति?
‘‘महासावज्जं, भन्ते, होती’’ति.
‘‘चेतनं पन, गहपति, निगण्ठो नाटपुत्तो किस्मिं पञ्ञपेती’’ति?
‘‘मनोदण्डस्मिं, भन्ते’’ति.
‘‘मनसि करोहि, गहपति , मनसि करित्वा खो, गहपति, ब्याकरोहि. न खो ते सन्धियति पुरिमेन वा पच्छिमं, पच्छिमेन वा पुरिमं. भासिता खो पन ते, गहपति, एसा वाचा – ‘सच्चे अहं, भन्ते, पतिट्ठाय मन्तेस्सामि; होतु नो एत्थ कथासल्लापो’’’ति. ‘‘किञ्चापि, भन्ते, भगवा एवमाह, अथ खो कायदण्डोव महासावज्जतरो पापस्स कम्मस्स किरियाय पापस्स कम्मस्स पवत्तिया, नो तथा वचीदण्डो, नो तथा मनोदण्डो’’ति.
६४. ‘‘तं किं मञ्ञसि, गहपति, अयं नाळन्दा इद्धा चेव फीता च बहुजना आकिण्णमनुस्सा’’ति?
‘‘एवं, भन्ते, अयं नाळन्दा इद्धा चेव फीता च बहुजना आकिण्णमनुस्सा’’ति.
‘‘तं किं मञ्ञसि, गहपति, इध पुरिसो आगच्छेय्य उक्खित्तासिको. सो एवं वदेय्य – ‘अहं यावतिका इमिस्सा नाळन्दाय पाणा ते एकेन खणेन एकेन मुहुत्तेन एकं मंसखलं एकं मंसपुञ्जं करिस्सामी’ति. तं किं मञ्ञसि, गहपति, पहोति नु खो सो पुरिसो यावतिका इमिस्सा नाळन्दाय पाणा ते एकेन खणेन एकेन मुहुत्तेन एकं मंसखलं एकं मंसपुञ्जं कातु’’न्ति?
‘‘दसपि, भन्ते, पुरिसा, वीसम्पि, भन्ते, पुरिसा, तिंसम्पि, भन्ते, पुरिसा, चत्तारीसम्पि, भन्ते, पुरिसा, पञ्ञासम्पि, भन्ते, पुरिसा नप्पहोन्ति यावतिका इमिस्सा नाळन्दाय पाणा ते एकेन खणेन एकेन मुहुत्तेन एकं मंसखलं एकं मंसपुञ्जं कातुं. किञ्हि सोभति एको छवो पुरिसो’’ति!
‘‘तं किं मञ्ञसि, गहपति , इध आगच्छेय्य समणो वा ब्राह्मणो वा इद्धिमा चेतोवसिप्पत्तो. सो एवं वदेय्य – ‘अहं इमं नाळन्दं एकेन मनोपदोसेन भस्मं करिस्सामी’ति. तं किं मञ्ञसि, गहपति, पहोति नु खो सो समणो वा ब्राह्मणो वा इद्धिमा चेतोवसिप्पत्तो इमं नाळन्दं एकेन मनोपदोसेन भस्मं कातु’’न्ति ?
‘‘दसपि, भन्ते, नाळन्दा, वीसम्पि नाळन्दा, तिंसम्पि नाळन्दा, चत्तारीसम्पि नाळन्दा, पञ्ञासम्पि नाळन्दा पहोति सो समणो वा ब्राह्मणो वा इद्धिमा चेतोवसिप्पत्तो एकेन मनोपदोसेन भस्मं कातुं. किञ्हि सोभति एका छवा नाळन्दा’’ति!
‘‘मनसि करोहि, गहपति, मनसि करित्वा खो, गहपति, ब्याकरोहि. न खो ते सन्धियति पुरिमेन वा पच्छिमं, पच्छिमेन वा पुरिमं. भासिता खो पन ते, गहपति, एसा वाचा – ‘सच्चे अहं, भन्ते, पतिट्ठाय मन्तेस्सामि; होतु नो एत्थ कथासल्लापो’’’ति.
‘‘किञ्चापि, भन्ते, भगवा एवमाह, अथ खो कायदण्डोव महासावज्जतरो पापस्स कम्मस्स किरियाय पापस्स कम्मस्स पवत्तिया, नो तथा वचीदण्डो, नो तथा मनोदण्डो’’ति.
६५. ‘‘तं किं मञ्ञसि, गहपति, सुतं ते दण्डकीरञ्ञं [दण्डकारञ्ञं (सी. पी.)] कालिङ्गारञ्ञं मज्झारञ्ञं [मेज्झारञ्ञं (सी. स्या. कं. पी.)] मातङ्गारञ्ञं अरञ्ञं अरञ्ञभूत’’न्ति?
‘‘एवं, भन्ते, सुतं मे दण्डकीरञ्ञं कालिङ्गारञ्ञं मज्झारञ्ञं मातङ्गारञ्ञं अरञ्ञं अरञ्ञभूत’’न्ति.
‘‘तं किं मञ्ञसि, गहपति, किन्ति ते सुतं केन तं दण्डकीरञ्ञं कालिङ्गारञ्ञं मज्झारञ्ञं मातङ्गारञ्ञं अरञ्ञं अरञ्ञभूत’’न्ति?
‘‘सुतं मेतं, भन्ते, इसीनं मनोपदोसेन तं दण्डकीरञ्ञं कालिङ्गारञ्ञं मज्झारञ्ञं मातङ्गारञ्ञं अरञ्ञं अरञ्ञभूत’’न्ति.
‘‘मनसि करोहि, गहपति, मनसि करित्वा खो, गहपति, ब्याकरोहि. न खो ते सन्धियति पुरिमेन वा पच्छिमं, पच्छिमेन वा पुरिमं. भासिता खो पन ते, गहपति, एसा वाचा – ‘सच्चे अहं, भन्ते, पतिट्ठाय मन्तेस्सामि; होतु नो एत्थ कथासल्लापो’’’ति.
६६. ‘‘पुरिमेनेवाहं , भन्ते, ओपम्मेन भगवतो अत्तमनो अभिरद्धो. अपि चाहं इमानि भगवतो विचित्रानि पञ्हपटिभानानि सोतुकामो, एवाहं भगवन्तं पच्चनीकं कातब्बं अमञ्ञिस्सं. अभिक्कन्तं, भन्ते, अभिक्कन्तं, भन्ते! सेय्यथापि, भन्ते, निक्कुज्जितं वा उक्कुज्जेय्य, पटिच्छन्नं वा विवरेय्य, मूळ्हस्स वा मग्गं आचिक्खेय्य, अन्धकारे वा तेलपज्जोतं धारेय्य – चक्खुमन्तो रूपानि दक्खन्तीति; एवमेवं भगवता अनेकपरियायेन धम्मो पकासितो. एसाहं, भन्ते, भगवन्तं सरणं गच्छामि धम्मञ्च भिक्खुसङ्घञ्च. उपासकं मं भगवा धारेतु अज्जतग्गे पाणुपेतं सरणं गत’’न्ति.
६७. ‘‘अनुविच्चकारं खो, गहपति, करोहि, अनुविच्चकारो तुम्हादिसानं ञातमनुस्सानं साधु होती’’ति. ‘‘इमिनापाहं, भन्ते, भगवतो भिय्योसोमत्ताय अत्तमनो अभिरद्धो यं मं भगवा एवमाह – ‘अनुविच्चकारं खो, गहपति, करोहि, अनुविच्चकारो तुम्हादिसानं ञातमनुस्सानं साधु होती’ति. मञ्हि, भन्ते, अञ्ञतित्थिया सावकं लभित्वा केवलकप्पं नाळन्दं पटाकं परिहरेय्युं – ‘उपालि अम्हाकं गहपति सावकत्तं उपगतो’ति. अथ च पन मं भगवा एवमाह – ‘अनुविच्चकारं खो, गहपति, करोहि, अनुविच्चकारो तुम्हादिसानं ञातमनुस्सानं साधु होती’ति. एसाहं, भन्ते, दुतियम्पि भगवन्तं सरणं गच्छामि धम्मञ्च भिक्खुसङ्घञ्च. उपासकं मं भगवा धारेतु अज्जतग्गे पाणुपेतं सरणं गत’’न्ति.
६८. ‘‘दीघरत्तं खो ते, गहपति, निगण्ठानं ओपानभूतं कुलं येन नेसं उपगतानं पिण्डकं दातब्बं मञ्ञेय्यासी’’ति. ‘‘इमिनापाहं, भन्ते, भगवतो भिय्योसोमत्ताय अत्तमनो अभिरद्धो यं मं भगवा एवमाह – ‘दीघरत्तं खो ते, गहपति, निगण्ठानं ओपानभूतं कुलं येन नेसं उपगतानं पिण्डकं दातब्बं मञ्ञेय्यासी’ति. सुतं मेतं, भन्ते, समणो गोतमो एवमाह – ‘मय्हमेव दानं दातब्बं, नाञ्ञेसं दानं दातब्बं; मय्हमेव सावकानं दानं दातब्बं, नाञ्ञेसं सावकानं दानं दातब्बं; मय्हमेव दिन्नं महप्फलं, नाञ्ञेसं दिन्नं महप्फलं; मय्हमेव सावकानं दिन्नं महप्फलं, नाञ्ञेसं सावकानं दिन्नं महप्फल’न्ति. अथ च पन मं भगवा निगण्ठेसुपि दाने समादपेति. अपि च, भन्ते, मयमेत्थ कालं जानिस्साम. एसाहं, भन्ते, ततियम्पि भगवन्तं सरणं गच्छामि धम्मञ्च भिक्खुसङ्घञ्च. उपासकं मं भगवा धारेतु अज्जतग्गे पाणुपेतं सरणं गत’’न्ति.
६९. अथ खो भगवा उपालिस्स गहपतिस्स अनुपुब्बिं कथं [आनुपुब्बीकथं (सी.), आनुपुब्बिकथं (पी.), अनुपुब्बिकथं (स्या. कं. क.)] कथेसि, सेय्यथिदं – दानकथं सीलकथं सग्गकथं, कामानं आदीनवं ओकारं संकिलेसं, नेक्खम्मे आनिसंसं पकासेसि. यदा भगवा अञ्ञासि उपालिं गहपतिं कल्लचित्तं मुदुचित्तं विनीवरणचित्तं उदग्गचित्तं पसन्नचित्तं, अथ या बुद्धानं सामुक्कंसिका धम्मदेसना तं पकासेसि – दुक्खं, समुदयं, निरोधं, मग्गं. सेय्यथापि नाम सुद्धं वत्थं अपगतकाळकं सम्मदेव रजनं पटिग्गण्हेय्य, एवमेव उपालिस्स गहपतिस्स तस्मिंयेव आसने विरजं वीतमलं धम्मचक्खुं उदपादि – ‘यं किञ्चि समुदयधम्मं सब्बं तं निरोधधम्म’न्ति. अथ खो उपालि गहपति दिट्ठधम्मो पत्तधम्मो विदितधम्मो परियोगाळ्हधम्मो तिण्णविचिकिच्छो विगतकथंकथो वेसारज्जप्पत्तो अपरप्पच्चयो सत्थुसासने भगवन्तं एतदवोच – ‘‘हन्द च दानि मयं, भन्ते, गच्छाम, बहुकिच्चा मयं बहुकरणीया’’ति. ‘‘यस्सदानि त्वं, गहपति, कालं मञ्ञसी’’ति.
७०. अथ खो उपालि गहपति भगवतो भासितं अभिनन्दित्वा अनुमोदित्वा उट्ठायासना भगवन्तं अभिवादेत्वा पदक्खिणं कत्वा येन सकं निवेसनं तेनुपसङ्कमि; उपसङ्कमित्वा दोवारिकं आमन्तेसि – ‘‘अज्जतग्गे, सम्म दोवारिक, आवरामि द्वारं निगण्ठानं निगण्ठीनं, अनावटं द्वारं भगवतो भिक्खूनं भिक्खुनीनं उपासकानं उपासिकानं. सचे कोचि निगण्ठो आगच्छति तमेनं त्वं एवं वदेय्यासि – ‘तिट्ठ, भन्ते, मा पाविसि. अज्जतग्गे उपालि गहपति समणस्स गोतमस्स सावकत्तं उपगतो. आवटं द्वारं निगण्ठानं निगण्ठीनं, अनावटं द्वारं भगवतो भिक्खूनं भिक्खुनीनं उपासकानं उपासिकानं . सचे ते, भन्ते, पिण्डकेन अत्थो, एत्थेव तिट्ठ, एत्थेव ते आहरिस्सन्ती’’’ति. ‘‘एवं, भन्ते’’ति खो दोवारिको उपालिस्स गहपतिस्स पच्चस्सोसि.
७१. अस्सोसि खो दीघतपस्सी निगण्ठो – ‘‘उपालि किर गहपति समणस्स गोतमस्स सावकत्तं उपगतो’’ति. अथ खो दीघतपस्सी निगण्ठो येन निगण्ठो नाटपुत्तो तेनुपसङ्कमि; उपसङ्कमित्वा निगण्ठं नाटपुत्तं एतदवोच – ‘‘सुतं मेतं, भन्ते, उपालि किर गहपति समणस्स गोतमस्स सावकत्तं उपगतो’’ति. ‘‘अट्ठानं खो एतं, तपस्सि , अनवकासो यं उपालि गहपति समणस्स गोतमस्स सावकत्तं उपगच्छेय्य. ठानञ्च खो एतं विज्जति यं समणो गोतमो उपालिस्स गहपतिस्स सावकत्तं उपगच्छेय्या’’ति . दुतियम्पि खो दीघतपस्सी निगण्ठो…पे… ततियम्पि खो दीघतपस्सी निगण्ठो निगण्ठं नाटपुत्तं एतदवोच – ‘‘सुतं मेतं, भन्ते …पे… उपालिस्स गहपतिस्स सावकत्तं उपगच्छेय्या’’ति. ‘‘हन्दाहं, भन्ते, गच्छामि याव जानामि यदि वा उपालि गहपति समणस्स गोतमस्स सावकत्तं उपगतो यदि वा नो’’ति. ‘‘गच्छ त्वं, तपस्सि, जानाहि यदि वा उपालि गहपति समणस्स गोतमस्स सावकत्तं उपगतो यदि वा नो’’ति.
७२. अथ खो दीघतपस्सी निगण्ठो येन उपालिस्स गहपतिस्स निवेसनं तेनुपसङ्कमि. अद्दसा खो दोवारिको दीघतपस्सिं निगण्ठं दूरतोव आगच्छन्तं. दिस्वान दीघतपस्सिं निगण्ठं एतदवोच – ‘‘तिट्ठ, भन्ते, मा पाविसि. अज्जतग्गे उपालि गहपति समणस्स गोतमस्स सावकत्तं उपगतो. आवटं द्वारं निगण्ठानं निगण्ठीनं, अनावटं द्वारं भगवतो भिक्खूनं भिक्खुनीनं उपासकानं उपासिकानं . सचे ते, भन्ते, पिण्डकेन अत्थो, एत्थेव तिट्ठ, एत्थेव ते आहरिस्सन्ती’’ति. ‘‘न मे, आवुसो, पिण्डकेन अत्थो’’ति वत्वा ततो पटिनिवत्तित्वा येन निगण्ठो नाटपुत्तो तेनुपसङ्कमि; उपसङ्कमित्वा निगण्ठं नाटपुत्तं एतदवोच – ‘‘सच्चंयेव खो, भन्ते, यं उपालि गहपति समणस्स गोतमस्स सावकत्तं उपगतो. एतं खो ते अहं, भन्ते, नालत्थं न खो मे, भन्ते, रुच्चति यं उपालि गहपति समणस्स गोतमस्स वादं आरोपेय्य. समणो हि, भन्ते, गोतमो मायावी आवट्टनिं मायं जानाति याय अञ्ञतित्थियानं सावके आवट्टेतीति. आवट्टो खो ते, भन्ते, उपालि गहपति समणेन गोतमेन आवट्टनिया मायाया’’ति. ‘‘अट्ठानं खो एतं, तपस्सि, अनवकासो यं उपालि गहपति समणस्स गोतमस्स सावकत्तं उपगच्छेय्य. ठानञ्च खो एतं विज्जति यं समणो गोतमो उपालिस्स गहपतिस्स सावकत्तं उपगच्छेय्या’’ति. दुतियम्पि खो दीघतपस्सी निगण्ठो निगण्ठं नाटपुत्तं एतदवोच – ‘‘सच्चंयेव, भन्ते…पे… उपालिस्स गहपतिस्स सावकत्तं उपगच्छेय्या’’ति. ततियम्पि खो दीघतपस्सी निगण्ठो निगण्ठं नाटपुत्तं एतदवोच – ‘‘सच्चंयेव खो, भन्ते…पे… उपालिस्स गहपतिस्स सावकत्तं उपगच्छेय्या’’ति. ‘‘हन्द चाहं , तपस्सि, गच्छामि याव चाहं सामंयेव जानामि यदि वा उपालि गहपति समणस्स गोतमस्स सावकत्तं उपगतो यदि वा नो’’ति.
अथ खो निगण्ठो नाटपुत्तो महतिया निगण्ठपरिसाय सद्धिं येन उपालिस्स गहपतिस्स निवेसनं तेनुपसङ्कमि. अद्दसा खो दोवारिको निगण्ठं नाटपुत्तं दूरतोव आगच्छन्तं. दिस्वान निगण्ठं नाटपुत्तं एतदवोच – ‘‘तिट्ठ, भन्ते, मा पाविसि. अज्जतग्गे उपालि गहपति समणस्स गोतमस्स सावकत्तं उपगतो. आवटं द्वारं निगण्ठानं निगण्ठीनं, अनावटं द्वारं भगवतो भिक्खूनं भिक्खुनीनं उपासकानं उपासिकानं. सचे ते, भन्ते, पिण्डकेन अत्थो, एत्थेव तिट्ठ, एत्थेव ते आहरिस्सन्ती’’ति. ‘‘तेन हि, सम्म दोवारिक, येन उपालि गहपति तेनुपसङ्कम; उपसङ्कमित्वा उपालिं गहपतिं एवं वदेहि – ‘निगण्ठो, भन्ते, नाटपुत्तो महतिया निगण्ठपरिसाय सद्धिं बहिद्वारकोट्ठके ठितो; सो ते दस्सनकामो’’’ति. ‘‘एवं, भन्ते’’ति खो दोवारिको निगण्ठस्स नाटपुत्तस्स पटिस्सुत्वा येन उपालि गहपति तेनुपसङ्कमि; उपसङ्कमित्वा उपालिं गहपतिं एतदवोच – ‘‘निगण्ठो, भन्ते, नाटपुत्तो महतिया निगण्ठपरिसाय सद्धिं बहिद्वारकोट्ठके ठितो; सो ते दस्सनकामो’’ति. ‘‘तेन हि, सम्म दोवारिक, मज्झिमाय द्वारसालाय आसनानि पञ्ञपेही’’ति. ‘‘एवं, भन्ते’’ति खो दोवारिको उपालिस्स गहपतिस्स पटिस्सुत्वा मज्झिमाय द्वारसालाय आसनानि पञ्ञपेत्वा येन उपालि गहपति तेनुपसङ्कमि; उपसङ्कमित्वा उपालिं गहपतिं एतदवोच – ‘‘पञ्ञत्तानि खो, भन्ते, मज्झिमाय द्वारसालाय आसनानि. यस्सदानि कालं मञ्ञसी’’ति.
७३. अथ खो उपालि गहपति येन मज्झिमा द्वारसाला तेनुपसङ्कमि; उपसङ्कमित्वा यं तत्थ आसनं अग्गञ्च सेट्ठञ्च उत्तमञ्च पणीतञ्च तत्थ सामं निसीदित्वा दोवारिकं आमन्तेसि – ‘‘तेन हि, सम्म दोवारिक, येन निगण्ठो नाटपुत्तो तेनुपसङ्कम; उपसङ्कमित्वा निगण्ठं नाटपुत्तं एवं वदेहि – ‘उपालि, भन्ते, गहपति एवमाह – पविस किर, भन्ते, सचे आकङ्खसी’’’ति. ‘‘एवं, भन्ते’’ति खो दोवारिको उपालिस्स गहपतिस्स पटिस्सुत्वा येन निगण्ठो नाटपुत्तो तेनुपसङ्कमि; उपसङ्कमित्वा निगण्ठं नाटपुत्तं एतदवोच – ‘‘उपालि, भन्ते, गहपति एवमाह – ‘पविस किर, भन्ते, सचे आकङ्खसी’’’ति. अथ खो निगण्ठो नाटपुत्तो महतिया निगण्ठपरिसाय सद्धिं येन मज्झिमा द्वारसाला तेनुपसङ्कमि. अथ खो उपालि गहपति – यं सुदं पुब्बे यतो पस्सति निगण्ठं नाटपुत्तं दूरतोव आगच्छन्तं दिस्वान ततो पच्चुग्गन्त्वा यं तत्थ आसनं अग्गञ्च सेट्ठञ्च उत्तमञ्च पणीतञ्च तं उत्तरासङ्गेन सम्मज्जित्वा [पमज्जित्वा (सी. पी.)] परिग्गहेत्वा निसीदापेति सो – दानि यं तत्थ आसनं अग्गञ्च सेट्ठञ्च उत्तमञ्च पणीतञ्च तत्थ सामं निसीदित्वा निगण्ठं नाटपुत्तं एतदवोच – ‘‘संविज्जन्ति खो, भन्ते, आसनानि; सचे आकङ्खसि, निसीदा’’ति. एवं वुत्ते, निगण्ठो नाटपुत्तो उपालिं गहपतिं एतदवोच – ‘‘उम्मत्तोसि त्वं, गहपति, दत्तोसि त्वं, गहपति! ‘गच्छामहं, भन्ते, समणस्स गोतमस्स वादं आरोपेस्सामी’ति गन्त्वा महतासि वादसङ्घाटेन पटिमुक्को आगतो. सेय्यथापि, गहपति, पुरिसो अण्डहारको गन्त्वा उब्भतेहि अण्डेहि आगच्छेय्य, सेय्यथा वा पन गहपति पुरिसो अक्खिकहारको गन्त्वा उब्भतेहि अक्खीहि आगच्छेय्य; एवमेव खो त्वं, गहपति, ‘गच्छामहं, भन्ते, समणस्स गोतमस्स वादं आरोपेस्सामी’ति गन्त्वा महतासि वादसङ्घाटेन पटिमुक्को आगतो. आवट्टोसि खो त्वं, गहपति, समणेन गोतमेन आवट्टनिया मायाया’’ति.
७४. ‘‘भद्दिका, भन्ते, आवट्टनी माया; कल्याणी, भन्ते, आवट्टनी माया; पिया मे, भन्ते, ञातिसालोहिता इमाय आवट्टनिया आवट्टेय्युं; पियानम्पि मे अस्स ञातिसालोहितानं दीघरत्तं हिताय सुखाय; सब्बे चेपि, भन्ते, खत्तिया इमाय आवट्टनिया आवट्टेय्युं; सब्बेसानम्पिस्स खत्तियानं दीघरत्तं हिताय सुखाय; सब्बे चेपि, भन्ते, ब्राह्मणा…पे… वेस्सा…पे… सुद्दा इमाय आवट्टनिया आवट्टेय्युं; सब्बेसानम्पिस्स सुद्दानं दीघरत्तं हिताय सुखाय; सदेवको चेपि, भन्ते, लोको समारको सब्रह्मको सस्समणब्राह्मणी पजा सदेवमनुस्सा इमाय आवट्टनिया आवट्टेय्युं; सदेवकस्सपिस्स लोकस्स समारकस्स सब्रह्मकस्स सस्समणब्राह्मणिया पजाय सदेवमनुस्साय दीघरत्तं हिताय सुखायाति. तेन हि, भन्ते, उपमं ते करिस्सामि. उपमाय पिधेकच्चे विञ्ञू पुरिसा भासितस्स अत्थं आजानन्ति.
७५. ‘‘भूतपुब्बं , भन्ते, अञ्ञतरस्स ब्राह्मणस्स जिण्णस्स वुड्ढस्स महल्लकस्स दहरा माणविका पजापती अहोसि गब्भिनी उपविजञ्ञा. अथ खो, भन्ते, सा माणविका तं ब्राह्मणं एतदवोच – ‘गच्छ त्वं, ब्राह्मण, आपणा मक्कटच्छापकं किणित्वा आनेहि, यो मे कुमारकस्स कीळापनको भविस्सती’ति. एवं वुत्ते, सो ब्राह्मणो तं माणविकं एतदवोच – ‘आगमेहि ताव, भोति, याव विजायति. सचे त्वं, भोति, कुमारकं विजायिस्ससि, तस्सा ते अहं आपणा मक्कटच्छापकं किणित्वा आनेस्सामि, यो ते कुमारकस्स कीळापनको भविस्सति. सचे पन त्वं, भोति, कुमारिकं विजायिस्ससि, तस्सा ते अहं आपणा मक्कटच्छापिकं किणित्वा आनेस्सामि, या ते कुमारिकाय कीळापनिका भविस्सती’ति. दुतियम्पि खो, भन्ते, सा माणविका…पे… ततियम्पि खो, भन्ते, सा माणविका तं ब्राह्मणं एतदवोच – ‘गच्छ त्वं, ब्राह्मण, आपणा मक्कटच्छापकं किणित्वा आनेहि, यो मे कुमारकस्स कीळापनको भविस्सती’ति. अथ खो, भन्ते, सो ब्राह्मणो तस्सा माणविकाय सारत्तो पटिबद्धचित्तो आपणा मक्कटच्छापकं किणित्वा आनेत्वा तं माणविकं एतदवोच – ‘अयं ते, भोति, आपणा मक्कटच्छापको किणित्वा आनीतो, यो ते कुमारकस्स कीळापनको भविस्सती’ति. एवं वुत्ते, भन्ते, सा माणविका तं ब्राह्मणं एतदवोच – ‘गच्छ त्वं, ब्राह्मण, इमं मक्कटच्छापकं आदाय येन रत्तपाणि रजतपुत्तो तेनुपसङ्कम; उपसङ्कमित्वा रत्तपाणिं रजकपुत्तं एवं वदेहि – इच्छामहं, सम्म रत्तपाणि, इमं मक्कटच्छापकं पीतावलेपनं नाम रङ्गजातं रजितं आकोटितपच्चाकोटितं उभतोभागविमट्ठ’न्ति.
‘‘अथ खो, भन्ते, सो ब्राह्मणो तस्सा माणविकाय सारत्तो पटिबद्धचित्तो तं मक्कटच्छापकं आदाय येन रत्तपाणि रजकपुत्तो तेनुपसङ्कमि; उपसङ्कमित्वा रत्तपाणिं रजकपुत्तं एतदवोच – ‘इच्छामहं, सम्म रत्तपाणि, इमं मक्कटच्छापकं पीतावलेपनं नाम रङ्गजातं रजितं आकोटितपच्चाकोटितं उभतोभागविमट्ठ’न्ति. एवं वुत्ते, भन्ते, रत्तपाणि रजकपुत्तो तं ब्राह्मणं एतदवोच – ‘अयं खो ते, मक्कटच्छापको रङ्गक्खमो हि खो, नो आकोटनक्खमो , नो विमज्जनक्खमो’ति. एवमेव खो, भन्ते, बालानं निगण्ठानं वादो रङ्गक्खमो हि खो बालानं नो पण्डितानं, नो अनुयोगक्खमो, नो विमज्जनक्खमो. अथ खो, भन्ते, सो ब्राह्मणो अपरेन समयेन नवं दुस्सयुगं आदाय येन रत्तपाणि रजकपुत्तो तेनुपसङ्कमि; उपसङ्कमित्वा रत्तपाणिं रजकपुत्तं एतदवोच – ‘इच्छामहं, सम्म रत्तपाणि, इमं नवं दुस्सयुगं पीतावलेपनं नाम रङ्गजातं रजितं आकोटितपच्चाकोटितं उभतोभागविमट्ठ’न्ति. एवं वुत्ते, भन्ते, रत्तपाणि रजकपुत्तो तं ब्राह्मणं एतदवोच – ‘इदं खो ते, भन्ते, नवं दुस्सयुगं रङ्गक्खमञ्चेव आकोटनक्खमञ्च विमज्जनक्खमञ्चा’ति. एवमेव खो, भन्ते, तस्स भगवतो वादो अरहतो सम्मासम्बुद्धस्स रङ्गक्खमो चेव पण्डितानं नो बालानं, अनुयोगक्खमो च विमज्जनक्खमो चा’’ति.
‘‘सराजिका खो, गहपति, परिसा एवं जानाति – ‘उपालि गहपति निगण्ठस्स नाटपुत्तस्स सावको’ति. कस्स तं, गहपति, सावकं धारेमा’’ति? एवं वुत्ते, उपालि गहपति उट्ठायासना एकंसं उत्तरासङ्गं करित्वा येन भगवा तेनञ्जलिं पणामेत्वा निगण्ठं नाटपुत्तं एतदवोच – ‘‘तेन हि, भन्ते, सुणोहि यस्साहं सावको’’ति –
७६.
‘‘धीरस्स विगतमोहस्स, पभिन्नखीलस्स विजितविजयस्स;
अनीघस्स सुसमचित्तस्स, वुद्धसीलस्स साधुपञ्ञस्स;
वेसमन्तरस्स [वेस्सन्तरस्स (सी. पी.)] विमलस्स, भगवतो तस्स सावकोहमस्मि.
‘‘अकथंकथिस्स तुसितस्स, वन्तलोकामिसस्स मुदितस्स;
कतसमणस्स मनुजस्स, अन्तिमसारीरस्स नरस्स;
अनोपमस्स विरजस्स, भगवतो तस्स सावकोहमस्मि.
‘‘असंसयस्स कुसलस्स, वेनयिकस्स सारथिवरस्स;
अनुत्तरस्स रुचिरधम्मस्स, निक्कङ्खस्स पभासकस्स [पभासकरस्स (सी. स्या. पी.)];
मानच्छिदस्स वीरस्स, भगवतो तस्स सावकोहमस्मि.
‘‘निसभस्स अप्पमेय्यस्स, गम्भीरस्स मोनपत्तस्स;
खेमङ्करस्स वेदस्स, धम्मट्ठस्स संवुतत्तस्स;
सङ्गातिगस्स मुत्तस्स, भगवतो तस्स सावकोहमस्मि.
‘‘नागस्स पन्तसेनस्स, खीणसंयोजनस्स मुत्तस्स;
पटिमन्तकस्स [पटिमन्तस्स (क.)] धोनस्स, पन्नधजस्स वीतरागस्स;
दन्तस्स निप्पपञ्चस्स, भगवतो तस्स सावकोहमस्मि.
‘‘इसिसत्तमस्स अकुहस्स, तेविज्जस्स ब्रह्मपत्तस्स;
न्हातकस्स [नहातकस्स (सी. स्या. पी.)] पदकस्स, पस्सद्धस्स विदितवेदस्स;
पुरिन्ददस्स सक्कस्स, भगवतो तस्स सावकोहमस्मि.
‘‘अरियस्स भावितत्तस्स, पत्तिपत्तस्स वेय्याकरणस्स;
सतिमतो विपस्सिस्स, अनभिनतस्स नो अपनतस्स;
अनेजस्स वसिप्पत्तस्स, भगवतो तस्स सावकोहमस्मि .
‘‘समुग्गतस्स [सम्मग्गतस्स (सी. स्या. पी.)] झायिस्स, अननुगतन्तरस्स सुद्धस्स;
असितस्स हितस्स [अप्पहीनस्स (सी. पी.), अप्पभीतस्स (स्या.)], पविवित्तस्स अग्गप्पत्तस्स;
तिण्णस्स तारयन्तस्स, भगवतो तस्स सावकोहमस्मि.
‘‘सन्तस्स भूरिपञ्ञस्स, महापञ्ञस्स वीतलोभस्स;
तथागतस्स सुगतस्स, अप्पटिपुग्गलस्स असमस्स;
विसारदस्स निपुणस्स, भगवतो तस्स सावकोहमस्मि.
‘‘तण्हच्छिदस्स बुद्धस्स, वीतधूमस्स अनुपलित्तस्स;
आहुनेय्यस्स यक्खस्स, उत्तमपुग्गलस्स अतुलस्स;
महतो यसग्गपत्तस्स, भगवतो तस्स सावकोहमस्मी’’ति.
७७. ‘‘कदा सञ्ञूळ्हा पन ते, गहपति, इमे समणस्स गोतमस्स वण्णा’’ति? ‘‘सेय्यथापि, भन्ते, नानापुप्फानं महापुप्फरासि , तमेनं दक्खो मालाकारो वा मालाकारन्तेवासी वा विचित्तं मालं गन्थेय्य; एवमेव खो, भन्ते, सो भगवा अनेकवण्णो अनेकसतवण्णो. को हि, भन्ते, वण्णारहस्स वण्णं न करिस्सती’’ति? अथ खो निगण्ठस्स नाटपुत्तस्स भगवतो सक्कारं असहमानस्स तत्थेव उण्हं लोहितं मुखतो उग्गच्छीति [उग्गञ्छि (सी. स्या. पी.)].
उपालिसुत्तं निट्ठितं छट्ठं.