नमो तस्स भगवतो अरहतो सम्मा-सम्बुद्धस्स

📜 कुत्ता व्रतिक

सूत्र परिचय

जम्बूद्वीप की भूमि प्राचीन काल से ही विविध श्रमण परंपराओं और व्रतधारी साधकों की जन्मभूमि रही है। इन परंपराओं में कुछ इतनी विलक्षण थीं कि उन्होंने सामान्य मानवीय स्वभाव को त्यागकर पशुओं की जीवन शैली को अपनाने का मार्ग चुना। ये व्रतिक अपने तपस्वी जीवन को गाय, बिल्ली, साँप, मछली, हिरण और कुत्ते जैसे पशुओं की गति, व्यवहार और आचरण के अनुरूप ढालते थे।

संभव है कि इनका उद्देश्य मात्र बाह्य अनुकरण न हो, बल्कि मानवीय संस्कार और अहंकार को छोड़कर पशुओं की सहजता व नम्रता को आत्मसात करना हो। यह एक अनोखी आध्यात्मिक साधना थी, जिसके माध्यम से साधक मानता था कि वह तथाकथित रूप से मुक्ति और मोक्ष की ओर अग्रसर होता है।

उदाहरणस्वरूप, “गाय व्रतिक” चारों पैरों पर चलता और घास को मुँह से चरता था, जबकि “साँप व्रतिक” भूमि पर रेंगते हुए अपना व्रत निभाता था। महाभारत (५.९७.१३) में भी गाय व्रतिक का उल्लेख मिलता है, जो इस परंपरा की लोकप्रियता को दर्शाता है।

आज के युग में ऐसी तपस्याएँ लगभग विस्मृत हो चुकी हैं। यह संभव है कि भगवान बुद्ध के उपदेशों के साथ इन पशु-व्रतों का अंत हो गया हो। फिर भी, ये अद्भुत व्रत हमें यह स्मरण कराते हैं कि श्रमण परंपराएँ कितने विचित्र, विविध और कठोरता से भरी साधनाएँ होती थी।

✦ ॥ नमो तस्स भगवतो अरहतो सम्मासम्बुद्धस्स ॥ ✦

Hindi

ऐसा मैंने सुना — एक समय भगवान कोलियों के साथ हलिद्दवसन नामक कोलिय नगर में विहार कर रहे थे। तब पुण्ण कोलियपुत्त गाय-व्रतिक, और निर्वस्त्र सेनिय कुत्ता-व्रतिक, भगवान के पास गए। जाकर पुण्ण कोलियपुत्त गाय-व्रतिक भगवान को अभिवादन कर एक ओर बैठ गया। निर्वस्त्र सेनिय कुत्ता-व्रतिक ने भगवान के साथ वार्तालाप किया। मैत्रीपूर्ण हालचाल पूछने पर वह कुत्ते की तरह पालथी लगाकर एक ओर बैठ गया।

कुत्ता व्रतिक

एक ओर बैठ कर पुण्ण कोलियपुत्त गाय-व्रतिक ने भगवान से कहा, “भंते, यह निर्वस्त्र सेनिय कुत्ता-व्रतिक बहुत कठिन व्रत पालन करता है, भूमि पर फेंके भोजन को खाता है। उसने दीर्घकाल से इस कुत्ते-व्रत को परिपूर्णता से अपनाया है। उसकी गति क्या होगी, अगली मंजिल क्या होगी?”

“बस, रहने दो, पुण्ण। मुझसे यह मत पुछो।”

तब दूसरी बार… और तब, तीसरी बार भी पुण्ण कोलियपुत्त गाय-व्रतिक ने भगवान से कहा, “भंते, यह निर्वस्त्र सेनिय कुत्ता-व्रतिक बहुत कठिन व्रत पालन करता है, भूमि पर फेंके भोजन को खाता है। उसने दीर्घकाल से इस कुत्ते-व्रत को परिपूर्णता से अपनाया है। उसकी गति क्या होगी, अगली मंजिल क्या होगी?”

“‘बस, रहने दो, पुण्ण। मुझसे यह मत पुछो’, ऐसा कहने पर भी, पुण्ण, मुझे तुमसे छूट नहीं मिलती। तब मैं तुम्हें उत्तर देता हूँ।

पुण्ण, कोई कुत्ते-व्रत की साधना परिपूर्णता और निरंतरता से करता है; कुत्ते के शील (=नैतिकता) को परिपूर्णता और निरंतरता से विकसित करता है; कुत्ते के चित्त को परिपूर्णता और निरंतरता से विकसित करता है; कुत्ते के बर्ताव को परिपूर्णता और निरंतरता से विकसित करता है।

तब, वह कुत्ते-व्रत की परिपूर्णता और निरंतरता से साधना कर, कुत्ता-शील को परिपूर्णता और निरंतरता से विकसित कर, कुत्ता-चित्त को परिपूर्णता और निरंतरता से विकसित कर, कुत्ता-बर्ताव को परिपूर्णता और निरंतरता से विकसित कर — मरणोपरांत काया छूटने पर कुत्तों के साथ (कुत्ता योनि में) जन्म लेता है।

किन्तु, यदि उसकी ऐसा धारणा हो कि ‘इस शील से, इस व्रत से, इस तपस्या से, इस ब्रह्मचर्य से मैं कोई न कोई देवता बनूँगा’ — यह उसकी मिथ्या दृष्टि है। और मिथ्या दृष्टि की, पुण्ण, मैं कहता हूँ कि दो में से एक गति होती है — नर्क अथवा पशु योनि।

इस तरह, पुण्ण, कुत्ते-व्रत में यशस्वी हो तो कुत्तों में जन्म की ओर बढ़ते हैं, और अयशस्वी हो तो नर्क की ओर।”

जब ऐसा कहा गया, तब निर्वस्त्र सेनिय कुत्ता-व्रतिक रो पड़ा, आँसू बहाते हुए।

तब, भगवान ने पुण्ण कोलियपुत्त गाय-व्रतिक से कहा, “इसीलिए, पुण्ण, (मैंने कहा था कि) मुझे तुमसे छूट नहीं मिली, ‘बस, रहने दो, पुण्ण। मुझसे यह मत पुछो!’”

गाय व्रतिक

(तब, निर्वस्त्र सेनिय कुत्ता-व्रतिक ने कहा:) “नहीं, भंते, मैं इसलिए नहीं रो पड़ा कि भगवान ने ऐसा कहा। बल्कि इसलिए, भंते, कि मैंने दीर्घकाल से इस कुत्ते-व्रत को परिपूर्णता से अपनाया है।

और, भंते, यह पुण्ण कोलियपुत्त गाय-व्रतिक है। उसने दीर्घकाल से इस गाय-व्रत को परिपूर्णता से अपनाया है। उसकी गति क्या होगी, अगली मंजिल क्या होगी?”

“बस, रहने दो, सेनिय। मुझसे यह मत पुछो।”

तब दूसरी बार… और तब, तीसरी बार भी निर्वस्त्र सेनिय कुत्ता-व्रतिक ने भगवान से कहा, “भंते, यह पुण्ण कोलियपुत्त गाय-व्रतिक है। उसने दीर्घकाल से इस गाय-व्रत को परिपूर्णता से अपनाया है। उसकी गति क्या होगी, अगली मंजिल क्या होगी?”

“‘बस, रहने दो, सेनिय। मुझसे यह मत पुछो’, ऐसा कहने पर भी, सेनिय, मुझे तुमसे छूट नहीं मिलती। तब मैं तुम्हें उत्तर देता हूँ।

सेनिय, कोई गाय-व्रत की साधना परिपूर्णता और निरंतरता से करता है; गाय के शील को परिपूर्णता और निरंतरता से विकसित करता है; गाय के चित्त को परिपूर्णता और निरंतरता से विकसित करता है; गाय के बर्ताव को परिपूर्णता और निरंतरता से विकसित करता है।

तब, वह गाय-व्रत की परिपूर्णता और निरंतरता से साधना कर, गाय-शील को परिपूर्णता और निरंतरता से विकसित कर, गाय-चित्त को परिपूर्णता और निरंतरता से विकसित कर, गाय-बर्ताव को परिपूर्णता और निरंतरता से विकसित कर — मरणोपरांत काया छूटने पर गायों के साथ (गाय योनि में) जन्म लेता है।

किन्तु, यदि उसकी ऐसा धारणा हो कि ‘इस शील से, इस व्रत से, इस तपस्या से, इस ब्रह्मचर्य से मैं कोई न कोई देवता बनूँगा’ — यह उसकी मिथ्या दृष्टि है। और मिथ्या दृष्टि की, सेनिय, मैं कहता हूँ कि दो में से एक गति होती है — नर्क अथवा पशु योनि।

इस तरह, सेनिय, गाय-व्रत में यशस्वी हो तो गायों में जन्म की ओर बढ़ते हैं, और अयशस्वी हो तो नर्क की ओर।”

जब ऐसा कहा गया, तब पुण्ण कोलियपुत्त गाय-व्रतिक रो पड़ा, आँसू बहाते हुए।

तब, भगवान ने निर्वस्त्र सेनिय कुत्ता-व्रतिक से कहा, “इसीलिए, सेनिय, (मैंने कहा था कि) मुझे तुमसे छूट नहीं मिली, ‘बस, रहने दो, सेनिय। मुझसे यह मत पुछो!’”

(तब, पुण्ण कोलियपुत्त गाय-व्रतिक ने कहा:) “नहीं, भंते, मैं इसलिए नहीं रो पड़ा कि भगवान ने ऐसा कहा। बल्कि इसलिए, भंते, कि मैंने दीर्घकाल से इस गाय-व्रत को परिपूर्णता से अपनाया है।

भंते, मुझे भगवान पर आस्था है कि भगवान मुझे धर्म बता सकते हैं ताकि मैं इस गाय-व्रत को त्याग दूँ, और यह निर्वस्त्र सेनिय कुत्ता-व्रतिक इस कुत्ता-व्रत को त्याग दे।”

“ठीक है, पुण्ण। तब ध्यान देकर गौर से सुनो, मैं बताता हूँ।”

“ठीक है, भंते।” पुण्ण कोलियपुत्त गाय-व्रतिक ने भगवान को उत्तर दिया।

चार प्रकार के कर्म

भगवान ने कहा —

“पुण्ण, चार प्रकार के कर्मों को मैं स्वयं प्रत्यक्ष जान कर, साक्षात्कार कर घोषित करता हूँ। कौन से चार?”

  • काले कर्म के काले परिणाम,
  • उजले कर्म के उजले परिणाम,
  • काले+उजले कर्म के काले+उजले परिणाम,
  • न-काले-न-उजले कर्म के न-काले-न-उजले परिणाम, जो कर्मों के अन्त की ओर बढ़ते हैं।

(१) और, पुण्ण, काले कर्म के काले परिणाम क्या हैं?

पुण्ण, कोई पीड़ादायी काया-संस्कार की रचना करता है, पीड़ादायी वाणी-संस्कार की रचना करता है, और पीड़ादायी मनो-संस्कार की रचना करता है।

वह पीड़ादायी काया-संस्कार की रचना करने पर, पीड़ादायी वाणी-संस्कार की रचना करने पर, पीड़ादायी मनो-संस्कार की रचना करने पर पीड़ादायी लोक में उपजता है। पीड़ादायी लोक में उपजने पर, वह पीड़ादायी संस्पर्शों से छूआ जाता है। पीड़ादायी संस्पर्शों से छूआ जाने पर, उसे पीड़ादायी वेदनाओं की मात्र दुखद अनुभूति ही होती है — जैसे नर्क के सत्व होते हैं।

इस तरह, पुण्ण, जीव से जीव की उत्पत्ति होती है। जैसा करते हो, वैसी उत्पत्ति होती है। जैसी उत्पत्ति हो, वैसे संस्पर्श छूते हैं। इसलिए, पुण्ण, मैं कहता हूँ, ‘सत्व कर्म के वारिस हैं।’

इसे कहते हैं, पुण्ण, काले कर्म के काले परिणाम।

(२) आगे, पुण्ण, उजले कर्म के उजले परिणाम क्या हैं?

पुण्ण, कोई पीड़ारहित काया-संस्कार की रचना करता है, पीड़ारहित वाणी-संस्कार की रचना करता है, और पीड़ारहित मनो-संस्कार की रचना करता है।

वह पीड़ारहित काया-संस्कार की रचना करने पर, पीड़ारहित वाणी-संस्कार की रचना करने पर, पीड़ारहित मनो-संस्कार की रचना करने पर पीड़ारहित लोक में उपजता है। पीड़ारहित लोक में उपजने पर, वह पीड़ारहित संस्पर्शों से छूआ जाता है। पीड़ारहित संस्पर्शों से छूआ जाने पर, उसे पीड़ारहित वेदनाओं की मात्र सुखद अनुभूति ही होती है — जैसे शुभकृष्ण देवता होते हैं।

इस तरह, पुण्ण, जीव से जीव की उत्पत्ति होती है। जैसा करते हो, वैसी उत्पत्ति होती है। जैसी उत्पत्ति हो, वैसे संस्पर्श छूते हैं। इसलिए, पुण्ण, मैं कहता हूँ, ‘सत्व कर्म के वारिस हैं।’

इसे कहते हैं, पुण्ण, उजले कर्म के उजले परिणाम।

(३) और, पुण्ण, काले+उजले कर्म के काले+उजले परिणाम क्या हैं?

पुण्ण, कोई पीड़ादायी और पीड़ारहित (दोनों प्रकार के) काया-संस्कार की रचना करता है, पीड़ादायी और पीड़ारहित वाणी-संस्कार की रचना करता है, और पीड़ादायी और पीड़ारहित मनो-संस्कार की रचना करता है।

वह पीड़ादायी और पीड़ारहित काया-संस्कार… वाणी-संस्कार… मनो-संस्कार की रचना करने पर पीड़ादायी और पीड़ारहित लोक में उपजता है। पीड़ादायी और पीड़ारहित लोक में उपजने पर, वह पीड़ादायी और पीड़ारहित संस्पर्शों से छूआ जाता है। पीड़ादायी और पीड़ारहित संस्पर्शों से छूआ जाने पर, उसे पीड़ादायी और पीड़ारहित वेदनाओं की दर्द में घुले-मिले सुख की अनुभूति होती है — जैसे मनुष्य, कुछ प्रकार के देवता, और कुछ निचले लोक के सत्व होते हैं।

इस तरह, पुण्ण, जीव से जीव की उत्पत्ति होती है। जैसा करते हो, वैसी उत्पत्ति होती है। जैसी उत्पत्ति हो, वैसे संस्पर्श छूते हैं। इसलिए, पुण्ण, मैं कहता हूँ, ‘सत्व कर्म के वारिस हैं।’

इसे कहते हैं, पुण्ण, काले+उजले कर्म के काले+उजले परिणाम।

(४) और, पुण्ण, न-काले-न-उजले कर्म के न-काले-न-उजले परिणाम क्या हैं, जो कर्मों के अन्त की ओर बढ़ते हैं?

जो काले कर्म के काले परिणाम हैं, उन्हें त्यागने की मंशा (“चेतना”) होना, जो उजले कर्म के उजले परिणाम हैं, उन्हें त्यागने की मंशा होना, जो काले+उजले कर्म के काले+उजले परिणाम हैं, उन्हें त्यागने की मंशा होना — इसे कहते हैं, पुण्ण, न-काले-न-उजले कर्म के न-काले-न-उजले परिणाम, जो कर्मों के अन्त की ओर बढ़ते हैं। 1

ये चार प्रकार के कर्मों को, पुण्ण, मैं स्वयं प्रत्यक्ष जान कर, साक्षात्कार कर घोषित करता हूँ।"

जब ऐसा कहा गया, तब पुण्ण कोलियपुत्त गाय-व्रतिक ने भगवान से कहा, “अतिउत्तम, भंते! अतिउत्तम, भंते! जैसे कोई पलटे को सीधा करे, छिपे को खोल दे, भटके को मार्ग दिखाए, या अँधेरे में दीप जलाकर दिखाए, ताकि तेज आँखों वाला स्पष्ट देख पाए — उसी तरह भगवान ने धर्म को अनेक तरह से स्पष्ट कर दिया। मैं बुद्ध की शरण जाता हूँ! धर्म की और संघ की भी! भगवान मुझे आज से लेकर प्राण रहने तक शरणागत उपासक धारण करें!”

किन्तु, निर्वस्त्र सेनिय कुत्ता-व्रतिक ने भगवान से कहा, “अतिउत्तम, भंते! अतिउत्तम, भंते! जैसे कोई पलटे को सीधा करे, छिपे को खोल दे, भटके को मार्ग दिखाए, या अँधेरे में दीप जलाकर दिखाए, ताकि तेज आँखों वाला स्पष्ट देख पाए — उसी तरह भगवान ने धर्म को अनेक तरह से स्पष्ट कर दिया। मैं बुद्ध की शरण जाता हूँ! धर्म की और संघ की भी! भन्ते, मुझे भगवान की उपस्थिती में प्रवज्जा मिले, और (भिक्षु बनने की) उपसंपदा मिले।”

“सेनिय, यदि परधार्मिक व्यक्ति इस धर्म-विनय में प्रवज्जा की आकांक्षा रखता है, उपसंपदा की आकांक्षा रखता, तो उसे (परखने के लिए) चार महीने का परिवास दिया जाता है। चार महीने बीतने पर, यदि भिक्षुओं को ठीक लगे, तब वे उसे प्रवज्जा देते हैं, भिक्षु-भाव में उपसंपादित करते हैं। हालाँकि, मैं इस मामले में व्यक्ति-व्यक्ति में अंतर पहचानता हूँ।”

“भंते, यदि… चार महीने का परिवास आवश्यक हो, तो मुझे चार वर्ष का परिवास मिले। चार वर्ष बीतने पर, यदि भिक्षुओं को ठीक लगे, तब वे मुझे प्रवज्जा दें, भिक्षु-भाव में उपसंपादित करें।”

तब उस निर्वस्त्र सेनिय कुत्ता-व्रतिक को भगवान की उपस्थिती में प्रवज्जा और उपसंपदा मिली।

तब उपसंपदा पाकर अधिक समय नहीं बीता था, जब आयुष्मान सेनिय अकेले एकांतवास लेकर अप्रमत्त, तत्पर और समर्पित होकर विहार करने लगे। तब उन्होंने जल्द ही इसी जीवन में स्वयं जानकर, साक्षात्कार कर, ब्रह्मचर्य की उस सर्वोच्च मंजिल पर पहुँचकर स्थित हुए, जिस ध्येय से कुलपुत्र घर से बेघर होकर प्रव्रजित होते हैं। उन्हें पता चला — ‘जन्म समाप्त हुए! ब्रह्मचर्य परिपूर्ण हुआ! जो करना था, सो कर लिया! अभी यहाँ करने के लिए कुछ बचा नहीं!’

इस तरह, आयुष्मान सेनिय (अनेक) अर्हन्तों में एक हुए।

सुत्र समाप्त।


  1. अंगुत्तरनिकाय ४.२३७ के अनुसार यह चौथे प्रकार का कर्म — आर्य अष्टांगिक मार्ग है। अर्थात, सम्यक दृष्टि, सम्यक संकल्प, सम्यक वाणी, सम्यक कार्य, सम्यक जीविका, सम्यक प्रयास, सम्यक स्मृति, और सम्यक समाधि। अर्थात, आर्य अष्टांगिक मार्ग का कर्म, कर्मों के अन्त की ओर बढ़ता है।

    और, अंगुत्तरनिकाय ४.२३८ के अनुसार, यह चौथे प्रकार का कर्म — सात संबोधि अंग हैं। अर्थात, स्मृति संबोध्यङ्ग, स्वभाव-जाँच संबोध्यङ्ग, ऊर्जा संबोध्यङ्ग, प्रफुल्लता संबोध्यङ्ग, प्रशान्ति संबोध्यङ्ग, समाधि संबोध्यङ्ग व तटस्थता संबोध्यङ्ग। अर्थात, सात संबोधि अंग का कर्म, कर्मों के अन्त की ओर बढ़ता है। ↩︎

Pali

७८. एवं मे सुतं – एकं समयं भगवा कोलियेसु विहरति हलिद्दवसनं नाम कोलियानं निगमो. अथ खो पुण्णो च कोलियपुत्तो गोवतिको अचेलो च सेनियो कुक्कुरवतिको येन भगवा तेनुपसङ्कमिंसु; उपसङ्कमित्वा पुण्णो कोलियपुत्तो गोवतिको भगवन्तं अभिवादेत्वा एकमन्तं निसीदि. अचेलो पन सेनियो कुक्कुरवतिको भगवता सद्धिं सम्मोदि. सम्मोदनीयं कथं सारणीयं वीतिसारेत्वा कुक्कुरोव पलिकुज्जित्वा [पलिकुण्ठित्वा (स्या. कं.), पलिगुण्ठित्वा (क.)] एकमन्तं निसीदि. एकमन्तं निसिन्नो खो पुण्णो कोलियपुत्तो गोवतिको भगवन्तं एतदवोच – ‘‘अयं , भन्ते, अचेलो सेनियो कुक्कुरवतिको दुक्करकारको छमानिक्खित्तं भोजनं भुञ्जति. तस्स तं कुक्कुरवतं दीघरत्तं समत्तं समादिन्नं. तस्स का गति, को अभिसम्परायो’’ति? ‘‘अलं, पुण्ण, तिट्ठतेतं; मा मं एतं पुच्छी’’ति. दुतियम्पि खो पुण्णो कोलियपुत्तो गोवतिको…पे… ततियम्पि खो पुण्णो कोलियपुत्तो गोवतिको भगवन्तं एतदवोच – ‘‘अयं, भन्ते, अचेलो सेनियो कुक्कुरवतिको दुक्करकारको छमानिक्खित्तं भोजनं भुञ्जति. तस्स तं कुक्कुरवतं दीघरत्तं समत्तं समादिन्नं. तस्स का गति, को अभिसम्परायो’’ति?

७९. ‘‘अद्धा खो ते अहं, पुण्ण, न लभामि. अलं, पुण्ण, तिट्ठतेतं; मा मं एतं पुच्छीति; अपि च त्याहं ब्याकरिस्सामि. इध, पुण्ण, एकच्चो कुक्कुरवतं भावेति परिपुण्णं अब्बोकिण्णं, कुक्कुरसीलं भावेति परिपुण्णं अब्बोकिण्णं, कुक्कुरचित्तं भावेति परिपुण्णं अब्बोकिण्णं , कुक्कुराकप्पं भावेति परिपुण्णं अब्बोकिण्णं. सो कुक्कुरवतं भावेत्वा परिपुण्णं अब्बोकिण्णं, कुक्कुरसीलं भावेत्वा परिपुण्णं अब्बोकिण्णं, कुक्कुरचित्तं भावेत्वा परिपुण्णं अब्बोकिण्णं, कुक्कुराकप्पं भावेत्वा परिपुण्णं अब्बोकिण्णं कायस्स भेदा परं मरणा कुक्कुरानं सहब्यतं उपपज्जति. सचे खो पनस्स एवंदिट्ठि होति – ‘इमिनाहं सीलेन वा वतेन वा तपेन वा ब्रह्मचरियेन वा देवो वा भविस्सामि देवञ्ञतरो वा’ति, सास्स [सायं (क.)] होति मिच्छादिट्ठि. मिच्छादिट्ठिस्स [मिच्छादिट्ठिकस्स (सी.)] खो अहं, पुण्ण, द्विन्नं गतीनं अञ्ञतरं गतिं वदामि – निरयं वा तिरच्छानयोनिं वा. इति खो, पुण्ण, सम्पज्जमानं कुक्कुरवतं कुक्कुरानं सहब्यतं उपनेति, विपज्जमानं निरय’’न्ति. एवं वुत्ते, अचेलो सेनियो कुक्कुरवतिको परोदि, अस्सूनि पवत्तेसि.

अथ खो भगवा पुण्णं कोलियपुत्तं गोवतिकं एतदवोच – ‘‘एतं खो ते अहं, पुण्ण, नालत्थं. अलं, पुण्ण, तिट्ठतेतं; मा मं एतं पुच्छी’’ति. ‘‘नाहं, भन्ते, एतं रोदामि यं मं भगवा एवमाह; अपि च मे इदं, भन्ते, कुक्कुरवतं दीघरत्तं समत्तं समादिन्नं. अयं, भन्ते, पुण्णो कोलियपुत्तो गोवतिको. तस्स तं गोवतं दीघरत्तं समत्तं समादिन्नं. तस्स का गति, को अभिसम्परायो’’ति? ‘‘अलं, सेनिय, तिट्ठतेतं; मा मं एतं पुच्छी’’ति. दुतियम्पि खो अचेलो सेनियो…पे… ततियम्पि खो अचेलो सेनियो कुक्कुरवतिको भगवन्तं एतदवोच – ‘‘अयं, भन्ते, पुण्णो कोलियपुत्तो गोवतिको. तस्स तं गोवतं दीघरत्तं समत्तं समादिन्नं. तस्स का गति, को अभिसम्परायो’’ति?

८०. ‘‘अद्धा खो ते अहं, सेनिय, न लभामि. अलं, सेनिय, तिट्ठतेतं; मा मं एतं पुच्छीति; अपि च त्याहं ब्याकरिस्सामि. इध, सेनिय, एकच्चो गोवतं भावेति परिपुण्णं अब्बोकिण्णं, गोसीलं भावेति परिपुण्णं अब्बोकिण्णं, गोचित्तं भावेति परिपुण्णं अब्बोकिण्णं, गवाकप्पं [ग्वाकप्पं (क.)] भावेति परिपुण्णं अब्बोकिण्णं. सो गोवतं भावेत्वा परिपुण्णं अब्बोकिण्णं, गोसीलं भावेत्वा परिपुण्णं अब्बोकिण्णं, गोचित्तं भावेत्वा परिपुण्णं अब्बोकिण्णं, गवाकप्पं भावेत्वा परिपुण्णं अब्बोकिण्णं कायस्स भेदा परं मरणा गुन्नं सहब्यतं उपपज्जति. सचे खो पनस्स एवंदिट्ठि होति – ‘इमिनाहं सीलेन वा वतेन वा तपेन वा ब्रह्मचरियेन वा देवो वा भविस्सामि देवञ्ञतरो वा’ति , सास्स होति मिच्छादिट्ठि. मिच्छादिट्ठिस्स खो अहं, सेनिय, द्विन्नं गतीनं अञ्ञतरं गतिं वदामि – निरयं वा तिरच्छानयोनिं वा. इति खो, सेनिय, सम्पज्जमानं गोवतं गुन्नं सहब्यतं उपनेति, विपज्जमानं निरय’’न्ति. एवं वुत्ते, पुण्णो कोलियपुत्तो गोवतिको परोदि, अस्सूनि पवत्तेसि.

अथ खो भगवा अचेलं सेनियं कुक्कुरवतिकं एतदवोच – ‘‘एतं खो ते अहं, सेनिय , नालत्थं. अलं, सेनिय, तिट्ठतेतं; मा मं एतं पुच्छी’’ति. ‘‘नाहं, भन्ते, एतं रोदामि यं मं भगवा एवमाह; अपि च मे इदं, भन्ते, गोवतं दीघरत्तं समत्तं समादिन्नं. एवं पसन्नो अहं, भन्ते, भगवति; पहोति भगवा तथा धम्मं देसेतुं यथा अहं चेविमं गोवतं पजहेय्यं, अयञ्चेव अचेलो सेनियो कुक्कुरवतिको तं कुक्कुरवतं पजहेय्या’’ति. ‘‘तेन हि, पुण्ण, सुणाहि, साधुकं मनसि करोहि, भासिस्सामी’’ति. ‘‘एवं, भन्ते’’ति खो पुण्णो कोलियपुत्तो गोवतिको भगवतो पच्चस्सोसि. भगवा एतदवोच –

८१. ‘‘चत्तारिमानि, पुण्ण, कम्मानि मया सयं अभिञ्ञा सच्छिकत्वा पवेदितानि. कतमानि चत्तारि? अत्थि, पुण्ण, कम्मं कण्हं कण्हविपाकं; अत्थि, पुण्ण, कम्मं सुक्कं सुक्कविपाकं; अत्थि, पुण्ण, कम्मं कण्हसुक्कं कण्हसुक्कविपाकं; अत्थि, पुण्ण, कम्मं अकण्हं असुक्कं अकण्हअसुक्कविपाकं, कम्मक्खयाय संवत्तति .

‘‘कतमञ्च, पुण्ण, कम्मं कण्हं कण्हविपाकं? इध, पुण्ण, एकच्चो सब्याबज्झं [सब्यापज्झं (सी. स्या. कं.)] कायसङ्खारं अभिसङ्खरोति, सब्याबज्झं वचीसङ्खारं अभिसङ्खरोति, सब्याबज्झं मनोसङ्खारं अभिसङ्खरोति. सो सब्याबज्झं कायसङ्खारं अभिसङ्खरित्वा, सब्याबज्झं वचीसङ्खारं अभिसङ्खरित्वा, सब्याबज्झं मनोसङ्खारं अभिसङ्खरित्वा, सब्याबज्झं लोकं उपपज्जति. तमेनं सब्याबज्झं लोकं उपपन्नं समानं सब्याबज्झा फस्सा फुसन्ति. सो सब्याबज्झेहि फस्सेहि फुट्ठो समानो सब्याबज्झं वेदनं वेदेति एकन्तदुक्खं, सेय्यथापि सत्ता नेरयिका . इति खो, पुण्ण, भूता भूतस्स उपपत्ति होति; यं करोति तेन उपपज्जति, उपपन्नमेनं फस्सा फुसन्ति. एवंपाहं, पुण्ण, ‘कम्मदायादा सत्ता’ति वदामि. इदं वुच्चति, पुण्ण, कम्मं कण्हं कण्हविपाकं.

‘‘कतमञ्च, पुण्ण, कम्मं सुक्कं सुक्कविपाकं? इध, पुण्ण, एकच्चो अब्याबज्झं कायसङ्खारं अभिसङ्खरोति, अब्याबज्झं वचीसङ्खारं अभिसङ्खरोति, अब्याबज्झं मनोसङ्खारं अभिसङ्खरोति. सो अब्याबज्झं कायसङ्खारं अभिसङ्खरित्वा, अब्याबज्झं वचीसङ्खारं अभिसङ्खरित्वा, अब्याबज्झं मनोसङ्खारं अभिसङ्खरित्वा अब्याबज्झं लोकं उपपज्जति. तमेनं अब्याबज्झं लोकं उपपन्नं समानं अब्याबज्झा फस्सा फुसन्ति. सो अब्याबज्झेहि फस्सेहि फुट्ठो समानो अब्याबज्झं वेदनं वेदेति एकन्तसुखं, सेय्यथापि देवा सुभकिण्हा. इति खो , पुण्ण, भूता भूतस्स उपपत्ति होति; यं करोति तेन उपपज्जति, उपपन्नमेनं फस्सा फुसन्ति. एवंपाहं, पुण्ण, ‘कम्मदायादा सत्ता’ति वदामि. इदं वुच्चति, पुण्ण, कम्मं सुक्कं सुक्कविपाकं.

‘‘कतमञ्च, पुण्ण, कम्मं कण्हसुक्कं कण्हसुक्कविपाकं? इध, पुण्ण, एकच्चो सब्याबज्झम्पि अब्याबज्झम्पि कायसङ्खारं अभिसङ्खरोति, सब्याबज्झम्पि अब्याबज्झम्पि वचीसङ्खारं अभिसङ्खरोति, सब्याबज्झम्पि अब्याबज्झम्पि मनोसङ्खारं अभिसङ्खरोति. सो सब्याबज्झम्पि अब्याबज्झम्पि कायसङ्खारं अभिसङ्खरित्वा, सब्याबज्झम्पि अब्याबज्झम्पि वचीसङ्खारं अभिङ्खरित्वा, सब्याबज्झम्पि अब्याबज्झम्पि मनोसङ्खारं अभिसङ्खरित्वा सब्याबज्झम्पि अब्याबज्झम्पि लोकं उपपज्जति. तमेनं सब्याबज्झम्पि अब्याबज्झम्पि लोकं उपपन्नं समानं सब्याबज्झापि अब्याबज्झापि फस्सा फुसन्ति. सो सब्याबज्झेहिपि अब्याबज्झेहिपि फस्सेहि फुट्ठो समानो सब्याबज्झम्पि अब्याबज्झम्पि वेदनं वेदेति वोकिण्णसुखदुक्खं, सेय्यथापि मनुस्सा एकच्चे च देवा एकच्चे च विनिपातिका. इति खो, पुण्ण, भूता भूतस्स उपपत्ति होति; यं करोति तेन उपपज्जति. उपपन्नमेनं फस्सा फुसन्ति. एवंपाहं, पुण्ण, ‘कम्मदायादा सत्ता’ति वदामि. इदं वुच्चति, पुण्ण, कम्मं कण्हसुक्कं कण्हसुक्कविपाकं.

‘‘कतमञ्च , पुण्ण, कम्मं अकण्हं असुक्कं अकण्हअसुक्कविपाकं, कम्मक्खयाय संवत्तति? तत्र, पुण्ण, यमिदं कम्मं कण्हं कण्हविपाकं तस्स पहानाय या चेतना, यमिदं [यम्पिदं (सी. पी.)] कम्मं सुक्कं सुक्कविपाकं तस्स पहानाय या चेतना, यमिदं [यम्पिदं (सी. पी.)] कम्मं कण्हसुक्कं कण्हसुक्कविपाकं तस्स पहानाय या चेतना – इदं वुच्चति, पुण्ण, कम्मं अकण्हं असुक्कं अकण्हअसुक्कविपाकं, कम्मक्खयाय संवत्ततीति. इमानि खो, पुण्ण, चत्तारि कम्मानि मया सयं अभिञ्ञा सच्छिकत्वा पवेदितानी’’ति.

८२. एवं वुत्ते, पुण्णो कोलियपुत्तो गोवतिको भगवन्तं एतदवोच – ‘‘अभिक्कन्तं, भन्ते, अभिक्कन्तं, भन्ते! सेय्यथापि, भन्ते…पे… उपासकं मं भगवा धारेतु अज्जतग्गे पाणुपेतं सरणं गत’’न्ति. अचेलो पन सेनियो कुक्कुरवतिको भगवन्तं एतदवोच – ‘‘अभिक्कन्तं, भन्ते, अभिक्कन्तं, भन्ते! सेय्यथापि, भन्ते…पे… पकासितो. एसाहं, भन्ते, भगवन्तं सरणं गच्छामि धम्मञ्च भिक्खुसङ्घञ्च. लभेय्याहं, भन्ते, भगवतो सन्तिके पब्बज्जं, लभेय्यं उपसम्पद’’न्ति. ‘‘यो खो, सेनिय , अञ्ञतित्थियपुब्बो इमस्मिं धम्मविनये आकङ्खति पब्बज्जं, आकङ्खति उपसम्पदं सो चत्तारो मासे परिवसति. चतुन्नं मासानं अच्चयेन आरद्धचित्ता भिक्खू पब्बाजेन्ति, उपसम्पादेन्ति भिक्खुभावाय. अपि च मेत्थ पुग्गलवेमत्तता विदिता’’ति.

‘‘सचे, भन्ते, अञ्ञतित्थियपुब्बा इमस्मिं धम्मविनये आकङ्खन्ता पब्बज्जं आकङ्खन्ता उपसम्पदं ते चत्तारो मासे परिवसन्ति चतुन्नं मासानं अच्चयेन आरद्धचित्ता भिक्खू पब्बाजेन्ति उपसम्पादेन्ति भिक्खुभावाय, अहं चत्तारि वस्सानि परिवसिस्सामि. चतुन्नं वस्सानं अच्चयेन आरद्धचित्ता भिक्खू पब्बाजेन्तु, उपसम्पादेन्तु भिक्खुभावाया’’ति. अलत्थ खो अचेलो सेनियो कुक्कुरवतिको भगवतो सन्तिके पब्बज्जं, अलत्थ उपसम्पदं. अचिरूपसम्पन्नो खो पनायस्मा सेनियो एको वूपकट्ठो अप्पमत्तो आतापी पहितत्तो विहरन्तो नचिरस्सेव – यस्सत्थाय कुलपुत्ता सम्मदेव अगारस्मा अनगारियं पब्बजन्ति तदनुत्तरं – ब्रह्मचरियपरियोसानं दिट्ठेव धम्मे सयं अभिञ्ञा सच्छिकत्वा उपसम्पज्ज विहासि. ‘खीणा जाति, वुसितं ब्रह्मचरियं, कतं करणीयं, नापरं इत्थत्ताया’ति अब्भञ्ञासि. अञ्ञतरो खो पनायस्मा सेनियो अरहतं अहोसीति.

कुक्कुरवतिकसुत्तं निट्ठितं सत्तमं.