अभय राजकुमार, अट्ठकथा के अनुसार, मगध के महाराज बिम्बीसार की कई रानियों में से एक, उज्जैन की राजकुमारी पदुमावती का पुत्र था। इसका अर्थ है कि वह मगध के अगले महाराज, अजातशत्रु, जो कोसल की राजकुमारी वैदेही के पुत्र थे, का सौतेला भाई था।
अभय राजकुमार पहले से निगण्ठ नाटपुत्त (महावीर जैन) का उपासक था, जैसा कि इस सूत्र से स्पष्ट होता है। विनयपिटक (महावग्ग: अध्याय ८: चीवरक्खन्धक) के अनुसार, जम्बूद्वीप के प्रसिद्ध वैद्य जीवक को अभय राजकुमार ने गोद लिया था, जिसे उसने एक अनाथ के रूप में पाया। उसे पालकर जीवक भी निगण्ठ उपासक बना।
अंततः, इस सूत्र में अभय राजकुमार निगण्ठ को छोड़कर भगवान बुद्ध का उपासक बनता है। जीवक भी, जैसा कि जीवक सूत्र में, दर्शित है, निगण्ठ को छोड़कर भगवान बुद्ध का उपासक बनता है। हालांकि, अभय राजकुमार के पिता, महाराज बिम्बीसार, भगवान बुद्ध के पहले और सबसे श्रद्धालु उपासकों में से थे, जिन्होंने हजारों लोगों के साथ भगवान बुद्ध की शरण ली। उसके बारे में जानने के लिए यह संघकथा पढ़ें।
अभय राजकुमार का सौतेला भाई, जिसने राजसिंहासन के लिए अपने पिता की हत्या की, वह सामञ्ञ फल सुत्त में भगवान का उपासक बनता है, और भगवान के महापरिनिर्वाण के बाद भिक्षुसंघ के संगायन का आयोजन भी करता है।
ऐसा मैंने सुना — एक समय भगवान राजगृह के वेणुवन में गिलहरियों के परिसर पर विहार कर रहे थे। तब अभय राजकुमार निगण्ठ नाटपुत्त के पास गया। जाकर निगण्ठ नाटपुत्त को अभिवादन कर एक ओर बैठ गया। एक ओर बैठे अभय राजकुमार से निगण्ठ नाटपुत्त ने कहा —
“आईये, राजकुमार, श्रमण गोतम के सिद्धान्त का खण्डन करो। तब तुम्हारी यशकिर्ति फैलेगी, ‘अभय राजकुमार ने श्रमण गोतम जैसे महाशक्तिशाली और महाप्रभावशाली के सिद्धान्त का खण्डन किया।’”
“किन्तु, भंते, मैं श्रमण गोतम जैसे महाशक्तिशाली और महाप्रभावशाली के सिद्धान्त का खण्डन कैसे करूँ?”
“ऐसा करो, राजकुमार, श्रमण गोतम के पास जाओ। जाकर श्रमण गोतम से कहो, ‘भंते, क्या तथागत ऐसी बात बोल सकते हैं, जो दूसरों को अप्रिय और अनचाही लगे?’ 1
यदि ऐसा पूछे जाने पर श्रमण गोतम उत्तर दे, ‘हाँ, राजकुमार! तथागत ऐसी बात बोल सकते हैं, जो दूसरों को अप्रिय और अनचाही लगे’ — तब, तुम कहना, ‘तब, भंते, भला आप में और किसी आम आदमी में क्या फर्क है? आम आदमी भी ऐसी बात बोलते हैं, जो दूसरों को अप्रिय और अनचाही लगे।’
और, यदि श्रमण गोतम उत्तर दे, ‘नहीं, राजकुमार! तथागत ऐसी बात नहीं बोल सकते हैं, जो दूसरों को अप्रिय और अनचाही लगे’ — तब, तुम कहना, ‘तब, भंते, भला आप ने देवदत्त के बारे में ऐसा क्यों बोला कि “देवदत्त यातनालोक जाएगा! देवदत्त नर्क जाएगा! देवदत्त कल्प के लिए जाएगा! देवदत्त को बचाया नहीं जा सकता”? आपके ऐसा बोलने पर देवदत्त कुपित और नाराज हो गया।’ 2
इस तरह, राजकुमार, जब तुम श्रमण गोतम के सामने यह दुधारी प्रश्न पुछोगे, तो वह न उगल पाएगा, ना निगल पाएगा। जैसे, किसी पुरुष के गले में सिंघाड़ा फँस जाता है, जिसे वह न उगल पाता है, न निगल पाता है। उसी तरह, राजकुमार, जब तुम श्रमण गोतम के सामने यह दुधारी प्रश्न पुछोगे, तो वह न उगल पाएगा, ना निगल पाएगा।”
“ठीक है, भंते।” अभय राजकुमार ने निगण्ठ नाटपुत्त को उत्तर दिया। और वह आसन से उठकर निगण्ठ नाटपुत्त को अभिवादन कर, प्रदक्षिणा करते हुए भगवान के पास गया। जाकर भगवान को अभिवादन कर एक ओर बैठा। एक ओर बैठे अभय राजकुमार को सूरज की ओर देखकर लगा, “भगवान की बात का खण्डन करने का आज समय (उचित) नहीं है। मैं अपने स्वयं के घर में भगवान की बात का खण्डन करूँगा।”
तब उसने भगवान से कहा, “भंते, कृपा कर कल भगवान मेरे घर भोजन स्वीकारें।”
भगवान ने मौन रहकर स्वीकार किया। तब अभय राजकुमार भगवान की स्वीकृति जानकर आसन से उठ, भगवान को अभिवादन कर, प्रदक्षिणा करते हुए चला गया।
तब रात बीतने पर, सुबह भगवान ने चीवर ओढ़, पात्र लेकर अभय राजकुमार के घर गए। जाकर बिछे आसन पर बैठ गए। तब अभय राजकुमार ने भगवान को अपने हाथों से उत्तम खाद्य और भोजन से संतृप्त किया, संतुष्ट किया।
और जब भगवान ने भोजन किया, हाथ और पात्र धो लिया, तब अभय राजकुमार ने नीचे आसन लगाकर एक ओर बैठ गया। एक ओर बैठकर अभय राजकुमार ने भगवान से कहा, “भंते, क्या तथागत ऐसी बात बोल सकते हैं, जो दूसरों को अप्रिय और अनचाही लगे?”
“इसका, राजकुमार, सीधा (हाँ या ना में) उत्तर नहीं है।” 3
“तब, भंते, निगण्ठ तो गए!”
“क्यों, राजकुमार, तुमने ऐसा कहा, ‘तब, भंते, निगण्ठ तो गए’?”
“भंते, मैं निगण्ठ नाटपुत्त के पास गया था… निगण्ठ नाटपुत्त ने मुझे कहा — ‘आईये, राजकुमार, श्रमण गोतम के सिद्धान्त का खण्डन करो… जाकर श्रमण गोतम से कहो, ‘भंते, क्या तथागत ऐसी बात बोल सकते हैं, जो दूसरों को अप्रिय और अनचाही लगे?’ यदि ऐसा पूछे जाने पर श्रमण गोतम उत्तर दे, ‘हाँ, राजकुमार!… तब, तुम कहना, ‘तब, भंते, भला आप में और किसी आम आदमी में क्या फर्क है? आम आदमी भी ऐसी बात बोलते हैं, जो दूसरों को अप्रिय और अनचाही लगे।’
और, यदि श्रमण गोतम उत्तर दे, ‘नहीं, राजकुमार… तब, तुम कहना, ‘तब, भंते, भला आप ने देवदत्त के बारे में ऐसा क्यों बोला कि “देवदत्त यातनालोक जाएगा! देवदत्त नर्क जाएगा… आपके ऐसा बोलने पर देवदत्त कुपित और नाराज हो गया’… जैसे, किसी पुरुष के गले में सिंघाड़ा फँस जाता है, जिसे वह न उगल पाता है, न निगल पाता है। उसी तरह, राजकुमार, जब तुम श्रमण गोतम के सामने यह दुधारी प्रश्न पुछोगे, तो वह न उगल पाएगा, ना निगल पाएगा।’”
उस समय अभय राजकुमार की गोद में नन्हा कुमार बैठा था। तब भगवान ने अभय राजकुमार से कहा, “तुम्हें क्या लगता है, राजकुमार, यदि तुम्हारा कुमार तुम्हारी लापरवाही से या इसकी दायी की लापरवाही से काष्ठ या पत्थर मुँह में डालता है, तब तुम क्या करोगे?”
“बाहर निकालने का प्रयास करूँगा, भंते। यदि न निकाल पाऊँ, भंते, तब अपने दाहिने हाथ से उसका सिर पकड़ूँगा और बाए हाथ की उँगलियों से निकालूँगा, भले ही रक्त निकल आए। ऐसा क्यों? क्योंकि, भंते, मुझे कुमार पर अनुकंपा है।”
“उसी तरह, राजकुमार, तथागत जानते हुए ऐसी बात —
ऐसा क्यों? क्योंकि, राजकुमार, मुझे सत्वों पर अनुकंपा है।”
“भंते, जो चतुर क्षत्रिय हैं, चतुर ब्राह्मण हैं, चतुर गृहस्थ (=वैश्य) हैं, चतुर श्रमण हैं, जो प्रश्नों को गढ़ कर तथागत के पास पूछने के लिए आते हैं। तब, भंते, क्या पहले से ही भगवान के चित्त में योजना तैयार होती है कि ‘यदि मेरे पास आकर ऐसा-ऐसा पूछेंगे तो मैं वैसा-वैसा उत्तर दूँगा’, अथवा तथागत को उसी स्थान पर सूझता है?”
“ठीक है, राजकुमार, इस पर मैं तुमसे ही प्रतिप्रश्न करता हूँ। तुम्हें जैसा लगे, वैसा उत्तर दो। तुम्हें क्या लगता है, राजकुमार, क्या तुम एक रथ के अंग-प्रत्यंगों में कुशल हो?”
“हाँ, भंते। मैं रथ के अंग-प्रत्यंगों में कुशल हूँ।”
“तुम्हें क्या लगता है, राजकुमार, यदि कोई तुम्हारे पास आकर पूछता है कि ‘रथ के इस हिस्से का नाम क्या है?’ तब, क्या पहले से ही तुम्हारे चित्त में योजना तैयार होती है कि ‘यदि मेरे पास आकर ऐसा-ऐसा पूछेंगे तो मैं वैसा-वैसा उत्तर दूँगा’, अथवा तुम्हें उसी स्थान पर सूझता है?”
“भंते, मैं प्रसिद्ध रथिक (=रथ बनाने वाला) हूँ, रथ के अंग-प्रत्यंगों में कुशल हूँ। रथ के सभी अंग-प्रत्यंगों को बड़े अच्छे से जानता हूँ। मुझे उसी स्थान पर सूझता है।”
“उसी तरह, राजकुमार, जो चतुर क्षत्रिय हैं, चतुर ब्राह्मण हैं, चतुर गृहस्थ हैं, चतुर श्रमण हैं, जो प्रश्नों को गढ़ कर तथागत के पास पूछने के लिए आते हैं। तब, तथागत को उसी स्थान पर सूझता है। ऐसा क्यों? क्योंकि, राजकुमार, तथागत धर्मधातु को बड़े अच्छे से समझ चुके हैं। और धर्मधातु को बड़े अच्छे से समझने पर तथागत को उसी स्थान पर सूझता है।”
जब ऐसा कहा गया, तब अभय राजकुमार ने भगवान से कहा, “अतिउत्तम, भंते! अतिउत्तम, भंते! जैसे कोई पलटे को सीधा करे, छिपे को खोल दे, भटके को मार्ग दिखाए, या अँधेरे में दीप जलाकर दिखाए, ताकि तेज आँखों वाला स्पष्ट देख पाए — उसी तरह भगवान ने धर्म को अनेक तरह से स्पष्ट कर दिया। मैं बुद्ध की शरण जाता हूँ! धर्म की और संघ की भी! भगवान मुझे आज से लेकर प्राण रहने तक शरणागत उपासक धारण करें!”
जैन सिद्धांत अनेकांतवाद का मतलब है कि हमें किसी भी विषय या सत्य को एक ही दृष्टिकोण से नहीं देखना चाहिए। इसके बजाय, हमें विभिन्न संभावनाओं को ध्यान में रखना चाहिए ताकि हम वास्तविकता की जटिलता और विविधता को समझ सकें। इसमें सयदवाद नामक एक सिद्धांत भी है, जो हर कथन के साथ “सय” (अर्थात “यह हो सकता है”) जोड़ता है। इसका मतलब है कि हम किसी बात को शर्तों के साथ मानते या नकारते हैं, बिना किसी निश्चित या अंतिम निर्णय के। महावीर ने इस तरीके का इस्तेमाल बुद्ध को एक दुविधा में फंसाने के लिए किया (जिसे “उभटकोटिका” कहा जाता है)। हालांकि, जैन ग्रंथों में बुद्ध को इस तरह से पेश नहीं किया जाता। ↩︎
यहाँ निगण्ठ नाटपुत्त (=महावीर जैन) अंगुत्तरनिकाय ८.७ और विनयपिटक के चूळवग्ग: १७ सङ्घभेदकक्खन्धक से बुद्ध के उद्धरण दे रहे हैं। ऐसा प्रतीत होता है कि यह सूत्र देवदत्त के विद्रोह और अजातशत्रु के राज्यारोहण के पश्चात घटित हुआ था, जो महावीर के निधन से पहले का समय था। ↩︎
जब भी भगवान बुद्ध से कोई प्रश्न पूछा जाता, तो वे पहले उसका सही प्रकार से वर्गीकरण करते कि वह किस श्रेणी का है और उसका उत्तर किस प्रकार दिया जाना चाहिए। उदाहरण के लिए, वे कभी सीधा ‘हाँ’ या ‘ना’ में उत्तर दे देते, तो कभी कहते कि “यह प्रश्न सीधा ‘हाँ’ या ‘ना’ में उत्तरित नहीं किया जा सकता, लेकिन इसे विभज्ज कर (यानी विश्लेषित कर) उत्तर दिया जा सकता है।” जैसा यहाँ इस सूत्र में करते हैं। कभी वे प्रश्नकर्ता से प्रतिप्रश्न करते, जैसा इस सूत्र में भी करते हैं, ताकि वह स्वयं उत्तर खोज सके। और कभी-कभी वे मौन रह जाते।
(अंगुत्तरनिकाय ४:४२ : पञ्हब्याकरण सुत्त में) बुद्ध सुझाव देते हैं कि एक समझदार व्यक्ति को प्रश्न सुनकर उनका वर्गीकरण करने का कौशल आना चाहिए। उसे चाहिए कि वह प्रश्नों को चार श्रेणियों में बाँटे:
८३. एवं मे सुतं – एकं समयं भगवा राजगहे विहरति वेळुवने कलन्दकनिवापे. अथ खो अभयो राजकुमारो येन निगण्ठो नाटपुत्तो तेनुपसङ्कमि; उपसङ्कमित्वा निगण्ठं नाटपुत्तं अभिवादेत्वा एकमन्तं निसीदि. एकमन्तं निसिन्नं खो अभयं राजकुमारं निगण्ठो नाटपुत्तो एतदवोच – ‘‘एहि त्वं, राजकुमार, समणस्स गोतमस्स वादं आरोपेहि. एवं ते कल्याणो कित्तिसद्दो अब्भुग्गच्छिस्सति – ‘अभयेन राजकुमारेन समणस्स गोतमस्स एवं महिद्धिकस्स एवं महानुभावस्स वादो आरोपितो’’’ति. ‘‘यथा कथं पनाहं, भन्ते, समणस्स गोतमस्स एवं महिद्धिकस्स एवं महानुभावस्स वादं आरोपेस्सामी’’ति? ‘‘एहि त्वं, राजकुमार, येन समणो गोतमो तेनुपसङ्कम; उपसङ्कमित्वा समणं गोतमं एवं वदेहि – ‘भासेय्य नु खो, भन्ते, तथागतो तं वाचं या सा वाचा परेसं अप्पिया अमनापा’ति? सचे ते समणो गोतमो एवं पुट्ठो एवं ब्याकरोति – ‘भासेय्य, राजकुमार, तथागतो तं वाचं या सा वाचा परेसं अप्पिया अमनापा’ति, तमेनं त्वं एवं वदेय्यासि – ‘अथ किञ्चरहि ते, भन्ते, पुथुज्जनेन नानाकरणं? पुथुज्जनोपि हि तं वाचं भासेय्य या सा वाचा परेसं अप्पिया अमनापा’ति. सचे पन ते समणो गोतमो एवं पुट्ठो एवं ब्याकरोति – ‘न, राजकुमार, तथागतो तं वाचं भासेय्य या सा वाचा परेसं अप्पिया अमनापा’ति, तमेनं त्वं एवं वदेय्यासि – ‘अथ किञ्चरहि ते, भन्ते, देवदत्तो ब्याकतो – ‘‘आपायिको देवदत्तो, नेरयिको देवदत्तो, कप्पट्ठो देवदत्तो, अतेकिच्छो देवदत्तो’’ति? ताय च पन ते वाचाय देवदत्तो कुपितो अहोसि अनत्तमनो’ति. इमं खो ते, राजकुमार, समणो गोतमो उभतोकोटिकं पञ्हं पुट्ठो समानो नेव सक्खिति उग्गिलितुं न सक्खिति ओगिलितुं. सेय्यथापि नाम पुरिसस्स अयोसिङ्घाटकं कण्ठे विलग्गं, सो नेव सक्कुणेय्य उग्गिलितुं न सक्कुणेय्य ओगिलितुं; एवमेव खो ते, राजकुमार, समणो गोतमो इमं उभतोकोटिकं पञ्हं पुट्ठो समानो नेव सक्खिति उग्गिलितुं न सक्खिति ओगिलितु’’न्ति. ‘‘एवं, भन्ते’’ति खो अभयो राजकुमारो निगण्ठस्स नाटपुत्तस्स पटिस्सुत्वा उट्ठायासना निगण्ठं नाटपुत्तं अभिवादेत्वा पदक्खिणं कत्वा येन भगवा तेनुपसङ्कमि; उपसङ्कमित्वा भगवन्तं अभिवादेत्वा एकमन्तं निसीदि.
८४. एकमन्तं निसिन्नस्स खो अभयस्स राजकुमारस्स सूरियं [सुरियं (सी. स्या. कं. पी.)] उल्लोकेत्वा एतदहोसि – ‘‘अकालो खो अज्ज भगवतो वादं आरोपेतुं . स्वे दानाहं सके निवेसने भगवतो वादं आरोपेस्सामी’’ति भगवन्तं एतदवोच – ‘‘अधिवासेतु मे, भन्ते, भगवा स्वातनाय अत्तचतुत्थो भत्त’’न्ति. अधिवासेसि भगवा तुण्हीभावेन. अथ खो अभयो राजकुमारो भगवतो अधिवासनं विदित्वा उट्ठायासना भगवन्तं अभिवादेत्वा पदक्खिणं कत्वा पक्कामि. अथ खो भगवा तस्सा रत्तिया अच्चयेन पुब्बण्हसमयं निवासेत्वा पत्तचीवरमादाय येन अभयस्स राजकुमारस्स निवेसनं तेनुपसङ्कमि; उपसङ्कमित्वा पञ्ञत्ते आसने निसीदि. अथ खो अभयो राजकुमारो भगवन्तं पणीतेन खादनीयेन भोजनीयेन सहत्था सन्तप्पेसि सम्पवारेसि. अथ खो अभयो राजकुमारो भगवन्तं भुत्ताविं ओनीतपत्तपाणिं अञ्ञतरं नीचं आसनं गहेत्वा एकमन्तं निसीदि.
८५. एकमन्तं निसिन्नो खो अभयो राजकुमारो भगवन्तं एतदवोच – ‘‘भासेय्य नु खो, भन्ते, तथागतो तं वाचं या सा वाचा परेसं अप्पिया अमनापा’’ति? ‘‘न ख्वेत्थ, राजकुमार, एकंसेना’’ति. ‘‘एत्थ, भन्ते, अनस्सुं निगण्ठा’’ति. ‘‘किं पन त्वं, राजकुमार, एवं वदेसि – ‘एत्थ , भन्ते, अनस्सुं निगण्ठा’’’ति? ‘‘इधाहं, भन्ते, येन निगण्ठो नाटपुत्तो तेनुपसङ्कमि; उपसङ्कमित्वा निगण्ठं नाटपुत्तं अभिवादेत्वा एकमन्तं निसीदिं. एकमन्तं निसिन्नं खो मं, भन्ते, निगण्ठो नाटपुत्तो एतदवोच – ‘एहि त्वं, राजकुमार, समणस्स गोतमस्स वादं आरोपेहि. एवं ते कल्याणो कित्तिसद्दो अब्भुग्गच्छिस्सति – अभयेन राजकुमारेन समणस्स गोतमस्स एवं महिद्धिकस्स एवं महानुभावस्स वादो आरोपितो’ति. एवं वुत्ते, अहं, भन्ते, निगण्ठं नाटपुत्तं एतदवोचं – ‘यथा कथं पनाहं , भन्ते, समणस्स गोतमस्स एवं महिद्धिकस्स एवं महानुभावस्स वादं आरोपेस्सामी’ति? ‘एहि त्वं, राजकुमार, येन समणो गोतमो तेनुपसङ्कम; उपसङ्कमित्वा समणं गोतमं एवं वदेहि – भासेय्य नु खो, भन्ते, तथागतो तं वाचं या सा वाचा परेसं अप्पिया अमनापाति? सचे ते समणो गोतमो एवं पुट्ठो एवं ब्याकरोति – भासेय्य, राजकुमार, तथागतो तं वाचं या सा वाचा परेसं अप्पिया अमनापाति, तमेनं त्वं एवं वदेय्यासि – अथ किञ्चरहि ते, भन्ते, पुथुज्जनेन नानाकरणं? पुथुज्जनोपि हि तं वाचं भासेय्य या सा वाचा परेसं अप्पिया अमनापाति. सचे पन ते समणो गोतमो एवं पुट्ठो एवं ब्याकरोति – न, राजकुमार, तथागतो तं वाचं भासेय्य या सा वाचा परेसं अप्पिया अमनापाति, तमेनं त्वं एवं वदेय्यासि – अथ किञ्चरहि ते, भन्ते, देवदत्तो ब्याकतो – आपायिको देवदत्तो, नेरयिको देवदत्तो, कप्पट्ठो देवदत्तो, अतेकिच्छो देवदत्तोति? ताय च पन ते वाचाय देवदत्तो कुपितो अहोसि अनत्तमनोति. इमं खो ते, राजकुमार, समणो गोतमो उभतोकोटिकं पञ्हं पुट्ठो समानो नेव सक्खिति उग्गिलितुं न सक्खिति ओगिलितुं. सेय्यथापि नाम पुरिसस्स अयोसिङ्घाटकं कण्ठे विलग्गं, सो नेव सक्कुणेय्य उग्गिलितुं न सक्कुणेय्य ओगिलितुं; एवमेव खो ते, राजकुमार, समणो गोतमो इमं उभतोकोटिकं पञ्हं पुट्ठो समानो नेव सक्खिति उग्गिलितुं न सक्खिति ओगिलितु’’’न्ति.
८६. तेन खो पन समयेन दहरो कुमारो मन्दो उत्तानसेय्यको अभयस्स राजकुमारस्स अङ्के निसिन्नो होति. अथ खो भगवा अभयं राजकुमारं एतदवोच – ‘‘तं किं मञ्ञसि, राजकुमार, सचायं कुमारो तुय्हं वा पमादमन्वाय धातिया वा पमादमन्वाय कट्ठं वा कठलं [कथलं (क.)] वा मुखे आहरेय्य, किन्ति नं करेय्यासी’’ति? ‘‘आहरेय्यस्साहं, भन्ते. सचे, भन्ते, न सक्कुणेय्यं आदिकेनेव आहत्तुं [आहरितुं (स्या. कं.)], वामेन हत्थेन सीसं परिग्गहेत्वा [पग्गहेत्वा (सी.)] दक्खिणेन हत्थेन वङ्कङ्गुलिं करित्वा सलोहितम्पि आहरेय्यं. तं किस्स हेतु? अत्थि मे, भन्ते, कुमारे अनुकम्पा’’ति. ‘‘एवमेव खो, राजकुमार, यं तथागतो वाचं जानाति अभूतं अतच्छं अनत्थसंहितं सा च परेसं अप्पिया अमनापा, न तं तथागतो वाचं भासति. यम्पि तथागतो वाचं जानाति भूतं तच्छं अनत्थसंहितं सा च परेसं अप्पिया अमनापा, तम्पि तथागतो वाचं न भासति. यञ्च खो तथागतो वाचं जानाति भूतं तच्छं अत्थसंहितं सा च परेसं अप्पिया अमनापा, तत्र कालञ्ञू तथागतो होति तस्सा वाचाय वेय्याकरणाय. यं तथागतो वाचं जानाति अभूतं अतच्छं अनत्थसंहितं सा च परेसं पिया मनापा, न तं तथागतो वाचं भासति. यम्पि तथागतो वाचं जानाति भूतं तच्छं अनत्थसंहितं सा च परेसं पिया मनापा तम्पि तथागतो वाचं न भासति. यञ्च तथागतो वाचं जानाति भूतं तच्छं अत्थसंहितं सा च परेसं पिया मनापा, तत्र कालञ्ञू तथागतो होति तस्सा वाचाय वेय्याकरणाय. तं किस्स हेतु? अत्थि, राजकुमार, तथागतस्स सत्तेसु अनुकम्पा’’ति.
८७. ‘‘येमे, भन्ते, खत्तियपण्डितापि ब्राह्मणपण्डितापि गहपतिपण्डितापि समणपण्डितापि पञ्हं अभिसङ्खरित्वा तथागतं उपसङ्कमित्वा पुच्छन्ति, पुब्बेव नु खो, एतं, भन्ते , भगवतो चेतसो परिवितक्कितं होति ‘ये मं उपसङ्कमित्वा एवं पुच्छिस्सन्ति तेसाहं एवं पुट्ठो एवं ब्याकरिस्सामी’ति, उदाहु ठानसोवेतं तथागतं पटिभाती’’ति?
‘‘तेन हि, राजकुमार, तञ्ञेवेत्थ पटिपुच्छिस्सामि, यथा ते खमेय्य तथा नं ब्याकरेय्यासि. तं किं मञ्ञसि, राजकुमार, कुसलो त्वं रथस्स अङ्गपच्चङ्गान’’न्ति?
‘‘एवं, भन्ते, कुसलो अहं रथस्स अङ्गपच्चङ्गान’’न्ति.
‘‘तं किं मञ्ञसि, राजकुमार, ये तं उपसङ्कमित्वा एवं पुच्छेय्युं – ‘किं नामिदं रथस्स अङ्गपच्चङ्ग’न्ति? पुब्बेव नु खो ते एतं चेतसो परिवितक्कितं अस्स ‘ये मं उपसङ्कमित्वा एवं पुच्छिस्सन्ति तेसाहं एवं पुट्ठो एवं ब्याकरिस्सामी’ति, उदाहु ठानसोवेतं पटिभासेय्या’’ति?
‘‘अहञ्हि, भन्ते, रथिको सञ्ञातो कुसलो रथस्स अङ्गपच्चङ्गानं. सब्बानि मे रथस्स अङ्गपच्चङ्गानि सुविदितानि. ठानसोवेतं मं पटिभासेय्या’’ति .
‘‘एवमेव खो, राजकुमार, ये ते खत्तियपण्डितापि ब्राह्मणपण्डितापि गहपतिपण्डितापि समणपण्डितापि पञ्हं अभिसङ्खरित्वा तथागतं उपसङ्कमित्वा पुच्छन्ति, ठानसोवेतं तथागतं पटिभाति. तं किस्स हेतु? सा हि, राजकुमार, तथागतस्स धम्मधातु सुप्पटिविद्धा यस्सा धम्मधातुया सुप्पटिविद्धत्ता ठानसोवेतं तथागतं पटिभाती’’ति.
एवं वुत्ते, अभयो राजकुमारो भगवन्तं एतदवोच – ‘‘अभिक्कन्तं, भन्ते, अभिक्कन्तं, भन्ते…पे… अज्जतग्गे पाणुपेतं सरणं गत’’न्ति.
अभयराजकुमारसुत्तं निट्ठितं अट्ठमं.