नमो तस्स भगवतो अरहतो सम्मा-सम्बुद्धस्स

📜 कई तरह के सुख

✦ ॥ नमो तस्स भगवतो अरहतो सम्मासम्बुद्धस्स ॥ ✦

Hindi

ऐसा मैंने सुना — एक समय भगवान श्रावस्ती में अनाथपिण्डक के जेतवन उद्यान में विहार कर रहे थे। तब राज-अधिकारी पञ्चकङ्ग 1 आयुष्मान उदायी के पास गया। जाकर आयुष्मान उदायी को अभिवादन कर एक ओर बैठ गया। एक ओर बैठकर राजाधिकारी पञ्चकङ्ग ने आयुष्मान उदायी से कहा, “उदायी भंते, भगवान ने कितनी अनुभूतियाँ (“वेदना”) बतायी?”

“राजाधिकारी, भगवान ने तीन अनुभूतियाँ बतायी — सुखद अनुभूति, दुखद अनुभूति, और अदुखद-असुखद अनुभूति। भगवान ने ये तीन अनुभूतियाँ बतायी।”

जब ऐसा कहा गया, तब राजाधिकारी पञ्चकङ्ग ने आयुष्मान उदायी से कहा, “नहीं, उदायी भंते, भगवान ने तीन अनुभूतियाँ नहीं बतायी। भगवान ने दो अनुभूतियाँ बतायी — सुखद अनुभूति और दुखद अनुभूति। भगवान ने अदुखद-असुखद अनुभूति को शांतिपूर्ण और उत्तम ‘सुख’ बताया।”

तब, दुबारा आयुष्मान उदायी ने राजाधिकारी पञ्चकङ्ग से कहा, “नहीं, गृहस्थ, भगवान ने दो अनुभूतियाँ नहीं बतायी। भगवान ने तीन अनुभूतियाँ बतायी — सुखद अनुभूति, दुखद अनुभूति, और अदुखद-असुखद अनुभूति। भगवान ने ये तीन अनुभूतियाँ बतायी।”

तब, दूसरी बार… और तब, तीसरी बार, राजाधिकारी पञ्चकङ्ग ने आयुष्मान उदायी से कहा, “नहीं, उदायी भंते, भगवान ने तीन अनुभूतियाँ नहीं बतायी। भगवान ने दो अनुभूतियाँ बतायी — सुखद अनुभूति और दुखद अनुभूति। भगवान ने अदुखद-असुखद अनुभूति को शांतिपूर्ण और उत्तम ‘सुख’ बताया।”

न आयुष्मान उदायी राजाधिकारी पञ्चकङ्ग को समझा पा रहे थे, न राजाधिकारी पञ्चकङ्ग आयुष्मान उदायी को ही समझा पा रहा था। आयुष्मान आनन्द ने आयुष्मान उदायी और राजाधिकारी पञ्चकङ्ग के बीच हो रहे वार्तालाप को सुना। तब आयुष्मान आनन्द भगवान के पास गए। जाकर भगवान को अभिवादन कर एक ओर बैठ गए। एक ओर बैठकर आयुष्मान आनन्द ने आयुष्मान उदायी और राजाधिकारी पञ्चकङ्ग के बीच हो रहे वार्तालाप को सब भगवान को सुनाया।

जब ऐसा कहा गया, तब भगवान ने आयुष्मान आनन्द से कहा, “आनन्द, उदायी के सच्चे धर्मावर्णन से राजाधिकारी पञ्चकङ्ग सहमत नहीं हुआ, और राजाधिकारी पञ्चकङ्ग के सच्चे धर्मावर्णन से उदायी सहमत नहीं हुआ।

क्योंकि, आनन्द, मैंने एक धर्मोपदेश में दो अनुभूतियाँ बतायी हैं। एक धर्मोपदेश में तीन अनुभूतियाँ बतायी हैं। एक धर्मोपदेश में पाँच अनुभूतियाँ बतायी हैं। एक धर्मोपदेश में छह अनुभूतियाँ बतायी हैं। एक धर्मोपदेश में अठारह अनुभूतियाँ बतायी हैं। एक धर्मोपदेश में छत्तीस अनुभूतियाँ बतायी हैं। और एक धर्मोपदेश में एक सौ आठ अनुभूतियाँ बतायी हैं। इस तरह, आनन्द, मैंने इन सभी तरीकों से धर्म बताया हैं। 2

और जब, आनन्द, मैंने इन सभी तरीकों से धर्म बताया हैं, तब जो एक दूसरे के द्वारा अच्छे से बताएँ, अच्छे से परिभाषित धर्म को ठीक से स्वीकारते नहीं हैं, ठीक से मानते नहीं हैं, ठीक से अनुमोदन नहीं करते हैं, उनसे अपेक्षा की जा सकती हैं कि वे बहस करते हुए, कलह करते हुए, विवाद करते हुए, एक दूसरे को मुख-बाणों से घायल करते हुए विहार करेंगे।

जबकि, आनन्द, मैंने इन सभी तरीकों से धर्म बताया हैं, तब जो एक दूसरे के द्वारा अच्छे से बताएँ, अच्छे से परिभाषित धर्म को ठीक से स्वीकारते हैं, ठीक से मान लेते हैं, ठीक से अनुमोदन करते हैं, उनसे अपेक्षा की जा सकती हैं कि वे सभी मिल-जुलकर प्रसन्न रह, विवाद न कर, दूध में पानी जैसे होकर, एक दूसरे को स्नेहभरी आँखों से देखते हुए विहार करेंगे।

बेहतर सुख

कामसुख

आनन्द, पाँच कामगुण होते हैं। कौन से पाँच?

  • आँख से दिखायी देते रूप, जो अच्छे, सुंदर, मनपसंद, आकर्षक, कामुक, ललचाते हो।
  • कान से सुनायी देती आवाज़े, जो अच्छी, मोहक, मनपसंद, आकर्षक, कामुक, ललचाती हो।
  • नाक से सुँघाई देती गन्ध, जो अच्छी, मोहक, मनपसंद, आकर्षक, कामुक, ललचाती हो।
  • जीभ से पता चलते स्वाद, जो अच्छे, मोहक, मनपसंद, आकर्षक, कामुक, ललचाते हो।
  • काया से पता चलते संस्पर्श, जो अच्छे, मोहक, मनपसंद, आकर्षक, कामुक, ललचाते हो।

ये पाँच, आनन्द, कामगुण हैं। इन पाँच कामगुणों के आधार पर, आनन्द, जो भी सुख और खुशी उत्पन्न होती है, उसे ‘कामसुख’ कहते हैं।

आनन्द, कोई कहता हैं, ‘बस यही परम सुख और खुशी है, जिसकी अनुभूति सत्व करते हैं।’ किन्तु, मैं सहमत नहीं हूँ। ऐसा क्यों? क्योंकि, आनन्द, इस सुख के बजाय दूसरा सुख उससे बेहतर है, उससे उत्कृष्ठ है। वह कौन सा सुख है, आनन्द, जो इस सुख के बजाय ज्यादा बेहतर है, ज्यादा उत्कृष्ठ है?

चार ध्यान सुख

(१) जब कोई भिक्षु, आनन्द, कामुकता से निर्लिप्त, अकुशल-स्वभाव से निर्लिप्त, सोच एवं विचार के साथ निर्लिप्तता से उपजे प्रफुल्लता और सुखपूर्ण प्रथम-ध्यान में प्रवेश पाकर रहता है। यह सुख, आनन्द, इस (काम) सुख के बजाय ज्यादा बेहतर है, ज्यादा उत्कृष्ठ है।

तब, आनन्द, कोई कहता हैं, ‘बस यही परम सुख और खुशी है, जिसकी अनुभूति सत्व करते हैं।’ किन्तु, उससे भी मैं सहमत नहीं हूँ। ऐसा क्यों? क्योंकि, आनन्द, इस भी सुख के बजाय दूसरा सुख उससे बेहतर है, उससे उत्कृष्ठ है। वह कौन सा सुख है, आनन्द, जो इस सुख के बजाय ज्यादा बेहतर है, ज्यादा उत्कृष्ठ है?

(२) आगे, आनन्द, कोई भिक्षु सोच एवं विचार के रुक जाने पर, भीतर आश्वस्त हुआ मानस एकरस होकर, बिना-सोच, बिना-विचार, समाधि से उपजे प्रफुल्लता और सुखपूर्ण द्वितीय-ध्यान में प्रवेश पाकर रहता है। यह सुख, आनन्द, इस (प्रथम झान) सुख के बजाय ज्यादा बेहतर है, ज्यादा उत्कृष्ठ है।

तब, आनन्द, कोई कहता हैं, ‘बस यही परम सुख और खुशी है, जिसकी अनुभूति सत्व करते हैं।’ किन्तु, उससे भी मैं सहमत नहीं हूँ। ऐसा क्यों? क्योंकि, आनन्द, इस भी सुख के बजाय दूसरा सुख उससे बेहतर है, उससे उत्कृष्ठ है। वह कौन सा सुख है, आनन्द, जो इस सुख के बजाय ज्यादा बेहतर है, ज्यादा उत्कृष्ठ है?

(३) आगे, आनन्द, कोई भिक्षु प्रफुल्लता से विरक्त हो, स्मरणशील एवं सचेतता के साथ-साथ तटस्थता धारण कर शरीर से सुख महसूस करता है। जिसे आर्यजन ‘तटस्थ, स्मरणशील, सुखविहारी’ कहते हैं, वह ऐसे तृतीय-ध्यान में प्रवेश पाकर रहता है। यह सुख, आनन्द, इस (द्वितीय झान) सुख के बजाय ज्यादा बेहतर है, ज्यादा उत्कृष्ठ है।

तब, आनन्द, कोई कहता हैं, ‘बस यही परम सुख और खुशी है, जिसकी अनुभूति सत्व करते हैं।’ किन्तु, उससे भी मैं सहमत नहीं हूँ। ऐसा क्यों? क्योंकि, आनन्द, इस भी सुख के बजाय दूसरा सुख उससे बेहतर है, उससे उत्कृष्ठ है। वह कौन सा सुख है, आनन्द, जो इस सुख के बजाय ज्यादा बेहतर है, ज्यादा उत्कृष्ठ है?

(४) आगे, आनन्द, कोई भिक्षु सुख एवं दर्द दोनों हटाकर, खुशी एवं परेशानी पूर्व ही विलुप्त होने पर, तटस्थता और स्मरणशीलता की परिशुद्धता के साथ, अब न-सुख-न-दर्द पूर्ण चतुर्थ-ध्यान में प्रवेश पाकर रहता है। यह सुख, आनन्द, इस (तृतीय झान) सुख के बजाय ज्यादा बेहतर है, ज्यादा उत्कृष्ठ है।

तब, आनन्द, कोई कहता हैं, ‘बस यही परम सुख और खुशी है, जिसकी अनुभूति सत्व करते हैं।’ किन्तु, उससे भी मैं सहमत नहीं हूँ। ऐसा क्यों? क्योंकि, आनन्द, इस भी सुख के बजाय दूसरा सुख उससे बेहतर है, उससे उत्कृष्ठ है। वह कौन सा सुख है, आनन्द, जो इस सुख के बजाय ज्यादा बेहतर है, ज्यादा उत्कृष्ठ है?

चार अरूप आयाम सुख

(५) आगे, आनन्द, कोई भिक्षु रूप नजरिए पूर्णतः लाँघकर, विरोधी नजरिए ओझल होने पर, विविध नजरियों पर ध्यान न देकर — ‘आकाश अनन्त है’ (देखते हुए) ‘अनन्त आकाश-आयाम’ में प्रवेश कर रहता है। यह सुख, आनन्द, इस (चतुर्थ झान) सुख के बजाय ज्यादा बेहतर है, ज्यादा उत्कृष्ठ है।

तब, आनन्द, कोई कहता हैं, ‘बस यही परम सुख और खुशी है, जिसकी अनुभूति सत्व करते हैं।’ किन्तु, उससे भी मैं सहमत नहीं हूँ। ऐसा क्यों? क्योंकि, आनन्द, इस भी सुख के बजाय दूसरा सुख उससे बेहतर है, उससे उत्कृष्ठ है। वह कौन सा सुख है, आनन्द, जो इस सुख के बजाय ज्यादा बेहतर है, ज्यादा उत्कृष्ठ है?

(६) आगे, आनन्द, कोई भिक्षु अनन्त आकाश-आयाम पूर्णतः लाँघकर, ‘चैतन्य अनन्त है’ (देखते हुए) ‘अनन्त चैतन्य-आयाम’ में प्रवेश कर रहता है। यह सुख, आनन्द, इस (आकाश आयाम) सुख के बजाय ज्यादा बेहतर है, ज्यादा उत्कृष्ठ है।

तब, आनन्द, कोई कहता हैं, ‘बस यही परम सुख और खुशी है, जिसकी अनुभूति सत्व करते हैं।’ किन्तु, उससे भी मैं सहमत नहीं हूँ। ऐसा क्यों? क्योंकि, आनन्द, इस भी सुख के बजाय दूसरा सुख उससे बेहतर है, उससे उत्कृष्ठ है। वह कौन सा सुख है, आनन्द, जो इस सुख के बजाय ज्यादा बेहतर है, ज्यादा उत्कृष्ठ है?

(७) आगे, आनन्द, कोई भिक्षु अनन्त चैतन्य-आयाम पूर्णतः लाँघकर, ‘कुछ नहीं है’ (देखते हुए) ‘सूने-आयाम’ में प्रवेश कर रहता है। यह सुख, आनन्द, इस (चैतन्य आयाम) सुख के बजाय ज्यादा बेहतर है, ज्यादा उत्कृष्ठ है।

तब, आनन्द, कोई कहता हैं, ‘बस यही परम सुख और खुशी है, जिसकी अनुभूति सत्व करते हैं।’ किन्तु, उससे भी मैं सहमत नहीं हूँ। ऐसा क्यों? क्योंकि, आनन्द, इस भी सुख के बजाय दूसरा सुख उससे बेहतर है, उससे उत्कृष्ठ है। वह कौन सा सुख है, आनन्द, जो इस सुख के बजाय ज्यादा बेहतर है, ज्यादा उत्कृष्ठ है?

(८) आगे, आनन्द, कोई भिक्षु सुने-आयाम को पूर्णतः लाँघ कर, न-संज्ञा-न-असंज्ञा (=न बोधगम्य, न अबोधगम्य) आयाम में प्रवेश पाकर रहता है। यह सुख, आनन्द, इस (सूने आयाम) सुख के बजाय ज्यादा बेहतर है, ज्यादा उत्कृष्ठ है।

तब, आनन्द, कोई कहता हैं, ‘बस यही परम सुख और खुशी है, जिसकी अनुभूति सत्व करते हैं।’ किन्तु, उससे भी मैं सहमत नहीं हूँ। ऐसा क्यों? क्योंकि, आनन्द, इस भी सुख के बजाय दूसरा सुख उससे बेहतर है, उससे उत्कृष्ठ है। वह कौन सा सुख है, आनन्द, जो इस सुख के बजाय ज्यादा बेहतर है, ज्यादा उत्कृष्ठ है?

निरोध सुख

आगे, आनन्द, कोई भिक्षु न-संज्ञा-न-असंज्ञा आयाम को पूर्णतः लाँघ कर, संज्ञा वेदना निरोध अवस्था में प्रवेश पाकर रहता है। यह सुख, आनन्द, इस (न-संज्ञा-न-असंज्ञा आयाम) सुख के बजाय ज्यादा बेहतर है, ज्यादा उत्कृष्ठ है।

अब, हो सकता है, आनन्द, कोई परधर्मी संन्यासी ऐसा कहे, ‘श्रमण गोतम ‘संज्ञा और वेदना का निरोध बताते हैं, और उसे भी ‘सुख’ बताते हैं।’ यह क्या है? ऐसा कैसे?

जब वे ऐसा कहे, आनन्द, तो उन परधर्मी संन्यासियों को कहना चाहिए, ‘ऐसा नहीं हैं, मित्रों, कि भगवान ‘सुख’ में केवल ‘सुखद संवेदना’ को ही शामिल करते हैं। बल्कि जहाँ-जहाँ सुख उपलब्ध हो, वहाँ-वहाँ भगवान ‘सुख’ बताते हैं।’”

भगवान ने ऐसा कहा। हर्षित होकर आयुष्मान आनन्द ने भगवान की बात का अभिनंदन किया।

सुत्र समाप्त।


  1. पञ्चकङ्ग, जो कोसल राज्य के महाराज प्रसेनजित का प्रमुख राज अधिकारी था, मज्झिमनिकाय ७८ और मज्झिमनिकाय १२७ में भगवान बुद्ध के एक प्रमुख उपासक के रूप में वर्णित है। यह सूत्र, जो संयुक्तनिकाय ३६:१९ से मिलता-जुलता है, उसी के समानान्तर मुख्य धर्मोपदेश प्रदान करता है। ↩︎

  2. इन सभी प्रकार की अनुभूतियों को संयुक्तनिकाय ३६.२२ में विस्तार से बताया गया है। ↩︎

Pali

८८. एवं मे सुतं – एकं समयं भगवा सावत्थियं विहरति जेतवने अनाथपिण्डिकस्स आरामे. अथ खो पञ्चकङ्गो थपति येनायस्मा उदायी तेनुपसङ्कमि; उपसङ्कमित्वा आयस्मन्तं उदायिं अभिवादेत्वा एकमन्तं निसीदि. एकमन्तं निसिन्नो खो पञ्चकङ्गो थपति आयस्मन्तं उदायिं एतदवोच – ‘‘कति नु खो, भन्ते उदायि, वेदना वुत्ता भगवता’’ति? ‘‘तिस्सो खो, थपति [गहपति (स्या. कं. पी.)], वेदना वुत्ता भगवता. सुखा वेदना, दुक्खा वेदना, अदुक्खमसुखा वेदना – इमा खो, थपति, तिस्सो वेदना वुत्ता भगवता’’ति. एवं वुत्ते, पञ्चकङ्गो थपति आयस्मन्तं उदायिं एतदवोच – ‘‘न खो, भन्ते उदायि, तिस्सो वेदना वुत्ता भगवता; द्वे वेदना वुत्ता भगवता – सुखा वेदना, दुक्खा वेदना. यायं, भन्ते, अदुक्खमसुखा वेदना सन्तस्मिं एसा पणीते सुखे वुत्ता भगवता’’ति. दुतियम्पि खो आयस्मा उदायी पञ्चकङ्गं थपतिं एतदवोच – ‘‘न खो, गहपति, द्वे वेदना वुत्ता भगवता; तिस्सो वेदना वुत्ता भगवता. सुखा वेदना, दुक्खा वेदना, अदुक्खमसुखा वेदना – इमा खो, थपति, तिस्सो वेदना वुत्ता भगवता’’ति. दुतियम्पि खो पञ्चकङ्गो थपति आयस्मन्तं उदायिं एतदवोच – ‘‘न खो, भन्ते उदायि, तिस्सो वेदना वुत्ता भगवता; द्वे वेदना वुत्ता भगवता – सुखा वेदना, दुक्खा वेदना. यायं, भन्ते , अदुक्खमसुखा वेदना सन्तस्मिं एसा पणीते सुखे वुत्ता भगवता’’ति. ततियम्पि खो आयस्मा उदायी पञ्चकङ्गं थपतिं एतदवोच – ‘‘न खो, थपति, द्वे वेदना वुत्ता भगवता; तिस्सो वेदना वुत्ता भगवता. सुखा वेदना, दुक्खा वेदना, अदुक्खमसुखा वेदना – इमा खो, थपति, तिस्सो वेदना वुत्ता भगवता’’ति. ततियम्पि खो पञ्चकङ्गो थपति आयस्मन्तं उदायिं एतदवोच – ‘‘न खो, भन्ते उदायि, तिस्सो वेदना वुत्ता भगवता, द्वे वेदना वुत्ता भगवता – सुखा वेदना, दुक्खा वेदना. यायं, भन्ते, अदुक्खमसुखा वेदना सन्तस्मिं एसा पणीते सुखे वुत्ता भगवता’’ति. नेव खो सक्खि आयस्मा उदायी पञ्चकङ्गं थपतिं सञ्ञापेतुं न पनासक्खि पञ्चकङ्गो थपति आयस्मन्तं उदायिं सञ्ञापेतुं.

८९. अस्सोसि खो आयस्मा आनन्दो आयस्मतो उदायिस्स पञ्चकङ्गेन थपतिना सद्धिं इमं कथासल्लापं. अथ खो आयस्मा आनन्दो येन भगवा तेनुपसङ्कमि; उपसङ्कमित्वा भगवन्तं अभिवादेत्वा एकमन्तं निसीदि. एकमन्तं निसिन्नो खो आयस्मा आनन्दो यावतको अहोसि आयस्मतो उदायिस्स पञ्चकङ्गेन थपतिना सद्धिं कथासल्लापो तं सब्बं भगवतो आरोचेसि. एवं वुत्ते, भगवा आयस्मन्तं आनन्दं एतदवोच – ‘‘सन्तञ्ञेव खो, आनन्द, परियायं पञ्चकङ्गो थपति उदायिस्स नाब्भनुमोदि, सन्तञ्ञेव च पन परियायं उदायी पञ्चकङ्गस्स थपतिस्स नाब्भनुमोदि. द्वेपानन्द, वेदना वुत्ता मया परियायेन , तिस्सोपि वेदना वुत्ता मया परियायेन, पञ्चपि वेदना वुत्ता मया परियायेन, छपि वेदना वुत्ता मया परियायेन, अट्ठारसपि वेदना वुत्ता मया परियायेन, छत्तिंसपि वेदना वुत्ता मया परियायेन, अट्ठसतम्पि वेदना वुत्ता मया परियायेन. एवं परियायदेसितो खो, आनन्द, मया धम्मो. एवं परियायदेसिते खो, आनन्द, मया धम्मे ये अञ्ञमञ्ञस्स सुभासितं सुलपितं न समनुजानिस्सन्ति न समनुमञ्ञिस्सन्ति न समनुमोदिस्सन्ति तेसमेतं पाटिकङ्खं – भण्डनजाता कलहजाता विवादापन्ना अञ्ञमञ्ञं मुखसत्तीहि वितुदन्ता विहरिस्सन्ति. एवं परियायदेसितो खो, आनन्द, मया धम्मो. एवं परियायदेसिते खो, आनन्द, मया धम्मे ये अञ्ञमञ्ञस्स सुभासितं सुलपितं समनुजानिस्सन्ति समनुमञ्ञिस्सन्ति समनुमोदिस्सन्ति तेसमेतं पाटिकङ्खं – समग्गा सम्मोदमाना अविवदमाना खीरोदकीभूता अञ्ञमञ्ञं पियचक्खूहि सम्पस्सन्ता विहरिस्सन्ति’’.

९०. ‘‘पञ्च खो इमे, आनन्द, कामगुणा. कतमे पञ्च? चक्खुविञ्ञेय्या रूपा इट्ठा कन्ता मनापा पियरूपा कामूपसंहिता रजनीया, सोतविञ्ञेय्या सद्दा…पे… घानविञ्ञेय्या गन्धा…पे… जिव्हाविञ्ञेय्या रसा…पे… कायविञ्ञेय्या फोट्ठब्बा इट्ठा कन्ता मनापा पियरूपा कामूपसंहिता रजनीया – इमे खो, आनन्द, पञ्च कामगुणा. यं खो, आनन्द, इमे पञ्च कामगुणे पटिच्च उप्पज्जति सुखं सोमनस्सं इदं वुच्चति कामसुखं.

‘‘यो खो, आनन्द, एवं वदेय्य – ‘एतपरमं सत्ता सुखं सोमनस्सं पटिसंवेदेन्ती’ति, इदमस्स नानुजानामि. तं किस्स हेतु? अत्थानन्द, एतम्हा सुखा अञ्ञं सुखं अभिक्कन्ततरञ्च पणीततरञ्च. कतमञ्चानन्द, एतम्हा सुखा अञ्ञं सुखं अभिक्कन्ततरञ्च पणीततरञ्च? इधानन्द, भिक्खु विविच्चेव कामेहि विविच्च अकुसलेहि धम्मेहि सवितक्कं सविचारं विवेकजं पीतिसुखं पठमं झानं उपसम्पज्ज विहरति . इदं खो, आनन्द, एतम्हा सुखा अञ्ञं सुखं अभिक्कन्ततरञ्च पणीततरञ्च.

‘‘यो खो, आनन्द, एवं वदेय्य – ‘एतपरमं सत्ता सुखं सोमनस्सं पटिसंवेदेन्ती’ति, इदमस्स नानुजानामि. तं किस्स हेतु? अत्थानन्द, एतम्हा सुखा अञ्ञं सुखं अभिक्कन्ततरञ्च पणीततरञ्च. कतमञ्चानन्द, एतम्हा सुखा अञ्ञं सुखं अभिक्कन्ततरञ्च पणीततरञ्च? इधानन्द, भिक्खु वितक्कविचारानं वूपसमा…पे… दुतियं झानं उपसम्पज्ज विहरति. इदं खो, आनन्द, एतम्हा सुखा अञ्ञं सुखं अभिक्कन्ततरञ्च पणीततरञ्च.

‘‘यो खो, आनन्द, एवं वदेय्य…पे…. कतमञ्चानन्द, एतम्हा सुखा अञ्ञं सुखं अभिक्कन्ततरञ्च पणीततरञ्च? इधानन्द, भिक्खु पीतिया च विरागा…पे… ततियं झानं उपसम्पज्ज विहरति. इदं खो, आनन्द, एतम्हा सुखा अञ्ञं सुखं अभिक्कन्ततरञ्च पणीततरञ्च.

‘‘यो खो, आनन्द, एवं वदेय्य…पे…. कतमञ्चानन्द, एतम्हा सुखा अञ्ञं सुखं अभिक्कन्ततरञ्च पणीततरञ्च? इधानन्द, भिक्खु सुखस्स च पहाना…पे… चतुत्थं झानं उपसम्पज्ज विहरति. इदं खो, आनन्द, एतम्हा सुखा अञ्ञं सुखं अभिक्कन्ततरञ्च पणीततरञ्च.

‘‘यो खो, आनन्द, एवं वदेय्य…पे…. कतमञ्चानन्द, एतम्हा सुखा अञ्ञं सुखं अभिक्कन्ततरञ्च पणीततरञ्च ? इधानन्द, भिक्खु सब्बसो रूपसञ्ञानं समतिक्कमा, पटिघसञ्ञानं अत्थङ्गमा, नानत्तसञ्ञानं अमनसिकारा ‘अनन्तो आकासो’ति आकासानञ्चायतनं उपसम्पज्ज विहरति. इदं खो, आनन्द, एतम्हा सुखा अञ्ञं सुखं अभिक्कन्ततरञ्च पणीततरञ्च.

‘‘यो खो, आनन्द, एवं वदेय्य…पे…. कतमञ्चानन्द, एतम्हा सुखा अञ्ञं सुखं अभिक्कन्ततरञ्च पणीततरञ्च? इधानन्द, भिक्खु सब्बसो आकासानञ्चायतनं समतिक्कम्म ‘अनन्तं विञ्ञाण’न्ति विञ्ञाणञ्चायतनं उपसम्पज्ज विहरति. इदं खो, आनन्द, एतम्हा सुखा अञ्ञं सुखं अभिक्कन्ततरञ्च पणीततरञ्च.

‘‘यो खो, आनन्द, एवं वदेय्य…पे…. कतमञ्चानन्द, एतम्हा सुखा अञ्ञं सुखं अभिक्कन्ततरञ्च पणीततरञ्च? इधानन्द, भिक्खु सब्बसो विञ्ञाणञ्चायतनं समतिक्कम्म ‘नत्थि किञ्ची’ति आकिञ्चञ्ञायतनं उपसम्पज्ज विहरति. इदं खो, आनन्द, एतम्हा सुखा अञ्ञं सुखं अभिक्कन्ततरञ्च पणीततरञ्च.

‘‘यो खो, आनन्द, एवं वदेय्य…पे…. कतमञ्चानन्द, एतम्हा सुखा अञ्ञं सुखं अभिक्कन्ततरञ्च पणीततरञ्च? इधानन्द, भिक्खु सब्बसो आकिञ्चञ्ञायतनं समतिक्कम्म नेवसञ्ञानासञ्ञायतनं उपसम्पज्ज विहरति. इदं खो, आनन्द, एतम्हा सुखा अञ्ञं सुखं अभिक्कन्ततरञ्च पणीततरञ्च.

‘‘यो खो, आनन्द, एवं वदेय्य – ‘एतपरमं सत्ता सुखं सोमनस्सं पटिसंवेदेन्ती’ति, इदमस्स नानुजानामि. तं किस्स हेतु? अत्थानन्द, एतम्हा सुखा अञ्ञं सुखं अभिक्कन्ततरञ्च पणीततरञ्च. कतमञ्चानन्द, एतम्हा सुखा अञ्ञं सुखं अभिक्कन्ततरञ्च पणीततरञ्च? इधानन्द, भिक्खु सब्बसो नेवसञ्ञानासञ्ञायतनं समतिक्कम्म सञ्ञावेदयितनिरोधं उपसम्पज्ज विहरति. इदं खो, आनन्द, एतम्हा सुखा अञ्ञं सुखं अभिक्कन्ततरञ्च पणीततरञ्च.

९१. ‘‘ठानं खो पनेतं, आनन्द, विज्जति यं अञ्ञतित्थिया परिब्बाजका एवं वदेय्युं – ‘सञ्ञावेदयितनिरोधं समणो गोतमो आह; तञ्च सुखस्मिं पञ्ञपेति. तयिदं किंसु, तयिदं कथंसू’ति? एवंवादिनो, आनन्द, अञ्ञतित्थिया परिब्बाजका एवमस्सु वचनीया – ‘न खो, आवुसो, भगवा सुखंयेव वेदनं सन्धाय सुखस्मिं पञ्ञपेति; अपि च, आवुसो, यत्थ यत्थ सुखं उपलब्भति यहिं यहिं तं तं तथागतो सुखस्मिं पञ्ञपेती’’’ति.

इदमवोच भगवा. अत्तमनो आयस्मा आनन्दो भगवतो भासितं अभिनन्दीति.

बहुवेदनीयसुत्तं निट्ठितं नवमं.