नमो तस्स भगवतो अरहतो सम्मा-सम्बुद्धस्स

📜 आकांक्षा पूर्णता

✦ ॥ नमो तस्स भगवतो अरहतो सम्मासम्बुद्धस्स ॥ ✦

Hindi

ऐसा मैंने सुना — एक समय भगवान श्रावस्ती में अनाथपिण्डक के जेतवन उद्यान में विहार कर रहे थे। वहाँ भगवान ने भिक्षुओं से कहा, “भिक्षुओं!"

“भदंत”, भिक्षुओं ने भगवान को उत्तर दिया। भगवान ने कहा —

“शील-संपन्न होकर, पातिमोक्ष-संपन्न होकर विहार करों, भिक्षुओं। पातिमोक्ष के अनुसार संयम में प्रतिष्ठित हों। आर्य आचरण और जीवनशैली से युक्त हों। अल्प पाप में भी दोष देखों। और [धर्म-विनय के] शिक्षापदों को सीख कर धारण करों।

भिक्षुओं, जिस भिक्षु की आकांक्षा हो — “मैं सब्रह्मचारियों के लिए प्रिय और पसंदीदा रहूँ, आदरणीय और सम्माननीय रहूँ” — तो वे शील परिपूर्ण करें, भीतर चित्त की निश्चलता (“समथ” =शान्त+एकाग्र) के प्रति संकल्पित रहें, ध्यान-अवस्थाओं (“झान”) को नजरंदाज न करें, अंतर्दृष्टि (“विपस्सना”) से संपन्न हों, और निर्जन ध्यानस्थलों (“शून्यागार”) में जाते रहें।

आगे, जिस भिक्षु की आकांक्षा हो — “मुझे चीवर, भिक्षान्न, आवास, और रोगावश्यक औषधि व भैषज्य का लाभ मिलते रहें” — तो वे शील परिपूर्ण करें, भीतर चित्त की निश्चलता के प्रति संकल्पित रहें, ध्यान-अवस्थाओं को नजरंदाज न करें, अंतर्दृष्टि से संपन्न हों, और निर्जन ध्यानस्थलों में जाते रहें।

आगे, जिस भिक्षु की आकांक्षा हो — “मैं जिस चीवर, भिक्षान्न, आवास, और रोगावश्यक औषधि व भैषज्य का उपभोग करूँ, उसे देने वालों को महाफल और महापुरस्कार मिलें” — तो वे शील परिपूर्ण करें, भीतर चित्त की निश्चलता के प्रति संकल्पित रहें, ध्यान-अवस्थाओं को नजरंदाज न करें, अंतर्दृष्टि से संपन्न हों, और निर्जन ध्यानस्थलों में जाते रहें।

आगे, जिस भिक्षु की आकांक्षा हो — “जो मर चुके पारिवारिक लोग और रिश्तेदार आस्थापूर्ण चित्त से मेरा अनुस्मरण करें, उन्हें महाफल और महापुरस्कार मिलें” — तो वे शील परिपूर्ण करें, भीतर चित्त की निश्चलता के प्रति संकल्पित रहें, ध्यान-अवस्थाओं को नजरंदाज न करें, अंतर्दृष्टि से संपन्न हों, और निर्जन ध्यानस्थलों में जाते रहें।

आगे, जिस भिक्षु की आकांक्षा हो — “मैं लालसा और नाखुशी पर विजय प्राप्त करूँ। कहीं लालसा और नाखुशी मुझे हरा न दें। मैं उत्पन्न लालसा और नाखुशी को बार-बार वशीभूत करते रहूँ” — तो वे शील परिपूर्ण करें, भीतर चित्त की निश्चलता के प्रति संकल्पित रहें, ध्यान-अवस्थाओं को नजरंदाज न करें, अंतर्दृष्टि से संपन्न हों, और निर्जन ध्यानस्थलों में जाते रहें।

आगे, जिस भिक्षु की आकांक्षा हो — “मैं भय और आतंक पर विजय प्राप्त करूँ। कहीं भय और आतंक मुझे हरा न दें। मैं उत्पन्न भय और आतंक को बार-बार वशीभूत करते रहूँ” — तो वे शील परिपूर्ण करें, भीतर चित्त की निश्चलता के प्रति संकल्पित रहें, ध्यान-अवस्थाओं को नजरंदाज न करें, अंतर्दृष्टि से संपन्न हों, और निर्जन ध्यानस्थलों में जाते रहें।

आगे, जिस भिक्षु की आकांक्षा हो — “मैं अभी इसी जीवन में सुखविहार वाली चित्त की ऊँची अवस्थाओं, जैसे चार ध्यान-स्तरों को जब चाहूँ, बिना परेशानी या कठिनाई के प्राप्त करते रहूँ” — तो वे शील परिपूर्ण करें, भीतर चित्त की निश्चलता के प्रति संकल्पित रहें, ध्यान-अवस्थाओं को नजरंदाज न करें, अंतर्दृष्टि से संपन्न हों, और निर्जन ध्यानस्थलों में जाते रहें।

आगे, जिस भिक्षु की आकांक्षा हो — “मैं रूपता को लाँघ कर शान्त विमोक्षपूर्ण अरूप अवस्थाओं को अपनी काया से छूकर विहार करते रहूँ” — तो वे शील परिपूर्ण करें, भीतर चित्त की निश्चलता के प्रति संकल्पित रहें, ध्यान-अवस्थाओं को नजरंदाज न करें, अंतर्दृष्टि से संपन्न हों, और निर्जन ध्यानस्थलों में जाते रहें।

आगे, जिस भिक्षु की आकांक्षा हो — “मैं तीन बंधनों (“संयोजन”) को तोड़ कर श्रोतापन्न बनूँ — अ-पतन स्वभाव का, निश्चित संबोधि की ओर अग्रसर।” — तो वे शील परिपूर्ण करें, भीतर चित्त की निश्चलता के प्रति संकल्पित रहें, ध्यान-अवस्थाओं को नजरंदाज न करें, अंतर्दृष्टि से संपन्न हों, और निर्जन ध्यानस्थलों में जाते रहें।

आगे, जिस भिक्षु की आकांक्षा हो — “मैं तीन बंधनों को तोड़कर, राग-द्वेष-मोह को दुर्बल कर सकृदागामी बनूँ, जो इस लोक में दुबारा लौटकर अपने दुःखों का अन्त करता है” — तो वे शील परिपूर्ण करें, भीतर चित्त की निश्चलता के प्रति संकल्पित रहें, ध्यान-अवस्थाओं को नजरंदाज न करें, अंतर्दृष्टि से संपन्न हों, और निर्जन ध्यानस्थलों में जाते रहें।

आगे, जिस भिक्षु की आकांक्षा हो — “मैं निचले पाँच बंधनों को तोड़कर (शुद्धवास ब्रह्मलोक में) स्वप्रकट होऊँ, वही परिनिर्वाण प्राप्त करूँ, अब इस लोक में न लौटूँ (=अनागामी अवस्था)” — तो वे शील परिपूर्ण करें, भीतर चित्त की निश्चलता के प्रति संकल्पित रहें, ध्यान-अवस्थाओं को नजरंदाज न करें, अंतर्दृष्टि से संपन्न हों, और निर्जन ध्यानस्थलों में जाते रहें।

आगे, जिस भिक्षु की आकांक्षा हो — “मैं विविध ऋद्धियों का उपयोग करू पाऊँ — एक होकर अनेक बनूँ, अनेक होकर एक बनूँ। प्रकट होऊँ, विलुप्त होऊँ। दीवार, रक्षार्थ-दीवार और पर्वतों से बिना टकराए आर-पार चला जाऊँ, मानो आकाश में हो। ज़मीन पर गोते लगाऊँ, मानो जल में हो। जल-सतह पर बिना डूबे चलूँ, मानो ज़मीन पर हो। पालथी मारकर आकाश में उड़ूँ, मानो पक्षी हो। महातेजस्वी सूर्य और चाँद को भी अपने हाथ से छूऊँ और मलूँ। अपनी काया से ब्रह्मलोक तक को वश कर लूँ” — तो वे शील परिपूर्ण करें, भीतर चित्त की निश्चलता के प्रति संकल्पित रहें, ध्यान-अवस्थाओं को नजरंदाज न करें, अंतर्दृष्टि से संपन्न हों, और निर्जन ध्यानस्थलों में जाते रहें।

आगे, जिस भिक्षु की आकांक्षा हो — “मैं अपने विशुद्ध हो चुके अलौकिक दिव्यश्रोत-धातु से दोनों तरह की आवाज़ें सुन लूँ — चाहे दिव्य हो या मानवी, दूर की हो या पास की” — तो वे शील परिपूर्ण करें, भीतर चित्त की निश्चलता के प्रति संकल्पित रहें, ध्यान-अवस्थाओं को नजरंदाज न करें, अंतर्दृष्टि से संपन्न हों, और निर्जन ध्यानस्थलों में जाते रहें।

आगे, जिस भिक्षु की आकांक्षा हो — “मैं अपना मानस फैलाकर पराए सत्वों का, अन्य लोगों का मानस जान लूँ। मुझे रागपूर्ण चित्त पता चलें कि ‘रागपूर्ण चित्त है।’ वीतराग चित्त पता चलें कि ‘वीतराग चित्त है।’ द्वेषपूर्ण चित्त पता चलें कि ‘द्वेषपूर्ण चित्त है।’ द्वेषविहीन चित्त पता चलें कि ‘द्वेषविहीन चित्त है।’ मोहपूर्ण चित्त पता चलें कि ‘मोहपूर्ण चित्त है।’ मोहविहीन चित्त पता चलें कि ‘मोहविहीन चित्त है।’ संकुचित चित्त पता चलें कि ‘संकुचित चित्त है।’ बिखरा चित्त पता चलें कि ‘बिखरा चित्त है।’ बढ़ा हुआ चित्त पता चलें कि ‘बढ़ा हुआ चित्त है।’ न बढ़ा चित्त पता चलें कि ‘न बढ़ा चित्त है।’ बेहतर चित्त पता चलें कि ‘बेहतर चित्त है।’ सर्वोत्तर चित्त पता चलें कि ‘सर्वोत्तर चित्त है।’ समाहित चित्त पता चलें कि ‘समाहित चित्त है।’ असमाहित चित्त पता चलें कि ‘असमाहित चित्त है।’ विमुक्त चित्त पता चलें कि ‘विमुक्त चित्त है।’ अविमुक्त चित्त पता चलें कि ‘अविमुक्त चित्त है।’” — तो वे शील परिपूर्ण करें, भीतर चित्त की निश्चलता के प्रति संकल्पित रहें, ध्यान-अवस्थाओं को नजरंदाज न करें, अंतर्दृष्टि से संपन्न हों, और निर्जन ध्यानस्थलों में जाते रहें।

आगे, जिस भिक्षु की आकांक्षा हो — “मुझे अपने विविध प्रकार के पूर्वजन्म स्मरण हों — जैसे एक जन्म, दो जन्म, तीन जन्म, चार, पाँच, दस जन्म, बीस, तीस, चालीस, पचास जन्म, सौ जन्म, हज़ार जन्म, लाख जन्म, कई कल्पों का लोक-संवर्त (=ब्रह्मांडिय सिकुड़न), कई कल्पों का लोक-विवर्त (=ब्रह्मांडिय विस्तार), कई कल्पों का संवर्त-विवर्त — ‘वहाँ मेरा ऐसा नाम था, ऐसा गोत्र था, ऐसा दिखता था। ऐसा भोज था, ऐसा सुख-दुःख महसूस हुआ, ऐसा जीवन अंत हुआ। उस लोक से च्युत होकर मैं वहाँ उत्पन्न हुआ। वहाँ मेरा वैसा नाम था, वैसा गोत्र था, वैसा दिखता था। वैसा भोज था, वैसा सुख-दुःख महसूस हुआ, वैसे जीवन अंत हुआ। उस लोक से च्युत होकर मैं यहाँ उत्पन्न हुआ।’ इस तरह मैं अपने विविध प्रकार के पूर्वजन्म शैली एवं विवरण के साथ स्मरण करूँ” — तो वे शील परिपूर्ण करें, भीतर चित्त की निश्चलता के प्रति संकल्पित रहें, ध्यान-अवस्थाओं को नजरंदाज न करें, अंतर्दृष्टि से संपन्न हों, और निर्जन ध्यानस्थलों में जाते रहें।

आगे, जिस भिक्षु की आकांक्षा हो — “मुझे अपने विशुद्ध हुए अलौकिक दिव्यचक्षु से अन्य सत्वों की मौत और पुनर्जन्म होते हुए दिखें। और मुझे पता चलें कि कर्मानुसार ही वे कैसे हीन अथवा उच्च हैं, सुंदर अथवा कुरूप हैं, सद्गति होते अथवा दुर्गति होते हैं। कैसे ये सत्व — काया दुराचार में संपन्न, वाणी दुराचार में संपन्न, एवं मन दुराचार में संपन्न, जिन्होंने आर्यजनों का अनादर किया, मिथ्यादृष्टि धारण की, और मिथ्यादृष्टि के प्रभाव में दुष्कृत्य किए — वे मरणोपरांत काया छूटने पर दुर्गति होकर यातनालोक नर्क में उपजे।’ किन्तु कैसे ये सत्व — काया सदाचार में संपन्न, वाणी सदाचार में संपन्न, एवं मन सदाचार में संपन्न, जिन्होंने आर्यजनों का अनादर नहीं किया, सम्यकदृष्टि धारण की, और सम्यकदृष्टि के प्रभाव में सुकृत्य किए — वे मरणोपरांत सद्गति होकर स्वर्ग में उपजे। इस तरह, मैं अपने विशुद्ध हुए अलौकिक दिव्यचक्षु से अन्य सत्वों की मौत और पुनर्जन्म होते हुए देखूँ” — तो वे शील परिपूर्ण करें, भीतर चित्त की निश्चलता के प्रति संकल्पित रहें, ध्यान-अवस्थाओं को नजरंदाज न करें, अंतर्दृष्टि से संपन्न हों, और निर्जन ध्यानस्थलों में जाते रहें।

आगे, जिस भिक्षु की आकांक्षा हो — “मैं आस्रवों के क्षय होने से अनास्रव होकर, इसी जीवन में चेतोविमुक्ति और प्रज्ञाविमुक्ति प्राप्त कर, [अर्हत्व] प्रत्यक्ष-ज्ञान का साक्षात्कार कर रहूँ” — तो वे शील परिपूर्ण करें, भीतर चित्त की निश्चलता के प्रति संकल्पित रहें, ध्यान-अवस्थाओं को नजरंदाज न करें, अंतर्दृष्टि से संपन्न हों, और निर्जन ध्यानस्थलों में जाते रहें।

शील-संपन्न होकर, पातिमोक्ष-संपन्न होकर विहार करों, भिक्षुओं। पातिमोक्ष के अनुसार संयम में प्रतिष्ठित हों। आर्य आचरण और जीवनशैली से युक्त हों। अल्प पाप में भी दोष देखों। और शिक्षापदों को सीख कर धारण करों।"

भगवान ने ऐसा कहा। हर्षित होकर भिक्षुओं ने भगवान की बात का अभिनंदन किया।

सुत्र समाप्त।

Pali

६४. एवं मे सुतं – एकं समयं भगवा सावत्थियं विहरति जेतवने अनाथपिण्डिकस्स आरामे। तत्र खो भगवा भिक्खू आमन्तेसि – ‘‘भिक्खवो’’ति। ‘‘भदन्ते’’ति ते भिक्खू भगवतो पच्‍चस्सोसुं। भगवा एतदवोच –

‘‘सम्पन्‍नसीला, भिक्खवे, विहरथ सम्पन्‍नपातिमोक्खा; पातिमोक्खसंवरसंवुता विहरथ आचारगोचरसम्पन्‍ना अणुमत्तेसु वज्‍जेसु भयदस्साविनो; समादाय सिक्खथ सिक्खापदेसु।

६५. ‘‘आकङ्खेय्य चे, भिक्खवे, भिक्खु – ‘सब्रह्मचारीनं पियो च अस्सं मनापो च गरु च भावनीयो चा’ति मनापो गरुभावनियो चाति (सी॰), सीलेस्वेवस्स परिपूरकारी अज्झत्तं चेतोसमथमनुयुत्तो अनिराकतज्झानो विपस्सनाय समन्‍नागतो ब्रूहेता सुञ्‍ञागारानं।

‘‘आकङ्खेय्य चे, भिक्खवे, भिक्खु – ‘लाभी अस्सं चीवरपिण्डपातसेनासनगिलानप्पच्‍चयभेसज्‍जपरिक्खारान’न्ति, सीलेस्वेवस्स परिपूरकारी अज्झत्तं चेतोसमथमनुयुत्तो अनिराकतज्झानो विपस्सनाय समन्‍नागतो ब्रूहेता सुञ्‍ञागारानं।

‘‘आकङ्खेय्य चे, भिक्खवे, भिक्खु – ‘येसाहं चीवरपिण्डपातसेनासन गिलानप्पच्‍चयभेसज्‍जपरिक्खारं परिभुञ्‍जामि तेसं ते कारा महप्फला अस्सु महानिसंसा’ति, सीलेस्वेवस्स परिपूरकारी अज्झत्तं चेतोसमथमनुयुत्तो अनिराकतज्झानो विपस्सनाय समन्‍नागतो ब्रूहेता सुञ्‍ञागारानं।

‘‘आकङ्खेय्य चे, भिक्खवे, भिक्खु – ‘ये मं ये मे (सी॰ स्या॰) ञाती सालोहिता पेता कालङ्कता कालकता (सी॰ स्या॰ पी॰) पसन्‍नचित्ता अनुस्सरन्ति तेसं तं महप्फलं अस्स महानिसंस’न्ति, सीलेस्वेवस्स परिपूरकारी अज्झत्तं चेतोसमथमनुयुत्तो अनिराकतज्झानो विपस्सनाय समन्‍नागतो ब्रूहेता सुञ्‍ञागारानं।

६६. ‘‘आकङ्खेय्य चे, भिक्खवे, भिक्खु – ‘अरतिरतिसहो अस्सं, न च मं अरति सहेय्य, उप्पन्‍नं अरतिं अभिभुय्य अभिभुय्य विहरेय्य’न्ति, सीलेस्वेवस्स परिपूरकारी…पे॰… ब्रूहेता सुञ्‍ञागारानं।

‘‘आकङ्खेय्य चे, भिक्खवे, भिक्खु – ‘भयभेरवसहो अस्सं, न च मं भयभेरवं सहेय्य, उप्पन्‍नं भयभेरवं अभिभुय्य अभिभुय्य विहरेय्य’न्ति, सीलेस्वेवस्स परिपूरकारी…पे॰… ब्रूहेता सुञ्‍ञागारानं।

‘‘आकङ्खेय्य चे, भिक्खवे, भिक्खु – ‘चतुन्‍नं झानानं आभिचेतसिकानं दिट्ठधम्मसुखविहारानं निकामलाभी अस्सं अकिच्छलाभी अकसिरलाभी’ति, सीलेस्वेवस्स परिपूरकारी…पे॰… ब्रूहेता सुञ्‍ञागारानं।

‘‘आकङ्खेय्य चे, भिक्खवे, भिक्खु – ‘ये ते सन्ता विमोक्खा अतिक्‍कम्म रूपे आरुप्पा, ते कायेन फुसित्वा विहरेय्य’न्ति, सीलेस्वेवस्स परिपूरकारी…पे॰… ब्रूहेता सुञ्‍ञागारानं।

६७. ‘‘आकङ्खेय्य चे, भिक्खवे, भिक्खु – ‘तिण्णं संयोजनानं परिक्खया सोतापन्‍नो अस्सं अविनिपातधम्मो नियतो सम्बोधिपरायणो’ति, सीलेस्वेवस्स परिपूरकारी…पे॰… ब्रूहेता सुञ्‍ञागारानं।

‘‘आकङ्खेय्य चे, भिक्खवे, भिक्खु – ‘तिण्णं संयोजनानं परिक्खया रागदोसमोहानं तनुत्ता सकदागामी अस्सं सकिदेव इमं लोकं आगन्त्वा दुक्खस्सन्तं करेय्य’न्ति, सीलेस्वेवस्स परिपूरकारी…पे॰… ब्रूहेता सुञ्‍ञागारानं।

‘‘आकङ्खेय्य चे, भिक्खवे, भिक्खु – ‘पञ्‍चन्‍नं ओरम्भागियानं संयोजनानं परिक्खया ओपपातिको अस्सं तत्थ परिनिब्बायी अनावत्तिधम्मो तस्मा लोका’ति, सीलेस्वेवस्स परिपूरकारी…पे॰… ब्रूहेता सुञ्‍ञागारानं।

६८. ‘‘आकङ्खेय्य चे, भिक्खवे, भिक्खु – ‘अनेकविहितं इद्धिविधं पच्‍चनुभवेय्यं – एकोपि हुत्वा बहुधा अस्सं, बहुधापि हुत्वा एको अस्सं; आविभावं तिरोभावं; तिरोकुट्टं तिरोपाकारं तिरोपब्बतं असज्‍जमानो गच्छेय्यं, सेय्यथापि आकासे; पथवियापि उम्मुज्‍जनिमुज्‍जं करेय्यं, सेय्यथापि उदके; उदकेपि अभिज्‍जमाने गच्छेय्यं, सेय्यथापि पथवियं; आकासेपि पल्‍लङ्केन कमेय्यं, सेय्यथापि पक्खी सकुणो; इमेपि चन्दिमसूरिये एवंमहिद्धिके एवंमहानुभावे पाणिना परामसेय्यं परिमज्‍जेय्यं; याव ब्रह्मलोकापि कायेन वसं वत्तेय्य’न्ति, सीलेस्वेवस्स परिपूरकारी…पे॰… ब्रूहेता सुञ्‍ञागारानं।

‘‘आकङ्खेय्य चे, भिक्खवे, भिक्खु – ‘दिब्बाय सोतधातुया विसुद्धाय अतिक्‍कन्तमानुसिकाय उभो सद्दे सुणेय्यं – दिब्बे च मानुसे च ये दूरे सन्तिके चा’ति, सीलेस्वेवस्स परिपूरकारी…पे॰… ब्रूहेता सुञ्‍ञागारानं।

‘‘आकङ्खेय्य चे, भिक्खवे, भिक्खु – ‘परसत्तानं परपुग्गलानं चेतसा चेतो परिच्‍च पजानेय्यं – सरागं वा चित्तं सरागं चित्तन्ति पजानेय्यं, वीतरागं वा चित्तं वीतरागं चित्तन्ति पजानेय्यं; सदोसं वा चित्तं सदोसं चित्तन्ति पजानेय्यं, वीतदोसं वा चित्तं वीतदोसं चित्तन्ति पजानेय्यं; समोहं वा चित्तं समोहं चित्तन्ति पजानेय्यं, वीतमोहं वा चित्तं वीतमोहं चित्तन्ति पजानेय्यं; संखित्तं वा चित्तं संखित्तं चित्तन्ति पजानेय्यं, विक्खित्तं वा चित्तं विक्खित्तं चित्तन्ति पजानेय्यं; महग्गतं वा चित्तं महग्गतं चित्तन्ति पजानेय्यं, अमहग्गतं वा चित्तं अमहग्गतं चित्तन्ति पजानेय्यं; सउत्तरं वा चित्तं सउत्तरं चित्तन्ति पजानेय्यं, अनुत्तरं वा चित्तं अनुत्तरं चित्तन्ति पजानेय्यं; समाहितं वा चित्तं समाहितं चित्तन्ति पजानेय्यं, असमाहितं वा चित्तं असमाहितं चित्तन्ति पजानेय्यं; विमुत्तं वा चित्तं विमुत्तं चित्तन्ति पजानेय्यं, अविमुत्तं वा चित्तं अविमुत्तं चित्तन्ति पजानेय्य’न्ति, सीलेस्वेवस्स परिपूरकारी…पे॰… ब्रूहेता सुञ्‍ञागारानं।

‘‘आकङ्खेय्य चे, भिक्खवे, भिक्खु – ‘अनेकविहितं पुब्बेनिवासं अनुस्सरेय्यं, सेय्यथिदं – एकम्पि जातिं द्वेपि जातियो तिस्सोपि जातियो चतस्सोपि जातियो पञ्‍चपि जातियो दसपि जातियो वीसम्पि जातियो तिंसम्पि जातियो चत्तालीसम्पि जातियो पञ्‍ञासम्पि जातियो जातिसतम्पि जातिसहस्सम्पि जाति सतसहस्सम्पि अनेकेपि संवट्टकप्पे अनेकेपि विवट्टकप्पे अनेकेपि संवट्टविवट्टकप्पे – अमुत्रासिं एवंनामो एवंगोत्तो एवंवण्णो एवमाहारो एवंसुखदुक्खप्पटिसंवेदी एवमायुपरियन्तो, सो ततो चुतो अमुत्र उदपादिं; तत्रापासिं एवंनामो एवंगोत्तो एवंवण्णो एवमाहारो एवंसुखदुक्खप्पटिसंवेदी एवमायुपरियन्तो, सो ततो चुतो इधूपपन्‍नोति। इति साकारं सउद्देसं अनेकविहितं पुब्बेनिवासं अनुस्सरेय्य’न्ति, सीलेस्वेवस्स परिपूरकारी…पे॰… ब्रूहेता सुञ्‍ञागारानं।

‘‘आकङ्खेय्य चे, भिक्खवे, भिक्खु – ‘दिब्बेन चक्खुना विसुद्धेन अतिक्‍कन्तमानुसकेन सत्ते पस्सेय्यं चवमाने उपपज्‍जमाने हीने पणीते सुवण्णे दुब्बण्णे सुगते दुग्गते यथाकम्मूपगे सत्ते पजानेय्यं – इमे वत भोन्तो सत्ता कायदुच्‍चरितेन समन्‍नागता वचीदुच्‍चरितेन समन्‍नागता मनोदुच्‍चरितेन समन्‍नागता अरियानं उपवादका मिच्छादिट्ठिका मिच्छादिट्ठिकम्मसमादाना, ते कायस्स भेदा परं मरणा अपायं दुग्गतिं विनिपातं निरयं उपपन्‍ना; इमे वा पन भोन्तो सत्ता कायसुचरितेन समन्‍नागता वचीसुचरितेन समन्‍नागता मनोसुचरितेन समन्‍नागता अरियानं अनुपवादका सम्मादिट्ठिका सम्मादिट्ठिकम्मसमादाना, ते कायस्स भेदा परं मरणा सुगतिं सग्गं लोकं उपपन्‍नाति, इति दिब्बेन चक्खुना विसुद्धेन अतिक्‍कन्तमानुसकेन सत्ते पस्सेय्यं चवमाने उपपज्‍जमाने हीने पणीते सुवण्णे दुब्बण्णे सुगते दुग्गते यथाकम्मूपगे सत्ते पजानेय्य’न्ति, सीलेस्वेवस्स परिपूरकारी अज्झत्तं चेतोसमथमनुयुत्तो अनिराकतज्झानो विपस्सनाय समन्‍नागतो ब्रूहेता सुञ्‍ञागारानं।

६९. ‘‘आकङ्खेय्य चे, भिक्खवे, भिक्खु – ‘आसवानं खया अनासवं चेतोविमुत्तिं पञ्‍ञाविमुत्तिं दिट्ठेवधम्मे सयं अभिञ्‍ञा सच्छिकत्वा उपसम्पज्‍ज विहरेय्य’न्ति, सीलेस्वेवस्स परिपूरकारी अज्झत्तं चेतोसमथमनुयुत्तो अनिराकतज्झानो विपस्सनाय समन्‍नागतो ब्रूहेता सुञ्‍ञागारानं।

‘‘सम्पन्‍नसीला, भिक्खवे, विहरथ सम्पन्‍नपातिमोक्खा; पातिमोक्खसंवरसंवुता विहरथ आचारगोचरसम्पन्‍ना अणुमत्तेसु वज्‍जेसु भयदस्साविनो; समादाय सिक्खथ सिक्खापदेसू’’ति – इति यं तं वुत्तं इदमेतं पटिच्‍च वुत्त’’न्ति।

इदमवोच भगवा। अत्तमना ते भिक्खू भगवतो भासितं अभिनन्दुन्ति।

आकङ्खेय्यसुत्तं निट्ठितं छट्ठं।